अजय सिंह चार दशकों से कवितायेँ लिख रहे हैं. उनका पहला कविता संग्रह– ‘राष्ट्रपति भवन में सूअर’ इस वर्ष गुलमोहर प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. अजय सिंह गोरख पाण्डेय, पाश, नागार्जुन, आलोक धन्वा, शमशेर बहादुर सिंह आदि की परम्परा के कवि हैं और अपनी कविताओं में वह अपने इन मित्रों को याद भी करते हैं. इधर की हिंदी कविता के लिए अजय सिंह की कविताओं का स्वर और संधान अलहदा लगे तो विस्मय नहीं होना चाहिए. दरअसल यह उस पीढ़ी की सशक्त कविताएँ हैं जो आमूल परिवर्तन के साथ साहित्य और समाज में उपस्थित थीं. इस पीढ़ी के लिए कविता एक सामाजिक कर्म है जो अपने विशिष्ट ऐतिहासिक दौर को अभिव्यक्त करती है, समस्याओं से टकराती है और समस्याओं के समाधान की दिशा की ओर संकेत करती है. इन कविताओं में वर्तमान शिनाख्त है और इसलिए ये कविताएँ समकालीन हैं.
अजय सिंह की कविताएँ
देश प्रेम की कविता उर्फ सारे जहां से अच्छा…
(दिवंगत कवि शमशेर को, उनके 84वें जन्मदिन पर याद करते हुए)
मैं आधा हिंदू हूं
आधा मुसलमान हूं
मैं पूरा हिंदुस्तान हूं
मैं गंगौली का राही मासूम रज़ा हूं
मैं लमही का प्रेमचंद हूं
मैं इकबाल का बागी किसान हूं
मैं शमशेर के गवालियर का मजूर हूं
मैं पटना की शाहिदा हसन हूं
मैं नर्मदा की मेधा पाटकर हूं
मैं शाहबानो हूं
मैं शिवपति और मैकी हूं
मैं वामिक का भूका बंगाल हूं
मैं केदार की बसंती हवा हूं
मैं आलोकधन्वा का गोली दागो पोस्टर हूं
मैं अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास हूं
मैं पूरा हिंदुस्तान हूं
मैं भिवंडी हूं
मैं बंबई का ख़ौफनाक चेहरा हूं
मैं सूरत की लुटी हुई इज्ज़त हूं
मैं भागलपुर बनारस कानपुर भोपाल में
जिंदा जलाया गया मुसलमान हूं
मैं नक्सलबाड़ी हूं
मैं मध्य बिहार का धधकता खेत–खलिहान हूं
मैं नयी पहचान के लिए छटपटाता उत्तर प्रदेश हूं
जो न कायर है न भदेस
मैं नया विहान हूं
मैं पूरा हिंदुस्तान हूं
मैं वो अनगिनत हिंदू औरत हूं
जैसा साल–दर–साल के आंकड़े बताते हैं
जिन्हें फ्रिज टी.वी. स्कूटर चंद ज़ेवरात के लिए
भरी जवानी आग के हवाले कर दिया गया
और कहा गया–
खाना बनाते समय कपड़े में आग लग गयी
मैं वो अनगिनत मुसलमान औरत हूं
जिन्हें तलाक तलाक तलाक कह कर
गर्मी की चिलचिलाती दोपहर
जाड़े की कंपकंपाती रात
घर से बेघर कर दिया गया
और कहा गया–
मेहरून्निसा बदचलन औरत है
जैसे गर्भवती सीता को
अंधेरी रात सुनसान जंगल में
कितनी अजब बात है!
सीता धरती से पैदा हुई
और वापस धरती में समा गयी–
बेइज्ज़त और लांछित होकर–
प्रकृति के नियम को धता बताते हुए
लेकिन आज की सीता फातिमा ज़हरा
धरती की कोख में नहीं लौटेंगी
यह द्वंद्ववाद के खिलाफ है
वे लड़ेंगी
क्योंकि, जैसाकि पाश ने कहा था,
साथी, लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता
मैं बेवा का शबाब हूं
मैं कैथरकला की औरत हूं
मैं राजस्थान की भंवरी बाई हूं
मैं चंदेरी की मलिका बेगम हूं
जिसका दायां पांव काट लिया गया
पर जो अभी भी इच्छा मृग है
चौकड़ी भरने को आतुर– वीरेन की कविता की तरह
मैं भोजपुर का जगदीश मास्टर हूं
मैं जुलूस हूं
साझा हिंदुस्तान के लिए
बराबरी वाले हिंदुस्तान के लिए
इंसाफ वाले हिंदुस्तान के लिए
वो देखो!
जुलूस में जो लाल परचम और
बंद मुट्ठियां लहरा रही हैं
उनमें कितनी हिंदू कितनी मुसलमान
–कौन करे हिसाब?
हिंदुस्तान बनिए की किताब तो नहीं
जुलूस में सर से आंचल
कब कंधे पर गिरा
गेसू बिखरे
आज़ादी की छटा बिखरी
पतली लेकिन सधी आवाज़ में नारा लगा:
‘बलात्कारी को मौत की सज़ा दो!’
कब बुरका उठा
–जैसे बाहर की ओर खिड़की खुली
और उस सांवली सूरत ने नारा लगाया:
‘आज़ादी चाहिए… इंक़लाब चाहिए!’
आज़ादी
स्वतंत्रता
मुक्ति
हिंदू को भी उतनी ही प्यारी है जितनी मुसलमान को
जब ये शब्द रचे जा रहे थे
न जाने कितनी बेडिय़ां टूट रही थीं
न जाने कितने हसीन ख्वाब साकार होने को थे
ख्वाब भी कभी हिंदू या मुसलमान हुए हैं?
मैं वाम वाम वाम दिशा हूं
ओ मायकोवस्की!
ओ शमशेर!
यही है हकीकत हमारे समय की
मैं सथ्यू की फिल्म ‘गर्म हवा’ का आखfरी सीन हूं
मैं लाल किले पर लाल निशान
मांगने वाला हिंदू हूं मुसलमान हूं
मैं पूरा हिंदुस्तान हूं
(लखनऊ: 13 जनवरी 1995)
झिलमिलाती हैं अनंत वासनाएं
(कवि व दोस्त गोरख पांडेय की स्मृति को समर्पित)
अनंत वासनाएं झिलमिलाती हैं
असीम जिजीविषा
वासना की अतृप्त देवी का सम्मोहन दूर-दूर तक
ययाति की चिर तृषा
य’ कौन है
जो आधी शताब्दी के किवाड़ पर
दस्तक देता है
घोड़े की तरह दौड़ते वसंत की टाप
सुनायी देती है दूर जाती हुई
य’ कौन है
जो देर रात लौटता है
और मद्धिम सुर में गुनगुनाता है:
\’जब करूंगा प्रेम
पिघल उठेंगे
युगों के भूधर
उफन उठेंगे
सात सागर’
सुना है
पार्वती जब शिव से प्रेम करती थी
हिमालय हिलने लगता था
बर्फ़ बन गयी नदियां पिघलने लगतीं
हवा कुछ इस तरह चलती
जैसे उर्वशी के कपड़े
उड़ाये लिये जा रही हो
खिंच जाता यहां से वहां तक
सुंदर वितान
वो औरत कई सदियां पार करती
चली आयी
जवानी की चमक धुंधली ज़रूर
पर कशिश थी बरकऱार
जैसे अमृता शेरगिल
दिलेर दिलकश दिलरुबा
उसकी आवाज़ में
कई आवाज़ें
कई शताब्दियां
कई कराह
कई दज़ला फरात मुअनजोदड़ो
कई लुटिएंस ला कार्बुजिए
कई टूटी हुई बिखरी हुई कविताएं
कई गुएर्निका
मिले-जुले थे
तुमने मुझसे कभी प्रेम नहीं किया
तुम हमेशा फरमाइशें करते रहे
तुम मेरे दोस्त न बन सके
ख्वाहिशें अंधेरे में छूटे तीर की तरह
निशाना ढूंढ़ती हैं
आवाज़ें आह्वïन बन जाना चाहती हैं
प्यास गहरी प्यास बन रही है
बंदिशें वर्जनाएं धराशायी हो रही हैं
ओ अनंत वासनाओ!
ओ गहरी प्यास!
ओ दमित आकांक्षा!
धूल-भरे अंधड़ की तरह उठो
ओ शताब्दियों की कराह!
ताबूत से बाहर निकलो और सजीव आलिंगन बन जाओ
ओ सम्मोहन!
दोस्ती की कोई नयी धुन तो बनाओ
(‘उत्तर प्रदेश\’ लखनऊ: मई 1997)
कोई मुझसे पूछे
कोई मुझसे पूछे
वह तुम्हारे लिए क्या है
मैं कहूंगा: वह मेरी मुक्ति है
आज़ादी की तमन्ना
खुली हवा
कभी उन्मुक्त झरना कभी दहकती चट्टान
कभी प्यास कभी तृप्ति
कभी मृग मरीचिका कभी रसीले चुंबन
कभी अथाह यातना कभी अपार सुख
कभी पर पीड़ा कभी अनंत इंतज़ार
बन कर वह मुझसे लिपट जाती है
मैं उसकी देह के सुनहरे जंगल
में बार-बार गुम होता हुआ
लौटता हूं सुरक्षित
नये जीवन की ओर
वह ऐसे मिलती है
जैसे धान के खेत की बगल में
अड़हुल का फूल अचानक दिखे
अपनी मोहक सुंदरता
से बेपरवाह
हवा में धीरे-धीरे हिलता हुआ
और खुशी के मारे आप चिल्ला उठें
और उसकी ओर लपकें
अरे, तुम यहां!
मुझे उस पर भरोसा है
जैसे तीसरी दुनिया के सर्वहारा
और प्रगतिशील निम्र-पूंजीवादी बुद्धिजीवी
को
मार्क्स और माओ पर
(लखनऊ: 2001)
30 मार्च 2013 शनिवार शाम 4 बजे
यह दिन किसी और दिन
जैसा ही था
वे दोनों एक राजनीतिक रैली
से लौट रहे थे
रैली औरतों पर बढ़ रही
हिंसा के खिलाफ आयोजित की गयी थी
औरतों के बारे में असंवेदनशील रवैया अपनाने के विरोध में
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत के पुतले फूंके गये
लड़की ने अपने भाषण
में कहा मेरी स्कर्ट से ऊंची
मेरी आवाज़ है जिससे पितृसत्ता डरती है
उसका दोस्त पोस्टर
लिये हुए था, जिस पर गोरख पांडेय
की कविता पंक्ति लिखी थी:
\’सड़कों पर लड़ाई में अब तुम्हारे
शामिल होने के दिन आ गये हैं’
रैली के बाद लड़की ने अपने
दोस्त से कहा चलो मैं तुम्हारे घर
तुम्हें ड्रॉप कर देती हूं
लड़की मोटर साइकिल चला रही थी
उसका दोस्त पीछे की सीट पर बैठा था
यह सुहाना दृश्य था
घर पहुंचकर उसके दोस्त ने कहा
चाय पीकर जाना
घर पर ताला लगा था जिसे उसका
दोस्त खोल रहा था
लड़की ने पूछा तुम अकेले रहते हो?
दोस्त ने कहा फिलहाल
ताला खोलकर उसने कहा आओ
लड़की असमंजस में बाहर खड़ी रही
दोस्त ने पूछा डर रही हो?
लड़की ने कहा नहीं डरने की क्या बात है,
और वह दोस्त के साथ अंदर कमरे में चली आयी
कमरे में आते ही उसकी घबराहट शुरू हो गयी
कभी वह कुर्सी पर बैठती कभी टेबुल की टेक लगाकर खड़ी हो जाती
कभी सोफे पर बैठ जाती कभी चहलक़दमी करने लगती
कभी अपने कुर्ते की जेब में हाथ डालती
फिर निकाल लेती
दोस्त मुस्करा रहा था
उसने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद करना चाहा
तो लड़की चीख पड़ी दरवाज़ा खुला रहने दो
मुझे डर लग रहा है
दोस्त के लगातार मुस्कराते रहने पर
उसने चिढ़कर कहा घबराहट के मारे मेरी जान
निकल रही है और तुम हंस रहे हो!
मैं कभी इस तरह अकेली किसी मर्द
के साथ उसके कमरे में नहीं गयी जहां और कोई न हो
पंखा थोड़ा तेज़ करो
पंखा तेज़ चल रहा था लेकिन
पसीना था कि लड़की को बराबर
अपनी गिरफ्त में लिये जा रहा था
दोस्त ने कहा अगर तुम्हें बलात्कार की आशंका हो
तो तुम अपने घर जा सकती हो नो प्रॉब्लम हम कल कॉफ़ी हाउस में मिल लेंगे
लड़की ने कहा पहले तुम चाय बनाओ फटाफट
दोस्त ने कहा चाय बनाना एक कला है उसके लिए थोड़ा धैर्य और समय चाहिए
यह कहकर उसने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया
लड़की ने बंद दरवाज़े को देखा दोस्त के हाथों
को देखा उसके चेहरे के भाव को देखा
उसकी देहभाषा को देखा
और सोचा अगर मेरे ऊपर हमला हुआ
तो मुझे अपने बचाव में क्या करना चाहिए
उसे याद आया अपने पर्स में
वह छोटा रामपुरी चाकू रखती है
लेकिन पर्स पता नहीं
उसने कहां रख दिया था नर्वसनेस में
मुस्कराता हुआ दोस्त उसे वहीं छोड़
रसोईघर की तरफ चला गया
और चाय बनाने लगा
लड़की भी धीरे-धीरे वहीं आ गयी और
दोस्त के पास खड़ी हो गयी
दो प्याली चाय लेकर दोस्त
अपने लिखने-पढऩे की
टेबुल पर आ गया और वहीं कुर्सियों पर बैठ
दोनों चाय पीने लगे
चाय पीते-पीते अचानक लड़की ने अपने
दोस्त की दायीं हथेली को अपनी बायीं
हथेली में कसकर पकड़ा और टेबुल पर
अपना माथा टिका दिया
जैसे कि नींद आ रही हो
दोस्त ने गुंथी हुई हथेलियों को देखा
उन हथेलियों से जो ध्वनि तरंगें
निकल रही थीं उन्हें समझने की उसने कोशिश की
फिर लड़की के चेहरे को देखा
चेहरे पर रैली की थकान थी
हल्की उदासी से भरा सम्मोहन था
कुछ रहस्यमय खोयापन लिये हुए सुंदरता थी
दोस्त ने लड़की के बालों पर धीरे से हाथ फेरा
और आहिस्ते से सर को चूम लिया
वह कुछ सोच रहा था कि अब आगे क्या होनेवाला है
लड़की अपने दोस्त की हथेली को कस कर पकड़े थी
यह दिन किसी और दिन जैसा ही था
बस, दो स्वतंत्रचेता व्यक्ति
एक-दूसरे पर भरोसा करना सीख रहे थे
सहभागिता बन रही थी
प्रेम पैदा हो रहा था
और शायद आगे की किसी बड़ी लड़ाई का
जज्ब़ा पनप रहा था
यह दिन किसी और दिन जैसा ही था
जो दो व्यक्तियों के लिए बहुत खास बन गया था.
(लखनऊ:10 मई 2013)
___________________
___________________
अजय सिंह (15 अगस्त 1946)
बिहार के बक्सर जिले में चौगाई में जन्मे वरिष्ठ पत्रकार, कवि व विश्लेषक अजय सिंह ने पढाई इलाहाबाद से की. उनकी कविताएं, लेख, समीक्षाएं, टिप्पणियां, रिपोर्ट ल राजनीतिक विश्लेषण विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. भाकपा (माले-लिबरेशन) और जन संस्कृति मंच से उनका गहरा जुड़ाव रहा है.