‘हज़रत बिन प्यारे आज लखनपुर सूना’संतोष अर्श |
(योगेश प्रवीन को अवधी संस्कृति का ज्ञानकोश कहा जाता रहा. वे लखनऊ से उसकी ऐतिहासिक ख़ूबियों, तहज़ीबो-तमद्दुन और नाज़ुकख़यालियों के साथ गहरे जुड़े रहे और अपने रुचिकर लेखन से उसे आइन्दा पीढ़ी को सौंपते रहे. ललित-कलाओं में चाव रख कर, अवध की लोक-संस्कृति के भी वे विशेषज्ञ हुए. उनका लेखन अमृतलाल नागर जैसी पुरातात्विक दृष्टि से संपृक्त और साम्राज्यवाद-विरोधी इतिहास-चेतना-सम्पन्न रहा. उनका इतिहासेतर लेखन स्थानीयता के प्रभाव में है और उसकी आंचलिकता को स्पष्ट किया जा सकता है. उन्होंने कभी ‘कुछ बड़ा होने’ का दावा भी नहीं किया. अपने लेखन को बहुत मौलिक और परिवर्तनकारी भी नहीं बताया. उनके इतिहासकार रूप को नज़रअंदाज़ करना हानिकर हो सकता है, यद्यपि इतिहास को उन्होंने इतिहास की तरह नहीं लिखा है, उसमें बयान और ज़ुबान की शायराना तासीर भी है. बहरहाल यह इतिहास वालों का मस’अला है. वे एक वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी, फ़नकार और उस्ताद हुए. लखनऊ को उन्होंने बेइन्तहा प्यार किया और हमें भी सिखाया कि इस शहर से प्यार कैसे किया जाए. गहरी वैचारिक भिन्नताओं और पीढ़ीगत अंतराल के बावज़ूद लंबे समय तक लखनऊ और वहाँ से बहिष्कृत होने के बाद हिज़रत, गुरबत में भी वे मेरे शिक्षक, सखा, सहचर, गुरु और अभिभावक रहे. उनके रहते और बाद उनके मुझे लगता है कि वे मेरे लिए पूरा-का-पूरा लखनऊ थे. 28 अक्टूबर, 1938 को उनका जन्म लखनऊ में हुआ था. उनकी मृत्यु 12 अप्रैल, 2021 को महामारी के दौरान हुयी. मरण के उस रौरव में भी उनकी मृत्यु मुझे गहरे शोक की तरह जान पड़ी, यानी उनसे मेरा लगाव साधारण नहीं था. उन्हें एक क़िता’ याद करने की यहाँ कोशिश की जा रही है – संतोष अर्श)
लाख हम शे’र कहें लाख इबारत लिक्खें
बात वो है जो तेरे दिल में जगह पाती है.
(मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी)
बालपने में लखनऊ में पहली बार बालामऊ पैसेंजर पर सवार हो बाराबंकी से आया था. और यही पहली रेल-यात्रा भी थी. बाद में जाना कि नौशाद साहब (मशहूर संगीतकार) लखनऊ से मझगवाँ शरीफ़ (बाराबंकी) पैदल घूमने चले आते थे, तो अपनी इस रेलयात्रा पर नदामत हुयी. मैं जिसे महायात्रा समझता था वो मेरे छुटपन के चलते थी. बड़प्पन हममें तभी आता है, जब हम अपने छुटपन को कुबूलते रहें. लखनऊ जिसे आप हर मौक़े पर ‘बाग़ों और महलों का शहर’ कहते थे, के आलमबाग़ के सिंगारनगर मोहल्ले में हमारी सबसे छोटी बुआ रहती थीं. बाद में वे चन्दर नगर गेट से पीछे सरदारी खेड़ा में रहने लगीं थीं. नवीं पास करने के बाद मैं वहीं चन्दर नगर बाज़ार में एक क़िताबों और स्टेशनरी की दूकान पर काम करने लगा था. दूकान का मालिक दो झोले और साइकिल दे कर अमीनाबाद भेजता था. जहाँ से मैं बड़ी दूकानों (जैसे रामा बुक डिपो) आदि से पुस्तकें ले कर झोले साइकिल के हैंडल में दोनों ओर टाँग कर लौटता था. चन्दर नगर गेट पर फैले बाज़ार में सिंधी वणिकों की संस्कृति, किराने की दुकानों से उठती गरम मसालों की तीखी गन्ध, आलमबाग चौराहे पर मिलन पूड़ी वाले की पूड़ियों और तालकटोरा रोड के मुहाने पर जेठ-बैशाख में सजी लस्सी की दूकानों से आगे बढ़ कर अमीनाबाद का लखनऊ मेरे भीतर के उस किशोर के लिए एक बड़े और दिलचस्प मेले जैसा था. अमीनाबाद बाज़ार की भीड़ में घुसने पर कन्धे छिलते थे. वहाँ दानिश महल से उर्दू ज़ुबान की दानिशवरी और इण्डियन बुक डिपो की हिंदवी से भी साबिक़ा पड़ा. मवैया की ढाल पर क्या अब भी उस साइकिल के पहियों की तीलियाँ चमकती होंगी जिस पर मेरा कैशौर्य सवार रहता था ? चारबाग़ के श्याम पुस्तक भण्डार से ही पहली दफ़ा कोई पाठ्यक्रम से हटी हुयी कोई संज़ीदा क़िताब मोल ले ली थी. रोमानी कमसिनी का यह वह लखनऊ था जिसमें लोग बेमोल बिकते थे और अनमोल हो जाते थे. इसी रोमानी ज़िंदगानी का एक दिन रकाबगंज की उस पेचदार, सँकरी गली से गुज़र हुआ, जो मीना ट्रांसपोर्ट के बगल से गुज़रती थी और आपके घर पंचवटी, गौसनगर तक ले जाती थी.
लखनऊ है तू महज़ गुंबदो-मीनार नहीं
सिर्फ़ एक शहर नहीं कूचा-ओ-बाज़ार नहीं
तेरे दामन में मुहब्बत के फूल खिलते हैं
तेरी गलियों में फ़रिश्तों के पते मिलते हैं.
(योगेश प्रवीन)
आपसे मैं तब मिला जब क़ायदे से बाहर पढ़ना-लिखना कुछ सीख रहा था. आपको लिखे एक पत्र से एक अख़बार में प्रत्युत्तर पा कर जो सिलसिला बना वह ताज़िन्दगी का हो गया. आप में लोगों को अपना बना लेने की इन्तहाई अदा थी. तब रामेन्द्र (घरेलू सहायक) बहुत छोटा था, वह बोलने में ख़ासा अच्छा और ख़ुशज़बान था. इतना कि भद्रजन उसकी ज़ुबान के आगे सकुचा जाएँ. उसकी आवाज़ पंचवटी के ऊपरी आँगन से दीवानख़ाने में रौशनी गिराने वाली जाली से ताज़ी रौशनी की मानिंद ही झरी थी. वह एक रौशन दिन था जब मैं आपसे मिला था. आप सर्दियों से बाक़ी मौसमों में अपने पुश्तैनी मकान पंचवटी के सबसे ऊपर के गर्म और ज़रुरत से ज़ियादा छोटे स्टडी में रहते थे, परीकथाओं के किसी दरियादिल, हस्सास और जावेदाँ किरदार की तरह. आपकी छोटी कद-काठी को वह छोटा-सा कमरा कैसा सजता था. जिसके बायें किनारे पर आपने जेल की बैरकों जैसा चबूतरा बना रखा था. उसी पर मसनद, जाज़म बिछा कर मुंशियों, क़लमनवीसों जैसी चौकी पर कागज़-क़लम रख कर आप लिखते थे. उस कमरे में कुछ चुनिन्दा पुस्तकें और एक अदद टाइप रायटर (जो टाइपिस्ट गोस्वामी की मिल्कियत था) के साथ एक रेडियो (जिस पर हमेशा लखनऊ स्टेशन या विविध भारती धीमी आवाज़ में बजता रहता था.) और एक ब्लैक एंड व्हाइट टीवी भी रखा हुआ था. उसके बाहर छोटी-सी छत की रेलिंग पर बौनी मधुमालती फूलती थी. वहाँ से बाहर आसमान था जिसमें कनकैये उड़ते-फिरते थे. आसमान को ताकती मुंडेरें थीं. पड़ोस में जहाँ अतुल दादा का मकान है, उससे पीछे पीपल का पेड़ हरहराता रहता था. इतना आज़ाद लेखक भी भाषा का गिरफ़्तार होता है. पहली मुलाक़ात में आपने मुझे ‘कसक’ नाम का इत्र दिया था. उसकी ख़ुशबू अब तक ज़िंदगी में बनी हुयी है. ‘सुगन्ध को.’ का बनाया वह संस्करण मुझे इतना भाया कि बाद में मैंने अपने विदेशी मित्रों को वह तोहफ़े में दिया और हिन्दी के बाज़ बड़े लेखकों को भी. अभी उसकी कसक बनी हुयी है और दिल में रही जाती है. ख़ुशबुओं से रू-ब-रू कराने एक दिन आप मुझे जनपथ, हज़रतगंज वाले सुगन्ध को. इत्रफ़रोश के शो-रूम तक ले गए थे.
आपमें सामने वाले को गंभीरता से सुनने उसे तवज्जोह देने की जो असल लखनवी सिफ़त थी, अब वह कहाँ मिलेगी? कहीं सुना था कि बड़ा वह होता है, जिसके सामने कोई छोटा न महसूस करे. आप वैसे ही बड़े थे. उम्र में मुझसे उनचास-पचास बरस बड़े. पचास बरस तो आधी सदी होती है. आपके पास मुझे सुनाने के लिए आधी सदी के क़िस्से थे. आप उन क़िस्सों को न केवल सुनाते थे, बल्कि तजुर्बात की कश्ती में बिठाकर ज़माने के उस किनारे तक ले जाते थे, जहाँ का वह क़िस्सा होता था. इस बात से आपके अंदाज़े-बयाँ को कैसे ज़ुदा किया जा सकता है कि आप सामईन को मुग्ध कर देते थे. आपके साथ तमाम जगहों पर आने-जाने के बेशुमार क़िस्से हैं. जिन्हें एक क़िस्त में जमा नहीं किया जा सकता. आप कभी किसी को भूलते नहीं थे, इसीलिए तमाम लोगों की याद में बने हुए हैं. आपसे बहुत लोग मिलने आते थे. वे कुछ-न-कुछ सीख कर जाते थे. आप अपने आस-पास के लोगों की रुचियों का बहुत ध्यान रखते थे. वो क्या खाएगा, कब आएगा, कैसे आएगा ? उसे किन बातों के लिए जाना जाता है ? उसका ख़ब्त क्या है? उसकी शख़्सियत का मज़ाहिया पहलू क्या है ? छोटी-छोटी बातों में असाधारण क्या है, यह आपसे जाना जा सकता था. फिर आपका पीठ पीछे किसी दूसरे के सामने किसी की मामूली बातों और सुभाव की तारीफ़ें करना.
आप साधारण को असाधारण प्रस्तुति देते थे. लेखकीय दिमाग़ी फ़िरावानियों के उलझाव से आगे निकल कर आपने एक सहज इंसानी मेआर अपने जीवन में रच लिया था, जिसमें आदमीयत के अख़लाक़ आश्चर्यजनक ढंग से महकते रहते थे. आप जिस रुचि से अपने मेहमान को चाय पिलाते थे, उसमें सदियों की मेहमानवाज़ी का नाज़ुक फ़लसफ़ा छिपा रहता था. उसमें शहरी शऊर और गँवई निरीहता थी. लखनवियत के नाम पर प्रसिद्ध तक़ल्लुफ़ से कहीं अधिक अकृत्रिम ढंग का सुलूक, आस्वाद जैसा, जो आपके हाथ की सेंकी गई रोटियों को खा कर मैंने भी पाया. लेखन से बाहर निकल कर व्यावहारिक जीवन में अपने आर्दशों और उसूलों को अपनाना बेहद कठिन होता है. हो सकता है एक दिन लेखक का लिखा हुआ अप्रासंगिक हो जाए. सम्भव है सभ्यता आगे निकल जाए, ख़त्म हो जाए, परन्तु मनुष्य की स्मृति में बचा हुआ मनुष्य कभी नहीं मिटता, बल्कि वह उतना ही शेष रह जाता है. आप हम जैसे लोगों की स्मृतियों में हमेशा बने रहेंगे, क्योंकि उन स्मृतियों में आपकी उपस्थिति एक मनुष्य की भाँति है.
एकाकी जीवन में भी जीने का एक ऐसा तरीक़ा आपने ईज़ाद किया था जो मनुष्य होने के ओहदे को ऊपर ले जाता था. एक ऐसे समय में जब मनुष्यता से लोगों का भरोसा प्रतिदिन कम होता रहता था. लखनवी तहज़ीब की जो अहम बात है, अपने से अधिक अपने समक्ष खड़े व्यक्ति को तवज्जोह देना, जिसे अदब और आदाब कहते हैं, लखनऊ में यह सबसे अधिक आपके पास था. वह सारी नफ़ासत, वह सारी लताफ़त जिसकी आप ज़िन्दगी भर दुहाई देते रहे, आपके नज़दीक सबसे ज़ियादा थी. कोई चार पंक्तियाँ लिख कर आपके पास ले आये और आप उसे स्वयं से बड़ा लेखक घोषित कर देते थे. ऐसी विकट उदारता सामने वाले को भी एक अजीब पसोपेशी से भर देती थी. किसी के लिए पाँच सौ का चेक लिये उसके घर चले जा रहे हैं. किसी के लिए रोज़गार ढूँढते फिर रहे हैं. किसी को डॉक्टर को दिखाने लिये जा रहे हैं. किसी को आने-जाने का किराया दे रहे हैं. किसी के लिए दो रोटियाँ प्लेट में लिए चले आ रहे हैं. वज़ूहात, जिनसे हर कोई आप पर अपना हक़ जताता था, आपको अपना समझता था, लेकिन ऐसे चन्द लोग ही थे जिन पर आप अपना हक़ समझते थे. वे बड़े मसरफ़ के लोग नहीं थे. उनमें कुछ बेरोज़गार, आवारा-सर्वहारा-दिशाहारा लोग भी थे. कुछ दुनिया के सताये हुए संघर्षरत लोग भी थे. वे आपके यहाँ चारगी की तलाश में आते थे. उनकी दावा-दारू, चाय-बीड़ी का इंतज़ाम भी आप कर देते थे. उनकी महबूबाओं से भी आप बात कर लेते थे. कई बार उनका वस्ल आपके दीवानख़ाने में अंज़ाम पाता था. आप वाइज़ भी बनते और साक़ी भी. आप फोन का सबसे अच्छा इस्तेमाल करते थे. कई बार यहाँ आपकी मुहब्बत एकतरफ़ा भी हो जाती थी. आप उन्हें भी फोन लगा लेते, जो आपको कभी न कर पाएं. आप सहज उपलब्ध थे. यह बड़ी उपलब्धि थी.
किसी व्यक्तित्त्व का असली चेहरा शक्ति-संरचना में कमज़ोर लोगों से उसके बर्ताव के आईने में दिखता है. आपकी ज़मीनी सरलता का सबसे निथरा चित्र रिक्शेवालों से आपके व्यवहार में झलकता था. जब आप घर से मौलवीगंज वाली सड़क पर मीना ट्रांसपोर्ट के पास गली के मुहाने पर निकलते थे, तब कम से कम चार साइकिल-रिक्शेवाले आपको नमस्कार करते हुए आगे बढ़ते थे. उनमें आपको ले जाने के लिए होड़ रहती थी. आप रिक्शे वालों से भी आत्मीयता से बातें करते थे. वे आपको ‘मास्टर साब’ या ‘भाई साब’ पुकारते थे. उन्हें आप उस दिन की अपनी योजनाएँ भी बता देते थे. मसलन आकाशवाणी में आज आप कौन सी रिकॉर्डिंग कराएंगे या कि कहाँ और किस विषय पर बोलने जा रहे हैं. जिस रास्ते से आप जाएंगे उसका लखनऊ में क्या महत्व और इतिहास है. उस रास्ते में कौन-कौन सी इमारतें पड़ेंगीं. आप राजभवन के भीतर भी अपने रिक्शेवाले को ले जा सकते थे और लखनऊ के गुज़िश्ता नवाबों की कोठियों में रहने वाले नव-धनाड्य उमरावों, रसूख़दारों के प्रवेश-द्वार तक भी. जिस दिन आप रिक्शे पर होते उस दिन पारिश्रमिक के साथ रिक्शा खींचने वाले का खाना-पीना, नाश्ता आपकी जिम्मेवारी रहती थी. रकाबगंज के रिक्शेवालों से आपका वही संबंध था, जो दिल्ली के तांगेवालों से मंटो का था.
रिक्शेवालों से आपकी आत्मीयता में दिलचस्पी दिखाने पर आपने मुझे कई बार विधायक-सांसद रहे फ़ैज़ाबाद के एक नेता का क़िस्सा सुनाया था, जो अपना रात का खाना रिक्शेवालों के साथ खाते थे. यह रिक्शेवालों को देखने की आपकी दी हुयी दृष्टि थी जिसकी रौशनी में लखनऊ में मैंने अन्तिम बार मुद्रा जी (मुद्राराक्षस) को हलवासिया के पास साइकिल रिक्शे पर देखा था. एक बार हमें साथ में पानदरीबे, हरीश जी के यहाँ किसी कार्यक्रम में जाना था. इस दफ़ा आपने एक ऑटोरिक्शा बुलाया था. उसका नौजवान चालक आपको ‘मामाजी’ कह कर पुकारता था, आप उसका नाम पुकारते थे. जब हरीश जी के घर के सामने हम उतरे तो आप भीतर जाने से पहले मुझे रिक्शे के पीछे लिखा हुआ कुछ दिखाने ले गये. रिक्शे पर पीछे लिखा था, “ग़रीब आदमी का दिल, अमीर आदमी के दिल से बड़ा होता है.” यह दिखाकर आपने दाएँ हाथ की हथेली को उल्टा बाएँ हाथ की सीधी हथेली पर पीट कर एक ताली दी. जैसा आप किसी बात के उत्कर्ष तक पहुँचने पर हमेशा करते थे.
आप कहते थे कि तहज़ीब को चिड़िया की तरह ढूँढा नहीं जा सकता. वह बोल-चाल, आचार-व्यवहार, तौर-तरीक़ों के सूक्ष्म स्तरों पर महसूस की जाती है. स्वयं से अधिक सामने वाले को तवज्जोह देने के सिलसिले में आपकी सहिष्णुता और उदारता में वह लखनवी बात झलकती थी. कई बार वह इस तरह घट जाती थी कि पता ही नहीं चलता था कि कोई तहज़ीबी घटना घट गयी है. एक दफ़े जब मैं आपके साथ नुसरत नाहीद जी के घर गया था, जो कई पुस्तकों की क़ाबिल लेखक और अमीरुद्दौला पब्लिक लाइब्रेरी की लाइब्रेरियन हुयीं; तो उन्होंने आपको संगमरमर का पीढ़ा तोहफ़े में दिया था. वहाँ कोई तहज़ीबी बात हो गई थी, क्योंकि पहुँचते ही बैठने-उठने के दरम्यान नुसरत जी ने अपनी रसोई से कहा कि ‘आप जहाँ भी होते हैं, वहाँ लखनऊ की तहज़ीब दिख ही जाती है.’ लौटते वक़्त मैंने सोचा ऐसी क्या बात हो गयी ? अस्ल में उनके दीवानखाने में दो सोफ़े आमने-सामने पड़े थे. जिस पर मैं बैठा था, वहाँ से रसोई साफ़ दिखती थी, जिसमें नुसरत जी हमारे लिए जलपान तैयार कर रही थीं. और आप दीवार की ओर मुँह करके बैठे. साथ ही यह भी कहा कि, अर्श इधर आ जाओ. नुसरत जी ने कहा, उन्हें वहीं बैठने दीजिए, वे तो अभी बच्चे से ही हैं. बात ये थी कि लखनऊ में ख़राब माना जाता है कि सीधे जनानाखाने या रसोई पर आपकी निगाह पड़े. यह घटना एक बानगी है. ऐसे तमाम वाक़िआत हैं.
आपने लखनऊ नहीं छोड़ा और यह अच्छा ही किया, जबकि सिनेमाई दुनिया के दरवाज़े आपके लिए मुम्बई तक खुले हुए थे. अपनी आख़िरी मुलाक़ात में भी हमने इसे बाहमी गुफ़्तगू का हिस्सा बनाया था. लखनऊ क्यों नहीं छोड़ा ? इस सवाल पर मुस्करा देते या फिर कोई और मुबहस छेड़ देते थे. आप ज़दीदियत और सर्वदेशी तहज़ीब के विरोधी नहीं थे, वले शक़ाफ़ती तजावुज़ से खीझ उठते थे. यह खीझ हम में भी है. आपको भी अपनी माँ की तरह लकड़ी की धन्नियों की छत से बने छोटे-छोटे ठण्डे कमरों और पतले सुरंगनुमा ज़ीने वाले घर-आँगन से इंतहाई लगाव था. घर-आँगन से इसी गहरे लगाव की बानगी आपकी क़िताब ‘डूबता अवध’ की एक कहानी ‘ईंट की बेग़म’ में दिखती है जो लखनऊ की नवाबी के सामन्ती ध्वंसावशेषों की छाया में ख़याल के साथ रची गयी है. यह कहानी लखनऊ के बाशिन्दों की नाज़ुक तबीयत का बयान है. ‘डूबता अवध’ में ‘ईंट की बेग़म’ के साथ ‘पान का बादशाह’, ‘चिड़ी के ग़ुलाम’ और ‘हुकुम का इक्का’ भी है. इसके क़िस्से ज़बाँदानी के दावे और यथार्थ के राजनीतिक सौंदर्यबोध से इतर साम्राज्यवाद के शिकंजे में कसते जा रहे मशरिकी तहज़ीबो-तमद्दुन की तरफ़ इशारियत रखते हैं. पुराना लखनऊ तो ख़ैर इसमें होना ही है. इस क़िताब के अफ़सानों पर बँटवारे में पाकिस्तान चले गये लखनवी मुहाजिरीन की चिट्ठियाँ आती थीं. ज़ाहिर है इसके पाठक वहाँ थे.
‘डूबता अवध’ क़िताब लखनऊ के गोलागंज की क़द्दावर शख़्सियत, संघ लोक सेवा आयोग की पूर्व सदस्य मोहतरमा परवीन तलहा जी को बेहद पसंद थी. जब यह क़िताब दोबारा शाया होने को आई तो परवीन तलहा जी ने इस पर पेशलफ़्ज़ रक़म किया था, लेकिन प्रकाशक की चूक-ग़लती से वह क़िताब के नए संस्करण में शामिल होने से रह गया. तब आपने इस बात से क्षुब्ध हो कर अपने मकान की फुनगी पर बने छोटे से स्टडी रूम में मुझसे कहा था, “अय-हय इन मुओं (प्रकाशकों) ने ये क्या कर डाला. अब मैं उन्हें (जनाबा तलहा को) कैसे मुँह दिखाऊँगा !” मोहतरमा तलहा ख़ुशवंत सिंह जैसे लेखकों के दोस्तों में शुमार रही हैं. वे संघीय राजस्व सेवा में चयनित होने वाली प्रथम भारतीय मुस्लिम महिला हुयीं. ख़ुशवंत जी ने कई जगहों पर लिखा कि वे मौसमे-आम में लखनऊ से उनके लिए चुनिन्दा दसहरी की डाली भेजती हैं. सरदार जी की बहुचर्चित पुस्तक ‘वीमेन, सेक्स, लव एंड लस्ट’ में जब लखनऊ की स्त्रियों का ज़िक्र आता है तो मोहतरमा तलहा की आभा उसमें दिखायी देती है. किसी मौके पर मोहतरमा तलहा ने कहा था कि लखनऊ में रहने वाला सिविल सेवा की परीक्षा का कोई उम्मीदवार इंटरव्यू में मिलता है, तो उसके सामने आपके लेखन के मुतअल्लिक़ सवालात ज़रूर पेश होते हैं. ‘ईंट की बेग़म’ कहानी में बेग़म का जो किरदार है उसे अपने घर की लखौरी ईंटों वाले दरोदीवार से गहरी मुहब्बत है. लखौरी ईंट पतली होती है. मुआशी, मा’ली ख़राबी के चलते उन्हें अपना घर बेचना पड़ रहा है. और इस घर को छोड़ कर मोटी ईंटों वाले घर में जाना है. उनके शौहर घर का सौदा कर आये हैं. जिस सुबह बेग़म को अपना घर छोड़ना है, उससे क़ब्ल रात ही वे जहाने-फ़ानी से विदा हो जाती हैं.
आपकी एक और क़िताब ‘पराया चाँद’ मेरे दिल के नज़दीक और अहम है. उसमें अव्वल तो ये कि इसका एक क़िस्सा ‘एनाबेला’ सत्यजीत रे की आत्मकथा से जुड़ा हुआ है. दूसरा यह कि मेरे बहुत मना करने के बावज़ूद आपने इसमें मुझसे प्रीफेस लिखवाया था. जबकि मैं बारहा कहता रहा कि मैं इस क़ाबिल कहाँ जो आपके क़िस्सों के बारे में कुछ कह सकूँ. सीखने की उस बेशऊर उम्र में जो अटरम-सटरम लिखा, ‘एनाबेला’ के क़िस्से के दम पर ही लिख सका. सत्यजीत रे ने अपनी आत्मकथा में पेज नंबर 192 पर ‘लखनऊ का द्वंद्व’ नाम से एक विवरण लिखा है. वे 1950 के दौरान लखनऊ में लाटूश रोड पर रहते थे. उन दिनों एक अँग्रेज़ी दैनिक में वे अपना कॉलम भी लिखा करते थे. उस वक़्त हज़रतगंज में एंटीक वस्तुओं का सौदा करने वाली किसी दूकान पर सत्यजीत रे ने उम्दा माउज़र पिस्तौलों का जोड़ा देखा था. डिब्बे पर पिस्तौल बनाने वाले का नाम जोसेफ़ मेटोनियर लिखा हुआ था. तारीखी तख़य्युलात से मुतास्सिर होकर उन्होंने उस क़ीमती पिस्तौल के जोड़े को तुरंत ख़रीद लिया और लाटूश रोड वाले अपने किराए के दो-मंजिले मकान में ले गए जो उनका लखनवी बसेरा था. वे पिस्तौलें दिलकुशा बाग़ की दो फिरंगी क़ब्रों से चुरायी गयीं थीं, ऐसा लेखक का मानना है. विवरण के अनुसार दोनों पिस्तौलें फिरंगियों के साथ उनकी क़ब्रों में दफ़्न थीं.
कहानी उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक दौर की है. एनाबेला एक सुंदर ब्रिटिश लड़की थी जिसे जॉन एलिंग नाम का एक पेंटर चाहता था और उसका चित्र बनाने की आरज़ू रखता था. दूसरी तरफ़ एनाबेला पर ब्रिटिश सेना का एक कैप्टन भी आसक्त था. दिलकुशा बाग़ में एनाबेला के लिए दोनों एक दूसरे को गोली मारने का खेल खेलते हैं, उन्हीं पिस्तौलों से, जिन्हें सत्यजीत रे हज़रतगंज की एक एंटीक की दूकान से मोल लाये थे. इस खेल का निर्णायक ह्यूग ड्रामाण्ड नाम का एक ब्रिटिश सरकारी मुलाज़िम था. सत्यजीत रे की फ़ैंटेसी के अनुसार इस घटना के अम्पायर ह्यूग ने ही उन्हें उनके लाटूश रोड वाले मकान में आ कर यह कहानी सुनायी थी और इसका हर बरस घटने वाला लाइव प्रसारण दिखाने गोमती किनारे दिलकुशा बाग़ ले गया था. कहानी के क्लाइमेक्स में दोनों फ़िरंगी मर गये थे. ब्रूस की कुछ साँसें चलती देखकर आजिज़ी में एनाबेला उसे गोली मार देती है. इस अफ़साने पर आपसे की गयी रोचक बातें याद रहती हैं. आपने बड़ी दिलचस्पी के साथ मुझे बताया था कि ये कहानी आपको सत्यजीत रे ने सुनायी थी, जब आप उनसे मिले थे.
आप जोड़-जुगाड़ में यक़ीन नहीं रखते थे. यदि ऐसा होता तो आपके आँगन में गाना सीखने आनेवालियाँ, मीडियाकर गायिकाएँ अपने जोड़-जुगाड़ और दरबारी राजनीति के बल पर आपसे पहले सरकारी तमगों से नवाज़ी फ़ेहरिस्त में जगह क्योंकर बना पातीं? आपने मुझसे हज़ारहा कहा कि लाटूश रोड पर स्थित विद्यान्त कॉलेज की अध्यापकी यदि आपके पास न होती, तो आप कभी रोटी न खा पाते. पेंशन निकालने पंजाब नेशनल बैंक की लाटूश रोड शाखा कई बार आप मुझे अपने साथ ले गये. आपकी ओर से मुझे भी इसी बात की नसीहत और ताक़ीद थी कि दाल-रोटी का इंतज़ाम पहले हो. सत्ताओं से आपको कोई मुखर बैर नहीं था. विष्णुकांत शास्त्री राज्यपाल होते हुए आपके घर आये थे. 2006 में सपा सरकार ने आपको यश भारती से नवाज़ा. मुलायम सिंह यादव रवींद्रालय में आपका वक्तव्य सुनने स्वयं आते थे. बसपा प्रमुख के प्रिय गोलागंज वाले भार्गव प्रिंटर्स भी आपकी क़द्र करते थे. कैफ़ी आज़मी जैसे प्रगतिवादी शायर आपसे पुराने होटल गुलमर्ग में मिलते थे. मुज़फ्फ़र अली के साथ आपने ‘उमराव जान’ की शूटिंग में संयोजन का काम किया. श्याम बेनेगल जैसे फ़िल्म निर्देशकों के आप चहेते रहे. कभी-कभी मसनवी शैली में आप शाहे-वक़्त की प्रशंसा भी कर देते थे. यहाँ हमारी-आपकी वैचारिक भिन्नता के साथ पीढ़ी का अंतराल भी अड़ता था. लखनऊ में आपके क़द्रदान सभी वर्गों से होते थे, यक़ीनन वे सभी आपका आदर करते थे. मीर के मिसरे-दीवान की तरह आप की इज़्ज़त अमीरों में थी, आप अमीरों की करते थे. उस क़द्र और अदब के परदे की आड़ में क़लमकार की बेकसी भी पोशीदा होती है, यह दीग़र बात है. आपको यश भारती मिला, जिससे मिलने वाली पेंशन राजनीतिक कारणों से बन्द थी. बरस 2020 के एक दिन गोमती किनारे शुक्ला घाट पर आपको महज़ एक हज़ार रुपये दरकार थे. दरबारी जोड़-जुगाड़ में महारत रखने वालों को इस हुनर ने आपसे बहुत पहले पद्म सम्मान दिला दिया था. आपको पद्मश्री इतनी देर में मिला कि उसे लेने आप राष्ट्रपति भवन भी नहीं पहुँच सके. और लोग-बाग कहते हैं कि दमे-आख़िर आपको एम्बुलेंस भी नहीं मिली.
एक बार मैं आपके साथ लखनऊ के पुराने और मशहूर अमीर घराने में किसी रचनात्मक कार्य से गया था. वो घराना-ए-अमीर गोमती किनारे स्थित नवाब ग़ाज़ीउद्दीन हैदर की कोठी में रहता था. उनके यहाँ चालीस नौकरों की टुकड़ी क़वायद करती थी. शायद किसी स्क्रिप्ट का अनुबन्ध करना था. वापसी में उनकी इनोवा गाड़ी ने हमें गल्ला मंडी वाली गली के मुँह पर उतारा था. बरास्ता इन्दिरा गाँधी नक्षत्रशाला से लगी-लगी नबीउल्लाह रोड से मूँगफली मंडी, रेलवे लाइन के नीचे से होते हुए जुबली कॉलेज के सामने वाली सड़क से. जिसे मीर तक़ी मीर मार्ग कहा जाता है. आपके घर की गल्ला मंडी वाले गली के मुहाने पर उतारते वक़्त उस अमीर घराने के ‘लन्दन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स’ से पढ़ कर आये जानशीन ने मेरी ओर हाथ का इशारा करके आपसे अँग्रेज़ी के तलफ़्फ़ुज़ में बड़ी मशक्कत से बोली गयी उर्दू में पूछा था, ‘ये आपके साहबज़ादे हैं क्या ?’ आपने पुरलहजा उर्दू के तलफ़्फ़ुज़ से इंग्लिश बोलते हुए जवाब दिया था, ‘नो! ही इज़ माय प्युपिल.” मुस्कराते हुए हम आपकी गली में मुन्ना फ़ानूशफ़रोश के बेंच लगे दरवाज़े तक पहुँचे थे कि आपने ‘मीर’ का (जनप्रचलित) शे’र सुनाया :
न मिल मीर अब के अमीरों से तू
हुए हैं फ़क़ीर उनकी दौलत से हम.
तमाम उर्दू अशआर आपका ज़ुबानी शग़ल थे. आपकी बात किसी शे’र के बिना मानो पूरी ही न होती. आपका ग़ैरमामूली हाफ़िज़ा उन्हें शायर के लक़ब के साथ फन्नी इज़्ज़त बख़्शता था. हम कहीं फँसते थे, तो आप मदद करते थे. लखनऊ की शे’री तबीयत और शायरी के स्कूल को जो नहीं जानते वे कभी ज़ुबान पर हज़ार शे’र रखने के मुहाविरे को नहीं समझ सकते. जहाँ गिलास, तश्तरी, रक़ाबियों, तकिये के ग़िलाफों और आईने के फ्रेमों पर शे’र दर्ज़ रहते हों. जहाँ नोटों पर ‘मीर’ के शे’र लिखकर तोहफ़े में दिए जाते थे. आपने ही बताया था कि बेग़म अख़्तर सिगरेट की डिब्बी से निकलने वाले चमकीले काग़ज़ पर शे’र लिखे रखे रहती थीं. अदबी तारीख़ में शायरी का दिल्ली स्कूल, लखनऊ स्कूल की इसी अदा से कुढ़ता था और यहाँ के शायरों को कंघी-चोटी का शे’र कहने वाला बताकर ताना मारता था. हमने ये आप ही की संगत में बरतना सीखा और पाया था. एक बार अपने किसी शिक्षक के सामने मैंने कहा कि पहले मुझे हज़ारों शेर याद थे, तो उसने व्यंग्य में कहा कि, आप शेख़ी बघार रहे हैं. ज़ाहिर है वह लखनऊ की शे’री तबीयत से वाक़िफ़ नहीं था. उर्दू शायरी पर छाए रहने वाले मीरो-ग़ालिब के जलवों के बर-अक्स आपने छोटे-छोटे लखनवी शोअरा को देवनागरी लिपि में दोबारा ज़िंदा किया. मीर अनीस के एक शेर- ‘मेरी क़द्र कर ऐ ज़मीने-सुख़न, तुझे बात में आस्माँ कर दिया’- आप हम जैसे लिखने की कोशिश कर रहे युवा लेखकों को नस्र करते थे. मुझे आपने एक जगह इस शेर का हक़दार बयान किया था. इसे सुनाते हुये आपकी आँखें झिलमिला उठती थीं. अस्ल में ‘मीर अनीस’ के इस शे’र के सच्चे हक़दार आप थे. और सुख़नवरी की रौशनी से चमक उठने वाली वे आँखें अब चिता में जल-बुझ चुकी हैं. अब वे ‘मीर अनीस’ के आसमान से झाँका करेंगी, जो पेशतर ज़मीने-सुख़न था.
संगीत में आपकी गहरी रुचि थी. श्रीराम टॉवर के पीछे की तरफ़ सुभाषा मिश्रा जो दूरदर्शन में वायलिन जैसा कोई साज़ बजाती थीं, उनके यहाँ मेरी ख़ातिर आपने गीत-संगीत की एक महफ़िल 2017 में सजायी थी. मैं डेंगू बुख़ार से उठा था. आपका यक़ीन था कि संगीत जीवन को नवरोज़ी ताज़गी से भर देता है और इस बहाने चार लोग एक जगह बैठ भी लेते हैं. गाने-बजाने की ऐसी बैठकें अक्सर ही आप इजलास करते रहते थे. आपकी ‘पंचवटी’ में मैंने लखनऊ के नामी गायकों को सुना. जिनमें विमल पंत जैसे नाम मुझे याद हैं. मीरासनों, लोकगायकों को भी सुना. और उन तमाम नये गुलूकारों को भी, जो अभी गाना सीख रहे थे. वे आपसे भी सीखते थे. आप ही मुझे रवि नागर को सुनवाने उनके घर ले गये थे. काफ़ी समय पूर्व जिनकी कैंसर से मृत्यु हुयी थी. वे अमीर मीनाई की ग़ज़ल ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ ख़ूब ही गाते थे. आपके लिखे नाटक ‘ग़ज़ल का सफ़र’, जिसका रंगकर्मी सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ जी ने निर्देशन किया था, उसमें रवि नागर ने ही ग़ज़लें गायी थीं. रवि नागर की मृत्यु पर छाया गांगुली ने एक मार्मिक लेख किसी टैब्लॉयड में लिखा था. आप बाजा (हारमोनियम) तभी उठाते थे, जब आपके प्रियजन सरे-अंजुमन हों. दराज़ उम्र होते हुए भी आपका स्वर टूटता नहीं था. हाँ, ऊँचा उठाने पर तनिक लरज जाता था. आप लोकगीत, भजन आदि तो गाते ही थे, शकील (बंदायूनी) की ग़ज़लें आपको ख़ासी पसंद थीं. बरसों पहले उर्दू पत्रिका ‘नया दौर’ का जब शकील नम्बर आया था, तो उसकी आपने दो कॉपी ली थीं. ज़ाहिर है एक मेरे लिए. आपका दिया वह रिसाला मेरे हाथ में देख कर मुझसे जनाब अज़ीज़ रज़ा ने माँग लिया था, जो मुझे उर्दू के हिज्जे सिखाते थे. वे उन दिनों किसी कॉलेज में उर्दू के सहायक प्रोफ़ेसर थे और मख़्दूम मोहिनुद्दीन पर पीएच.डी. कर रहे थे. मैं उन्हें रिसाला देना नहीं चाहता था, लेकिन न नहीं कह पाया. अब मैं उन्हें कहाँ ढूँढूँ ? ‘अमर’ फ़िल्म (1954) में निम्मी पर फ़िल्मायी और नौशाद की मौसिक़ी से सजायी गयी शकील की ग़ज़ल ‘न मिलता ग़म तो बर्बादी के अफ़साने कहाँ जाते’ आप बाजे के साथ बड़ी ऊष्म और संज़ीदा आवाज़ में गाते थे. और उसके अन्तिम बन्द की इन पँक्तियों तक पहुँचने पर तो आपका गला ही रुँध जाता था:
“तुम्हीं ने ग़म की दौलत दी बड़ा अहसान फ़र्माया
ज़माने भर के आगे हाथ फैलाने कहाँ जाते”
पन्द्रह बरस पहले, तब की उस यतीमख़ाने जैसी दुनिया में आप मुझे किसी देवदूत की तरह मिले थे. ज़िंदगी से बुरी तरह मार खाये हम जैसों के लिए लखनऊ की बहुत सँकरी गलियों में फ़क़ीर की तरह खड़ा आपका घर ‘पंचवटी’ किसी ख़ानक़ाह से कम नहीं था. आपको मेरी भूख, मेरे चैन-आराम और भविष्य की बड़ी फ़िक़्र रहती थी. इस जहाँ से आपकी रुख़सती से कुछ रोज़ पहले बीती सर्दियों में आप का हाथ बुरी तरह काँप रहा था. इस कँपकँपी ने मुझे आतंकित कर दिया था. मैं सलीके से कुछ कह नहीं पाया, मगर वह आपकी देह में समाप्ति के प्रवेश जैसी महसूस हुयी थी. इससे पहले आपकी देह इस तरह काँपती नहीं दिखी थी. आपने सर्दी और उम्र का हवाला दे कर मेरी ख़ौफ़ भरी हैरानी को हँसी में टाल दिया था.
अब जब आप नहीं हैं. तो मैं समय की स्मृति में रह गयी कुछ इकाइयों का अमूर्तन करने की कोशिश करता रहता हूँ. जैसे मीना ट्रांसपोर्ट के पास सड़क पार करते हुये आप मेरा हाथ थामे हुए हैं. या कि लखनऊ की तवारीखी बातों में मशगूल हम मौलवीगंज तक पैदल पहुँच गए हैं. चलते हुये आप मस्जिदों, रास्तों और इमारतों के बारे में बता रहे हैं. अमीनाबाद में केंट होम्यो हॉल से होम्योपैथी की ख़ुराकें बनवा रहे हैं, या कि माताबदल पंसारी के यहाँ आप अपने बालों के लिए मेहँदी ख़रीद रहे हैं. या थाने के बग़ल वाली पान की दुकान पर सादा पान खा रहे हैं. कि सड़क पर सामने से एक जनाज़ा आ रहा है और उसके नज़दीक पहुँचने से पहले आपने कुछ ज़्यादा उठाने का श्रम कर अपना हाथ मेरे सिर पर फेर दिया है. या कि बस अभी आपका कॉल आएगा और आप कहेंगे ‘बेटा बस हमने तुम्हारा हाल लेने के लिए फोन किया. अच्छा आपसे थोड़ी सी बात कर लें ? भइया अपना ध्यान रखिए.’ 4 अप्रैल, 2021 को आपके साथ चाय पी गयी. दोबारा पीने के अहद के साथ. 11 अप्रैल, 2021 को जब मैंने दोपहर तीन बजकर पैंतीस मिनट पर आपको फोन किया तो आप की आवाज़ अब तक के सबसे कमज़ोर स्वनिम में थी. मुझे लगा आप हस्बे-मामूल दोपहर में आराम कर रहे हैं. आपने मुझे भनक भी नहीं लगने दी कि आप उस बड़े आराम की ओर जाना चाहते हैं, जहाँ आपका यह प्यारा कभी ख़लल नहीं डाल पाएगा.
मेरी ख़ाक भी उड़ेगी बाअदब तेरी गली में
तेरे आस्तां से ऊँचा न मेरा गुबार होगा.
योगेश प्रवीन
___
शीर्षक लोकगीत की पंक्ति से लिया गया है जिसका संदर्भ वाज़िद अली शाह के ‘मटिया बुर्ज़’ चले जाने से सम्बन्धित है.
हज़रत बिन प्यारे, आज लखनपुर सूना
किनने कीन्हीं लड़इया, कवन गढ़ लीन्हा.
संतोष अर्श रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित. |
योगेश जी पर लिखा गया अब तक का सबसे अच्छा श्रद्धांजलि लेख है। शुक्रिया इसे पढ़वाने के लिए। अर्श भाई ही ऐसा लिख सकते हैं।
अभी संतोष अर्थ का यह लेख आधा ही पढ़ा है और इसमें डूबता जा रहा हूं । कुछ बातें इसलिए कि हमेशा याद रहेंगी कि मनुष्य शेरो शायरी से या लिखे हुए से जिंदा नहीं रहता वह किसकी स्मृति में किस तरह से है इससे जीवित रहता है।
योगेश प्रवीन के जीवन पर लिखा गया संतोष अर्श का संस्मरण दिलकश है । दोनों नाम मेरे लिये नये हैं । योगेश की उम्र 82+ की थी । महामारी के कारण उनका निधन हो गया था । योगेश प्रवीन (या तो योगेश जी अपने नाम के पीछे प्रवीन (प्रवीण क्यों नहीं लिखा) लिखते थे या संतोष जी ने प्रवीन लिखा है । योगेश जी लखनऊ के निवासी थे । उनके लेखन में वहाँ की नफ़ासत है । जैसा मेरी ज़िंदगी का फ़लसफ़ा है वैसी झलक मुझे योगेश प्रवीन के जीवन में प्रतीत हुई । “लेखन से बाहर निकलकर व्यावहारिक जीवन में आदर्शों और उसूलों को अपनाना बेहद कठिन होता है । हो सकता है कि एक दिन लेखक का लिखा हुआ अप्रासंगिक हो जाये । संभव है सभ्यता आगे निकल जाये, ख़त्म हो जाये, परंतु मनुष्य की स्मृति में बचा हुआ मनुष्य कभी नहीं मिटता, बल्कि वह उतना ही शेष रह जाता है । धनाढ्य परिवारों की बात छोड़ दी जाये तो आज़ादी से एक या दो दशक पहले के आम आदमी की ज़िंदगी ग़ुरबत में बीतती थी । दो-तीन पीढ़ियाँ होम करनी पड़ती थी और तब जाकर पढ़े लिखे व्यक्ति के वंशजों के जीवन आर्थिक रूप से विकसित होते थे । परंतु अब भी करोड़ों परिवार हैं जो अशिक्षा और ग़रीबी में जी रहे हैं । बिहार, पूर्वी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश और झारखंड से रोज़ी रोटी के लिये लोग पलायन करते हैं । देश की आज़ादी का राजनेताओें ने अपहरण कर लिया है । योगेश प्रवीन की ज़िंदगी मुफ़लिसी में बीती । नौकरी के दौरान दुकानदार मालिक के लिये साइकिल के हैंडल के दोनों तरफ़ किताबें 📕 लेकर आते । ग़रीब आदमी का दर्द ग़रीब ही समझ सकता है । जिस रिक्शा पर बैठते उसी से अपनापे की बात करते थे । साइकिल के पहियों की तीलियाँ चमकने का ताल्लुक़ मेरी ज़िंदगी से जुड़ा हुआ है । बैंक में मार्च 27, 1980 को नियुक्त हुआ था । समालखा (पानीपत के नज़दीक) से स्थानांतरित होकर फ़रवरी 19, 1981 को अपने गृह नगर हाँसी में आ गया । 1986 के अंत में साइकिल ख़रीद सका । जबकि साइकिल की क़ीमत 8 सौ रुपये थी । साइकिल के पहियों की तीलियाँ चमकाया करता । बैंक से ऋण लेकर नवंबर 19, 2001 की सुबह दिल्ली से मोटरसाइकिल ख़रीदकर घर पहुँचा । क़रोल बाग़ दिल्ली से हाँसी की दूरी लगभग 140 किलोमीटर होगी । फिर मोटरसाइकिल के पहियों की तीलियाँ चमकायीं । दो साल पहले भारतीय स्टेट बैंक की मुख्य शाखा में एक गुड़िया के काउंटर पर रक़म जमा कराने के लिये पहुँचा । उसने कहा-अंकल नमस्ते । मुझ अबोध व्यक्ति ने पूछा कि मैं तुम्हें नहीं जानता । गुड़िया ने जवाब में कहा कि मैं अपने विद्यालय में सातवीं या आठवीं कक्षा में पढ़ने के लिये जाती थी । आप मोटरसाइकिल के पहियों की तीलियाँ चमकाने में मस्रूफ़ होते थे और ऊपर नज़र उठाकर नहीं देखते थे । प्रोफ़ेसर अरुण देव जी मैंने अपनी ज़्यादा कहीं और अर्श साहब द्वारा योगेश प्रवीन के जीवन के बारे में कम लिखा ।
क़िस्मत की ही बात है कि आपको वो और उन्हें आप मिले, वरना ऐसे कौन किसी को याद करता है अब। आपके लेखन से बिल्कुल भिन्न भाषा और शैली यहाँ देख रही हूँ, सुंदर प्रयोग। कुछ व्यवहारिक सूक्तियाँ मुझे ख़ासतौर पर बहुत भायी हैं जैसे, ‘किसी व्यक्तित्त्व का असली चेहरा शक्ति-संरचना में कमज़ोर लोगों से उसके बर्ताव के आईने में दिखता है.’ । एक साँस में पढ़ लेने जैसा संस्मरण है। योगेश प्रवीन जी को सादर नमन व आपको आभार।
योगेश प्रवीन जी की शख़्सियत और उनसे जुड़ी हर छोटी बड़ी बात को आपने जिस खूबसूरती से बयान किया है, वो अपने आप में लाजवाब है. पढ़ कर न मालूम कितनी यादें ताजा़ हो गईं.
हर बात अपने आप में उनकी थी बेमिसाल
कुछ इस तरह जी जि़न्दगी , जिसकी नहीं मिसाल.
योगेश प्रवीन जी से लखनऊ की पहचान थी। बड़ा लेखक कैसा होता है यह उनसे मिलने के बाद शिद्दत से महसूस होता था। कई बार उन्होंने ” पंचवटी” आने का आग्रह किया पर अपनी मशरूफियात में जा न सकी। इतना मार्मिक संस्मरण संतोष ही लिख सकते थे। ऐसा लग रहा पढ़ते हुए कि जैसे अभी अभी योगेश जी से मिलकर लौटे हैं। समालोचन ऐसी दुर्लभ रचनाओं के लिए जाना जाएगा, इस संस्मरण में संतोष अर्श की उर्दू मिश्रित भाषा का लालित्य लाजवाब है। Santosh Arsh खूब खूब बधाई तुम्हें🌹
योगेश प्रवीन जी की शख़्सियत और उनसे जुड़ी हर छोटी बड़ी बात को आपने जिस खूबसूरती से बयान किया है, वो अपने आप में लाजवाब है. पढ़ कर न मालूम कितनी यादें ताजा़ हो गईं.
हर बात अपने आप में उनकी थी बेमिसाल
कुछ इस तरह जी जि़न्दगी , जिसकी नहीं मिसाल.
लखनऊ है तू महज़ गुंबदो-मीनार नहीं
सिर्फ़ एक शहर नहीं कूचा-ओ-बाज़ार नहीं
तेरे दामन में मुहब्बत के फूल खिलते हैं
तेरी गलियों में फ़रिश्तों के पते मिलते हैं.
आपके लेख की अद्भुत सुंदरता है…
लाजवाब और बेहद दिलचस्प
शानदार लिखा है अर्श भाई! आपकी कलम इसी तरह चलती रहे लगातार।
सादर
के के यादव
क्या बा’कमाल और ग़ज़ब का लिखा है मियां अर्श ने प्रवीण साहब के लिए, वाह. योगेश प्रवीन एक ऐसा नाम है जो पढ़ने का सउर रखनेे, अवध की तारीख़, तहजीब, अख्लाक और आर्ट को सहेज़ कर रखने वालों के दिलों में उतर कर ज़ज्ब है, महफूज़ है. एक वाकए का ज़िक्र यहां मैं करना चाहता हूं :
2015 में उ. प्र. सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने द टाइम्स ग्रुप के साथ Uttar Pradesh : A Cultural Kaleidoscope नाम से भारी भरकम book ( price : ₹ 1350/- ) निकाली. उसके लिए मैटर लिखवाने हेतु योगेश प्रवीन का नाम शासन और संबद्ध करिंदों के बीच तय समझा जा रहा था पर ऐसा हुआ नहीं. तमाम विषयों पर कमतर लोगों के आलेख फाइनल हुए.
परिणाम, एकदम बोगस क़िताब धूल खाने के लिए छपी, बटी और फेंकी गई.
योगेश प्रवीन जी के जाने के बाद आपने उनके बारे ने ज़िक्र किया था।मेरा दुर्भाग्य रहा कि उनसे कभी मुलाकात नही कर पाया।आपने जिस अंदाज ,भाषा और भाव मे उन्हें याद किया है वह बेमिसाल है और योगेश जी के प्रति आपके गहरे आत्मीय सम्बन्ध और स्नेह को द्योतित करता है।यह लेख उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है।उम्मीद है कि उनकी शख्सियत पर आपकी किताब सबके सामने भी जल्द आएगी.
Santosh जी – अभी पूरा पढ़ कर ख़त्म किया …आख़री paragraph में तो गला रुंध गया …योगेश प्रवीन जी से मिलने का सौभाग्य नहीं रहा लेकिन वह क्या ही शक्स होंगे जिनके बारे में आपने इतने मख़मली और मार्मिक अन्दाज़ में लिखा है ..,और जिनके प्रति मोहब्बत और आदर की क़समें खाते Himanshu जी थकते नहीं . पढ़कर उनसे मिलने और संग बैठकर लखनऊ की किसी बहुत पुरानी चाय की दुकान पर चाय पीने की इतनी इच्छा हुई … मुझे आपके लिए बहुत ख़ुशी भी हो रही है कि आपको इतने बरसों योगेश जी जैसे बड़े ने इतना प्यार किया. बहुत स्नेह .
संतोष अर्श को योगेश प्रवीन के जरिए जाना। इतना बढ़िया लिखा है उनके बारे में कि तबियत में एक लंबा दर्द उभर आया। हिन्दुस्तान प्रत्रिका में ख़ूब पड़ते थे उन्हें और लखनऊ के इतिहास को समझने की कोशिश करते।
भाई अर्श ने उनकी सोहबत का अदबी साहकार प्रस्तुत किया, वे बधाई के पात्र हैं।
काश! उनका फोन नंबर होता।
हीरालाल नागर