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Home » किन्नर: संघर्ष से स्वीकार्यता तक: यतीश कुमार

किन्नर: संघर्ष से स्वीकार्यता तक: यतीश कुमार

वाणी प्रकाशन से २०२१ में प्रियंका नारायण की पुस्तक ‘किन्नर: सेक्स और सामाजिक स्वीकार्यता’ प्रकाशित हुई है. प्रियंका ने किन्नरों की लैंगिक अवधारणा तथा जीव-वैज्ञानिक अध्ययन के साथ ही पुराण, इतिहास, साहित्य और समाज में किन्नरों की स्थिति को भी देखा परखा है. मेहनत से लिखी गयी और पठनीय किताब है. इसकी चर्चा कर रहें हैं कवि यतीश कुमार.

by arun dev
December 31, 2021
in समीक्षा
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किन्नर: संघर्ष से स्वीकार्यता तक: यतीश कुमार
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किन्नर: संघर्ष से स्वीकार्यता तक

यतीश कुमार

अब तक इस विषय पर मैं जो भी सोचता रहा हूँ यहां पढ़ते हुए लग रहा है उसे प्रियंका ने बहुत संजीदगी से महसूस किया है  जैसे ‘जन्मता तो बच्चा ही है, पर उसमें सारे दोष समय के साथ पैदा होते जाते हैं.’ किताब लिखने से पहले प्रियंका भी इस दर्द से पूरी तरह वाक़िफ़ नहीं थीं, पर इस किताब की यात्रा ने उन्हें उनके ही एक नए व्यक्तित्व से मिलवाया और इस क्लिष्टता को समझने की भूख ने उन्हें नई दिशा और दृष्टि दी.

लेखिका अब जब समस्या के इस बीहड़ वन में संजीवनी तलाशने निकली हैं तो वे इस बात से चिंतित हैं कि जानबूझकर बनाया गया अपरिचय का पहाड़ कब ढहेगा ? ट्रांसजेंडर के कितने काले अनुभवों के पल, जिन्हें अभी तक कहीं साझा नहीं किया गया, आखिर उन पर बात कब हो सकेगी ? उस समाज की समस्याओं की लंबी फेहरिस्त, जिसे छोटा करने की कोशिशें हमेशा कम पड़ती रहीं, और यूँ ऐसा सोचते-सोचते उनको एक साथ एक ही दस्तावेज़ में चिह्नित करने का दुस्साहस करती चली गयीं हैं प्रियंका.

यहाँ इस विषय के चारों ओर एक रहस्यमयी दीवार है, जिसके पार से आती रौशनी की झलक इस किताब के माध्यम से आपको मिल सकती है. अपरिचित दहाड़ो से राब्ता बनाने को जब जी चाहे तब आप इस किताब को पढ़िए, जब भी उस बेगानगी से परिचय करने का मन करे तब इस किताब की ओर हो लीजिए.

जो रहस्य समझ से परे हो, समाज के लिए सबसे आसान है उसे ‘कौतूहल’ का नाम या रूप दे देना. लेखिका ने इन्हीं स्याह कौतूहल पर प्रकाश के कुछ छींटे डालने का प्रयास किया है. शुरुआत में अपनी ख़ुद की व्यथा, एक स्त्री की दृष्टि से अपना जीवन संघर्ष और उसके साथ होते दुर्व्यवहारों और संक्रमित मानसिकता, यहाँ तक की शैक्षणिक संस्थानों में होने वाले अलग व्यवहार और कुपित कुंठा तथा एक स्त्री होने के नाते जो भी प्रियंका ने महसूस किया है, झेला है उन सबको समेटकर अपनी बात कही है. इस पहलू से सोचिए तो इन बेकसूरों के भीतर कितनी कुंठा की परत जमी होगी, जिसे समय ने कभी भी साफ करने की कोशिश नहीं की अपितु मुगलकाल के बाद स्थिति बद से बदतर ही होती चली गयी.

मुझे यहाँ संबोधन के लिए प्रयोग में लाया गया ‘तृतीय प्रकृति’ शब्द बहुत पसंद आया, सच प्राकृतिक ही तो है और सृजन के बाद से प्रकृति की इस रचना के साथ हम कैसा व्यवहार करते हैं यह जग ज़ाहिर है. प्रजनन और संस्करण दो ही पद्धतियाँ हैं जिनके माध्यम से प्राकृतिक विस्तार समय के साथ संभव है और यहाँ इसकी अनुपस्थिति होने के कारण समाज कितनी हेय दृष्टि से देखने लगता है इन्हें, जिसके लिए उन्हें कहीं से जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. प्रियंका इन जटिल किंतु ज़रूरी विषयों पर बात करते वक़्त विषयांतर होती नहीं दिखतीं यद्यपि विषय की जटिलता ने लिखते वक़्त उन्हें उकसाया ज़रूर होगा.

जैसे-जैसे आगे बढ़ते हैं जीवन का उन्मीलन और फूलों के बीच उगते काँटों को समेटता यह विषय जटिलतम होता जाता है, जिसकी तहक़ीक़ात की लेखिका ने भरपूर कोशिश की है. यहाँ लेखिका ने आदिकाल से चलते और बदलते रिश्तों के आपसी समीकरण के साथ-साथ समाज में सम्पत्ति, परिवार, उसका विस्तार और किन्नरों के अब तक के घिसटते अस्तित्व पर इन सभी विषय वस्तुओं का असर कैसे पड़ा है, उसकी विवेचना चरणबद्ध तरीक़े से किया है.

जीव विज्ञान को आधार मानकर आंतरिक कोशिकाओं की संरचना से लेकर सोचने और रीझने के तरीक़ों पर चर्चा की गई है, यह पूरी तरह शोध पर आधारित है जिसके पीछे कई तथ्य जुटाए गए हैं. यह क्रमबद्ध और चरणबद्ध चर्चा विज्ञान से पुराण तक के संदर्भों को रखकर की गयी है जो इस किताब की महत्ता को और भी बढ़ाती है. कोशिकीय विकास के अनुक्रमणिका मिथकीय रूपांतरण एवं सन्दर्भ को एक साथ पढ़ना, कई जगह इसकी रोचकता को और बेहतर बनाता है. मिथकीय किरदार का रूपांतरण और पुरुष ईश्वरों का स्त्री में बदलना या शक्ति रूप धारण करना, एक तीसरी ही दृष्टि लिए यहाँ प्रतिरोपित है.

किंपुरुष का ज़िक्र मत्स्य पुराण से लेकर अग्नि पुराण और कूर्म पुराण में होना महज संयोग नहीं बल्कि उनकी महत्ता को दर्शाता है. इक्ष्वाकु का किंपुरुष में बदल जाने की बात, फिर एक महीने पुरुष और एक महीने स्त्री में कायांतरण होना उस विडम्बना की ओर इशारा करता है जो आज भी किसी किन्नर के मन की दशा है. शरीर और मन के इस अंतर्द्वंद्व और उससे उठे अंतर्नाद की चीख को सिर्फ वो ही अकेला सुनता चला आ रहा है. इस संदर्भ में कुबेर को पुनः पुरुषत्व प्राप्त होना एक रोचक प्रसंग है, जिससे यह भी पता चलता है कि उनकी सम्मानजनक स्थिति समय के साथ गर्त में गयी है. जैसे-जैसे पुराण समय के साथ लिखा गया किन्नरों या किंपुरुष का जिक्र वहाँ से धूमिल होता गया, इसका यह भी मतलब निकाला जा सकता है कि हमारी सोच समय के साथ संकुचित होती गया. इस बात की पुष्टि लेखिका ने इस किताब में क्रमबद्ध घटनाओं को जोड़ते हुए किया है. अंग्रेजों ने तो इसे अंततः अपराध की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया, जो आज भी यथार्थ के बीच एक मिथ की तरह है.

गुत्थियाँ सुलझते-सुलझते उलझ जाती हैं, जब हम शबनम मौसी और मधु किन्नर को एक बार जीतने के बाद दोबारा चुनाव में हारते देखते हैं.

पिनाकधारी और अर्धनारीश्वर शिव साक्षात इसके उदाहरण हैं कि एक ही शरीर के भीतर कितने तरह के व्यक्तित्व रह सकते हैं, जिसे समाज को उसी रूप में अपनाने की ज़रूरत है. यहाँ ज़िक्र आता है इरावन देवता का जो अर्जुन और नागकन्या उलूपी के पुत्र हैं. किन्नर जिनकी पूजा करते हैं और इस प्रथा का भी ज़िक्र है कि वह एक रात की पूजा होती है, और फिर सारा जीवन ‘विधवा-जीवन’. सोचता हूँ सच इनकी ज़िन्दगी कितनी सारी विडंबनाओं से भरी है!

साक्षात्कार खण्ड को जोड़ते हुए प्रियंका ने छह विभिन्न अध्यायों में इस गूढ़ रहस्यमयी विषय पर अपनी बौद्धिक विवेचना को क्रमबद्ध रखा है, जो सामान्य अवधारणा से शुरू होते हुए जीव वैज्ञानिक अध्ययन, पौराणिक अध्ययन, सेक्स (जेंडर से इतर अर्थों में) और हिजड़ा, सामाजिक संघर्ष एवं स्वीकार्यता तथा उनकी सफलताएँ इत्यादि को समेटते हुए ख़त्म होती है. यहां एक और अलग सकारात्मक सोच है जो इसे स्त्री पुरुष की कक्षा से बाहर रखता है, जो मानता है कि यहां व्यक्ति की नहीं अपितु समाज की महत्ता है जिसे भगवान प्यार करते हैं इसलिए वे अलग हैं. ये अलग राह के राही अपनी अलग जगह जमीन बनाते हुए मिलते हैं. यहां गुरु और चेला बनने में उम्र को परे रखकर काबिलीयत को तवज्जोह दिया जाता है. यह पढ़कर भी अत्यंत सुखद लगा कि गुरु शिष्य के बीच धर्म आड़े नहीं आता, हिन्दू घर में जन्मे किन्नर के गुरु मुसलमान या मुसलमान चेले के गुरु हिन्दू परिवार से आये किन्नर हो सकते हैं.

‘हिजड़ा’ मूल शब्द ‘हिजर’ से आया है या उसका अतिरेक है जिसका शाब्दिक अर्थ है अपना समुदाय से छोड़ा हुआ या समुदाय से बाहर निकाला हुआ. इस वर्ग की सामाजिक व्युत्पत्ति, अलगाव, दर्द, उनके तनाव, उनकी आंतरिक छटपटाहट के साथ उनके संघर्ष को उपन्यास और कहानी से इतर शोध रूप में  प्रस्तुत करना इस किताब को विशिष्ट बनाता है. इसके साथ ही प्रियंका ने कुछ मौलिक प्रश्नों को भी रखा है और साथ ही उनके उत्तर उसी साफगोई के साथ प्रस्तुत करने की कोशिश भी की है. वे लिखती हैं कि भूख और सेक्स जन्मजात आवश्यकताएँ हैं, जहाँ भूख को पूरी तरह सहजता के साथ स्वीकृति मिली है, पर सेक्स को लेकर असहजता बनी हुई है. इसी संदर्भ में वे किन्नरों की समस्याओं पर भी विस्तार से बात रखती हैं.

दीपा मेहता की फ़िल्म ‘वाटर’ में विधवाओं की समस्याओं को एक उदाहरण के रूप में रखा गया है और वही दर्द लिए ठीक वैसी ही वैश्यावृति की समस्या से हिजड़ों को भी जूझना पड़ता है और वो भी बचपन से. एक जगह बहुत मार्मिक संदर्भ का जिक्र है जब बिहार में नाचने वाले एक किन्नर से बातचीत में वह कहता है दिन में भैया रात में सैंया वाला माहौल झेलना पड़ता है और एक भद्रलोक के सपने की बात करता है जहां उसे समानता का सच्चा अधिकार मिले. मानबी बंदोपाध्याय एक जगह कहती हैं कि तीन महीने तक भ्रूण का निर्धारण नहीं होता और तीन महीने बाद क्रोमोसोम अपनी स्थिति निर्धारित करते हैं तब ऐसी स्थिति में दोष किसे दिया जाए.

मुझे लगता है प्रियंका को पूरी तरह किन्नर और उनकी समस्याओं पर केंद्रित रहने की आवश्यकता थी, पर एक-दो जगह वे समस्याओं और उसके मूल कारकों तक पहुँचने के प्रयास में थोड़ी सी विषयांतर कर जाती हैं. किन्नरों के प्रति बेरुखी या सामाजिक बहिष्कार में सेक्स का क्या हाथ है इसे समझाते हुए वह कामसूत्र, उसके अनेक अध्यायों और उसमें निहित एक हज़ार दो सौ पचास सूत्रों पर बात करने लगती हैं, हालाँकि इस बिंदु पर प्रकाश डाला गया है कि आख़िर किन्नर या तृतीय प्रकृति को कामसूत्र में सेक्स के नाम पर क्या करना चाहिए या क्या करते हैं, पर उसकी पृष्ठभूमि में कामसूत्र पर लंबी विवेचना से बचते हुए सीधे विषय बिंदु पर बात करना ज्यादा उपयुक्त रहता. यह मेरी व्यक्तिगत राय है अन्य पाठकों को शायद यह विषयांतर न लगे.

बहुत सारी तहें, जो बाकी अध्यायों में नहीं खुल पायी थीं उन्हें लेखिका ने बातचीत के ज़रिये खोलने का अच्छा प्रयास किया है. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत के अलावा सिर्फ सात देश ही हैं जिन्होंने इस समुदाय को बराबरी का अधिकार दिया है और यह भी सुखद है कि किन्नरों के लिए बेहतरीन देश की एक अलग सूची में भारत आठवें स्थान पर है. मनोविज्ञान ने भी 1973 से अब तक कई सकारात्मक पहल किये हैं जिनमें 2013 में आया जेंडर आइडेंटिटी डिसऑर्डर को मानसिक विकार से बरक्स जेंडर डिस्फोरिया की संज्ञा दी गयी. पहली जीत यही है कि इसे रोग न समझा जाये,  वरना आदम शुरू में ही हार जाता है. भ्रूण के गुण सूत्र का विशेष संयोजन से किसी का जन्म होना उसका दोष तो कदापि नहीं हो सकता. जरूरी यही है कि हम इनके इसी रूप को सामान्य रूप से सहृदय स्वीकार करें. उनको नैराश्य से बचाना एक नैतिक व सामाजिक जिम्मेदारी है. उन्हें सामान्य समझने की पहली जिम्मेदारी उसके माँ-बाप की है, अगर वे इस बात को  समझ लें तो उनका परिवेश भी समझ लेगा. प्रियंका ने साक्षात्कार के जरिये सरकार के नियमों में हो सकने वाले आधारभूत सुधार की बात भी रखी है. अभी भी इनकी सही जनगणना बाकी है, और उन्हें उनका आरक्षण देना बाकी है जैसी बातें भी सामने आई है.

अभी भी लगता है कि कितने प्रयासों को आंदोलित होने की जरूरत है. इनके दर्द को एक सामूहिक गीत बनने की जरूरत है और रह-रह कर साहित्य में लोगों ने इस दिशा में प्रयास किया भी है. मसलन ‘नाला सोपारा’ का लिखा जाना या ‘मी विद्या’ का या रत्नप्रभा जोशी का ‘शिखंडी’ या फिर भगवंत अनमोल की ‘ज़िन्दगी 50-50’ ही हो या प्रदीप  सौरभ की ‘तीसरी ताली’, यह सारे प्रयासों का सम्पूर्ण तालमेल एक स्वर बन सामने आना जरूरी है. जितना पर्दा उठेगा, मिथक उतना ही दरकेगा, हम उतनी ही सहजता से इसे स्वीकारेंगे.

दूरियों को पाटने में लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी, मनोबी बंधोपाध्याय या पुष्पा गिडवानी की कोशिशें भी बहुत महत्वपूर्ण हैं. वहीं, किन्नर अखाड़ा संघ का होना धर्म और समाज के इस पटल पर शुभ संकेत है कि कुछ तो कहीं बेहतर हो रहा है. हालांकि, हिजड़ा समाज को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी, अपने बंद समाज से बाहर आकर एक तारतम्य बिठाना होगा. इस शुरुआत को अभी बहुत संतुलित तरीके से आगे ले जाने की जरूरत है और ऐसे समय में इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए  प्रियंका का यह प्रयास इस विषय पर इतनी गहराई से बात रखना अत्यन्त सराहनीय है.

वृहत पाठक वर्ग तक किताब पहुंचे इसके लिए प्रकाशक को किताब की कीमत (200 पन्ने की किताब, मूल्य 495 रुपया) को कम करने पर विचार करना चाहिए.

 

यतीश कुमार का इसी वर्ष राधाकृष्ण प्रकाशन से उनका पहला कविता-संग्रह-‘अन्तस की खुरचन प्रकाशित हुआ है.
yatishkr93@gmail.com

Tags: LGBTQकिन्नरप्रियंका नारायण
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Comments 13

  1. सुजीत कुमार सिंह says:
    4 years ago

    यतीश जी ने किताब को डूबकर पढ़ा है और गहराई से लिखा भी है। पुस्तक समीक्षाएँ ऐसी ही होनी चाहिए। इस लेख में एक नया शब्द मिला – ‘तृतीय प्रकृति’। यतीश जी को बधाई!

    Reply
  2. Jyoti sparsha says:
    4 years ago

    समाज की तिरछी कंटक निगाहों से देखे जानेवाले इस वर्ग पर जितनी ज्यादा बात होगी, लेखन का विषय बनाया जायेगा, लोगों की भ्रांतियाँ कम होगी। यतीश जी ने अपनी विश्लेषणात्मक नजर किताब के हर पक्ष पर रखी है। यकीनन किताबों के मूल्य केंद्रित वर्ग के आसानी से पहुँच में होने चाहिए।

    Reply
  3. प्रियंका नारायण says:
    4 years ago

    समालोचन को जितना भी धन्यवाद दूं कम है। जिस तरह से यतीश सर ने किसी भी पुस्तक पर समीक्षा लिखते हैं, वह मुझे हमेशा चौंका देता है।
    कुछ तो निजी घटना के बाद मैं किताब पर बिलकुल ही मौन साध गई थी लेकिन आज जबकि मैं लंबी यात्रा पर निकल रही हूं, सर का लिखा पढ़ना और समालोचन का स्थान देना निश्चित ही भावुक बना रहा है।
    इन सबके बीच एक चीज़ थी कि आजकल केवल हर रचना पर प्रशंसा मिलती जाती है। भय कहिए या संबंधों के ख़राब होने के कारण कोई भी उचित आलोचना या सलाह देने से भी बचता है। ऐसे में आप अनुभवी साहित्यकारों द्वारा की गई असहमति वाली टिप्पणी मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण है।
    सादर 🙏🙏

    Reply
  4. Bhaskar Choudhury says:
    4 years ago

    समीक्षा सचमुच बहुत अच्छी लगी कारण कि यह एक रेखीय नहीं है। यतीश जी ने डूबकर लिखा है। महत्वपूर्ण लेखन के लिए प्रियंका जी को मुबारकबाद। यतीश भाई को बधाई और शुभकामनाएँ।

    Reply
  5. अंकिता शाम्भवी says:
    4 years ago

    एक बहुत ज़रूरी किताब पर बहुत सटीक ढंग से और संजीदगी से लिखा है यतीश सर ने. प्रत्येक पहलू पर बात करते हुए एक संतुलित समीक्षा कैसी हो सकती है, ये पढ़कर हमें मालूम होता है. बाक़ी ये किताब अभी पढ़ी जानी बाक़ी है मुझसे, प्रियंका दी के लेखन शैली, उनकी रचनात्मकता से मैं पहले ही प्रभावित हूँ. इस समीक्षा के बाद जब किताब पढूँगी तो कुछ और पहलू बेहतर ढंग से खुलेंगे.

    Reply
  6. अशोक अग्रवाल says:
    4 years ago

    यतीश कुमार की यह सारगर्भित समीक्षा पुस्तक पढ़ने के लिए प्रेरित कर रही है। यही इस समीक्षा की सबसे बड़ी शक्ति है।

    Reply
  7. Mukul tiwari 😊 says:
    4 years ago

    Wah…apka review ka kamal hai jo kitab ko kharid kar padhne ki palak ko badhawa de raha hai…kamal… 👏

    Reply
  8. अनुपमा says:
    3 years ago

    किताब से सुन्दर परिचय करवाती सटीक समीक्षा।
    लेखक, समीक्षक एवं समालोचन को साधुवाद।

    The facts and details in the article successfully incites interest in the readers to read the book.

    Reply
  9. Anonymous says:
    3 years ago

    इस विषय पर गहरे डूब कर लिखी गई समीक्षा बताती है कि समीक्षक ने कितनी संवेदनशीलता से पुस्तक को पढा है। इस पर और लिखने पढ़ने की आवश्यकता है। अब पुस्तक पढ़ने की इच्छा जाग्रत हो गयी है। फिलहाल लेखक तो बधाई के पात्र हैं ही, समीक्षक और समालोचन भी बधाई के हकदार हैं। – – हरिमोहन शर्मा

    Reply
  10. डॉ.+सुमीता says:
    3 years ago

    प्रियंका की इस महत्वपूर्ण किताब पर संवेदना सहित संजीदा समीक्षा लिखी है यतीश जी ने। साधुवाद। अरुण जी और ‘समालोचन’ का बहुत धन्यवाद।

    Reply
  11. MADAN PAL SINGH says:
    3 years ago

    एक अच्छा आलेख वह भी होता है जो लेखक से होता हुआ पाठक और पुस्तक के बीच में एक पुल बनाये। इसकी सबसे ज्यादा जरुरत है। धन्यवाद इसे पढ़वाने के लिए। आपका अध्ययन और सरोकार तो विस्तृत हैं हीं।

    Reply
  12. प्रभात+मिलिंद says:
    3 years ago

    कथेतर साहित्य में किन्नरों की समस्याओं पर एक विचारोत्तेजक पुस्तक तब पठनीयता की दृष्टि अधिक महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण हो जाती है जब वह हिंदी में लिखी गई हो। हिंदी कथेतर लेखन को यात्रा वृतांत, आत्मकथा, जीवनी, पत्रलेखन, संस्मरण और डायरी से इतर सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित करना विभिन्न कारणों से समीचीन और अवश्यक है। यह पुस्तक इस कमी की भरपाई की एक कोशिश है।
    Yatish Kumar जी ने एक गंभीर अध्येता के रूप में इसका मूल्यांकन किया है। किन्नरों के जीवन, इतिहास और समस्याओं को उन्होंने एक संवेदनशील मनुष्य और संजीदा विमर्शकार दोनों ही दृष्टि से देखा है। और, इस उपक्रम में कथ्य और विपणन संबन्धी अवरोधों और कमियों की भी अनदेखी नहीं की है। उनके गंभीर और प्रतिबद्ध अध्ययन की झलक उनकी समीक्षा में स्पष्ट दिखती है जो कमोबेश अब एक रोचक विधा का रूप ले चुकी है। इस पुस्तक से परिचित कराने के लिए बतौर एक पाठक उनका आभारी हूँ।

    Reply
  13. Jayshree Purwar says:
    3 years ago

    यतीश जी ने किताब का बहुत गहन और सूक्ष्म अवलोकन किया है ।किताब किन्नरों के प्रति समाज की अवहेलना और भ्रांति को कम करने की दिशा में महत्वपूर्ण कोशिश है ।जिसे यतीश का सबके सामने लाने प्रयास स्तुत्य है । लेखिका और समीक्षक दोनों ही बधाई के पात्र हैं । किताब पढ़ने की उत्सुकता जगी है ।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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