नलिन विलोचन शर्मा की इतिहास-दृष्टिगोपेश्वर सिंह |
नलिन विलोचन शर्मा (18 फरवरी 1916-12 सितम्बर 1961) बहुमुखी प्रतिभा संपन्न लेखक थे. वे हिंदी कविता में ‘प्रपद्यवाद’ के प्रवर्तक कवि थे. उनकी और उनके साथी कवियों की ‘प्रपद्यवाद’ संबंधी घोषणाओं और कविताओं ने हिंदी संसार को एकबारगी चौंका दिया था. लेकिन इस काव्य-प्रवृत्ति का आगे विकास नहीं हो सका. नलिन जी की कविता से अधिक बड़ी देन कहानी लेखन के क्षेत्र में है. उनकी कहानियों में सामाजिकता और मनोवैज्ञानिकता का बड़ा ही सफल गुम्फन हुआ है. अपने शिल्प और विषय के कारण उन कहानियों का हिंदी कहानी के इतिहास में विशेष महत्त्व है. लेकिन नलिन विलोचन शर्मा की विशेष देन आलोचना और इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में है.
नलिन जी अपनी मौलिक दृष्टि और दुर्लभ वैदुष्य के कारण आलोचना के क्षेत्र में जाने जाते हैं. अपने चिंतनपूर्ण लेखन के द्वारा उन्होंने आलोचना का नया मानदंड निर्मित किया. विषयवस्तु से अधिक रचना के शिल्प पक्ष पर अधिक जोर देने के कारण उन्हें रूपवादी कहा जाता है. लेकिन उनका रुपवाद रहस्यवाद का विरोधी और वैज्ञानिकता का आग्रही है. वे विज्ञान को कविता का पूरक मानते थे. उनकी मान्यता है कि रचना विषय के कारण नहीं, विषय के बावजूद अच्छी होती है. उन्होंने अपने आलोचनात्मक लेखन से हिंदी संसार को नए ढ़ंग से आंदोलित किया. वे हिंदी के बहु-उद्धृत तो नहीं, पर मान्य आलोचक हैं. आज वे जिस रूप में सर्वाधिक याद किए जाते हैं, वह है साहित्य के इतिहास-दर्शन के क्षेत्र में उनका मौलिक योगदान.
हिंदी साहित्य में जब इतिहास-दर्शन की चर्चा लगभग न के बराबर थी, तब उन्होंने ‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ (1960) पुस्तक लिखकर इस दिशा में सार्थक पहल की. हिंदी में साहित्य के इतिहास-ग्रन्थ तो धड़ाधड़ आ रहे थे, लेकिन इतिहास लेखन के लिए जिस दृष्टि और दर्शन का आधार चाहिए, वह एक सिरे से गायब था. रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी को छोड़ दें तो ‘आलोचनात्मक’, ‘वैज्ञानिक’, ‘नया’ आदि विशेषणों से युक्त होकर ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ नामक जो ग्रन्थ आ रहे थे, उनमें मौलिकता का नितांत अभाव तो था ही, उनमें छात्रोपयोगिता का चाहे-अनचाहे बड़ा दबाव था. ऐसे समय में ‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ लिखकर नलिन विलोचन शर्मा ने हिंदी साहित्य के इतिहास लेखकों के सामने नयी आधार-भूमि निर्मित की. इस पुस्तक के जरिए उन्होंने इतिहास-दर्शन का प्रश्न उठाया और इतिहास लेखन के लिए संतुलित भारतीय इतिहास-दृष्टि की ओर संकेत किया. उन्होंने कहा कि अब तक जो हिंदी साहित्य के इतिहास-ग्रन्थ लिखे गए हैं, उनमें भारतीय दृष्टि का अभाव है. उन्होंने इतिहास लेखकों पर आरोप लगाते हुए कहा-
“प्राच्यविद्या-विशारद पाश्चात्यों के अनुसार प्राचीन भारतीयों ने अपने अतीत का इतिहास प्रस्तुत नहीं किया, उनमें ऐतिहासिक विवेक था भी नहीं, हम जब आज के इतिहास-ग्रन्थ देखते हैं, तो हमारे मन में भी क्या कुछ ऐसा संदेह उत्पन्न नहीं होता.”
नलिन जी का मत था कि यह इतिहास-विषयक पश्चिमी दृष्टि है. इस दृष्टि से भारतीय इतिहास-दृष्टि प्रभावित-संचालित है. नलिन जी का विचार था कि इसी दृष्टि के कारण हम भारतीय भी यह मानने लगे हैं कि भारतीय वाङमय में इतिहास और इतिहास-दृष्टि का नितांत अभाव है. इस इतिहास विषयक पश्चिमी दृष्टि का नलिन जी ने जोरदार खंडन किया. उनका कहना था कि भारतीय साहित्य में न तो इतिहास की कमी है और न इतिहास-दृष्टि की. अपने मत पर जोर देते हुए उन्होंने कहा:
“वस्तुतः प्राचीन भारतीयों के द्वारा प्रस्तुत ऐतिहासिक सामग्री का अभाव नहीं है. इस संबंध में पाश्चात्यों की भ्रान्ति का कारण है भारतीयों की इतिहास विषयक विभावना. 19वीं सदी में इतिहास-लेखन की जो प्रणाली पश्चिम में प्रचलित थी, उससे भारतीय प्रणाली सर्वथा भिन्न थी. पश्चिम के तत्कालीन स्वीकृत प्रतिमानों के सहारे पाश्चात्य विद्वान न तो भारतीय साहित्य और कलाओं के साथ न्याय कर सके, न यहाँ की प्राचीन इतिहास-लेखन प्रणाली की विशेषता समझ पाए.”
पश्चिमी इतिहास-दृष्टि के अनुसार तिथि-क्रम, भूगोल आदि इतिहास की आँख हैं. इस तरह के मत से नलिन जी सहमत नहीं थे. वे तिथि-क्रम और भूगोल को इतिहास की आँख मानने के आत्यंतिक रूप से समर्थक नहीं थे. उनका कहना था कि तिथि-क्रम और भूगोल का आग्रह भारतीय इतिहास-दृष्टि में समाहित नहीं है. वे कहते हैं कि हमारे अनेक प्राचीन ग्रंथों, मसलन- अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण, जैमिनीय वृहदारण्यक, छान्दोग्योपनिषद् आदि ग्रंथों में ‘इतिहास’ शब्द का उल्लेख मिलता है. वे यह भी कहते हैं कि पुरुषार्थ चतुष्टय यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- में मानव-जीवन तथा सभ्यता का हरेक क्षेत्र शामिल है. उनके अनुसार भारतीय इतिहास-दृष्टि का आधार यही है.
पश्चिमी प्राच्याविद् विद्वान पुराणों को इतिहास के लिए विश्वसनीय सामग्री नहीं मानते थे. वे पुराणों को इतिहास मानने से ही इंकार करते थे. नलिन जी ने पुराणों को इतिहास-सामग्री न मानने की पश्चिमी-दृष्टि का विरोध किया. वे मानते हैं कि प्राचीन भारतीय इतिहास की आधार सामग्री के सबसे बड़े श्रोत हमारे पुराण ही हैं. उनका मत है:
“…..पुराणों में राजवंशों, उनके समय और राजत्व-काल के स्पष्ट और निश्चित उल्लेख मिलते हैं, जिसे आधुनिक विद्वान प्रागैतिहासिक कहते हैं. उस काल से लेकर ऐतिहासिक युग तक की विस्तीर्ण अवधि के समस्त राजवंशों की तिथि क्रमानुसारी जो तालिकाएँ पुराणों में सुलभ है, उनके अभाव में प्रत्नतात्त्विक तथा मुद्राशास्त्रीय शास्त्र की प्रचुरता के बावजूद, प्राचीन भारतीय इतिहास का पुनर्निर्माण असंबद्ध सिद्ध होगा.”
नलिन जी पाश्चात्य प्राच्यविदों की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि वे पुराणों से इतिहास की सामग्री भी लेते हैं और उन्हें भरोसे लायक भी नहीं मानते. नलिन जी का कहना है:
“भारतीय इतिहास के पाश्चात्य इतिहासकारों ने, पुराणों को अविश्वसनीय घोषित करते हुए भी उन्हीं के आधार पर राजाओं के नाम और उनका राजत्व काल निर्धारित किया है.”
नलिन विलोचन शर्मा कवियों के बारे में प्रचलित किंवदंतियों को प्राचीन भारतीय साहित्य के इतिहास लेखन में महत्त्व दिए जाने के समर्थक हैं. उनका मत है कि साहित्य के इतिहास लेखन में किंवदंतियों का बहुत महत्त्व होता है. उनके अनुसार किंवदंतियाँ साहित्य-इतिहास की बड़ी आधार सामग्री हैं. इसी तरह नलिन जी प्राचीन सुभाषित संग्रहों को भारतीय साहित्य के इतिहास लेखन में उपयोग किए जाने पर जोर देते हैं. उनके अनुसार सुभाषित संग्रहों का संस्कृत साहित्य के इतिहास लेखन में बहुत महत्त्व है. सुभाषित संग्रहों को वे आधुनिक काल का ‘कवि-वृत्त’ संग्रह कहते हैं. उनका कहना है:
“जब प्राचीन परंपरा तथा गौण कवियों की कृतियों के नष्ट हो जाने की आशंका यहाँ के विद्वानों को हुई, तब उन्होंने सुभाषितों के ऐसे संग्रह तैयार किए, जिनमें मुख्यतः गौण कवियों की रचनाओं में दृष्टान्त-स्वरुप छंद विभिन्न शीर्षकों के अंतर्गत सुरक्षित हो गए.”
उनका यह भी कहना है कि प्राकृत के सुभाषित संग्रहों से विस्मृत प्राय कवियों के बारे में सूचना मिलती है. वे पालि भाषा में रचित अनेक पुस्तकों का हवाला देते हैं जिनसे उनके अनुसार पालि भाषा और साहित्य का इतिहास निर्मित होता है. उन्होंने संस्कृत के कुछ महत्त्वपूर्ण सुभाषित संग्रहों का उल्लेख करते हुए उनके आधार पर संस्कृत के गौण कवियों की तालिका भी प्रस्तुत की है.
नलिन विलोचन शर्मा अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास-दर्शन’ में भारतीय इतिहास-दृष्टि पर जोर देते हैं. इसका यह मतलब नहीं है कि वे पाश्चात्य इतिहास-दृष्टि की उपेक्षा के समर्थक हैं. इसका मतलब यह भी नहीं कि वे दकियानूस-पुराणपंथी हैं. वे पदार्थवादी थे, अपादमस्तक आधुनिक थे. उन्होंने अपनी पुस्तक में अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, रुसी आदि भाषाओं के साहित्येतिहास-दर्शन का उल्लेख किया है. हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन के लिए वे जहाँ भारतीय इतिहास-दृष्टि को आवश्यक मानते हैं, वहीं पश्चिमी इतिहास-दृष्टि की आधुनिकता को भी आवश्यक मानते हैं. टी.एस. इलियट की ‘परंपरा’ संबंधी अवधारणा का नलिन जी समर्थन करते हैं और मानते हैं कि वह अंततः इतिहास-दृष्टि ही है. इलियट की ‘परंपरा’ संबंधी अवधारणा की चर्चा नलिन जी अपने आलोचनात्मक लेखों में तो करते ही हैं, इतिहास-दर्शन वाली पुस्तक में भी करते हैं. नलिन जी ने इतिहास, शोध और आलोचना में अंतर करने पर जोर दिया है. उनके अनुसार इस अंतर को ध्यान में नहीं रखने के कारण साहित्य का अध्येता किसी के साथ न्याय नहीं कर पाता. उन्होंने लिखा है:
“इतिहास सम्पूर्ण विस्तार का सर्वेक्षण, अनुशीलन और मूल्यांकन है, शोध विस्तार के खंड-खंड का उद्घाटन और विश्लेषण करता है; और आलोचना पथ-चिन्हों पर प्रकाश केन्द्रित करती है. तीनों एक-दूसरे के लिए आवश्यक और पूरक होते हुए भी स्वतंत्र महत्त्व के अधिकारी हैं.”
भारतीय और पाश्चात्य साहित्य इतिहास दृष्टियों की चर्चा के बाद नलिन जी कहते हैं कि साहित्य का इतिहास वस्तुतः गौण लेखकों का इतिहास है. उनका मत है:
“साहित्यिक इतिहास का विषय भी यदि विस्तार है, महान लेखकों से अधिक महत्त्व उन गौण का है जिनसे विस्तार निर्मित होता है. हिंदी साहित्य के इतिहासों में इन महान गौणों की उपेक्षा हुई है और उसका कारण यह है कि शोध ने अपने वास्तविक कर्त्तव्य का पालन नहीं किया है; वह उन पथ-चिन्हों तक सीमित रहा है, जो वस्तुतः आलोचना के विषय है.”
नलिन जी का कहना था कि सौ-दो सौ साल पहले के सैकड़ों गौण लेखकों का नाम हमारे ही समय में लुप्त हो चुका है. इसी के साथ उनका यह भी कहना था कि आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल के बहुत-से गौण कवियों की रचनाएँ लुप्त हो गई हैं और उनके बारे में तात्विक शोध की आवश्यकता है. जब तक हम इन गौण लेखकों की रचनाएँ सामने नहीं लाते तब तक इतिहास लिखना पुराने का ही ‘पिष्ट-पेषण’ होगा. नलिन जी का यह भी मानना था कि बहुत-से कवियों ने सिर्फ मुक्तकों की रचना की जो पुस्तक रूप में संगृहीत नहीं हुईं. उनके अनुसार जैसे संस्कृत में सूक्ति संग्रह बनें वैसे ही हिंदी में ‘हजारा’ साहित्य की रचना हुई. उनका कहना है कि हिंदी के सैकड़ों कवियों के मुक्तक सिर्फ ‘हजारा’ साहित्य में ही मिलेंगे. वे ‘हजारा’ साहित्य को हिंदी साहित्य के इतिहास के लिए महत्त्वपूर्ण आधार मानते हैं. परमानन्द सुहाने के ‘नख शिख हजारा’ के आधार पर उन्होंने गौण कवियों की एक लम्बी सूची प्रकाशित की.
नलिन जी साहित्य के इतिहास लेखन के लिए तात्विक शोध की आवश्यकता पर जोर देते हैं. यह उनके साहित्य इतिहास-दर्शन का ही दूसरा पहलू है. वे शोध के नाम पर आलोचना लिखने को अच्छा नहीं मानते थे. अपने एक प्रसिद्ध निबंध ‘तात्त्विक शोध-समस्या’ में उन्होंने लिखा है:
“साहित्यिक विषयक तात्त्विक शोध न तो सर्वथा अज्ञात का आविष्कार होता है, न सुपरिचित का अनुशीलन; स्वल्प परिचित और गौण लेखक की उपेक्षित एवं दुर्लभ कृतियों का सश्रम संपादन और विश्लेषण ही तात्त्विक शोध माना जा सकता है.”
इसी के साथ उनका यह भी कहना है:
“तात्त्विक शोध तो हिंदी के उन कवियों पर ही किया जा सकता है, जो साहित्य इतिहास में युग विशेष के गौण कवियों के रूप में अनिवार्यतः उल्लेख के भी योग्य माने जाते हैं और जिनके अध्ययन के लिए पाठ-सामग्री का अभाव भी बना हुआ है.”
इससे स्पष्ट होता है कि इस तरह के शोधकार्य से आलोचना के लिए भी सामग्री मिलती है और साहित्य-इतिहास-लेखन के लिए भी.
साहित्य के इतिहास संबंधी दर्शन की चर्चा करते हुए नलिन जी ने हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन और इतिहास-लेखकों की भी चर्चा की है. विशेष रूप से रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहास-ग्रंथों की उन्होंने चर्चा की है और दोनों का अंतर भी बतलाया है. यह अंतर मूलतः इतिहास-दृष्टियों का है. उन्होंने रामचंद्र शुक्ल को ‘सर्व प्रथम सुव्यवस्थित साहित्यिक इतिहास’ लिखने का श्रेय दिया है. ‘स्वकालीन पाश्चात्य वैदुष्य की उपलब्धि को विलक्षण सजगता’ के साथ अपनाने के लिए उनकी प्रशंसा भी की है. लेकिन इसी के साथ उनकी इतिहास-दृष्टि को ‘विधेयवादी’ कहकर उसकी आलोचना भी की है. शुक्ल जी की इतिहास की सीमा नलिन जी की नजर में यह भी है कि उसका ‘स्वल्पांश ही प्रवृत्ति-निरूपण-परक है, अधिकांश विवरण-प्रधान’ है. नलिन जी हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहास-लेखन को महत्त्वपूर्ण मानते हुए उसकी प्रशंसा करते हैं. उन्होंने लिखा है:
“द्विवेदी जी अनेकानेक शुक्लोत्तर इतिहासकारों की तुलना में, हिंदी में पहली बार-कदाचित समस्त भारतीय भाषाओं में सबसे पहले- आचार्य शुक्ल द्वारा प्रवर्तित, विधेयवादी साहित्य इतिहास से भिन्न, साहित्यिक साहित्येतिहास लिखने के श्रेय के अधिकारी सिद्ध होते हैं. साहित्यिक प्रवृत्तियाँ और परम्पराओं की उद्गम-मीमांसा उनकी इसके पहले से गृहीत प्रणाली रही है.”
आगे चलकर नलिन विलोचन शर्मा की साहित्येतिहास दृष्टि की आलोचना भी हुई. मैनेजर पाण्डेय ने शुक्ल जी की इतिहास-दृष्टि को विधेयवादी मानने से इंकार किया और नलिन जी के मत का खंडन करते हुए उन्होंने शुक्ल जी के इतिहास संबंधी दृष्टिकोण को ‘ऐतिहासिक और वस्तुवादी’ माना. उन्होंने यह भी कहा: “आलोचनात्मक विवेक उनकी इतिहास-दृष्टि की केन्द्रीय विशेषता है.” लेकिन विधेयवाद संबंधी आरोप को छोड़ दें, तो भी नलिन जी जिस भारतीय इतिहास-दृष्टि की बात करते हैं और उसके उदहारण के रूप में हजारी प्रसाद द्विवेदी के इतिहास को रखते हैं, वह क्या विचारणीय नहीं है? जब साहित्येतिहास के क्षेत्र में शुक्ल जी की दृष्टि की ही प्रधानता थी, तब नलिन जी ने साहित्येतिहास के क्षेत्र में भारतीय दृष्टि का प्रश्न उठाया. यह साहित्येतिहास की नई दृष्टि थी. साहित्य के इतिहास-दर्शन की चर्चा जब हिंदी में लगभग न के बराबर थी, तब उन्होंने ‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ जैसी गंभीर पुस्तक लिखकर इस दिशा में सार्थक हस्तक्षेप किया और साहित्य के इतिहास-दर्शन की आधारशीला रखी. साहित्येतिहास दर्शन से संबंधित उनकी उस पुस्तक का ऐतिहासिक महत्त्व है.
गोपेश्वर सिंह 38/4 छात्र मार्ग, दिल्ली विश्वविद्यालय दिल्ली- 110007 gopeshwar1955@gmail.com |
साहित्येतिहास दर्शन पर हिंदी साहित्य के संदर्भ में गंभीरता के साथ विचार करनेवाले विद्वानों में नलिन जी संभवतः पहले विद्वान आलोचक हैं।
याद रहे कि रेणु के मैला आँचल के युगांतरकारी महत्त्व को सर्वप्रथम जब नलिन जी ने रेखांकित किया था तब उसका राजकमल प्रकाशन से प्रकाशन संभव हो पाया था।
दिनकर-काव्य को नलिन जी ने विचारों का संगीत कहा है।
ऐसे बड़े विद्वान-आलोचकों की याद नई पीढ़ी को बारम्बार दिलाई जानी चाहिए
नलिन जी के योगदान पर बंधुवर प्रोफेसर गोपेश्वर सिंह का यह आलेख सुचिंतित आलोचनात्मक लेखन का एक नायाब नमूना है। साधुवाद।