दस आधुनिक भारतीय चित्रकार अशोक वाजपेयी से पीयूष दईया की बातचीत |
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मक़बूल फ़िदा हुसेन
लीला-लोक
चार कवि-मित्रों की कविताएँ
मक़बूल फ़िदा हुसेन से एक तरह की मुलाकात सागर रहते हुए हुई थी—‘कल्पना’ पत्रिका में उनके रेखांकन व चित्र छपते थे. 1958 या ’59 की बात होगी जब उनके एक चित्र की रंगीन प्रति कृति ‘कल्पना’ में प्रकाशित हुई. उससे पहले हम मित्र लोगों में से किसी का सागर में कभी उनका कोई चित्र प्रत्यक्ष देख सकने का सवाल ही नहीं था. आधुनिक कला से कोई विशेष परिचय भी नहीं था. थोड़ा-बहुत दो पत्रिकाओं, ‘कल्पना’ और ‘कृति’ से, पता चलना शुरू हुआ था. शायद हुसेन के उस चित्र का शीर्षक ‘घर’ था. उस चित्र को देख कर मैंने एक कविता लिखी. थोड़े दिन बाद पता चला कि हम चार मित्रों ने अलग-अलग, बिना एक-दूसरे को बताये या जाने, उसी चित्र पर कविता लिखी है. वे कविताएँ हमने ‘कल्पना’ को भेजीं—हुसेन पर चार कवि-मित्रों की कविताएँ. उनसे परिचय, उनकी कलाकृति के माध्यम से, किसी हद तक हुआ.
मुक्तिबोध की शवयात्रा
मेरे दिल्ली आने पर सबसे पहले उनसे कहाँ मुलाकात हुई, यह याद करना कठिन है. इतना याद है कि १९६४ में मुक्तिबोध की शवयात्रा में हुसेन शामिल थे. हम लोगों ने मुक्तिबोध का शव अस्पताल से लाकर राजघाट के पास “गांधी स्मृति” में रखा था. वहाँ से शवयात्रा शुरू हुई थी.
हुसेन काफ़ी लम्बे और छरहरे-से बदन वाले होते थे. बाद में पता चला, उस समय पता नहीं था, कि उन्होंने मुक्तिबोध की शवयात्रा से नंगे पैर चलना शुरू किया था, जूते-चप्पल पहनना बंद कर दिया था. शायद पहली बार, उसी शवयात्रा में, वह नंगे पैर शामिल हुए.
कुणिका गैलरी
रामकुमार की मण्डली में वह भी थे, इसलिए उनसे कहीं न कहीं मुलाकात ज़रूर हुई होगी, लेकिन ठीक से याद नहीं है कि कब हुई. उनकी एक प्रदर्शनी या उनके कई चित्र ‘कुणिका गैलरी’ में प्रदर्शित हुए थे. ‘कॉटेज इण्डस्ट्रीज़ एम्पोरियम’ जनपथ पर था, जनपथ में आजकल जो दुकानें हैं, उनके पीछे. पहले उसकी इमारत वह नहीं थी जो अब है. वहाँ अलकाज़ी ने एक कलावीथि का, ‘कुणिका’ नाम से शुरू की थी. मैंने वहीं उनके चित्रों की प्रदर्शनी देखी थी. वहाँ उनसे मुलाकात भी हुई होगी. मुझे चित्र देखने की याद है, उनसे मिलने की नहीं.
चित्र-प्रदर्शनी
बाद में, भोपाल में, मध्यप्रदेश कला परिषद् में हम लोगों ने कुछ काम शुरू किया—‘उत्सव 73’ के बाद उसी नाम से एक शृंखला “उत्सव” बहुकला समारोहों की सोची थी कि हर बार किसी एक कलाकार को एकल प्रदर्शनी के लिए आमंत्रित करेंगे और यह प्रदर्शनी मध्य प्रदेश कला परिषद् की कला-वीथिका में आयोजित करेंगे. उन दिनों हुसेन कुछ केमिकल प्रिट्ंस का प्रयोग कर रहे थे—किसी पद्धति से वह किसी नये केमिकल का इस्तेमाल करके प्रिट्ंस बना रहे थे. इन प्रिट्ंस की एक प्रदर्शनी कला परिषद् में हुई. उन्होंने मुझे दो-तीन प्रिट्ंस उपहार में भी दिये थे जो मेरे पास हैं. यह सन् 1974-75 की बात होगी. प्रदर्शनी के लिए जो केमिकल प्रिट्ंस वे लाये थे उनमें कई सारे निर्वसनाओं के चित्र (प्रिट्ंस) भी थे. कई बरस बाद उन्होंने मुझे एक पुस्तिका दी थी जिसमें उनके वास्तविक न्यूड्स के साथ काम करने के, विलायत में कहीं के, छायाचित्र थे. वह पुस्तिका उन्हीं छायाचित्रों की है जिसमें वे दिगम्बराएँ हैं और हुसेन कुछ चित्र बना रहे हैं. वह दुर्लभ पुस्तिका है. अब रज़ा अभिलेखागार में है.
रूपंकर-सन्दर्भ
इसी शृंखला में आगे जाकर स्वामीनाथन, अकबर पदमसी, रज़ा, हिम्मत शाह आदि की एकल प्रदर्शनियाँ हुईं. चार चित्रकारों की समहू प्रदर्शनी हुई—विवान सुन्दरम्, नलिनी मलानी, नीलिमा शेख और माधवी पारिख की. प्रदर्शनी के दौरान उनसे मिलना हुआ था. शायद हुसेन हमारे घर खाना खाने भी आये थे. लेकिन उसकी मुझे बहुत ठीक से याद नहीं है. याद तब की है जब स्वामीनाथन भोपाल आ गये थे और भारत भवन के लिए कला संग्रह बनाना शुरू हुआ था. भारत भवन के उद्घाटन के समय “रूपंकर संग्रहालय” के लिए संगृहीत कलाकृतियों का पहला प्रदर्शन होना था. रामकुमार, अकबर पदमसी, मंजीत बाबा, कृषन खन्ना, बाल छाबड़ा, स्वामीनाथन की मदद करने आये थे. हुसेन भी उसमें शामिल हुए. यह देखना बड़ा दिलचस्प था कि ये पाँच-छः कलाकार तय करते थे कि कौन-से चित्र लिए जाएं और किस चित्र को किस चित्र के बगल में और किस चित्र को कहाँ लगाया जाये. ये चित्र सिर्फ़ शहराती कलाओं वाले नहीं थे, इनमें जनजातीय चित्र भी शामिल थे. आदिवासी लोककला दीर्घा की कलाकृतियों के प्रदर्शन का काम भी इन्हीं लोगों ने किया था. इन चित्रों के डिस्प्ले/प्रदर्शन को लेकर इनमें आपस में बहुत विवाद होते थे कि किस चित्र की बगल में कौन-सा चित्र होना चाहिए, वगैरह.
मितभाषी
हुसेन हमेशा कम बोलते थे. जैसे कृषन खन्ना वाक्पटु हैं, जैसे रज़ा ने तब तक काफ़ी बोलना शुरू कर दिया था. हुसेन कम बोलते थे. मुझे याद है कि उनका एक लम्बा-सा लेख या उनसे बातचीत ‘इलेस्ट्रेड वीकली ऑव् इंडिया’ में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने बताया था कि उनकी नज़र में, इस समय, युवा पीढ़ी के कौन-से दस या पन्द्रह कलाकार उनको सबसे सम्भावनाशील लगते हैं. उन्होंने मंजीत बाबा, गणेश पाइन के नाम लिए थे. शायद जोगेन चौधरी का भी. भारत भवन के रूपंकर संग्रहालय में उनके चित्र भी थे. वे बेहद सक्रिय थे, लेकिन उनके मिज़ाज में बहुत ज़्यादा बोलना नहीं था.
स्थायी अनिश्चय
13 फ़रवरी के आसपास भारत भवन का वार्षिक समारोह होता था. एक तरह से पहले की ‘उत्सव श्रृंखला’ इस समारोह में बदल गयी. इस बहुकला समारोह के लिए हुसेन ने तय किया कि वह फ़र्श पर एक बड़ा कैनवसनुमा कुछ रखकर, सार्वजनिक रूप से, चित्र बनाएँगे. यह भारत भवन के स्थापना समारोह का हिस्सा था. उन दिनों रज़ा भोपाल आये हुए थे. स्वामीनाथन तो थे ही. हुसेन को चित्र बनाते देखने के लिए क़रीब सौ-डेढ़ सौ लोगों की भीड़ जमा हो गयी. पर हुसेन गायब. यह बारह बजे होना था, हुसेन का पता ही नहीं! स्वामीनाथन ने हुसेन को खोजने के लिए अखिलेश को भेजा कि खोजें कि वे कहाँ हैं. हुसेन पुराने भोपाल के किसी ढाबे में बैठे कुछ खा-पी रहे थे. उनको वहाँ से लाया गया. उनका चित्र बनाना दो घंटे देर से शुरू हुआ. बहरहाल, हुसेन की यह आदत थी. अक्सर आप उनसे अचानक ही मिल सकते थे, कहीं मिल जाएँ. एकाध बार कभी वे मुझे हवाई अड्डे पर मिल गये. दिल्ली या शायद मुम्बई में. मैंने पूछा, “आप कहाँ जा रहे हैं?” बोले, ‘‘यह तय करना है मुझे.’’ मैंने कहा, “तय करना है का मतलब.” बोले, ‘‘एक यह है कि न्यूयॉर्क जाऊँ, दूसरा यह कि पेरिस चला जाऊँ.’’ यह उनका स्थायी अनिश्चय था कि कहाँ जाना है, क्या करना है.
चित्रित गाड़ी और खाना
भारत भवन के पाँच साल बीतने पर नया न्यास बना, उसमें हुसेन को शामिल किया. 1985 में. उसमें कुमार गन्धर्व, पु ल देशपांडे, बिरजू महाराज, शिवमंगल सिंह सुमन नामांकित थे, हबीब तनवीर और जगदीश स्वामीनाथन के अलावा. बाद में, दिल्ली में, उनसे कभी-कभी मुलाक़ात हो जाती थी. एक बार का मुझे याद है. मैं दिल्ली आया हुआ था. शाम को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर पहुँचा. लाउंज में हुसेन और तैयब मेहता बैठे थे. उन्होंने कहा, ‘‘आइए, आइए.’’ मैं उनके पास बैठ गया. उन लोगों ने चाय मँगवायी थी. चाय आयी. हुसेन ने कहा, ‘‘यह बेकार चाय है. हम लोग निज़ामुद्दीन चलते हैं.’’ ठीक है, चलिये. तैयब, मैं और हुसेन उनकी गाड़ी में गये. उन्होंने अपनी गाड़ी को भी चित्रित कर रखा था. वह साधारण गाड़ी नहीं थी, उस पर तरह-तरह की चित्रकारी थी.
हम लोग निज़ामुद्दीन पहुँचे. ज़ाहिर है, उनका कोई प्रिय ढाबा था. हम लोग वहाँ गये. जहाँ तक मुझे याद है, उन्होंने कुछ मँगवाया नहीं. ढाबे के मालिक को पता था कि हुसेन क्या चाहते होंगे. उसने खासी दूध में गाढ़ी चाय, तीन प्याले और उसके साथ एक बड़ी मोटी-सी डबल रोटी जैसी मेज़ पर रखी. मैं थोड़ा चकराया. अव्वल तो वैसी चाय पीना मेरे लिए मुश्किल की बात थी. अब ओखली में सिर दिया तो मूसल से क्या डरना वाले हिसाब से, मैंने सोचा, चलो, पीते हैं. मेरी समझ में नहीं आया कि रोटी जैसे टुकड़े का क्या करना है. हुसेन ने उसको चाय में डुबो कर खाना शुरू किया. तब समझ में आया कि कैसे खाना है!
सोलह जनवरी
दिल्ली के मौर्या शेरेटन (पाँच सितारा होटल) में उनकी चित्र-प्रदर्शनी लगी. उन्होंने प्रदर्शनी का निमंत्रण दिया था, मैं देखने गया. ऐसे कभी-कभार मुलाकात होती रहती थी. एक बार यह हुआ कि हम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के लाउंज में बैठे थे. मुझे खोजते हुए सत्यप्रकाश मिश्र वहाँ पहुँचे. मैंने उनको बुलाया. हम सब साथ बैठे. मैं साठ बरस का होने जा रहा था. हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ‘आधुनिक कवि’ नामक श्रृंखला के लिए सत्यप्रकाश जी ने मेरी कविताओं का एक संचयन तैयार किया था. उसके बारे में वह कुछ बात कर रहे थे कि कैसे उसका लोकार्पण आदि होगा, कि उसमें क्या करेंगे. हुसेन ने सुन लिया. कहा, ‘‘आप बताइये, कब होगा.’’ मैंने कहा, “16 जनवरी को.” वे बोले, ‘‘मैं आऊँगा और किताब लोकार्पित करूँगा.’’ बहुत बढ़िया बात. किताब इलाहाबाद में छप रही थी. किताब छपकर 16 जनवरी की सुबह आ गयी. मैंने 16 जनवरी के पहले कोई सम्पर्क किया नहीं था. ज़रूरी भी नहीं था. हुसेन कहीं मिल जाएँ तो मिल जाएँ, उनको फ़ोन लगाना बेकार ही होता था.
16 जनवरी की सुबह, हुसेन का पता करने की कोशिश में, उनके चित्रकार बेटे और बढ़िया शख़्स, शमशाद हुसैन को मैंने फ़ोन किया कि हुसेन को आज शाम को आना है. कहने लगे, ‘‘वे हैदराबाद में हैं मेरे ख्याल से.’’ मैंने कहा, “पता करिये.” थोड़ी देर में उनका फ़ोन आया, ‘‘वे हैदराबाद में हैं. वे भूल ही गये थे.’’ अब थोड़ी-सी उलझन हुई कि क्या करें. सौभाग्य से यू.आर. अनन्तमूर्ति आये हुए थे. वैसे भी वे इस आयोजन में आ रहे थे. मैंने उनसे कहा कि अब आप ही इस पुस्तक का लोकार्पण कर दीजिए.
लंदन में व्यवहार
लंदन की एक घटना याद आती है. लंदन में एक होटल में या कोई ऐसी जगह थी जो कला वीथिका नहीं थी, वहाँ रज़ा और हुसेन की एक चित्र प्रदर्शनी लगी थी. मैं वहाँ रज़ा के इसरार पर गया था. हुसेन को आना था. वे लंदन में थे. हम लोग इन्तज़ार करते रहे पर वे प्रदर्शनी के शुभारम्भ पर नहीं आये. अगले दिन उनसे लंच पर मुलाकात हुई. वे एक बहुत ही खूबसूरत और स्वादिष्ट लेबनान रेस्तराँ में ले गये. ऐसा व्यवहार उनका, एक तरह का, पैटर्न बन गया था.
दूबी को उपहार
पहले दिल्ली में मैं शाहजहाँ रोड पर रहता था. एक बार वहाँ यकायक हुसेन प्रगट हुए. सुबह, क़रीब आठ बजे. मैं नहा रहा था. रश्मि ने नहानघर का दरवाज़ा खटखटाया कि हुसेन आये हैं. मैं जल्दी-जल्दी आया. वे कहने लगे,‘‘मैंने एक फ़िल्म बनायी है—‘गजगामिनी.’ आपके यहाँ टेलीविजन है?’’ मैंने कहा, “टेलीविजन है.” वे बोले, ‘‘बस, उस पर आपको फ़िल्म दिखानी है. हम लोग कल या परसों शाम को देखेंगे.’’ मैंने कहा, “ठीक है.” वे आये, हालाँकि इसका पूरा अंदेशा था कि वह न आएँ. वे आये और फ़िल्म दिखायी. उन्होंने मेरी बेटी दूबी को कागज़ पर एक रेखांकन बनाकर भी दे दिया. उनकी एक और आदत यह थी कि वे यहाँ-वहाँ कहीं जाते थे, तो झटपट कुछ बनाकर दे देते थे, उपहार के तौर पर.
आत्मकथा के प्रसंग
इसी तरह से वह एक बार और आये. सुबह-सुबह. उन्होंने कहा, “मैंने हिन्दी में अपनी ‘आत्मकथा’ लिख ली है और हिन्दी में मित्र राशिदा सिद्दिकी ने हाथ से ख़ुशख़ती कर दी है. पांडुलिपि तैयार है. अब इसे हिन्दी में कौन प्रकाशित करे.” मैंने कहा, “वाणी प्रकाशन से बात करते हैं.” वे बोले, “आप बात करिये.” मैंने प्रकाशक से बात की. उन्होंने कहा, “मैं चाहता हूँ कि इसकी भूमिका निर्मल वर्मा लिखें. आप निर्मल जी के यहाँ मेरे साथ चलिये.” मैंने कहा, “वे तो आपको जानते हैं. रामकुमार के भाई हैं.” उन्होंने कहा, ‘‘नहीं, आप चलिये.’’ हम लोग निर्मल जी के यहाँ गये. एक प्रति निर्मल जी को दी. निर्मल जी ने किताब की बहुत अच्छी भूमिका लिखी है.
अब किताब का लोकार्पण, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के सभागार में, होना था. मैं, निर्मल जी और तमाम लोग थे. उसके पहले उन्होंने कहा कि कोई ऐसा है जो किताब के कुछ अंश पढ़कर रिकार्डिंग/कैसेट्स तैयार कर दे. मेरी समझ में नहीं आया. मैंने शाहीद अमीन की बहन गज़ाला अमीन से, जो उद्घोषिका भी थीं, कहा कि आप कर दीजिये. उन्होंने कहा, ठीक है. उन्होंने कोई स्टूडियो वगैरह किराये पर लेकर वहाँ रिकॉर्डिंग की और कैसेट तैयार करवाया. लोकार्पण के समय किताब के अलावा वह भी जारी हो गया. जब पुस्तक के लोकार्पण का आयोजन चल रहा था, तब एक फिल्म अभिनेत्री, तब्बू, आ गयीं. हुसेन का सारा ध्यान तब्बू पर चला गया. सारे मीडिया का भी. निर्मल जी, मैं, रामकुमार, हम सब लोग हॉल से निकल आये. और हुसेन हमेशा की तरह ग़ायब हो गये.
अब उन्होंने मुझसे यह भी कह रखा था कि वे चाहते हैं कि किताब का हिन्दी क्षेत्रों— बनारस, इलाहाबाद, लखनऊ, पटना, जयपुर, भोपाल—में लोकार्पण हो. उन्होंने कहा, “आप अपने मित्रों से बात कर लीजिए. हम लोग चलेंगे.” मैंने कहा, “ठीक है.” मैंने दूधनाथ सिंह से इलाहाबाद में बात की, काशीनाथ सिंह से बनारस में बात की. अरुण कमल या किसी और से पटना में बात की.
एक दिन गज़ाला अमीन का फ़ोन आया, ‘‘अशोक जी, उन कैसेट्स का भुगतान नहीं हुआ है.’’ मैंने कहा, “हुसेन पकड़ में आएँ तो मैं उनसे कहूँ कि भुगतान कर दें.” हुसेन पकड़ में आये नहीं. डेढ़-दो महीने बाद बनारस से काशीनाथ सिंह का फ़ोन आया, “तुमने कहा था कि हुसेन की किताब का यहाँ लोकार्पण होना है. कल यहाँ एक पाँच सितारा होटल में यह हो गया. हम लोगों को कोई खबर नहीं.”
बद्रीविशाल पित्ती
मुझे यह ख़बर थी कि हुसेन ने, राममनोहर लोहिया के कहने पर, हैदराबाद में रहकर, रामायण और महाभारत पर अलग-अलग दो चित्रावलियाँ तैयार की थीं. वे चित्रावलियाँ बद्रीविशाल पित्ती के पास हैं, यह भी मुझे पता था. उन्हीं दिनों ऐसा संयोग हुआ कि थाईलैण्ड में हमको ‘फ़ेस्टिवल ऑव् इंडिया’ आयोजित करना था. आयोजन की जिम्मेदारी मेरे ऊपर थी. थाईलैण्ड में एक बौद्ध मन्दिर की चहारदीवारी के अन्दर की ओर रामायण अंकित है और थाईलैण्ड की प्राचीन राजधानी का नाम अयोध्या है जो बैंकाक से थोड़ी ही दूर है. वहाँ के राजा के नाम में ‘राम’ अभी भी आता है—राम-५५ या राम-२४. मैंने सोचा कि यह बड़ा दिलचस्प होगा अगर हुसेन के बनाये रामायण के चित्र यहाँ प्रदर्शित किए जाएं. मैंने बद्रीविशाल पित्ती से बात की. उनसे कहा कि आप ही इनका क्यूरेशन/संयोजन कर दीजिए और आप ही इसका कैटलॉग लिख दीजिए. हम कैटलॉग छापेंगे और आप उनके साथ चले जाएँ. वे मान गये. मैं बैंकाक गया. मैंने वहाँ के भारतीय दूतावास में एक प्रेस कान्फ्रेन्स में इसकी घोषणा भी कर दी. इस सन्दर्भ में मैंने नाट्य निर्देशक रतन थियम से यह आग्रह किया कि वे अज्ञेय का नाटक ‘उत्तर प्रियदर्शी’ तैयार कर दें. यानी, मणिपुर के निर्देशक द्वारा बौद्ध थीम पर नाटक और हुसेन की रामायण की चित्रावली. ‘उत्तर प्रियदर्शी’ का मंचन हुआ, लेकिन पता नहीं पित्ती जी को क्या हुआ कि उन्होंने मना कर दिया. इतना समय नहीं था कि कोई और विकल्प हो सके. वह फिर नहीं हुआ.
दो महाकाव्य
इस बीच हुसेन से इधर-उधर मुलाकात होती रहती थी. कभी बम्बई में, कभी दिल्ली में, कभी किसी चित्र प्रदर्शनी में. जैसे, ‘अष्टनायक’ शीर्षक से ताओ कला वीथी, मुम्बई में एक चित्र प्रदर्शनी हुई, जिसमें रज़ा, हुसेन, रामकुमार, कृषन खन्ना, बाल छाबड़ा, तैयब मेहता वगैरह थे. वहाँ उनसे ख़ूब गपशप हुई थी.
उनकी कला एक तरह की ‘हुसेन लीला’ है, जैसे रामलीला. उनका रेंज बड़ा है, जाने कहाँ-कहाँ से उन्होंने थीम्स चुनीं हैं. मसलन, रामायण और महाभारत. मुझे नहीं मालूम भारतीय इतिहास में कोई और चित्रकार हुआ है जिसने इन दोनों महाकाव्यों को चित्रित किया हो. हुसेन अकेले हैं. दुर्भाग्य की बात है कि उनकी ये दोनों चित्रावलियाँ प्रदर्शित नहीं हो सकी हैं. इनको सार्वजनिक रूप से कभी पेश ही नहीं किया गया. अब पित्ती परिवार उन्हें उनकी संग्रहिता को क़ायम रखने के बजाय एक-एक कर बेच रहा है.
‘स्पाइडर एण्ड द लैम्प’
भारत भवन की ओर लौटें. हुसेन की एक महत्त्वपूर्ण चित्रकृति ‘स्पाइडर एण्ड द लैम्प’ है. यह आधुनिक भारतीय कला की सबसे महत्त्वपूर्ण कलाकृतियों में से एक है. यह आधुनिक राष्ट्रीय कला संग्रहालय में है, लेकिन एक ज़माने में हुसेन ने यह चित्र भारत भवन को दिया था. वहाँ वह चार-पाँच बरस प्रदर्शित रहा.
स्वामीनाथन ने रूपंकर संग्रहालय के लिए अभूतपूर्व संग्रह बनाया था. उस समय भारत में जो कलाकृतियाँ बनीं या बन रही थीं, उनका सर्वश्रेष्ठ चयन भारत भवन में था. इस वजह से भारत भवन की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता काफ़ी ऊँचे दर्जे पर पहुँच चुकी थी. किसी बातचीत में हुसेन ने कहा कि वे कार्डबोर्ड पर बने अपने चित्र “स्पाइडर एंड द लैंप” को बेचना नहीं चाहते. वह चाहते थे कि यह चित्र किसी संग्रहालय में हो. उन्होंने आरम्भिक तौर पर यह तय किया कि वे यह चित्र भारत भवन को देंगे. यह चित्र भारत भवन में प्रदर्शित रहेगा, लेकिन भारत भवन के संग्रह का हिस्सा नहीं होगा. स्थायी रूप से यह चित्र भारत भवन को नहीं मिल जायेगा. बाद में जब हम लोगों ने भारत भवन छोड़ा, तो उसके इर्द-गिर्द ही, उन्होंने यह चित्र वापस ले लिया.
ग़ालिब और शमशेर
बद्रीविशाल पित्ती के यहाँ रहते हुए ग़ालिब के जन्म के सौ वर्ष हुए थे या ऐसा कुछ था. हुसेन साहब ने राइस पेपर/चावल से बने कागज पर ग़ालिब के उर्दू के शे’र और उसके साथ कुछ रेखाचित्र बनाये थे. वे अलग-अलग एक बॉक्स में थे. मुझे एक दिया था. पता नहीं कहाँ गायब हो गया, मिल नहीं रहा है. जहाँ तक मैं जानता हूँ, वे रेखांकन कभी सार्वजनिक तौर पर प्रदर्शित नहीं किए गए. मूल प्रति अब कहाँ है, मुझे पता नहीं.
हुसेन दुबई में थे. यकायक उन्हें शमशेर बहादुर सिंह की याद आयी. उन्होंने संजीव भार्गव को—जो उनके सम्पर्क में थे—फ़ोन किया, कि उन्होंने ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के लिए एक चित्र बनाया है और वह चित्र ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के प्रथम पृष्ठ पर छपने वाला भी है. उस चित्र में वे शमशेर की किसी पंक्ति का इस्तेमाल करना चाहते हैं. वह पंक्ति उन्होंने मुझसे माँगने को कहा. शमशेर जी की एक कविता पंक्ति ‘एक पीली शाम/ पतझड़ का ज़रा अटका हुआ पत्ता’. हालाँकि फ़ोन पर यह पंक्ति बताने में शायद ‘एक पीली शाम’ या कोई और एकाध शब्द बदल गया. बहरहाल, उनको शमशेर की याद इसलिए आयी होगी कि वह जब साठ के दशक में रामकुमार के साथ बनारस गये थे, और वहाँ श्रीपत राय के मेहमान थे, तब जिन साहित्यिक लोगों से उनकी मुलाक़ात हुई होगी उनमें शमशेर रहे होंगे. उन दिनों शमशेर बनारस में ही थे.
छवियों में गुँथी हुई गाथा
हुसेन के चित्रों की रेंज विलक्षण है. उन्होंने मदर टेरेसा, अमिताभ बच्चन, माधुरी दीक्षित, सत्यजीत रे आदि के चित्र बनाये हैं. वे अपने आखिरी चरण में, संसार बल्कि ब्रह्माण्ड के इतिहास को लेकर, एक बड़ी चित्रमाला बना रहे थे. एक तरह से, कहा जा सकता है कि किसी एक कलाकार के पास स्वतन्त्र भारत की तरह-तरह की छवियों में गुँथी हुई एक गाथा चित्रित करने का जिम्मा रहा है तो वह हुसेन हैं. उन्होंने क्रिकेट के खिलाड़ियों से ले कर उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ आदि सब पर कुछ न कुछ किया है.
हुसेन में एक लीला-भाव है, जैसे भारत में जो कुछ हो रहा है उसकी लीला/गाथा वे लिख रहे हैं, चित्रित कर रहे हैं और उनकी स्मृति में रामायण और महाभारत भी है. जितने चरित्र उन्होंने चित्रित किये हैं, वे अभूतपूर्व हैं, अद्वितीय हैं—इस अर्थ में कि किसी और ने नहीं किये, इस अर्थ में भी कि इससे पहले कभी नहीं हुए. स्वतंत्रता के बाद के भारत में किसी व्यक्ति को अगर सामान्य लोग भी कलाकार होने से जोड़ने लगें, ऐसी जो छवि कलाकार की बनी, तो वह हुसेन की बनी.
यह कहा जाता है और शायद सही होगा कि उन्होंने इस छवि को सुनियोजित ढंग से बनाया या प्रक्षेपित किया, लेकिन यह अनदेखा नहीं किया जा सकता कि उनके चित्र-कर्म की रेंज विलक्षण है, जिस तरह का उन्होंने प्रयत्न किया, वह भी.
हुसेन में बहुत तेजी से चित्र बनाने की क्षमता थी. उनको प्रत्यक्ष रचनारत् होते हुए कई बार तो नहीं, एकाध-दो बार देखा है. लेकिन यह नहीं कह सकता कि वह उस समय ऐसी रचना कर रहे थे जो उनकी महत्त्वपूर्ण कलाकृति मानी जाये.
सरस्वती, हनुमान और हमले
जब मैं ललित कला अकादेमी का अध्यक्ष था, तब उन दिनों उनको तरह-तरह से तंग करने का अभियान भारतीय जनता पार्टी और संघ परिवार के लोगों ने शुरू कर दिया था. इसकी शुरुआत ओम नागपाल नाम के व्यक्ति ने की. वह इन्दौर के थे. उन्होंने किसी पत्रिका में एक लम्बा लेख हुसेन के विरुद्ध लिखा और उनके बनाए हिन्दू देवी-देवताओं के चित्रों पर आपत्ति की. उस लेख में मेरा ज़िक्र भी है. इस लेख से तथाकथित सरस्वती प्रसंग की शुरुआत हुई.
दिलचस्प है कि ऑक्टोवियो पॉज़ का जिन भारतीय कलाकारों से अच्छा परिचय था और जिनके बारे में उनकी अच्छी राय थी, उनमें हुसेन, रामकुमार, स्वामीनाथन थे. ऑक्टोवियो पॉज़ की एक तरह के दार्शनिक चिन्तन की पुस्तक है—‘हनुमान दि मंकी ग्रेमेरियन’. कहने के लिए यह एक यात्रा-वृत्तान्त है. जयपुर के पास गलताजी में हनुमान का मन्दिर है, वहाँ जाने को लेकर यह वृत्तान्त है और उसको लेकर पाज़ ने चिन्तन किया है और वह यात्रा-वृत्तान्त नहीं रह जाता. मुझे भी इसका पहले पता नहीं था कि एक ‘हनुमत व्याकरण’ है—पाणिनी के व्याकरण के पहले संस्कृत में जो व्याकरण थीं, उनमें एक ‘हनुमत व्याकरण’ है. इस व्याकरण के कुछ ज़िक्र या उसके कुछ टुकड़े इधर-उधर मिलते हैं पर पूरा ग्रन्थ नहीं मिलता. इसी से संकेत लेकर पॉज़ ने अपनी किताब का नाम ‘हनुमान दि मंकी ग्रेमेरियन’ रखा था. शायद यह पुस्तक पहले फ्रांसीसी (स्पेनिश?) भाषा में छपी थी, और बाद में उसका अंग्रेज़ी अनुवाद छपा था—दोनों ही संस्करणों के आवरण पर हुसेन के बनाये हुए हनुमान की छवि का चित्र है. एक तरफ़ यह हुआ और दूसरी तरफ़ उन्हें लांछित किया गया. किसी और कलाकार को इस तरह प्रताड़ित नहीं किया गया. संघ परिवार ने उनके ख़िलाफ़ तरह-तरह के मुक़दमे, कई शहरों में, दायर किये. यह बात दर्ज करने की है. उनको कोई राहत नहीं मिल सकी. उस समय कांग्रेस के नेतृत्व की सरकार थी, उसने भी कोई राहत नहीं दी. कलाकारों और लेखक समुदाय ने बहुत ही एकजुट होकर उनका समर्थन किया, उनका बचाव किया. यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि उनको देश छोड़ना पड़ा. अगर वे यहाँ रहते तो तरह-तरह के मुक़दमों में फ़ँसे रहते और उनकी जान पर भी ख़तरा रहता. इस सबको देखते हुए मैंने उन्हें ललित कला अकादेमी की कार्यकारिणी परिषद् का सदस्य नामजद किया. यह मेरे अधिकार में था. मैंने उनको फ़ोन किया. वह उस समय दुबई में थे. उन्होंने कहा, “इट्स ए मैटर ऑव् ओनर फॉर मी.” वे कभी परिषद् की बैठक में नहीं आये क्योंकि भारत नहीं आ सकते थे. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस तरह का व्यवहार एक ऐसे चित्रकार के साथ हुआ जिसने हिन्दू देवी-देवताओं या हिन्दू महाकाव्य का सबसे संवेदनशील, सबसे बहुमुखी चित्रण किया.
माध्यमों के साथ प्रयोग
विक्रम सिंह ने हुसेन पर एक पुस्तक लिखी थी. काफ़ी बड़ी. इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में जब पुस्तक का लोकार्पण हुआ, तो हुसेन का एक आनलाइन वक्तव्य हुआ था.
हुसेन ने बहुत सारे प्रयोग किये हैं. जैसे, कटआउट्स. उनकी आरम्भिक अभिव्यक्ति और जीविका का माध्यम बम्बइया सिनेमा के पोस्टर थे. होर्डिंग पेंट करके वह अपनी जीविका चलाते थे. उनको इसका अनुभव था. उन्होंने खिलौने बनाये, उन्होंने कटआउट्स बनाये, कुछ फ़ोटोग्राफ़ी की, फ़िल्में बनायीं. तरह-तरह के माध्यम अपनाये. उनकी अधिक समर्थ और कला-दृष्टि से अधिक समृद्ध फ़िल्म ‘थ्रू द आइज़ ऑफ़ ए पेंटर’ है. उनकी फ़िल्म ‘गजगामिनी’ को, फ़िल्म के रूप में बहुत सफल या सशक्त नहीं कहा जा सकता. उनके सभी प्रयोग सफल हुए हों ऐसा नहीं है, लेकिन उन्होंने इस तरह की बहुत सारी चीज़ें कीं.
मेरा ख्याल है कि उनके चरित्र में अदम्य नाटकीयता थी. अपने को एक कलाकार के रूप में बार-बार प्रतिष्ठित करने का प्रयत्न. उन्होंने अहमदाबाद में एक ‘हुसेन गुफ़ा’ बनायी, जिसमें उनका बहुत योगदान था. फिर हैदराबाद में कुछ होने की बात थी. कुछ हुआ कि नहीं, मुझे ठीक से याद नहीं है.
सम्बन्धों का जंजाल
प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के कलाकारों में अपने को पूरी नाटकीयता के साथ प्रक्षेपित करने का काम दो ही चित्रकारों ने किया—हुसेन और सूज़ा ने. सूज़ा, अपने चित्रों से, शॉक देने में दिलचस्पी रखते थे. हुसेन अपने चित्रों से शॉक देने-करने में दिलचस्पी नहीं रखते थे. दोनों में एक तरह की नाटकीयता थी, लेकिन रामकुमार और गायतोण्डे में बहुत ही कम थी. रज़ा में बहुत क्षीण थी. तैयब मेहता की इस तरह की चीज़ करने में कोई दिलचस्पी कभी नहीं रही.
हुसेन में आत्मविश्वास बहुत था, आत्मालोचन थोड़ा शिथिल था. जबकि उनके घनिष्ठ मित्र रामकुमार में आत्मालोचन इतना सघन था कि वह कई बार उनके आत्मविश्वास को क्षत-विक्षत करता रहा होगा. अगर रज़ा को लें, तो उनके यहाँ आत्मविश्वास और आत्मालोचन, दोनों, का एक सन्तुलन-सा है : किसी का पलड़ा भारी नहीं है.
इन मूर्धन्य कलाकारों की मित्रता का एक पक्ष एक दूसरे की चिन्ता करते रहना था. पर, दूसरा पक्ष भी था : इनमें काफ़ी ईर्ष्या-भाव सक्रिय था. एक क़िस्सा यह है : रज़ा कई वर्षों बाद बम्बई आये, उनके चित्रों की प्रदर्शनी हुई. चित्रों के दाम काफ़ी ऊँचे रखे गये थे. दूसरे कलाकारों की कलाकृतियों के दाम से काफ़ी ज़्यादा थे. इससे हुसेन बहुत नाराज़ हुए. उन्होंने ‘आज क्या हो गया, पैसा खोटा हो गया’ ऐसा कुछ कहा. और अगले दिन अपने चित्र के दाम बढ़ाकर, दुगुने कर दिए. इस तरह की भी चीज़ें चलती रहती थीं.
जहाँ तक और जितना मैं जानता हूँ, हुसेन और रज़ा के रिश्ते में ठंडापन-सा था, वह गर्माहट नहीं थी जो रज़ा और रामकुमार के बीच या रज़ा और सूजा के बीच थी, ख़ासकर आरम्भ में, जब वह लंदन में थे. थोड़ा-थोड़ा, कुछ न कुछ, ऐसा होता रहा होगा. चाहे रामकुमार हों या हुसेन या रज़ा हों, ये दोनों तैयब मेहता और गायतोण्डे के बड़े प्रशंसक थे. बाल छाबड़ा इन तीनों के बहुत घनिष्ठ मित्र थे. यह सम्बन्धों का एक जंजाल-सा था, जिसमें कुछ-कुछ ऊभ-चूभ होती रहती थी.
शायद यह कहना चाहिए कि हुसेन के यहाँ गायतोण्डे या तैयब मेहता या कृषन खन्ना या रामकुमार से कोई रक़ाबत का भाव नहीं था, लेकिन शायद रज़ा के साथ था—हुसेन की ओर से. ये सभी—इसमें रज़ा भी शामिल हैं—एक दूसरे के चित्रों को देखकर, उस पर, सुचिन्तित टिप्पणी करते थे. जिस चित्रकार के चित्र पर वह टिप्पणी की जा रही होती थी वह उसको बहुत गम्भीरता से लेता था. ऐसे प्रसंग हो सकते हैं जिनमें हुसेन के किसी चित्र पर या उनके किसी प्रोजेक्ट पर उनके किसी ऐसे चित्रकार मित्र ने टिप्पणी की हो या कोई सुझाव दिया हो, जिसको हुसेन ने माना हो. यह उस समुदाय का एक सामुदायिक गुण ही था.
पौरुष भरी रेखा
बड़ी ललित, लगभग कृशकाय, पतली लेकिन ललित रेखा, बंगाल शैली की एक छाप ही थी. उस समय एक मोटी पौरुष भरी रेखा खींचकर हुसेन ने, एक तरह से, उस बंगाल शैली का अतिक्रमण किया. उनकी चित्र बनाने या रेखाचित्र बनाने की तीव्र गति से चलने वाली क्षमता शायद किसी और में नहीं थी. वह अपने आसपास की दुनिया में जो घटता था, जो चरित्र उभरते थे, उनको अपनी कला में ले आते थे. लोकप्रियता के प्रति उनका बहुत ज़बरदस्त आकर्षण उनके सिनेमा पोस्टर्स या होर्डिंग बनाने के ज़माने से था. लोकप्रियता का ऐसा आकर्षण प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट समुदाय के दूसरे चित्रकारों में से किसी में नहीं था. इनमें से किसी ने लोकप्रिय होने की कोशिश नहीं की, जबकि हुसेन ने लोकप्रिय होने की सुनियोजित कोशिश की, प्रक्षेपण किया. दूसरी तरफ़, अपने शुरू के बेहद विपन्न और कठिन जीवन को हुसेन कभी भूले नहीं. खाने-पीने की उनकी आदतों में बड़ी सादगी थी. वह एक बहुत ही महँगी—तीन-चार करोड़ रूपये की—कार ख़रीद सकते थे, लेकिन उनको खाना खाना निज़ामुद्दीन के ढाबे में ही रुचता था. इन सारे चित्रकारों के मुक़ाबले वे धनाढ्य चित्रकार बन गये थे, लेकिन उन्होंने उस धनाढ्यता का, दूसरों के लिए, कोई इस्तेमाल नहीं किया. किया हो तो मुझे पता नहीं. उनकी हर चीज़ इतनी सार्वजनिक है कि अगर यह पक्ष सार्वजनिक नहीं है, तो नहीं होगा. यूँ उन्होंने आधुनिक कला में व्यापक दिलचस्पी जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी जो औरों ने नहीं निभायी. औरों ने नहीं निभायी से मुराद यह कि औरों को उसका इतना कोई मौक़ा भी नहीं था.
भारत के आधुनिक कला संसार में कला बाज़ार को, एक तरह से, प्रतिष्ठित करने का आरम्भिक श्रेय भी हुसेन को ही जाता है—उन्हीं हुसेन को जाता है जो, एक ज़माने में, रज़ा की क़ीमतें ज़्यादा पाकर बहुत नाराज़ हुए थे. यह भी एक संयोग है. हुसेन के बाज़ार को संघ परिवार के उन पर प्रहार ने काफ़ी नुकसान पहुँचाया, इसलिए वे, कुल मिलाकर, सबसे महंगे चित्रकार नहीं बन पाये, हालांकि इससे उनके कलात्मक योगदान पर कोई असर नहीं पड़ता.
व्यापकता और गहराई
एक तरह से, हुसेन के चित्रों में—अगर साहित्य के दो पदों का इस्तेमाल करें—व्यापकता बहुत है पर गहराई कम है. दूसरा यह कि एक कलाकार जब अपनी एक तरह की रेखा पा लेता है, तो शायद उसको यह ज़रूरत नहीं लगती कि वह उस रेखा को छोड़कर कोई और रेखा खोजे या पाये. ऐसा हुसेन के मसले में हुआ होगा. तीसरा, ऐसे कलाकार कम हैं (रज़ा एक हैं) जिनके बाद के काम को देखते हुए कोई सोच नहीं सकता कि उनके पहले के चित्र क्या थे—वे कहाँ से कहाँ पहुँच गये. कुछ के यहाँ अनेकानेक चरण हैं, कुछ के यहाँ नहीं है. मसलन, अकबर पदमसी के चित्र-कर्म में ज़्यादा से ज़्यादा दो चरण हैं. पहला वह जो आरम्भिक है और बाद में मैटा स्केप्स बनाने में, पहले का सारा पीछे छूट जाता है—चित्र बिल्कुल अलग किस्म के हो जाते हैं. यही बात गायतोण्डे के यहाँ है. आरम्भ में गायतोण्डे भी, कुल मिलाकर, यथार्थपरक चित्र बना रहे हैं लेकिन फिर बिल्कुल अलग हो जाते हैं. तैयब मेहता ने, गायतोण्डे की तरह, कम चित्र बनाये हैं. इस पूरी मण्डली मेंं सबसे अधिक चित्र हुसेन ने ही बनाये होंगे. उनके बनाये चित्रों की संख्या सबसे अधिक होगी, इसमें कोई शक नहीं है. शायद सूज़ा ही संख्या के मामले में उनके नज़दीक थे.
उनकी एक छवि कुछ इस तरह की बनती है—जो सच्चाई से बहुत अलग नहीं है—कि चित्र बनाना उनकी आदत बन गया था, एक तरह की दैनिक आदत—बिना चित्र बनाये वह रह ही नहीं सकते थे. उनके यहाँ एक तरह की हड़बड़ी भी थी. वह हड़बड़ी क्यों थी, यह कहना मुश्किल है. शायद हड़बड़ी उनके स्वभाव में थी. इधर से उधर, उधर से इधर; कुछ ये कर रहे हैं, कुछ वो कर रहे हैं—उनमें अथक गतिशीलता थी. हो सकता है इस पहलू ने शायद उनकी कला को कुछ क्षति पहुँचायी हो.
रंग-लोक और छवि-बहुल वितान
अचरज होता है कि कैसे उन्होंने ‘मदर टेरेसा’ के लिए एक अलग शैली बना ली—वह इतनी प्रभावशाली है कि उसको देखते ही मदर टेरेसा की याद आती है जबकि कोई चेहरा नहीं है. दूसरी तरफ़ यह भी है कि उनके यहाँ रंगों की विविधता और फ़ैलाव बहुत अद्भुत है. इस ओर ध्यान जाना चाहिए कि शायद उसका एक स्रोत मिनिएचर/लघुचित्र कला है. लघुचित्र कला से हुसेन का क्या सम्बन्ध है, इस पर मुझे नहीं मालूम कि कितना लिखा गया है. मुझे लगता है कि उनका रंग-बोध लघुचित्र से सिंचित है. दूसरी तरफ़, तरह-तरह की चीज़ें एक साथ कर पाना. जैसे, लघुचित्र कला में भी इतने छोटे स्पेस में कितनी चीज़ें घट रही हैं. हुसेन के यहाँ भी कुछ-कुछ ऐसा है, उनके यहाँ क्या कुछ नहीं हो रहा है! यह एक तरह का, एक के ऊपर एक करने का उत्साह है—एक छवि के ऊपर दूसरी छवि, एक छवि लेकर दूसरी छवि, तीसरी छवि : इसका भी कुछ सम्बन्ध लघुचित्र शैली से है.
बौद्धिक रूप से हुसेन बहुत मुखर नहीं थे. उन्होंने ऐसा बहुत कम लिखा है जिससे यह समझ में आये कि वह क्या सोचते हैं. मुखर न होने का यह मतलब नहीं कि उनके यहाँ बौद्धिकता की कोई कमी है. वह एक समझदार, संवेदनशील चित्रकार हैं जिनको लोगों की परिस्थिति की, विडम्बना की समझ है.
एक ऐसे कलाकार की रंग पैलेट अनिश्चित और किसी हद तक अपरिभाषित ही रहेगी जो इतनी सारी घटनाओं, चरित्रों, छवियों इत्यादि को चित्रित करने का बीड़ा उठाता है. किसी ने उनको यह काम दिया नहीं है, यह उनका अपना चुनाव है. जाहिर है, वे तरह-तरह के रंगों का इस्तेमाल करेंगे.
हुसेन के यहाँ उनकी रेखा अपेक्षाकृत स्थिर है, उनका रंग-लोक अस्थिर है. इसमें कोई आपत्ति की बात नहीं हो सकती. लेकिन अगर यह अपेक्षा की जाए कि जब रेखा स्थिर है, तो रंग-बोध क्यों स्थिर नहीं है? इसका एक कारण यह समझ में आता है कि वे इतना बड़ा वितान चित्रित कर रहे थे—चरित्र, घटनाएँ, लोग, छवियाँ, इत्यादि—कि रंग पैलेट, एक स्थिर रंग पैलेट, उसके लिए सहायक नहीं हो सकता. वह वही रंग पैलेट हो सकता था जो लगातार बदलता रहे, जिसमें रंगों का घमासान-सा होता रहे, जैसा कि उन दृश्यों में भी हो रहा है, जिनका आधार उन्होंने लिया है.
हुसेन की ‘मदर टेरेसा’ वाली सीरीज़ देखें. उन्होंने उन्हीं रेखाओं को एक तरह से रंगबद्ध करके एक ऐसा मुहावरा बना दिया है जिससे वह बिना किसी चेहरे के, सिर्फ़ उस सिर ढंकी वाली मुद्रा से जो कि साड़ी है, उसी से फ़ौरन मदर टेरेसा का ध्यान, किसी भी दर्शक को, आ जायेगा. इस पर विचार होना चाहिए कि उन्होंने लघुचित्र कला से अपना रंग-बोध कैसे अर्जित किया. लघुचित्र कला में भी एक छोटा-सा स्पेस होता है, छोटी-सी जगह में इतना सारा घटता है—एक के ऊपर एक. एक क़िला है, उसके पीछे कुछ है, क़िले के ऊपर आसमान है, आसमान में तारे हैं, मौसम है, बादल हैं, और पता नहीं क्या. नीचे लताकुंज है और नीचे लगातार कुछ न कुछ घट रहा है. यह सब हो रहा है और ठीक इससे मिलता-जुलता हुसेन के यहाँ हो रहा है. कभी क्रिकेट के खिलाड़ी हैं, कभी कोई महाकाव्य की घटना होती है, कभी हनुमान. पांथेर पांचाली को लेकर भी उन्होंने चित्र बनाये हैं. गांधी भी आ रहे हैं, नेहरू भी. इन्दिरा गांधी भी. इतना चरित्र-बहुल वितान है, इतना छबि-बहुल वितान है कि उसका रंग पैलेट अस्थिर होगा ही और उसका अस्थिर होना ही अभीष्ट है. अगर पैलेट स्थिर हो जाये और वे उन्हीं-उन्हीं रंगों का कुछ फ़ेरबदल करके इस्तेमाल करने लगेें, तो बात बनेगी नहीं.
मेरा ख्याल है कि उनकी रंगों की शुद्ध संख्या भी बहुत बड़ी है, बहुत लम्बी है. किस रंग का उन्होंने कब, क्या इस्तेमाल कर लिया—यह अध्ययन का विषय बनना चाहिए. ऐसा नहीं लगेगा कि वे रंग कोई हड़बड़ी में चुने गये रंग हैं. वे एक कला-दृष्टि के अन्तर्गत और उसके संयम में चुने गये रंग हैं.
यह ठीक है कि उनके चित्रों की शैली नहीं बदलती—छवियाँ और रंग बदलते हैं. कह सकते हैं कि उनके यहाँ विषयगत विविधता अधिक है, शैलीगत कम है. पर ठीक है. यह अपेक्षा करना कि हर कलाकार के कृतित्व में कई चरण हों, ज़रूरी नहीं है.
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रामकुमार
रंग से रंग तक की यात्रा
चित्रकार और कथाकार
यह बहुत ही सुखद संयोग की बात है कि मैंने जीवन में पहली एकल चित्र-प्रदर्शनी रामकुमार की देखी. फ़रवरी 1958 की बात है. मैं पहली बार, दो-तीन दिन के लिए, दिल्ली आया था, आकाशवाणी की किसी छात्र संवाद प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए. श्रीकान्त वर्मा और नरेश मेहता से परिचय था, उनसे मिलने 17 जनपथ पर गया, जहाँ उनका दफ़्तर था. वहाँ गपशप हुई. उसके बाद कॉफ़ी हाउस आये. तब कॉफ़ी हाउस जनपथ पर होता था. उस ज़माने में, शंकर मार्केट में, एक जगह होती थी— ‘दिल्ली शिल्पी चक्र’. वहाँ गये. वहाँ रामकुमार की चित्र-प्रदर्शनी लगी थी. मैंने अपने जीवन की पहली एकल चित्र-प्रदर्शनी देखी, 1958 में. तब तक रामकुमार के, जो बाद में लगभग निर्विवाद रूप से लैंडस्केप के चित्रकार हुए, चित्रों में शहर और निम्न मध्यवर्गीय मनुष्यों की शबीहें जैसी थीं. वह उनके चित्र-कर्म का पहला चरण था.
प्रदर्शनी में बहुत बड़ी संख्या में लेखक मौजूद थे. बहुतों से मेरी पहली मुलाकात उस प्रदर्शनी में हुई, जिनमें नेमिचन्द्र जैन, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, मनोहर श्याम जोशी आदि के नाम याद हैं.
उस समय रामकुमार चित्रकार के अलावा एक लेखक के रूप में भी प्रसिद्ध थे. उन्होंने कहानियाँ लिखी थीं. शायद उनका पहला कहानी संग्रह ‘हुस्ना बीबी और अन्य कहानियाँ’ सरस्वती प्रेस से निकला था. वह श्रीपत राय के बड़े मित्र थे. बाद में रामकुमार और हुसेन साथ-साथ बनारस गये थे और श्रीपत राय के मकान में रुके थे. उस समय रामकुमार की दुहरी कीर्ति थी—एक चित्रकार और एक कथाकार की. उनकी बहुत चुस्त कहानियों में उनका चित्रकारी चित्त भी दिखायी देता था.
स्टूडियो
उन दिनों गोल मार्केट में रामकुमार का स्टूडियो था. तब तक प्रयाग शुक्ल ‘कल्पना’ का अपना सम्पादन काल पूरा करके वापस दिल्ली आ गये थे. वह हमारी मंडली में शामिल थे जो शाम को कनॉट प्लेस पर मिलती थी. तब तक निर्मल प्राग चले गये थे. महेन्द्र भल्ला, श्रीकान्त वर्मा, अशोक सेक्सरिया, रमेश गोस्वामी, कमलेश, मैं और प्रयाग, हम सब लोग, शाम को अक्सर कनॉट प्लेस में मिलते थे.
उन दिनों दिल्ली में बार नहीं थे और होटलों में सिर्फ़ बीयर मिलती थी. शराब की दुकानें थीं, लेकिन सार्वजनिक रूप से पीना प्रतिबंधित था. बीयर कुछ रेस्तराँ वगैरह में मिलती थी. प्रयाग के पास रामकुमार के स्टूडियो की एक चाबी रहती थी. हम लोग वहाँ चले जाते थे. उन दिनों कलाकारों और लेखकों का सबसे प्रिय पेय ‘रम’ थी. दो कारण थे. एक, थोड़ी स्वादिष्ट होती थी—मीठी-सी थी, और दूसरा यह कि वह सबसे सस्ती शराब थी. उस स्टूडियो में कभी-कभी हम लोग जाकर शाम को बैठक जमाते थे. तब तक रामकुमार वहाँ से जा चुके होते थे.
जैसा कि रामकुमार की फ़ितरत में था, वहाँ कोई साजो-सामान था नहीं. एकाध कुर्सी होती थी शायद, जिस पर बैठकर वह चित्र बनाते थे; सामने ईजल रखा होता था. उन दोनों को हटाकर, हम लोग, अख़बार के पन्ने फ़र्श पर बिछा देते थे. जहाँ तक मुझे याद है, शराब की दुकान गोल मार्केट में थी. वहाँ से थोड़ी रम ले आते थे, कुछ कबाब आदि भी. रामकुमार के स्टूडियो का यह एक सदुपयोग हम लेखक लोग करते थे.
एक इमारत की पहली मंजिल पर स्टूडियो था. बहुत बड़ा नहीं था; इतना था कि वे वहाँ चित्र बना सकें. ये उसी दौरान की बात है जब मैं दिल्ली में पढ़ रहा था और बाद में पढ़ा रहा था. कभी-कभार रामकुमार से मुलाकात होती थी. कभी टी हाउस में, कभी यहाँ-वहाँ.
रामकुमार काफ़ी सम्पन्न थे. तब भी वह बहुत ही सस्ती शराब पीते थे, अपने पुराने दिनों की आदत के अनुसार. मदिरापान में भी उनका संयम विख्यात/कुख्यात था.
चित्र, मूर्धन्य और कविता
मध्य प्रदेश कला परिषद् में उत्सवों की शृंखला के अन्तर्गत हम हर बार किसी एक चित्रकार की एकल प्रदर्शनी करते थे. वर्ष मुझे ठीक से याद नहीं है, पर, उस वर्ष रामकुमार के चित्रों की प्रदर्शनी थी. संयोग ऐसा था कि जहाँ उनके चित्रों की प्रदर्शनी थी, वहीं कविता-पाठ भी था. उस वर्ष कविता-पाठ में विजयदेव नारायण साही और कमलेश आये थे. और नाम याद नहीं हैं. चार-पाँच कवि होते थे. ऐसा हुआ कि कविता-पाठ कुछ लम्बा चला. श्रोताओं में कुमार गन्धर्व भी थे. उसी दिन शाम को उनका गाना था. कविता-पाठ दस बजे शुरू हुआ. विजयदेव नारायण साही बहुत अच्छा पाठ करते थे—उनकी बड़ी गूँजती हुई-सी आवाज़ थी, बड़ी प्रभावशाली. काफ़ी देर तक कुमार जी काव्य-पाठ में बैठे रहे. बीच में मुझे ख्याल आया कि आज शाम को उनका गाना है. उनको जाकर कुछ आराम करना चाहिए. मैंने जाकर उनसे कहा. कहने लगे, ‘‘नहीं, नहीं. बहुत मज़ा आ रहा है.’’ सम्भवतः ऐसा संयोग रामकुमार के जीवन में भी पहली बार ही हुआ होगा कि उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगी है, उसमें कविता-पाठ विजयदेव नारायण साही का हो रहा है और श्रोताओं में कुमार गन्धर्व हैं. अपने संयत स्वभाव के अनुसार रामकुमार कोई बहुत प्रसन्नता व्यक्त करते हों, ऐसा मुझे याद नहीं आता. बहरहाल, उनसे एक तरह का सम्बन्ध बना रहा. दिल्ली के दिनों में ही बन गया था. उस प्रदर्शनी से एक छोटा चित्र रामकुमार ने मुझे उपहार में दिया था जो आज तक मेरे पास है.
आपातकाल के विरोध में
एक ऐसा अवसर आया जब आपातकाल लगा था. आपातकाल मेंं सीधे-सीधे तो उसका विरोध करना कठिन था, लेकिन मैंने यह सोच रखा था कि किसी तरह से इसमें विरोध की भी जगह बनी रहे. हमने एक आयोजन किया ‘साक्षात्कार’ नाम से. तब तक ‘साक्षात्कार’ पत्रिका नहीं निकली थी. उस आयोजन को लेकर रमेशचन्द्र शाह ने बहुत आपत्ति की और वे उसमें शामिल नहीं हुए. लेकिन और बहुत सारे लोग आये. रामकुमार भी आये. शाह की आपत्ति इसलिए थी कि उनको लगा कि यह एक तरह से आपातकाल का समर्थन होगा. हालाँकि मैंने ऐसा आश्वस्त किया था कि ऐसा उस आयोजन में कुछ नहीं होगा : न कोई वक्तव्य जारी होगा, न कुछ और. पूरी छूट रहेगी, जिसको जो कहना है वह कहे. रामकुमार ने जो वक्तव्य दिया, वह बहुत अप्रत्याशित था. उन्होंने कहा, ‘‘अब अगर हमें ये बताया जायेगा कि हमें क्या और किस विषय पर चित्र बनाना चाहिए, (वगैरह) तो हम आत्महत्या कर लेंगे लेकिन ऐसा निर्देश नहीं मानेंगे.’’ इतने बड़े चित्रकार से आया यह वक्तव्य काफ़ी महत्त्वपूर्ण था. दृश्य में जगह बनाने के लिए, और एक तरह से थोड़ा दबे-छुपे ढंग से प्रतिरोध व्यक्त करने के लिए, मैंने भोपाल के अपने दो चित्रकार मित्रों—सुरेश चौधरी और सचिदा नागदेव—से कहा कि आप मुक्तिबोध की सुदीर्घ कविता ‘अँधेरे में’ से प्रेरित चित्र बनाइये. हमने उन चित्रों की भी एक प्रदर्शनी की. जहाँ तक मुझे याद है, प्रदर्शनी का एक छोटा कैटलॉग तैयार किया था. कैटलॉग में मुक्तिबोध का एक अंश उद्धृत किया था : ‘सब चुप हैं शिल्पी और कवि और बुद्धिजीवी/ उनके लिए यह मात्र अफ़वाह’ वगैरह. वह आपातकाल पर भी एक टिप्प्णी थी. प्रदर्शनी में रामकुमार आये थे. निर्मल वर्मा, अज्ञेय आपातकाल के मुखर विरोध में थे. कमलेश गिरफ्तार हो चुके थे. रामकुमार इन सबके निकट थे, लेकिन फिर भी वे आये थे.
रज़ा-प्रसंग
उन्होंने हिन्दी में, कला पर, कुछ छोटी-छोटी टिप्पणियाँ लिखी हैं. कुछ हमारे लिए ‘पूर्वग्रह’ में ही लिखी हैं. मसलन, जब रज़ा पर ‘पूर्वग्रह’ का विशेषांक निकाला, तो उन्होंने लिखा. कई ऐसी बातें हैं जो अगर वह न बताते तो हम लोगों को पता नहीं चलतीं. मैं उनसे ‘पूर्वग्रह’ में लिखने का आग्रह करता था. बहुत अधिक नहीं पर जब-तब उन्होंने लिखा है. उन्होंने रज़ा पर लिखे संस्मरण में एक प्रसंग बताया है जो रज़ा ने कभी नहीं बताया. किसी और ने भी नहीं बताया. रामकुमार न बताते तो पता ही नहीं चलता.
कुछ दिनों पेरिस में, रामकुमार और रज़ा, एक ही मकान में दो कमरों में रह रहे थे. अगल-बगल. उन दिनों रामकुमार फ्रांस में दो-तीन साल बिता चुके थे. वह घर वापस लौटना चाहते थे, लेकिन उनके पास हवाईयात्रा के लिए पैसे नहीं थे. कुछ काम बिके, तो कुछ पैसे मिलें. संयोग से, पेरिस में कहीं टहलते हुए, रामकुमार को एक अमरीकी राजनयिक मिल गये. वे पहले दिल्ली में रहे थे और उन्होंने रामकुमार के एकाध चित्र खरीदे थे. उन्होंने जिज्ञासा की कि वह उनका नया काम देखना चाहेंगे. रामकुमार ने अगले दिन ढाई बजे उनको अपने घर आने के लिए आमंत्रित किया. रामकुमार ने उत्साहित होकर रज़ा से कहा कि वे राजनयिक ढाई बजे मेरे चित्र देखने आएँगे, तुम भी अपने चित्र दिखा देना. रज़ा तब तो कुछ नहीं बोले. अगले दिन क़रीब दो बजे, चूँकि दोनों अगल-बगल के कमरे में ही रहते थे, रामकुमार को लगा कि रज़ा अपना कमरा बंद करके कहीं जा रहे हैं, जबकि ढाई बजे अमरीकी राजनयिक को आना था. रामकुमार बाहर आये. उन्होंने रज़ा से कहा, “तुम कहाँ जा रहे हो, वे आने वाले हैं.” उन्होंने कहा, ‘‘मुझे मालूम है कि वे आने वाले हैं. वे तुम्हारे चित्र देखने आ रहे हैं. अगर मान लो, मेरे चित्र देखकर, उन्होंने मेरे चित्र पसन्द कर लिये तो यह ठीक नहीं होगा क्योंकि तुमको जाने के लिए पैसे चाहिए. मैं चित्र नहीं दिखाऊँगा और यहाँ नहीं रहूँगा.’’ रज़ा चले गये. यह प्रसंग खुद रामकुमार ने लिखा था.
भोपाल में
जब भारत भवन बनना शुरू हुआ तब उसकी सलाहकार समिति में रामकुमार अनिवार्यतः थे. उद्घाटन के अवसर पर एक बड़ी प्रदर्शनी लगायी जा रही थी. प्रदर्शनी के डिस्प्ले में स्वामीनाथन की मदद करने के लिए जो चित्रकार आये थे, उनमें रामकुमार भी थे.
मैंने रामकुमार को ‘निराला सृजनपीठ’ पर भी आमंत्रित किया. वे शायद तीन महीने रहे थे. निर्मल वर्मा दो साल रहे थे. यह वह समय था जब उनके पास ज़्यादा समय नहीं होता था. मैंने कहा, तीन ही महीने के लिए आ जाइए. कृष्णा सोबती तीन महीने के लिएआयीं थीं. केदारनाथ सिंह भी तीन महीने के लिए आये थे. कृष्ण बलदेव वैद दो वर्ष के लिए आये थे. मैंने उनसे आग्रह किया कि वे एक वर्ष के लिए और रुक जाएं क्योंकि वह बहुत सक्रिय थे. बाक़ी में इतनी सक्रियता नहीं थी जितनी वैद में थी. एक बार रामकुमार दुबारा भी आये थे पर तब मैं दिल्ली आ गया था. भोपाल में नहीं था. उस दौरान उनकी पत्नी विमला जी की कोई दुर्घटना हो गयी थी, उनका पैर टूट गया था. उदयन (वाजपेयी) ने बहुत मदद की थी. काफ़ी दिनों तक वह परेशान रहीं.
अज्ञेय
हमने ‘पूर्वग्रह’ में रामकुमार के रेखांकनों का बहुत प्रयोग किया है. अज्ञेय की हस्तलिपि में उनकी कविताएँ और रामकुमार के रेखांकन की एक पुस्तिका भी भारत भवन से अज्ञेय की मृत्यु के बाद हुए एक आयोजन में “शब्द और सत्य” नाम से छपी थी.
दिल्ली में अज्ञेय की निकटता जिन लोगों से थी उनमें रामकुमार और निर्मल वर्मा प्रमुख थे. उनके अन्य नज़दीकी लोग थे—विद्यानिवास मिश्र, रमेशचन्द्र शाह, नन्दकिशोर आचार्य. अज्ञेय हमसे रूठे हुए थे. हमारा कोई निमंत्रण स्वीकार नहीं करते थे. इनमें से किसी से कभी कहा नहीं, लेकिन कई बार मैं सोचता था कि उनके निकट के इन लोगों में से क्या किसी ने कभी उन्हें यह नहीं बताया होगा कि हमारे आयोजन कैसे होते हैं, उनमें किस तरह का विचार-विमर्श होता है, कि सबको अपनी बात कहने की पूरी छूट रहती है और किसी तरह का कोई नियन्त्रण नहीं होता है. क्या वे ऐसा नहीं बताते होंगे? मैं सोचकर थोड़ा परेशान होता था.
जब अज्ञेय की भारत भवन आने की सम्भावना बनी, उसके पहले मैंने एक लम्बी बातचीत उनकी संगिनी इला डालमिया से की थी. मैंने उनसे कहा, “मुझे नहीं मालूम, लेकिन कभी आप इन पाँचों लोगों में से किसी से पूछिये कि क्या वहाँ किसी वैचारिक दृष्टि का वर्चस्व मैंने होने दिया है, या कुछ इस तरह का कि ऐसा करते हों तो बताएँ.” इला जी ने बताया कि असल में तो अज्ञेय जब ये आयोजन होते थे, इन लोगों से जब मुलाकात जब होती थी तब खोद-खोदकर पूछते थे कि वहाँ क्या हुआ और ये लोग उन्हें बताते थे. मैंने कहा, “उसमें से कहीं किसी ने कोई नकारात्मक बात कही हो या ऐसी कोई बात कही हो कि अज्ञेय विरोधी अभियान वहाँ चलता है या किसी के विरोध में अभियान चलता है?” इला जी ने माना कि किसी ने कभी नहीं कही.
हमने ‘समवाय’ नाम से आलोचना की एक त्रैवार्षिकी शुरू की थी. भारत भवन में आयोजन का उद्घाटन करने अज्ञेय और नगेन्द्र आए थे. निर्मल वर्मा भी थे. आयोजन के बाद सब लोग हमारे घर आए. अज्ञेय जी फ़र्श पर नहीं बैठ सकते थे इसलिए कुर्सी पर बैठे थे और बाक़ी सब लोग ज़मीन पर बैठे थे. बाद में मुझे निर्मल ने कहा, “वात्स्यायन जी कह रहे थे कि ऐसा तो नहीं लगता कि अशोक पर नामवर सिंह का कोई प्रभाव है.’’ जाहिर है, उनको यह भ्रम रहा होगा. इस भ्रम को दूर करने में इन्हीं लोगों ने कोई भूमिका नहीं निभायी होगी. वात्स्यायन जी ने स्वयं ही इसको ताड़ लिया या जान लिया होगा. बहरहाल, क्या किया जाय! यह सब चलता रहता था.
‘ज़्यादा मत बोलना, कम बोलना’
रामकुमार से एक मुलाकात पेरिस में हुई. वे अपनी पत्नी विमला जी के साथ अमरीका जा रहे थे. उन्होंने रज़ा को लिखा कि वे रास्ते में दो-चार दिन पेरिस में बिताना चाहते हैं—वह दिल्ली से पेरिस आएँंगे, वहाँ से न्यूयार्क जाएँगे. उनकी होटल वगैरह का सारा इन्तज़ाम रज़ा ने किया और निजी रूप से जाकर कमरा, बाथरूम वगैरह देखा. मैं उन दिनों रज़ा के साथ ठहरा हुआ था.
रामकुमार न खुद ज़्यादा बोलते थे न किसी और का ज़्यादा बोलना पसन्द करते थे. एक घटना यह है कि जब हम लोग दिल्ली में रज़ा का 85वाँ जन्मदिन मना रहे थे, तब उनके चित्रों की एक बड़ी प्रदर्शनी राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में आयोजित थी और उन पर मैंने एक किताब अंग्रेज़ी में तैयार की थी—‘अ लाइफ़ इन आर्ट’. किताब का लोकार्पण था. चित्र-प्रदर्शनी का उद्घाटन उपराष्ट्रपति ने किया था. पर पुस्तक का लोकार्पण वहाँ नहीं किया गया. वहाँ के निर्देशक ने यह शर्त रखी थी कि पहले किताब की प्रति उनको दी जायेगी—वह किताब का अनुमोदन करेंगे और किताब की एक भूमिका भी वह लिखेंगे. यह मुझे मान्य नहीं था. हमने तय किया कि लोकार्पण वहाँ नहीं होगा, लोकार्पण ‘होटल ताज मानसिंह’ में होगा. बड़ी दिक्कत हुई. खैर! प्रदर्शनी के उद्घाटन के बाद हम लोग भागकर वहाँ पहुँचे.
रामकुमार और कृषन खन्ना को मिलकर लोकार्पण करना था. मुझे, रज़ा, रामकुमार और कृषन खन्ना को बोलना था. जहाँ तक मुझे याद है, रामकुमार ने कुछ नहीं कहा. हम लोगों में से जिसके भी बोलने की बारी आती थी तब रामकुमार कहते थे, ‘ज़्यादा मत बोलना, कम बोलना.’ अब, जिसके ऊपर एक किताब निकल रही है, वह न बोेले, और जो किताब लिख रहा है वह न बोले, तो बड़ी अटपटी स्थिति बन जाती. बहरहाल, यह उनका स्वभाव था.
विमला जी का आग्रह
रामकुमार की पत्नी विमला जी बहुत चाहती थीं कि रामकुमार के नाम पर भी कोई फ़ाउण्डेशन बने. उन्होंने दो-तीन बार रामकुमार के सामने मुझसे कहा, ‘‘आपने ‘रज़ा फ़ाउण्डेशन’ बनवा दिया, एक इनका भी बनवा दीजिए.’’ मैं उनसे कहता था कि रज़ा के कोई संतान नहीं है, पर आपका बेटा है. उन्होंने कहा, ‘‘नहीं, बेटे को जितना चाहिए वह ले लेगा, उसके बाद भी बहुत बचेगा, उसका क्या होगा?’’ रामकुमार इससे सहमत नहीं होते थे. वह कहते थे, ‘‘नहीं, नहीं. क्या करना?’’ बल्कि एक बार रामकुमार की उपस्थिति में मैंने कहा, “रज़ा ने फ़ाउण्डेशन बनाया है, पर उस फ़ाउण्डेशन को रज़ा के लिए कुछ नहीं करना है, बल्कि एक तरह से मुमानियत है कि वह रज़ा के लिए कुछ नहीं करेगा. लेकिन हम ऐसा फ़ाउण्डेशन भी बना सकते हैं जो रामकुमार की कलाकृतियों का संवर्धन इत्यादि करे. ऐसा फ़ाउण्डेशन भी बन सकता है.” इस बात से भी रामकुमार प्रभावित नहीं हुए. यह बात दो-तीन बार हुई है. मुझे नहीं मालूम था कि यह बात औरों को भी पता थी. विमला जी की अकस्मात् मृत्यु हो गयी. हम सुबह भागकर उनके घर गये. वहाँ जो डॉक्टर आया था, वह किंचित् वाचाल था. उसने मुझसे कहा, ‘‘अशोक जी, विमला जी इतना चाहती थीं कि आप एक फ़ाउण्डेशन बनवा दें.’’ इस पर रामकुमार ने उन्हें झिड़क दिया, ‘‘वह अभी मरी पड़ी है और तुम फ़ाउण्डेशन की बात कर रहे हो!’’ उस समय बात करना बहुत उचित निश्चय ही नहीं था.
वृद्धावस्था और सार्थकता
जब मैंने ललित कला अकादेमी में ऑक्टोवियो पॉज़ पर एक ‘पॉज़ मण्डल’ नामक आयोजन किया, तो उसमें रामकुमार को आमंत्रित किया था. रामकुमार आये थे. तब तक उनकी वृद्धावस्था कुछ अधिक हावी हो गयी थी. वह थोड़ा-बहुत बोले. लेकिन बीच-बीच में टेबल पर ही सो गये थे, जहाँ सब लोग बैठे थे, जहाँ परिसंवाद हो रहा था.
भाजपा सरकार ने भारत भवन में हस्तक्षेप किया. हम लोग वहाँ से हटे. भोपाल में एक प्रोटेस्ट आयोजित हुआ. भाग लेने वालों में रामकुमार, निर्मल वर्मा, मंजीत बावा, मृणालिनी मुखर्जी आदि सब लोग थे. भोपाल में न्यू मार्केट का चौक है—जवाहरलाल नेहरू चौक. वहाँ प्रदर्शन हुआ था. वहाँ प्लेकार्ड वगैरह लेेकर सब लोग खड़े थे. संयोगवश ऐसा ही एक प्रदर्शन यू. आर. अनन्तमूर्ति, गिरीश कर्नाड, चन्द्रशेखर कम्बार इत्यादि ने बेंगलुरु में भी किया था. रामकुमार का वहाँ होना मुझे सार्थक लगा था.
निर्मल वर्मा का आग्रह
एक थोड़ी अटपटी-सी बात है. रामकुमार को ‘कालिदास सम्मान’ मिला. उनको यह सम्मान मिलना सर्वथा उचित था, इसमें कोई शक नहीं. जूरी में निर्मल वर्मा भी थे. जिन नामों पर विचार हो रहा था, उनमें एक नाम जगदीश स्वामीनाथन का था. स्वामीनाथन का नाम आने पर निर्मल जी ने कहा, ‘स्वामी ने आजकल पेंट करना बंद कर दिया है, वह संग्रहालय वगैरह बना रहे हैं—इस सबमें लगे हैं.’ मैं हस्तक्षेप नहीं कर सकता था. मैंने अपने लिए संयम बना रखा था कि कोई हस्तक्षेप नहीं करूँगा. जूरी जो तय करे वही मान्य हो. मैंने ही वह पैनल गठित की थी. मुझे याद नहीं है कि और कौन थे, दो-तीन लोग और रहे होंगे. जाहिर है, रामकुमार स्वामीनाथन से वरिष्ठ थे. उनको कालिदास सम्मान मिलने में किसी भी तरह का कोई अनौचित्य नहीं था. मैंने यह अलिखित शर्त बना रखी थी कि सम्मान उसी को मिले जिसमें इस तरह का सम्मान दिये जाने की पूरी खरी पात्रता हो, लेकिन जिसे अब तक ऐसा कोई बड़ा सम्मान न मिला हो. यह उसका एक नियम था. रामकुमार को तो दूसरे सम्मान मिल चुके थे, देखा जाये तो. बहरहाल, यह प्रसंग हुआ. रामकुमार को कालिदास सम्मान मिला. उनके चित्रों की प्रदर्शनी भी हुई.
दूसरे पक्ष
रामकुमार का एक दूसरा पक्ष और था.
गायतोण्डे निज़ामुद्दीन वेस्ट में रहते थे. बिल्कुल ही फ़क्कड़ और विरक्त. उनके लिए, रामकुमार के यहाँ से, खाना बनकर आता था. विमला जी खाना बना कर टिफिन भेजती थीं, उन दिनों जिन दिनों वे लोग यहाँ रहते थे. मथुरा रोड पर. भोगल के पास. मैं वहाँ दो-तीन बार उनसे मिलने गया हूँ.
यूँ जब वह बात करने पर आते थे तब खूब गप्प लगाते थे. काफ़ी पढ़े-लिखे भी थे. उनके पास ऑक्टोवियो पॉज़, पाब्लो नेरूदा—इन सबकी पुस्तकें थीं. वह ऐसे चित्रकार नहीं थे कि उनको पढ़ने में कोई रुचि न हो.
गुलदस्ता, वाइन और चुप्पी
रामकुमार, रज़ा से मिलने, रज़ा फ़ाउण्डेशन आते थे. एक-दो बार रज़ा के साथ मैं भी उनके घर उनसे मिलने गया था. तभी रज़ा की वजह से हम लोगों ने एक यह प्रथा चलायी कि रामकुमार के जन्मदिन पर—रज़ा नहीं रहे तब भी, जब तक रामकुमार जीवित रहे तब तक—उनके जन्मदिन पर हम फ़ूलों का एक गुच्छा और एक वाइन की बोतल उनके यहाँ भिजवाते थे.
एकाध बार ऐसा भी हुआ कि वे, कृषन खन्ना और रज़ा, तीनों, साथ हैं. तब तक रज़ा का बोलना काफ़ी कम हो गया था. कम बोलते थे. रामकुमार को यह सबसे ज़्यादा रास आता था. दोनों चुप बैठे रहते थे. कई बार पन्द्रह-बीस मिनट चुप बैठे हैं, कोई कुछ नहीं कह रहा. कृषन खन्ना इससे अलग हैं—वे काफ़ी वाचाल हैं. वही बोलते थे या मैं बोलता था. ये दो लोग चुप रहते थे.
एक बार रज़ा बीमार पड़े. वह रात को नींद में बिस्तर से गिर पड़े. उनका एक पैर फ्रैक्चर हो गया, उसमें लोहे की छड़ डाली गयी. उस दौरान रामकुमार एक-दो बार अस्पताल भी आये.
23 जुलाई 2016 को रज़ा की मृत्यु हुई. अस्पताल से शव मिलने में बड़ी देर लगती है. दुनियाभर की प्रक्रियाएँ पूरी करनी पड़ती हैं. इस सब में बहुत देर लग गयी थी. उनकी मृत्यु ग्यारह बजे के आसपास हो गयी थी. मैं क़रीब पाँच बजे रज़ा फाउंडेशन पहुँचा. तब तक सब जगह खबर पहुँच गयी थी. संजीव ने कहा, “आप जाइए, लोग रज़ा फाउंडेशन पहुँच गये हैं. मैं शव लेकर आता हूँ.” रामकुमार फाउंडेशन आये हुए थे. पहले से बैठे हुए थे. रज़ा से उनका बहुत लगाव था, रज़ा को भी उनसे बहुत स्नेह था. जब 1950 में रज़ा पहली बार पानी के जहाज से मार्सई उतरे और रेल से पेरिस पहुँचे, तो पेरिस के स्टेशन पर उनको लेने रामकुमार आये थे. रामकुमार पहले से पेरिस में रह रहे थे.
देश-काल मुक्त कला
रामकुमार ने “यूरोप के स्कैच” नामक सुन्दर किताब लिखी है. मेरे ख्याल से किसी और भारतीय चित्रकार ने, अपने यूरोप के अनुभव के बारे में, ऐसा नहीं लिखा जैसा रामकुमार ने लिखा. मुझे किताब में प्रकाशित रेखांकनों की भी याद है. उनके रेखांकन उनकी रंगीन चित्रकृतियों से काफ़ी मिलते-जुलते भी हैं. उनसे रेखांकनों का गहरा साम्य भी नज़र आता है. उनके रेखांकनों की एक बड़ी प्रदर्शनी हुई थी. उनके रेखांकनों में जो ज्यामिति है, वह जैसे जानबूझकर छिन्न-भिन्न की गयी है, उसको छितरा-सा दिया गया है ताकि वो ठीक-ठीक पारम्परिक ज्यामिति न लगे. मानो त्रिभुज, त्रिभुज न लगे. उनके लैंडस्केप खुद ही ज्यामिति का एक खेल हैं. उनके लैंडस्केप में एक तरह की सूक्ष्म और जटिल ज्यामिति का प्रयोग है जो उनके रेखांकनों से ही आयी है. उनके लैंडस्केप और उनके रेखांकन, दोनों, बहुत ही सुन्दर और अनोखे ढंग से स्थान मुक्त हैं. अगर बनारस वाले या बाद में लद्दाख वाले चित्रों को छोड़ दें, जहाँ जानते हैं कि ये बनारस के या लद्दाख के हैं, तो उनके चित्रों की बाक़ी विपुल सम्पदा में यह लगभग अप्रासंगिक प्रश्न हो जाता है कि वे कहाँ के हैं, या कहाँ का लैंडस्केप है. क्योंकि वे स्थानमुक्त हैं. दूसरे शब्दों में, वे चित्र और रेखांकन, अपने आप में स्वायत्त हो जाते हैं.
एक अर्थ में यह भी कहा जा सकता है कि प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट समुदाय के कुछ चित्रकार, कुल मिलाकर, आमतौर पर कला की स्वायत्तता की खोज कर रहे थे. कला की स्वायत्तता पाने का एक तरीक़ा या एक युक्ति यह थी कि उसको स्थानमुक्त किया जाये. एक तरह से देशमुक्त किया जाये. देशमुक्त होते ही वह कालमुक्त भी हो जाता है. उसमें काल का कोई आभास नहीं बचा होता. वह एक देशकालहीन स्पेस में जगमगाने लगती है. यह बात गायतोण्डे के बाद के चित्रों के बारे में, और अकबर पदमसी के बारे में, रज़ा के बारे में भी सही है. हुसेन के यहाँ थोड़ा अलग है. हुसेन के यहाँ देश और काल, दोनों, बहुत मज़बूती से प्रगट होते हैं.
दूसरा बनारस
रामकुमार, शुरू से ही, गहरे संयम के चित्रकार रहे. उनके सन्दर्भ में अतिरेक का कभी कोई आभास नहीं मिलता. मेरा ख्याल है कि उनके कला जीवन में बनारस से परिवर्तन आया. उन्होंने ‘बनारस’ की एक पूरी शृंखला ही बनायी. बहुत सालों तक बनाते रहे, जिसमें बनारस तरह-तरह से आया है. वह वैसा बनारस नहीं है जो तस्वीरों में या यथार्थवादी चित्रों में दिखायी देता है, वह एक दूसरा ही बनारस है. बनारस, जो एक अर्थ में, शाश्वत-सनातन है और एक दूसरे अर्थ में भंगुर है, जर्जर है—फिसलता हुआ, भरभराता हुआ-सा बनारस है. हालाँकि उन चित्रों में नावें और घाट इत्यादि चित्रित हैं, जहाँ तक मुझे ख्याल आता है, उनमें गंगा की कोई बहुत उच्छल उपस्थिति नहीं है. यह थोड़ी विचित्र बात है.
डूबते हुए होने की यात्रा
रामकुमार की चित्रकला का एक अद्भुत पक्ष है : उन्होंने अपने चित्रकार जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा लैंडस्केप बनाते भी गुज़ारा. और बाद के दौर के चित्रों के कितने संस्करण, कितने रूप बने, उन्होंने कितने भिन्न-भिन्न तरह से बरता—ठीक वैसे ही लैंडस्केप को. एक ज़माने में उनके चित्र बहुत धूसर होते थे. धुँधले-धुँधले रंग. भूरे रंग, और इस तरह के. उनके लद्दाख वाले चित्र भी धूसर-से हैं. निहंग, नंगे पर्वत—कोई वनराजि ही नहीं है. हरापन बहुत नज़र नहीं आता. फिर एक बार यकायक उनकी एक चित्र-प्रदर्शनी दिल्ली में लगी, जिसमें उनका काम कमाल का था.
रामकुमार के अन्तिम चरण के चित्रों में, एक तरह से, रंगों का बड़ा अद्भुत उभार था. रज़ा और हुसेन अपने-अपने अलग ढंग से रंग के मास्टर्स माने जाते हैं, उनसे अलग एक तीसरे तरह की उस्तादी रामकुमार के यहाँ इन चित्रों से प्रकट हुई थी. उनके चित्रों में एक तरह की उच्छल रंग-क्रीड़ा थी जो उनके अन्तिम चरण में अपनी पूरी उच्छलता में प्रकट होती है. जिस तरह का नक्शा उनके यहाँ बनता है वह एक तरह से रंग से शुरू करके फिर रंग से थोड़ा विरक्त होते हुए, अन्ततः रंग की गहरी आसक्ति में डूबते हुए होने की यात्रा है.
3. |
वासुदेव गायतोण्डे
एक निर्गुण चित्रकार
पहली मुलाक़ात
गायतोण्डे से मेरी पहली मुलाक़ात रामकुमार ने करवायी थी. मैं कभी उनसे मिला नहीं था. मुझे यह पता था कि वह निज़ामुद्दीन में रह रहे हैं और रामकुमार का उनसे सम्पर्क है. मुझे तब यह पता नहीं था कि विमला जी उनको खाना भिजवाती हैं.
एक बार मैंने रामकुमार से कहा, “मैं कभी गायतोण्डे से मिला नहीं हूँ.” वे बोले, ‘‘अरे, चलिये, कल चलते हैं.’’ मैंने कहा, “ठीक है.” पहले मैं रामकुमार के घर गया. वहाँ से, हम दोनों, गायतोण्डे के यहाँ आये. वह निज़ामुद्दीन में, एक बरसाती में, रहते थे. वे ज़्यादा लोगों से मिलना-जुलना नहीं चाहते थे. उनके मकान के बाहर घण्टी के बजाय कुछ एक यंत्र-सा था, एक रस्सी, उसको खींचना होता था. ऐसा कुछ खींचा गया, गायतोण्डे छत पर प्रकट हुए. हम लोग ऊपर, उनकी बरसाती में, गये. एक कुर्सी के बगल में एक रिकार्ड प्लेयर रखा हुआ था, जहाँ शायद वह बैठते रहे होंगे और उस पर एक लांग प्लेयर रिकार्ड रखा हुआ था. ग्रामोफोन जैसा होता है. उस पर हल्की धूल की सतह जमी हुई थी. धीरे-धीरे मुझे लगा कि यहाँ हर चीज़ पर थोड़ी-थोड़ी धूल है. यहाँ तक कि, लगा गायतोण्डे पर भी थोड़ी-सी धूल है. बहुत कम बोलते थे. उनका विनोदी स्वभाव था, लेकिन बोलते कम थे. उनसे दो-तीन बार मुलाक़ात हुई. जब 1992 के बाद मैं दिल्ली आ गया, तो उनसे एकाध-दो बार कभी, ऐसे ही संयोगवश, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बार में मुलाक़ात हुई.
श्मशान भूमि
गायतोण्डे का जीवन भिन्न था. वह निज़ामुद्दीन से अपनी एक मित्र ममता सरन के पास रहने चले गये थे. उनकी मृत्यु की ख़बर कहीं नहीं छपी. उन दिनों अख़बार आदि में ख़बर छपना ही मुख्य होता था. हालत यह थी—कृषन खन्ना बताते हैं—उनकी अंत्येष्टि के अवसर पर, श्मशान भूमि में, कोई दस-बारह लोग थे जिनमें रामकुमार और वे थे. किसी को ख़बर नहीं थी. दिल्ली में गायतोण्डे के काफ़ी प्रेमी थे. दूसरे कलाकार भी थे, अगर उनको समय पर पता चलता तो ज़रूर जाते. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. रामकुमार और कृषन खन्ना, दोनों, शायद टैक्सी लेकर गये थे. लेकिन श्मशान भूमि से निकलने का रास्ता क्या है, इनको पता नहीं था. कृषन खन्ना ने कहा कि अब यहाँ से कैसे निकलें. रामकुमार ने कहा, ‘‘अब यहाँ से जाने की क्या ज़रूरत है. यहीं बैठ जाते हैं, आना तो यहीं है.’’
शोकसभा
मुझे तक खबर नहीं थी कि गायतोण्डे की मृत्यु हो गयी. यह खबर कि वह नहीं रहे, शायद ममता सरन ने बाल छाबड़ा को बम्बई में दी और बाल छाबड़ा ने ट्रंक कॉल करके रज़ा को बतायी, जो उस समय गोर्बियो में थे. रज़ा ने मुझे फ़ोन किया, तब मुझे पता चला. जब तक यह खबर मिली तब तक उनकी अंत्येष्टि हो चुकी थी. रज़ा ने एक छोटी-सी टिप्पणी लिख कर गोर्बियो से मुझे भेजी थी. वढेरा आर्ट गैलरी में हुई शोकसभा में बीस-पच्चीस लोग ही थे. न ललित कला अकादेमी ने कोई शोकसभा की, न आधुनिक राष्ट्रीय कला संग्रहालय ने. वढेरा आर्ट गैलरी में भी कोई ऐसा नहीं था जो बोलना चाहे. बेचैन से अरुण वढेरा मेरे पास आये. उन्होंने कहा, ‘‘अशोक जी, आप कुछ कह दीजिये.’’ मैंने कुछ कहा. उसके बाद अंजलि इला मेनन बोलीं. यह भी सम्भवतः वहीं की घटना है. रामकुमार और कृषन खन्ना, दोनों, पहुँचे.
पुस्तकें और अनुदान
एक तरह से, गायतोण्डे को, अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलना उनकी मृत्यु के बाद शुरू हुआ. पहले रॉकफेलर फ़ाउण्डेशन ने उनको अमरीका में आमंत्रित किया था. वे गये भी थे, पेरिस में रज़ा से मिलते हुए.
गायतोण्डे के चित्रों की एक प्रदर्शनी शिकागो में हुई. एक युवा भारतीय क्यूरेटर ने प्रदर्शनी का एक अति साधारण कैटलॉग भी निकाला, जिससे मुझे निराशा हुई. उन्हीं दिनों मुम्बई की एक क्यूरेटर जैसल ठकार मेरे पास आयीं. उन्होंने कहा कि वे गायतोण्डे पर दो पुस्तकें निकालना चाहती हैं और इसके लिए उन्हें मदद चाहिए. रज़ा गायतोण्डे का बहुत सम्मान करते थे और गायतोण्डे अपने आप में बड़े कलाकार थे. अमूर्तन के अद्भुत शिल्पी थे. मैंने तय किया कि जैसल को वित्तीय मदद दी जाय. यह पच्चीस लाख रुपयों का अनुदान था. हमने इतना बड़ा अनुदान उससे पहले किसी को नहीं दिया था. हुआ यह कि उसकी एक जिल्द तो छप गयी, लेकिन दूसरी जिल्द झगड़े में पड़ गयी. वहाँ कुछ लोगों ने मुक़दमा कर दिया और एक पुलिसवाला यहाँ तक आया. अब शायद वह झगड़ा निपट गया है; दूसरी जिल्द निकलने को है. इस झगड़े में पाँच-सात साल लग गये.
वागर्थ की अल्पता
गायतोण्डे ने अपने चित्रों की शुरुआत एक तरह के वागर्थ की बहुलता से की. उनके शुरू के चित्र यथार्थवादी थे, आकृतिमूलक. धीरे-धीरे जैसे उनको यह समझ में आ गया कि कला को बड़बोला नहीं होना चाहिए, ज़्यादा कहने की कोशिश नहीं करना चाहिए. धीरे-धीरे उनकी कलाकृतियाँ वागर्थ की अल्पता की ओर चली गयीं. एक ऐसे मुकाम पर पहुँच गयीं कि लगा गायतोण्डे का सारा कला प्रयत्न लगभग कुछ न कहने के मुकाम पर पहुँचना है, जहाँ उनकी कला हो पर कुछ न कहा जाय. असम्भव नहीं तब भी कुछ न कहना बहुत ही कठिन लक्ष्य है.
यह पता चला कि उनकी दिलचस्पी जापानी ज़ेन दर्शन व कला में थी और वह किसी तरह के आध्यात्मिक प्रभाव में थे. अध्यात्म में उनकी गहरी रुचि बढ़ती गयी. गायतोण्डे सबसे निर्गुण चित्रकार सिद्ध हुए. निर्गुण इस अर्थ में भी कि उनकी कलाकृतियों में जहाँ वागर्थ की अल्पता है—वागर्थ की लगभग अनुपस्थिति है—वहीं दूसरी ओर, एक तरह के विराट का स्पन्दन भी है : जैसे कुछ वागर्थ से कोई बड़ा स्पन्दन है. अगर ‘वागर्थ’ को एक स्पन्दन मान लें कि कला में वागर्थ का एक स्पन्दन है, लेकिन उससे भी बड़ा कोई स्पन्दन है जो उनके यहाँ है, जो एक तरह से वाक् से परे हैं—वाक् उस तक नहीं पहुँच सकता. वाक् का उस तक न पहुँच सकना, दरअसल, स्वायत्तता का एक और ऐसा संस्करण है जहाँ कला है. स्वामीनाथन ने अम्बादास के चित्र के बारे में भारत के एक राष्ट्रपति से कहा था, ‘‘ये कलाकृति किसी के बारे में नहीं है. ये खुद है. बस.’’ यह जितना अम्बादास के बारे में सही है उतना ही गायतोण्डे के बारे में भी सही है. ये कलाकृतियाँ किसी के बारे में होने की रूढ़ि से मुक्त हैं. ये स्वयं हैं. बस इतना काफ़ी है.
मैंने गायतोण्डे के लिए लिखा था, ‘‘गायतोण्डे के यहाँ कला के स्पष्ट आध्यात्मिक अभिप्राय हैं. अमूर्तन के निराले चित्रकार गायतोण्डे के इधर चित्रों में लगता है कोई प्राचीन लुप्तप्राय लिपि उभर रही है. अक्षर हैं बिखरे हुए, फिर भी विन्यस्त. आत्मा के अक्षर.’’ गायतोण्डे की कला का अध्यात्म-पक्ष, दरअसल, अध्यात्म का एक बुनियादी अन्तर्विरोध भी है—आत्म का विलोप, लेकिन आत्म का विलोप आत्म ही कर सकता है. यह एक तरह से अध्यात्म में आत्मा की मुक्ति का दावा या की लक्ष्य है और आत्मा की मुक्ति आत्मा ही कर सकती है, कोई और नहीं कर सकता. एक तरह से, अर्थ के बोझ से मुक्ति, वागर्थ से मुक्ति—ऐसा कला-कर्म ही कर सकता है. लेकिन वह कला से मुक्ति नहीं कर सकता, यह एक विडम्बना है. इस विडम्बना का बहुत ही रोचक रूप गायतोण्डे के चित्र हैं—कुछ नहीं कहना, फिर भी कला-भाषा का उपयोग करना. रंग भी भाषा ही है. भाषा कुछ कहे बगैर नहीं रह सकती. भाषा में कुछ कहने का भाव, कुछ कहने का उत्साह, कुछ कहने की आदत अन्तर्भूत है. उसको कैसे मुक्त किया जाये? वह कैसे बोलना बन्द कर दे? कला अपसरण के किस बिन्दु तक पहुँच सकती है? क्या वह इस बिन्दु तक पहुँच सकती है कि वह कला ही न रह जाय, और अगर ऐसा करती है, तो कला के रूप में उस पर विचार क्यों होना चाहिए? गायतोण्डे को लेकर ये सब प्रश्न उठते हैं.
4. |
कृषन खन्ना
अनायकत्व की महिमा
सिलसिले
कृषन खन्ना को मैंने ‘‘यारबाज़, बहुत मददगार, हँसमुख और विनोदप्रिय व्यक्ति’’ के रूप में याद किया है. ठीक से ख्याल नहीं है कि उनसे मुलाक़ात कब हुई. जिन दिनों स्वामीनाथन ‘गढ़ी स्टूडियो’ में काम करते थे, उन्हीं दिनों उनसे हुई मुलाक़ात की याद है. गढ़ी में स्टूडियो अगल-बग़ल में थे. एक में कृषन थे, एक में स्वामीनाथन. स्वामीनाथन वाले स्टूडियो में शायद हिम्मत शाह ने भी कुछ हिस्सा ले रखा था. पास में ही कहीं मंजीत बावा भी थे. जब कभी स्वामी से मिलने जाता था, तो अक्सर कृषन और बाक़ी लोग भी वहाँ होते थे.
उस समय मैं ललित कला अकादेमी का राज्य द्वारा नामजद सदस्य था. ’76 के आसपास त्रिनाले की बात आयी. यह तय हुआ कि त्रिनाले की प्रबन्धन इकाई में कृषन खन्ना और स्वामीनाथन प्रमुखता से होंगे. उन्हीं ने फिर यह सुझाया कि उसमें एक अंतरराष्ट्रीय कला परिसंवाद हो, जिसका संयोजक मैं रहूँ. इस सिलसिले में उन लोगों से मिलना बढ़ा कि किन लोगों को बुलाना है, क्या करना है. ललित कला अकादेमी के इतिहास में भी इतना बड़ा परिसंवाद न पहले हुआ और न बाद में हुआ. परिसंवाद की दो विशेषताएँ थीं. एक विशेषता यह थी कि वह सिर्फ़ ललित कला पर एकाग्र नहीं था—उसमें संगीत, नृत्य, साहित्य आदि सब मैंने शामिल कर लिये थे. परिसंवाद में रोबर्तो मात्त, हैरोल्ड रोज़ेनबर्ग, किशोरी अमोणकर, केलुचरण महापात्र, सीताकान्त महापात्र—इन सबने भाग लिया था. इस परिसंवाद में जो निबन्ध पढ़े गये, उनके हिन्दी अनुवाद करवा कर, ‘पूर्वग्रह’ के एक अंक में, छापे थे.
कृषन खन्ना से बातचीत होती रहती है. धीरे-धीरे पता चला कि उनकी कविता में बड़ी दिलचस्पी है. अंग्रेज़ी की बहुत सारी कविताएँ उनको मुखाग्र हैं. डबल्यू बी यीट्स, इलियट, आडेन. एक दुर्लभ अमेरिकन कवि हुए हैं कॉनरैड ऐकन, मेरा ख्याल था कि उनको मेरे अलावा कोई और शायद नहीं जानता होगा, लेकिन उनकी कविता भी कृषन को याद थी. वे फ़ारसी और उर्दू, दोनों, जानते हैं. उनसे बहुत सारी चीज़ों पर गपशप होती रही है, कविता पर भी. बल्कि ऐसा कोई विषय नहीं है जिस पर कृषन से बात नहीं की जा सकती हो. दूसरी बात यह है कि कला में उनकी सहानुभूति वामपक्ष से रही है, निकटता भी रही है. लेकिन वाम का दूसरे कलाकारों—गै़रवाम कलाकारों—के प्रति जो रुख है, जो कट्टरता या अस्वीकृति का भाव है, उसको उन्होंने कभी अपनाया नहीं और न बर्दाश्त किया. उनके यहाँ भी इसरार है कि चित्र कैसे बना, उसका विषय क्या है जो चित्र के अर्थ को निःशेष नहीं करता और न उसको पूरी तरह से निर्धाारित ही करता है. मैंने पहले कहा है कि एक तरह से इन सारे कलाकारों में कला की स्वायत्तता की तलाश थी, कि वे विषय में रहते हुए भी विषय से मुक्त होकर स्वायत्तता अर्जित करें. यह उनके यहाँ भी है.
मण्डली का जश्न
तब वे बैंक में बहुत बड़ी नौकरी पर थे. चित्रकार के नाते इस मण्डली में शामिल थे. यह मण्डली लगातार उन पर दबाव डाल रही थी कि उनको बैंक की नौकरी छोड़ देनी चाहिए. जिस दिन उन्होंने बैंक की नौकरी छोड़ी, उस समय, बैंक से बाहर आने पर, उनको लेने के लिए और इस बात का जश्न मनाने जो लोग खडे़ थे, उनमें हुसेन, शायद तैयब मेहता और बाल छाबड़ा थे. फ़ोन से यह खबर रज़ा को दी गयी. उस शाम रज़ा ने भी अपने घर में एक पार्टी की.
वह इंग्लैण्ड में पढ़े थे और इनके पिता अंग्रेज़ी के बड़े प्राफ़ेसर थे. इन चारों चित्रकारों में सबसे ज़्यादा सम्पन्न अकबर पदमसी और कृषन खन्ना ही थे. बाल छाबड़ा का फ़िल्मों में अपना कुछ व्यापार था और वह उसकी वजह से सम्पन्न थे. बाक़ी सब मध्यम वर्ग के ही थे.
बड़ी भूमिका
मैं स्वामीनाथन को रिझाने जाता था कि वह भोपाल चलें. उस समय कृषन खन्ना से भी मुलाक़ात होती. मुझे भोपाल से तीन-चार बार आना पड़ा था. हर बार स्वामी के साथ कोई न कोई होता था. अक्सर कृषन भी.
जिस दिन स्वामी भोपाल आने के लिए सहमत हुए वह निर्णायक शाम थी. मैं इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में कृषन से मिला और हम दोनों स्वामी के घर गये. वह एक किराये के मकान में, साउथ एक्सटेंशन में, रहते थे. काफ़ी देर बातचीत होती रही. रम-रंजन भी होता रहा. तभी दोनों में कहा-सुनी हो गयी. कृषन स्वामी से कह रहे थे, “ तुमको जाना चाहिए” स्वामी बोले, ‘‘तुम क्यों नहीं चले जाते?’’ यकायक एक दरवाज़ा खुला. पण्डित मल्लिकार्जुन मंसूर प्रकट हुए. उन दिनों मंसूर जी स्वामी के यहाँ रुके हुए थे. स्वामी का बड़ा बेटा कालिदास उनसे सीखता था. मल्लिकार्जुन मंसूर ने कहा, ‘‘क्या बात है, तुम लोग क्यों इतनी चीख-पुकार कर रहे हो!’’ बताया कि यह बात है. ‘मल्लिकार्जुन मंसूर प्रसंग’ हम कर चुके थे, वह मेरे प्रति थोड़ा अनुकूल भाव रखते थे. उन्होंने कहा, ‘‘नहीं, तुमको भोपाल ज़रूर जाना चाहिए’’ कुछ वजहें बतायीं. तब तय हुआ कि स्वामी भोपाल आएँगे. स्वामी को भोपाल भेजने में बड़ी भूमिका कृषन खन्ना की थी और कुछ भूमिका मल्लिकार्जुन मंसूर की थी.
हुआ यह कि फिर भोपाल में कृषन एक लगभग अनिवार्य उपस्थिति बन गये. हर थोड़े दिन में, किसी न किसी कारण से, उनको आना पड़ता था. कभी सलाहकार समिति की बैठक है, कभी कोई और कारण. भारत भवन वाले समय में वे, एक तरह से, स्वामी के साथ डटकर लगे रहे.
सम्बन्धों का परिसर
कृषन खन्ना बहुत अच्छे यारबाज़ हैं. आयोजक अच्छे हैं. अपने समवयसी चित्रकारों में सबसे स्पष्टता और विट के साथ बोल सकने में सबसे समर्थ हैं. सम्भवतः रज़ा के साथ-साथ उन्होंने अपने तमाम मित्रों को सबसे अधिक पत्र लिखे. इतना पत्रबहुल कोई और कलाकार नहीं है जितना वे हैं. उनके यहाँ एक बात यह भी है कि उनकी रुचि अपनी ही कला-दृष्टि से सीमित नहीं है. वे, कुल मिलाकर, आकृतिधर्मी किस्म के ही चित्रकार हैं. इसलिए वह बहुत हद तक हुसेन जैसे हैं, लेकिन अमूर्त चित्रकला को पसन्द करने और उसका एहतराम करने में उनसे कभी कोई चूक नहीं हुई. एक तरफ़ वे आख्यान या नवाख्यानपरक कला के स्वयं ही एक तरह से उद्भावक थे पर उसके बरक्स दूसरे किस्म की कला को पसन्द करने में, उसमें सार्थकता देख पाने में कभी उन्होंने संकोच नहीं किया. मसलन, स्वामीनाथन, रज़ा, गायतोण्डे, अकबर पदमसी, तैयब मेहता या विवान सुन्दरम् के कामों को उन्होंने हमेशा सराहा है. उनकी रुचि का वितान काफ़ी फ़ैला हुआ है. उनके सम्बन्धों का परिसर विपुल है और उसको उन्होंने बहुत जतन से सँभाले भी रखा है.
चरित्रनामा
कृषन के यहाँ अपने संभ्रांत पैतृक जीवन को कला में छोड़ने का एक प्रयत्न है. इस अर्थ में है कि उन्होंने ट्रकवाले, बैंडबाजा बजाने वाले, इस तरह के लोगों के बहुत अद्भुत चित्र बनाये हैं. एक पढ़े-लिखे चित्रकार का भाव भी उनके यहाँ बहुत प्रबल है. जैसे, ‘लास्ट सपर’ बनाया है. जैसे, होटल मौर्या शेरेटन में एक पैनल है, बहुत बड़ा भित्ति-चित्र है. उसमें उन्होंने अपने बहुत सारे मित्रों को भी एक तरह से शामिल किया.
कृषन खन्ना के यहाँ एक तरह का चरित्रनामा प्रकट होता है. जैसे बैंडवाले या ट्रकवाले. उन्होंने एक तरह की चरित्रावली बनायी है. वह चरित्रावली साधारण की विचित्रता से निकलती है. उनके बनाये बैंडवाले देखें. वे साधारण लोग हैं जो सिर्फ़ पोशाक पहनकर और कोई वाद्ययंत्र लेकर कुछ कर रहे हैं. दूसरी तरफ़ ट्रकवाले हैं. ये साधारण लोग हैं. एक तरह से अनायक लोग हैं. उनके चित्रों में साधारण की विचित्रता और साधारण के अनायकत्व से निकली हुई महिमा एकत्र है.
हर दिन काम
वे बहुत परिश्रमी कलाकार हैं. जैसे, रज़ा को हर दिन चित्र बनाना है, उन्हें चित्र पर काम करना है, उसी तरह के कृषन हैं. स्वामीनाथन के जैसे नहीं, कि दौर आते थे जिनमें वह चित्र बनाते थे, फिर आलस में पड़े रहते थे. हुसेन के बारे में मुझे ऐसा अंदेशा होता है कि शायद वह भी ऐसे ही होंगे, कि हर दिन चित्र बनाये बगैर या चित्र पर काम किये बिना उनका दिन नहीं बीतता होगा. वैसे ही कृषन हैं. अभी भी, जबकि वह सौ वर्ष के करीब हैं, लगातार काम करते हैं. हाल में जब उनके घर गया था, तो वहाँ एक चित्र रखा हुआ था, जिस पर वह रातभर काम कर रहे थे. कोविड के दौरान उन्होंने अस्सी फ़ीट लम्बा एक भित्ति चित्र जैसा बनाया था. मेरा ख्याल है कि जैसे बड़े से बड़े आकार को कृषन खन्ना हैंडिल कर सकते हैं, वैसे शायद दूसरे नहीं कर सकते. शायद हुसेन कर सकते होंगे, लेकिन रज़ा ने नहीं किया न गायतोण्डे ने.
दो क़िस्से
वे बताते हैं कि जब वह पहली बार पेरिस गये, तो रज़ा ने कहा, “लूव्र जाओगे न.” कृषन बोले, “हाँ.” रज़ा ने कहा, ‘‘मैं चलूँगा, लेकिन एक शर्त है. वहाँ तुम सिर्फ़ एक कलाकृति देखोगे जो मैं दिखाऊँगा, बाक़ी वक्त तुम्हारी आँखें बंद होनी चाहिए. मैं तुम्हारे साथ रहूँगा.’’ उन्होंने कहा, “चलो, ठीक है.” वे लूव्र पहुँचे. रज़ा ने कहा, “आप आँखें बंद कर लीजिए, अब चलिये.” वह हाथ पकड़कर ले गये और जहाँ ‘पियत्ता’ कलाकृति थी बस वहाँ आँख खोली. कहा, ‘इसको देखो, जितना देखना है देखो और फिर वापस आँख बंद कर लो.’’ इन मित्रों में इस तरह का पैशन था. लूव्र संग्रहालय में इतनी कलाकृतियाँ हैं कि जितना हो सके उतना एक बार में देख लो. लेकिन ठहराव, ठहरकर देखना महत्वपूर्ण है.
वे लोगों के बहुत क़िस्से बताते हैं. एक कि़स्सा यह बताया कि एक दिन रामकुमार का एक चित्र सौ रुपए में बिक गया. यह तय हुआ कि कल नाश्ता करेंगे. दिल्ली में जहां रीगल सिनेमा है, पहले वहाँ एक होटल होता था. वहाँ नाश्ता करने की बात थी. रामकुमार, कृषन खन्ना, हुसेन को मिला कर चार-पाँच लोग जुड़े. खूब बढ़िया नाश्ता मँगवाया गया. कोई सत्तर-पिचहत्तर रुपये का बिल बना. अब रामकुमार का मूड बहुत ही खराब. कहने लगे, ‘‘ये चित्र बिकने का फ़ायदा क्या हुआ? सब यहाँ स्वाहा हो गया.’’ इस तरह की इनमें आपस में चुहल भी होती रहती थी.
स्मृति-प्रखर
उन्होंने मुझे अपना स्टूडियो दिखाया है. एक कलाकार का स्टूडियो—एक विचित्र क़िस्म का, बेतरतीब फ़ैलाव, रंगों के ट्यूब्स पड़े हैं, रंगों को पोंछने के कपड़े पड़े हैं, वगैरह. ऐसी तमाम चीज़ें वहाँ पड़ी होती हैं. अभी भी उनकी स्मृति प्रखर है. वे बराबर अपने स्टूडियो में काम करते हैं.
५ . |
अकबर पदमसी
एक कॉस्मिक चित्रकार
दो घर
अकबर पदमसी के नाम और काम से परिचित था, पर, उनसे मेरी कोई मुलाक़ात, पहले नहीं हुई थी. वे बम्बई में रहते थे और चित्रकारों की मण्डली के अलावा दो फिल्मकारों के—मणि कौल और कुमार शहानी—बड़े घनिष्ट मित्र थे. उनसे मेरी पहली मुलाक़ात मणि कौल के घर पर हुई. उन दिनों जब कभी बम्बई जाना होता था तो मैं अक्सर मणि कौल के साथ ही रुकता था या उनसे फ़ौरन ही सम्पर्क करता था. शाम को मिलना होता था—कभी मणि कौल के घर, कभी कुमार शहानी के घर. शाम को, दोनों ही घरों में, एक अनिवार्य उपस्थिति अकबर पदमसी की होती थी.
रज़ा : मेरे गुरु
वे उसी पानी के जहाज में फ्रांस गये थे जिससे रज़ा गये थे. दोनों साथ थे. वह बरसों तक फ्रांस में रहे. उनका रज़ा से बहुत अच्छा सम्बन्ध था. अकबर पदमसी अपने अपेक्षाकृत अधिक उदार और विगलित क्षणों में रज़ा को अपना गुरु कहते थे. उनके बीच पत्र-व्यवहार भी है.
1980 के बाद मेरा पेरिस जाना शुरू हुआ. अक्सर रज़ा से मुलाकात होती थी, तो अकबर पदमसी से भी होती थी. मैं पेरिस में एक बार उनके घर भी गया हूँ जहाँ वह उस समय अपनी फ्रेंच पत्नी के साथ रहते थे. वह शायद पेशे से डॉक्टर थीं. उनकी बेटी रईसा से बाद में परिचय हुआ. रईसा के जन्म पर अस्पताल में रज़ा साहब थे. रईसा कहती हैं, ‘‘जिस पहले व्यक्ति ने मुझे देखा, वह मेरे पिता नहीं बल्कि रज़ा थे.’’
बहुत दिनों तक अकबर पदमसी में फ्रांस रहे. वहीं उन्होंने शादी की और उनकी एक बेटी भी हुई. वह बेटी वहीं हैं.
रज़ा आदि की मण्डली में सबसे धनाढ्य अकबर पदमसी थे—पारम्परिक रूप से वह एक धनाढ्य पारसी परिवार से आते थे. बम्बई में पदमसी परिवार के कई सदस्य काफ़ी प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध थे. जैसे विज्ञापन और अभिनय की दुनिया में एलिक पदमसी बहुत प्रसिद्ध हुए. इब्राहिम अलकाज़ी और पदमसी, ये सब लोग भी एक दूसरे से जुड़े थे.
रूपंकर और आश्रम
जब भारत भवन में रूपंकर संग्रहालय के लिए कला संग्रह बनना शुरू हुआ तब अकबर पदमसी से बेहतर सम्बन्ध बना. स्वामीनाथन ने एक सलाहकार समिति बनायी थी, जिसमें अकबर पदमसी, कृषन खन्ना, रामकुमार, हुसेन, गीता कपूर और बाल छाबड़ा थे. यह तय हुआ कि बम्बई से जो कलाकृतियाँ शामिल की जाएँगी, उनको चुनने की जिम्मेदारी अकबर पदमसी और बाल छाबड़ा की होगी. चूँकि अकबर पदमसी एक धनाढ्य परिवार से आते थे, कलाकृतियों की क़ीमतों इत्यादि के बारे में, उनकी रुचि थोड़ी उदार थी. जहाँ तक मुझे याद है, इसको लेकर कुछ इस तरह का भी हुआ कि गीव पटेल या किसी ओर चित्रकार की कोई कलाकृति अकबर ने कुछ ज़्यादा दाम पर खरीदी जबकि तुलनात्मक रूप से उससे ज़्यादा वरिष्ठ कलाकार की कोई कृति दिल्ली में कम दाम पर खरीदी गयी थी.
अकबर, एक बार, स्वामीनाथन के साथ, मध्य प्रदेश के बस्तर अंचल में दौरे पर भी गये थे, जिसमें कलाकृतियाँ एकत्र करने का अभियान चल रहा था. वह कभी-कभार आते रहते थे. दिल्ली में भी. उनकी मण्डली में शायद वही एक थे जिनकी दर्शन में सीधी रुचि थी. बाक़ियों ने दर्शन को इधर-उधर से, पल्लवग्राही ढंग से, ग्रहण किया था. दर्शन में अकबर की रुचि विधिवत् थी. दर्शन ने उनकी कला को प्रभावित किया था. अपने अन्तिम चरण में उनका अध्यात्म प्रेम कुछ ज़्यादा ही गहरा हो गया और वह किसी आश्रम में जाकर काफ़ी वक्त बिताने लगे थे. ठीक से याद नहीं है कि वह आश्रम कहाँ था. शायद केरल या तमिलनाडु में था.
एक और पक्ष
उस इमारत का नाम शायद ताहिर मंज़िल था जिसमें वह रहते थे, काफ़ी पुरानी इमारत—बम्बई के हिसाब से पुरानी और भव्य. जहाँ वह रहते थे वह बहुत भीड़ वाला इलाक़ा था. मैं वहाँ भी एक-दो बार गया हूँ.
अकबर का एक और पक्ष था. रज़ा के उदाहरण का अनुसरण करके उन्होंने कभी कोई फ़ाउण्डेशन वगैरह नहीं बनाया, जैसा कि औरों ने भी नहीं बनाया, हालाँकि उनके पास पैसा काफ़ी रहा होगा.
विशिष्ट चरित्र
अकबर पदमसी को ‘नेहरू फ़ैलोशिप’ मिली थी. उस दौरान उन्होंने कोई फ़िल्म बनायी थी या फ़िल्म का कुछ प्रयोग किया था. मुझे याद आता है कि एक बार मलयालम के नाटककार शंकर पिल्लई की महाभारत से सम्बन्धित (शायद द्रौपदी, मुझे ठीक से याद नहीं है) नाट्य प्रस्तुति का निर्देशन कुमार शहानी ने किया था और उसका रंग-बंध अकबर पदमसी ने बनाया था. नाटक में एकल अभिनय अलकनंदा का था जो शायद बम्बई की प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेत्री नूतन की बेटी थी. तब लंदन में रहती थी और कुमार शहानी की अच्छी मित्र थी. उन्होंने कुमार शहानी के साथ और भी फ़िल्में बनायी थीं. इस दौरान अकबर पदमसी से मुलाकात हुई. लेकिन उसके पहले या शायद उसी दौरान उनको मध्य प्रदेश कला परिषद् के ‘उत्सव’ में अपने रेखाचित्रों की प्रदर्शनी करने के लिए आमंत्रित किया था, जिसमें उनके बनाये मुक्तिबोध के रेखाचित्र भी थे. वह सारी सीरीज़ पुरुष चेहरों पर एकाग्र थी.
मुझे उनके रेखाचित्र भी बड़े पसन्द हैं. पहली नज़र में ऐसा लगेगा जैसे वे क़रीब-क़रीब एक जैसे हैं. ध्यान से देखने पर समझ आता है कि वे एक जैसे नहीं हैं; उनमें एक व्यक्ति के विशिष्ट चरित्र की पकड़ है. उनके मैटा स्कैप्स वाली सीरीज़ से, भव्यता और विशालता का जो अनुभव होता है, वह अद्भुत है. उनके मैटा स्कैप्स से पहले के चित्रों में कुछ बहुत अच्छे मकानों आदि के दृश्यालेख हैं.
अन्तःसलिल काल, मुखर देश
अकबर पदमसी की विशेषता यह थी कि वे संस्कृत जानते थे. उन्होंने बहुत मननपूर्वक संस्कृत सीखी-पढ़ी थी. अकबर का संस्कृत भाषा में निष्णात् होना एक अलग पहलू है. उसी के चलते उन्होंने मैटा स्कैप वगैरह बनाये हैं, कुछ और दिगम्बराएं भी बनायी थीं, बल्कि उनकी न्यूड्स की फ़ोटोग्राफ़ी बहुत ही संवेदनशील है, उसकी एक पूरी प्रदर्शनी मैंने पेरिस में देखी थी. उस समय अकबर वहाँ नहीं थे, लेकिन प्रदर्शनी थी. उनमें से कुछ छाया चित्रों का इस्तेमाल मैंने पेंगुइन से प्रकाशित अपनी प्रेम कविताओं के संचयन “अब यहाँ नहीं” में किया है.
अकबर पदमसी ने बाद में जो मैटा स्कैप्स बनाये, जब वह पूरी तरह से अमूर्तन की ओर मुड़ गये, तो उसके पीछे उनका संस्कृत ज्ञान भी था. उनको लगा कि यथार्थवादी या आख्यानवादी चित्रों में दिये हुए स्पेस का उपयोग एक तरह का उपकरणात्मक उपयोग है. वहाँ स्पेस का काम और चीज़ों के लिए जगह बनाना है, स्पेस की अपनी इयत्ता का अपना कोई एर्सेशन/इसरार नहीं है. जबकि उनके मैटा स्कैप्स वाले चित्रों में—जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है—एक तरह से केन्द्र में स्पेस ही है. अपनी पारम्परिक शब्दावली का इस्तेमाल किया जाय, तो वह काल के नहीं देश के चित्रकार बने. काल देश के अधीन है—एक तरह से उसमें अन्तःसलिल है, लेकिन स्पष्ट रूप से सम्बोधित या व्यक्त नहीं है. उनके यहाँ रंगों का बहुत जबरदस्त खेल है. उनको ‘कलरिस्ट’ क्यों नहीं कहा गया, मैं नहीं जानता. कुछ रंगों का, जैसे चटक लाल या नारंगी और काले रंग का उन्होंने बहुत अद्भुत इस्तेमाल किया है.
अपनी ज्यामिति
अन्ततः अकबर पदमसी भी प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट समूह के सदस्य हुए थे. उस समूह में तीन बड़े चित्रकार अमूर्तन की तरफ़ गये—रज़ा, गायतोण्डे और अकबर पदमसी. बीच में उन्होंने जो रेखांकन वगैरह बनाये हैं, उनमें भी दूसरे क़िस्म की सघनता है : उसमें बहुत ज़्यादा काम नहीं किया गया है—वे काफ़ी संकेतात्मक हैं, आकृतिमूलक. आकृतियाँ, चेहरे तो हैं ही. इन आकृतिमूलक रेखांकनों और फ़ोटोग्राफ़ी में जो उन्होंने काम किया, उसके अलावा उनका मूल कला-कर्म अमूर्तन पर ही एकाग्र है. कहना चाहिए कि अकबर भारतीय परम्परा के ही चित्रकार हैं, जहाँ ऐन्द्रिक, श्रांगारिक और आध्यात्मिक के बीच किसी द्वैत को नहीं स्वीकार किया गया है. लेकिन वे एक आधुनिक चित्रकार हैं—उनके चित्रों में विकसित ज्यामिति उनकी अपनी ज्यामिति है, उसका कोई सम्बन्ध तान्त्रिक या ज़ेन या बौद्ध परम्परा की ज्यामितियों से नहीं है. वह बहुत हद तक उनकी अपनी ज्यामिति है.
विराट की कल्पना
अकबर की कला का वितान विराट है. एक तरह से, उनकी कला का यह पक्ष, उनको हुसेन और कृषन खन्ना के काम से, मिलाता-सा है. कह सकते हैं कि विराट को कलाकृति में पकड़ने की कोशिश है, विराट के भाव को. वह विराट अपने कुछ चिर-परिचित चिह्नों या बिम्बों से प्रकट नहीं हो रहा है. अगर वहाँ आकाश है, तो वह नक्षत्रों, ग्रहों, सूर्य, चन्द्रमा इत्यादि के माध्यम से नहीं प्रकट हो रहा है—वह एक दूसरे किस्म का आकाश है जिसमें ये सब नहीं हैं, या हैं भी तो उनका कोई चिह्न कलाकृति में नहीं है. एक तरह से अकबर के यहाँ विराट की कल्पना है. वे एक तरह के कॉस्मिक चित्रकार हैं.
अब यह थोड़ा विचित्र भी है. इसलिए कि उनके ज़्यादातर मित्र और सहकर्मी प्रायः वामपंथी थे—कृषन खन्ना, विवान सुन्दरम् वगैरह. एक ज़माने में कुमार शहानी भी वामपंथी थे. यह वामपंथ का एक दूसरा अलक्षित पक्ष है जिसमें वामपंथी दृष्टि की सामान्य अभिव्यक्तियाँ इन लोगों में नहीं हैं. मसलन, भूखे नंगे लोग, शोषण आदि. एक तरह से कह सकते हैं कि वामपंथ का एक आध्यात्मिक पक्ष था जबकि वामपंथ में आध्यात्मिक पक्ष की सम्भावना या सक्रियता स्वीकार्य नहीं होती—यहाँ उन्होंने वामपंथ को, जो दिया हुआ है उसकी, अपर्याप्तता के बोध और उसके बदल सकने की क्षमता के संकेत के रूप में ग्रहण किया है.
हर कलाकार अपना रंग-बोध, अपनी सौन्दर्य-दृष्टि के अनुसार, विकसित करता है. यह नहीं कहा जा सकता कि अकबर पदमसी, गायतोण्डे की तरह, कला में अल्प कथन करने की ओर प्रवृत्त थे. यह ज़रूर कहा जा सकता है कि उनके यहाँ विराटता पर आग्रह है, विपुलता पर नहीं. चूँकि विपुलता पर आग्रह नहीं है, उनको रंगों की विपुलता की कोई ज़रूरत नहीं थी. उनका काम जितने रंगों से चल पड़ता था उतने से चलता था. शायद एक समस्या यह रही होगी या रहती होगी या सोची जा सकती है कि क्या विराट को विपुल रंगों से व्यक्त किया जाय या कि विराट को कुछ रंगों के संयम में ही रखा जाय. जाहिर है, उन्होंने यह निश्चय किया होगा या उनका निर्णय होगा कि रंगों की विविधता विराट के व्यापक स्पन्दन को खण्डित या बाधित भी कर सकती है.
चित्र स्वयं चिन्तन है
अकबर की बौद्धिक उपस्थिति और उत्तरार्ध में उनका प्रबल आध्यात्मिक पक्ष शायद उनके स्वभाव को समझने में सहायता कर सकता है. हालाँकि उनके निजी जीवन के बारे में मुझे ज़्यादा पता नहीं है, किसी तथ्यपरक ढंग से मैं विश्लेषण नहीं कर सकता, लेकिन मेरी ज़्यादा रुचि इस बात में है कि उनके निजी जीवन के पक्षों और परिवर्तनों की प्रतिश्रुति और इसका प्रतिफ़लन उनकी कला में किस तरह प्रकट हुआ? मुझे ऐसा नहीं लगता कि उनके अन्तिम चरण के चित्रों में कोई अपसरण का भाव है. ऐसा नहीं लगता कि वे जीवन के भरे-पूरेपन से, ऐन्द्रियता से, भरे-पूरे संसार से, रंग भरे संसार से विदा ले रहे हों या उससे उदासीन हो गये हों. उनके व्यक्तिगत जीवन में हुए परिवर्तनों की कुछ न कुछ शायद फलश्रुति उनकी कला में हुई होगी, पर, उन परिवर्तनों के बारे में ज़्यादा जानता नहीं हूँ, इसलिए उस क्षेत्र में मैं अटकल नहीं लगाऊँगा. हाँ, अकबर स्वभाव से बड़े विनोदप्रिय, मिलनसार और मददगार थे. मुझे पता है कि उन्होंने कई युवा चित्रकारों (ख़ासकर मुम्बई के) की मदद की है.
अकबर की कला में काफ़ी सशक्त बाख़बर विश्वबोध है—दुनिया में, कला के क्षेत्र में, क्या हो रहा है, उसकी खोज-खबर उन्हें थी. उन्होंने सोच-समझकर अपना रास्ता बनाया. उनकी कला में स्वतःस्फ़ूर्ति उतनी नहीं है जितना एक तरह का चिन्तन है. लेकिन उस चिन्तन में तात्कालिकता या उत्कटता का अभाव नहीं है : उनके चित्रों को उनके चिन्तन के उदाहरण के रूप में पेश नहीं कर सकते. वे चित्र अपने आप में हैं, किसी चिन्तन से आक्रान्त नहीं. वे स्वयं चिन्तन हैं.
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तैयब मेहता
एक राजनैतिक चित्रकार
देश विभाजन का रंग-संस्मरण
मेरा ख्याल है, गायतोण्डे की तरह, तैयब मेहता ने संख्या में बहुत कम चित्र बनाये. रज़ा आदि की मण्डली में तैयब मेहता सबसे अधिक राजनैतिक चित्रकार थे, हालाँकि ऐसा आमतौर पर उनके बारे में कहा नहीं गया. राजनैतिक चित्रकार इस अर्थ में कि उनके चित्रों में जो बिम्ब और एक तिर्यक रेखा है, वह सबसे पहले स्पेस को विभाजित करने का ढंग बनती है. उनकी कलाकृतियों में हर स्पेस विभाजित स्पेस है. यह विभाजन उस रेखा से तय होता है जो अक्सर उनके हरेक चित्र में है. चित्र को रेखा दो-तीन हिस्सों में बाँटती है. अलग करती है. मुझे लगता है कि विभाजन की यह रेखा देश के विभाजन का एक रंग-संस्मरण है. इस अर्थ में तैयब राजनैतिक चित्रकार हैं. दूसरा, उनके बिम्ब हमेशा गिर रहे बिम्ब हैं. अगर चित्र में वृषभ है या कोई मनुष्याकृति है, तो वह गिर रही है. यह गिरने का भाव—हमारा समय ज़्यादातर के गिरने का समय है—यह समय पर बहुत अचूक पकड़ है. जब उन्होंने महिषासुरमर्दनी, महेश और इस तरह के कुछ चित्र बनाये हैं, तब वे चित्र मिथकों का पुनराविष्कार भर नहीं हैं. वैसा करना आसान होता. लेकिन वहाँ हर चीज़ गिर रही है; यह समय गिरने का समय है—इस बात को प्रतिरोध का रूपक बनाया है, जहाँ उस गिरने को थामा जा सकता है और एक सशक्त हस्तक्षेप से रोका जा सकता है. यह उनका चित्र-भाव है.
एक और पक्ष है : उनके कुछ चित्रों में, पशु और मनुष्य की आकृतियाँ, उनकी कलाकृतियों में एकाकार-सी हो जाती हैं. मनुष्य की पाशविकता, उसकी हिंसा की पकड़ भी तैयब को बहुत अचूक थी. इसी अर्थ में वह सबसे अधिक राजनैतिक चित्रकार हैं. वे इन चीज़ों को पकड़ रहे हैं. यह गिरने का समय विभाजित स्पेस का समय है. यह हिंसा, पाशविकता, क्रूरता का समय है और उस पर किसी हद तक काबू पाने का समय भी है. मेरा अपना ऐसा क़यास है कि तैयब यह कोशिश कर रहे थे कि कला सिर्फ़ दर्ज या बयान या बखान नहीं कर सकती, वह यह सब चित्रित करके अपना काम पूरा कर सकती है, लेकिन कला को किसी न किसी रूप में, इससे उबर सकने की कोई शक्ति या संकेत या आश्वासन भी देना चाहिए.
प्रभावों से ऊपर
तैयब मेहता पर फ्रांसिस बेकन के असर की बात होती है. मेरा ख्याल है कि उन्होंने उनसे किसी भांति सीखा भले हो पर उसका जो इस्तेमाल उन्होंने अपने कला-कर्म में किया है और अपने चित्रों में जो आशय भरे हैं, जिनका मैंने पहले ज़िक्र किया है, वह उनको फ्रांसिस बेकन से अलग करता है. दोनों का मूल कथ्य अलग है. आकृतियों का गिरना और स्पेस का विभाजन मूलभूत फ़र्क़ लिए है. हाँ, प्रभाव को सीधा देख सकते हैं. जैसे, सूज़ा पर पिकासो का प्रभाव, रज़ा पर सेज़ान का प्रभाव, के.जी. सुब्रमण्यन पर मातीज का प्रभाव. लेकिन इनमें से कोई भी चित्रकार उस प्रभाव के नीचे दब नहीं गया है. ये सभी चित्रकार, इन प्रभावों को ग्रहण करते हुए, उन प्रभावों से ऊपर उठ जाते हैं.
सर्वप्रिय कलाकार
तैयब मेहता से पहली मुलाकात दिल्ली में हुई. वह दिल्ली में रहते थे. हुसेन वाला क़िस्सा पहले बताया था कि मैं और तैयब उनके साथ चाय पीने निज़ामुद्दीन के एक ढाबे में गये थे. कभी-कभार वे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के बार में मिल जाते थे. वहाँ आते थे. जब भारत भवन बना, तो वे वहाँ आये. तैयब मेहता उन चित्रकारों में से थे, जिनका मेरे जाने, किसी से झगड़ा नहीं हुआ. उस मायने में वे सर्वप्रिय कलाकार थे—उनकी स्वामी, कृषन खन्ना, अकबर पदमसी, हुसेन, रज़ा आदि से भी अच्छी बनती थी. वे गपशप में हिस्सा तो लेते थे, लेकिन कम बोलते थे.
आखिरी मुलाक़ात
तैयब मेहता से मेरी आखिरी मुलाक़ात बम्बई में हुई. गुजराती कवि और दार्शनिक प्रबोध पारेख उनके बड़े निकट थे. बम्बई में तैयब कहीं दूर रहते थे. मैं उनसे मिलना चाहता था क्योंकि खबर यह थी कि उनकी तबियत ठीक नहीं है. मैंने प्रबोध से आग्रह किया. उन्होंने कहा, “मेरी तैयब से बात हो गयी है. हम लोग उनके यहाँ खाना खाने चलेंगे. आप अपनी टैक्सी में मुझे फ़लाँनी जगह से—कोई कॉलेज था, जहाँ वह पढ़ाते थे—ले लीजियेगा.” हम लोग उनके घर गये. काफ़ी देर बैठे. तब तक तैयब को गले के कैंसर का कुछ ऐसा प्रभाव हो गया था कि उनकी आवाज़ बहुत धीमी हो गयी थी. एक तो पहले से उनको बोलने में बहुत रुचि नहीं थी, अल्पभाषी थे और दूसरी तरफ़ गले का कैंसर. उनकी बोलने की अल्पता दुगुनी हो गयी थी, पर फिर भी, दुनियाभर की बातें करते रहे. मुझे याद है कि उनमें एक तरह की सम्यक् दृष्टि थी. वे अतिरेकों से बचते थे. जैसे कई लोगों में अतिरेक का भाव होता है—तारीफ़ करें तो तारीफ़ ही करते जाएँ, निन्दा करें तो निन्दा ही करते जाएँ. ऐसा उनमें नहीं था. उनकी मृत्यु के बाद उनके परिवार ने ‘तैयब मेहता व्याख्यानमाला’ शुरू की. मेरा सौभाग्य है कि इस व्याख्यानमाला में एक व्याख्यान के लिए मुझे बुलाया गया था. मैंने कबीर और ग़ालिब पर व्याख्यान दिया.
७. |
मंजीत बावा
लोक और शास्त्र का नया संगम
काव्य-लालित्य
मंजीत बावा से पहली मुलाकात तब हुई जब मैं पाँच वर्ष दिल्ली में था, दूसरे चरण में, 1962-64 के आसपास. उस समय दिल्ली कॉलेज ऑव् फ़ाईन आर्ट में एक चित्रकार अवनि सेन पढ़ाते थे, उनके बेटे मेरी उम्र के थे. हमारे एक सहपाठी से उनका परिचय था. एक बार हम उनके साथ अवनि सेन के यहाँ गये. वह गोल मार्केट के पास कहीं रहते थे. वहाँ मंजीत बावा थे. वे शायद उनके छात्र थे, ठीक से याद नहीं. वे इंग्लैण्ड जा रहे थे.
अवनि सेन पुराने, बंगाल शैली के, चित्रकार थे. तब तक मंजीत बावा की वह शैली विकसित नहीं हुई थी, जिसे मंजीत बावा की शैली के नाम से अब फ़ौरन पहचान लेते हैं. वे युवा थे. शायद मेरे से उम्र में कम या मेरी उम्र के होंगे. उनसे पहली मुलाकात वहाँ हुई थी. बाद में उनकी विकसित होती शैली में एक तरह का काव्य लालित्य जैसा बनना शुरू हुआ और ऐसे ही चित्र इधर-उधर कभी-कभी देखते थे. उनसे घनिष्ठता बढ़ी जब मैं स्वामीनाथन से मिलने गढ़ी स्टूडियो जाता था. यह उन दिनों की बात है जब मैं उनको रिझाने की कोशिश कर रहा था कि वह रूपंकर के निर्देशक के रूप में भोपाल चलें. स्वामी के स्टूडियो के पास या उसका आधा हिस्सा कभी हिम्मत शाह के पास था, कभी मंजीत बावा के पास. उनसे वहाँ मुलाकात होती थी. बहुत यारबाज़, गपोड़ किस्म के आदमी थे—दिल के बड़े साफ़ और गर्मजोशी से भरे हुए.
पुनराविष्कार
जब स्वामी अन्ततः भोपाल आ गये और उन्होंने अपना कला संग्रह का काम शुरू किया, तो जिन दो लोगों ने सबसे ज़्यादा उनकी मदद की, वे थे—मंजीत बावा और कृषन खन्ना. उसके पहले मणि कौल की ‘सतह से उठता आदमी’ फ़िल्म बन गयी थी. उस फ़िल्म का पोस्टर बनाने का काम किसके सुपुर्द किया जाये यह तय करना था. वे जानते थे कि सिख गायक मदनगोपाल सिंह मंजीत बावा के मित्र हैं. मदनगोपाल सिंह से मणि कौल का परिचय था. वे सिनेमा ही पढ़ाते थे. पहले यह तय हुआ कि वह पोस्टर मंजीत बावा बनाएँगे. अन्ततः पोस्टर रणजीत कालेका ने बनाया. इस तरह का थोड़ा-बहुत सम्पर्क मंजीत से होता रहता था.
बाद में वे भारत भवन आये. वह स्वामी की मदद करने, काफ़ी अरसे के लिए, आते थे. तब तक उनके चित्रों में उनकी अपनी रंगशैली और पहचान सुविकसित हो चुकी थी. जैसे स्वामी ने अपना रंग-बोध लघुचित्र कला—ख़ासकर पहाड़ी लघुचित्र शैली—से पाया, उसी तरह से मंजीत बावा ने भी अपना रंग-बोध वहीं से पाया. धीरे-धीरे मंजीत के यहाँ उनका सिख उत्तराधिकार भी उनकी कलाकृतियों में प्रवेश कर गया. उन्होंने बहुत सारे ऐसे चित्र बनाये हैं. अपर्णा कौर ने भी मंजीत के प्रभाव में काम किया है. वे अब ज़्यादा ही सिख चित्रकार हो गयी हैं. वे मंजीत की बड़ी मित्र भी थीं. मंजीत के यहाँ भी, जैसे स्वामीनाथन के यहाँ, रंगपट्ट की बुनियादी स्पेस बिल्कुल सपाट है—उसमें रंग हैं, लेकिन कोई और जुम्बिश नहीं है. सिवाय इसके कि स्वामी का उपयोग सिर्फ़ चार-पाँच बिम्बों तक ही सीमित रहा, उसी पर वे, एक तरह से, खेलते रहे. मंजीत बावा ने गाय, पशु, सिंह आदि बनाये और विष्णु, दुर्गा, हीर, राँझा की तरह के चरित्र भी लिये, जिनके चलते उनके यहाँ एक दूसरे क़िस्म का फ़ैलाव है—लोक और शास्त्र का एक नया संगम या नया समायोजन दिखायी देता है. रंग परम्परा से लिए हुए हैं, लेकिन मंजीत, एक आधुनिक चित्रकार की तरह, उसी परम्परा और लोक से आए हुए, कई चरित्रों और गाथाओं इत्यादि को, आधुनिक ढंग से, पुनराविष्कृत कर रहे हैं. इसका एक कारण यह है कि उन्होंने हिन्दुस्तान के काफ़ी हिस्से का दौरा किया था. वह साइकिल पर भी गये, और बहुत सारे इलाकों में.
अच्छे रसोईया
उनके कुछ विचित्र शौक भी थे. जैसे, डलहौजी में वह एक होटल चलाते थे. एक बार हम लोग वहाँ रुके थे. मंजीत बहुत अच्छे रसोईया थे. खाना बहुत अद्भुत बनाते थे. मेरा ख्याल है कि उनकी डलहौजी की होटल के नीचे ही उनके भाई गरम शॉल की दुकान चलाते थे.
कौशल और बेताला
मंजीत बहुत सारे हिन्दी लेखकों को—ख़ासकर दिल्ली वाले—श्रीकान्त वर्मा, रघुवीर सहाय, अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह इन सबको जानते थे. सबका बड़ा आदर करते थे. अक्सर साहित्यिक आदि गोष्ठियों में आते थे. बैठते और सुनते थे. हिन्दी के कला समीक्षकों को जानते थे.
मंजीत में साधारण से साधारण लोगों के साथ मिलकर बैठने, उनसे बतियाने, उनके साथ खाने-पीने का अद्भुत कौशल था. वे यह सब भूल जाते थे कि वे चित्रकार हैं. वे कहीं भी ढोलक बजाने लगते थे; ज़्यादातर बेताला बजाते थे.
पहला कैटलॉग-निबन्ध
दिल्ली में, सुजानसिंह पार्क नाम की जगह के ठीक बगल में, कोई नयी इमारत बनी थी. वहाँ मंजीत ने काफ़ी बड़ा फ्लैट ले रखा था. एक कमरा उनको इम्पीरियल होटल में मिला हुआ था जो जनपथ पर है. ब्रिटिश ज़माने की होटल है. पीटर ब्रुक वगैरह वहाँ रुकते थे. वह बड़ी भव्य और रॉयल किस्म की होटल है. होटल का एक पूरा कमरा उन्हें दिया गया था, जिसमें वह चित्र बनाते थे. उनका स्टूडियो था. उस समय उनका ताल्लुक राजीव सेठी से था. वहाँ कोई एक नये ढंग का रेस्तराँ बनने वाला था जिसके लिए वह बहुत सारे कट-आउट्स और जाने क्या-क्या बना रहे थे. चित्र भी बनाते थे. कई बार वह मुझे दिखाने के लिए ले जाते थे.
एक दिन उन्होंने कहा कि आप कैटलॉग लिखिये. मैंने उससे पहले इस तरह से किसी का कैटलॉग नहीं लिखा था. मैंने उन चित्रों पर अंग्रेज़ी में एक निबन्ध लिखा. शीर्षक था—‘ए बर्ड ऑलमोस्ट ऑन दि शोल्डर’. चित्र-प्रदर्शनी साक्षी कला वीथिका, मुम्बई में लगने वाली थी. वह कैटलॉग छपा. मुझे भी कुछ प्रतियाँ मिल गयीं. इस तरह मैंने, अपने जीवन में, पहला कैटलॉग-निबन्ध, मंजीत बावा की चित्र-प्रदर्शनी के लिए, लिखा था. मुम्बई में चित्र-प्रदर्शनी देख कर लौट आया. थोड़े दिन बाद, शास्त्री भवन में, मेरे कमरे में, एक बैठक चल रही थी. इतने में मंजीत बावा प्रकट हुए. मैं बैठक में था. मैंने कहा, “सॉरी.” कहने लगे, ‘‘नहीं, नहीं. मैं सिर्फ़ एक लिफ़ाफ़ा देने आया हूँ. बाद में बात करेंगे.’’ मैंने वह लिफ़ाफ़ा टेबल पर रख दिया. बैठक के बाद खोला, तो लिफ़ाफ़े में छः हज़ार रुपये थे. मैंने उनको फ़ोन किया कि यह छः हज़ार रुपये काहे के हैं. कहने लगे, “आपके निबन्ध के लिए.” यह बात 1993-94 की है. उस समय छः हज़ार रुपये कम नहीं होते थे.
दिलदार, मददगार, उदार, यारबाज़
एक बार शाम को, शाहजहाँ रोड पर, हमारे घर आये हुए थे. उसी समय मुझे फ़ोन आया. हुआ यह था कि एक नयी सहकारी आवास सोसायटी, वसुन्धरा एनक्लेव में, बन रही थी. उसमें मेरे मित्र कृष्णगोपाल वर्मा ने एक फ्लैट ले रखा था. उन्होंने मुझसे कहा कि तुम भी यहाँ ले लो. मुझे दो लाख रुपये ‘दयावती कवि शेखर सम्मान’ में मिले थे, जो मैंने फ्लैट के लिए वहाँ दे दिये थे. उसके बाद मैं तो भूल गया. जब मंजीत बावा बैठे थे तभी उस सोसायटी के सचिव का फ़ोन आया. उसने कहा, ‘‘अब दो दिन रह गये हैं, आपको ढाई लाख रुपये जमा करने हैं. अभी आपकी किस्त आयी नहीं है. मैंने आपको रिमाण्डर भेजा है. आप देख लीजिए, अन्यथा आपकी सदस्यता समाप्त हो जायेगी.’’ मैंने कहा, “आप मुझे अब बता रहे हैं—मैं दो दिन में ढाई लाख रुपये कहाँ से ले आऊँगा? मेरे पास इतना पैसा थोड़े है. मुझे रुपयों का भुगतान करने के लिए प्रोविडेंट फ़ंड में एप्लाई करना पड़ेगा और उसमें समय लगेगा.” यह सारी बातचीत फ़ोन पर हो रही थी. जहाँ मैं बात कर रहा था, मंजीत उससे थोड़ी दूर पर, बैठकखाने में, बैठे थे. कहने लगे, ‘‘क्या बात है, क्या चाहिए?’’ मैंने कहा, “अगले दो दिन में ढाई लाख रुपये देने हैं. इतनी जल्दी मैं कहाँ से दे दूँ.” उन्होंने कहा, ‘‘अरे! उसमें क्या दिक्कत है?’’ मैंने कहा, “दिक्कत है, हमारे पास इतना पैसा नहीं है.” बोले, ‘‘रुकिये, मैं आता हूँ.’’ बाहर गये. अपनी गाड़ी से चेकबुक लेकर आये, ‘‘सोसायटी का नाम बताइये, मैं लिख देता हूँ.’’ अब मुझे सोसायटी का नाम ही याद नहीं! नाम मालूम किया. खैर, उन्होंने फिर वह चैक लिखकर दिया. बाद में पीएफ़ से पैसा आ गया. मैंने उनको वापस कर दिया. मंजीत इस तरह के बहुत ही दिलदार, मददगार आदमी थे, उदार और यारबाज़.
पहली किताब
ललित कला अकादेमी के अध्यक्ष पद पर रहते हुए मुझे ख्याल आया कि मंजीत बावा पर कोई पुस्तक नहीं है. मैंने कला आलोचक इना पुरी से आग्रह किया. इना पुरी मंजीत की अच्छी मित्र थीं. उनके सम्पादन में एक किताब बनी, जो ललित कला अकादेमी से प्रकाशित है. वह मंजीत पर पहली किताब है.
सहचर गुरु-शिष्य
मंजीत के साथ पारिवारिक मैत्री थी. रश्मि और बच्चों से भी उनकी मुलाकात होती रहती थी. जैसे स्वामीनाथन परिवार के सदस्य थे वैसे ही मंजीत भी हो गये. भोपाल में भी अक्सर घर पर आ जाते थे. वह अक्सर तभी आते थे जब स्वामी हों. दोनों साथ आते थे. वे गुरु-शिष्य नहीं थे. लेकिन गुरु-शिष्य जैसे थे. स्वामीनाथन जैसी बौद्धिक प्रखरता या समझ मंजीत के यहाँ नहीं थी. मंजीत में स्वामी के प्रति बहुत आदर का भाव था, उनसे बहुत विनयशील भी रहते थे. लेकिन दोस्ताना था. वह सम्बन्ध वैसा ऊँच-नीच वाला नहीं था कि ऊपर गुरु है, शिष्य नीचे है. वे सहचर गुरु-शिष्य थे.
भारत भवन में वह स्वामी के इतने मददगार थे कि यह स्पष्ट था कि अगर स्वामी कभी छोड़कर गये, तो उनके उत्तराधिकारी मंजीत बाबा ही होंगे और वे हुए भी. एक समय के लिए, जब कांग्रेसी सरकार फिर आयी और मुझे भारत भवन का अध्यक्ष बनाया गया, तो उस समय मंजीत बावा रूपंकर संग्रहालय के निर्देशक बने. पहले रूपंकर संग्रहालय के निदेशक स्वामीनाथन थे. लेकिन मंजीत और कृषन खन्ना, दोनों, अनिवार्य रूप से उसकी सलाहकार समिति में सदस्य रहे. सलाहकार समिति बहुत मतलब रखती थी, वही तय करती थी कि क्या हो.
सत्ता के प्रति भाव
शायद यह बात ’95 की है. बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ. सरकारें गिरीं. भाजपा की कई सरकारें जहाँ थीं, वे भंग हुईं. थोड़े दिन बाद चुनाव हुए. मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार आ गयी. भारत भवन के पुनर्वास का एक दुर्बल-सा प्रयत्न शुरू हुआ. तब मंजीत बावा रूपंकर संग्रहालय के निदेशक बने. जब वे निर्देशक थे, तब वहाँ साधन बहुत सीमित थे. हालाँकि उनको यह सुविधा मिली हुई थी कि वह जब चाहें तब मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह इत्यादि से मिल लें. लेकिन उससे कोई वित्तीय साधन बढ़ने का अवसर नहीं मिला. आश्वासन वगैरह सब दिये जाते थे, लेकिन होता कुछ नहीं था. इसको लेकर वह कुछ परेशान रहते थे. अब मेरे पास कोई और तरीका नहीं था. मैं सिर्फ़ अध्यक्ष था. जब न्यास की बैठक हो, तो वहाँ चले जाएँ. लेकिन सारे वक्त तो वहाँ नहीं था. दिल्ली में पदस्थ था. मध्य प्रदेश सरकार का विचित्र रवैया था कि हमने भारत भवन कलाकारों को वापस सौंप दिया, अब कलाकार चलाएँ. कलाकार कहाँ से चलाएँ? पैसे कहाँ से आएँगे? मैं समझाने की कोशिश करता था कि सब केन्द्रीय स्वायत्त संस्थाओं को केन्द्र सरकार पैसा देती है, और कलाकार लोग चलाते हैं. कलाकार खुद पैसा कहाँ से लाएँगे. कुछ गाँठें भी थीं. सम्भवतः राजनैतिक. अर्जुन सिंह के बेटे अजय सिंह संस्कृति मंत्री थे. बाद में उनका अपने पिता के साथ कुछ सम्बन्ध बिगड़ गया था, लेकिन उस समय वही थे. यह भी था कि मेरे अध्यक्ष बनने की वजह से कहीं भारत भवन फिर से इतना सक्रिय न हो जाये कि पहले के अध्यक्ष की स्मृति तिरोहित हो जाये. यह सब बातें भी शायद पृष्ठभूमि में रही होंगी. मुझे कभी कोई कुछ कहता था. मैं अनसुनी करता था.
मंजीत बावा के काम करने के ढंग बिल्कुल अनौपचारिक थे. मुझे लगता है कि इस अनौपचारिकता ने थोड़ा-बहुत अहित भी किया. दोस्ताना में आप सहकर्मियों से कुछ काम नहीं करा पाते. कभी-कभी मुझे संदेह होता है कि ऐसा हुआ होगा. स्वामीनाथन का उदाहरण तो उनके सामने था ही. वे शायद स्वामी की बजाय सत्ता के प्रति थोड़ा अधिक खुले थे. एक तरह का सहज भाव रखते थे. स्वामी के यहाँ थोड़ा स्वाभिमान का तत्त्व सक्रिय था और स्वामी स्वयं राजनीति में पहले बहुत गहरे रह चुके थे इसलिए वे आसानी से सत्ता के किसी छोटे-मोटे प्रलोभन या विरोध आदि से आक्रान्त नहीं हो सकते थे.
दिलचस्प संगत
‘सहमत’ से उनका जुड़ाव था. उनके कार्यक्रमों में भाग लेते थे. गाने-बजाने में बहुत रुचि के चलते उन्होंने सार्वजनिक प्रदर्शन भी किए थे-मदनगोपाल सिंह के साथ. मदनगोपाल सिंह सुर में गाते हैं. वह बाकायदा संगीत दीक्षित हैं. मंजीत ढोलक बजाते और संगत करते थे. संगत अक्सर बेताला, लेकिन दिलचस्प होती थी.
रुख़
दिलचस्प है : संस्थापन कला की मूल प्रेरणा पश्चिम से आयी थी, जहाँ इसका बड़ा बोलबाला है. लेकिन खुद हमारे आदिवासी और लोकजीवन में संस्थापन हैं, इसको कभी ध्यान में नहीं लिया. स्वामी और मंजीत बावा, दोनों, का इन वृत्तियों के प्रति आलोचनात्मक रुख़ इस कारण था कि भारत में यह नया नहीं है—हमने हमारे यहाँ जो है उसको ध्यान में रखा ही नहीं. कला का एक विध्वंसकारी, तोड़ने-फ़ोड़ने और हस्तक्षेप करने का उत्साह, पश्चिम में आधुनिक कला का, एक तरह से, प्रमुख पक्ष रहा है, उसका स्वामी और मंजीत प्रतिरोध करते थे—कला का एक काम जीवन को सेलीब्रेट करना है और हमारे जीवन में सारी विकृतियों, विद्रूपों और प्रदूषणों के बावजूद अभी भी इतना बचा हुआ है जो सुन्दर है, और कला को उसे अलक्षित नहीं करना चाहिए.
कॉस्मिक विज़न
उनके जीवन का अन्तिम चरण थोड़ा-सा ट्रैजिक रहा. वह कोमा में चले गये. दो-ढाई बरस कोमा में ही रहे. अचेतावस्था में ही उनकी मृत्यु हो गयी. स्वामीनाथन के बाद की पीढ़ी में मंजीत एक महत्त्वपूर्ण और आख्यानपरक चित्रकार थे.
मंजीत बावा के यहाँ एक तरफ़ सूफि़याना कैफि़यत है, तो दूसरी तरफ़ जीवन के काव्य और लालित्य का आग्रह है. ज़्यादातर नव-आख्यान कला का आग्रह विकृतियों, शोषण और विखण्डन इत्यादि पर है. वह अपनी जगह है; इससे कोई आपत्ति की बात नहीं है. लेकिन, जैसे स्वामीनाथन वैसे मंजीत बावा, इस नव-आख्यानवादी परम्परा के प्रतिरोध के कलाकार हैं. स्वामी के यहाँ आख्यान है ही नहीं, लेकिन मंजीत के यहाँ आख्यान है. वह आख्यान बिल्कुल दूसरे ढंग का है. वह एक तरह की जातीय स्मृतियों के पुनर्वास का आख्यान है. वह आज के आख्यान को ध्यान में रखकर या उनमें शामिल होने की इच्छा रखते हुए चित्रित किया गया आख्यान नहीं है.
हमारी परम्परा का ही एक हिस्सा ऐसा रहा है जिसको लक्ष्य नहीं किया गया कि वहाँ पशुओं, मनुष्यों, पेड़-पौधों, मौसम और आकाश आदि सबमें सुसंगति है. सबमें तादात्म्य है, तारतम्य है. कोई किसी से अलग या विलग नहीं है. ऐसे, एक तरह का कॉस्मिक विज़न, मंजीत बावा के यहाँ भी है.
८. |
हिम्मत शाह
शिल्पित और निरलंकृत सारांश
शालीमार रेस्तराँ
हिम्मत शाह से मेरी पहली मुलाक़ात शायद शालीमार रेस्तराँ, कनॉट प्लेस में हुई, जो दाँतों के एक डॉक्टर चलाते थे. उनका नाम डॉ निझावन था, शायद. वहाँ यह सुविधा थी कि रेस्तराँ में भी उधार ले सकते थे—बिल बाद में चुकाया जा सकता था. लेखकों की मण्डली—श्रीकान्त वर्मा वाली मण्डली—श्रीकान्त, मैं, कमलेश, प्रयाग शुक्ल, महेन्द्र भल्ला, रमेश गोस्वामी, अशोक सेक्सरिया, आदि सात-आठ लोग कभी-कभी वहाँ बैठते थे. एक मैजनीन फ्लोर था, उस पर चित्रकार बैठते थे. ‘ग्रुप 1890’ के चित्रकार—जिनमें से कई जो उन दिनों दिल्ली में नहीं भी थे, जैसे गुलाम मोहम्मद शेख, जेराम पटेल, ज्योति भट्ट—इन सबसे पहली मुलाक़ात वहीं हुई है. उसी शालीमार रेस्तराँ में. हिम्मत शाह भी उनमें से एक थे.
कुछ पक्ष
भोपाल में हमने अपना संस्कृति उत्पात शुरू किया. विचार बना कि युवा कलाकारों को यहाँ प्रशिक्षण देने के लिए, कला शिविर, आयोजित करें. मैंने पहले ही कला शिविर में हिम्मत शाह को बुलाया. वे आये.
हिम्मत शाह बहुत अच्छे छायाकार भी हैं. उस ज़माने में उन्होंने मेरी बेटी दूबी के बहुत ही अच्छे चित्र लिये थे. कला-शिविर के बाद वे, किसी न किसी प्रसंग में, दो-चार बार भोपाल आये. मेरे द्वारा सम्पादित ‘पहचान’ के तीन अंकों में आवरण-चित्र उन्हीं के हैं. ‘पूर्वग्रह’ में भी उनके कुछ रेखांकन छपे थे, आवरण-चित्र भी.
कला में पदार्थता
हिम्मत शाह में तीन चीज़ें हैं. एक तो उनको सामग्री की बहुत गहरी अनुभूति थी. कपड़े का पोत या रंग या कोई भी ऐसी चीज़ जो छुई या देखी जा सकती है, उसके प्रति उनकी संवदेनशीलता बहुत उदग्र थी. कई बार ऐसा लगता है जैसे उनकी कला में इस पदार्थता ने, उनकी अपनी तथाकथित सर्जनात्मकता से अधिक बड़ी भूमिका निभायी. उन दिनों वह चित्रकार भी थे. जब उनका भोपाल आना शुरू हुआ था, वह समय एक अन्तरिम-सा काल था, जिसमें वह चित्र से अलग हटकर कुछ स्थापत्य की ओर बढ़ रहे थे. उन्होंने दो-चार ऐसी चीजे़ें बनायीं जो शुद्ध रूप से शिल्प या मूर्तिकला नहीं थी, लेकिन उसी तरह का कुछ था.
शिल्पाकृतियाँ
हिम्मत शाह बहुत पढ़े-लिखे कलाकारों में से नहीं हैं, लेकिन उनकी अपनी प्रत्युत्पन्नमति बहुत सक्रिय और बहुत सघन है. मेरा ख्याल है, हिम्मत शाह तीन-चार बार भोपाल आये होंगे; उनसे मित्रता शुरू हुई. उनमें एक क्रीड़ा-वृत्ति भी थी—सामग्री के साथ खेलना, उससे कुछ बनाना, वगैरह. आगे जाकर वह चित्रकार होने की बजाय बहुत ऊँचे पाये के शिल्पकार हो गये. मनुष्य के चेहरे के मौलिक और सरल रूप को उसकी अनावश्यकता से साफ़ कर, जितना हिम्मत शाह ने खोजा है उतना मेरी निगाह में किसी और ने नहीं. उनकी शिल्पाकृतियों का बहुत बड़ा हिस्सा मनुष्यों के चेहरे, सिर हैं. वे सिर विविध हैं. चेहरे में चश्मा और बाल ये सब अनावश्यकताएँ हैं, चेहरा इनसे मुक्त किया जा सकता है—इसको जितने सशक्त, प्रभावशाली और मार्मिक ढंग से हिम्मत शाह ने शिल्पित किया, उतना कम से कम भारतीय परम्परा में किसी ने नहीं किया.
निरलंकार सारांश
हमारे यहाँ शिल्प और मूर्ति परम्परा में हर छोटे-बड़े ब्यौरे का बहुत ध्यानपूर्वक शिल्पन किया जाता था, चाहे देवता हों या राजा या जो भी हों. हिम्मत ने यह सब छोड़कर, इस सबको हटाकर, मनुष्य का इतना निरलंकार चेहरा, मनुष्य का इतना निरलंकार माथा/ सिर बनाया जो और कहीं नहीं है. दिलचस्प बात यह है कि यह हिम्मत ने शास्त्रीय परम्परा से नहीं, बल्कि लोक परम्परा से लिया होगा. मुख्यतः वहाँ पर्याप्त साधनों के अभाव के कारण ऐसा हुआ होगा—वे कच्ची मिट्टी वगैरह के अपने देवी-देवता बनाते हैं, जिसमें इन सब अलंकरणों की गुंजाइश नहीं है. वे बिल्कुल ऐसे हैं जैसे कोई चेहरा उसके सारांश में घटा दिया है : हिम्मत ने उसी परम्परा को मिट्टी और पत्थर, दोनों, में साकार किया.
आधुनिकता के बहुत सारे, ख़ासकर पश्चिम से आये रूपों के प्रति, जैसे स्वामीनाथन या मंजीत बावा की एक चिढ़ जैसी या अस्वीकृति जैसी थी, वैसी हिम्मत शाह में भी है. हालाँकि सबसे ज़्यादा मक़बूल वह पश्चिम में ही हुए. लंदन में रहकर उन्होंने जो काम किया, उसी से उनकी कीर्ति बहुत बढ़ी. उनकी कलाकृतियों के मूल रूप में वैसा काव्य लालित्य नहीं है, जैसा स्वामी या मंजीत के यहाँ है. उनके यहाँ अधिक कठोर लालित्य और कठोर सुषमा है, जो कठोरता को तिरोहित करने के बजाय एक तरह से स्वीकार्य बना देती है. उनकी रूपाकृतियाँ कठोर हैं, लेकिन सुन्दर हैं.
साधारणता में रसे-पगे
मुझे शुरू से उनका काम अच्छा लगता था. उनके काम का ढंग अच्छा लगता था. व्यक्तिगत रूप से वह बड़े कर्मशील व गर्मजोशी वाले व्यक्ति हैं. बहुत सूखे-सूखे लोग मुझे पसन्द नहीं आते. नकचढ़े से लगते हैं, कई बार होते नहीं हैं. कई बार लोग स्वाभाविक रूप से चुप रहते हैं, लेकिन मुझे ऐसे चुप्पे लोग थोड़ा ठीक नहीं लगते. हिम्मत महत्त्वपूर्ण व्यक्ति और महत्त्वपूर्ण चित्रकार हैं.
वह लगभग सन्त की तरह रहते हैं. उनके जीने और खाने-पीने के साधन बहुत ही सादा हैं. उन्होंने बड़ा स्टूडियो बना रखा है और ख़ूब काम करते हैं. उनके काम के दाम करोड़ों में होते हैं. लेकिन अगर यों ही जाकर उनसे मिलें तो रत्तीभर अन्दाज़ा नहीं होगा, क्योंकि वह बहुत ही साधारण व्यक्ति की तरह रहते हैं. जब वह बाहर आते हैं तो हेट लगाकर और कुछ वेशभूषा बनाकर चलते हैं, जब कोई सार्वजनिक आयोजन में उनको आना होता है. पर अगर उनसे वैसे जाकर मिल लें तो वे बिल्कुल ही साधारणता में रसे-पगे व्यक्ति हैं.
असल में, उनकी शायद एक तरह की विडम्बना रही होगी जिसमें वह फ़ँसे रहे, कि हैं तो वह गुजरात के और गुजरात का लोक-जीवन उनमें रचा-बसा है, लेकिन ज़िंदगी भर वह बाहर रहे और उस जीवन से उनका कोई जीवित सम्बन्ध या संवाद नहीं बचा. यह शायद उनकी कला में होगा. इसको ध्यान से खोजने की ज़रूरत है. उनकी कला में एक तरह का नॉस्टेलजिया है जो स्वामी, अकबर या मंजीत में नहीं है, क्योंकि ये लोग जहाँ के थे, कुल मिलाकर, वहाँ ही रहे.
९. |
गुलाम मोहम्मद शेख
आधुनिक भारत का गाथाकार
शालीमार रेस्तराँ
गुलाम मोहम्मद शेख को मैंने पहली बार कनॉट प्लेस के शालीमार रेस्तराँ में देखा था. शायद उन दिनों ‘ग्रुप 1890’ की पहली चित्र-प्रदर्शनी की तैयारी चल रही थी. यह मुझे बाद में पता चला, तब पता नहीं था. कलाकार वहाँ आते रहते थे. कभी-कभी दिखायी देते थे : बड़ौदा समूह के कलाकार—गुलाम मोहम्मद शेख, हिम्मत शाह, जेराम पटेल, राघव कनेरिया आदि. बाद में गुलाम शेख से परिचय थोड़ा गहरा हुआ.
के.जी. सुब्रमण्यन
सन् 1982 में भारत भवन का उद्घाटन होने जा रहा था. इस अवसर पर हमने मध्य प्रदेश के ‘कालिदास सम्मान’ और ‘शिखर सम्मान’ (दूसरा संस्करण) दिलवाने की योजना भी बनायी थी. उसमें के.जी. सुब्रमण्यन को ‘कालिदास सम्मान’ मिल रहा था. मैंने गुलाम शेख से के.जी. सुब्रमण्यन की एक बड़ी चित्र-प्रदर्शनी आयोजित करने का आग्रह किया. मुख्यतः गुलाम शेख वहाँ उस प्रदर्शनी की व्यवस्था आदि करने के लिए आये थे. उस कलाकार मण्डली में शामिल हुए जो पहले से वहाँ थी. यह देखना सुखकर था, और किसी हद तक विस्मयकारी भी, कि इतने सारे कलाकार दूसरे कलाकारों की कलाकृतियों को सजाने, उनको ठीक से प्रदर्शित करने में इतनी गहरी दिलचस्पी लेते हैं और प्रदर्शन को लेकर उनमें वाद-विवाद-संवाद भी होता है. के.जी. सुब्रमण्यन की यह चित्र-प्रदर्शनी हुई. काफ़ी बड़ी प्रदर्शनी थी. उस समय तक शायद उनके चित्रों की इतनी बड़ी प्रदर्शनी कहीं और नहीं हुई थी. यह 1982 की बात है, आज से 42 साल पहले की.
‘वृश्चिक’
उससे पहले गुलाम शेख, ‘वृश्चिक’ नाम से, गुजराती में एक पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन करते थे. पत्रिका के हर अंक में किसी एक चित्र का प्रिंट भी होता था—जो स्वामीनाथन द्वारा सम्पादित अंग्रेज़ी पत्रिका ‘कॉन्ट्रा’ से मिलता-जुलता था. चित्रकार के हस्ताक्षर वाले उस प्रिंट को अलग से निकालकर रख सकते थे. ‘वृश्चिक’ अपने ढंग की अनोखी पत्रिका थी. उस समय कला की ऐसी कोई और पत्रिका हिन्दी में नहीं थी. किसी हद तक ‘कलावार्त्ता’ थी. ‘कलावार्त्ता’ का एक पक्ष विचारपरक था, लेकिन दूसरा पक्ष किंचित तात्कालिक था—मध्य प्रदेश कला परिषद् की गतिविधियों की रिपोर्ट, उसकी समीक्षा आदि का प्रकाशन. मूलतः वह एक तरह की समाचार पत्रिका थी, जिसे हमने थोड़ा व्यापक कर दिया था. मेरे द्वारा सम्पादित एक दूसरी पत्रिका ‘पूर्वग्रह’ थी. ‘पूर्वग्रह’ के दौरान भी गुलाम शेख से सम्पर्क हुआ, उनसे पत्राचार होता था. वह पत्राचार अब प्रकाशित है.
अद्वितीय जगह
गुलाम शेख के तीन-चार पक्ष हैं. एक चित्रकार का. अन्ततः वह अपने आप में एक बड़े चित्रकार बने. उनकी कला पर लघुचित्र कला का प्रभाव है. एक फ़लक पर कई घटनाएँ, कई छवियाँ, कई प्रसंग एक साथ. ऐसा करना लघुचित्र कला का स्वभाव ही था. किसी हद तक उनका रंग-बोध भी लघुचित्र कला से आया है.
गुलाम शेख के व्यक्तित्व के निर्माण में साहित्य की भी भूमिका थी. उनके बहुत घनिष्ट मित्रों या सम्भवतः उनके शिक्षकों में, गुजराती के बड़े नवाचारी साहित्यकार सुरेश जोशी थे. सम्भवतः उन्हीं की प्रेरणा से उन्होंने कई आधुनिक कवियों और लेखकों को पढ़ा.
अपनी जीविका के लिए वह बड़ौदा के ललित कला विभाग में अध्यापक बने. बाद में वह कला इतिहास के विशेषज्ञ बने. सम्भवतः वह एकमात्र ऐसे कलाकार हैं जो कलाकार के अलावा एक कला इतिहासकार के रूप में भी बहुप्रतिष्ठित हुए. उन्होंने अंग्रेज़ी और गुजराती में, कला-प्रश्नों और कलाकारों पर, गहराई से लिखा है. हमने, रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत, उनके गुजराती कला-लेखों के हिन्दी अनुवाद की पुस्तक, ‘निरखे वही नज़र’ नाम से, प्रकाशित की है. उनके सोच-विचार का रेंज बहुत बड़ा है— भारतीय चित्रकला, प्राचीन यूरोपीय चित्रकला, मध्यकालीन यूरोपीय चित्रकला इत्यादि को उन्होंने हिसाब में लिया है. यह उनका तीसरा पक्ष है. चौथा पक्ष यह है कि वे गुजराती के प्रतिष्ठित कवि और गद्यकार भी हैं. हाल में ही गुजराती से अनूदित उनकी एक किताब ‘घर जाते’ हिन्दी में प्रकाशित हुई है. यह किताब उनके बचपन और लड़कपन के जीवन का आत्म-वृत्तान्त है और रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत प्रकाशित हुई है.
एक कलाकार, कला इतिहासकार, सम्पादक और गुजराती के एक महत्त्वपूर्ण कवि व गद्यकार के रूप में वह जाने जाते हैं. इसलिए उनके जैसा कोई दूसरा कलाकार नहीं है. स्वामीनाथन, हुसेन ने कुछ कविताएँ लिखी हैं. सूजा भी लिखते थे, लेकिन इन सबकी कीर्ति स्वतन्त्र रूप से कवि के रूप में नहीं बनी, जो गुलाम शेख की बनी और इनमें से कोई भी अध्यापक नहीं हुुआ. प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट समूह में कोई भी अध्यापक नहीं हुआ. सभी कलाकार ही थे. इसलिए शेख की जगह काफ़ी हद तक अद्वितीय है.
वाम-दृष्टि और इतिहास-बोध का खुलापन
गुलाम शेख पर वाम विचार की काफ़ी छाया है, लेकिन वे उसके बन्दी नहीं हैं—उनमें खुलापन है. वे सतही तौर पर अपनी वाम-दृष्टि को व्यक्त करने या उसके लिए समर्थन जुटाने की कोई कोशिश नहीं करते. उनमें यह क्षमता है कि वह अपने से बिल्कुल अलग किस्म के चित्रकारों या कवियों को पसन्द कर सकते हैं. मसलन, रज़ा, गायतोण्डे या अकबर पदमसी जैसे चित्रकार है जो आकृतिमूलक या आख्यानमूलक पंथ के अनुयायी नहीं रहे हैं, उनके प्रति भी वे खुले और उदार रहे हैं. खुद उनकी कला में, दूसरे कई समकालीनों के मुक़ाबले, एक तरह का बहुत ही सक्रिय इतिहास-बोध है—इस अर्थ में कि वे अपने समय को दर्ज करने की चेष्टा करते हैं. बहुत सारे दंगे-फ़साद हुए हैं. गुजरात तथाकथित हिन्दुत्व की प्रयोगशाला ही रहा है. वे खुद बढ़ती हुई आक्रामकता और घृणा के माहौल में, गुजरात में, रहते रहे हैं—इस गहरे दंश ने उनकी कला को महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित किया है. जैसे सोमनाथ होर ने बंगाल के अकाल में अपने चित्त, अपनी कला, अपने जीवन पर घाव महसूस किये थे, शायद कुछ वैसे ही मिलते-जुलते घाव गुलाम शेख ने, गुजरात में रहते हुए, महसूस किये हैं—उन घावों की छापें उनके चित्रों में हैं. इसका यह अर्थ नहीं है कि वह एक विषय-प्रधान कलाकार या कथ्य-प्रधान कलाकार हैं. उनके यहाँ कला-कौशल के बुनियादी सिद्धान्तों से विरक्ति नहीं है. वे इस ढंग से चित्र नहीं बनाते कि कथ्य से इतने आक्रान्त हो जाएँ कि उसमें रंग-संयोजन या छवि-निर्माण के कलात्मक सन्तुलन को लक्ष्य न कर पाएँ. यह सोमनाथ होर से उनका दूसरा साम्य है—वहाँ घाव बहुत पेश-पेश नज़र नहीं आएँगे, जैसा कि गुलाम शेख के यहाँ भी है.
कभी दुबारा से
‘कोविड’ के आसपास हम लोगों ने तय किया कि हम एक दूसरे को कुछ लिखेंगे. मैंने कुछ कविताएँ लिखीं, उनको भेजीं. उन्होंने उस पर कुछ प्रतिक्रिया की. पर वह रुक गया, आगे नहीं बढ़ा. शायद उसको दुबारा से कभी लेना होगा.
स्वयं-आयत्त उत्तराधिकार
कुछ महीने पहले उन्होंने ‘कारवाँ’ नाम से दिल्ली में एक चित्र-प्रदर्शनी की थी. प्रदर्शनी में सबसे बड़ा चित्र ‘कारवाँ’ शीर्षक से है. इस चित्र में उन्होंने अपने बहुत सारे पूर्वजों के चेहरे चित्रित किये हैं. एक तरह से वह उन पूर्वजों को प्रणति है. चित्र में युद्ध-जीवन का कारवाँ है, बहुत सारे लोग मौजूद हैं—रिल्के, शेक्सपीयर, पाब्लो नेरूदा, सत्यजीत राय, रबीन्द्रनाथ ठाकुर इत्यादि. उन्होंने एक बड़ी विरासत को बहुत ही स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है.
गुलाम शेख के यहाँ स्वयं आयत्त किया हुआ उत्तराधिकार है : दोनों ही पक्षों में—अपने भारतीय और अपने यूरोपीय पक्ष में. वह एक सजग, संवेदनशील कलाकार का चुना हुआ उत्तराधिकार है जो अनायास नहीं मिल गया है या उनके जीवन-प्रवाह में स्वाभाविक ढंग से नहीं आ गया है. वह अपने लिए उन्होंने जानबूझकर चुना है. इस अर्थ में भी वह अपेक्षाकृत ज़्यादा कट्टर वामपन्थियों से अलग हैं—उनको अपने व्यापक उत्तराधिकार का एहसास है, जिसे प्रकट करते हुए उनको कोई संकोच नहीं होता.
कविता और संगीत की झंकृतियाँ
मध्यकालीन यूरोप के कुछ चित्रों और कुछ भारतीय मध्यकालीन लघुचित्रों से प्रेरणा लेकर उन्होंने अपनी चित्र-भाषा बनायी है. उनके यहाँ यह समन्वय हड़बड़ी में किया हुआ समन्वय न हो कर ऑर्गेनिक/आवयविक ढंग से है जो एक सजग, ईमानदार, खुले आधुनिक का गुण है. आधुनिकों को यह सुविधा मिली है जो मध्यकालीनों को या प्राचीनों को नहीं थी कि वे पूरे संसार की कला, उसके विचार, उसकी उपलब्धियों से अवगत हो सकते हैं, उसके बहुत सारे को सीधे देख सकते हैं. इसका बहुत ही अच्छा उदाहरण स्वयं गुलाम मोहम्मद शेख हैं. उन्होंने समझ, संवेदना, सजगता और जिम्मेदारी के साथ अपना उत्तराधिकार चुना है. वह उन आधुनिकों में से नहीं हैं जिनके लिए उत्तराधिकार एक बोझ या अनावश्यक स्मृति है—वह उत्तराधिकार उनकी चित्र-भाषा में सजीव है. जैसे, उन्होंने कभी ‘कबीर’ को लेकर चित्र बनाये. वह कबीर में क्या चुनते हैं और कैसे चुनते हैं? ध्यान से देखें : उन्होंने कबीर की कविता और कबीर का कुमार गन्धर्व संगीत—इन दोनों को अपने हिसाब में लिया है. उनकी कबीर सम्बन्धी चित्रकृतियों में कविता और संगीत, दोनों, की झंकृतियाँ हैं—दिलचस्प यह है कि ये झंकृतियाँ चित्र में हैं. ऐसा बहुत कम हुआ है. ऐसा हुआ है कि कविताओं से प्रेरित होकर चित्र बनाये गये या संगीत से प्रभावित होकर. मसलन, गायतोण्डे के बारे में यह कहा जा सकता है कि उनके लिए संगीत एक प्रेरक-तत्त्व रहा होगा. लेकिन मुझे ऐसा दूसरा उदाहरण याद नहीं आता जिनके यहाँ कविता और संगीत, दोनों, की झंकृतियाँ चित्रकला में हैं. किसी हद तक रबीन्द्रनाथ टैगोर में मिल सकता है. यह एक निराली घटना है.
आधुनिक भारत का महाआख्यान
गुलाम मोहम्मद शेख ने म्यूरल भी बनाये हैं. इस तरह के कमीशन/प्रायोजक मिलना लगभग संयोग की बात है. अमूमन कोई कलाकार अपने से यह तय नहीं कर सकता कि उसे म्यूरल बनाना है. तय कर भी ले, तो उसके लिए साधन चाहिए. वे साधन कोई दूसरे लोग या कोई एजेन्सी ही दे सकती है. मसलन, बिनोद बिहारी मुखर्जी ने हिन्दी भवन, शान्ति निकेतन में सन्तों-भक्तों की चित्रावली बनायी है या के.जी. सुब्रमण्यन ने कला भवन को ही पूरा चित्रित किया. या बाद में कृषन खन्ना ने होटल मौर्या शेरेटन में पूरा एक म्यूरल बनाया है. यह संयोग है, लेकिन अगर संयोग सम्भव हो जाय तो अपनी कला को व्यापक वितान दे पाना सम्भव होता है. दूसरी ओर एक कठिनाई यह है कि क्या सम्बन्धित कलाकार की कला में पहले से महाकाव्यात्मक वितान अर्जित कर पाने की सम्भावना या क्षमता अन्तर्निहित है. मुझे लगता है कि गुलाम शेख के यहाँ यह अन्तर्निहित है. गुलाम शेख की कला, एक गहरे अर्थ में, आधुनिक भारत का महाआख्यान है. यह भी कह सकते हैं कि भारत में विभिन्न तरह की शक्तियों का जो महाभारत हो रहा है, वह उसके गाथाकार हैं. इसलिए उनकी कला में पहले से ही यह सम्भावना अन्तर्निहित थी कि वे ऐसा म्यूरल बना सकें.
केन्द्रीय जीवनासक्ति
कई बार हम कला में यह नहीं देख पाते कि वहाँ जीवन के प्रति किस तरह की आसक्ति प्रकट होती है. मेरी अपनी यह धारणा है कि कला में कहीं न कहीं जीवन से आसक्ति प्रकट होनी चाहिए. चाहे कितने ही विद्रूप और विकृतियों का सहारा लें, कितनी ही उलटबाँसी करें, कितने ही दुःख, दैन्य और उत्पात आदि की पड़ताल करें, पर इन सबका औचित्य तभी है जब कला में जीवनासक्ति प्रकट हो—जो, मेरा ख्याल है, गुलाम शेख के चित्रों में भरपूर है, प्रकट है : उन्होंने जितने प्रयोग किये हैं, उनमें भी.
गुलाम शेख ने अपने चित्र-पटल को तरह-तरह से बदला है. कैनवस पर चित्र बनाये हैं, बहुत बड़े-बड़े चित्र बनाये हैं, लेकिन कांवड़ की युक्ति ले कर भी, कुछ और चीज़ें भी जो नक्शों को लेकर बनायी हैं. इन सबमें एक रास्ता-सा पैदा होता है. दूसरी तरफ़ अपने को जीवन कहाँ-कहाँ, कैसे-कैसे व्यक्त करता चलता है, कैसे-कैसे अपना उत्सव मनाता चलता है, उसको भी उन्होंने पकड़ा है. उनके यहाँ, जीवनासक्ति बहुत केन्द्रीय है.
हिंसा : शिनाख्त और प्रत्याख्यान
समकालीन आधुनिक भारत का गाथाकार, भारत में हिंसा की व्यापकता और उसके उभार को अलक्षित कर कभी प्रामाणिक या विश्वसनीय नहीं हो सकता. क्योंकि हिंसा हमारी परिस्थिति का एक बहुत ही दृश्य-तत्त्व है : हिंसा को न सिर्फ़ नज़रअन्दाज़ न करना, बल्कि उसका सामना करना. एक समय में, ख़ासकर साठ के दशक में, ऐसे बहुत सारे रचनाधर्मी अलग-अलग विधाओं में, अलग-अलग कलानुशासनों में उभरे थे जिन्होंने हिंसा की शिनाख्त और उसको प्रश्नांकित करना शुरू कर दिया था. जैसे नाटककार विजय तेंदुलकर या दूसरी तरफ़, कबीर जैसे कवि की संगीत में एक तरह से खोज. ऐसे बहुत सारे तत्त्व खोज सकते हैं जहाँ हिंसा का कड़ा प्रत्याख्यान है. हिंसा की शिनाख्त और उसका प्रत्याख्यान—दोनों ही तत्त्व गुलाम शेख के यहाँ बहुत महत्त्वपूर्ण ढंग से व्यक्त हुए हैं. उनके चित्र, शान्त चित्र नहीं हैं, बेचैन चित्र हैं. ऐसे चित्र हैं जिनमें खलबली-सी मची हुई है. वे चुपचाप बैठकर एकान्त साधना के चित्र नहीं हैं. हमारे आसपास जो घट रहा है—पुरा-पड़ोस की चीख-पुकारें, खलबली, क्षोभ और हिंसा—इन सबके बीच और इन सबकी छाया व अंतर्ध्वनियां उनके चित्रों में है. उनके रंगों में सघनता है : इस अर्थ में सघन कि अगर एक रूपक के रूप में सोचें, तो जैसे बहुत सारा ख़ून जम गया हो–कई बार ऐसा कुछ भाव उनके रंगों में आता है.
शेख की सोहबत
गुलाम मोहम्मद शेख ने अपने नागरिक धर्म का, बहुत साहस, दृष्टि और स्पष्टता से, बराबर पालन व सामना किया है. इस पक्ष पर मेरा उनके साथ संवाद रहा है. मैं कभी-कभी उन्हें, कुछ न कुछ करने के लिए, उकसाता भी रहा हूँ. वे उन कुछ कलाकारों में से हैं जो व्यापक मुद्दाें पर अपनी स्पष्ट राय रखते हैं. अगर कोई अभियान चलाने या अपना प्रतिरोध व्यक्त करने की कोई बात हो, तो वह बराबर साथ देते हैं. बल्कि वे उन लोगों में से हैं जो साम्प्रदायिकता, हिंसा, हत्या इत्यादि की वर्तमान सत्तारूढ़ राजनीति के प्रबल विरोधी हैं और उन्हें हमेशा ही सद्भाव, समझ और सहकार का खुला पक्षधर पाया जाता है.
वे उम्र में मुझसे थोड़े बड़े हैं, दो-तीन साल. एक समय था जब अनेक भाषाओं में ऐसे लोग धीरे-धीरे उभर रहे थे जिनकी रुचियाँ और सरोकार व्यापक थे. जैसे गुजराती में गुलाम शेख या मराठी में दिलीप चित्रे. इन सबकी एक असंगठित-सी और अनायास-सी बिरादरी-सी बन गयी थी. इन सबको कहीं न कहीं मेरे द्वारा सम्पादित ‘पहचान सीरीज’ जैसे विनम्र प्रयत्न की खबर थी. हो सकता है मैंने भी उनको ‘पहचान’ की प्रतियाँ भेजी हों. उस समय ‘पहचान’ जैसा प्रयत्न किसी भी भारतीय भाषा में नहीं था. किसी और भाषा में हुआ भी नहीं. अब जैसे ‘रज़ा पुस्तक माला’ को लें. किस भाषा में ऐसी पुस्तक माला है—इतनी विविध, इतनी सुदीर्घ? इन सबका, भारतीय साहित्य की हिन्दीतर दुनिया में, कुछ न कुछ प्रभाव तो पड़ता ही है. अपने एक वक्तव्य में गुलाम शेख ने कहा था, ‘‘अकेला रज़ा फ़ाउण्डेशन जो गतिविधियाँ कर रहा है, वे तीन राष्ट्रीय अकादेमियाँ मिलकर नहीं कर पा रही हैं.’’ यह उनकी उदारता है.
मध्य प्रदेश में, अपनी सांस्कृतिक सक्रियता के आरम्भिक वर्षों से ही, गुलाम शेख से जुड़ाव शुरू हो चुका था. यह वही समय है जब ‘पहचान’ और ‘पूर्वग्रह’ निकल रहा है और बाक़ी सब हो रहा है. अगर आपकी आकांक्षा कुछ ऐसा करने की है जिसमें भारत के दूसरे हिस्सों के महत्त्वपूर्ण और नवाचारी लोग शामिल हों, तो आप जिन लोगों से सम्पर्क करेंगे, जिनकी सोहबत चाहेंगे, उनमें गुलाम शेख भी होंगे. यह सम्भव ही नहीं था कि उनकी ओर नज़र न जाय. एक तरह से उनकी उपस्थिति अनिवार्य उपस्थिति थी.
हमने ‘समास’ निकाला. ‘समास’ निकालने के लिए पैसे तो थे नहीं. कहाँ से पैसे आयें? यह विचार हुआ कि अपने मित्रों से एक-एक हज़ार रुपये लिया जाएँ. जिन मित्रों ने एक-एक हज़ार रुपया दिया, उनमें गुलाम शेख भी थे.
यह कहना कठिन होगा कि उनसे वैसी घनिष्टता हुई जैसी रज़ा साहब या स्वामी से हो पायी. लेकिन हम लोग साथ हैं और ज़रूरत पड़ने पर उनका सहारा लिया जा सकता है, यह भाव मन में हमेशा बना रहा है.
स्वामीनाथन की उपस्थिति
स्वामीनाथन की शोकसभा में, गुलाम शेख ने, स्वामी के नाम और उनको सम्बोधित एक पत्र पढ़ा था, जिसे फिर हमने ‘समास’ में छापा भी.
शुरुआत में दोनों मित्र थे. आरम्भिक वामपंथी प्रतिबद्धता के बाद और उसके कारण, स्वामी की इतिहास-विरोधी विचारशीलता, परिपक्व हुई. स्वामी का नव-आख्यानमूलक कला के प्रति विरोध प्रकट हुआ. इससे दोनों के बीच तनाव-सा था. लेकिन दोनों ही लोकतान्त्रिक वृत्ति के लोग थे, इसलिए एक दूसरे से उनका सम्बन्ध बना रहा. शायद स्वामी एक व्यक्ति-शिविर बने. गुलाम शेख सहित दूसरों का अलग शिविर बना—गीता कपूर, विवान सुन्दरम् आदि. इस सबके बावजूद उनमें कोई खटास या एक दूसरे को ख़ारिज करना या एक दूसरे के प्रति अन्यमनस्क रहना, ऐसा नहीं हुआ. ऐसा इसलिए भी नहीं हुआ कि स्वामी की उपस्थिति ऐसी नहीं थी कि जिसको अलक्षित कर सकें. स्वामी एक बौद्धिक योद्धा भी थे. वह हर मंच पर लड़ते थे. उनकी उपस्थिति को अनदेखा करना मुश्किल था.
ललित कला में स्थिति हिन्दी साहित्य से अलग है. हिन्दी साहित्य में वैचारिक, ख़ासकर विचारधारात्मक मतभेद लगभग शत्रुता बन जाते हैं. ललित कला में ऐसा नहीं हुआ है. दूसरी भारतीय भाषाओं में भी नहीं हुआ है. बल्कि उन जगहों में बिल्कुल ही नहीं हुआ जहाँ राजनीति में वामपंथ सत्तारूढ़ रहा है. मसलन, बंगाल और केरल में. हिन्दी प्रदेश में वामपंथ कभी सत्तारूढ़ नहीं हुआ, लेकिन यहाँ ध्रुवान्तकारी मतभेद हैं.
बहुलता का महत्त्व
‘बड़ौदा स्कूल ऑव् आर्ट’ के कलाकारों में एक ही दृष्टि के सहचर होते हुए भी आपस में बहुत भिन्नताएँ हैं. कला और साहित्य में साम्य का उतना महत्त्व नहीं है जितना बहुलता का है. बहुलता साम्य से नहीं, विभिन्नताओं से पैदा होती है. ‘बड़ौदा स्कूल ऑव् आर्ट’ को एकीकृत देखने का क्या अर्थ है? ऐसी कौन-सी चीज़ें हैं जिन पर ‘बड़ौदा स्कूल ऑव् आर्ट’ के सभी कलाकार एकमत हैं? मसलन, भूपेन खख्खर. भूपेन खख्खर वामपंथी दृष्टि से प्रभावित नज़र नहीं आते, लेकिन वह बड़ौदा स्कूल के बहुत महत्त्वपूर्ण कलाकार हैं. गुलाम शेख और बड़ौदा के कई कलाकार उनके घोर प्रशंसक हैं. स्कूलों की यह धारणा या इस तरह के सामाजिक रूपों में भी विभिन्नताओं को एकत्र करने का भाव है. एक ही तरह की दृष्टि को सब पर लादने की ज़रूरत नहीं है. वहाँ कोशिश भी नहीं है.
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परमजीत सिंह
प्रकृति को अमूर्तन में देखना
असम्भव के लैंडस्केप
एक मायने में, परमजीत सिंह, रामकुमार जैसे चित्रकार हैं जिन्होंने बहुत लम्बा समय लैंडस्केप बनाने में ही लगाया, अगर उनका आरम्भिक काल छोड़ दें तो. उनका असली विषय और शैली लैंडस्केप है. कमाल की बात यह है कि उनके लैंडस्केप में रंगों का अपार संसार है. ध्यान से देखने पर यह कहा जा सकता है कि एक अवधि में वे किसी एक रंग को ही प्रधानता देते हैं और एक तरह से अपने चित्रों में उसी का अनुसन्धान करते हैं. उनके यहाँ लैंडस्केप अक्सर बहुत पहचाने जाने वाला दृश्य उपस्थित नहीं करते, वह कोई देखे गये दृश्य को लैंडस्केप में चित्रित नहीं कर रहे होते. स्थान विशेष का मालूम नहीं चलता कि कहाँ के हैं, इसका कोई वर्णन नहीं है. वह देखने में लैंडस्केप हैं पर वे किसी दृश्य से प्रेरित या उस पर सीमित नज़र नहीं आते हैं. एक अर्थ में कहा जा सकता है कि असम्भव के लैंडस्केप हैं. जो वह चित्रित कर रहे हैं वह इस चित्र द्वारा ही सम्भव हो रहा है—वह इसके पहले कहीं नहीं है, जिसके नज़दीक जाने की वह चेष्टा कर रहे होंगे.
उलझाव के रूपक
परमजीत के चित्रों में बहुत बारीकी से काम किया गया है. ऐसा लगता है कि बहुत सारे तार या धागे या तन्तु या पता नहीं क्या, उलझे हुए से हैं. उनकी कला का एक पक्ष यह है कि वह एक तरह के अनिवार्य उलझाव का चित्रण करते हैं. उसको ठीक-ठीक परिभाषित करना मुश्किल है. यह कहना मुश्किल है कि वह वैचारिक उलझाव है, कि दृश्यात्मक उलझाव है, कि कोई मनोवैज्ञानिक उलझाव है या कि सामाजिक उलझाव है. एक अर्थ में वे यह सब भी हैं और इनसे अलग भी हैं.. वह एक तरह से मानवीय स्थिति का एक रूपक जैसा है, जिसका आशय यह होगा कि मानवीय स्थिति हर दौर में और हर समय और हर स्थान पर उलझाव भरी है. अक्सर हम उसको समझने के लिए या उसका विश्लेषण करने के लिए भले उसको कुछ सरलीकृत करने की चेष्टा करते रहते हैं, पर, असल में वह किसी भी सरलीकरण में समाती नहीं है. उनके चित्रों में यह उलझाव एक तरह का आदिम उलझाव भी है. इसलिए चित्रों में न सिर्फ़ स्थान की कोई दृश्यता नहीं है, बल्कि समय की भी कोई दृश्यता नहीं है. यह कहा जा सकता है कि जिस तकनीक का और जिस तरह के रंगों का वह इस्तेमाल करते हैं वह आधुनिक समय में ही सम्भव हुआ है, लेकिन चित्र-निर्मिति के सन्दर्भ में जिस तरह के तूलिकाघात आदि चीज़ों को वे काम में लेते हैं, उस अर्थ में क्या उनके देश-काल को अंकित किया जा सकता होगा? एक मानी में यह ज़रूर कहा जा सकता है कि उनकी कला एक ऐसी कला है जो अपने अर्थ और आशय में, अपनी मूल प्रेरणा और आकांक्षा में, देशातीत है और कालातीत भी.
साहचर्य-बहुलता का परिवार
जहाँ तक परमजीत सिंह के व्यक्तित्व का प्रश्न है, वे एक बहुत ज़िंदादिल और विनोदप्रिय व्यक्ति हैं, उनमें एक तरह की, बहुत ही सौम्य, शरारत भी कई बार नज़र आती है—उनकी टिप्पणियों में. एक तरह का खुलापन भी उनके व्यक्तित्व में है. इस अर्थ में खुलापन कि वह ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जिनके कुछ अटल पूर्वग्रह बन गये हों. वह तरह-तरह की कला और तरह-तरह के कलाकारों को पसन्द कर सकते हैं. ऐसों को भी जिनका एक दूसरे से बिल्कुल भी तालमेल बिठा पाना कठिन होगा. उनका एक खुला मानस है, खुला व्यक्तित्व है.
जहाँ तक याद है, उनसे मेरी मुलाक़ात भारत भवन के ज़माने में ही हुई होगी. वह मुलाक़ात थोड़ी बढ़ी जब मैं दिल्ली आया. बाद में, जब थोड़ा-बहुत, ललित कला अकादेमी में सक्रिय हुआ और रज़ा फ़ाउण्डेशन में—तब वह एक तरह के बहुत ही सजग-सहज मित्र बन गये. उसका एक कारण यह भी रहा कि उनका परिवार ही चित्रकारों का है, जो बड़ा दुर्लभ है. वह भी चित्रकार, उनकी पत्नी भी चित्रकार और उनकी बेटी अंजुम भी चित्रकार, जिसका अभाग्यवश, कैंसर से, देहान्त हो गया. तीनों की अलग-अलग शैलियाँ हैं. एक दूसरे पर कोई प्रभाव नहीं है. अगर आधुनिक कला में साहचर्य-बहुलता के अर्थ में देखना हो, तो अकेले इस परिवार में देखा जा सकता है. तीन लोग हैं और उनका सौन्दर्य-बोध, उनकी शैली और मुहावरे बिल्कुल अलग-अलग हैं और उनके विषय भी.
प्रकृति : एक कठिन रास्ता
यह कह सकते हैं कि परमजीत के यहाँ प्रकृति से जो सम्बन्ध है वह एक तरह का आदिम सम्बन्ध है. कई बार उनके चित्रों को देखकर ऐसा लगता है कि कोई व्यक्ति पहली बार प्रकृति के सामने है और उसका एहतराम कर रहा है. एक अर्थ में, प्रकृति से हो रहा यह साक्षात्कार देश-काल से परे है. यह ऐसा साक्षात्कार नहीं है जो आज हो रहा है, और आज ही हो सकता था. यह सही है कि आज हो रहा है, पर यह कभी भी हो सकता है. यह काल-बाधित या काल-नियमित साक्षात्कार नहीं है. इस तरह की कला का एक दूसरा सामाजिक महत्त्व भी उभरता है. इस अर्थ में कि जब हम लगातार पर्यावरण का क्षरण देख रहे हैं, जब हम इतनी निर्ममता और क्रूरता से, अपने उपभोग के लिए, प्रकृति को नष्ट, विकृत, विद्रूप करने पर उतारू हैं. ऐसे में, ऐसी कला, हमको एक बार फिर से सावधान करती है कि पर्यावरण में इतनी विपुलता है, इतनी सघनता है, इतना वैविध्य है कि उसको क्षत-विक्षत करना एक बहुत बड़ा मानवीय संकट पैदा करेगी. बल्कि वह संकट पैदा हो ही गया है. इस तरह से अगर देखेंं, तो यह कला देशातीत और कालातीत होने के बावजूद, अपने देश और अपने काल के लिए एक तरह की विशेष प्रासंगिकता अर्जित करती है.
ख़ुद परमजीत ने अपने चित्र का एक काव्यात्मक वर्णन किया है, ‘‘प्रकृति मुझसे कई तरह की आवाज़ों में बात करती है. शान्त, रहस्यमय और तेजस्वी. एक पीला केन्द्र अँधेरे जंगल पर बाहर की ओर फ़ैलता है. लाल फ़ूलों की एक लाली हरी पत्तियों पर बिखरी हुई है. जंगल से छनकर गिरे हुए सूखे पत्तों पर सुनहरी रोशनी के छींटे इतनी करारी बनावट बनाते हैं, जिसे कोई आँखों से करारी महसूस कर सकता है. या घास के मैदान का एक विशाल विस्तार हवा से छू सकता है.’’ इस वक्तव्य में भी ध्यान देने की बात है कि इनमें किसी पशु-पक्षी जैसे चित्र नहीं हैं. यह पूरी तरह से कुछ बुनियादी तत्त्व हैं : घास, पत्ती और फ़ूल—ये अपेक्षाकृत कम सजीव माने जाते हैं बजाय पशु-पक्षियों, मनुष्य इत्यादि के. परमजीत का आग्रह प्रकृति की प्राथमिकता पर है—वह प्राथमिकता अपने मूल तत्त्वों से प्रकट होती प्राथमिकता है. वह, एक तरह से, बहुत सारी चीज़ों की अस्तित्वगत इयत्ता को, उसकी अपनी निर्मल और अदम्य आभा को, पकड़ने की कोशिश है. इसलिए उसका सौन्दर्य किसी दिए हुए सौन्दर्य से अलग है—पशु या पक्षी आदि को चित्रित करने से तो वैसे ही थोड़ी सुन्दरता आ जायेगी, क्योंकि ये अपने आप में सुन्दरता के कारक रहे हैं. पर ऐसा न करके परमजीत एक ज़्यादा कठिन रास्ता अपनाते हैं. वह कठिन रास्ता इसलिए है कि वे उस उलझाव को पकड़ने की कोशिश करते हैं जिसमें प्रकृति के मूल तत्त्व सक्रिय हैं, लेकिन जो ज़्यादातर सीधे-सीधे नज़र नहीं आते. वे अपने कई चित्रों में एक ही रंग को प्रधानता देकर रचते हैं और उसे ही वे कई तरह से देखते-पाते हैं.
एक तरह से आधुनिक भारतीय कला में सुन्दरता थोड़ी-थोड़ी घटती रही है. कुछ विकृत और विद्रूप का सौन्दर्य अधिक हावी है. लेकिन परमजीत सिंह के चित्रों में एक तरह की मोहकता, एक तरह की सुन्दरता बरकरार है. हालाँकि, उनके कथ्य में, शायद कुछ तीखापन कभी-कभी होता है—एक तरह की बैचेनी और एक तरह का उद्वेग, जैसे तत्त्व उसमें हैं. वह सब, कुल मिलाकर, सौन्दर्य की रचना ज़रूर करते हैं. उनका यह पक्ष उन्हें कई चित्रकारों से काफ़ी अलग भी करता है.
अमूर्तन में देखना
परमजीत सिंह की लैंडस्केप की अवधारणा और उसका प्रतिफ़लन, एक तरह के, अमूर्तन में होता है. उनको एक ‘अमूर्त प्रकृति चित्रकार’ भी कहा जा सकता है—प्रकृति का ऐसा चित्रकार जो प्रकृति को अमूर्तन में देखता है : वह प्रकृति को मूर्त रूपों में देखने की ज़रूरत नहीं समझता या उसकी कला के लिए प्रकृति की मूर्तता अनावश्यक है. क्योंकि प्रकृति को अमूर्तन में देखने से कलाकार की अपनी स्वतन्त्रता बची रहती है— मूर्त रूपों से बाधित नहीं होती.
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पीयूष दईया
जन्म अगस्त 1972, बीकानेर (राज़) तीन कविता-संग्रह और अनुवाद की दो पुस्तकें. चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद. और एक लम्बी कहानी ‘कार्तिक की कहानी‘ प्रकाशित. साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का सम्पादन. |
इन सुप्रसिद्ध आधुनिक भारतीय चित्रकारों पर अशोक बाजपेयी जी ही लिख सकते थे, जिनके इन चित्रकारों के साथ अत्यंत अंतरंग संपर्क रहे और जिन्होंने उनकी कला यात्रा को इतनी सूक्ष्मता और आत्मीयता से रेखांकित किया।