दबंग गबरू और बदमाश किट्टूसत्यदेव त्रिपाठी |
गबरू और किट्टू को एक साथ याद करने की सबसे बड़ी संगति यह है कि इन दोनों के साथ हम रह न सके. दोनों इतने आक्रामक निकल गये कि हमारे ही क़ाबू में न रहे. हमें ही ख़तरा दरपेश होने लगा. लिहाज़ा दोनों को निकालना पड़ा.
लेकिन दोनों को हम रख न सके, तो भुला भी न सके. और सारा मामला तो यादों का ही है. उनके ऐसे होने के लिए भी कहीं न कहीं ज़िम्मेदार हम ही हैं. कई-कई मूक सहचरों के साथ रहने के बाद मैं इस बात का क़ायल हो गया हूँ कि इन्हें मनमाफ़िक बनाना हमारा काम है और मनुष्यों को बनाने के मुक़ाबले इन्हें बनाना बहुत आसान भी है.
आपके सारे सही पालन-सँभाल के बावजूद मनुष्य का बच्चा बदमाश हो सकता है, लेकिन पशु-बच्चा बिलकुल नहीं. वह बिगड़ेगा, तो आपकी लापरवाही, अनवधानता या बदसलूकी के चलते.
और इन दोनों के लिए मुझे वह बुझौवल याद आती है– ‘घोड़ा अड़ा क्यों, पान सड़ा क्यों’?
दोनों का एक ही उत्तर– ‘फेरा न होगा’.
उसी तरह इन दोनों का एक ही कारण रहा– समय पर प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) न हो पाना.
1.
कालक्रमानुसार पहले गबरू आता है. उसके आने का संयोग तब बना, जब मैं मुम्बई से काशी विद्यापीठ में पढ़ाने की नौकरी पर बनारस जाने ही वाला था. यह डोबरमैन नस्ल का था. लैब्रे (बीजो) तो घर में था, लेकिन बेटे की आकांक्षा डोबरमैन पालने की हुई, जिसे यूँ भी ख़तरनाक समझा जाता है. लोग ऐसा मानते हैं और कुछ दिन रख लेने के बाद से मैं भी मानता हूँ कि यह नस्ल कम्पनियों-फैक्ट्रियों जैसे संस्थानों या टाटा-बिड़ला जैसे घरों के लिए ही उपयुक्त होती है, जहां इनकी उपयोगिता भी होगी और पेशेवर क़िस्म का अनुशासन भी. हाँ, इस प्रजाति का कोई दीवाना रसिया हो, तो अलग बात, वरना घर के लिए-यानी घरेलू क़िस्म वाली- है ही नहीं यह प्रजाति– कम से कम हमारे जैसे ‘हम दो, हमारा एक’ वाले परिवार के लिए तो क़तई नहीं.
यह मैं बनारस के अपने एक मित्र के घर देख भी चुका था, जिन्होंने डोबरमैन की आक्रामकता के गम्भीर शिकार हो जाने के बाद खुद ही अपने पाले डोबरमैन को बांध के मार-मार के पंगु कर दिया था, फिर भी उसकी फुंकार व झपट्टा गया न था. इसी को संस्कृत कवि ने कहा है–
‘अपि निर्वाणमायाति नानलो याति शीतताम्’ (आग बुझ जाती है, ठंडी नहीं होती).
इसीलिए बच्चे की दुर्निवार इच्छा को देखते हुए नया लाने के पहले प्रयोग और परिहार स्वरूप महात्मा गांधी अस्पताल, परेल (मुम्बई) से एक युवा डोबरमैन लाया था, जो पेट की बीमारी के कारण अस्पताल को दे दिया गया था. पशुओं के लिए ऐसी व्यवस्था है वहाँ– एक अलग अनुभाग (सेक्शन) ही है. मैं अपने प्रोफ़ेसर मित्र हटंगड़ीजी, जो कुत्तों की नस्ल के विशेषज्ञ हैं- हमारे बीजो के प्रशिक्षक भी रहे, को लेके गया था– उनकी हाँ पर लाने का फ़ैसला किया.
अस्पताल वालों ने आकर घर का मुआयना किया, फिर लाने दिया. लेकिन निशुल्क था, जिससे ख़रीद के लाने के पैसों की तो बचत थी ही, ठीक न होने पर वापस कर देने का खुला विकल्प था. सनगर (शान-बान वाली) जाति को ध्यान में रखकर इसी के लिए गब्बर से बनाके ‘गबरू’ नाम दिया गया था. वह घर वालों के लिए बहुत सीधा और सौ फ़ीसदी आज्ञाकारी था, लेकिन दूसरों व शंकास्पद लोगों के लिए पक्का ख़ूँख़ार. बिना कुछ बिछाए बैठता भी न था– सोने की तो बात ही क्या!! रोटी सूखी खाता और बाद में दूध पी लेता. कोई झिक-झिक न थी. खुद ही घर में न बैठकर परिसर में बैठता था. वहीं बारजे के नीचे सोता भी रात को. यानी एक आदर्श पालतू का नमूना था. जहां से भी आया हो, अच्छा प्रशिक्षित (वेल ट्रेंड) था. हमारे डॉक्टरों ने विश्वास दिलाया था कि पेट का मर्ज़ ठीक हो जायेगा, लेकिन वह हो न पाया. दो महीने रहा और गहन चिकित्सा होती रही, रुपए भी बहुत खर्च हुए, लेकिन अंत में डॉक्टरों ने हाथ उठा दिये, तो हारकर अस्पताल को वापस करना पड़ा.
उसके बाद ही ख़रीद कर आया डोबरमैन का यह बच्चा- बमुश्किल एक महीने का. बिल्कुल मासूम, मुलायम- पोचा-पोचा. हाथ से छूओ, तो गोद में लेने का मन हो और गोद में ले लो, तो उतारने का मन न हो, तीन महीने उसे दुनिया के हवा-पानी से दूर एक कमरे में रखना था, जिसके लिए शब्द कोरोना काल में बहुत प्रचलित हुआ– कोरंटाइन टाइम यानी सामाजिक असंपृक्ति-काल. और अब तो गाँवों में भी बच्चे अस्पताल में पैदा होते हैं– बल्कि ‘डेलीवरी’ होती है, वरना पहले के समय में जब बच्चे घर में ही पैदा होते थे, हमारे गाँव के घरों में इस काम के लिए एक कमरा ख़ास होता था– हम सब वहीं जन्मे हैं. उस कमरे को ‘सउरी का घर’ या ‘सउर’ (सूतिका गृह) कहा जाता था.
उसी वजन पर श्वान-बच्चों को असंपृक्ति में रखने के लिए मुम्बई के हमारे घर का भोजन कक्ष (डाइनिंग रूम) नियत हुआ था, जो रसोईंघर (किचन) से सटा भी था और हटा भी था. उतने दिन भोजन कहीं और कर लेते, फिर कमरा धो-धा के सही कर लेते. उसी में बीजो भी रखा गया था और ख़ास उल्लेख्य है कि ज़िंदगी भर मौक़ा मिलने पर वही जगह उसके लिए सर्वाधिक सुख से सोने की जगह होती थी. इस नये डोबरमैन को भी वहीं रखा गया और अस्पताल वाले डोबरमैन का ही नाम इसे भी दे दिया गया– गबरू.
लेकिन इसके आने के सप्ताह भर में ही मैं पूर्वनिश्चित कार्यक्रम के मुताबिक़ काशी चला गया. जब दो महीने बाद आया, तो गबरू को कमरे से बाहर खुले में लाया जा चुका था. आकार बढ़ने के साथ इतना अच्छा रूप पा रहा था कि ‘थके नयन ‘गबरू’ छबि देखे, पलकन्हिहूं परिहरिय निमेषे’ वाला भाव सार्थक हो रहा था. बस, घोर चपलता (रेस्टलेसनेस) का स्वभाव बन रहा था उसका– एक पल कहीं स्थिर न रहे और किसी की न मानने तथा अपनी वाली करने से बाज ना आये, जिसे तब हम बालसुलभ चापल्यता (चाइल्डिश मिसचीफ) समझते. लेकिन अच्छी तरह याद है कि एक बार ऐसी ही किसी चपलता पर गोद में लेके रख दिया झूले पर और ‘नेह चटाकन मारि के गाले’ बरजा कि दो-चार मिनट शांत बैठा भी करो, और ऐसा करके चलने को पीछे मुड़ा ही था कि वह हमले के अन्दाज़ में झूले से मेरी तरफ़ कूद पड़ा. लेकिन छोटा था, तो मुझ तक पहुँच न सका. बीच में ही गिर पड़ा और चिल्लाने लगा, परंतु ‘पूत के (कु)पाँव पालने में’ दिख तो गये ही.
मर्म समझ के भी उस वक्त उस मासूम को कुछ कहा न जा सकता था. सो, सहलाते हुए उठा लिया. मुझे तो जल्दी बनारस लौटना था, लेकिन इस घटना का उल्लेख किये बिना गबरू के इस स्वभाव के प्रति बेटे को सहेजते, सजग करते हुए जल्दी से जल्दी उसे प्रशिक्षित कराने पर ज़ोर देके वापस चला गया.
लेकिन होनी को कुछ और मंज़ूर था. हमारे पुराने प्रशिक्षक प्रो. हटंगड़ी का समय सुबह का था, जब हमारे सुपुत्र की आधी रात होती है, वरना उन्हें बुलवा के जाता॰॰॰और समय पर सही ढंग से प्रशिक्षण हो जाता. लिहाज़ा कुछ दिन प्रशिक्षक न मिला॰॰॰और इसी बीच एक दिन परिसर का मुख्य द्वार खुला रह गया था और गबरू बेहद चपल तो था ही, पलक झपकते बाहर सड़क पर निकल गया. पकड़े जाने से बचने के लिए भागते हुए ऑटो से टकरा गया और एक पाँव तोड़वा (फ़्रैक्चर करा) बैठा. दो महीने का पट्टा (प्लास्टर) लगा, जिसे उत्पाती गबरू बार-बार तोड़-ताड़ देता- उंचार देता. फिर-फिर छूटने-बांधने में घाव पुजने (हील होने) का समय बढ़ता गया॰॰॰. बेटा प्राय: दिन भर बाहर रहता और इस दौरान कुछ तो घायल बच्चे के प्रति दुलार-सहानुभूति ने और कुछ उससे पंगा न लेकर उसकी ज़िद मान लेने की पत्नी की नमड़ी (नमनीय– नाज़ुक) वृत्ति ने उसकी उद्दंडता को आत्मविश्वास में हठी हो जाने का अवसर दे दिया. इस तरह ५-६ महीने निकल गये॰॰॰और इतने में वह बड़ा हो गया.
फिर प्रशिक्षक आये, तो वह उनकी सुने ही न. उनके आदेश-निर्देशों को मानना गबरू को अपमानजनक लगे. सो, वह अपनी ही चलाये, कड़ाई करने चलें, तो प्रतिकार करे– लड़ बैठे. सजा देने चलें, तो हमलावर होने लगे, जिससे घायल होकर घर बैठ जाने के डर से दो-तीन प्रशिक्षक आये और लौट गये– कौन नाहक जान बधाए!! इस बीच मैं कुछ-कुछ दिनों के लिए आता रहा, पर कुछ स्थायी व्यवस्था कर पाने की स्थिति न बन पाती और गबरू का रुतबा बढ़ता जाता.
इन्हीं दिनों के निरंकुश गबरू की रोचक आदत का एक दृश्य प्रस्तुत करना चाहूँगा, एक दिन सुबह के दस बज रहे होंगे कि देखा एक कौआ वह रोटी खा रहा है, जो गबरू ने सुबह खाने से छोड़ दिया था. मुझे आश्चर्य हुआ कि जो गबरू आस-पास की इमारतों पर भी कोई पंछी-परेवा आ जाये; तो दौड़-दौड़ के, भौंक-भौंक के आसमान सर पे उठा लेता है, उसके अपने बर्तन में पड़ी रोटी कौआ खा रहा है और वह है कहाँ!! देखा तो घर के पीछे की तरफ़ बैठा गबरू एक हड्डी का टुकड़ा चिचोरने-चूसने में लगा है. मैं विस्मित और प्रश्नाकुल कि यह हड्डी का टुकड़ा कहाँ से आया!! सहज ही अपनी अन्नपूर्णा (कुक) उषा की शरण गया, क्योंकि घर में राई से पहाड़ तक जो भी है, हो रहा है– बल्कि होने वाला भी हो, सबका सटीक ब्योरा (रेडी अपडेट) उसके दिमाग व उसकी ज़ुबान पर होता है– आज भी. उसने तुरत बताया– अरे अंकल, यह भी आपके गबरू की अजीब दास्तान है. उसने एक कौए से दोस्ती की है. वह इसे हड्डी देता है, उसके लिए यह रोटी रखता है– देखिए कहीं बैठ के खा रहा होगा, इस होने से अधिक धरा-निवासी व अधर-विहारी दो बेज़ुबानों के बीच यह अनोखा विनिमय पनपा कैसे होगा, की उत्सुकता मुझे ज्यादा हुई. घोर आश्चर्य भी हुआ, आँखों देखा न होता, तो इसे मैं कदापि न मानता!! बहरहाल,
फिर संयोग से दो साल के अंदर वैधानिक कारणों से मुझे काशी से वापस आना पड़ा, तो मैंने देखा कि गबरू को बाहर से कमरे में या कमरे में से बाहर लाना हो, तो उसका कोई प्रिय खाद्य-पदार्थ परोसा जाता. कोई उसे बाहर-अंदर तक कराने की हिम्मत न करता. उसने प्राकृतिक निपटान भी परिसर के पीछे वाले कोने पर करने की आदत बना ली, जिसे साफ़ कर दिया जाता. कुल मिलाकर घर पर गबरू की हुकूमत थी. डोबरमैन की नस्ल तो प्रशिक्षण के बाद भी खूँखार होती है, यह तो बिना प्रशिक्षण के रहा. सो, काफ़ी दबंग हो गया था. और इलाक़े (के प्रशिक्षकों) में वह ‘गुंडे कुत्ते’ के रूप में कुख्यात हो गया– कोई आये ही न उसे सिखाने क्या, पास तक फटकने. लेकिन यह सब कुछ देखने के बाद मैंने नये सिरे से प्रशिक्षण की योजना बनायी. खोज-खाज कर एक युवा प्रशिक्षक को बेटा ही ले आया. लेकिन उन्होंने दो मिनट में ही ना बोल दिया. दूसरे को लाया. उन्होंने पहले दिन इसकी आक्रामक मुद्रा देखी, तो दूसरे दिन सर से पाँव तक जिरह-बख़तर पहन के आये. उनका इतना साहसी होना अच्छा लगा. कछ उम्मीद भी जगी. लेकिन तीसरे दिन इसके आक्रमण से बच न पाये- जिरह-बख्तर काम ना आये. फिर उन्होंने भी ज्यादा जोखम न उठाया और असमर्थता जता कर चले गये. और गबरू अपनी मनमानी से रहने लगा. अकुल (बेटे) को मानता था और ऐसी धारणा है कि यह प्रजाति घर में किसी एक को ही अपना मास्टर मानती है. पर वह अपने काम की प्रकृति के चलते घर पर रहता ही बहुत कम था.
मास्टर भले एक को माने, लेकिन घर के और लोगों को दुश्मन तो न मानेगा, की आस-विश्वास के साथ उसे प्रेम व दोस्ती से साधने की कोशिश में मैंने गले से पेट तक वाला पट्टा पहना के घुमाना और खूब खेलना शुरू किया उसके साथ. यह करना मुझे प्रिय भी है और यूँ सभी पेट्स के साथ सुबह जहू बीच पर जाके डेढ़ घंटे तक खेलना-दौड़ना करता भी रहा हूँ- आज भी कर रहा हूँ. इससे सारे पेट्स हमारी तान पर नाचने लगते हैं. गबरू पर भी असर होने लगा था. हमारे बीच काफ़ी कुछ समझदारी विकसित भी हो सकी थी. मेरे कहने पर अंदर-बाहर आने-जाने, बैठने-उठने लगा था कि एक रात अचानक किसी बात पर मनमानी करने लगा और मना करने पर अड़ गया. उस रात थिएटर के मेरे दो मित्र (विजय कुमार व अस्मिता शर्मा) भी यहीं ठहरे थे. मेरे डाँटने पर गबरू जाके एक खाट के नीचे बैठ गया. बार-बार बुलाने पर भी बाहर न आये. प्यार-इसरार से बुलाते-बुलाते थक गया, तो अनुशासन-प्रक्रिया में पहले थोड़ा डराने का विचार आया और यही उसकी नस्ल के लिए उलटा पड़ गया. बाद में सिद्ध हुआ कि इस नस्ल के प्राणी तो डर का नाम भी नहीं जानते– मर जाएँगे, डरेंगे नहीं. लेकिन उस समय डराने के लिए मैंने एक बड़ा डंडा उठाकर खाट के नीचे बैठे गबरू को एक-दो डंडा मार दिया. फिर तो वह गरजने लगा भीतर से ही. इससे मैं भी उत्तेजित हो गया, तो ज़ाहिर है कि विवेक जाता रहा, जो सबसे बुरा हुआ. लेकिन क्या करते, गुस्सा मेरा भी ख़ानदानी है!! चढ़ गया, तो मैंने चार-छह डंडे मार दिये, लेकिन फिर भी वह बाहर नहीं आया और अंत में हारकर मैंने ही उसे छोड़ दिया, उसकी यह जीत आगे के लिए सांकेतिक सिद्ध हुई.
सुबह देखा, तो वह बाहर अपनी जगह पर था. हम पूर्ववत घूमने गये. सब कुछ रोज़ की तरह सामान्य रहा. मुझे क़यास हो गया कि ‘कुत्ते की मार ढाई कदम’ – यानी ढाई कदम बाद कुत्ता अपने पर पड़ी मार भूल जाता है. और गबरू भी उसका अपवाद नहीं– रात भर में भूल गया. लेकिन यह समझना मेरी भारी भूल थी. अब मेरे मुताबिक़ डोबरमैन की प्रवृत्ति यह भी है कि वह अपना प्रतिशोध भूलता नहीं और उसके लिए क्षत्रियों की तरह बारह साल व ब्राह्मणों की तरह ज़िंदगी भर की कालावधि भी नहीं रखता– बल्कि जल्दी से जल्दी बदला लेता है– उसके लिए घात में रहता है. मेरे साथ तो दो-तीन दिन में ही घात लग गयी.
असल में मैं तो सब पहले जैसा चलता देख के बिलकुल निश्चिंत हो गया था और भूल भी गया था कि कुछ हुआ था. फिर वह शाम आयी, जब विभाग से आके मुझे ‘नयी कहानी के सशक्त हस्ताक्षर’ स्व. मारकंडेय सिंह की पुत्री डॉक्टर स्वस्ति सिंह से मिलने ‘सात बंगला’ जाना था. वे किसी कॉनफ़रेंस में भाग लेने इलाहाबाद से आयी थीं. सो, जल्दी निकलने की रौ में रोज़ की तरह गबरू को बिस्किट देने गया और प्यार करने की अपनी अदा में लटक के नीचे से उसकी गरदन सहलाने व पुचकारने चला कि तब तक उसने मेरे सर के बीच में ज़ोर से काटा. और इस अचानक घटित से चिहुंकते हुए बेहद झटके से मेरे हाथों वह ऐसा फेंकाया कि ६-७ फ़िट दूर जाके गिरा. और जब तक मैं समझूँ कि क्या हुआ, तब तक तो खून की मोटी लकीर मेरे गरदन से होती हुई सीने पर से टप-टप ज़मीन पर गिरने लगी. गबरू जहां गिरा था, वहीं पड़ा मेरी तरफ़ घूर रहा था, लेकिन न जाने किस देवी प्रेरणा से उस वक्त उसने दुबारा हमला न किया और मेरा ध्यान भी उसे दंडित या कुछ और करने के बदले अपने इलाज पे चला गया. चीखते हुए पत्नी को पुकारा– कल्पनाआऽऽ. देखते ही उन्होंने बेटे को फ़ोन किया. उसने अपने सहपाठी डॉक्टर प्रणव अग्रवाल को फ़ोन किया, जो तब हमारे घर से सबसे नज़दीक और मशहूर अस्पताल ‘मणि बेन नानावटी’ में कार्यरत था. उस वक़्त ड्यूटी पर भी था. सो, आनन-फ़ानन में झटपट मरहम-पट्टी हुई, सुई (इंजेक्शन) लगी.
कुछ गम्भीर न था. न कोई नस-वस ही प्रभावित हुई थी, न कोई ज्यादा चोट ही थी. कुछ मामूली-सी दवाएँ बतायी गयीं, जो लेकर बमुश्किल एक घंटे में हम घर आ गये. गबरू को कोई कुछ न बोला, लेकिन यह सबके ध्यान में आया कि गबरू उदास है शायद पछता रहा है. ग़ुस्सा मुझे भी न था, लेकिन यह समझ में आ रहा था कि उस दिन की मेरी मार को वह भूला नहीं था. मन में गंस बना लिया था और बदले में प्रत्याक्रमण के लिए अवसर की तलाश में था. इस तरह उसकी नस्ली चेतना की हक़ीक़तें धीरे-धीरे उजागर हो रही थीं.
लेकिन दूसरे दिन मैं खाट पर बैठा था, तो सर नीचे किये हुए गबरू धीरे-धीरे चलके मेरे पास आया मैंने भी बरजा नहीं, आने दिया. पास आकर भकुआए हुए गबरू ने कातर नेत्रों से मेरी जाँघों पर सर रख दिया. मुझे भी उस रात उसे पीटने का बोध और पछतावा था. सो, द्रवित होके उसे प्यार से खूब सहलाया, लाड़ किया– प्यारा (क्यूट) तो वह बहुत था ही. लगा कि उसने पश्चात्ताप व्यक्त किया है और अब बात बन गयी है. इससे बड़ी आंतरिक ख़ुशी हुई. पशुओं में निहित मनुष्यता का वह अहसास बड़े ज़ोरों से हुआ, जो महादेवीजी के ‘मेरा परिवार’ के मूक सदस्यों में कूट-कूट कर भरा व छलक-छलक के हम तक पहुँचा है. हमारे भी लगभग दर्जन भर पालतुओं के अनुभव ऐसे ही हैं. लेकिन दूसरे दिन ही यह धारणा भी निरस्त हो गयी.
शाम को मेरे कवि मित्र रासबिहारी पाण्डेय घर आये थे. उस वक्त गबरू जहाँ बैठा था, वहाँ से थोड़ा हटने के लिए कहा कि वह कूद पड़ा मेरे ऊपर. मैंने उसे उसी क्षण कमरे से बाहर झटक दिया और प्रताड़ित करने चला ही कि बिना एक पल गँवाये, उसने फिर छलांग लगा दी. मैं भी भिड़ गया– उस वक्त दूसरा चारा न था. उसके नाखून तो लगे पेट व हाथों में, लेकिन एक मिनट की मुठभेड़ में ही उसकी गरदन मेरे हाथ में आ गयी. उसे पकड़ के नीचे दबा ही रहा था कि जाने कैसे मेरा संतुलन गड़बड़ा गया और उसको लिये-दिये मैं भी ज़मीन पर गिर गया. मुझे कभी न भूलेगा कि उस वक्त मैं सहसा डर गया था– बेटे के नाम की कातर पुकार भी मुँह से निकली थी – अsकुsलss॰॰॰!! और इतने में उसने पिछला पाँव ऐसा चलाया कि मेरी पकड़ गरदन पर से भी छूट गयी. फिर से गरदन हाथ में लेने के प्रयास में हाथ फिसल कर उसके खुले मुँह पर गिरा. मेरे पूरे शरीर का वजन उसी हाथ पर पड़ा और इस अनचक्के दबाव से उसके नीचे वाली दन्त-पंक्ति के किनारे का बड़ा दाँत मेरी गदोरी में समूचा धँस गया. लेकिन इत्तफ़ाक़ यह कि फिर भी गरदन दबी रह गयी, जिसमें छटपटाता हुआ गबरू पकड़ लिया गया. धीरे-धीरे उसका दांत निकाला गया मेरे हाथ से या मेरा हाथ हटाया गया उसके दाँत से. लेकिन कुशल यह कि हाथ में धँसे दाँत के अलावा कुछ मामूली खरोंचों के सिवा मुझे भी कुछ न हुआ और उस जन्मना लड़ाकू बंदे को तो भला क्या होता!!
हम फिर भागे नानावटी– फिर प्रणव मिल गया. अब तो दो दिन पहले के हादसे वाले इलाज के चलते उस विभाग के लोगों से भी पहचान हो गयी थी. सो, इस लड़ाई के मज़े ले-ले के लोग मुआयना कर रहे थे. लेकिन जब पता चला कि 5 घण्टे के अंदर यदि एक विशिष्ट सुई (इंजेक्शन) न लग पायी, तो जानलेवा ख़तरा दरपेश है, तब तो फिर सबके विनोद काफ़ूर हो गये, क्योंकि समस्या यह थी कि वो सुई अस्पताल में सुलभ न थी. और भांडुप में जहाँ सुलभ थी, वहाँ से जाके लाने में पाँच घंटे की समय-सीमा समाप्त हो जाने का पूरा अन्देशा था. इससे सबकी घबराहट बढ़ गयी. चेहरों पर मुर्दनी छाने लगी. लेकिन प्रणव ने ‘हवा में हाथ मारते हुए’ वहाँ फ़ोन लगा दिया, तो पता लगा कि हाथों-हाथ पहुँचाने (होम या हैंड डेलीवरी) की अच्छी सेवा-व्यवस्था भी वहाँ है. फिर तो मुझे अस्पताल में ही लिटा दिया गया. दो घण्टे में उनका आदमी मोटर सायकल से आ पहुँचा. 5500 के दाम और 500 के सेवा-शुल्क (डेलीवरी चार्ज) के साथ समय पर इलाज मिल जाने का वरदान है उसके बाद का यह मेरा जीवन.
लेकिन आगे के लिए निर्णायक हुआ वह दो घंटे का समय, जब हम सभी सुई के आने की आतुर व व्याकुल प्रतीक्षा कर रहे थे उस दौरान सबकी ज़ुबान से रह-रह के जो बात निकल रही थी, उसका निष्कर्ष अलग-अलग भाव व शब्दों में एक ही था– ऐसा पालतू क्यों रखा जाये, जिसमें जान जा सकती है. स्टाफ़ ने आते-जाते स्व-कथन या आत्मालाप की तरह खुल-खुल के कहा. प्रणव ने अकुल के लिहाज़ में उसी से धीरे से कहा और कल्पना ने बेटे से गोया अंतिम फ़ैसले (लास्ट सलूशन) की तरह सर्द स्वर में कहा– अवे ना जोइए मने आ गबरू. तेने त्यां मूकी आव, ज्याँ थी लाव्यो छे (अब नहीं चाहिए मुझे ऐसा गबरू. उसे वहीं दे आओ, जहां से लाये हो).
नहीं बोले कुछ तो अकुल और मैं. मुझे तो फिर भी रखना था, पर दो-दो हादसों के खुद शिकार होने के बाद किस मुंह से बोलता!! और अकुल जब दूसरे दिन दोपहर बाद गबरू को गाड़ी में लेके वापस करने निकला, तो मुझे उसके चहरे पर बाबा (तुलसी) लिखित ‘हृदयँ न हरख-बिसाद कछु’ वाला भाव छपा दिख रहा था. और गबरू को तो कुछ भान ही न था. क्योंकि उसका किसी पर आक्रमण करना कहाँ पहला था!! सो, उसे क्यों कुछ लगता? और आता-जाता तो अक्सर ही रहता था गाड़ी में यहाँ-वहाँ. सो, उसके लिए कुछ नया व अलग न था.
लेकिन गबरू को लेके गाड़ी जब परिसर से खिसकने लगी, तो मेरा अपराध-बोध बहुत बड़ा होकर मन में सालने लगा– क्यों उस दिन उसे इतना मारा? उसने जो आक्रमण व प्रतिकार किया, वह तो उसकी नस्ली वृत्ति थी– जातीय धर्म का निर्वाह था, जिस पर अटल रहने के लिए मैं आज भी उसे सलाम करता हूँ. काटने के दूसरे दिन का कातर भाव शायद हम मनुष्यों के साथ रहकर उस वृत्ति से डिगने का नतीजा था, जिसे उसकी मूल प्रकृति ने दूसरे दिन फिर रवाँ कर दिया, लेकिन उसके उस कातर भाव को बढ़ाकर मानुष भाव तक ले जाने (पशुता का मनुष्यता में संतरण) जो हमारा काम था, वह शुरू तो हुआ, पर हमसे हो न सका. हम पढ़े-लिखे कहे जाने वाले मनुष्य (!!) तो उससे अपनी मूल वृत्तियों पर अडिग रहना भी न सीख पाये॰॰!!
उसकी याद बारहा आती रहती है, और रसे-रसे रिसती रहती है. !
२.
किट्टू को भी जीवन से दूर करना पड़ा, किंतु उसके आने व जाने का मामला गबरू से बिल्कुल अलग रहा संक्षेप में कहें, तो गबरू का मामला अभिजातवर्गी या शहरी (मुम्बइया) रहा और किट्टू का विशुद्ध बनारसी– बल्कि खाँटी गंवई. गाँव में ऋतु के अनुसार भयंकर जाड़ों के मौसम में जब एक पेट से ५-६ श्वान-बच्चों की आमद होती है, तो कभी कोई किसी एक को रख लेता है और इस तरह के पालतू कभी बड़े सरनाम भी हो जाते हैं. प्रसंगत: बता दूँ कि घर के जिन दो श्वानों से हमें इन्हें पालने के आरम्भिक संस्कार मिले, वे ऐसे ही पाले गये थे. सो, यहाँ इस मूक-मुखर सहचर-संसार की मेरी यादों के आदि पूर्वज के रूप में इन दोनों को भी मुख़्तसर में याद कर लेना अवांतर न होगा.
मेरे शैशव में बड़के बाबू के पाले हुए वे दोनों थे- पिल्लू व शिकारी. पिल्लू की हल्की-सी याद भर है कि भूरे रंग का था और आवाज़ में गरजन थी. दिन में दो बार घर में पानी भरने आने वाली हमारी कहारिन (परकल्ली भौजी) जब रात को खाना लेने आती, तो उस नटुली औरत के दोनों कंधों पर अपने अगले दोनों पैर रखकर उसके मुख के सामने भौं-भौं करने के श्रव्य व दृश्य बिम्ब आज भी हमारी चेतना में मौजूद हैं- और इस पर ‘बस, चुप रहु पिलुआ’ कहते हुए परकल्ली भौजी का अपने हाथ से उसकी टाँगे धीरे से पकड़कर उतार देने का गतिशील बिम्ब भी. लेकिन पिल्लू के आतंक का यह क़िस्सा भी कि उसकी गर्जना से रात्रिकालीन चौर्य-कर्म रुक जाते थे, इसलिए चोरों के किसी समूह ने उसे रात को ज़हर दे दिया– सुबह वह मरा पाया गया. चेहरे पर छा गयी कालिमा ज़हर की सुबूत दे रही थी.
उसके बाद पाला गया शिकारी, जिसकी याद ज़रूर कुछ ज्यादा है. एकदम काले रंग का था. देखने में एकदम डरावना लगता था, लेकिन हम तो उसकी सुडौल पूँछ खींच भी सकते थे. उसके होते कोई अजनबी दरवाज़े के सामने से गुजर न सकता था. अक्सर आते-जाते रहने वाले लोग तो कई बार दूर से ही गोहराते– ‘पंडितजी ज़रा शिकारी को पकड़ लीजिए, हम निकल जायें’. लेकिन आगे चलकर शिकारी बिल्कुल ‘यथा नाम तथा ग़ुण’ निकला. वह दृश्य भुलाया नहीं जा सका, जब गाँव के कई बच्चों के साथ हम तीनों भाई-बहन मेला देखाने जा रहे थे. मैं उसमें प्राय: सबसे छोटे बच्चों में था. शिकारी हमारे साथ हो लिया था. हमारी सरहद पार इरनी गाँव की सिवान में गोरू चर रहे थे. बारिश का मौसम था’. आस-पास के गड्ढों में पानी भरा था. शिकारी ने हमारे सामने ही चरती हुई एक बकरी को गरदन से पकड़ के चहुँ ओर गड्ढों में जमा बारिश के पानी में डुबा-डुबा के मार डाला. खूब याद है कि मेले जाते हुए हम सब गाँव के बच्चे कुत्तों को डाँटने-भगाने के लिए प्रयुक्त शब्द ‘दुर-दुर’ कह के उसे रोक रहे थे, तो वह और ज़ोर से झिंझोड़ के गरदन दबाने लगता था– शायद वह अपने आवेश में ‘दुर-दुर’ को ललकारने के लिए प्रयुक्त शब्द ‘लुह-लुह’ सुन रहा था. हम तो उस वक्त डर के मारे मेले की ओर भाग चले थे. लेकिन उसकी आदत ही हो गयी कि सिवान में जाके प्रायः बकरी तोड़ आता. अपने गाँव के लोग तो आड़ में भुनभुना के सह लेते रहे, लेकिन इससे त्रस्त होकर बग़ल के गाँव वालों ने एक दिन चेता पोखरे के भींटों पे उसे घेर के भाले से मार डाला और शिकारी के ऐसे जुर्मों के चलते ही ग़ुस्सैल व लड़ाकू हमारे बड़के बाबू भी अपना सर पीटते हुए ‘जो करम किया, उसे कौन भोगेगा’ के सिवा कुछ बोल न सके थे. बहरहाल,
अब किट्टू के पास चलें॰॰॰बात ५-६ श्वान-बच्चों के जन्म की चजकी रही थी.
बनारस में अपनी कॉलोनी से बाहर आते ही डी॰एल॰डब्ल्यू की चहारदीवारी और पक्की सड़क के बीच की जगह के झाड़-झंखाड में जन्मे ५-६ श्वान-बच्चे रोज़ जाड़े से बचने के लिए एक दूसरे में चिपके हुए कुनमुनाते-सोते दिखते थे. एक सुबह उधर से गुजरते हुए मैंने रुक कर उन्हें कुछ खिलाने की गरज से बिस्किट ख़रीदे और सबके सामने एक-एक, दो-दो डाल दिये. खाना तो आगे-पीछे सबने शुरू किया, लेकिन उसमें एक था, जो अपना बिस्किट ख़त्म करके बाक़ी सबमें भी जाके दख़ल देने लगा. सबका ख़त्म हो जाने के बाद मेरी तरफ़ देखने लगा- गोया और माँग रहा हो. उसकी सक्रियता व अदा मुझे भा गयी. वह रंग़ में चितकबरा (मल्टीकलर) और गढ़न में सुंदर भी था. और इधर एक साल से बिना पालतू (पेट) के रहने के मेरे अभाव का दंश एवं श्वान-पालन की दमित इच्छा के भाव ने ज़ोर मारा, तो उठा ले जाने की गरज से मैंने फ़ोन करके घर से अपनी नातिन स्वीटी (अंजलि) को स्कूटर लेके बुला लिया. लेकिन वह पहुँचे, तब तक उस पिल्ले की मां आ गयी, जिसकी उपस्थिति में उसे उठा ले जाना मुश्किल होता. तो एक पैकेट बिस्किट और लिया. स्वीटी से स्कूटर चालू करके तैयार रहने को कहा और उसे बिस्किट खिलाने का लालच देते-देते दूर ले गया. फिर सारा बिस्किट उसके आगे बिखेर दिया. वह खाने लगी और मैंने दौड़ के बच्चे को उचका, स्कूटर पर बैठा और स्वीटी लेके भाग आयी. यह दृश्य देख के वह मां दौड़ी तो ज़रूर, पर एक तो हमारी गति तेज थी, दूसरे यह कि छह-सात बच्चों में से एक के न रहने के मुक़ाबले बिस्किट के प्रति मां का लोभ व ज़रूरत ज्यादा भारी ठहरी. वह लौट गयी. हम विजयी की भाँति सकुशल घर आ गये. इस श्वान-शिशु-अपहरण-लीला का दुकानदारों द्वारा किये अतिरंजनापूर्ण वर्णनों के चर्वण बाद में मुझ तक भी पहुँचे.
अब कॉलोनी के लोग पहले तो जिज्ञासु हुए. फिर ‘पालेंगे’, की बात सुनकर नाक-भौं सिकोड़ने लगे. सड़क के देसी कुत्ते को पालने से उन्हें कॉलोनी का स्तर गिरता नज़र आने लगा. कुछ के पास पामेरियन-लैब्रे आदि थे. मेरा बीजो (लैब्रे) भी साल भर रह के गया था. लिहाज़ा कॉलोनी में ‘सड़क-छाप कुत्ता’ की कुछ लोगों को शर्म आने लगी, लेकिन मुझ पर कोई फ़र्क़ न पड़ा.
आते ही उसे जमके नहलाया और उसकी काया-पलट सी हो गयी. गंदगी में छिपा रूप खुला, तो प्यारा (क्यूट) लगने लगा. शाम तक उसके सारे खाद्य (पैडिग्री, बिसकिट्स, चिकन-स्टिक्स व बोन्स के टुकड़े आदि) आ गये. स्वीटी ने अपनी सिलाई-कला के गुर से जाड़े में पहनने लायक़ उसके कपड़े तैयार कर दिये. अब नाती-नातिन ने नाम रखने की पेशकश की. अतीत के अपने सारे पालतुओं के नामों से बचते हुए नया नाम सोचने की प्रक्रिया में न जाने कैसे मुझे ‘रविवार’ में ‘तीसरी आँख’ नामक व्यंग्य-स्तम्भ लिखने वाले ‘किट्टू’ (असली नाम याद नहीं आ रहा) की याद आ गयी– शायद कॉलोनी के प्रति मेरे मन के व्यंग्य-भाव का कोई असर रहा हो. बनारस के सन्मित्र वाचस्पति भाई साहब, जो स्वयं श्वान-प्रेमी हैं, को बताया, तो उन्हें बहुत भाया एवं उनने बहुत सराहा – ‘मोती आदि आम नामों से अलग क़िस्म का नाम है– बिल्कुल विरल’. आगे चलकर तो किट्टू के लिए डॉक्टर का इंतज़ाम भी उन्होंने ही कराया. उसे ख़ास तौर पर देखने भी आये.
बहरहाल, आने के दूसरे दिन से ही वह ‘किट्टू’ हो गया. और एक पखवारा बीतते-बीतते उसका रूप जो निखरा और उसकी चंचलता जो बेलसी, वह तो दर्शनीय बन गयी. चारों पैर खुर से घुटने तक धवल फिर पूरा पेट कुछ दागों के बावजूद एकदम सफ़ेद चेहरे पर नाक से उठती सफ़ेद सतर आगे चौड़ी होती हुई माथे पर पहुँचकर बिलकुल टीका की तरह खिली हुई लगती. खड़ा होता, तो एकदम सुडौल-सानुपातिक लगता. दोनों कान लम्बे और सम पर लटके रहते. ताकता, तो ऐसा मासूम-मुखर दिखता कि कोई भी उससे बोलौनी किये बिना न रहता. महीना बीतते-बीतते दबी ज़ुबान कॉलोनी के लोग सिहाये भी और उस भाव को आड़ में ही नहीं, हमारे सामने भी व्यक्त किये बिना रह न पाये– ‘सर, आपकी नज़र बड़ी तेज है- मानना पड़ेगा॰॰॰’. और मैं जड़ देता– ‘बस, कुत्तों को परखने की ही तेज नज़र है’.
किट्टू के आ जाने से जहां एकतरफ घर में नयी चहल-पहल आ गयी– स्वीटी-उत्सव (दोनों भाई बहन) उसके साथ खूब खेलने व देख-भाल करने लगे, वहीं दीदी के लिए कई तरह की समस्याएँ खड़ी हो गयीं, जो ज्यादातर धार्मिक मान्यताओं-वर्जनाओँ से बावस्ता थीं. किट्टू रसोईंघर में न जाने पाये, मंदिर न छूने पाये, की चेतावनियाँ ख़ास थीं. जब बीजो था, तो यह समस्या न थी, क्योंकि वह सज्जन व आज्ञाकारी प्राणी था. मुम्बई में कोई वर्जना न थी- किचन में सो भी जाता था, लेकिन बनारस में एक बार मना कर दिया, तो मान गया. फिर कभी उधर रुख़ न करे. लेकिन किट्टू एक तो छोटा था, अभी ऐसा कुछ समझने की उसकी उम्र बिलकुल न थी. दूसरे, स्वभाव से भी शैतान निकल रहा था. बात सुनने में तो एकदम हेहर– हज़ार बार कहने पर भी न सुनने वाला. दरवाजा होने के कारण जिस किसी तरह रसोईं का तो बचाव हो जाता, लेकिन खुले मंदिर में तो दरवाजा लगवाना पड़ा. खाना रख दिये जाने के बाद टेबल न छू दे, की बात पर तो दीदी को ही समझौता करना पड़ा, क्योंकि यह तो बिना बांधे सम्भव न था. और पाले हुए प्राणी को हमेशा बांध के रखना मेरी समझ-संवेदना में अँटता नहीं. इसी कारण पंक्ति-पावन ब्राह्मण वाले हमारे एक मित्र परिवार में बच्चों की बेहद तीव्र इच्छा पर कुत्ता तो आया, लेकिन परिसर के प्रवेश-द्वार पर ही बांधने की आज्ञा मिली. लिहाज़ा चंद दिनों बाद उसे वहीं से वापस जाना पड़ा, क्योंकि उस तरह कोई पालतू रखने का तो कुछ मतलब नहीं होता.
इसी तरह धीरे-धीरे सब कुछ सधने लगा था कि किट्टू के साथ दो महीने बीतते-बीतते मुझे मुम्बई जाना पड़ा और लगभग तीन महीने वहाँ से आ नहीं पाया. यही अंतराल किट्टू व हमारे लिए निर्णायक साबित हुआ– हमारे चिर बिछोह की तक़दीर लिख दी. इतने दिनों में निरंतर बढ़ते व बेबाक़ होते किट्टू का जलवा ज्वाला और जवाल बनकर प्रखर हो उठा. फ़ोन पर बातें होतीं, तो उसकी बदमाशियों का पता लगता, लेकिन उतना साफ़ व मुश्किल नहीं, जितना आके देखने के बाद लगा.
यदि उस काल में मैं यहाँ रहता, तो प्रशिक्षक रख लेता और शायद आगे का अघटित बच जाता. लेकिन फिर होनी और नियति की याद आती है. बदमाशियो का सार-संक्षेप यह कि किट्टू घर में नीचे से छत तक कहीं भी भागता रहता. मना करने पर मानता नहीं था. सारे इंतज़ाम व एहतिहात के बावजूद यदि कभी ज़रा भी भेलख पड़ता, तो वह मुख्य द्वार से बाहर भाग जाता फिर वापस घर में आने के लिए तैयार न होता. उसका सड़क छाप होना उसके व्यवहार में उतरने लगा. बड़ी दौड़ लगानी पड़ती. बाहर से खेद के लाने पर मुहल्ले के सब लोग अपने-अपने घर के सामने खड़े होते, तब पकड़ में आता. ऐसे में लोग बांध कर रखने की सलाह देते और किट्टू की इन हरकतों से तंग आकर सचमुच ही समय-समय पर बांध के रखने भी लगे. लेकिन वह पट्टे ही काट डालता. थोड़े दिनों में कितने सारे पट्टे आये और किट्टू ने काट डाले. तेज इतना था कि कोई घर में आ जाता, तो इतना भौंकता कि बात ही न करने देता. मना करने, डाँटने पर भी न मानता. ज्यादा डाँटने या ठुनकिया देने पर फुँकारता व झपटता, पर कभी नज़दीक आके दांत लगाने का प्रयत्न न करता. लेकिन भय पैदा कर देता. मार देने पर ५ मिनट चुप होता, फिर भौंकने लगता. प्यारा इतना था कि मारने पर जब मुँह लटका लेता, तो खुद पर ही ग्लानि होने लगती. डराने के लिए डंडा रखा गया लेकिन डंडा देख के डरने के बदले गुर्राने लगता, जो ज्यादा ख़तरनाक लगता. पाधुर होता तब, जब उसे बरामदे के बाहर बांध के खाना देना बंद कर देते. खा तो हम भी ना पाते, लेकिन तभी भूख से छटपटा के वह कातर होता– शरणागत होता, तो फिर सब कुछ सामान्य हो जाता.
अपनी बदमाशियों के लिए थोड़ी-बहुत प्रताड़ना तो प्राय: होती रहती, लेकिन दूसरे दिन फिर वही सब रमना. दो बार उसे बुरी तरह मारने की भी याद है, जिसमें एक बार तो सामने का पड़ोसी बच्चा रोकने भी आ गया था. लेकिन उस सब पिटाई का असर भी एक दिन से ज्यादा न रहता. इस पर घर में दबी ज़ुबान उसका नाम ही ‘लतख़ोर’ पड़ गया था.
तभी मैंने उसे प्रशिक्षित करने की ठानी– हालाँकि देर काफ़ी हो गयी थी. लेकिन पता करने के दौरान मालूम हुआ कि बनारस में पशु-प्रशिक्षण का मुम्बई वग़ैरह जैसा चलन नहीं है. कुत्ते पालने वाले लोग प्राय: कोई प्रशिक्षक न बता पाये. लिहाज़ा घोड़ा बाज़ार में स्थिति पशु-खाद्य सामग्री वाली दुकान पर पूछा, तो तीन प्रशिक्षकों के नम्बर मिले. उनमें एक तो शहर के उत्तरी हिस्से पर रहते थे, जो मेरे घर से बहुत दूर था. सो, ‘नहीं’ बोल दिया. दूसरे ने यह धंधा न चलता पाकर नौकरी कर ली थी. तीसरा बड़ी मुश्किल से आने को तैयार हुआ. किट्टू को देखते ही अजूबे से हंसा– ‘देसी कुत्ते को ट्रेनिंग’? मैंने जवाब दिया– ‘क्यों, देसी कुत्ते अच्छी तरह रहना नहीं सीख सकते? यह अधिकार क्या विदेशी नस्ल वालों की बपौती है’? ख़ैर, वह तैयार हुआ. वेतन की बात निकली, तो एक दिन घंटे-डेढ़ घंटे सिखाने का हज़ार रूपये सुनकर मेरी आँखें निकल आयीं– मुम्बई जैसे महानगर में ५ साल पहले ५०० का भाव था!! किसी तरह साढ़े सात सौ पर बात तय हुई, लेकिन मैंने पहले सिखाके दिखाने के लिए कहा, तो उसने पहले किट्टू के परीक्षण (टेस्ट) की बात की. लेकिन इसके लिए हम सबको बाहर रखकर किट्टू को बैठक वाले बड़े कमरे में बंद करने की प्रक्रिया बड़ी अजीब लगी, क्योंकि मुम्बई में तो इसके दुगुने आकार के कमरे के बावजूद हटंगड़ी साहब हमें खुले मैदान में लेके जाते, जिसे ध्यान में रखकर मैंने डीएलडब्ल्यू के परिसर में स्थल भी तजवीज़ लिया था. लेकिन सोचा– चलो, यह भी सही.
परंतु अविश्वसनीय हादसा तब हुआ, जब दस मिनट के अंदर प्रशिक्षक महोदय धड़ाके से दरवाज़ा खोलते हुए बाहर निकले, तो हाथ से तर-तर खून बह रहा था और एक पैर का पैंट पूरा चिरा उठा था. दोनों हाथों में नाखून लगने की लाल-लाल लकीरें पड़ी थीं. वे हैरान हालात व परेशान लहजे में तुरत डॉक्टर के यहाँ जाने के लिए पैसे और पहनने के लिए कोई पुराना-धुराना पैंट माँग रहे थे. मैं भी घबरा गया कि कहीं बेहोश-वोहोश हो गया, तो मुसीबत बढ़ जाएगी. घाव से ज्यादा वह शख़्स डरा हुआ था. सो, एक ठीक-ठाक पुराना पैंट और हज़ार रुपए तुरत पकड़ा दिये. मोटर सायकल चालू करते हुए वे कह रहे थे– ‘साहब, आपका डॉग बहुत तेज है. मैं इसे ज़रूर सिखाऊँगा ठीक होने के बाद फ़ोन करके आऊँगा’ कहते हुए चलते बने. हमें पता था कि वे अब कभी नहीं आयेंगे और फ़ोन आया भी, तो हम सिखवाएँगे नहीं. और वही हुआ– कोई फ़ोन-वोन न आया. मुझे तो अब तक शक बना हुआ है कि बंदा प्रशिक्षक था भी!!
लेकिन किट्टू का क्या करें, की समस्या मुंह बाये खड़ी हुई. बनारस में दूसरा प्रशिक्षक खोजने की ताव न रही. सो, एक बार फिर गबरू की तरह खुद ही कोशिश करने की ठानी. इस बार सीखने के लिए मनोविज्ञान में पढ़े ‘प्रयत्न और भूल’ (लर्निंग बाइ ट्रायल ऐंड एरर) के सिद्धांत को सिखाने’ (ट्रेनिंग) में लागू करने का प्रयोग शुरू किया. घंटों-घंटों डीएल डब्ल्यू के मैदानों में उसे पट्टे में बांध-खोल के दौड़ाना-खेलाना-सिखाना शुरू किया. दौड़ने-खेलने तक तो वह रमता, लेकिन सिखाने के नाम पर नट जाता. दबाव डालने पर गुर्राने लगता. घर में भी कुछ ठीक से कराने के नाम पर तेवर के साथ झपटना आम हो गया. इसी रौ में दो-एक बार मुझे उँगलियों में उसके दांत लगे भी. इससे मुझे बार-बार ख़्याल आता कि इसके मुँह को खून का स्वाद भले न मिला हो, काटने का स्वाद तो मिल ही गया है. और कुछ आजिजी व कुछ डर से धीरे-धीरे सिखाने का मेरा उत्साह ठंडा होने व उसे किसी तरह त्याग देने का विचार गरमाने लगा.
लेकिन त्यागना आसान न था. गबरू को तो त्यागा नहीं, वापस किया, जहां वह सुरक्षित रहेगा और कहीं के लिए तो उसे ले ही लिया गया होगा. वैसी बात यहाँ न थी– वही अभिजात व सर्वहारा का मामला था. पाले हुए को लावारिस कैसे कर दें!! फिर एक संवेदनात्मक समस्या भी थी. नाती उत्सव यूँ भी छोटे बच्चों के साथ बहुत गहरे जुड़ जाता है और उसी भाव-संगति में यहाँ किट्टू के साथ जुड़ गया था. उसे लेके खाट पे यूँ सोता कि कोई अपने बच्चे को लेके क्या सोयेगा!! उसके होने से किट्टू को खिलाने-नहलाने-घुमाने आदि को लेकर मुझे पूरी निश्चिन्तता मिली हुई थी– जैसी मुम्बई में बेटे से कभी न मिली.
लेकिन छोड़ने की भी राह अपने आप निकली. इतने दिनों में किट्टू दो बार गाँव भी गया था हमारे साथ. पहली बार तो एकदम नवजात था. रास्ते में बड़ी उल्टियाँ कीं. धोते-सुखाते गये. लेकिन गाँव जाके बड़ा आनंद आया था. सब लोगों ने किट्टू के साथ खूब खेला. किट्टू भी बीजो की तरह पूरे गाँव को भा गया था. लेकिन दूसरी बार इस सारी घटना के बाद जाना हुआ. तो गाड़ी में भी बड़ी मनमानी करे– मना करने पर गुर्राए. बैठा था उसके साथ नाती ही पीछे की सीट पर. किसी तरह घर पहुँचे. इस बार वहाँ भी उसके उत्पात चरम पर. बांध दिया गया, तो लगातार चिल्लाता रहा. पूरा टोला (मुहल्ले का छोटा रूप) सर पे उठा लिया था. और खोल देने पर वहाँ खुले में इतना भागा फिर उसके पीछे गाँव के कुत्ते भागे और पकड़ने में उत्सव व उसके छोटे भाई पुष्कर सहित टोले के तमाम लड़के भाग-भाग के छड़ी बोल गये. सभी लोग एक ही सवाल करते– कैसे रखते हैं इसे वहाँ आप लोग? इन दिनों उससे निजात पाने की चर्चा प्रायः होती, लेकिन कोई उपाय न सूझता. किसी तरह लौटने का दिन आया. रास्ते में भी बातें निकलीं. संयोगवश उसी वक्त किसी वजह से किट्टू बदमजगी पर उतरा था और उत्सव के सम्हार में नहीं आ रहा था. हम अपने घर से ८-१० किमी की दूरी पर गोड़हरा बाज़ार से आगे निकल रहे थे कि किसी काम से रुकना पड़ा. चलते हुए किट्टू गाड़ी में चढ़ने को तैयार नहीं. और अचानक ग़ुस्से में हमारी आवाज़ निकली– ‘चलो, वरना छोड़ के चले जायेंगे’.
बच्चनजी की आत्मकथा में उनकी माँ का एक कथन उद्धृत है– ‘२४ घंटे में एक बार हर आदमी की जिह्वा पर सरस्वती बैठकर बोलती हैं, जो सच हो जाता है. बस, आदमी उसे जान नहीं पाता’. हम उस दिन ५ मिनट बाद ही जान गये कि ‘छोड़ के चले जाएँगे’, वाली बात उस वक्त हम नहीं, सरस्वती बोल रही थीं.
इधर हम किट्टू को बुला रहे थे, उधर हमें अनसुना करते हुए किट्टू सूंघते-सूंघते दूसरी दिशा में जा रहा था. बस, अचानक उत्सव ने कहा– ‘सच्चों छोड़िके चल चला नाना’.
मैंने तिखारा– ‘सोच लो, फिर चाहोगे भी तो न मिलेगा’.
उसने कहा– ‘कोई बात नहीं. चलेगा’.
हम दो मिनट रुके. गाड़ी में इस बार आते-जाते कई बार किट्टू के आक्रामक तेवर और उसके सामने उत्सव के थोड़े सहमते हुए भाव याद आये अंदर से कोई धक्का देने लगा– चलो, छोड़ दो. और हम यंत्रवत गाड़ी में बैठे. चाबी घुमाते हुए सहसा साहिर की पंक्ति मन में उभरी –
‘तवारुफ़ रोग बन जाए, तो उसको छोड़ना अच्छा, ताल्लुक़ बोझ बन जाए, तो उसको तोड़ना अच्छा॰॰॰
साथ ही गाड़ी घररर्र करके चल पड़ी. आवाज़ सुनकर किट्टू का भाग के आना और गाड़ी के पीछे दौड़ना उत्सव तो मुड़ के देख ही रहा था मैं भी सामने लगे आईने में से देख रहा था. किट्टू पर दया भी उमड़ रही थी और रोष भी धधक रहा था. इधर रोष-दया के दोनों भावों के बीच संघर्ष और उधर किट्टू की दौड़ और गाड़ी पा लेने के बीच आर-पार का आत्म-संघर्ष जारी था. लेकिन एक्सीलेटर पर पैर का दबाव कम न हुआ- बढ़ता रहा. गाड़ी के जानदार इंजन के सामने हमारे दया भाव को और पुष्ट पहियों के समक्ष किट्टू के पैरों को हारना ही था किट्टू के करमों का यही फल उसे मिलना था. शायद यही नियति को भी मंजूर था.
जब किट्टू का दिखना बिल्कुल बंद हो गया, तो एक्सीलेटर पर पैरों का दबाव स्वतः कम होने लगा. दयाभाव तिरोहित न हुआ था. मेरे मुख से निकला– क्या लौटाएँ गाड़ी और देख लें. आगे बैठी दीदी पहली बार आर्त्त स्वर में बोलीं- हाँ, देखा, ले ला ओके.. न जानी बिचारा कैसे रही– कवनो मारि-वारि नइहें यहीं’.
यह ग़ज़ब था कि दीदी को ही किट्टू पहले दिन से नहीं चाहिए था और वही लेने के लिए आतुर !! वाह रे हिंदू धर्म का जीवमात्र के प्रति दया-ममता का भाव !! ख़ैर, भयंकर द्वंद्व से तो गुजर ही रहे थे. छोड़ देने की कार्रवाई से अपने आक्रोश को कुछ राहत मिल गयी थी. तो मन से चाह रहे थे कि मिल जाये, ले चलें– शायद अब सुधर जाये.
लेकिन किट्टू न मिला. जहां छोड़ा था, वहाँ तक चले गये– फिर लौटते हुए पैदल गति से रेंगती गाड़ी से चहुँ ओर देखते-खोजते बीच में रुक-रुक कर लोगों से पूछते भी, लेकिन सब बेकार.
अब ऐसी निराशा व अवसाद तारी हुआ, जैसे कुछ अलभ्य खो गया हो. गाड़ी में अफाट मौन घिर आया– जैसे किसी को किसी से कुछ कहना-बोलना रह ही न गया हो.
देवगाँव से बनारस की तरफ़ मुड़ते हुए चाय पीने के बहाने रुक कर और दीदी-नाती से छिपकर गोड़हरा के अपने मित्र व ख़ानदानी रिश्ते से समधी अमर को फ़ोन लगाया. किट्टू का हुलिया व जगह बतायी कि जाके पता करें- किसी ने रखा तो नहीं है, क्योंकि वह बहुत सुंदर है– कोई पाल सकता है. इस व्यामोह के बाद फुसफुसाया– आसपास पूछिए यदि ऐसा कुत्ता कहीं मरा कहते-कहते गला रुंध गया. शाम को अमर का निराशा भरा फ़ोन भी आ गया.
अमर बहुत बातूनी क्या, बड़बड़ी हैं. मेरे गाँव भी फ़ोन कर दिया. बात गाँव में फैल गयी. पलट कर फिर हम तक आयी. खोजवाने का पता लगा, तो उत्सव की स्फुट प्रतिध्वनि भी कानों तक आयी– अब क्या, अब तो उसके नाम की कई-कई रातें रो चुका.
दूसरे दिन से ही कॉलोनी के लोग भी पूछ-पूछ के हलकान करने लगे– किट्टू कहाँ है?
और कभी-कभी बनारस-निवास की सूनी रातों में आज भी मन पूछता है– किट्टू कहाँ है॰॰॰!!
सम्पर्क ‘मातरम्’, २६-गोकुल नगर, कंचनपुर, डीएलडब्ल्यू, वाराणसी -२२१००४ ९४२२०७७००६ एवं ९८१९७२२०७७ |
बहुत मार्मिक दुखांत संस्मरण है । कुत्तों के साथ बहुत धीरज से उनका व्यवहार समझना जरूरी होता होता है । कुत्ते घर की आदत बन जाते हैं और बहुत देख भाल की माँग करते हैं । दुर्व्यवहार को याद रखते हैं ।
बेहतरीन दुखांत संस्मरण है । कुत्तों के साथ उपरोक्त दोनों स्थितियाँ बहुतों के साथ अक्सर घटती हैं । कुत्ते पालना बहुत धीरज का काम हैं । अप्रशिक्षित कुत्ते बहुत परेशान करते हैं । फिर भी पशुओं पर श्री सत्यदेव जी की यह सिरीज़ अनूठी प्रस्तुति है । साधुवाद , बधाई
अलग-अलग कारणों से ही सही दोनों कुत्तों का विछोह मर्मांतक है । किसी भी परिवार का प्रमुख कुत्ते या किसी और पशु को घर में पाले यह मानसिकता मेरी समझ में नहीं आयी । 1975 में हमारे ज़िला केंद्र हिसार में बन्दूकों की दुकान हुआ करती थी । तब तक AK-47 का आतंक चलन में नहीं आया था । मुझे तब भी समझ में नहीं आता था कि लोग अपने घरों में बन्दूक क्यों रखते हैं । हमारे इलाक़े में जंगल भी नहीं हैं कि पशुओं का आखेट करने के लिये बन्दूकें रखनी पड़ें । दोनों कहानियों में, लेखक के इलाक़े के उपयोग में लाये जाने वाली बोलियों के शब्दों को पढ़कर ख़ुश 🙂 हूँ । अनवधानता मेरे लिये नया शब्द है । कहानीकार ने Quarantine Time के लिये असंपृक्त-काल जैसे कुछ शब्दों का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया । एक और शब्द Cook के लिये अन्नपूर्णा पाठकों को प्रेरणा देता है । सउरी (सूतक), और ऐसे ही पातक शब्द मुझ जैसे बुजुर्ग व्यक्तियों को मालूम हैं । क्या नयी पीढ़ी तक इनका percolation हो रहा है । प्रोफ़ेसर अरुण देव जी मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या पश्चिमी दुनिया के देशों में भी इन दो स्थितियों के लिये किन्ही तरह की धारणाएँ हैं ।
गहरी संलग्नता और दुर्लभ तटस्थता के मेल से तैयार यह संस्मरण बहुत पठनीय बन पड़ा है ।
गबरू और किट्टू की विदाई स्मृति पटल पर शोकाकुल दस्तक देती है ।
मेरे विचार से किट्टू के प्रति दीदी के मन में पनप आए ममत्व को धर्म से जोड़ने की जरूरत नहीं थी ।
बहुत बेहतरीन
पाले हुए पशु से प्रेम हो ही जाता हैं
पशुओं के प्रति आपका प्रेम दुर्लभ है। फिर उनकी यादें भी आप इस तरह दर्ज कर लेते हैं गोया वे परिवार के अभिन्न सदस्य हों। श्वान को पालने के अपने खतरे हैं। आपने खूब जोखिम भी उठाया। मेरा बेटा हमेशा जिद करता है कि उसके लिए एक पालतू पशु ले आऊँ, पर अपने पास इतना धैर्य नहीं है कि उसकी उचित देख-रेख हो सके। आपने जो जोखिम उठाए, उसे देखकर तो यही लगता है कि यह काम अपने बस का नहीं है।