• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » मैनेजर पाण्डेय से अरुण देव की बातचीत

मैनेजर पाण्डेय से अरुण देव की बातचीत

आरम्भ: यह समालोचन का पहला अंक है जो 'Nov 12, 2010' को प्रकाशित हुआ था.

by arun dev
November 12, 2010
in बातचीत
A A
मैनेजर पाण्डेय से अरुण देव की बातचीत
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

साहित्य का भविष्य और भविष्य का साहित्य
मैनेजर पाण्डेय से अरुण देव की बातचीत

 

अरुण देव:

L.P.G. (लिब्रलाइजेशन,प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन) के इस शोर में बाज़ार के बाहर की हर वह चीज़ जिससे बाज़ार को खतरा है मर रही है, ऐसा कहा जा रहा है. विचार, इतिहास और साहित्य की मृत्यु की घोषणाएँ हुई हैं. भारत में हिंदी जैसी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य का भविष्य आप को कैसा दिखता है.

प्रो. मैनेजर पाण्डेय:

भूमंडलीकरण और निजीकरण के इस दौर में बहुत सी चीजों की मृत्यु की जो घोषणाएँ हुई हैं उनका उद्देश्य लगभग भूमंडलीकरण और निजीकरण को मजबूत करना है. घोषणा करने वाले ये वो लोग हैं जिन्हें विचारों की दुनिया में उत्तर–आधुनिक कहा जाता है. सच्चाई यह है कि इनमें से किसी भी चीज की मृत्यु नहीं हो रही है, कहीं भी. आयर लैंड के प्रसिद्ध कवि सीमस हीनी ने अपनी एक कविता में लिखा है-

post this
post that
but not a thing is past.

यह भी उत्तर, वह भी उत्तर पर कुछ भी अतीत नहीं.

साहित्य की मृत्यु की घोषणा हुई है- पर सारे संसार में साहित्य लिखा जा रहा है, पढ़ा जा रहा है. मैं यह तो मान सकता हूँ कि साहित्य की पुरानी धारणा की मृत्यु हो गई है पर साहित्य ही मर गया है यह समझ में नहीं आता.

 

अरुण देव:

साहित्य अपने पाठकों तक पहुंचता है तभी सार्थक होता है. ६० करोड़ की जनसंख्या वाला  हिंदी समाज बमुश्किल किसी बड़े साहित्यकार की किसी पुस्तक की १० हज़ार प्रतियाँ खपा पाता है. औसत हिंदी वाला पाठ्यक्रम के बाहर के साहित्यकार से लगभग अंजान है. हिंदी समाज और साहित्य की यह क्या विडम्बना है.

प्रो. मैनेजर पाण्डेय:

हिंदी में साहित्य और व्यापक जनता के बीच संपर्क सूत्र काफी कमजोर है. किताबें कम संख्या में छपती और बिकती हैं. पर यह याद रखना चाहिए किसी भी समाज में साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में क्रियाशील लोग बहुमत में नहीं होते हैं. पहले के लेखक पाठकों को ध्यान में रखकर साहित्य लिखते थे इसके सबसे अच्छे उदाहरण प्रेमचंद हैं. इस वर्ष के पुस्तक मेले के सर्वेक्षण के अनुसार सबसे अधिक प्रेमचंद की किताबें बिकी उसका एक कारण यह भी था कि कापीराइट से मुक्त प्रेमचन्द को सभी प्रकाशकों ने छापा और खूब बेचा.

इस बीच यह हुआ है कि जटिलता को साहित्य का एक गुण मान लिया गया है. पाठकों की संवेदनशीलता और ग्रहणशीलता को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जा रहा है. और लोकप्रियता को साहित्य का एक दोष माना जा रहा है. इसका परिणाम यह हुआ है कि साहित्य की जो सबसे पुरानी और प्रसिद्ध विद्या- कविता है वह सबसे कम पढ़ी जा रही है. भक्ति काल के कवि आज भी हिंदी में लोकप्रिय हैं. निराला भी जो कठिन कवि माने जाते हैं- क्योंकि उन्होंने सब तरह की कविताएं लिखी है. नागार्जुन लोकप्रिय हैं.

हाल की कविता, कवि और उनके संग्रहों के बारे में अगर बात करें तो कवियों के  इष्ट मित्रों को छोड़कर उन्हें कोई नहीं जानता. जो सबसे बड़ी बात है वह यह है कि हिंदी साहित्य शहरी मध्य वर्ग में पैदा होता है वहीं उसकी चर्चा होती है और शहरी मध्य वर्ग के बीच ही वह पढ़ा जाता है. इसके बाहर उसकी कोई पहुँच नहीं है.

सारा दोष पाठकों का नहीं है. साहित्य को अलोकप्रिय बनाने में बड़ा हाथ साहित्यकारों का भी है. इस बीच हिंदी में कुछ ऐसे लोग आएं हैं जो हिंदी के नहीं है. ऐसा नहीं है कि केवल साहित्य का संकोच हुआ है उसका विस्तार भी हो रहा है.

 

अरुण देव:

बाज़ार आज हमारा नियन्ता बन बैठा है.  साहित्य की मुक्ति बाज़ार के साथ है या बाज़ार के खिलाफ.

प्रो. मैनेजर पाण्डेय

बाज़ार और साहित्य के संबंधों पर बात करते हुए दो चीजों का ध्यान रखना चाहिए. बाज़ार एक ऐसी व्यवस्था की उपस्थिति है जिससे हम चाह कर भी बच नहीं सकते. बाज़ार पूंजीवाद से पैदा हुआ है और पूंजीवाद की बर्बरता के खिलाफ सारी कलाएं साहित्य समेत पिछले कई शताब्दियों से खड़ी हैं. साहित्य और कला के क्षेत्र से किसी एक ऐसे व्यक्ति का नाम आप नहीं बता सकते जिसने पूंजीवाद के समर्थन में कोई कलाकृति बनाई हो. पूंजीवाद की एक विशेषता यह है कि वह जहां अपने समर्थन को खरीदता है अपने विरोध को भी खरीद लेता है. खरीद बिक्री की क्षमता उसकी बुनियादी विशेषता है.

एक आंदोलन चला पहले कला में फिर साहित्य में कि ‘कला कला के लिए है’ समाज से उसका कुछ लेना देना नहीं है. यह आरम्भिक पूंजीवाद का दौर था. यह कला के बाजारीकरण के विरुद्ध विद्रोह था. अक्सर  इस आंदोलन के बारे में लोगों में भ्रम रहता है खासकर सामाजिक चेतना के समर्थकों के बीच. यह गलत कारणों से नहीं पैदा हुआ था. एक उदाहरण आपको देता हूँ-

पूंजीवाद का मार्क्स से बड़ा विरोधी मार्क्स से पहले कोई नहीं था और विश्वास करता हूँ भविष्य में शायद ही कोई होगा. इधर जो मंदी का दौर चला है उसमें मार्क्स की किताब ‘पूंजी’ अचानक बहुत लोकप्रिय हो गई. उसके चार-चार संस्करण प्रकाशित हुए. अखबार बता रहे थे कि उसे सरकोजी पढ़ रहे हैं, इंग्लैंड के प्रधानमत्री पढ़ रहे है, अमेरिका के आर्थिक नियन्ता पढ़ रहे हैं. और सबने एक स्वर में स्वीकार किया कि पूंजीवाद की बुराइयों और अच्छाइयों को समझने के लिए मार्क्स से बेहतर मार्गदर्शक कोई नहीं है.

मार्क्स ने कठिन जीवन जीते हुए अपनी किताबें लिखी और पूंजीवाद को समझने का रास्ता दिया. पर पूंजीवाद ने उस किताब को भी खरीदा और अपने संकट को समझने के लिए उसका उपयोग करना शुरू कर दिया. एक तरह से मार्क्स के विचार पूंजीवाद के लिए संकट मोचन की स्थिति में आ गये.

साहित्य का अपना स्वभाव है मनुष्यता के पक्ष में खड़ा होना. जो भी मनुष्यता का नाश करता है साहित्य उसके विरोध में खड़ा होता है. पूंजीवाद से अधिक मनुष्यता का विरोधी कोई नहीं. साहित्य बाज़ार के दुष्प्रभावों का विरोध करते हुए आगे भी जीवित रहेगा.

__________________________________________
प्रो. मैनजर पाण्डेय वरिष्ठ आलोचक विचारक हैं. साहित्य की सामाजिकता और उसकी सामाजिक जिम्मेदारी के प्रबल समर्थक हैं.

Tags: मैनेजर पाण्डेयसाहित्य का भविष्य
ShareTweetSend
Next Post

मार्कण्डेय : कहानी और राष्ट्र की परछाइयाँ

Related Posts

दारा शुकोह : रविभूषण
आलोचना

दारा शुकोह : रविभूषण

मैनेजर पाण्डेय: अशोक वाजपेयी
आलेख

मैनेजर पाण्डेय: अशोक वाजपेयी

मैनेजर पाण्डेय की दृष्टि में लोकतंत्र:  रविभूषण
समाज

मैनेजर पाण्डेय की दृष्टि में लोकतंत्र: रविभूषण

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक