स्मृतियाँसदन झा |
स्मृति-गंध
ठीक तीन बजकर चौंतीस मिनट पर उसकी नींद पूरी हो गयी. पत्नी को गहरी नींद में छोड़, वह स्टडी में आ गया.
‘जूनी, गीव मी माई एम्विअंस’. कमांड देते ही उसका मन कहीं और चला गया.
‘जूनी वेट, डोंट गीव मी डिफॉल्ट एम्विअंस टूडे.’
‘स्योर सदन, डू यू हैव एनी थिंग पर्टिकुलर?’
‘यस जूनी, चेंज कमांड लैंग्वेज. शिफ्ट टू हिंदी.’
‘जूनी, बागमती के कछैर पर मैं केवड़े की झाड़ियों के नजदीक खड़ा हूं. यह अस्सी के दशक के मध्य के आस पास का समय रहा होगा. गर्मी. क्या तुम मेरी स्मृति से इसे ढूंढ कर निकाल सकती हो, जूनी’?
उसे पता था, इस काम के लिए जूनी को दो चार पल का समय तो लग ही. जाएगा.
‘मैं कोशिश करती हूं, सदन. यह आपने पहले कभी नहीं मांगा है.’
‘हां जूनी. अभी अचानक यह दिमाग में आया. शायद नींद ने एक्टिवेट किया हो, इस डोरमेंट स्ट्रीक को.
‘सदन, मुझे विजुअल्स तो मिल रहे हैं लेकिन बहुत टूटे हुए से. कमजोर. एम्विअंस रिकंस्ट्रक्ट नहीं हो सकता. क्या मैं इसमें केवड़ा की सुगंध इंपोर्ट कर मिक्स एम्विअंस बना दूं?’
‘नहीं जूनी. तुम्हें पता है मुझे इस तरह का मिक्स करना पसंद नहीं है.’
‘हां. मुझे पता है. इसीलिए मैंने पहले ही पूछ लिया. बागमती के जो विजुअल्स मिल रहे हैं वह सभी नदी के पूर्वी कछार की तरफ से ही हैं. केवड़े की झाड़ियां पश्चिमी कछार पर सामने नदी के उस पार दिख रही हैं. आप फटेसरनाथ महादेव के नीचे खड़े हैं. लेकिन आप तक उन फूलों की सुगंध नहीं पहुंच रही है.’ क्या आप मुझे कोई भिन्न स्मृति एक्सेस करने के लिये तो नहीं कह रहे, सदन?’
‘तुम सही हो जूनी. कुछ और पहले जाओ. शायद वहां हो. मैं शुभंकरपुर गया हुआ हूं. साथ में और भी हैं. चार पांच बच्चे. उम्र में मुझसे बड़े. वहां पुराने मंदिर के बाद केवड़े के पौधों का बड़ा सा झुरमुट.’
‘सदन, शुभंकरपुर से जुड़ी सभी स्मृतियां कुछ साल बाद की ही हैं. पुल पार करती हुई स्मृतियां. गाछी. लाल ममाजी और लाल मामी से मिलने गये हुए हैं. गाछी. डर. संजय से जुड़ी बहुत सी स्मृतियों के कई क्लस्टर्स. मैदान, क्रिकेट मैच. मंगल बाबू के यहां ट्यूशन.’
‘जूनी स्टे देअर. कैन यू इंलार्ज मेमरी ऑफ माई विजीट टू मीट लाल ममाजी एंड मामी? शायद वहीं आसपास हो केवड़ा का सुगंध भी.’
‘हां सदन. मैं ऐसा कर सकती हूं. लेकिन मेमरी का स्ट्रैंथ बहुत कम है.’
‘ओह! अच्छा अभी रहने दो. शायद, रेग्युलर अपग्रेडेशन के बाद यह तुम्हारे डेटावेस में आ जाये. फिलहाल, तुम मुझे गाम बाले पोखरी महार पर हरश्रिंगार का एम्विअंस दे दो. साथ में वहीं का साउंड स्केप भी’.
‘ठीक है सदन. यह लो.’
स्टडी कोजागरा के प्रात: के हर श्रृंगार की खुशबू और बाड़ी से आती नाना प्रकार की मद्धिम आवाजों से भर उठा.
सदन ने एक गहरी सांस ली. आंखें बंद कर स्मृति की सुगंध में डूब गया.
आज का दिन लंबा होने बाला था.
भाषा का हाशिया
उलुगुलुलजुहागुलुमुलु पीपाहू!
कभी सोचा है भाषा के हाशिये पर क्या होता है?
जब भी भाषा की परिधि की कल्पना आती है मन स्वतः ही कविता की तरफ मुड़ जाता है. कविता ने अपने में अनुभव की संवेदना के सूत्र बचा रखे हैं. ये ऐसे सूत्र हैं जिसे आलोचना, कहानी, उपन्यास आदि रुपों में भाषा ने ज्ञान की अधीनता मानकर अपने दामन से खुरचकर साफ कर लिया.
तो इसी ज्ञान की नैतिकता के कारण हम सीमांत को सामाजिक और ऐतिहासिक रुपों से परिधि पर धकेल दिये गये सामाजिक अनुभवों के तौर पर ही देखते हैं. वह जरूरी भी है. लेकिन, सामाजिक अनुभवों की बात करना भाषा के हाशिये पर जाना तो नहीं हुआ.
भाषा के सीमांत पर जाना अर्थात् स्वयं को, भाषा को उसके संप्रेषणीयता की सीमा तक ले जाना है. भाषा जहां असहाय हो जाये. जहां मानवीय अनुभव भाषा असहायता को उजागर कर दे. जब हमें यह भान हो कि पीड़ा और उल्लास की उन चरम परिस्थितियों में भाषा को उनके ही अपने संस्कारों से मरहूम हो जाना पड़ जाता है, मरहूम कर दिया जाता है. यह हिंसा की अकल्पनीय परिस्थितियां हो सकती हैं. यह हमारे रोजमर्रे की बातें हो सकती हैं.
अंग्रेजी में एक शब्द है स्टटरिंग. हिंदी में इसे हकलाहट का नाम दिया जाता है. पर शायद जबान की लड़खड़ाहट अधिक उपयुक्त हो. संभव है कि हिंसा की असीम घटनाओं की अभिव्यक्ति के लिये भाषा की कल्पना शक्ति ने अपने को तैयार ही नहीं किया हो. नाजी यातना शिविरों में मानवीय देह की उत्पादकता खत्म हो जाने के बाद, गैस चैंबर की कतार में, अपने मृत्यु की प्रतीक्षा करते लोगों के बारे में, भाषा की इसी सीमा की बात की गयी है. मंटो के टोबा टेक सिंह की बड़बडाहट में यही तो है. हिंसा जहां भाषा की बखिया उधेड़कर शब्दों को बेपरदा कर दे.
हालिया बलात्कार की रपटें क्या कुछ इसी तरफ हमें नहीं ले जाती हैं?
नहीं, यह मूक हो जाने की बात नहीं है. जब देह पर हिंसा अपनी इबारतें लिख रही है तो स्तब्धता मूक होने में ही क्योंकर परलक्षित हो. अभिव्यक्ति तो होगी ही. प्रश्न है कि क्या हम सुन पा रहे हैं या हम न सुनने के अभ्यस्त बना दिये गये हैं?
जिंदगी चलती ही जाती है
आज सुबह ही की बात है. नींद देर से खुली. सबकुछ धीरे धीरे हो रहा था. नौ साढ़े नौ का वक्त रहा होगा. मेरे घर के सामने वाली सड़क सुनसान थी. कुछ तो कोरोना का असर और बहुत कुछ ताउक्ते चक्रवात का नतीजा. कल सुबह से ही बरखा हो रही है. रात से तो पवन भी बहुत वेग से चल रही है. बरखा नौ साढ़े नौ बजे बहुत तेज. मेरे बॉलकनी के नेट पर अपराजिता की लता, उसके बैंगनी पुष्प और उसके पत्ते मानो मचल मचल कर कुछ संदेश दे रहे हों. लेकिन, इस कोरोना काल में जब मौत तांडव कर रहा हो तो यह संदेश मन तक नहीं पहुंच पाता. आंखें उन्हें देख भर लेती हैं किसी आंकड़े की तरह. छणभंगुर सांख्यिकीय, जिससे जनता और समाज पहले ही किनारा कर चुका है और जिसके प्रति सरकार की चेतना के कहने ही क्या! हम ऐसे समय में धकेले जा चुके हैं जहां कोरोना के विषाणु ने हमारे जिह्वा के स्वाद और नासिका की सुगंध के प्रति अनुभूति का ही महज शिकार नहीं किया है. हमारी सामाजिकता, हमारी संवेदना और हमारे होने का उत्स ही मानो अदृश्य हाथों में गिरवी रखा गया है. हमने खुद ही तो कहीं इसे किसी और के पास गिरवी नहीं रख दिया? रह रहकर अंदेशा उठता है और दिल बैठ बैठ जाता है.
बॉलकनी और उसके नेट, उसकी रेलिंग पर मचलते अपराजिता की लताओं के पार चौड़ी मगर सुनसान सी सड़क पर एक बस स्टॉप है. पिछले दो तीन सालों की ही देन है. बस का रुकना तो होता नहीं यहां. पर यह एक ठीहे की जिम्मेदारी खूब निभाता है. आज जब मूसलाधार बारिश हो रही है, एक जोड़ा प्रेमी प्रेमिका यहां हैं. स्कूटी लापरवाही से किनारे तिरछी होकर ऐसे खड़ी है कि उसे पार्क करना तो नहीं कह सकते हैं न. युगल पति पत्नी भी हो सकते हैं. या फिर अभी शादी नहीं हुई हो. यहां गुजरात में सगाई और शादी के बीच लड़के लड़की को मिलने जुलने, एक दूसरे को जानने समझने के लिये पर्याप्त अवसर दिये जाते हैं. संभव है यह जोड़ा भी ऐसा ही हो, भावी दांपत्य जीवन के सपनों में डूबा हुआ सा. या फिर, नव दंपति ही हो.
बस स्टॉप पर स्टील के बैंच और सड़क के बीच की पतली सी पट्टी पर प्रेमिका आधी सी लेटी है. बरखा में भीगी हुई. बरखा में अलहड़ बनी हुई. प्रेमी मोबाइल कैमरे से फोटो ले रहा है. पोज बदलते जाते हैं. कैमरा अपना काम कर रहा है. अब वह सड़क पर आ गयी है. दूर से एक कार आ रहा है. प्रेमी युगल कार की तरफ देखते हैं. मन ही मन तय होता है. इंतजार किया जाये. कार को जाने दिया जाये. दो ही क्षण की तो बात है. अब लड़की अधिक आत्म विश्वास और कमर को बहुत हल्के से वलयाकार देते हुए पैरों को कुछ उन्मुक्त आजादी देते हुए बरखा की बूंदों में जिंदगी के मायने ढूंढ़ती कैमरे में पोज दे रही है. दस पंद्रह मिनट की भी बात नहीं है. इस बरखा में पॉंच मिनट दीर्घ माना जाये. कुल चार से छह फोटो हुए. प्रेमिका को पक्का पता है कि उसे किस तरह का फोटो चाहिये. फोटो शूट खत्म हो चुका है. प्रेमी स्कूटी के सीट उठाकर मोबाइल को सुरक्षित रखता है. स्कूटी रफ्तार पकड़ती है. पीछे प्रेमिका अपने प्रेमी के देह से चिपककर उसके कंधों पर अपनी चाहतों को पूरी स्वतंत्रता देती हुई अपने में ही खो चुकी है. बस स्टॉप के नीले विज्ञापन बैनर के साथ बॉलकनी के बैंगनी अपराजिता एकमेक सी हुई जा रही है.
मरम्मत से मरहूम दालान की चौखट
सुनो तो
यदि कह दूं तुम्हें आज की रात अलविदा
फिर, आ तो नहीं जाओगे घूमकर वापस कहीं तुम?
जैसे आ जाती है बरबस यादें तुम्हारी
या सुलगती रह जाती है जैसे चिता की राख बहुत साल बाद भी
मरम्मत से मरहूम दालान की चौखट पर?
जैसे रात के तीसरे पहर प्रेमिका के देह की गंध
लौट आ जाती है आज भी?
भरोसा मांगता हूं तुमसे तुम्हारे चले जाने का
यह तब जब हम दोनों ही को पता है, तुम कहीं नहीं गयी.
अहं और विरह
धीरे-धीरे ही सही, पर लोग दूर होते चले जाते हैं और हम अपने अहं में उन्हें जाते हुए निहारते रह जाते हैं. शुरु-शुरु में तो दरअसल यह क्रिया निहारना नहीं ही लगता है. जब महसूस होता है तबतक वे बहुत दूर निकल चुके होते हैं, लौट आने की सीमा से परे.
नहीं. हमेशा ऐसा तो नहीं हुआ करता. तुम कैसे इतने यकीन के साथ यह कह सकते हो भला? कल क्या मुझे यूं ही तुम जाते हुए चुपचाप देखते रहोगे? मैं नहीं मानती. मैं ऐसा हरगिज नहीं करूंगी. मैं तुमसे झगड़ा करूंगी. रात को तुम्हारी तलाश में भटका करूंगी.
और, इस तरह हम दोनों अपने अपने राह हो लिये. मैं अहं के हिस्से आया. वह विरह के.
सदन झा ने इतिहास की पढाई की है. हिंदी में इनकी रचनाओं में देवनागरी जगत की दृश्य संस्कृति ( राजकमल और रजा पुस्तक माला) एवं हॉफ सेट चाय (वाणी और रजा पुस्तक माला ) है. ये सूरत स्थित सेंटर फॉर सोशल स्टडीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. |
आरंभ के संवाद में सदन और जूनी की असामान्यता ने मुझे अंग्रेज़ी पिक्चर अवतार की याद करा दी । नायक को MRI करने वाले बक्से की तरह के एक खोल का बिम्ब बना जिसमें अवतार के नायक को बंद किया जाता है । वह आकाश में विविध रंगों में परों वाला विशाल पक्षी बनकर विचरण करता है । उसमें असीम शक्ति है । परी जैसी दिखने वाली नायिका उस पर मोहित हो जाती है । ख़ैर ! जिस व्यक्ति ने अवतार फ़िल्म देखी है उनके लिये मैं रेखाचित्र बनाने का प्रयास कर रहा हूँ । सदन झा आकर्षक नाम है । एक दिन जल्दी जागकर जूनी की निद्रा में व्यवधान पैदा किये बिना दूसरे कक्ष में पढ़ता है । और अगले दिन सुबह साढ़े नौ बजे । वह भी जब बॉलकनी पर वर्षा के छींटे पहुँच जाते हैं । गद्य और पद्य की आवाजाही मन को मोह लेती है । दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन (DTC) का प्रतीक चिह्न एम्बलम् की छाया मेरे मस्तिष्क पर अंकित हो गयी जिसे दो तीर (ऐरो) विपरीत दिशा में बने हुए होते थे । Yes Juni change command language. Shift to Hindi. यह पंक्ति मेरे दिल के क़रीब है । जिन मित्रों से पहले मैं हिन्दी भाषा में बात करता था और अगर उनके पूर्वज पश्चिमी पंजाब अब पाकिस्तान के मुलतान ज़िले से आये थे अब मैं उन्हें कहता हूँ कि अपनी बोली में बात करें । हालाँकि इस बोली को सरायकी नाम दिया गया है । लेकिन यह नामकरण सही नहीं है । 1947 में मुलतान ज़िले में खानेवाल, कबीरवाला और मैलसी तहसील शामिल थे । जनसंख्या में वृद्धि के कारण और ज़िला झंग का घालमेल करके सरायकी नाम दे दिया गया है । यह हमारी बोली से अन्याय है । शेष अगली टिप्पणी में ।
नींद में डॉरमन्ट् स्ट्रीक और जूनी को टूटे हुए और कमज़ोर विज़ुअल मिलना भी अवतार फ़िल्म की याद कराती है । ज़ुबान की हकलाहट और लड़खड़ाहट का अंतर भी मज़ेदार है । पिछले दो वर्षों में कोरोनावायरस लेखकों और कवियों की रचनाओं में व्यक्त हुआ है । प्रेमी और प्रेमिका या नव दंपति का भेद न कर सकना मज़ेदार है । मूसलाधार वर्षा के बीच स्कूटर पर इनका घूमना आह्लादक है । होने वाले पत्नी और पति को कुछ महीने साथ-साथ समय गुज़ारना एक-दूसरे को समझने में मददगार साबित होंगे ।