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Home » सहजि सहजि गुन रमैं : शिरीष कुमार मौर्य

सहजि सहजि गुन रमैं : शिरीष कुमार मौर्य

रात नही कटती? लम्बी यह बेहद लम्बी लगती है ? इसी रात में दस-दस बारी मरना है जीना है इसी रात में खोना-पाना-सोना-सीना है. ज़ख्म इसी में फिर-फिर कितने खुलते जाने हैं कभी मिलें थे औचक जो सुख वे भी तो पाने हैं पिता डरें मत, डरें नहीं, वरना मैं भी डर जाउँगा तीन दवाइयाँ, […]

by arun dev
October 8, 2014
in Uncategorized
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रात नही कटती? लम्बी यह बेहद लम्बी लगती है ?

इसी रात में दस-दस बारी मरना है जीना है
इसी रात में खोना-पाना-सोना-सीना है.
ज़ख्म इसी में फिर-फिर कितने खुलते जाने हैं
कभी मिलें थे औचक जो सुख वे भी तो पाने हैं

पिता डरें मत, डरें नहीं, वरना मैं भी डर जाउँगा
तीन दवाइयाँ, दो इंजेक्शन अभी मुझे लाने हैं.   (रुग्ण पिताजी : वीरेन डंगवाल)

हरदिल अज़ीज़ वीरेन डंगवाल आज खुद बीमार हैं, कैंसर से लड़ रहे हैं. जानता हूँ मिलते ही कहेंगे – ‘चलो कूद पड़ें’ युवा पीढ़ी से उनका जीवंत सम्बन्ध है और वे अक्सर साझे सरोकार खोज़ लेते हैं. शिरीष कुमार मौर्य ने उन्हें गहरे जुड़ाव के साथ स्मरण करते हुए उचित ही कहा है-  ‘ओ नगपति मेरे विशाल’.

एक कविता शमशेर बहादुर सिंह पर है- उनकी शमशेरियत के साथ. रेल पर दो कवितायेँ हैं जो पहाड़ और दिल्ली के अन्तराल पर भी हैं. एक कविता भदेस को कविता में इस तरह बदलती है कि कथ्य का अभिप्राय ही शिल्प में बदल जाता है. ‘बच जाना’ समय से आँख मिलाकर लिखी गयी कविता है- ‘बचाना’ हमारे समय की सबसे जरूरी नैतिकता है. शिरीष की इन कविताओं में संवेदना-सरोकार और शिल्प का  संतुलन है, इन कविताओं का परिसर बहुवर्णी है और उसमें रखरखाव के साथ पूर्वजों की आदमकद उपस्थिति मिलती है.   


शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ                 

ओ नगपति मेरे विशाल*
(वीरेन डंगवाल)
कई रातें आंखों में जलती बीतीं
बिन बारिश बीते कई दिन
अस्पतालों की गंध वाले बिस्तरों पर पड़ी रही
कविता की मनुष्य देह


मैं क्रोध करता हूं पर ख़ुद को नष्ट नहीं करता
जीवन से भाग कर कविता में नहीं रो सकता
दु:खी होता हूं
तो रूदनविहीन ये दु:ख
भीतर से काटता है


तुम कब तक दिल्ली के हवाले रहोगे
इधर मैं अचानक अपने भीतर की दिल्ली को बदलने लगा हूं
मस्‍तक झुका के स्‍वीकारता हूं
कि उस निर्मम शहर ने हर बार तुम्हें बचाया है
उसी की बदौलत आज मैं तुम्‍हें देखता हूं


मैं तुम्हें देखता हूं
जैसे शिवालिक का आदमी देखता है हिमालय को
कुछ सहम कर कुछ गर्व के साथ


ओ नगपति मेरे विशाल
मेरे भी जीवन का – कविता का पंथ कराल
स्मृतियां पुरखों की अजब टीसतीं
देखो सामान सब सजा लिया मैंने भी दो-तीन मैले-से बस्तों में


अब मैं भी दिल्ली आता हूं चुपके से
दिखाता कुछ घाव कुछ बेरहम इमारतों को
तुरत लौट भी जाता हूं


हम ऐसे न थे
ऐसा न होना तुम्‍हारी ही सीख रही
कि कविता नहीं ले जाती
ले जा ही नहीं सकती हमें दिल्ली
ज़ख्‍़म ले जाते हैं


ओ दद्दा
हम दिखाई ही नहीं दिए जिस जगह को बरसों-बरस
कैसी मजबूरी हमारी
कि हम वहां अपने ज़ख्‍़म दिखाते हैं.
***
* बचपन से साथ चले आए काव्‍य-शब्‍द, मैंने नगपति के आगे से मेरे हटा दिया…. सबके
अब प्‍यास के पहाड़ों पर कोई नहीं लेटता
(फिर-फिर शमशेर)
ओ मेरे पूर्वज
अब प्‍यास के पहाड़ों पर कोई नहीं लेटता
ज़रा होंट भर सूखने से
लोग नदियां लील जाते हैं
भीतर छटपटाहट रही नहीं
बाहर ग़ुस्‍सा दिखाने का चलन बढ़ा है
बहुत लम्‍बी कविताओं का कवि भी
अब अपनी कविता से आगे खड़ा है
हर कोई बड़ा है
ख़फ़ीफ़ कोई शब्‍द नहीं इक्‍कीसवीं सदी में
हल्‍के हवादार शिल्‍प में नहीं कही जाती बात
ठोस आकार बरसते हैं
मानो
सर पर पत्‍थर बरसते हों
 
प्रात का नभ अब बहुत पीला
वाम दिशा अंधियारी
अपने उद्गाताओं से ही घबराया
समय-साम्यवादी
कुहनियों से ठेलते पहाड़ों को दृश्‍य वे असम्‍भव अब
मारते हैं लात अपने लोग लोगों को
कबूतरों ने गुनगुनाई जो ग़ज़ल अब उसका ख़ून रिसता है झरोखों पर
अम्‍न का हर राग बेमतलब 
न वैसा प्रेम टूटा और बिखरा होते भी
जो कहीं भीतर
सलामत और साबुत था  
ओ मेरे पूर्वज
वो शमशेरियत वो खरापन
प्‍यास के उन पहाड़ों पर
वो एक नाज़ुक और वाजिब–सा
हल्‍का हरापन
अब कहां है
खोजता हूं उजाले में नहीं
समय के सबसे बड़े अंधेरे में
सन्‍नाटे में नहीं
वाम के सबसे बड़े एक हल्‍ले में
मैं खोजता हूं
तुम नहीं हो
तुम सरीखी आहटें
अब भी तुम्‍हारी
हैं  
भाषा और कविता में तुम्‍हारे होने का यह ‘हैं’ अगर होगा
मैं भी रहूंगा

रेल के बारे में दो निजी प्रलाप
1
हम जैसों के लिए
रेल बहुत रूमानी चीज़ है 
वह हमारे प्रेम और पछतावे का हिस्‍सा रही.

यहां तराई में वह ऐसे चलती है, जैसे पांवों के बीच से सांप सरकते हों
– ऐसा लिखकर मैं आज उस रूमान को तोड़ना चाहता हूं.

बसें जो हमें लादे अचानक सड़क से गिर पड़ती हैं
दरअसल जीवन को यथार्थ में बसाए रखने की आत्‍मघाती कोशिश करती हैं.

उस तैयारी के बारे में अज़ल से सुनते आ रहे हैं
जो पहाड़ों के बीच तक रेल पहुंचा देगी
ऐसा हुआ तो सीने पर रेंगते चंद चमकीले सांप
हमें और हरारत देंगे.

एक आदमी सुबह-सबुह यह प्रलाप करके आपको परेशान करने की नहीं
नींद की गोलियों के असर के बीच ख़ुद को जगाए रखने की नीयत रखता है.
2
रेलमार्ग की दूरी पर मेरा कोई नहीं रहता
सब सड़क की दूरी पर रहते हैं

अलबत्‍ता पहले कोई रहता था
जिसके लिए दिल्‍ली से रेल पकड़नी पड़ती थी
उसने अब मुझे मुक्‍त कर दिया

प्रेम आज भी मुक्‍त ही करता है

रेल का बढ़ता किराया मैंने एक अरसे से नहीं चुकाया
जो चुकाते आ रहे हैं
एक बार मैं उनके साथ रेल में बैठ कर
उनके घर जाना चाहता हूं
बच जाना
आतताईयों के विरुद्ध विचार कुछ लोगों ने बचाए रखा है
जंगलों में शहद बचा है
उसे बचाने के लिए मधुमक्खियों के दंश भी
बचे हुए हैं
मरुथलों में नखलिस्‍तानों का ख्‍़वाब बचा है
समुद्रों पर बरसते बादलों में
सूखी धरती तक चले आने की ख्‍़वाहिशें बची है
उन्‍हें धकेलती हवाओं का बल
सलामत है
थके हुए दिमाग़ों के लिए कुछ नींद बची है अभी
ज़माने भर की आशंकाओं से कांपते हृदयों के लिए
पनप जाने की गुंजाइश
बची है
निरंकुश मदमस्‍त हाथियों के झगड़ों में
पेड़ भले न बचे हों
कुचली जाकर फिर खड़ी हो जाने वाली घास
बची है
तो पेड़ों के फिर उग आने की
उम्‍मीद भी बच गई है
हालांकि
मनुष्‍यता का उल्‍लेख बहुत करना पड़ता है
पर वह बची है
जीवन बहुत बचा है
और उसके लिए लड़ने वाले भी
बचे हुओं का बचाव करने वाले
बचे गए हैं समाज में
अर्थ के अधिकार
भले धूर्त व्‍याख्‍याकारों के हवाले कर दिए गए हों
पर कवियों की भाषा में
उनके कठोर अभिप्रायों के
शिल्‍प
बचे हैं अभी
जब तक प्रेम और घृणा के पर्याप्‍त शब्‍द बचे हैं
कविता में
तब तक कविता को भी बचा हुआ ही मानें…
जो नहीं बच पाया उसका शोक बचा है
जो बच गया
उसका बचना संयोग नहीं एक सैद्धान्तिक लड़ाई है
बच जाने की हर गुंजाइश
हर दौर में
पृथिवी पर सधे हुए मज़बूत क़दम चलते
कुछ मनुष्‍यों ने बचाई है
और ये जो दैन्‍य बचा है
सामाजिक और वैचारिक दरिद्रता बची है
न हो सके ईश्‍वर के ढकोसले और धर्म के कानफोड़ू बाजे बचे हैं
पूंजी के विकट खेल बचे हैं
एक दिन इनके न बचने का सुन्‍दर दृश्‍य बचेगा
अभी तो जैसा हम देख ही रहे हैं
एक पूरी दुनिया ढह पड़ी है हमारे ऊपर
और ख़ुद हम बाल-बाल बचे हैं
क़ातिलों के हाथों बच कर निकल जाना
और क़ातिलों के विरुद्ध रच कर हालात में बदलाव लाना
एक–दूसरे के पर्याय हैं
अब
हमें कोई बचा–खुचा कहे तो सावधान हो जाना 
वह ज़रूर बचाने का नहीं मारने का
पक्षधर होगा.
भाषा का भदेस
परधान के बेटे की शादी के भोज की पंगत से उठते हुए कहा
उसके पुश्‍तैनी हलवाहे ने –
आज तो लेंडी तर हो गइ भइया
पूरी कतार ने समर्थन दिया
इस वाक्‍य को भाषा के भदेस ने नहीं 
अरसे से सूखी आंतों के संतोष ने जन्‍म दिया था
यह अभिप्राय में व्‍यक्‍त हुआ था
अर्थ में नहीं
अब लगता है
यह कविता के जन्‍म से ही जुड़ी हुई

कोई बात है 
____________

शिरीष कुमार मौर्य
चर्चित युवा कवि आलोचक
कविता और आलोचना की कई किताबें प्रकाशित


शिरीष कुमार मौर्य की कविताएँ
आलेख

shirish.mourya@gmail.com

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