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समालोचन

Home » मधु कांकरिया से जयश्री सिंह की बातचीत

मधु कांकरिया से जयश्री सिंह की बातचीत

वरिष्ठ कथाकार मधु कांकरिया से जयश्री सिंह ने यह बहुत दिलचस्प बातचीत की है. लेखक कहाँ-कहाँ से कच्ची चीजें उठाता है और किस तरह से उसे गूँथ कर फिर कहानी, उपन्यास में बदलता है, इसकी विस्तार से यहाँ चर्चा है. कुछ प्रसंग तो वास्तव में विचलित करने वाले हैं.

by arun dev
August 23, 2021
in बातचीत
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मधु कांकरिया से जयश्री सिंह की बातचीत
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मधु कांकरिया से जयश्री सिंह की बातचीत

जयश्री सिंह

आपने अपना पहला ही उपन्यास नक्सलवादी आंदोलन पर लिखा. मैं यह जानना चाहती हूँ कि लेखन की शुरूआत में ही एक राजनीतिक उपन्यास लिखने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली? जबकि कथा साहित्य में ज्यादातर लेखन की शुरुआत घर, परिवार, संबंधों और मानवीय मनोभावों से होती दिखाई देती है ऐसे में सीधे राजनीतिक विषय और उसमें भी नक्सलवादी आंदोलन से जुड़ी समस्या के साथ उपन्यास में उतरने के पीछे कौन सी प्रेरणा काम कर रही थी?

मधु कांकरिया

लेखक अपनी धरती से उगता है और उसी की माटी, हवा-पानी उसके सौंदर्य और उसके भाव बोध को विकसित करती है. मेरा सौभाग्य था कि मेरी जन्मभूमि और कर्मभूमि बंगाल रही. वो बंगाल जो युवकों को क्रांति का स्वप्न दिखलाता था. यह इसी भूमि की तासीर रही कि एक प्रकार की राजनीति मेरी चेतना में रची बसी रही और इसकी पराकाष्ठा तब हुई जब पश्चिम बंगाल की राजनीति ने करवट बदलना शुरू किया. 1970 का दौर था और नक्सलवादी आंदोलन अपने चरम पर था. मेरे बड़े भाई दुर्गापुर इंजीनियरिंग कॉलेज में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए गए थे लेकिन नक्सलवादी आंदोलन के चलते कॉलेज बहुत लंबे समय तक के लिए बंद हो गया. भैया के मित्र उनसे मिलने आते थे. हमारे घर में एक ही कमरा था. बड़े भाई अपने दोस्तों से बात करते रहते और मैं एक कोने में पढ़ने का ढोंग करते हुए उनकी बातें सुनती रहती. उनकी बातों में एक जादू रहता था और उस समय मैं एक प्रकार से अबोध और अनजान थी. वे कॉलेज के विद्यार्थी लगते थे लेकिन वे कभी भी अपने कैरियर, अपनी पढ़ाई और अपनी निजी बातचीत नहीं करते थे. वे किसानों की बात करते, उसूलों की बात करते, आम आदमी की मुक्ति की बात करते. मुझे बहुत ताज्जुब लगता. जब वे चले गए तो एक बार मैंने अपने भाई से पूछा कि ये लोग कौन हैं? तो उन्होंने कहा कि ये नक्सलवादी हैं.

पहली बार मेरी चेतना में ये शब्द तभी टकराया ‘नक्सलवाद’. फिर जब मैं अखबार पढ़ती तो देखती कि नक्सलवादियों को कभी राष्ट्र विरोधी तो कभी एक्शनिस्ट बतलाया जाता. यह दिखलाया जाता कि किस प्रकार से वे देश के लिए खतरा हैं. फिर एक दिन मुझे पता चला कि उनमें से एक लड़के की हत्या हो गयी. बीस-पच्चीस साल बाद जब लेखन में मेरा हाथ सधा तो मुझे लगा कि उपन्यास लिखना चाहिए. मैं जब भी कलम उठाती जिस लड़के की हत्या हो गयी थी उसका चित्र मेरी आँखों के सामने आ जाता. मुझे लगा कि मैं जब तक इस पर नहीं लिखूँगी मैं मुक्त नहीं हो पाऊँगी. मुझे अपने मोहल्ले में एक व्यक्ति मिल गया जो नक्सलवादी आंदोलन के दौरान ‘देशव्रत’ नामक अखबार को अंडरग्राउंड हो कर छापता था. उसके जरिये मैं उन दूसरे लोगों तक पहुँची. इसप्रकार इस उपन्यास की पृष्ठभूमि बनी.

 

जयश्री सिंह

मेरा दूसरा सवाल धर्म से संबंधित है क्योंकि राजनीति के बाद हमारे देश में दूसरा चर्चित विषय ‘धर्म’ रहा है. धर्म पूरे विश्व में बेहद महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दा रहा है. अपने अगले उपन्यास ‘सेज पर संस्कृत’ में आप धर्म से लोहा लेती दिखाई देती हैं. आपका यह उपन्यास धर्म की आड़ में पनप रही कुरीतियों, कुत्सित मनोवृतियों और नग्नताओं को उधेड़ कर रख देता है. स्त्री और धर्म इस उन्यास के दो महत्वपूर्ण बिंदु हैं. इन्हीं दो बिंदुओं के केंद्र में मैं आपसे यह जानना चाहती हूँ कि आपकी दृष्टि में स्त्रीवाद क्या है?

मधु कांकरिया

कई घटनाएँ जिंदगी में इस प्रकार घटती हैं कि आपकी आंतरिक सत्ता हिल जाती है. मेरे साथ भी ऐसा हुआ. जब मैं 12-13 साल की थी तो हमारे पड़ोस में एक परिवार रहता था. वह परिवार बहुत धर्मिक था. धर्म को ही ओढ़ता-बिछाता था. उस परिवार की एक लड़की थी. वह भी तेरह साल की थी. उस लड़की ने अचानक यह घोषणा की कि वो आठ दिन का उपवास करेगी. उसकी घोषणा के साथ ही वह घर एकदम फोकस में आ गया. उसकी प्रसंशा में जय जयकार होने लगे. सात दिन जैसे-तैसे निकल गए. आठवें दिन अचानक उस लड़की की तबीयत बिगड़ गयी. घर के लोगों ने यह चेष्टा नहीं की कि उसे तुरंत जल और आहार दे दें. क्योंकि जैन धर्म में विशेष कर जब आप तपस्या में हों तो रात के समय आप जल भी नहीं ले सकते. वे सब सुबह के होने का इंतजार करने लगे लेकिन सूर्योदय से पूर्व ठीक पाँच बजे उसकी मृत्यु हो गयी.

इतनी बड़ी घटना के बाद भी उनके मन में कोई ग्लानि नहीं थी बल्कि एक संतोष का भाव था कि उससे पुण्य कार्य हुआ है. उस समय तो मैं अधिक नहीं समझ पायी थी लेकिन जब मैं थोड़ी बड़ी हुई तो पहला सवाल मेरे दिमाग में यही उठा कि धर्म का तो काम होता है जीवन को बचाना. लेकिन यहाँ धर्म को बचाने के लिए जीवन को दाँव पर लगा दिया गया. मैंने जैन धर्म में ऐसे कई उदाहरण देखे जिसमें छोटी-छोटी बच्चियों को धर्म के नाम पर साध्वी बना दिया जाता है इस धर्म के धर्मात्माओं ने धर्म के नाम पर जो अधर्म फैलाया उस अधर्म की सबसे अधिक शिकार स्त्री हुई. इस बात से मेरे अंदर एक अलग तरह की बेचैनी थी, आक्रोश था और उसी का परिणाम था यह उपन्यास.

अब आपके दूसरे सवाल के जवाब पर आती हूँ. स्त्रीवाद से मेरा तात्पर्य उस स्त्री से है जो लोकतंत्र की ओर देख रही है. जो यह मानती है कि स्त्री मुक्ति का अर्थ न नौकरी करना है न पुरुषों की नकल करना है. बल्कि स्त्री मुक्ति का मतबल है अपने भीतर के उस तरंग को पहचानना जिसके लिए आप इस धरती पर आयी हैं. स्त्रीवाद से मेरा मतलब है अपने लिए वह पहचानपत्र हासिल करना जिसमें केवल आपके सौंदर्य की तारीफ न हो बल्कि आपके बुद्धि की, आपके मेहनत और लगन की तारीफ हो. यदि कोई पहचानपत्र केवल आपके सौंदर्य की तारीफ करता है तो उसे खारिज कीजिये क्योंकि आप केवल देह नहीं हैं. स्त्रीवाद से मेरा मतलब उस स्त्री से है जिसके पास वैज्ञानिक दृष्टि है, तार्किक दृष्टि है. जो सारे अंधविश्वासों और कर्मकांडों से मुक्त हो.

 

जयश्री सिंह

बातचीत की इस कड़ी में मेरा अगला सवाल आपसे यह है कि आप अर्थशास्त्र की विद्यार्थी रही हैं. आपने भारतीय जनजीवन में बाजारवाद से पनपी समस्याओं को बखूबी समझा ही नहीं बल्कि साहित्य में उसे बखूबी उतारा भी है. आपके अनेक उपन्यासों-कहानियों में आये हुए निम्न मध्यम और मध्यम वर्गीय परिवारों पर बाजारवाद का अच्छा खासा प्रभाव देखने में आता है. आपने अपनी कई कहानियों में बाजारवाद से मोर्चा लिया है. मैं आपसे यह जानना चाहूँगी कि आपकी दृष्टि में भारतीय समाज के लिए बाजारवाद किस प्रकार से घातक है?

मधु कांकरिया

जयश्री जी, महानगर में रहते हुए आप बाजारवाद के खूनी पंजे को शायद नहीं समझ सकेंगी क्योंकि यहाँ हम बाजार में ही धँसे हुए हैं. बाजारवाद तीन तरह से काम कर रहा है – सबसे पहले तो यह हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को चौपट कर रहा है? इसे मैंने देखा जब मैं झारखंड में गयी थी. यह 2014-15 की बात होगी. मैं वहाँ के तीन परिवारों से मिली. तीनों परिवारों में एक भी पुरुष नहीं था. सारे पुरुष मजदूर बनकर पास के गाँव में मजदूरी के लिए जा चुके थे. एक परिवार था साबुन निर्माता का. जो लोकल साबुन बनाता था. उस समय उस साबुन निर्माता की भट्टी ठंडी पड़ी हुई थी. मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि बाजार में हमारा साबुन कोई नहीं खरीदता क्योंकि हिंदुस्तान लिवर का सर्फ एक्सेल आ गया है.

एक दूसरे परिवार में गई. वह परिवार जूते बनाता था. लोकल बाजार में उनके जूते बिकते थे लेकिन उस समय वह परिवार बेगार था क्योंकि बाजार में बाटा आ चुका था. उनमें एक परिवार ऐसा था कि हेमोलाइट पत्थर से आयरन बनाता था. उनके घर की भट्टी पर लिखा था ‘असुर भट्टी’ लेकिन वह भट्टी ठंडी पड़ी थी. मैंने पूछा कि क्यों? तो उसने बताया कि मेरे परदादा ससुर हेमोलाइट पत्थर से स्टील बनाते थे. फिर स्टील से हमलोग कैंची, कुल्हाड़ी, चाकू, हँसुली बच्चों के खिलौने बनाते थे लेकिन हमारे गाँव में अब इन सब की खपत ही नहीं है क्योंकि बाजार में टाटा स्टील आ गया है.

मैंने देखा कि लगभग जितने भी लघु उद्योग और कुटीर उद्योग हैं उनका सफाया हो चुका है. घर के युवक अब मजदूर में तब्दील हो चुके हैं. मैंने यह तो देखा कि बाजार किस प्रकार से उनकी अर्थव्यवस्था को चौपट कर रहा है. दूसरी चीज यह भी देखी कि बाजार किस प्रकार उनके अवचेतन में हीन भावना भर रहा है. हुआ यह कि जब मैं उस परिवार से निकल रही थी तो तो मैंने देखा कि उस परिवार की जो लड़की थी उसके कमरे के एक कोने में फेयर एंड लवली के बहुत से पैकेट पड़े थे. मैंने उससे पूछा कि तुम अपनी गाढ़ी कमाई को सब्जियों पर खर्च न करके ‘फेयर एंड लवली’ पर क्यों खर्च कर रही हो? तो उसने मुझे बताया कि मॅडम यदि मैं ‘फेयर एंड लवली’ नहीं लगाऊँगी तो मुझे नौकरी नहीं मिलेगी.

हमने बुद्ध से सीखा था कि जरूरत से ज्यादा हमारे लिए जहर है. बाजार कहता है कि एक पर एक फ्री है. हमारे पुरखे हमसे कहते थे कि श्रेष्ठ व्यक्ति वह है जो समाज से कम से कम लेता है और अधिक से अधिक उसे वापस लौटाता है. श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि जो अपना सारा कमाया आप खाता है वह पाप खाता है. बाजार कहता है कि आप अपना कमाया तो खाओ ही कम पड़े तो मुझसे भी ले लो. इस प्रकार सूक्ष्म तरीके से आपके जो जीवन मूल्य हैं उनके परखच्चे उड़ा रहा है.

 

जयश्री सिंह

बांग्लादेश से आपका बहुत लगाव रहा है? मैं यह जानना चाहूँगी कि आखिर वो कौन सी बात है बांग्लादेश में जो उस ओर आपका ध्यान खींचती है? साथ ही, मैं आपसे वहाँ के सामाजिक जीवन और स्त्री जीवन के विषय में भी जानना चाहती हूँ. हो सके तो इस संदर्भ में कुछ बताएँ.

मधु कांकरिया

जयश्री जी, बांग्लादेश पूरी दुनिया में इकलौता ऐसा देश है जिसने यह स्थापित किया है कि उसकी अस्मिता, उसकी पहचान, उसकी भाषा, उसकी संस्कृति से है उसके धर्म से नहीं है. क्योंकि धर्म तो दोनों देशों का एक ही रहा. जब मैं ढांका गयी तो मैं देख कर अभिभूत थी. वहाँ के बंगालियों का भाषा प्रेम देखने लायक था. यदि आप बांग्लादेश में रमना-बसना चाहो तो आपको उनकी भाषा का नागरिक बनना ही पड़ेगा. वहाँ 21 फरवरी को भाषा दिवस काफी धूमधाम से मनाया जाता है. अभी शेख हसीना ने कहा कि भाषा के लिए हमने बहुत लंबी लड़ाई लड़ी है. हमने खून बहाया है. आपको बतला दें 1951 में जिस समय बांग्लादेश स्वाधीन नहीं हुआ था पाकिस्तान ने ऑर्डिनेंस दिया था पूर्वी बंगाल को कि इनकी राजभाषा उर्दू होगी बंगाली नहीं.

अपनी भाषा के सम्मान में, प्रतिवाद में अपनी भाषा की रक्षा के लिए ढाँका यूनिवर्सिटी के कई युवा छात्र और बुद्धिजीवी सड़कों पर उतर आए. उस समय पुलिस के साथ मुठभेड़ हुई. कई छात्र शहीद हो गए. यह 1951 की बात बता रही हूँ और आज भी देखिए ढाँका यूनिवर्सिटी में एक शहीद मीनार उन शहीदों की स्मृति में बना हुआ है जो भाषा आंदोलन में शहीद हो गए थे.

दूसरी जिस चीज ने मुझे आकर्षित किया वह है वहाँ की ज्यूडिशियरी. यद्यपि लोकतंत्र वहाँ भी भारत जैसा ही है. लेकिन ज्यूडिशियरी वहाँ इतनी स्ट्रॉग है कि मेरे सामने की बात आपको बताती हूँ. वहाँ पर गैंग रेप का एक केस हुआ था और तीन महीने के अंदर उसका निर्णय भी आ गया. आप सोचेंगे कि इतनी जल्दी निर्णय कैसे आ सकता है? वहाँ के जज ने बंगाली में जिसे विचारपति कहते हैं उन्होंने कहा कि क्या आपने हमें इंडिया समझ लिया है. तो यह है उनकी एक खूबी.

और जहाँ तक स्त्री-पुरुष के संबंधों का सवाल है जयश्री जी, मैं कहना चाहूँगी कि बांग्लादेश क्या कोई भी देश जिसकी सभ्यता की बुनियाद धर्म पर है वहाँ स्त्री-पुरुष के संबंध कभी भी सहज और स्वाभाविक हो ही नहीं सकते. बांग्लादेश में भी आप देखिए वहाँ की महिलाएँ सामाजिक-सांस्कृतिक गैर बराबरी की शिकार हैं. मस्जिदों में उनका प्रवेश वर्जित है. मस्जिद में महिलाओं के लिए अलग से व्यवस्था की गई है. यहाँ मैं ढेर सारी ऐसी महिलाओं को जानती हूँ जिनके पति ने तलाक दिए बिना उन्हें छोड़ रखा है दूसरी शादी भी कर चुके हैं उसके बावजूद उनकी हिम्मत नहीं हो पा रही है कि वे भरण-पोषण के लिए कोर्ट के दरवाज़े खटखटाये. मैंने उनसे पूछा कि आप कोर्ट में क्यों नहीं जाती हैं? क्यों नहीं मुआवजा लेती हैं? तो वे कहती हैं कि हम बेटियों की माँ हैं यदि हमने पति से मुआवज़ा लिया तो हमारी बेटियों की शादी मुश्किल हो जाएगी.

जयश्री जी, बांग्लादेश में मैंने छोटी-छोटी बच्चियों को देखा है हिजाब पहनते हुए. तो जिस भी सभ्यता की बुनियाद धर्म पर होती है वहाँ कभी भी स्त्री-पुरुष के संबंध सहज नहीं हो सकते क्योंकि दुनिया का कोई भी धर्म स्त्री-पुरुष को बराबर नहीं मानता.

 

जयश्री सिंह

मैं आपसे अगला सवाल पूछना चाहती हूँ किसानों की समस्या को लेकर. किसानों की बेबसी और आत्महत्याओं की दुस्सह घटनाओं पर भी आपकी लेखनी चली है. आपने महाराष्ट्र के गाँवों में जा कर वहाँ की जमीनी हकीकत को जानने का प्रयास किया है. ऐसे में पिछले कुछ महीनों से देश में जो किसान आंदोलन चल रहा है उस पर आप क्या कहना चाहेंगी?

मधु कांकरिया

जयश्री जी मैं लेखिका हूँ. तो मुझे इस प्रकार बोलना नहीं आता. मैं जिंदा किरदार और जिंदा कहानियों के माध्यम से ही उनकी बात कर सकती हूँ. आज किसानों पर जो संकट है वह पूरी सभ्यता पर संकट है. मैं जिस समय बॉम्बे में रही उस समय महाराष्ट्र में किसान हत्याएँ हो रही थीं. अखबार में पढ़ा कि नाना पाटेकर ने लोगों से अपील की थी कि प्लेटफार्म पर यदि आपको कोई भिखारी मिल जाये तो आप उसे मत दुत्कारना हो सकता है वह कोई किसान हो. यह बात मेरे भीतर खंजर की तरह गड़ गयी. किसानों के लिए कुछ किया जाना चाहिए दिमाग में था लेकिन समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें? संयोग ऐसा हुआ कि उसी समय एक ग्रुप से मेरा परिचय हुआ जो किसानों के लिए कुछ करने का जज़्बा ले कर जालना जा रहा था. जालना का बाबुलतारा गाँव जहाँ लगातार किसान हत्याएँ हो रही थीं. मैं उन परिवारों से मिल पाई जहाँ किसानों ने आत्महत्याएँ की थीं.

एक किसान ने सिर्फ सैंतीस हजार रुपयों के लिए आत्महत्या की थी. मैंने उसकी पत्नी से पूछा कि क्या आपको अंदाजा था कि आपके पति कभी इस प्रकार का कदम उठा सकते हैं? उसने कहा नहीं मैं जब से ब्याह करके आयी हूँ मैंने अपने पति को ऐसे ही देखा है. पसीने में झल्लाते हुए, मेहनत करते हुए, एक-एक पैसे का हिसाब लगाते हुए. उन्हें केवल तीन चीजों की सोच में रहते देखा है – किसान, कर्ज, पानी. मैंने उन्हें हँसते हुए कभी देखा ही नहीं. उसने इतना जरूर बताया कि दिवाली के आस-पास का समय था उनके घर के बाहर नोटिस लग गयी थी. किसान की जमीन उसकी कवच-कुंडल होती है. जमीन गिरवी रखी हुई थी. उनको लगा कि उनकी जमीन उनके हाथ से निकल जायेगी इसलिए बच्चों को ले कर वह मैके चली गयी और पीछे से यह हो गया.

एक और घटना मैं बतलाना चाहती हूँ. एक और परिवार में मैं गयी थी. वहाँ तीन लाख के लिए आत्महत्या हुई थी मैंने पूछा कि क्या आपको मुआवजा मिल जाएगा? उस समय वहाँ सरपंच भी आये हुए थे. जब बाहर के लोग गाँव में पहुँचते हैं तो वहाँ सारा गाँव इकट्ठा हो जाता है सरपंच भी पहुँच जाते हैं. जवाब में सरपंच ने कहा कि सारा गाँव जानता है कि यहाँ आत्महत्या हुई है. खुद मैं भी जानता हूँ लेकिन मुझे विश्वास नहीं है कि मुआवजा मिलेगा क्योंकि जमीन है पिता के नाम और आत्महत्या की है बेटे ने. सरकार हमेशा यह चाहती है कि मुआवजा न देना पड़े. इस चक्कर में हो क्या रहा है कि वहाँ की जो पुलिस है. वह भी चाँदी काट रही है. एक घटना और है. उस गाँव की एक महिला ने भी आत्महत्या की थी. सरकार उसकी पुत्री को मुआवजा नहीं दे रही है. सरकार का यह मानना है कि कोई महिला किसी किसान की पत्नी हो सकती है. खुद किसान कैसे हो सकती है. सरकार किसानों की दुर्गति कर रही है.

मैं समझती थी कि किसानों की आत्महत्या का कारण है बारिश का न होना. लेकिन वहाँ जाने पर मेरी समझ में आया कि बारिश तो एक कारण है ही लेकिन दूसरा कारण है आज का बाजारवाद. पहले जब किसान खेती करते थे तो वे बीज और कीटनाशक घर से निकालते थे. आज क्या हो रहा है कि आज मल्टीनेशनल कंपनियाँ गाँवों में भर गई हैं. जो बीज बेच रही हैं, केमिकल फर्टिलाइजर बेच रही हैं. किसानों के दिमाग में घुसा दिया जा रहा है कि यदि वे बाजार से यूरिया, फर्टिलाइजर नहीं खरीदेंगे तो उनकी प्रोडक्टिविटी कम हो जाएगी. इससे  उनकी लागत तो बढ़ गई लेकिन उत्पादन का मूल्य तो उतना ही मिल रहा है. उनकी जो कमाई है वह दिन ब दिन कम हो रही है. ऐसे में यदि दो-तीन फसल लगातार नष्ट हो जाये तो नुकसान बड़ा हो जाता है.

इसमें एक चीज और है वो है बैंक. यहाँ बैकों से कर्ज पाना बहुत सहज है बैंक खुद आपको कर्ज दे देगा. देते समय तो आसानी से दे देगा लेकिन आप उसकी किश्त न चुका पाओ तो पूरी तरह से आपकी गरिमा को, इज्जत को तार-तार कर देगा. मैं इतने घरों में गयी महाराष्ट्र में कपास की खेती होती है. जो किसान जिंदगी भर कपास की खेती करता है उसकी पत्नी के बदन पर आपको सूती साड़ी नहीं मिलेगी. उनकी स्त्री पोलिस्टर की साड़ी पहनती है जो टिकाऊ होती है सस्ती होती है. यह सब चीजें आप महानगर में बैठ कर नहीं देख सकते. आप वहाँ जायेंगे तब आपको पता चलेगा कि कपास जो किसान का कफ़न बना वहीं उसकी पत्नी को कपास की साड़ी नसीब नहीं हुई.

 

जयश्री सिंह

आपका ‘हम यहाँ थे’ उपन्यास जीवन के कठोर सत्य को वर्तमान के तीखे तेवर में प्रस्तुत करता है. यह उपन्यास इसलिए भी अनूठा है कि यह आदिवासी जीवन के साथ जंगल और जमीन से जुड़े यथार्थ को उजागर करता है. इस उपन्यास में जिस तरह से आपने माओवादी समस्या को दिखाया है उस दृष्टि से इसका लेखन लेखक की एक साहसिक यात्रा लगती है. मैं आपसे यह जानना चाहती हूँ कि इस उपन्यास की पृष्ठभूमि कैसे बनी? इसके लेखन के पीछे आपकी क्या अनुभूतियाँ रहीं? कृपया बताएँ.

मधु कांकरिया

देखिए जयश्री जी, इस उपन्यास की जमीन तो 1992 में बननी शुरू हो गयी थी. कलकत्ता की एक संस्था थी ‘फेंड्रस ऑफ ट्राइबल सोसाइटी’ उन्होंने हम शहरियों के लिए एक वन यात्रा का आयोजन किया. मैं उस यात्रा में गयी थी. उनके जीवन को जब मैंने करीब से देखा तो पहली बार मुझे लगा कि भारत को लेकर जितने भी मिथक हमें पढ़ाये जाते हैं वो सब एकदम गलत हैं. कम से कम आदिवासी इलाकों में सारे मिथ मेरे टूट गए. हमने पढ़ा था कि भारत चाय पीने वालों का देश है. मैं जितने आदिवासियों से मिली उन्होंने कहा कि मैंने अभी तक के जीवन में कुल तीन-चार बार चाय पी है. वो भी गुड़ की चाय. चाय पीना उनके लिए विलासिता है.

एक ने कहा कि कभी-कभी मुझे राँची में जाने को मिल जाता है तो मैं वहाँ चाय पी लेता हूँ. यानी चाय पीने वालों का देश भारत होगा लेकिन चाय आदिवासी इलाकों के लिए नहीं है. हमने पढ़ा था कि भारत मंदिरों का देश है लेकिन उन आदिवासी इलाकों में मीलों तक कोई मंदिर नहीं. मैंने उनसे पूछा कि क्या आप भगवान राम को पहचानते हैं तो उन्होंने कहा कि जयश्री राम का नारा तो सुना है लेकिन श्री राम को हम नहीं जानते. हमने कभी राम की तस्वीर नहीं देखी. वहाँ मीलों तक कोई मंदिर नहीं. मैं आपको बतला दूँ कि जैनियों के मक्का मदीना सिख जी वहाँ एक किलोमीटर के भीतर में पैंतीस मंदिर मैंने गिने. ये चीजें हैं.

दूसरी बात ये है कि आदिवासियों को मंदिर और भगवान की जरूरत ही नहीं है वे प्रकृति के पुजारी हैं. वे प्रकृति के इतने बड़े भक्त होते हैं कि उनके जो त्योहार होते हैं ‘कर्मा’ या ‘सरहुल’ उसमें वे पेड़ की डाली की पूजा करते हैं. और उस दिन वे पेड़ नहीं काटते. घर में यदि मुर्दा भी पड़ा हो तो वे हरे पेड़ नहीं काटेंगे उसको वैसे ही जला देंगे. वे इतने बड़े प्रकृति के पुजारी हैं.

तीसरी चीज मैंने देखी वहाँ की भयंकर गरीबी. आप देखेंगे तो यकीन नहीं करेंगे. वहाँ मैंने दो महिलाओं के बीच एक साड़ी देखी. सास-बहू के बीच एक साड़ी. सास बाहर जाती तो बहु भीतर नंगी बैठी रहती. बहु बाहर जाती तो सास भीतर बैठी रहती. ये दृश्य मैंने वहाँ देखा. एक चीज और मैंने देखी कि सिर्फ एक घड़ा पानी के लिए उन महिलाओं को दस-दस किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. ये बात 2015-16 की है. दूर-दूर तक रात में कोई बत्ती नहीं रहती थी जैसे लगता कि बिजली का आविष्कार ही नहीं हुआ है. आज हो सकता है कि स्थिति थोड़ी अच्छी हो गयी हो लेकिन मैं उस समय रात को जब निकलती थी तो बड़े-बड़े टॉर्च ले कर निकलती थी. हमारे कार्यकर्ता की मृत्यु सिर्फ इसलिए हो गयी कि सुबह के अँधेरे में उसे बिच्छू ने काट लिया. बत्ती नहीं थी उसे दिखाई नहीं पड़ा. दूसरी तरफ़ आप ये देखिए कि जहाँ सबसे अधिक उजाला होना चाहिए वहीं सबसे अधिक अँधेरा. उजाला इसलिए होना चाहिए कि भारत खनिज पदार्थों में अमीर देश है. उनके पास बॉक्साइट है, आयरन, अलुमिनियम है मायका है, कोल है.

सोनी सोरी के साथ लेखिका

उनका इलाका कितना समृद्ध इलाका है. सबकी गिद्ध दृष्टि उनकी जमीनों पर है. आज भी देखिए कि चौतरफा उन पर डेरा डाले हुए हैं. कभी धर्म के नाम पर, कभी प्लांट के नाम पर तो कभी विकास के नाम पर. मेरी एक सहेली है सोनी सोरी. आप देखिए उस पर कितनी बार अटैक हो चुका है क्योंकि वह जल-जंगल और जमीन को बचाने की बात करती है. कई बार अटैक हुआ, एसिड अटैक हुआ, उसके योनि मार्ग में कंकड़ घुसा दिए गए. जिस प्रकार से आदिवासियों को चौतरफा घेरा जा रहा है उन पर खतरा इकट्ठा हो गया है.

सबसे बड़ी बात मैं यह बता रही हूँ जो चीज मैंने अपनी आँखों से देखी कि 2015 के बाद मैं झारखंड नहीं जा पायी क्योंकि मेरे मित्रों ने मुझे मना कर दिया कि आप आएँगी तो आपको अर्बन नक्सल बतला दिया जाएगा. वहाँ के जो आदिवासी हैं एक तरफ माओवादियों से पिस रहे हैं दूसरी तरफ पुलिस से पिस रहे हैं. इधर माओवादियों के साथ क्या हो रहा है कि उनके शिविर में संख्या कम हो रही है. तो वे क्या करते हैं कि जिन आदिवासियों के कई बच्चे होते हैं उनके किसी एक बच्चे को ले लेते हैं. कहते हैं कि हम उसको अच्छा इंसान बनाएँगे. इसे हमें दे दो और वे उसे माओवादी बना देते हैं.

दूसरी तरफ पुलिस आती है यदि आपके घर मे बड़े-बड़े बर्तन हैं तो पुलिस कहेगी कि आप माओवादी है. इतने बड़े बड़े बर्तन में खाना आप अपने माओवादियों के लिए बनाते होंगे जब वे आपके घर आते होंगे. एक मेरे मित्र थे उन्होंने नई सायकिल ली तो पुलिस उन्हें पकड़कर ले गयी कि इतना पैसा आपको कहाँ से मिला? मान लीजिये आपके घर से किसी को पुलिस पकड़ कर ले गयी माओवादी होने के शक में. पीछे से फिर पुलिस यह भी करती है कि आपके घर आ कर घर वालों से राशन कार्ड माँग लेती है. घर की औरतें पढ़ी-लिखी नहीं होतीं. वे राशन कार्ड दे देती हैं. पुलिस उस राशन कार्ड को जब्त कर लेती है. बाद में कोर्ट में कहा जाता है कि आप माओवादी हैं. यदि माओवादी नहीं है तो बाहर से आये हुए हैं आप अर्बन नक्सल हैं. यदि आप नक्सल नहीं हैं तो अपना राशन कार्ड दिखलाइये. राशन कार्ड पहले से पुलिस के हाथ पहुँच चुका होता है और दिखाने के लिए उनके पास कुछ नहीं होता.

एक और घटना आपको बतलाती हूँ एक युवती को पुलिस खेत से उठा कर ले गई और बाद में कह दिया कि वह माओवादी थी. पुलिस की मुठभेड़ में वह मारी गयी. यदि मुठभेड़ में वह मारी गयी तो उसे जो गोली लगेगी वह गोली उसके कपड़े से हो कर उसे लगनी चाहिए लेकिन जो फ़ोटो छपे थे अखबारों में उस घटना के जो चश्मदीद गवाह थे उन्होंने बताया कि उसके वर्दी पर गोली के निशान नहीं थे अर्थात उसे पहले गोली मारी गयी और फिर उसे माओवादी की वर्दी पहना दी गयी. तो ये सारी चीजें वहाँ पर हो रही है. मेरी सहेली ने बतलाया मुझे कि हर दो किलोमीटर पर पुलिस चेकपोस्ट बनी हुई है उन्हें डराने और धमकाने के लिए ताकि वे किसी प्रकार अपनी जमीन छोड़ कर चले जायें. ये आज की हकीकत है वहाँ की. एक माओवादी ने कहा था मुझे कि हमारा ही घड़ा है और हम ही प्यासे हैं.

 

जयश्री सिंह

जी बिल्कुल अपनी जमीन और जंगल की सुरक्षा वे खुद कर रहे हैं. उनको उन्हीं की जमीन से हटाया जा रहा है. मैं अगले सवाल की ओर बढ़ना चाह रही हूँ. आपने महानगर की घुटन और असुरक्षा के बीच युवाओं में बढ़ते नशे की लत से बिगड़ती जिंदगियों पर भी अपनी लेखनी चलायी है. आपका ‘पत्ताखोर’ उपन्यास हमारी मुंबई यूनिवर्सिटी में लगा रहा? और इन दिनों गुजरात यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में भी चल रहा है. मैं जानना चाहती हूँ कि युवाओं के बीच इस समस्या की ओर आपका ध्यान कैसे गया?

मधु कांकरिया

जयश्री जी, मैं ईमानदारी से कहूँ तो मेरा जीवन बहुत अनुभव समृद्ध रहा. मुझे अनुभव बहुत मिलते गये और हर अनुभव मुझे एक नए कथानक की ओर ले गया. इस उपन्यास का श्रेय भी एक ऐसी ही घटना को जाता है. मेरे बेटे ने क्लास इलेवन में एक एन्टी ड्रग कैम्पेन ऑर्गनाइज किया क्योंकि उन्हीं के क्लास का एक लड़का ड्रग लेते हुए पकड़ा गया था. और मेरा बेटा विद्यार्थी संघ का जनरल सेक्रेटरी था. तो उसने एक एन्टी ड्रग की मीटिंग ऑर्गेनाइज़ की. उसने मुझसे कहा कि आपको भी आना हो तो आ जाओ. उसने कई ड्रग एडिक्ट को बुलाया. उस मीटिंग में उन ड्रग एडिक्ट ने अपनी आत्मस्वीकृतियाँ दी. बतलाया कि किस प्रकार वे ड्रग्स के शिकार हुए. उनकी आत्मस्वीकृतियाँ इतनी भयानक, इतनी खौफनाक थी कि मैं भीतर तक हिल गयी. बाद में जब लंच का समय आया तो मैंने उनमें से एक से उसका फोन नंबर लिया. ये जो ड्रग एडिक्ट होते हैं उनको उनके परिवार वाले भी स्वीकार नहीं करते. उन्हें अपने घर से निकाल देते हैं क्योंकि नियम बहुत कठोर हैं कि पूरे परिवार की संपत्ति जब्त कर ली जाएगी तो परिवार भी उनसे दूरी बना लेते हैं. वो जो ड्रग एडिक्ट था आप सोचिए कि हम हिन्दू धर्म वाले इतनी बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन उसे किसी ने नहीं अपनाया. उसे अपनाया एक क्रिश्चियन मिशनरी ने. उन्होंने उसे पनाह दी. उसे नौकरी भी दी. बाद में उसने क्रिश्चियनिटी स्वीकार भी कर ली.

जिस दिन उसका धर्मांतरण था मैं उस समारोह में भी गयी. वहाँ मैंने उसे उदास देखा तो उससे पूछा कि यार तुमने अपना धर्म क्यों परिवर्तित किया? तो उसने कहा कि मुझे धर्म से कुछ लेना देना नहीं है. उन्होंने मुझे सहारा दिया उसके बदले में वे मेरा धर्म चाहते थे. मैंने उसे दे दिया.

उस ड्रग एडिक्ट के सहारे मैं दूसरे ड्रग एडिक्ट से मिली. मैंने देखा कि उनके एडिक्ट होने के पीछे तीन कारण होते हैं. और ये बहुत महत्वपूर्ण कारण होते हैं.

पहला तो ये कि जब पति-पत्नी दोनों काम पर निकल जाते हैं तो बच्चे घर में अकेले छूट जाते हैं. वे बच्चे अकेलेपन को झेल नहीं पाते हैं. ऐसे में उन्हें एक ही चीज दिखती है मजा-मस्ती. तो वे बाहर निकलते हैं. कोलकाता में ड्रग्स सड़क पर बहुत बिकता है. आप ध्यान से देखेंगे तो कलकत्ता की गलियों में कोने-अंतरों में ड्रग्स लेते हुए लोग मिल जाएँगे. वह बच्चा ऐसे ही किसी पत्ता खोर के हाथों लग गया. जब पहली बार वह ड्रग्स लेता है तो उसे एक अलग तरह की अनुभूति उसे मिलती है. उसे लगता है कि वह एकदम हैवन में है. उसी अनुभूति को पाने के लिये वह बार-बार पत्ता का सेवन करता है.

दूसरी चीज मैंने  देखी बेरोजगारी. हमारे यहाँ बेरोजगारों की भयानक फौज है उन बेरोजगारों से आप कुछ भी काम ले सकते हैं. देश के लिए ये बहुत खतरनाक है. जितने भी ड्रग्स डीलर्स हैं. वे सारे बेरोजगार हैं. वे सारे इसी में खप जाते हैं. नौकरी तो उन्हें मिलती नहीं तो ये ड्रग्स डीलर-सप्लायर बन जाते हैं.

तीसरी चीज मैंने देखी- अकेलापन, अवसाद और बेरोजगारी ये तीन मुख्य कारण हैं. इस तरह मैं बहुत सी सच्चाइयों तक पहुँची और इस तरह यह उपन्यास बन गया.

 

जयश्री सिंह

जो भी समस्या आपकी नजर के सामने आती है और उसकी जड़ों को खोजती हैं, उसके तह तक जाना चाहती हैं. तब उस पर लिखती हैं. अगला सवाल मेरा आपके कश्मीर समस्या और आतंकवाद पर आधरित उपन्यास ‘सूखते चिनार’ से है. ‘सूखते चिनार’ उपन्यास में आपने आतंकवाद के बीच कश्मीर के कठिन जीवन को प्रस्तुत किया है. जैसा कि हम जानते हैं कि आपके प्रत्येक उपन्यास आपके जीवंत अनुभवों की जमीन पर खड़े होते हैं. मैं इस उपन्यास की पृष्ठभूमि से जुड़े आपके अनुभवों को आपसे सुनना चाहूँगी.

मधु कांकरिया

जयश्री जी, इसके पीछे एक रोचक पारिवारिक कहानी है. मैं मारवाड़ी परिवार से हूँ. हमारे परिवार में लड़कियाँ तो क्या लड़कों ने भी नौकरी नहीं की. क्योंकि सब फैमिली बिजनस में ही चले जाते थे. लेकिन हमारे परिवार की दूसरी पीढ़ी के लड़के ने मेरे भतीजे ने एकाएक आर्मी जॉइन कर ली. हमारे लिए तो यह एक सदमा था कि हमारे परिवार का लड़का आर्मी में चला गया. मेरी माँ ने तो एकदम खटिया ही पकड़ ली थी. वो मुझे भी बहुत प्रिय था तो जहाँ-जहाँ उसकी पोस्टिंग होती. मैं उसके पीछे-पीछे जाती. एक बार उसकी पोस्टिंग हुई कश्मीर में. कश्मीर में आरा पोस्टिंग जो भारत सरकार की सबसे खतरनाक पोस्टिंग है. वहाँ हर किसी को ऑपरेशन में जाना पड़ता है. उसकी पोस्टिंग से मैं बहुत डरी हुई थी. मैं कश्मीर गयी वहाँ बेस कैंप में परिवार वालों को तीन दिन से अधिक रहने की इजाजत नहीं मिलती. मेरा सौभाग्य यह था कि मैं जैसे ही पहुँची वहाँ ट्रांसफर वालों की स्ट्राइक हो गयी. मुझे वापस भेज नहीं सकते थे तो उन्हें मुझे वहाँ पंद्रह दिन रखना पड़ा और मैं रही. बेस कैंप में दीवारों पर भी इंस्ट्रक्टशन्स लिखे रहते हैं. लेकिन वे बहुत कॉन्फिडेंशियल होते हैं. आप उन्हें नोट नहीं कर सकते. जो-जो मैंने अपने उपन्यास में लिखे वो सब दीवारों पर थे. मैं उन्हें पढ़ती और याद कर लेती. फिर कमरे में जाती और उसे लिख लेती फिर बाहर आ कर पढ़ती कंठस्थ कर लेती फिर भीतर जा कर उसे लिख लेती. मैं पंद्रह दिन वहाँ रही उसी बीच मेरे भतीजे ने वहाँ एक ऑपरेशन में हिस्सा लिया. उस ऑपरेशन में मैंने पहली बार देखा कि किस प्रकार आतंकवाद महिलाओं को उजाड़ रहा है.

एक महिला का लड़का आतंकवादी बन गया था. आप देखिए कि आर्मी और पुलिस मिल कर उस पर इतना जुर्म ढ़ा रहे थे कि कहा नहीं जा सकता. उसी परिवार के छोटे बेटे ने मुझे बताया कि उस घर जैसे आर्मी की नॉकिंक होती थी. वो नॉकिंग इतनी खौफ़नाक होती थी कि उसका पैंट गीला हो जाता था. उसकी माँ तो लगभग अर्ध विक्षिप्त हो जाती थी क्योंकि घर पर जवान लड़की भी थी. पुलिस वाले आते थे. उनकी सारी क्रूरता का कारण एक ही था कि वे इस माँ से पूछना चाहते थे कि बताओ तुम्हारा बेटा कहाँ है? कब तुमसे मिलने आ रहा है? करीब आठ-नौ महीने उस परिवार पर इतने जुल्म ढ़ाये गये कि परिवार का कंधा ही टूट गया. उसके पिता विक्षिप्त हो गए. वे घोड़े पर यात्रियों को घुमाने का धंधा करते थे. घोड़ा बाहर बँधा रहता था. वे काम पर नहीं जा पाते. बीमार माँ दिनभर लेटी रहती. परिवार एकदम असहाय हो गया. तब एक दिन उसकी माँ ने ऐसा निश्चय किया कि मैं आर्मी को सच बतला दूँगी. जब उसके बेटे ने उससे संपर्क किया कि वह उससे मिलने आ रहा है. खुद उसकी माँ ने आर्मी के मेजर को बतलाया कि वो कल आ रहा है जिससे कि वह स्त्री अपने बचे हुए दो बच्चों और परिवार को बचा सके.

उस ऑपरेशन के एक मेंबर के रूप में मेरा भतीजा था. उस समय उस अधिकारी की वेदना भी मैंने देखी थी. उसने मुझे बताया कि हम अपनी इच्छा से कुछ कर नहीं सकते. हम व्यवस्था के हाथों की कठपुतली हैं. हमें अपने बुद्ध को मार कर यह काम करना पड़ता है. एक समय तक आप आर्मी से निकल भी नहीं सकते. मैंने वहाँ देखा था कि आर्मी के लोगों के भीतर भी बहुत हताशा है. मैंने देखा है उस आर्मी अफसर को शौर्य पुरस्कार मिला था. उस पर मैंने ‘जंगली बिल्ली’ कहानी लिखी थी. मेरे पूछने पर उसने खुद मुझसे कहा था कि कोई शौर्य-वौर्य नहीं था. मुझे तो पता था कि वह घर आ रहा है और अकेला आ रहा है. मैंने पूरी यूनिट के साथ कपट से उसको घेर कर उस पर वार किया था.

यह शौर्य नहीं मेरा कपट था. और उसने यह भी कहा कि जब मैंने उस पर फायर किया था तो उसके शरीर से जो खून निकलता, आवाज के साथ निकलता. उस अटैक के बाद बहुत दिनों तक मैं सो नहीं पाया. वाइन का एक पैग़ ले कर सोने की चेष्टा करता था. उस अफसर ने मुझे बतलाया कि यह सब जो हम कर रहे हैं हमारी आत्मा गवाही नहीं देती. हम अपने अंदर के बुद्ध को मार कर करते हैं. उसी पर मैंने कहानी भी लिखी थी ‘युद्ध और बुद्ध’.

 

जयश्री सिंह

आप एक सफल लेखिका हैं. आप अरसे से रचनाशील हैं. ज्वलंत समस्याओं पर आपके एक से एक महत्वपूर्ण उपन्यास आते रहे हैं? एक जिज्ञासा होती है यह जानने कि आपके शुरुआती दिनों का संघर्ष कैसा रहा? आपके लेखन की शुरुआत कैसे हुई? आज आप उन स्मृतियों की ओर किस प्रकार से देखती हैं?

मधु कांकरिया

जयश्री जी, ईमानदारी से मैं कहूँ तो मेरे जीवन में रोजी-रोटी की समस्या कभी नहीं रही. परिवार का सपोर्ट मुझे हमेशा से रहा. लेकिन जीवन में एक मुकाम ऐसा आया कि मुझे लौट कर अपनी माँ के घर आना पड़ा. उस समय पहली लड़ाई मेरी शुरू हुई स्वाभिमान और व्यक्तित्व की. तो मैंने नौकरी की. नौकरी भी कोई खास नहीं थी. प्राइवेट सेक्टर की थी. उधर परिवार में भी वैचारिक टकराव होते रहे थे. फिर परिवार और नौकरी से धक्का खा कर मैं साहित्य की तरफ लौटती कि शायद! साहित्य में कुछ उपलब्धियाँ मुझे मिल जाएँ. लेकिन नए लेखक के लिए बहुत सारी चुनौतियाँ होती हैं. लगता कि सारी दुनिया ही मेरी दुश्मन है. मैं कहानी भेजती और कहानी लौट कर आ जाती. भेजना भी बहुत खर्चीला होता था. पहले टाइप करवाओ फिर स्टैपम लगवाओ. रिटर्न में टिकट लगवाओ. एक-एक में दो सौ के करीब खर्च होते थे. सारी कहानियाँ लौट कर आ जातीं. मैं इतनी हताश हो गयी कि एक दिन हताशा में मैंने अपनी कलम तोड़ दी. यह सोच कर कि जब मुझे लेखक बनना ही नहीं है तो लेखन का भूत मेरे सिर से उतर जाए.

लेकिन संजोग ऐसा देखिए इधर मैंने कलम तोड़ी और उधर कहीं से स्वीकृति आ गई कि आपकी कहानी प्रकाशित हो गयी है. लिखने का सिलसिला शुरू हुआ. फिर कहानियाँ लौट कर आतीं. फिर ऐसा हुआ कि 1992-94 में ‘वागर्थ’ कलकत्ते से शुरू हुई. मैं उनके संपादक की ऋणी हूँ कि जब मैं उनके पास कहानी ले गयी तो मुझमें बिल्कुल आत्मविश्वास नहीं था. फिर भी खुद को धकेलते हुए मैं उनके पास अपनी कहानी ले गयी. उन्होंने कहानी को देखा. वह कहानी छपी. फिर मैं ‘वागर्थ’ में बार-बार छपने लगी. ‘हंस’ ने भी लगातार मेरी कहानियाँ लौटाई थी लेकिन इस बार ‘हंस’ ने भी छाप दी. सन 2000 में मेरा पहला ही उपन्यास राजकमल से छप गया. लेकिन शुरुआत में मेरी काफी कहानियाँ लौटाई गयी थी.

 

जयश्री सिंह

और इसके बावजूद आप निरंतर प्रयत्नशील रहीं. आपके लगभग सारे उपन्यास समस्यामूलक उपन्यास हैं. आपके लेखन का दायरा बहुत विस्तृत है. आप अपने उपन्यासों में हर बार एक नए विषय, एक नई समस्या को लेकर आती हैं? एक सवाल मेरे मन में यह है कि आपके उपन्यासों में विषयों की विविधताओं के पीछे कौन सी प्रेरणा काम करती है? किस प्रकार का नजरिया है आपका? इस पर कुछ बताएँ.

मधु कांकरिया

देखिए जयश्री जी, पहली बात तो यह कि मेरा जीवन बहुत अनुभव समृद्ध रहा. नौकरियाँ मैंने काफी कीं और संयोग ऐसा था कि हर दो साल के बाद मेरी नौकरी छूट जाती थी. शुरुआत की बात करूँ तो कुछ सामाजिक विसंगतियाँ होती हैं जिसके कारण एक प्रकार का आंतरिक दबाव पैदा होता है. उन आंतरिक दबाओं के चलते आपके अंदर कुछ बेचैनियाँ पैदा होती हैं. और वे बेचैनियाँ जब बेकाबू हो जाती हैं तो रचना बन जाती है.

लेकिन ये एकदम शुरुआती दौर की बातें हैं. धीरे-धीरे क्या होता है कि जब आप लिखना शुरू करते हैं तो आप अपने आस-पास देखना शुरू करते हैं. खुद को भी देखते हैं. और यह भी होता है कि जब आप लेखन में डूब जाते हैं तो आप अपनी मूल सत्ता में वापस लौट जाते हैं. आपकी मुलाकात अपने आप से होती है. आप अपनी स्मृतियों में भटकते हैं. लेखन के दौरान ही आप अपने भीतर के उन दरिंदों से मिलते हैं. अपने भीतर ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, लालच लोभ जैसे दरिंदों से निपटते हैं जो आपका जीना दुश्वार किये होते हैं. तो ये चीज थोड़े बाद होती है आंतरिक दबाव पहले काम करता है. ये दूसरा दौर होता है जब लेखन का मतलब लेखन में अपने आप को पाना होता है. अपने को मूल सत्ता में वापस लाना होता है. ये चीजें आपको सुकून देती हैं क्योंकि जिस दुनिया में आप जीते हैं वहाँ आपका जो अपना सोर्स है वो ढँका हुआ रहता है. आप वो नहीं होते हैं जो मूल सत्ता में होते हैं लेकिन लिखने के दौरान हो जाते हैं तो ये भी एक बड़ी चीज होती है जो आपको एक तरह का सुकून देती हैं. यही सब चीजें हैं जो लेखन के लिए आपको उत्साहित करती हैं.

 

जयश्री सिंह

एक सवाल मेरा महानगरों से भी है क्योंकि मैं मुंबई से हूँ और आप मुंबई में लंबे समय तक रही हैं. महानगरों से संबंधित मेरा एक सवाल यह है मॅडम कि आप कलकत्ता, चेन्नई और मुंबई जैसे महानगरों में लंबे समय तक रही हैं. आपको कलकत्ता और मुंबई के महानगरीय जीवन में क्या कुछ बुनियादी फर्क लगा है? आप मुंबई में नौ वर्षों तक रही हैं. आप हमारे शहर के जीवन को किस रूप में देखती है?

मधु कांकरिया

देखिए जयश्री जी, कलकत्ता मुझे बुनियादी रूप से बौद्धिक लोगों का महानगर समझ में आता है. यह आंदोलनों का शहर है. क्रांति की बात करता है. कलकत्ता के बारे में कहा जाता रहा कि जिस बात को बंगाल आज सोच रहा है पूरा देश दस साल बाद सोचेगा. कलकत्ता में आप सब्जी बाजार जाइये तो सब्जी वाला भी आपको अखबार पढ़ता नजर आएगा. कलकत्ता ऐसा शहर है जहाँ रविन्द्रनाथ टैगोर ने लोगों की मानसिकता बनाई है. सांस्कृतिक दृष्टि से कलकत्ता बहुत समृद्ध लगता है. यहाँ आज भी शरदचंद्र और रविन्द्रनाथ टैगोर जी की तस्वीर दीवारों पर टँगी मिल जाएँगी. यहाँ की गृहिणियाँ भी रविन्द्रनाथ टैगोर की बात करती मिलेंगी. यह कलकत्ते का बुनियादी स्वभाव है.

कलकत्ता की संस्कृति मैंने देखी है. एक समय था कि शाम होते ही कलकत्ता के जितने थियेटर थे वे गुलजार हो उठते थे. आज भी आप देखिए कलकत्ते में सुबह संगीत की धुन सुनाई पड़ती है. लगभग कई बंगालियों को गाना आता है. कलकत्ता कलकत्ते जैसा लगता है यहाँ बंगाली कल्चर दिखाई देता है. बम्बई को जितना मैंने जाना है मुझे बम्बई में उतना महाराष्ट्रीयन कल्चर दिखाई नहीं देता. लेकिन यहाँ की एक बड़ी खासियत है. वह यह कि वहाँ कलकत्ते में शाम सात बजे दुकानें बंद हो गयीं तो वे अगली सुबह ही खुलेंगी. कलकत्ता सुकून वाला शहर है. वो पैसे के पीछे दौड़ने वाला शहर नहीं है और बम्बई में आप देखिए यहाँ वर्क कल्चर है यहाँ लोग काम के प्रति प्रतिबद्ध हैं, समर्पित हैं. यह शहर पूरी रात चलता है और कलकत्ता पूरे सुकून के साथ सोता है. बम्बई प्रोफेशनल शहर है. इस शहर की एक खासियत यह भी है कि यहाँ लेखक प्रेम से मिलते हैं. दिल्ली वालों की तरह उनमें प्रतिस्पर्धा नहीं है. यह भी मैंने देखा है. बम्बई में चौपाल है वहाँ लेखक खुद मिलने आते हैं. यह बम्बई की खासियत है.

लेकिन बम्बई में भी कई बम्बई है. बम्बई से दस किलोमीटर दूर आरे कॉलोनी है. जहाँ पर जाइये तो पाएँगे कि झिलमिलाती बम्बई एक तरफ है. आरे कॉलोनी में एक ऐसे घर को मैं जानती हूँ बोलना नहीं चाहती थी लेकिन आपने बात चला दी तो बोलना पड़ रहा है. झिलमिलाती बम्बई जहाँ एक मिनट के लिए भी बत्ती नहीं जाती वहीं एक परिवार में दो मौतें हो गईं क्योंकि वहाँ छोटा-सा मरियल सा लट्टू तक नहीं था. घर का मुखिया रात को सोया हुआ था एक बिच्छू ने उसके हाथ पर काट लिया. उसने हाथ झटका बदल में उसकी बेटी सो रही थी. बिच्छू उस पर गिरा. वह चीखा. दोनों चीखे गाँव वालों ने जब आवाजें सुनी तब मशालें ले कर आये लेकिन तब तक दोनों मर चुके थे. यह आपकी बम्बई है जहाँ एक तरफ केलिफोर्निया है एक तरफ काला हांडी है.

 

जयश्री सिंह

आप जमीन से जुड़ी साहित्यकार हैं. आपके उपन्यासों को पढ़ कर कई बार यह भ्रम होता है कि आप लेखिका होने के साथ-साथ अपने आप में एक स्वयंसेवी संस्था हैं. आपके रचनाओं की जमीन में एक पुख़्ता रिसर्च नजर आता है. कृपया बताएँ कि आपमें यह खोजी प्रवृत्ति कहाँ से आयी?

मधु कांकरिया

पता नहीं यह क्या चीज है लेकिन मैं यह कह सकती हूँ कि मुझे जीवन में यात्रा करने के बहुत मौके मिले. और मेरा जीवन बहुत ही उबड़-खाबड़ रहा. एक तरह से मैं कह सकती हूँ कि अच्छा रहा कि मैंने जीवन के कई रंग देखे. अपने जीवन में मैंने बहुत अनुभव देखे. मेरा जीवन ऐसा रहा कि मुझे बहुत सारी नौकरियाँ करनी पड़ी. छोड़नी पड़ी और संयोग देखिए कि बेटा मेरा बड़ा हुआ तो उसकी जो नौकरी है उसमें भी हर दो-तीन साल के बाद ट्रांसफर हो जाता है तो उसके संग मैं भी घूमती रह रही हूँ.

मैंने कोलकाता के बाद चेन्नई, ढाँका, बम्बई और दिल्ली देख ली. शुरू में झारखंड भी चली गयी. तो मेरा अनुभव बहुत समृद्ध रहा है. हर अनुभव मुझे नए कथानक की ओर ले गए. रिसर्च मैंने कभी जानकर नहीं किया. रिसर्च ऐसे हुआ कि जैसे मैं झारखंड गयी. बार-बार जाती रही. कम से कम आठ दस बार गयी. जीवन को मैंने बहुत करीब से देखा और जिया भी. उसके बाद जब आप लिखने बैठते हैं तो लगता है कि थोड़ी जानकारी मुझे और चाहिए. मान लीजिए कि उनकी मुंडेरी भाषा की मुझे थोड़ी और जानकारी चाहिए तो उसके लिए मैं फिर चली गयी. उनसे फिर मिल लिया. इस प्रकार से रिसर्च होता गया. जीवन से जुड़ी जानकारियाँ और लेती गयी लेकिन एक बात तय है कि वो कथानक आपके जीवन का हिस्सा पहले बनता है.

 

जयश्री सिंह

मैंने एक जगह पढ़ा कि आप शुरुआत से ही रूढ़ियों और परंपराओं के खिलाफ रहीं. आपके परिचय में एक जगह मैंने पढ़ा कि किशोरावस्था में बात-बात पर आपकी माँ से आपकी बहस हो जाया करती थी. रूढ़ियों की अवहेलना आपका स्वभाव सा बन गया था. मैं यह जानना चाहती हूँ कि आपमें इस प्रकार की तार्किक दृष्टि और विरोध का भाव कहाँ से आया?

मधु कांकरिया

देखिए मैं एक घटना बतला देती हूँ आप समझ जाएंगी कि यह कहाँ से पैदा हुई? हम लोग पहले अपने माता-पिता पर बहुत विश्वास करते थे. मैं अपनी माँ को अपनी आइडियल मानती थी. मेरी माँ मुझे कहती थी पंचमी का व्रत करो. मैं कर लेती थी. हमें कहानी सुनाई जाती थी कि कोई बरडिया मेरे मायके का टाइटल बरडिया है तो बरडिया परिवार की एक लड़की ने सुबह चूल्हा जलाते समय भूल से एक साँप को जला दिया. उस मरते हुए साँप ने अभिशाप दिया कि बरडिया खानदान की कोई भी लड़की यदि नागपंचमी के दिन ठंडा नहीं खाएगी तो वह सुहाग का सुख नहीं पाएगी.

सालों बीत गए मुझे सुबह उठते ही नाग की पूजा करनी पड़ती. ठंडा खाना पड़ता. मुझे चाय नहीं मिलती. एक दिन मेरे दिमाग में दो बातें आईं कि नाग ने किस भाषा में अभिशाप दिया? नाग क्या हम लोगों की भाषा जनता था? दूसरी बात जिस लड़की को अभिशाप दिया क्या वह नाग की भाषा जानती थी? तीसरी बात की सुहाग सुख मुझे नहीं मिलेगा तो सामने वाले को भी तो नहीं मिलेगा. क्या सुहाग सुख की बस महिलाओं को ही जरूरत होती है? मैंने अपनी माँ से पूछा कि नाग ने किस भाषा में अभिशाप दिया कि वह लड़की समझ गयी. मेरी माँ कुछ जवाब नहीं दे पाई. तब पहला विचार जो मेरे दिमाग में आया वह यह कि ये लोग विश्वसनीय नहीं हैं. नागपंचमी की कहानी, करवाचौथ की कहानी जो भी कहानी हमें अपने पूर्वजों द्वारा दी जाती है आप उन्हें सत्य की कसौटी पर कसें. और आप देखें कि हर सत्य अपने विरोधी सत्य में ही दम तोड़ता है. मेरा परिवार इतना धार्मिक और कर्मकांडी नहीं होता तो शायद मेरे अंदर विद्रोह का स्वर नहीं जागता. तो यह बस एक उदाहरण मैंने दिया. समझ लीजिये कि चावल का केवल एक दाना मैंने रखा है. धीरे-धीरे इस प्रकार मेरी समझ विकसित होती गयी. मैंने सन्देह करना सीख लिया.

 

जयश्री सिंह

आज साहित्य लेखन में स्त्रियाँ बड़ी संख्या में रचनाशील हैं. जिस तरह का स्त्री लेखन इधर दो दशकों में हुआ है अथवा हो रहा है एक व्यापक फलक पर इस लेखन को अथवा स्त्री लेखन की इन उपलब्धियों और उसके कमज़ोर पक्षों को आप किस रूप में देखती हैं?

मधु कांकरिया

जयश्री जी, ये अच्छी बात है कि आज महिला लेखन की खिड़कियाँ हर दिशा में खुल रही हैं. समय और समाज के सवालों से भी वे टकरा रही हैं. समय के मिजाज और सरोकारों को समझ रही हैं. यह अच्छी बात है लेकिन निराशा मुझे इस बात पर होती है कि मैं यह देखती हूँ कि महिला लेखन की एक धारा आज भी देह और दुपट्टे की लड़ाई लड़ रहा है. जब मैं देखती हूँ कि आज भी थोड़े कठोर शब्दों का यदि प्रयोग करूँ तो आज भी महिला लेखन अपनी पीड़ा को पेशा बनाकर प्रस्तुत कर रहा है.

जब हमने लेखन शुरू किया था तो वह प्रारंभिक दौर था. उस समय यह न्यायोचित था कि हम अपनी व्यथा कथा कहें लेकिन आज महिला लेखन एक परिपक्व अवस्था में पहुँच गया. आज जरूरी है कि महिला लेखन को व्यापक संदर्भों, सकारात्मक मूल्यों से जोड़ने का प्रयास हो. महिला लेखन तब सार्थक होगा जब महिला लेखन की आँच अंतिम पंक्ति की अंतिम स्त्री तक पहुँचेगी जब हम स्त्री स्वर की बात करेंगे.

अभी भी आप देखिए आदिवासी इलाकों में एक आम दृश्य है कि आदिवासी स्त्री की पीठ पर बच्चा बँधा है और हाथ में कुदाल है. जब महिला लेखन यह सवाल उठाएगा कि वह दिन कब आएगा जब आदिवासी महिला की गोद में बच्चा खेलेगा तब सार्थक कहलायेगा. अभी मैं मधुबनी गयी थी मैंने देखा कि बारह-तेरह साल की बच्चियाँ हाथ में तसला लिये ईंट,गारा-पत्थर ढ़ो रही हैं. मेहनताने में उन्हें क्या मिल रहा है? घण्टे के पचास रुपये. आज भी आप देखिए कोली समाज की मछुआरिनें दिन भर समुद्र में हाथ में जाला लिए कमर तक पानी में खड़ी रहती हैं. उनके हाथ में कितना आता है? दो सौ-ढाई सौ रुपया. सवाल यह उठता है कि महिला लेखन तब सार्थक होगा जब हम इन स्त्रियों की कहानियाँ लिखेंगे. हमारी बात अंतिम पंक्ति की अंतिम स्त्री तक पहुँचेगी. दूसरी बात यह कि हम पितृसत्ता के मूल्यों को कटघरे में खड़ा करें. हम समानता की बात करें लेकिन मात्र पुरुष हमारा विरोधी नहीं है. स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर व्यवस्था का जो अमानवीय रूप है उसका विरोध करें.

जयश्री सिंह

एक आखरी सवाल आपसे पूछना चाहती हूँ. माफी चाहती हूँ मैंने आपसे बहुत से सवाल पूछ लिये. एक आखरी सवाल यह जानना चाहती हूँ कि आप पर किन वरिष्ठ लेखकों का प्रभाव रहा है? किन्हें पढ़ कर आप लेखन के लिए प्रेरित हुई हैं?

मधु कांकरिया

मैं सच कहूँ तो मैं अपने पूर्वज साहित्यकारों की ऋणी हूँ. यदि मैंने उन्हें नहीं पढ़ा होता तो मैं समझ ही नहीं पाती कि लेखन क्या होता है? मेरी शुरुआत भले ही वेस्टर्न राइटर्स को पढ़ने से हुई हो, गोर्की, टॉलस्टॉय या दोस्तोवस्की लेकिन जब मैं हिन्दी लेखन की तरफ आयी तो प्रेमचंद से मेरी शुरुआत हुई. रांगेय राघव, कमलेश्वर से होते हुए संजीव तक की पीढ़ी को मैंने पढ़ा और महिला लेखिकाओं में जब मैंने उषा प्रियंवदा को पढ़ा, मन्नू भंडारी को पढ़ा, मृदुला जी को मैंने खोज-खोज कर पढ़ा बल्कि दो-दो बार पढ़ा, पहली बार मुझे लगा विशेषकर जब मैंने उनकी ‘मैं और मैं’ पढ़ी, ‘उसके हिस्से की धूप’ पढ़ी तो मैंने जाना कि उनकी रचनाओं में क्या सवाल जीवन से उठाए गए हैं? जीवन की व्याख्या कैसे की गई है?

मैं बहुत उत्साहित हुई. फिर उसके बाद मैंने ममता कालिया को पढ़ा, नासिरा जी को पढ़ा. चंद्रकांता और सुधा अरोड़ा जी को पढ़ा. इस सब लेखिकाओं ने मुझे अपने लेखन की अंतरंग छवियों से परिचित करवाया. मेरी दुनिया बड़ी होती गयी. मुझे लगा कि जैसे मैं बड़ी रोशनी में आ रही हूँ. इन सब लेखिकाओं की तो मैं ऋणी हूँ ही हूँ इसके अलावा यह भी कहना चाहूँगी कि मैं हिन्दी से नहीं थी. मुझे हिन्दी साहित्य की इतनी जानकारी नहीं थी. मेरा साहित्य का एकेडमिक ज्ञान बिल्कुल शून्य था. ऐसे में विजय कुमार जी से मैंने बहुत सीखा है बहुत मार्गदर्शन लिया. साहित्य से संबंधित मेरी बहुत धुंध उन्होंने हटाई है. मैं निःसंकोच उन्हें फोन करती हूँ वे मुझे सवालों के जवाब देते हैं. विजय कुमार जी, विष्णु नागर जी इस दोनों वरिष्ठों ने से बहुत-बहुत सहयोग मिला है. मैं इन सब की ऋणी हूँ.

 

जयश्री सिंह

पढ़ने की यह जो प्रवृत्ति है यह धीरे-धीरे विशेषकर युवाओं में कम होती जा रही है. सुनने में आता है कि समय की कमी है. दूसरों का लिखा पढ़ने में बहुत उत्सुकता नहीं है. हम अपने में गूँथे हुए हैं मकड़ी के जाले की तरह अपने में ही उलझे हुए हैं. अपने ही सवालों-जवाबों में टकरा रहे हैं. अपने ही लिखे को पढ़ रहे हैं. मैंने कई बार ऐसा अपने वरिष्ठों की बातचीत में सुना है. ऐसे में जिस तरीके से आपने अपने समकालीनों के नाम गिनाये यह सराहनीय है.

कितना जरूरी है कि हम अपने साथ लिख रहे लोगों को देखे. उन्हें पढ़ें. उनके लेखन से समझें कि उनके लेखन में किस तरह की विविधता है. मैं देख रही हूँ कि ये जो इतने सारे लेखकों को आप पढ़ रही हैं और साथ-साथ अपने लेखन के जरिये साहित्य में एक विशेष योगदान कर रही हैं. इस स्तर तक पहुँचने के लिए यदि पचास प्रतिशत भी हम इन बातों का पालन कर पाए तो बेहतर लिख पाएंगे. बेहतर बन पाएंगे. यदि हम अपने को लेखन की दुनिया का समझते हैं तो हमारा भी नैतिक दायित्व है समाज के प्रति, अपने लिखे के प्रति कि हम इस ईमानदारी और सजगता को बनाये रखें. बहुत जरूरी बातचीत हुई मधु जी आपसे. बहुत महत्वपूर्ण बातें हुईं. इस जरूरी साक्षात्कार के लिए मैं आपकी आभारी हूँ.

jayshreesingh13@gmail.com

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मधु कांकरिया
23मार्च, 1957 (कोलकाता)कहानी संग्रह- चिड़िया ऐसे मरती है, काली चील, फाइल, उसे बुद्ध ने काटा, अंतहीन मरुस्थल, और अंत में यीशु, बीतते हुए, भरी दोपहरी के अँधेरे, महाबली का पतन, कीड़े, फैलाव, मुहल्ले में, कुल्ला, काली पैंट, महानगर की माँ. उपन्यास- खुले गगन के लाल सितारे, सूखते चिनार, सलाम आखिरी, पत्ता खोर, सेज पर संस्कृत, हम यहाँ थे. यात्रा वृतान्त- बुद्ध, बारूद और पहाड़, शहर शहर जादू, बंजारा मन और बंदिशे, साना साना हाथ जोड़ी, टेलीफिल्म, रहना नहीं देश वीराना है (प्रसार भारती द्वारा 2008 में). सम्मान – कथाक्रम सम्मान (आनंद सागर स्मृति सम्मान) (२००८), हेमचंद्र आचार्य साहित्‍य सम्‍मान (विद्या मंच द्वारा) (२००९), अखिल भारतीय मारवाड़ी युवा मंच द्वारा मारवाड़ी समाज गौरव सम्मान (२००९), विजय वर्मा कण सम्मान (२०१२), शिवकुमार मिश्र स्मृति कथा सम्मान और रत्नीदेवी गोयनका वाग्देवी सम्मान आदि.
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आलेख

21वीं सदी की समलैंगिक कहानियाँ: पहचान और परख: अंजली देशपांडे

Comments 15

  1. पंकज मित्र says:
    4 years ago

    सिद्ध और गंभीर कथाकार से ज़रूरी बातचीत

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  2. सुशील मानव says:
    4 years ago

    बहुत दिनों बाद इतना सारगर्भित साहित्यिक इंटरव्यू पढ़ा. जयश्री सिंह, मधु कांकरिया और समालोचना को हार्दिक बधाई

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  3. Naveen Joshi says:
    4 years ago

    बढ़िया साक्षात्कार। सघन और व्यापक जीवनानुभव ही लेखक की पूँजी होते हैं।

    Reply
  4. Anonymous says:
    4 years ago

    मधु जी उन गिनी-चुनी लेखिकाओं में हैं जो जीवनानुभवों को और संघर्षों की गाथाओं को प्राथमिकता देती हैं। वे अप्रगल्भ लेकिन महत्वपूर्ण ढंग से हमारे सामने विचारणीय सवालों को, पक्षधरता के साथ पेश करती रही हैं। यह बातचीत भी उसी शृंखला की कड़ी की तरह है।
    बधाई।
    -कुमार अम्बुज, भोपाल।

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  5. जयश्री सिंह says:
    4 years ago

    बातचीत जितनी गंभीर है प्रस्तुतीकरण उतना ही बेहतरीन है। आभार अरुण देव सर। ‘समालोचन’ के जरिये मधु कांकरियाँ जी से हुई यह बातचीत एक व्यापक फलक तक पहुँच गयी है।

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  6. Anonymous says:
    4 years ago

    बहुत सार्थक बातचीत। अच्छे सवालों का उतनी ख़ूबसूरत ढंग से उत्तर दिया। इस तरह की बातचीत से साहित्य पढ़ने पर फ़क्र होता है।

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  7. vandanagupta says:
    4 years ago

    बेहद उम्दा साक्षात्कार- जो जरूरी सवाल पूछे जाने चाहियें, वे सब जय श्री जी ने पूछे और उनके उतने ही सारगर्भित उत्तर मधु जी ने दिए. मधु जी का लेखन और अनुभव दोनों ही इतने सघन होते हैं कि वो नज़र आता है. बिना होमवर्क किए वो काम नहीं करतीं, यह पाठक पढ़ते हुए समझ जाता है.

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  8. मंजुला बिष्ट says:
    4 years ago

    यह आत्मीय वार्ता बहुत महत्वपूर्ण व ज्ञानवर्धक है।जयश्री जी ने बेहद रोचक प्रश्नों के जरिये हम पाठकों को सारगर्भित इंटरव्यू सहज ही उपलब्ध करवाया है!मधु मैम की साहित्यिक यात्रा को जानना बहुत अच्छा अनुभव रहा।मधु मैम ,जयश्री जी व समालोचन का खूब आभार!

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  9. Vijay Kumar says:
    4 years ago

    मधु कांकरिया का अनुभव क्षेत्र विस्तृत और विविधतापूर्ण है। बहुत अच्छी और ज़रूरी बातचीत ।

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  10. Hridayesh Mayank says:
    4 years ago

    सुन्दर व अत्यंत प्रभावशाली बातचीत। शानदार प्रस्तुति समालोचन जैसे ख्यातिनाम मंच पर। बधाई स्वीकारें!

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  11. Kaushlendra Singh says:
    4 years ago

    इसको संजीदगी से पढ़ने की आवश्यकता है।पूरे मनोयोग से पढ़ूंगा समय निकालकर।समालोचन में विविध रंग हैं, यहां मन से किये गए हर रचनात्मक कार्य के लिए स्थान है। मेरी बहुत शुभकामनाएं अरुण सर को🙏🙏

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  12. सुजीत कुमार सिंह says:
    4 years ago

    रोचक।

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  13. Vishnu Nagar says:
    4 years ago

    बहुत सुंदर बातचीत।मधु जी में जो साहस है,कंसर्न है,वह बहुत कम देखने को मिलती है।उनके अनुभव का फलक विस्तृत है।जयश्री जी को भी इसके लिए बधाई।

    Reply
  14. Sadashiv Shrotriya says:
    3 years ago

    अभी 9 नवम्बर 2022 को उदयपुर में श्रीमती मधु कांकरिया को के.के.बिरला फाउंडेशन के बिरला पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा । उनके बारे में अधिक जानने के प्रयत्न में मैंने यह साक्षात्कार पढ़ा और इससे मुझे इस लेखिका की प्रतिभा और संघर्ष के बारे में वह महत्वपूर्ण जानकारी मिल पाई जो मुझे यह विश्वास दिलाए कि वे इस पुरस्कार की सचमुच कितनी अधिकारी हैं । मधु जी को पुरस्कार के लिए हार्दिक बधाई और अरुण देव जी को यह सब जानकारी जुटाने और मेरे जैसे अनेक पाठकों तक पहुंचाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।

    Reply
  15. रज्जाक शेख says:
    2 years ago

    जयश्री जी के द्वारा पूछे गए सवाल बडे अर्थ पूर्ण और सारगर्भित हैं तथा मधुकंकरिया जी के द्वारा दिए गए जवाब उतने ही उमदा और ज्ञानवर्धक है ।बहुत रोचक इंटरव्यू बन गया है । धन्यवाद ।

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