इस समय रामविलास शर्मारविभूषण |
आज रामविलास शर्मा की जन्म-तिथि (10 अक्टूबर) है. उनके निधन के इक्कीस वर्ष बीत चुके. उनके लड़के विजयमोहन शर्मा ने कुछ वर्षों तक दिल्ली में उनके जन्म दिन पर एक विशेष व्याख्यान का आयोजन किया. अब विजयमोहन जी भी पिछले दिनों दिवंगत हो गये. रामविलास शर्मा के जीवन-काल में भी समय-समय पर उनके विचारों से असहमतियाँ प्रकट की गयीं, उनकी आलोचना भी हुई- उन्होंने सब के जवाब दिये. अब भी कुछ युवा मार्क्सवादी उनके पुराने विचारों को लेकर उनसे केवल असहमति ही प्रकट नहीं करते, दो-चार शब्दों में ही सही, अशालीन कमेंट्स भी करते हैं. हिन्दी में बहस कब की समाप्त हो चुकी है. अब आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है.
एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने प्रकाश मनु को बताया था कि उन्होंने राहुल और यशपाल की आलोचना क्यों की? राहुल सांकृत्यायन को उन्होंने ‘रेस कांशियस’ कहा और उनकी अनेक बातों को ‘ज्यादातर पूंजीवादी चिंतकों’ की बात से जोड़ा. ‘‘यशपाल की आलोचना का कारण यह था कि वे मार्क्सवाद को लगभग वही समझते थे, जो कुछ आजकल टी.वी. पर आ रहा है… उनके बहुत से उपन्यासों में स्त्री-पुरुष-संबंधों में सेक्स बहुत नंगे रूप में है, जैसे वही मार्क्सवाद का आदर्श रूप हो.’’ (‘आज के सवाल और मार्क्सवाद’ 2001, पृष्ठ 56)
डॉ. शर्मा ने शिवदान सिंह चौहान, अमृत राय, यशपाल, राहुल सांकृत्यायन, रांज्ञेय राघव आदि पर जो कुछ भी लिखा है, अभी तक संभवतः पूरी तफसील के साथ उस पर विचार नहीं हुआ है.
रामविलास शर्मा को अपने समय और समाज की अधिक चिंता थी. वे साहित्यवादी और साहित्यजीवी नहीं थे. अस्सी के दशक से वे साहित्य और समकालीन साहित्य से नहीं जुड़े रहे. समकालीन साहित्य से वे कटे, पर समकालीन राजनीति से नहीं. आज के अधिसंख्य आलोचक समकालीन राजनीति से कटे और समकालीन साहित्य से जुड़े हुए हैं. अपने समय से जुड़कर ही हम घट रही घटनाओं, राजनीति, अर्थव्यवस्था, संस्कृति और दिन-प्रतिदिन हो रहे छल-छंदों, तिकड़मों को भी समझ पाते हैं. इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक के पहले वर्ष में देश में घट रही घटनाओं से उदासीन नहीं रहा जा सकता.
डॉ. शर्मा की चिन्ता में, अस्सी के दशक से समकालीन भारत था. वे साहित्य पर कम और साहित्य से जुड़े सांस्कृतिक और सामाजिक प्रश्नों पर अधिक विचार करते थे. उनके लिए ‘आज के सवाल’ प्रमुख थे. ये सवाल समाज, संस्कृति, राजनीति, अर्थ-व्यवस्था से जुड़े सवाल थे.
हारवर्ड एजुकेशनल रिव्यू 1930 से प्रकाशित होने वाला एक प्रतिष्ठित जर्नल है, जिसका प्रकाशन हारवर्ड एजुकेशन पब्लिशिंग ग्रुप करता है. यह शिक्षा से संबंधित विचारों एवं शोध का एक अकादमिक जर्नल है. इसका 1995 का अंक ‘हिंसा और नौजवान’ विषय पर केन्द्रित था. ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खण्ड 2’ (1999) का परिशिष्ट तीन- ‘अमरीकी समाज और हिंसा-चोम्स्की के विचार’ पर है. डॉ. शर्मा ने अपने सम्पूर्ण लेखन में कभी किसी एक पत्रिका या जर्नल के किसी अंक पर और नोआम चोम्स्की पर इतने विस्तार से विचार नहीं किया है. आज की हिंसा और उपद्रव को समझने के लिए इसे पढ़ा जाना चाहिए. अपने एक इंटरव्यू में डॉ. शर्मा ने साफ शब्दों में यह कहा है कि
‘‘मैं चाहूँगा कि मुझे बिलकुल याद न किया जाए. इसके बजाए मैं जिन समस्याओं को हल करने में लगा रहा या जिन प्रश्नों पर सोचता-विचारता रहा, उन्हें याद किया जाए. व्यक्ति का क्या है, व्यक्ति तो आते-जाते रहते हैं, याद करना ही है, तो मैं चाहूँगा, मुझे नहीं मेरे काम को याद किया जाए और जो काम मैंने किया है, उसे कोई आगे बढ़ाए.’’ (वही, पृष्ठ 69)
आगे बढ़ाने की बात तब आएगी, जब हम उनके काम को याद करेंगे. क्या आज यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवाद, इजारेदार पूंजीवाद, विदेशी पूंजी, महाजनी पूंजीवाद, सम्प्रदायवाद, साम्राज्यवाद, भूमंडलीकरण, जातीय संस्कृति, राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग, हिंसा, पूंजीवादी बाजार, अमेरिकी संस्कृति, शिक्षा आदि पर जो विचार व्यक्त किये हैं, उन पर हमने ध्यान क्यों नहीं दिया?
बीसवीं सदी के अंतिम दशक से भारत का जो चेहरा बदला गया था क्या आज की सारी घटनाएँ उससे जुड़ी हुई नहीं है? रामविलास शर्मा ने जीवन के अंतिम वर्षों में युवाओं द्वारा नशीली चीजों के व्यवहार पर भी चिन्ताएँ प्रकट कीं. उन्होंने पूंजीवाद के अंतर्गत जनसम्पर्क को एक उद्योग बनते देखा.
‘‘जन सम्पर्क उद्योग हर साल करोड़ों डॉलर मूलतः इस बात पर खर्च करता है कि दरअसल लोगों को जिन चीजों की जरूरत नहीं है, वे विश्वास कर लें कि उनकी जरूरत उन्हें है? (‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’ खण्ड 2, पृष्ठ 732)
महाजनी और इजारेदार पूंजी का उन्होंने सदैव विरोध किया. हमारे समय में यही पूंजी मचल रही है. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में यह पूंजीवाद भले जन्मा हो.
‘‘जिसके सौ वर्ष पूरे हो गए और इसी तरह गाड़ी चलती रही तो यह अगले सौ वर्ष तक और जीवित रहेगा.’’ (‘आज के सवाल और मार्क्सवाद’, वही, पृष्ठ 314)
रामविलास शर्मा के लेखन में ‘एकात्मकता, अंतः सम्बद्धता और अंतस्सूत्रता’ है. उनकी चिन्ता में केवल साहित्य नहीं था. साहित्य जिस समय और समाज से जुड़ा होता है, उससे जो रस ग्रहण करता है, वह समय और समाज अधिक महत्वपूर्ण है. रामविलास शर्मा के उत्तरवर्ती लेखन (1980 से 2000) पर हम ध्यान नहीं देते क्योंकि वे जिन सवालों से इन दो दशकों में जूझते हैं, वे साहित्य से अधिक इतिहास, समाज विज्ञान, राजनीति और आर्थिकी के सवाल हैं. अक्सर हम सब ‘साम्प्रदायिकता और सम्प्रदायवादी शक्तियों का सामना करते हैं, उस पर विचार करते हैं, पर यह अपने में स्वतंत्र सवाल नहीं है. पिछले कुछ वर्षों से हम सब फासीवाद पर विचार कर रहे हैं, पर इस पर कम विचार करते हैं कि फासिज्म का आर्थिक आधार इजारेदार पूंजी है. डॉ. शर्मा इस इजारेदार पूंजीवाद. (मोनोपोलिस्टिक कैपिटलिज्म) के सदैव विरोधी रहे. क्या इसका भाषा, साहित्य, संस्कृति से संबंध नहीं है? क्या इस पर विचार करना केवल अर्थशास्त्रियों का कार्य है? क्या इसने हमारे जीवन, सोच-विचार, चित्त-मानस, घर-परिवार, संबंध-रिश्ते, शिक्षा-संस्कृति, भाषा आदि को प्रभावित नहीं किया है?
नोआम चोम्स्की ने कहा है कि यह ‘‘समाज को सबसे बुनियादी स्तर पर नष्ट करता है और वह है परिवार.’’ भूमंडलीकृत भारत में ही किसानों ने आत्महत्या की, उसकी हत्या की गयी और उसकी चिन्ता नहीं की गयी. रामविलास शर्मा ने विदेशी पूंजी की सदैव आलोचना की है. “हमारे देश के जो लोग विदेशी पूँजी मँगाते हैं, अमरीकी संस्कृति का स्वागत करते हैं, शायद वे अच्छी तरह नहीं जानते कि इस संस्कृति से स्वयं अमरीकी जनता का कितना नुकसान हो रहा है. भारत के जो भी प्रबुद्ध बुद्धिजीवी यहाँ के नौजवानों के बारे में, यहाँ की संस्कृति के बारे में सोचते हैं, उन्हें अमरीकी समाज में फैलती हुई हिंसा पर अवश्य ध्यान देना चाहिए.’’ (‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश, खण्ड 2, वही, पृष्ठ 727)
लगभग पचीस वर्ष बाद भारत में यह हिंसा अधिक फैल चुकी है, जिसमें से कुछ को ‘राज्य प्रायोजित’ कहा जाता है. डॉ. शर्मा इजारेदार पूंजीवाद और हिंसा दोनों का आपस में घनिष्ठ संबंध देखते हैं. उनके अनुसार दोनों एक दूसरे के बिना जिन्दा नहीं रह सकते. विचारणीय यह है कि इजारेदार पूँजीवाद और उसके सरगना संयुक्त राज्य अमरीका से भारत का कोई संबंध है या नहीं? डॉ. शर्मा ने ‘अमरीकी संस्कृति और भारत’ पर छह पृष्ठों (वही, पृष्ठ 748-53) में विचार किया है. वे पूंजी के साथ अमरीकी संस्कृति के निर्यात पर विचार करते हैं. भारतीय समाजशास्त्री इस पर अगर विचार करें कि भारतीय समाज में हिंसा, अपराध, बलात्कार आदि किस दौर में बढ़े हैं, तो वे निश्चित रूप से बीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों पर विचार करेंगे.
साहित्यिक आलोचना में भी इस पर अधिक विचार नहीं किया जाता. रघुवीर सहाय की कविता ‘रामदास’ पर लिखते हुए विस्तार से आलोचक यह नहीं बताते कि सबके सामने रामदास की हत्या क्यों की गयी? सब खामोश-शान्त कैसे रहे? आलोचकों को लग सकता है कि इस सब पर विचार करना साहित्यिक आलोचना के दायरे में नहीं आता, पर साहित्यिक आलोचना का पाट संकुचित रखना एक गैर साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्य भी है.
‘रामविलास शर्मा ने अनेक बार अमरीकी पूंजी के साथ अमरीकी संस्कृति के फैलने की बात कही है. पर हमारे समय के संस्कृतिकर्मी भी संस्कृति और पूंजी के ऐसे घनिष्ठ संबंध को कम देखते हैं. टेलीविजन और संगीत के द्वारा अमरीकी संस्कृति भारतीय नौजवानों को प्रभावित कर रही थी, जिसकी डॉ. शर्मा ने आलोचना की. उन्होंने साफ शब्दों में यह कहा था कि जब तक अमरीकी पूंजी के आयात को नहीं रोका जाता, तब तक नौजवानों पर अमरीकी संस्कृति के हिंसक प्रभाव को नहीं रोका जा सकता. उनके कथन के लगभग दस-पन्द्रह वर्ष बाद एजाज अहमद ने ‘पुरागमन कला साहित्य संगम’ के प्लेटिनम जुबली के अपने उद्घाटन भाषण में यह कहा था कि अमेरिकी लोकप्रिय संस्कृति भारतीय मध्यवर्ग की संस्कृति बन गयी है. यह दैनिक जीवन का उसका धर्म है. इस संस्कृति को एजाज अहमद ने ‘संस्कृति का बुर्जुआ रूप’ कहा था, जो इलेक्ट्रानिक मीडिया के जरिये फैलती है.
रामविलास शर्मा की दृष्टि चारों ओर थी. 20 फरवरी 1994 के ‘नवभारत टाइम्स’ और 2 मार्च 1996 के ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित क्रमशः रामसेवक श्रीवास्तव और दिलीप पडगाँवकर के लेखों के कुछ अंश उद्धृत कर उन्होंने अमेरिकी संस्कृति के प्रभावशाली होने को रेखांकित किया था. संस्कृति के इस प्रभावशाली पक्ष पर बाहर वर्षों पहले से विचार किया जा रहा था. संस्कृति और साम्राज्यवाद पर कई किताबें नब्बे के दशक में प्रकाशित हुई थीं. एडवर्ड सईद की पुस्तक ‘कल्चर एण्ड इम्पीरियलिज्म’ (1994) के पहले जॉन टॉमलिसन की पुस्तक ‘कल्चरल इम्पीरियलिज्म : अ क्रिटिकल यु इंट्रोडक्शन’ (1991) और हरवर्ड आई. शिलर की ‘कम्युनिकेशन एण्ड कल्चरल डॉमिनिशन’ (1976) प्रकाशित हो चुकी थी. ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समय भारत में जितना अधिक संस्कृति-चिन्तन हुआ था उसकी तुलना में अमरीकी साम्राज्यवाद के दौर में कम हुआ है. अभी जिस क्रूज ड्रग्स पार्टी में आर्यन खान को गिरफ्तार किया गया है, वैसी पार्टी के संबंध में दो दशक पहले कोई सोच नहीं सकता था. अस्सी और नब्बे के दशक में ही रेव पार्टी की शुरूआत हो चुकी थी, जो मौज-मस्ती से भरी पार्टी है. तेज म्यूजिक, डांस और नशा ऐसी पार्टियों की जान है. तकनीक और ड्रग्स के फैलते जाल के साथ रेव पार्टियों की लोकप्रियता बढ़ी.
रामविलास शर्मा ‘खुली मंडी’ (‘फ्री मार्केट’) से कुछ ही लोगों के लाभान्वित होने की बात करते हैं. गिने-चुने ये धनी लोग ही
‘‘अर्थतंत्र का संचालन करते हैं और सामाजिक नीति निर्धारित करते हैं.’’ (वही, पृष्ठ 729)
डॉ. शर्मा ने चोम्स्की के जरिये अपनी अधिसंख्य बाते कही हैं. चोम्स्की से बढ़कर अमरीकी सरकार, वहाँ के राजनीतिक ह्रास, वहाँ की सांस्कृतिक-आर्थिक और साम्राज्यवादी नीतियों को और कौन समझ सकता है? अभी 8 सितम्बर 2021 के अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने यह बताया है कि अमेरिका के ‘वार ऑन टेरर’ ने किस प्रकार पूरे संसार को तहस-नहस कर दिया है. इसके पहले 16 जून 2021 के एक इंटरव्यू में उन्होंने रिपब्लिकों को ‘लोकतंत्र को नष्ट कर सत्ता हासिल करने का इच्छुक’ कहा था. रामविलास शर्मा ने जीवन के अंतिम वर्षों में अमरीकी साम्राज्यवाद की कहीं अधिक आलोचना की. उन्होंने पूरी दुनिया में इजारेदार पूंजीवाद का गढ़, जापान, जर्मनी, अमेरिका आदि चार-पाँच देशों को माना और इनमें अमेरिका को ‘सब का सरगना’ कहा है. इसलिए नहीं कि उसके पास अधिक पूंजी है, वरन् इसलिए कि उसके पास काफी हथियार हैं.
डॉ. शर्मा अमेरिका और अन्य दूसरे बड़े इजारेदार देशों के बीच ‘मुख्य अन्तर्विरोध’ नहीं देखते थे. उन्होंने उदारीकरण का संबंध इजारेदार पूंजीपतियों से माना और यह कहा कि भारत इजारेदार पूंजीपतियों के साथ रह कर अपना विकास नहीं कर सकता-
‘‘इजारेदार पूंजीवार हिंसक और आक्रामक है, वह तुम्हारी स्रोत सामग्री को लूटेगा, तुम्हें पुरानी टेक्नोलॉजी बेचेगा, तुम्हारे आर्थिक विकास को नियंत्रित करेगा. यही हो रहा है. इससे देश का उद्धार थोड़े ही होने वाला है.’’ (‘आज के सवाल और मार्क्सवाद’, वही पृष्ठ 334)
उन्हें देश की चिंता थी. आज जब राजनीतिक दलों को भी देश की चिन्ता नहीं है तो भारतीय लेखकों, बौद्धिकों, विचारकों और आलोचकों का यह दायित्व है की वे देश की चिन्ता करें. डॉ. शर्मा ने यह चिन्ता की, उनके सरोकार समय और समाज के सरोकार हुए. आज व्यक्तिवाद, संबंधवाद, अवसरवाद और जातिवाद का दौर है, जिसका संबंध सामंती संस्कारों और पूंजीवादी दृष्टि से है. डॉ शर्मा की यह बड़ी विशेषता है कि तमाम आक्रमणों को झेलते हुए अन्त-अन्त तक वे सामंतवाद, साम्राज्यवाद, सम्प्रदायवाद और पूंजीवाद के विरुद्ध रहें हैं उनका समस्त लेखन इन सबके विरोध में है.
आज की हिंसा को मात्र घटना-विशेष के रूप में देख कर प्रतिक्रिया व्यक्त कर, प्रदर्शन कर शान्त होने का अधिक अर्थ नहीं है. इसका जिससे नाभिनाल संबंध है, उससे लड़े बगैर समस्या का समाधान कठिन है. आज यह जानना-समझना जरूरी है कि 80 देशों के 850 सैन्य अड्डों पर अमरीकी सेना क्यों है? दुनिया की सैन्य महाशक्तियों ने पिछले बीस साल में अपनी सेना पर 8 ट्रिलियन डॉलर क्यों खर्च किया है? रामविलास शर्मा के निधन के तीन वर्ष बाद नोआम चोम्स्की की पुसतक ‘हेजेमनी और सर्वाइवल : अमेरिकाज क्वेस्ट फॉर ग्लोबल डोमिनेंस’ (2003) आई. इस पुस्तक में चोम्स्की का मुख्य तर्क यह है कि अमेरिका पर जिन सामाजार्थिक अभिजनों का नियंत्रण है, उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही एक इम्पीरियल भव्य रणनीति अपनाई, जिसका उद्देश्य विश्व में सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक साधनों के जरिये प्रभुत्व कायम करना था. चोम्स्की के अनुसार इस प्रक्रिया में अमेरिका ने लोकतंत्र और मानवाधिकार के प्रति सम्पूर्ण उपेक्षा प्रकट की, जबकि सरकार इन मूल्यों के समर्थन की बात करती है. यह अमेरिका की दुरंगी नीति है – ‘कहो कुछ, करो कुछ’. भारत भी इसी मार्ग पर है. डॉ. शर्मा अमेरिका और अमेरिकी साम्राज्यवाद की यों ही आलोचना नहीं करते. अमेरिका को उन्होंने इजारेदार पूंजीवाद का ‘अगुवा’ कहा है–
“यह पूंजीवाद सूदखोरों के बल पर जीता है और सबसे ज्यादा सूद वसूल करता है तीसरी दुनिया के देशों से.’’ (वही, पृष्ठ 478)
उनकी आपत्ति पूंजीवाद से, देशी पूंजीवाद से नहीं, इजारेदार पूंजीवाद से थी – ‘‘यह जो भूमंडलीकरण हो रहा है, वह वास्तव में इजारेदार पूंजीपतियों का प्रसार है… यहाँ पर इजारेदार और गैर-इजारोदार का भेद किया ही नहीं जाता… मार्क्सवादी लोग… भी इसके बारे में चुप रहते हैं.’’ (वही, पृष्ठ 265) मार्क्सवादी चुप रहें तो रहें, डॉ. शर्मा कभी चुप नहीं रहे. उदारीकरण, भूमंडलीकरण, इजारेदार पूंजीवाद, विदेशी पूंजी का उन्होंने काफी विरोध किया, पर उनकी न सुनी गयी. 1998 में उन्होंने आज के पूंजीवाद पर ध्यान केन्द्रित करने को कहा था. वे सोवियत रूस के पतन के पीछे वहाँ विदेशी पूंजी के प्रवेश को एक प्रमुख कारक मानते थे और यह देखकर चिंतित थे कि यह पूंजी भारत में अबाध रूप से प्रवेश कर रही है. उदारीकरण की नीति के फलस्वरूप भारत में सबसे ज्यादा विदेशी पूंजी अमेरिका की है. विदेशी पूंजी का एक आधार उन्होंने सामंतवाद को माना था. वे अपने समय से साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के दबाव से हमें सतर्क कर रहे थे.
‘‘इस समय साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के जो दबाव हैं, वे नई सदी आने पर खत्म हो जायेंगे, ऐसा नहीं है. इक्कीसवीं सदी आने पर भी स्थितियाँ नहीं बदलेगी. जब तक साम्राज्यवाद और पूंजीवादी शक्तियों के खिलाफ लड़ाई तेज नहीं होगी, हालात ऐसे ही रहेंगे.’’ (वही, पृष्ठ 68)
लड़ाई तेज नहीं हुई और हालात कहीं अधिक बदतर हुए. उन्होंने प्रौद्योगिकी का विरोध नहीं किया और न उसे अपना शत्रु माना. प्रौद्योगिकी पर वे इजारेदार पूंजीपतियों के कब्जे के विरूद्ध थे. विज्ञान और प्रौद्योगिकी में उन्होंने अंतर किया –
‘‘डार्विन से लेकर आइंस्टाइन तक का युग विज्ञान का युग है और उसके बाद विज्ञान पीछे रह गया, प्रौद्योगिकी आगे आ गई. अब मनुष्य के वैज्ञानिक चिन्तन को आगे नहीं बढ़ाना, प्रौद्योगिकी को आगे बढ़ाना है. वैज्ञानिक चिंतन का प्रसार आज के पूंजीपतियों क लक्ष्य नहीं है.’’ (वही, पृष्ठ 330)
इजारेदार पूंजी से प्रौद्योगिकी का भी संबंध है. अमेरिका की बहुमुखी नीतियों पर उनका ध्यान था-
‘‘मूल लक्ष्य व्यापारी हित, इस लक्ष्य को साधने के लिए राजनीति, धर्म, शिक्षा, संस्कृति-सभी क्षेत्रों में अमरीकी विचारधारा की पैठ. सबसे बड़ा अमरीकी मूल्य लालच और स्वार्थ.’’ (वही, पृष्ठ 361)
भारत ने ब्रिटेन की संस्कृति का जितना अनुकरण नहीं किया, उससे कहीं अधिक अमेरिकी संस्कृति का अनुकरण किया है. डॉ. शर्मा ने प्रचार-माध्यमों, नशीली चीजों, ड्रग्स आदि पर भी लिखा है. सामंती संस्कृति के कूड़े-कचरे में नई अमेरिकी संस्कृति ने मिल कर भारत में एक और नयी संस्कृति निर्मित की. पूंजी का केन्द्रीकरण निरन्तर बढ़ता गया है और भारत एक खतरनाक दौड़ में पहुँच चुका है. साम्राज्यवाद डॉ. शर्मा के अनुसार ‘पहले से अधिक सुदृढ़’ है. वे फासीवाद के जन्म के पीछे आर्थिक कारणों को महत्व देते हैं, पर उसे सांस्कृतिक रूप में प्रकट होते देखते हैं. वे मैदान छोड़ने वालों और चुप हो जाने वालों में कभी नहीं रहे. उन्होंने हिन्दू सम्प्रदायवाद के साथ मुस्लिम सम्प्रदायवाद का विरोध जरूरी माना था और यह कहा था कि हिन्दू सम्प्रदायवादी मुस्लिम सम्प्रदायवादियों की नकल करते हैं. सम्प्रदायवाद को उन्होंने क्रान्ति-विरोध ‘काउंटर-रिवोल्यूशन’ कहा है. 1987 में ही, जब कहीं मंडल-कमंडल नहीं था और न आडवाणी की रथ-यात्रा थी, उन्होंने एक इंटरव्यू में यह कहा था कि ‘‘सम्प्रदायवाद से समझौता करने से सम्प्रदायवाद बढ़ेगा या कम होगा?’’ (वही, पृष्ठ 160)
इसी समय उन्होंने साम्राज्यवाद द्वारा सम्प्रदायवाद को समर्थन देने की बात कही थी. वे संकटों और समस्याओं को एक दूसरे से अलग-विलग कर नहीं देखते थे.
‘‘क्रान्तिकारी तरीके से आप जनता को जब तक गोलबंद नहीं करेंगे, तब तक भारत का आर्थिक संकट दूर नहीं हो सकता. भारत का राजनीतिक संकट दूर नहीं हो सकता, भारत का सांस्कृतिक संकट दूर नहीं हो सकता.’’ (वही पृष्ठ 161)
आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संकट सब एक दूसरे से जुड़े हैं. उनके कहने का अपना एक ढंग था. इसी इण्टरव्यू (1987) में उन्होंने रमेश उपाध्याय और कर्ण सिंह चौहान को जनवादी लेखक संघ का ‘इंजन’ कहा था और राजेन्द्र यादव को ‘पीछे के डब्बे’. ‘‘आप डीजल के इंजन हैं, कोयले के इंजन हैं या बिजली के इंजन है, पहले यह तय कीजिए.’’ (वही, पृष्ठ 162) 1987 में ही उन्होंने पूंजीवादी शासक-वर्ग को ‘डरपोक’ कहा था, जो ‘‘अमरीका का विरोध करने के बजाए उन्हीं के चरणों में जाकर सिर रखता है. कहता है- टेक्नोलॉजी दे दो. हर जगह समझौता के लिए तैयार हो जाता है.’’ (वही पृष्ठ 164) डॉ. शर्मा ने ‘समझौते’ को नहीं ‘संघर्ष’ को महत्व दिया. उनका किसान-मजदूर एकता में दृढ़ विश्वास था. मुसलमानों को धर्मान्ध कहे जाने के वे विरोधी थे.
‘‘मुसलमानों ने जितना इस्लाम का विरोध किया है, उतना दूसरों ने नहीं किया है. सारा सूफीवाद कट्टरता का विरोधी है.’’ (वही, पृष्ठ 171)
आज जब धर्म और संस्कृति को एक करने की कोशिशें जारी हैं, यह कहने की आवश्यकता है कि डॉ. शर्मा दोनों को अलग-अलग मानते थे. ‘संस्कृति’ उनके लिए ‘सकारात्मक चीज’ थी और वे संस्कृतिविहीन मनुष्य को मनुष्य नहीं मानते थे. उनकी एक इच्छा अधूरी रह गयी. किसी भी हाल में वे अपनी पुस्तक ‘शूद्र, मुसलमान और भारत की जातीय समस्या’ पूरी करना चाहते थे, जो पूरी न हो सकीं. उनका ध्यान चारों ओर था. 1997 में उन्होंने विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी संसथाओं की बात कही थी.
‘‘दूसरे महायुद्ध के बाद इनके द्वारा बड़ी शक्तियाँ खासकर अमरीका पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में लिये हुए है.’’ (वही, पृष्ठ 314)
इन पंक्तियों के लेखक ने लगभग उसी समय (1995) एक लम्बा लेख लिखा था- ‘‘विश्व बैंक, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, गैट, विश्व व्यापार संगठन और अमरीका : भारतीय सन्दर्भ में’’, जो पहले ‘पहल’ पुस्तिका में प्रकाशित हुआ था और अब ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ (2018) में है. रामविलास शर्मा ने ढाई दशक पहले उन सबका विरोध किया, उनकी वास्तविकता से हमें अवगत कराया, जिनकी चपेट में आज हम हैं. वे गाँव और शहर में दलित और गैर दलित का संयुक्त मोर्चा बनाये जाने के पक्ष में थे. दलितों के अलग संगठन को उन्होंने कारखाने के मजदूरों की एकता को तोड़ने वाला भी कहा है. उन्होंने कांग्रेस और वामपंथी दलों को मिला कर फासीवाद विरोधी मोर्चा बनाने और साम्प्रदायिक ताकतों से मुकाबला करने को कहा. कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर अवसरवाद पनपने के उन्होंने तीन कारण बताये थे- मजदूरों की कमी, पार्टी अनुशासन के नाम पर हर तरह के अवसरवाद को प्रश्रय देना और विदेशी पूंजी की आमद. साम्प्रदायिकता का जवाब उन्होंने ‘जातीय एकता’ में देखा था, जो पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव (2021) से पुष्ट हुआ. लेखक या बुद्धिजीवी की उन्होंने समाज में दो प्रकार की भूमिकाएँ बताई हैं- तात्कालिक और दूरगामी. आज के भारतीय बुद्धिजीवियों की भूमिका इसमें कौन-सी है? वे स्त्रियों की स्वाधीनता को मजदूर वर्ग और किसानों की स्वाधीनता से अलग करके नहीं देखते थे.
इस समय हम सब भयानक दौर से गुजर रहे हैं. राज्य-सत्ता और सरकारों को अपने नागरिकों से मतलब नहीं है. डॉ. शर्मा अपने समय में इन सारे खतरों को भाँप चुके थे, हमें आगाह कर रहे थे. हमने उनके ऐसे चिंतन पर कभी विचार नहीं किया है. इस लेख में विस्तार से विचार संभव नहीं है. अब यह हमारे ऊपर है कि हम अपने इस समय में डॉ. रामविलास शर्मा को कैसे देखें? हिन्दी प्रदेश और समाज की हालत आज कहीं अधिक बदतर है. क्या हमें उन सवालों को जो एक साथ सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक हैं, जिनसे अपने समय में डॉ. शर्मा जूझ रहे थे, सामने नहीं लाना चाहिए? उनकी जन्म तिथि पर ऐसे कुछ सवालों के साथ हम उन्हें याद करना चाहेंगे. वे आज भी एक प्रकाश-स्तंभ हैं.
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रविभूषण वरिष्ठ आलोचक-विचारक ‘रामविलास शर्मा का महत्व’ तथा ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ किताबें आदि प्रकाशित. |
डॉ रामविलास शर्मा आज भी एक प्रकाश स्तंभ की तरह हैं । हिंदी जगत के भटके हुए जलपोतो और मल्लाहों को रास्ता दिखाने वाला प्रकाश स्तंभ बशर्ते हम उसकी रोशनी का महत्व समझ सकें । रविभूषण बहुत गंभीरता और ईमानदारी के साथ अपने विषय में उतरते हैं और दूर तलक जाते हैं। रामविलास शर्मा की चर्चा करते हुए नोम चोम्स्की तक जाते हैं । अमेरिकी साम्राज्य की साजिशों का गंभीरता के साथ विश्लेषण करते हैं । अब जरूरी है हम रामविलास शर्मा जी के कामों को समझें और उनके महत्त्व को जाने। रविभूषण जी को इस सुंदर और गंभीर लेख के लिए बहुत बहुत बधाई। ’समालोचन’ तो हमारे समय की धड़कन बन चुका है ।बधाई
अपने समय के एक बड़े विचारक, साहित्य-चिंतक को आज की बदली हुई, जटिलतर स्थानीय एवं वैश्विक परिस्थितियों में रविभूषण जी ने याद किया है। रामविलास जी की विचार-दृष्टि की प्रासंगिकता तलाशता श्रमपूर्वक लिखा गया महत्वपूर्ण लेख।
रविभूषण जी हमारे समय के चंद बड़े विचारक-आलोचकों में एक हैं जो साहित्य को समाजविज्ञान से जोड़कर मुक्कमल तरीके से समझने पर बल देते रहे हैं।
रामविलास शर्मा पर उनकी पुस्तक एक ज़रूरी किताब है।
रामविलास जी के जन्मदिन पर रविभूषण जी का यह आलेख हमारे एक बड़े आलोचक के अवदान को गंभीरता से याद करने में सहायक है।
साधुवाद।
आज के समय-संदर्भ की बात की जाय तो रामविलास शर्मा के तमाम लेखन को हिंदूवादी नज़रिये से देखने की कोशिश की जा रही है. इस लेख जैसे कुछ अपवाद को छोड़ दें तो उनके वैचारिक-दर्शन को हिंदू-दर्शन के क़रीब लाए जाने के प्रयास ज़ारी है…उस दिशा में कुछ विशेषांक प्रस्तावित हैं. रविभूषणजी ने भी उनके विचारों को मार्क्सवादी नज़रिये से ही देखने का आग्रह है. वे अपने तर्क पूरी सख्ती के साथ रखते हैं. यह बड़ी बात है.
साहित्य को समाज विज्ञान,समय और अपने समय की चुनौतियों से जोड़कर देखना रविभूषण जी की विशेषता है
Madhu Kankaria सच है।किंतु, कभी-कभार उनकी आलोचना पर साहित्य के बजाय समाजविज्ञान हावी होता हुआ दिखाई पड़ता है जिसके कारण साहित्य के मर्म की पहचान होने के बावजूद उसकी सम्यक व्याख्या नहीं हो पाती है।
अनेक कृतियों में से किसी एक से अगर रामविलास शर्मा की आलोचना दृष्टि को समझना हो तो संभवतः वह पुस्तक ‘परंपरा का मूल्यांकन’ है।उन्होंने कहा था कि प्रगतिशीलता के संदर्भ में परंपरा-बोध एक बुनियादी मूल्य है चाहे वह समाज के परिप्रेक्ष्य में हो अथवा साहित्य के । इसलिए साहित्य की परंपरा समझे बिना न प्रगतिशील आलोचना संभव है न साहित्य। रवि भूषण जी ने आज के अनेक संदर्भों में उनके विचारों की प्रासंगिकता को रेखांकित किया है जो उनके आलोचना विवेक और अवदान को दर्शाता है।साधुवाद !
रवि भूषण जी बहुत अच्छा और गहरी सोच से लिखते हैं यहां उन्होंने रामविलास शर्मा जी को लिखते हुए चोम्स्की पर बात की है और उनके बारे में भी विवरण के साथ जानकारियां दी हैं यह लेख पढ़ा जाना चाहिए और उस पर मनन करना चाहिए
रविभूषण जी अपने इस विश्लेषण में जहाँ इंगित करना चाह रहे हैं, उस इलाक़े की मिट्टी ही बदल चुकी है। वहाँ कितनी भी सिंचाई करिये, कैसी भी नयी पौध लगाईये नये अंकुरण की संभावना बहुत कम है। इतिहास के किसी अनचीन्हे लॉजिक से कुछ अप्रत्याशित हो जाए तो बात अलग है।
दरअसल, तीस साल के नव्य-आर्थिक उदारतावाद ने साहित्य या साहित्येतर बौद्धिकता को बृहत्तर सवालों, फ्रेमों, आख्यानों और वैचारिक धाराओं से विरत रहने का हुनर सिखा दिया है। अलग से कहने की ज़रूरत नहीं है कि जब ज्ञान एक पेशा बन जाएगा तो उसके प्रयोगकर्ता भी पेशेवर बन जाएंगे। पेशेवर! मतलब ‘गिवन टास्क’ को निपटाया और काम से छुट्टी! कुछ बोला, कुछ लिखवाया और हो गयी छुट्टी!
इसलिए, विचित्र यह नहीं है कि साहित्यलोचक रामविलास के अवदान से संवाद नहीं कर रहे या उन्हें जानबूझकर भुला देना चाहते हैं। विचित्र यह है कि लोगबाग अपनी इस नियति पर विचार करने तक से कतराते हैं कि वे अब नागरिक नहीं, महज़ उपभोक्ता रह गए हैं।
रामविलास जी का सैद्धांतिक चिंतन/विश्लेषण जिस वस्तुगत यथार्थ से जन्मा था, भारतीय समाज अब उससे बहुत दूर निकल आया है। अब तो वह यथार्थ भी घुमंतू-चरागाही युग का यथार्थ लगता है।
कहने का मतलब यह है कि वही मध्यवर्ग जो कभी अपनी तकनीकी, विज्ञान और बौद्धिक स्वायत्तता की बात करता था, अब आवारा पूँजी का चीयरलीडर बन चुका है। पहले इस विध्वंस को तो समझा जाए। रामविलास की विरासत और उनके शेष-प्रश्नों से इंगेज करने का विवेक तो बहुत बाद का सवाल है।
विचारोत्तेजक आलेख। डा रामविलास शर्मा की चिन्ताओं के बहाने सामयिक परिदृश्य पर विचार करने का अच्छा उद्यम।