मीरा का वैवाहिक जीवन : माधव हाड़ा
मीरां का विवाह मेवाड़ के विख्यात और पराक्रमी शासक महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ. अधिकांश इतिहाकार पारिस्थितिक साक्ष्यों के आधार पर मानते हैं कि यह विवाह 1516 ई. के आसपास हुआ होगा.1 यह विवाह अन्य सामन्त युवतियों के विवाह की तरह सामान्य विवाह था लेकिन उतर भारत में इस दौरान होने वाली राजनीतिक उथल-पुथल और मेवाड़ के आन्तरिक सता संघर्ष के कारण इसमें कई उतार-चढाव आए. महाराणा सांगा अपने भाइयों के साथ लम्बे सता संघर्ष के बाद 1509 में सत्तारूढ़ हुआ. वह अपने समय में उतर भारत के सबसे बड़े साम्राज्य का स्वामी था और उसने 28 विवाह किए, जिससे उसके सात पुत्र- भोजराज, कर्णीसिंह, रत्नसिंह, विक्रमसिंह, उदयसिंह, पर्वतसिंह और कृष्णसिंह हुए.2 भोजराज का जन्म सांगा की रानी सोलंकी रायमल की बेटी कुंवरबाई से हुआ.3 भोजराज का निधन महाराणा सांगा के जीवनकाल में ही हो गया था. भोजराज का निधन कब और कैसे हुआ इस संबंध में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन गौरीशंकर हीराचंद ओझा सहित अधिकांश विद्वानों के मतानुसार मीरां के विवाह के कुछ वर्षों बाद ही 1518 से 1523 ई. के बीच किसी समय महाराणा सांगा के गुजरात या मालवा अभियान के दौरान भोजराज की मृत्यु हो गई.4 भोजराज सतारूढ नहीं हुआ, इसलिए उसके सम्बंध में विस्तृत और प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलते, लेकिन जयमलवंश प्रकाश के अनुसार वह वीर और शांत स्वभाव का था.5
मीरां का विवाह केवल कूटनीतिक संबंध मजबूत करने के लिए नहीं था. यह अलग बात है कि इससे मेवाड़ और मेड़ता के कूटनीतिक संबंध मजबूत हुए. दरअसल मेवाड़ के शासक सिसोदियाओं के राठौड़ों से वैवाहिक संबंध की परम्परा बहुत पहले से थी. राव दूदा ने जब मारवाड़ से अलग मेड़ता राज्य की बुनियाद रखी तो भी यह परम्परा जारी रही और इस कारण मेवाड़ और मेड़ता में कूटनीतिक मैत्री बहुत मजबूत रही. मेवाड़ के सभी अभियानों में मेड़ता ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया. मारवाड़ के राव चूंडा की बेटी हंसाबाई का विवाह मेवाड़ के महाराणा राव लाखा से हुआ. इस विवाह से मेवाड़-मारवाड़ के संबंधों में कई उतार-चढ़ाव आए और इससे दोनों ही राज्यों के इतिहास की दिशा बदल गई. मीरां के दादा राव दूदा की बहन और राव जोधा की बेटी शृंगार देवी का विवाह मेवाड़ के महाराणा रायमल के साथ हुआ. मीरां के ससुर महाराणा सांगा का विवाह मारवाड़ के राव सूजा के बेटे बाघा की बेटी धनाबाई से हुआ. इसी तरह मीरां के ताऊ (बड़े पिता) वीरमदेव की पत्नी गोरज्या कुंवरी उसके ससुर महाराणा सांगा की बहन थी.6 मीरां का महाराणा सांगा के बड़े बेटे भोजराज के साथ विवाह एक दीर्घकालीन परम्परा के अधीन था. इसे केवल कूटनीतिक संबंध बनाने के लिए किया गया विवाह कहना गलत है. कदाचित वीरमदेव की पत्नी, महाराणा सांगा की बहन और भोजराज की बुआ गोरज्यादेवी, जो मीरां की मां की तरह थी, ने ही इस वैवाहिक संबंध में निर्णायक भूमिका निभाई होगी.
मीरां का आरंभिक वैवाहिक जीवन कुछ मामूली प्रतिरोधों और दैनंदिन ईर्ष्या-द्वेषों के अलावा कमोबेश सुखी था. उसके अपने पति भोजराज से संबंध सामान्य थे. मीरां की कविता में जिस राणा से तनावपूर्ण संबंध और नाराजगी का बार-बार उल्लेख आता है वह भोजराज नहीं है. भोजराज तो सतारूढ ही नहीं हुआ और राणा सांगा के जीवित रहते ही उसका निधन हो गया इसलिए यह संज्ञा उससे संबंधित हो ही नहीं सकती. राणा संज्ञा उसने अपने सतारूढ मूर्ख और छिछोर देवर विक्रमादित्य (1531-1536 ई.) के लिए प्रयुक्त की है. सभी इतिहासकारों ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है. कविराज श्यामलदास ने वीर विनोद की अपनी एक पाद टिप्पणी में लिखा है कि “मीरां विक्रमादित्य और उदयसिंह के समय तक जीवित रही, और महाराणा ने उसको दुख दिया वो उसकी कविता से स्पष्ट है.”7 गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने भी यही बात कही है. उनके अनुसार “महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद रत्नसिंह उसका उतराधिकारी हुआ और उसके भी वि.सं.1588 ( ई.सन् 1531) में मरने पर विक्रमादित्य मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठा. इस समय से पूर्व ही मीरांबाई की अपूर्व भक्ति और भावपूर्ण भजनों की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई थी और सुदूर स्थानों के साधु-संत उससे मिलने आया करते थे. इसी कारण विक्रमादित्य उससे अप्रसन्न रहता था और उसको तरह-तरह की तकलीफें दिया करता था. ऐसा प्रसिद्ध है कि उसने उस (मीरांबाई) को मरवाने के लिए विष देने आदि के प्रयोग किए, परन्तु वे निष्फल हुए.”8
विक्रमादित्य से पूर्व 1528 से 1531 तक अल्प समय के लिए सत्तारूढ़ रत्नसिंह से भी मीरां के संबंध अच्छे नहीं रहे होंगे. कुछ लोगों की यह धारणा गलत है कि राठौड़ों की भानजे रत्नसिंह का व्यवहार राठौड़ौ की बेटी मीरां के प्रति सद्भाव और सहानुभूति का रहा होगा.9 रत्नसिंह और उसकी मां धनाबाई राठौड़ वीरमदेव के खिलाफ थे इसलिए, जाहिर है, उनके मीरां से भी संबंध खराब रहे होंगे. धनाबाई जोधपुर के राव सूजा के बेटे बाघा की बेटी थी10 और वह अपने बेटे रत्नसिंह को सत्तारूढ़ देखना चाहती थी, जिसमें उसे जोधपुर के राठौड़ौं का समर्थन हासिल था. भोजराज के निधन के संबंध में निश्चित और प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन इतना तो सभी मानते हैं कि वह राणा सांगा के मालवा, गुजरात या इब्राहिम लोदी के विरुद्ध किसी अभियान में मारा गया. भोजराज के मरने के बाद सबसे बड़ा होने के कारण रत्नसिंह उत्तराघिकारी था, लेकिन लाखा के समय मेवाड़ पर आधिपत्य की चेष्टा के कारण राठौड़ों पर सांगा को विश्वास नहीं था इसलिए उसका झुकाव अपने निष्ठावान और विश्वासपात्र सामंत बूंदी के हाड़ा सूरजमल की बहन करमेती के बेटों, विक्रमादित्य और उदयसिंह की ओर था.
करमेती उसकी प्रीतिपात्र भी थी. महाराणा सांगा पराक्रमी और अपने समय में उत्तर भारत के सबसे बड़े साम्राज्य का अधिपति था लेकिन मालवा, गुजरात और दिल्ली के सुल्तानों से जूझते-जूझते उसकी स्थिति बहुत कमजोर हो गयी थी. वह अब घायल और विकलांग भी था. इब्राहिम लोदी के विरुद्ध खातोली के अभियान में उसका बायां हाथ तलवार से कट गया और घुटने में एक तीर लगने से वह सदा के लिए लंगड़ा हो गया था.11 निरंतर युद्ध अभियानों से वह थक भी गया था. गुजरात के मुजफ्फरशाह की मेवाड़ पर चढ़ाई रोकने लिए तो उसे संधि करनी पड़ी और इसमें उसे अपना एक बेटा बंधक रखना पड़ा.12 निरंतर युद्ध अभियानों में बाहर रहने के कारण उसके अन्तःपुर में उसके उत्तराधिकार को लेकर अंतर्कलह बहुत बढ़ गया. धनाबाई ने अपने जोधपुर समर्थकों के साथ सांगा के अशक्त और विकलांग होने का तर्क देकर अपने बेटे रत्नसिंह का सत्तारूढ़ करने की मुहिम चलाई. इस गुट के दबाव में राणा सांगा ने अपने सामंतों को एकत्रित किया और सिंहासन छोड़कर उनसे नया शासक चुनने का आग्रह किया. सत्ता पलट की यह साजिश कामयाब हो जाती, लेकिन मीरां के बड़े पिता मेड़ता के वीरमदेव, सलूंबर के रत्नसिंह, बूंदी के सूरजमल, आमेर के पृथ्वीराज ने यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया. वीरमदेव और इन सामंतों ने हाथ पकड़ कर राणा सांगा को फिर से सिंहासन पर बिठाया.13
सांगा कूटनीतिज्ञ था. निरंतर विपरीत परिस्थितियों में रहने कारण उसे इस तरह के संकटों से निबटने की आदत थी. उसने शक्ति संतुलन के लिए रत्नसिंह का अपना उत्तराधिकारी तो घोषित कर दिया लेकिन उसने इस गुट को कमजोर और विक्रमादित्य और उदयसिंह का भविष्य सुरक्षित करने का मन बना लिया. उसे फिर षडयंत्र की आशंका थी इसलिए विक्रमादित्य और उदयसिंह को उसने उनकी मां सहित उनके पराक्रमी मामा और अपने विश्वासपात्र सामंत सूरजमल संरक्षण में रत्नसिंह की इच्छा के विरुद्ध दी गई सामरिक महत्त्व की जागीर रणथंभौर भेज दिया.14 उसने मालवा के सुल्तान से मिला बहुमल्य रत्नजटित मुकुट और सोने की कमरपेटी भी करमेती को दे दी.15 सत्ता पलट की इस साजिश को विफल करने में अग्रणी रहना वीरमदेव को बहुत महंगा पड़ा. जोधपुर के मालदेव से उसकी ठनी हुई तो पहले से थी आगे चल कर उसने मेड़ता पर आक्रमण कर दिया. मीरां को भी इसका खामियाजा भुगतना पड़ा होगा. रत्नसिंह और उसकी मां धनाबाई ने अपने समर्थकों के साथ उसको भी दुखी और प्रताड़ित किया होगा. दरअसल सांगा के शासनकाल में हुए इस घटनाक्रम को ठीक से पढ़ा-समझा नहीं गया है और इसमें खलनायक और षड़यंत्रकारी केवल करमेती और सूरजमल को मान लिया गया जबकि धनाबाई भी इसी दौरान अपने बेटे रत्नसिंह को सत्तारूढ़ करने के लिए षडयंत्र रच रही थी जिसमें उसे जोधपुर के रौठोड़ों का समर्थन हासिल था. मुंशी देवीप्रसाद ने एक स्थान पर लिखा भी है कि “मीरांबाई ने जमाने के पलटे को देखकर दूसरा अजब तमाशा कुदरत का यह देखा कि उनके 3 देवर रत्नसिंह, विक्रमादित्य और उदयसिंह हुवे: रत्नसिंह तो चीतोड़ में कातिक सुदी 5 सं. 1584 (1527 ई.) को बाप गद्दी पर और विक्रजीत रणथंभोर के किले में थे वे उस जिले के मालिक हो गए दोनों की अनबन से नोबत यहां तक पहुंची कि एक दिन एक वकील बाबर बादशाह के पास जाता था और दूसरे दिन दूसरे का और दोनों ही अपने 2 स्वारथ के लिए उसको रणथंभोर के देने का इकरार करते थे और वह दोनों को ही दम देता था.”16
मीरां की कविता में बार-बार राणा संबोधन को उसके पति भोजराज से संबंधित मानने से पति से उसके संबंध कटु और तनावपूर्ण होने की बात प्रचारित हो गई, जबकि ऐसा नहीं था. भोजराज वीर और शांत स्वभाव का था और उससे मीरां की नाराजगी का कोई साक्ष्य नहीं मिलता. ससुराल में परिजनों से मीरां के संबंध प्रतिरोध और तनावपूर्ण होने का एक प्रकरण भक्तमाल की टीका में आता है. इसके अनुसार विवाह के तत्काल बाद परम्परा के अनुसार देवी पूजन के सास के आग्रह को मीरां ने यह कहकर ठुकराया दिया कि उसके आराध्य तो कृष्ण हैं इसलिए वह देवी की पूजा नहीं करेगी.17 इस प्रकरण के कई निहितार्थ निकाले गए. कुछ लोगों का मानना है कि परम्परा से मीरां के ससुराल मेवाड़ में शैव भक्ति की परम्परा थी और एकलिंग यहां के शासकों के आराध्य थे और मीरां अपने पारिवारिक वैष्णव भक्ति के संस्कारों के कारण कृष्ण भक्त थी इसलिए देवी पूजा का विरोध करती है. वस्तुस्थिति इससे एकदम अलग है. दरअसल शैव और वैष्णव भक्ति और पूजा के शास्त्रीय रूप जो भी रहे हों लोक के दैनंदिन जीवन में उनके बीच कोई स्पष्ट विभाजक रेखा नहीं थी. लोक में शिव हो या विष्णु, सभी भगवान थे और पूज्य थे. यह निराधार है कि मेवाड़ में केवल शैव भक्ति की परम्परा थी. यहां शैव पूजा के बरक्स विष्णु की पूजा-आराधना की लंबी परम्परा थी और लोक में उसका प्रभाव शैव पूजा की तुलना ज्यादा ही गहरा और व्यापक था.18 दरअसल यह प्रकरण प्रियादास ने कुछ बढा-चढाकर अपने साम्प्रदायिक आग्रह के कारण गढ़ा प्रतीत होता है. मध्यकाल में वैष्णव भक्ति के कुछ सम्प्रदाय लोक में अपने वर्चस्व के लिए आग्रही थे और शैव और शाक्त पूजा की निदां-भर्त्सना भी करते थे. प्रियादास चैतन्य गौड़ीय सम्प्रदाय से संबंधित थे इसलिए भक्ति के अपने ढंग और पूजा विधानों के लिए उनमें खास प्रकार आग्रह था. मीरां सामंत स्त्री थी और अपने जीवन काल में ही लोक में प्रसिद्ध हो गई थी इसलिए उसको अपने रंगढंग में दिखाना प्रियादास को अपने सम्प्रदाय की लोकप्रियता के लिए उपयोगी लगा होगा.
विवाहोपरांत मीरां मेवाड़ के अंतःपुर में सहज और सामान्य थी. कुछ लोगों की यह धारणा कि मीरां मेड़ता की एक छोटी जागीर के स्वामी की बेटी थी, जबकी भोजराज उस समय उतर भारत के सबसे बड़े साम्राज्य के स्वामी महाराणा सांगा का सबसे बड़ा बेटा था इसलिए मीरां ने अंतःपुर में असहज महसूस किया होगा19, निराधार है. यह सही है कि मेवाड़ बहुत प्राचीन और सुस्थापित राज्य था, उसकी जीवन मूल्य और आचरण आदि की दीर्घकालीन परम्पराएं और मर्यादाएं थीं लेकिन मेड़ता का महत्त्व और हैसियत भी कम नहीं थी. उसका संस्थापक दूदा जोधपुर के राव जोधा का बेटा था, जिसकी मेवाड़ से घनिष्ठ मैत्री थी. मारवाड़-मेड़ता और मेवाड़ में विवाह की भी दीर्घकालीन और निरन्तर परम्परा थी. शासक सामंतों के अंतःपुर में एक-दूसरे के भाई-बेटों की बेटियां भी कई थीं. मीरां के मेवाड़ के अंतःपुर में आने से पहले वहां एकधिक राठौड़ सामंतों की बहन-बेटियां पहले से थीं. मेवाड़-मारवाड़ और मेड़ता के सामंत-जागीरदारों के घरों में जीवन व्यवहार, मर्यादाएं और रहन-सहन कमोबेश समान था. उत्तराधिकारी को पाटवी, मतलब उत्तराधिकारी कहा जाता था, जिससे उसकी हैसियत और महत्त्व बढ़ जाता था. सामंत और जागीरदार पांव बड़ा मानकर उसका सम्मान करते थे और उसकी आज्ञाओं का पालन करते थे. अन्यथा उनके रहन-सहन और जीवन स्तर में कोई बड़ा अंतर नहीं था. मीरां का विवाह एक सामान्य और पारम्परिक विवाह था. उसके पहले भी कई राठौड़ कन्याएं मेवाड़ के अंतःपुर में गई थीं और वहां से कई उसके परिवार में आई थीं इसलिए उसको अपने परिजनों से बिछडने के सामान्य से दुःख के अलावा मेवाड़ के अंतःपुर में कुछ भी असामान्य नहीं लगा होगा.
विवाहोपरांत मीरां के अपने पति से संबंध सामान्य थे लेकिन खास प्रकार की ऐतिहासिक परिस्थियों के कारण मेवाड़ के अंतःपुर में कलह, ईष्या और द्वेष का माहौल था.20 महाराणा सांगा अपने आरम्भिक समय में उतर भारत के सबसे बड़े साम्राज्य के स्वामी था लेकिन यह साम्राज्य उसे अपने भाइयों से अंतर्संघष और अज्ञातवास के बाद प्राप्त हुआ था. सत्ता के लिए अंतर्कलह महाराणा सांगा के शासनकाल में उनके बेटों के बीच भी जारी रहा. खास बात यह हुई कि उत्तराधिकार के लिए कलह और संघर्ष में अब मेवाड़ का अंतःपुर भी खुलकर सामने आ गया. महाराणा सांगा ने अपने जीवन काल में 28विवाह किए, जिससे उसके सात बेटे और चार बेटियां हुईं.21 सबसे बड़े भोजराज के निधन के बाद जोधपुर के राठौड़ सूजा के बेटे बाघा की बेटी धनबाई से उत्पन्न रत्नसिंह सबसे बड़ा था लेकिन राठौड़ों का भानजा होने के कारण सांगा के मन उसको उत्तराधिकारी घोषित करने लेकर अंतर्बाधा थी. सांगा के रानियों में से दो निकटवर्ती बूंदी राज्य के राजा भांडा के बेटे नरबद की बेटियां-करमेतण और लाखू थीं.22 करमेती महत्त्वाकांक्षी थीं और सांगा को उससे विशेष लगाव था इसलिए उसने अपने भाई हाड़ा सूरजमल के साथ अपने बेटे विक्रमादित्य और उदयसिंह के लिए उतराधिकारी रत्नसिंह के इच्छा के विरुद्ध रणथंभौर की जागीर हाथिया ली. यहीं नहीं, उसने अपने बेटों को सांगा का उत्तराधिकार दिलवाने के लिए निरन्तर षडयंत्र किए. उसके समय में समय मेवाड़ के अंतःपुर में दो गुट हो गए. मीरां के पति भोजराज के निधन के बाद उसका देवर रत्नसिंह सतारूढ हुआ जो राठौड़ सूजा के बेटे बाघा की बेटी धनाबाई से उत्पन्न था. धनाबाई के अलावा भी अंतःपुर में कई राठौड़ स्त्रियां थीं, जिनके मन में रत्नसिंह के लिए समर्थन रहा होगा. दूसरी तरफ हाड़ा रानियों ने करमेती के नेतृत्व में विक्रमादित्य का पक्ष लिया होगा. विक्रमादित्य हाड़ाओं का भानजा होने के साथ मूर्ख और घमंडी भी था.23 ऐसी स्थिति मीरां ने अंतःपुर में दोनों गुटों से अपने अलग रखा होगा क्योंकि उसकी निष्ठा राणा सांगा के प्रति थी. मीरां की कविता में रत्नसिंह और विक्रमादित्य के अल्पकालीन शासन की खुलकर निंदा और भर्त्सना हुई है. रत्नसिंह और विक्रमादित्य, दोनों के ही मन में आरंभ से ही अपनी बड़ी विधवा भाभी के सम्मान को लेकर इस कारण कोई अंतर्बाधा जरूर रही होगी इसीलिए उन्होंने मीरां को यातनाएं दीं और परेशान किया.
विवाहोपरांत मीरां सर्वथा असहाय और असुरक्षित नहीं थी. उसके आर्थिक स्वावलंबन का प्रबंध था और उसे कुछ हद तक पारम्परिक और सामाजिक सुरक्षा प्राप्त थी. सामतों की बहन-बेटियों को विवाह में दहेज के रूप में पर्याप्त स्त्रीधन दिया जाता था, जो विवाहोपरांत उनकी निजी सम्पति की तरह रहता था. मीरां को भी परम्परानुसार उसके पीहर पक्ष से पर्याप्त स्त्रीधन मिला था. सामंत अपनी पत्नियों और बहु-बेटियों को परम्परा के अनुसार आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी बनाते थे. उन्हें जागीरें दी जाती थीं. इनके प्रबंध और आय-व्यय का हिसाब-किताब सामंत स्त्रियां स्वतंत्र रूप से अपने कामदारों के माध्यम से रखती थीं. इनमें सामंत अकारण हस्तक्षेप नहीं करते थे. महाराणा सांगा ने अपनी पुत्रवधु के आर्थिक स्वावलम्बन के व्यापक प्रबंधं किए थे. उसे विवाहोपरान्त मेवाड़ के पुर और मांडल के परगने हाथ खर्च के लिए जागीर के रूप में दिए थे. गुर्जर गौड़ ब्राह्मणों की ख्यात और एक प्राचीन श्लोक (श्री चित्रकूटमुरलीधर नाम मूर्तिर्व्यासासनं द्विजवराय गजाधराय./प्रददाति मीरां पत्युः स्वस्त्यर्थकामा तस्यान्वयकुलजन: प्रथमो हि व्यास.) से लगता है कि इस भूमि में से 200 बीघा सिंचित भूमि उसने अपने विद्या गुरु पंडित गजाधर को व्यास की पदवी सहित दान में दी, जो कहते हैं कि अभी भी उसके वंशजों के पास है.24 अपने संचित धन और परगनों के आय से मीरां दान-पुण्य, साधु-सेवा, अतिथि-सत्कार, दास-दासियों के वेतन, तीर्थाटन आदि का व्यय वहन करती थी. अपने दैनंदिन खर्च के लिए वह किसी पर निर्भर नहीं थी. आर्थिक स्वावलम्बन के ये प्रावधान पारंपरिक थे. सामंत स्त्रियों के इन पारंपरिक अधिकारों में कटौती आसान नहीं थी. ऐसा करने से अधीनस्थ सामंत बिरादरी विरोध करती थी और लोक में अपयश फैलता था. मीरां की जागीरों की आय में विक्रमादित्य के समय में कोई व्यवधान आया हो तो आया हो, अन्यथा यह निरन्तर थी. ऐसा माना जाता है कि इस आय से ही उसने द्वारिका में एक अन्नक्षेत्र कायम किया था, जो उदयसिंह और उसके बाद भी निरन्तर जारी था.25
1. __________________
गौरीशंकर हीराचंद ओझा: उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ.358
2. वही, पृ.384
3. गौरीशंकर हीराचंद ओझा: उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ.384
4. वही,पृ.359, गोपीनाथ शर्मा:भक्त मीरांबाई, पृ.13
5. जयमलवंश प्रकाश (बदनोर (मेवाड़) का मेवाड़ का इतिहास), द्वितीय भाग, पृ.423
6. मेवाड़ के सिसोदिया और मारवाड़-मेड़ता के राठौड़ कुल में विवाह की दीर्घकालीन परंपरा थी: (1) मारवाड़ के राव चूंडा (1394-1423 ई.) की बेटी हंसाबाई का विवाह महाराणा लाखा (1382-1420 ई.) से हुआ. (2) मारवाड़ के राव जोधा (1453-1487 ई.) की बेटी शृंगारदेवी का विवाह मेवाड़ के महाराणा रायमल (1473-1509 ई.) से हुआ. (3) मारवाड़ के राव बाघा की बेटी धनाबाई का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा( 1509-1528 ई.) से हुआ. (4) मेवाड़ के महाराणा रायमल (1473-1509 ई.) की बेटी गोरज्यां कंवरी का विवाह मेड़ता के वीरमदेव ( 1515 ई.-1544 ई.) से हुआ. (5) मेड़ता के राव दूदा (1495-1515 ई.) के बेटे रत्नसिंह की बेटी मीरां का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के बेटे भोजराज से हुआ.
7. वीर विनोद (मेवाड़ का इतिहास), द्वितीय भाग, खंड-1, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1986 (राज यंत्रालय, उदयपुर, प्र.सं.1886), पृ.2
8. उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ.360
9. मीरांबाई: ऐतिहासिक और सामाजिक विवेचन, पृ.17
10. मेवाड़ के के राजाओं की राणियों, कुंवरों और कुंवरियों का हाल (बड़वा देवीदान की ख्यात), पृ.8
11. हरविलास सारड़ा: हिन्दुपति महाराणा सांगा, पृ.49
12. मुहम्मद कसिम हिन्दू शाह फरिश्ता:तारिखे फरिश्ता, भाग-2 (अनुवाद: नरेन्द्र श्रीवास्तव), उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, 2005, पृ.400
13. हरविलास सारड़ा: हिन्दुपति महाराणा सांगा, पृ.50
14. उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ.360
15. उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ.389
16. मीरांबाई का जीवन चरित्र, पृ.12
17. देवी के पुजायबे कौं कियौ ले उपाय सासु, बर पै, पुजाइ सुनि वधू पूजि भाखियै. बोली “जू बिकायौ माथौ लाल गिरधारी हाथ, और कौन नव, एक वही अभिलाखियै॥ –श्री भक्तमाल (श्रीप्रियादासजी प्रणीत टीका-कवित्त सहित), पृ.716
18. माधव हाड़ा: ‘मीरां का समय और समाज’, बनास जन(सं पल्लव), अंक-1, वर्ष-1, जनवरी, 2012, पृ.37
19. आलमशाह खान: मीरां का लोकतात्त्विक अध्ययन, संघी प्रकाशन, उदयपुर, प्रथम संस्करण, 1989, पृ.27
20. गोपीनाथ शर्मा: भक्त मीरांबाई, पृ.14
21. मेवाड़ के के राजाओं की राणियों, कुंवरों और कुंवरियों का हाल (बड़वा देवीदान की ख्यात: सं.देवीलाल पालीवाल), पृ.9
22. वही, पृ.7
23. उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ.394
24. ठाकुर चतुरसिंह: ‘मीरां प्रकरण’ (विद्याभूषण हरिनारायण पुरोहित),परंपरा, भाग-63-64, पृ.68, गोपलसिंह मेड़तिया:जयमलवंश प्रकाश (बदनोर (मेवाड़) का मेवाड़ का इतिहास), द्वितीय भाग, पृ.427
25. ठाकुर चतुरसिंह: ‘मीरां प्रकरण’ (विद्याभूषण हरिनारायण पुरोहित),परंपरा, भाग-63-64, पृ.70