सुरेन्द्र प्रजापति की कविताएँ |
1.
मेरे अंदर एक गाँव है
मेरे अंदर एक गाँव है
मैं गाँव की आत्मा में हूँ
एक गंवई संवाद की नमी को छूकर
मैं बैठा सुन रहा हूँ
बिरहा की सुरीली तान
डफली की धुन, मृदंग का नाद
गोधूलि बेला में हार से लौटते
मवेशियों के रम्भाने की आवाज़
बैलगाड़ी के पहिए की चर्र-चर्र
मैं कौतूहल से भर जाता हूँ
कौतुक का हुड़दंग मुझे भी
बुलाता है, धमा चौकड़ी में
पूस की ठिठुरती हुई रात में
थरथराता, कांपता कृशकाय शरीर
ठंडी हवाओं में जमकर बरफ हो गया
अकड़ गये हैं जुड़े हुए हाथ
धान की पुवाल में
सिकुड़कर नाक बज रही है
भोर भिनसारे टहलू काका
खाँसते-खाँसते लाठी पटकते
घुप्प अंधेरे में ही उठकर
लौट आते हैं खलिहान से
और थरथराते हुए जलाते हैं अलाव
ठंडा कुछ-कुछ पिघलता है
काका को ढांढस मिलता है
और वे गा उठते हैं आल्हा.
२.
उठो कृषक
उठो, कृषक!
भोर से ही तुहिन कण
फसलों में मिठास भरता
उषा को टटोलता
उम्मीदों की रखवाली कर रहा है
जागो
सुबह से ही
सम्भावना की फसलों को
चर रही है नीलगाय
प्रभात को ठेंगा दिखाती
जागो, कृषक
तुम्हारा कठोर श्रम
बहाए गए पसीने की ऊष्मा
गाढ़ी कमाई का उर्वरक
मिट्टी में बिखरे पड़े हैं
उत्सव की आस में
कर्षित (घसीटा हुआ) कदम अड़े हैं
जागो, कृषक
सांत्वना की किरण आ रही है
तुम्हारे बे सुरे स्वर में
परिश्रम को उजाले से सींचने
अंधेरे में सिसक रहे
मर्मर विश्वास को खींचने
उठो, कृषक
उठाओ, कठोर संघर्ष
स्वीकार करो,
लड़खड़ाते पैरों की
दुर्गम यात्रा
बीत गये, रीत गये
कई वर्ष !
3.
कृषक की संध्या
पश्चिम क्षितिज में
रक्तिम आभा में पुता हुआ
किसी चित्रकार की पेंटिंग
हताश आँखों से देखता है
खेत से लौटता कामगार
झोलफोल (संध्या) हुआ
अब लौट रहा है किसान
आकाश की पगड़ी बाँध
सूरज की रौशनी को
चिलम में भर-भर, दम मारता
जम्हाई ले रहा है पहाड़
मार्ग में उड़ रही है गर्द
रम्भाती हुई गऊएं
दौड़ी चली आ रही हैं
पास ही धधक रही है
शीशम के सूखे पत्तों की आग
पूरब में धुंधलका छा रहा है
अंधेरे का दैत्य आ रहा है
नन्हा बछड़ा
रुक-रुक रंभाता है
धमन चाचा बोलते हैं
‘च..ल हो अँधियारा हो गेलो’
उलटता है चिलम, फूँक मारकर
साफ करता है बुझी हुई राख
सूर्य डूब रहा है
पहाड़ी के पीछे!
4.
अभिलाषा की फसल
फसल बोने से पहले
अभिलाषा का बीज बोता है किसान
उम्मीद की तपिश देकर
बंजर भूमि को
लगन के कुदाल से कोड़ता है
परिश्रम के फावड़े से तोड़ता है
पसीने की नमी देकर
मिलाता है बार-बार
हताशा और थकान की
खाद डालता है
अपने हृदय की व्यथा को
संवेदना की गर्मी देकर
बनाता है बलवान
कितने-कितने आपदाओं से लड़कर
अपने हाथों से लिखता है
अपने भाग्य की लिपि
संभावना को तलाशता
नियति के चक्रों, कुचक्रों को धकियाता
किस्मत को गोहराता है.
५.
मेरा क्या है साहब
मेरा क्या है साहब
शरीर हमारा
श्रम हमारा
पसीना हमारा
थकान हमारी
पीड़ा हमारी
जख्म से बहते
खून पीव हमारे
सरकार आपकी
खेत खलिहान आपका
विशाल दलान आपका
मेरा क्या है साहब
दुर्दशा हमारी
दम तोड़ती अभिलाषा हमारी
छिन्न होता प्रकाश हमारा
व्यथा, दुःख, क्लेश हमारा
चीथड़ों में लिपटा वेश हमारा
हुकूमत आपकी
सल्तनत आपकी
जंजीरों की जकड़न
बेड़ियों की हुंकार आपकी
मेरा क्या है साहब
याचना हमारी
प्रार्थना हमारी
रातों जगते आँख में
सूजन हमारी
कटे परों से फड़फड़ाती
उम्मीद हमारी
खेत से गोदाम तक पहुंचाती
उपज की आस हमारी
फसल पर लगायी कीमत तुम्हारी
हुकूमत तुम्हारी
डंडे लाठी का प्रहार तुम्हारा
मेरा क्या है साहब
प्रजा, सरकार चुनती है
अपना बहिष्कार चुनती है
सड़क से संसद तक
अपना संघर्ष बुनती है.
_____
सुरेन्द्र प्रजापति 8 अप्रैल 1985 पता: ईमेल-surendraprar01@gmail.com/Mob. 7061821603 |
जागो, कि
अहले सुबह से ही
सम्भावना की फसलों को
चर रही है नीलगाय
प्रभात को ठेंगा दिखाती
गांव की यादें ताजा हो गई
बहुत धन्यवाद समालोचन को इस पोस्ट के लिए
सुरेन्द्र प्रजापति की भोगे हुए यथार्थ किसान जीवन संघर्ष की इन सहज, सरल लेकिन सारगर्भित कविताओं को पढ़कर बहुत अच्छा लगा।उनकी कविताओं में ग्राम जीवन जीवंत हो जाता है।चित्रण गजब का है। मै उनकी भावी कविताओं को ढूड कर पढ़ना चाहूंगा।उनको मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।
कुछ अनगढ़, लेकिन सहज कविताएँ। ‘अँधेरे का दैत्य आ रहा है’ किसी क्लासिक जैसी पंक्ति है। झोलफोल जैसे आँचलिक शब्द कितने अच्छे लगते हैं।
“लड़खड़ाते पैरों की
दुर्गम यात्रा
बीत गये, रीत गये
कई वर्ष !……” किसानों की पीड़ा और जिजीविषा को उजागर करती कविताएँ। वैसे ही थोड़ी अनगढ़ जैसा किसान का जीवन होता है। कवि को बधाई। प्रस्तुत करने का धन्यवाद।
“लड़खड़ाते पैरों की
दुर्गम यात्रा
बीत गये, रीत गये
कई वर्ष !……” किसानों की पीड़ा और जिजीविषा को उजागर करती कविताएँ। वैसे ही थोड़ी अनगढ़ जैसा किसान का जीवन होता है। कवि को बधाई। प्रस्तुत करने का धन्यवाद।
कविताएं अच्छी हैं,सरल सहज अनगढ़।लेकिन किसानों की पुरानी पीढ़ी जैसी ही पीड़ा, परिवेश, स्थितियां। नये कवियों को गांव किसानी का बदलता यथार्थ भी चित्रित करना चाहिए।
बहुत मार्मिक कविताएं. अपने समय को जीने की हौंस से ललकती कविताएं
सुरेन्द्र प्रजापति की कविता किसान जीवन की संघर्ष की कविता है। इनकी कविताओ में किसान की पीड़ा और जिजीविसा अत्यंत मुखर है। गांव की आंचलिक भाषा का खुबसुरती से चयन किया गया है चित्रण बेजोड़ है। कवि को हार्दिक बधाई।
साहित्य की हर विधा में बहुत अलग अलग क्षेत्रों से लेखक आने चाहिए। इससे उसकी जड़ता टूटती है।
सुरेंद्र प्रजापति जी की कविताएं कहीं – कहीं निराशा और हताशा की बात करते हुए भी पाठक – मन में ताज़गी भर देती हैं।
कवि की आँखों से गांव और खेतों को देख लिया।
अभिनंदन।
सुन्दर कविताएँ,
बधाई सुरेन्द्र जी,
शुक्रिया समालोचन।
सुरेन्द्र प्रजापति जी की कविताएं , जैसे मेरे ही लिए लिखी गई हों ! असल में ये कविताएं यह बता रही हैं कि हिंदी कविता का परिसर शहरों तक ही सीमित नहीं है , बल्कि उसे ठेठ गांव से भी देखा – समझा जाना चाहिए । सुरेन्द्र जी की माटी मिली काव्य – संवेदना इसी बात का पक्का सबूत है । यहां मौजूद उनकी कविताएं किसी भी तरह की कलाबाज़ी से परे हैं , और हर तरह यथार्थवादी हैं । अपनी किंचित अनगढ़ता के बावजूद पूरी तरह सुघड़ । उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
—- रामकुमार कृषक ।
अच्छी कविताएँ सुरेंद्र जी की।
अभी अभी पढ़ी सुरेंद्र जी कविताएँ । बहुत अच्छी कविताएँ हैं । एक अलग काव्य मुहावरे के साथ ज़िन्दगी को खंगालती हैं ये कविताएँ । बधाई सुरेंद्र जी को और आपको भी जो समालोचन के ज़रिए हमें इसे पढ़ने का अवसर मिला ।
सुरेन्द्र प्रजापति जी की ये कविताएँ उगते हुए अन्न की ऊष्मा की, हाड़तोड़ मेहनत की, पसीने की गमक की और अन्नदाताओं की यथार्थ स्थिति की सच्ची-सुन्दर कविताएँ हैं। उन्हें बधाई और आपको व ‘समालोचन’ को बहुत धन्यवाद।
गाँव के जीवन और ग्रामीण जीवनसंघर्ष को अभिव्यक्ति देती सुरेंद्र प्रजापति की कविताएँ, हिंदी कविता में नए शब्दसंकुल और नए मुहावरों को लेकर आई है। उनको हार्दिक बधाई और आपको साधुवाद!💐💐
गांव का दृश्य, गांव की पीड़ा, बैलगाड़ी की आवाज, भिनसारे की आशा और कृषक की अभिलाषा के साथ उमड़ते घुमड़ते चिंता के बादल! सभी को समेटा है सुरेन्द्र जी ने अपनी कविताओं में। पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे मैं मेट्रो शहर से दूर अपने गांव में बैठा हूं। चित्रलिखित रचनाएं… साधुवाद, रचनाकार!
. इन मार्मिक कविताओं में आज तमाम बदलाव के बावजूद मौजूद किसानों की पीड़ा मुखर है। पर यह भी है कि सरकारों के छोटे छोटे
लालच और कुछ वास्तविक लेकिन कभी कभी काल्पनिक डर ने उन्हें अपनी आंतरिक ताकत को पहचानने से रोक रखा है। उस ताकत का एक प्रमाण अभी स्थगित किसान आंदोलन भी है। पता नहीं वास्तव में वह संदेश देश में कहां तक पहुंच सका।—मगर यह सवाल इन कविताओं से नहीं, बल्कि तथाकथित पढे लिखे जागरूक अपेक्षाकृत अधिक समर्थ और असरदार नागरिक समाज और राजनीतिक दलों से किया जाए कि क्या उनको इस समुदाय की पीड़ा कभी सालती, कचोटती है?
पाठक ह्रदय में बसने वाला ग्राम्य जीवन का बेजोड़ चित्रण समेटा है। ‘उठो कृषक’ किसान के संघर्षों को बयां कर रही है। कृष्ण पीड़ा को दर्शाती यथार्थवादी कविताएँ है। ‘मेरा क्या है साहब’ कविता पढ़कर ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘ठाकुर का कुँआ’ कविता याद आ गयी। आपकी ये कविता सियासत पर अप्रत्यक्ष रूप से प्रहार करती है। आपने अपनी कविताओं में किसान की पीड़ा,संघर्ष को मार्मिकता के साथ उकेरा है।सुंदर कविताएँ। आदरणीय कवि सुरेन्द्र प्रजापति जी को बधाई।