लंबी कविता
जल है, पर जल नहीं, दूर तक दिगंत मेंरोहिणी अग्रवाल |
जब कहती हूँ कविता
टी. एस. इलियट के हाथ से फिसल कर
‘द वेस्ट लैंड’ बहने लगती है मेरी शिराओं में
नदिया की तरह,
अतल गर्भ जिसका
बारिश की फुहारों से भीगा है
और गड़गड़ाते बादलों से आ रही हैं
मन्त्रविद्ध समवेत पुकारें-
द द द इति दाम्यत (आत्म-नियंत्रण)
दत्त (समर्पण)
दयध्वम् (करुणा)
ओऽम शान्ति: शान्ति: शान्ति:!
जन्म जन्मांतर की प्यास से बिंधा तन
आस में अकुलाने लगा एकाएक
अंजुरी बाँध जाती हूं वहाँ
थर्रा जाती हूं आकंठ –
रेत की नदी!
सूखी निष्प्राण रेत की नदी!
सरसरा कर बहने के निशान
ताज़ा कटे ज़ख्म सरीखे
रिस रहे हैं जिस्म से अनेक!
आह! अमृत के चाव में गरल का कैसा वैभव विकराल!
“पलायन नहीं, मंथन!
मंथन है संघर्ष !
अनवरत! अविराम!
मंथन प्रक्रिया है परिणाम नहीं
साँस की तरह अनथक
दिशाओं की तरह अनंत!”
कवि ने झांका है
मेरी ख़ौफ़ज़दा विस्फारित आँखों में
रुक गया है दिक-काल जैसे सब वहां
रेत की सूखी नदी-
ठिठकी टूटी रेतीली लहरों में
अवरुद्ध हैं नर्तन के गहरे लास्य
भरे हैं पत्थर कांटें वीरानियां
धू-धू जलते अलाव हैं वहां
प्यास से पपड़ाई ज़मीन
जैसे खरोंच कर पाताल
उतर गई हो योजनों परत नीचे
रह गई हैं मातम मनाती दरारें
गड्डे और कंटीली वनस्पतियां
कुछ पिंजर कुछ कंकाल
मुसाफ़िरों ने आना छोड़ दिया है
और गिद्धों ने तलाश लिए हैं
लज़ीज़ माँस के नए ठौर!
नमी निगल कर रेत ने
रोक दिया है वक़्त
वक़्त ने काट दी है ज़िंदगी की नस
बस सांय-सांय ध्वनियाँ हैं चहूँ ओर
हवाओं की उखड़ती साँस की साक्षी.
पानी के बिना हवाएं भी नहीं रहेगी ज़िंदा
देर तक
जुगलबंदी के दो पैरों के बिना
एक दिन भी नहीं चल पाती ज़िंदगी.
झाग निकलने लगा है शेषनाग के मुंह से
श्रम-श्लथ देव और दानवों के बदन पर
छिटकने लगे हैं छींटे गरल के
बिसर कर सब्र और संयम
फुफकारने लगा है आक्रोश
“कब तक?
कब तक परिणामविहीन मंथन?
कहीं यातना का यह नया अचूक हथियार तो नहीं?”
मेरे ख़ौफ़ज़दा विस्फारित नेत्रों में
उतर आयी है छवि धीर प्रशांत कवि की-
“रुको नहीं! करती रहो मंथन!
बाँट लो अपने को दो में
फिर चार
फिर अनगिन
विस्तार करके अंतःशक्तियों का,
अंतस में पड़ी अलसा कर जो
क्षय ही करती हैं ख़ुद का.
सर्वस्व देकर पूरना न आए
तो चलो, प्रतिपक्ष बन जाओ मेरा
मैं चलाता हूँ मथनी इस ओर
तुम खींच लेना डोर वहां
चलता रहे सामंजस्य का नर्तन
विपरीत में भी
विद्रूप में भी.
मंथन में गति है
गति में समन्वय
समन्वय में विश्वास
पंडोरा के संदूक की गुह्यतम परतों से
ढूँढ लाएंगे नगीना आस का
मिल जुलकर साथ-साथ!”
“मंथन! मंथन! अनवरत अविराम!
रुकते ही
बन जाएगा गरल अंतिम फल धरा का,
रह जाएंगी अमिय की अशेष पोटलियां
क्षीरसागर की गहराइयों में ही
शेषनाग की गुंझलकों में नागमणि सी दमकती,
नहीं प्रवेश पा सकते जहाँ
भील-निषाद
वाल्मीकि या मामूली नर
नारायण के निषिद्ध लोक का हर द्वार अभेद्य है
हर मार्ग भूलभुलैया
वहाँ सतत चौकस आँखों में
दहकाते हैं पहरेदार भट्टियां ज्वालामुखी की
और सांसों में जहर की लपलपाती सर्प-जिह्वाएँ.
सुरक्षा-चक्रों के बीच भीत नारायण
कांपता है सदा
शयन-मुद्रा में भी तमाम हथियारों से चाक चौबंद.”
(2)
डूबती हूं टी. एस इलियट में
तो उबर आते हैं रहीम
‘बिन पानी सब सून’
पानी की अर्थव्यंजनाओं में
जल की शीतलता नहीं रहती तब
न रहती है जल की तरलता मात्र
हया की आब से लेकर पीयूष के दुर्लभ कोश तक
दहाड़ते ज़ोर से लेकर कूटनीतियों के निबिड़ मौन तक
सांस से लेकर प्रकृति की निरंतरता तक
स्फटिक सा बहता पानी
बदल लेता है रंग
और आकार अपना
पात्र-कुपात्र की परवाह किये बिना.
‘तीसरा विश्वयुद्ध पानी पर मिल्कियत को लेकर होगा’ –
पेट्रोल के कुओं पर क़ब्ज़े से भड़की प्यास के बाद
चली आती हैं ताज़ातरीन मुनादियां
चेतावनी की पालकी में बैठ
रेशम के अस्तर में छुपा कर मिसाइलें बारूद की.
सद्दामों को नहीं दी जाएंगी तब फांसियां
न ईदी अमीन को गढ़ कर प्रतीक बर्बरता का
प्रतिद्वंद्वी के चेहरे पर पोस्टर सा चिपकाया जाएगा
न रहीमों को कुचला जाएगा
हाथियों के पाँव तले
न चंगेज़-तैमूर उतरेंगे सड़क पर
लूट को अंतिम अंजाम देने.
सीने में सीधे उतार दी जाएंगी गोलियां
हलक में दो घूंट पानी छुपाने वाले काफिरों के
ख़ौफ़ का सबक़ सिखाना सबसे बड़ा धर्मयुद्ध बन जाएगा.
चलती रहेंगी बातें अहिंसा की, सद्भावना की
बना कर अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं शांति की
मानवाधिकार की,
मानने वाले मानते रहेंगे
हिन्दू धर्मशास्त्रों का विधान
ईश्वर जहाँ चतुर्भुज-सहस्त्रभुज होते हैं
हर हाथ में लिए रहते हैं
ज़माने भर के मारक हथियार.
संरक्षित की जाने वाली संत्रस्त प्रजातियाँ
बिलकुल निहत्थी
प्रशिक्षित की जाती रहेंगी
नंगे सीने पर वार झेलने के लिए.
ईश्वर के षड्यंत्र और संत्रास की संतान है मनुष्य!
ईश्वर जियस हो या इंद्र
पहन कर दाता का लबादा
मनुष्य से ही माँगता है हविष्यान्न
बदले में तनी रहती है भृकुटि
और दमन के कई-कई जतन.
छीन लेता है पसीना उनका
चूस डालता है लहू.
मनुष्य बनाता है आग
पकाने को अन्न
सेंकने को बदन
गर्माने को संबंध
ख़ूँख़ार जानवर सरीखे ईश्वर से हो बेख़ौफ़
घूमता है जब प्रसन्न मन
दुनिया का कर्तार वह क़ब्ज़ा लेता है आग
मायावियों की फौज भेज कर.
नाफ़रमानी पसन्द नहीं ईश्वर को
न कोई बलवा न दंगा
देवता की जमात से उठ आता है कोई प्रोमीथियस जब
बचा लेने साझा स्वत्व मनुष्य का
साझा स्वाभिमान
ताक़त के मद में कुचल देता है उसे
जैसे इन्द्र कुचलता है वृत्रासुर को.
(ताकत के मद में खौफ का पारा भी मिला रहता है अकसर!)
दोनों भाई बाँट कर आधा-आधा ग्लोब
कुचल देते हैं संतोष का संवेग
आक्रोश का स्वर.
विप्लव का राग अलापती चेतना की आज़ाद रूहों से
भयभीत है ईश्वर
शयन-मुद्रा में भी रहता है तमाम हथियारों से चाक चौबंद
दोनों हैं मेघों के स्वामी
बादलों को पेट की अतल गहराइयों में कीलित कर
माँगते हैं हविष्यान्न सदा,
रक्तपिपासु रिक्तहस्त ईश्वर के पास से
लौट आती है सब पुकारें अनसुनी
गूंजती रहती हैं लेकिन रंगमहल में उनके सदा
वंशी की मृदु मधुर ध्वनि.
सचमुच लीलामय है ईश्वर!
अपरिभाषेय! अपौरुषेय!
अव्यक्त! और व्याप्त सर्वत्र!
(3)
गायत्री मन्त्र की तरह जपने लगती हूं
अनुपम मिश्र का नाम
कि मेघ मल्हार बैजू बावरा के संग कुमुक बन कर
छुड़ा लाएं बंदी बादलों को
भर दें सब रिक्त जलाशय लबालब
आस्थावान नागरिक की तरह खुदवाए हैं जो हमने
उत्साह को देखकर
उत्साह
भरता हैं पींगें उल्लास की
उल्लास में गुथ जाती है
कर्मठता की ऊर्जा
सपनों का रंग गुलाबी.
स्तब्ध सिर धुनता टी. एस. इलियट
ऊर्जस्वित हो मेरे हुलास से
डुबकी लगाकर खींच लाता है
विश्व की तमाम सभ्यताएं-संस्कृतियां
रेत की उस सूखी पथराई नदी में
पोंछ देता है उनकी रक्तरंजित रंजिशें
खोल देता है गिरहें नफ़रत की
संधि-वार्ता की मेज़ पर ले आ कर उन्हें
तोल देता है कुल परिसंपत्तियां
देना-पावना उनका
समूचा ऋणात्मक-धनात्मक कोषागार.
लो!
(मैं परिणाम से पहले प्रतिक्रिया में नाचने लगी हूं उन्मत्त!)
रेत के होंठों पर फूट पड़ेगी जलधार अब
उमड़ आएंगे पशु-पाखी
वनस्पतियां लुकी-छिपी
चरवाहे और बंजारे
दरवेशों के दल
कारवां सौदागरों के,
आतंक में गहरे छुपी मछलियां
करने लगेंगी कलोल समुद्र की छाती पर
(गहरी राजदारी में कभी बताया था उन्होंने
दरकी ज़मीन की छवियाँ
आँखों में भर लेने पर
पानी के घर भी रेत से किरकिराने लगते हैं).
उठ आए हैं संधि-वार्ता की मेज़ से
नुमाइंदे सारी सभ्यताओं के
राष्ट्राध्यक्ष और शीर्ष अधिकारी मुख़ातिब हैं प्रेस से
चाशनी में लिथड़ी मुस्कान के साथ
दो अंगुलियों की ‘वी’ बनाकर
खिंचवाते हैं फ़ोटो आलीशान
‘सुलझा ली हैं हमने सारी गुत्थियां
मनुष्य के लिए समर्पित हमारी सेवाएँ महान!’
लेकिन इलियट के चेहरे पर ये हवाइयां कैसी?
मैं सोचने से पहले
झटक देती हूँ सोच को
उत्सवधर्मिता के इस माहौल में
उत्सवप्रिय ईश्वरों के साथ
उत्सव के आनंद को भर लेती हूँ अंतड़ियों में
भूख के कण चिपके हैं जहाँ अपार.
नृत्य के आवर्तन में
घुल-मिल जाती हैं सब ध्वनियां
सब रंग सब आकार-प्रकार
सच में घुस कर झूठ
सत्य बन जाता है प्रखर
उन्माद का वहशीपन
ओढ़ लेता है मुखौटा विश्वास का
और तर्क को चाट कर भावुकता
हर अवसर को महारास का आयोजन बना देती है.
घुमेरियों का विक्षिप्त उन्माद
मूँद देता है सारी ज्ञानेन्द्रियाँ
हाथ पकड़ कर नचाता है जो मुझे
मैं उसी में तदाकार हो जाती हूँ.
पर सूखी रेतीली नदी में नहीं उमड़ी
पानी की धार हरहराकर
कहीं-कहीं झलकी हैं बूंदें कुछ
रेत के सुनहरे आवरण पर
चिपचिपे बदनुमा धब्बों की तरह.
‘क्या है यह? क्या है?’
आश्वासन और उत्सव के दौरान
जो भीड़ उमड़ आयी थी नदी तट पर
एक-दूसरे के चेहरे पर पढ़ अपना सवाल
शब्दों को घोंट भीतर ताकती रही रेत निर्निमेष.
जीवित थीं जिनकी स्मृतियाँ
नथुने उनके फड़फड़ाने लगे
मुंदने लगीं पलकें ज्यों नशे में झूमते हों –
‘पानी की बूँद जब
समागम करती है चिर तृषित मिट्टी से
ढांपने को नर्म नाज़ुक परणाई लाज
फिज़ां में घोल देती है अवगुंठन
चंदन-अगरु की बेसुध करती जादुई सुवास का.’
सुवास?
दुर्गंध उठ रही है यह तो
चीखा कोई भय से सिहर कर
अचानक लिसलिसे चकत्ते रेत के
चौड़े हो गये
फिर लगे वेग से दौड़ने होड़ लगाकर तड़ित से
आंखें जब तक दृश्य को भरतीं आँख में
बीत गया पल
रह गई रेत में गुंथी रेत
छूटी हुई केंचुल की तरह.
सियार अलबत्ता सूंघते-सूंघते कुछ
आ निकले इधर ही
झुंड के झुंड!
अपशकुन! अपशकुन!
शब्द नहीं मौन बुदबुदाया है
बेदख़ल हुई घड़ी अचानक
थर्राहट समय को नापने का यंत्र नया बन गया है.
खून के चिपचिपे धब्बों को लेकर
दौड़ गई थी जो कहीं
शर्मसार रेतीली नदी
लौट आयी है संत्रस्त अपराधिनी-सी
कल-कल छलकते पानी में
रक्त टपकाती लाशों का अंबार लेकर
मानो काल के संकरे वृत्त में फंस कर
पहुँच गई हो सैंतालीस में
(चाहें तो प्रतिस्थापित कर सकते हैं दो हज़ार दो से इसे
या छांट लें कलैंडर से कोई भी मनपसंद तिथि)
अमृतसर-लाहौर, लाहौर-अमृतसर
ज़िंदा हुलसती इनसानी आस पर
कफन ओढ़ा कर बर्बरता का
लाशों को यहाँ से वहाँ
वहाँ से यहाँ ढो रही हो वतन की ज़मीन देने,
मानो जलावतन की पीड़ा ही
दुनिया का सबसे बड़ा शोक है
हिंसा नहीं अपराध जघन्यतम
वह तो आक्रोश की तात्कालिक प्रक्रिया भर है
उमड़ आया है तमाम नदियों का जल
उन अनाम लाशों का तर्पण करने
खूँद कर जिन्हें सियारों ने रेत की ऊपरी परत से
उघाड़ दी है ईश्वर की शर्म.
हम सब के कंठ में प्यास के कांटे फड़फड़ाने लगे है.
जल है
पर जल नहीं
कॉलरिज का बूढ़ा जहाज़ी
बड़बड़ा रहा है बार-बार सदियों के पार
‘वॉटर वॉटर एव्री व्हेयर, नॉट एनी ड्रॉप टू ड्रिंक.’
अपने-अपने एयर कंडीशन्ड क्षीरसागर में
विश्राम कर रहे हैं ईश्वर
छोटे-बड़े तमाम
विपुल ऐश्वर्य के अतुल स्वामी
दरबार-ए-ख़ास सजाते हैं आसमान में
शयन करने पाताल की गहराइयों में जाते हैं
दिन भर खेलते हैं शिकार
शिकार के जनूनी वे-
धरती की शिकारगाह पर
उन्माद में थिरकते हुए,
मनुष्य के लिए इंच भर जगह नहीं छोड़ते
अपनी मर्ज़ी से चलने-जीने के लिए.
नहीं पहुँचती आर्त पुकार कानों में उनके
नहीं दौड़ते वे नंगे पैर
भोजन की थाली से उठ कर
निर्बल का हाथ गहने
गढवा ली जाती हैं भावुक कीर्ति-कथाएं
भाड़े के भाट-चारणों से
उनके अद्भुत औदार्य और शौर्य अभियानों की
(भावुकता से निचोड़ कर विवेक का कण-कण
मूर्ख विश्वसनीयता का भूसा
भर दिया जाता है अपरिमित)
भविष्य की पीढ़ियों को सुनाने के लिए
ताकि सनद रहे
(सुनाने का लक्ष्य संवाद नहीं, थर्राना है
शक्ति प्रदर्शन का नायाब औज़ार)
कॉलरिज का बूढ़ा नाविक गुहार नहीं लगाता परित्राण की
मार्गदर्शक पाखी के वध के संत्रास में
तिल-तिल कल्मष दोहराता है अपने
अन्तःकरण की शुद्धि नहीं होती तब भी.
सत्ताधीशों-राष्ट्राध्यक्षों के जाने के बाद
परित्यक्त-सी सभ्यताएं किंकर्तव्यविमूढ़
न पाकर ग्लोबल विलेज में कोई नया ठौर
इतिहास के पीले पन्नों में दुबकने लगीं जब
देखा उन्होंने समुद्री लहर की तरह
उच्छ्ल अटूट गतिशील
यह बूढ़ा जर्जर नाविक
पाखी की मृत देह को सूली की तरह टाँग गले में
ख़ुद ईसा बन गया है
वृत्त में आ गई वे चहूँ ओर बूढ़े ईसा के
करने लगीं प्रायश्चित
अपने हर उपहास और अपराध का
पाखंड और आत्ममुग्धता का
वहशत और दहशत का.
‘समुद्र के गर्भ में नमक का खारा अ-पेय जल
क्या हमारे ही क्रमिक अपराधों ने उडेला है?’
सिर धुनती रहीं बार-बार-
जल है, पर जल नहीं
दूर तक, दिगंत में
प्यास से दग्ध कंठ
बूँद पाएं कहाँ से?
सीखी-रटी सारी प्रार्थनाएँ
समर्पित थीं ईश्वर को
हमने प्रार्थना में उठे हाथ गिरा दिए नीचे
फिर बाँध लिए मुट्ठी में
सीने पर कस कर
जहां भोर की उजली हंसी सा हौसला
चोंच में दबा कर प्रेम का पैगाम
उड़ने को व्याकुल है
सदियों से
सीने पर तनी तमाम शिलाएं
ढहा दी हैं जतन से,
पखेरुओं के कलरव से
गूंज गया है आसमान
नन्हे बादल का टुकड़ा
डगमग डोलता शिशु-उछाह में
खिलखिला पड़ा अनायास,
हताशा के चरम को बींध
नवांकुर फूटता हो जैसे कोई.
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग महर्षि दयानंद विश्व विद्यालय, रोहतक, हरियाणा rohini1959@gamil.com |
सद्दाम हुसैन और ईदी अमीन की बर्बरता के साथ साथ व्लादिमीर पुतिन और शी जीनपिंग को भी नये बर्बर व्यक्तियों में शुमार कर लीजिये । मिखाइल गोरबाचेव 1986 रशिया की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और राष्ट्रपति बने थे । तभी उन्होंने व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की स्वतंत्रता को मान्यता दी थी । रशिया की भाषा में perestroika and glasnost कहा जाता है । सोवियत संघ का अप्राकृतिक संगठन टूट गया । और पंद्रह राष्ट्रों को मास्को से मुक्ति मिल गयी । मास्को भीतर भीतर तानाशाह बनने के लिये सुलगता रहा । और पुतिन का उदय हुआ । 1991 में रशिया में आपातकाल घोषित कर दिया गया । वहाँ के सरकारी (ग़ैर सरकारी टेलिविज़न नहीं है) टेलिविज़न के पर्दे पर शांति का प्रतीक बत्तख़ पानी में तैरती हुई दिखायी जाती रही । अंततः व्लादिमीर पुतिन नाम का नया तानाशाह सत्ता पर क़ाबिज़ हो गया । वहाँ की ड्यूमा (संसद) में क़ानून में संशोधन कराने के बाद ख़ुद को 83 साल की उम्र तक राष्ट्रपति बने रहने की व्यवस्था कर ली । इसी तानाशाह ने यूक्रेन पर हमला कर दिया । यूक्रेन में व्यक्तियों और वस्तुओं के बिलख बिलख कर विलाप करना शुरू कर दिया । पुतिन के लिये सुरक्षा परिषद कोई मायने नहीं रखती । यूक्रेन के राष्ट्रपति ने इनकार किया था कि उसका देश North Atlantic Treaty Organisation का सदस्य नहीं बनना चाहता । पुतिन ने Treaty में शामिल होने को बहाना बनाकर यूक्रेन पर एकतरफ़ा हमला बोल दिया । वहाँ व्तय और वस्थात के विलाप सुनायी देने लग गये । सायरन बजने की आवाज़ें सुनायी देने लगी । चीन के राष्ट्रपति शी जीनपिंग ने पुतिन की मज़म्मत नहीं की बल्कि उसी के साथ मिलकर सुर में सुर मिला रहा है ।
ईश्वर है या नहीं है इसका उत्तर न आपके पास है और न मेरे पास । वह अपने होने की ख़बर भी नहीं देता । आपने उसके हाथों में प्रतीक स्वरूप बने अस्त्रों को आक्रामक बना दिया । ईश्वर अनुपस्थित है । उसने व्यक्ति की परम स्वतंत्रता में दख़लंदाज़ी नहीं दी है । इतना हस्तक्षेप भी नहीं कि किसी को सुखी करने की कोशिश करे । रोहिणी जी अग्रवाल कृपया ईश्वर को खलनायक न बनायें । टी एस इलियट को उद्धृत करें । अपनी शिराओं में रक्त के बहने का बिंब लिखें । सब सही है । शब्दों के इस्तेमाल की कारीगरी में मश्गूल रहें । सिर्फ़ शब्दाडंबर से काम नहीं चलेगा । आपकी दिनचर्या के सुख-दुख और संताप भी होंगे । बच्चों की पढ़ाई-लिखायी की चिंता शामिल होगी । क’रिअर बन गया है तो उनके विवाह की तैयारी की चिंता में होंगी ।
‘मेरे बच्चों को अल्लाह रखे, इन ताज़ा हवा के झोंकों ने ।
‘मैं खुश्क पेड़ ख़िज़ाँ का था, मुझे कैसा बर्ग-ओ-बार दिया ॥
महत्वपूर्ण कविता है। लेकिन इसे कहीं-कहीं सम्पादन की ज़रूरत है, उसी तरह जैसे “The Waste Land” को इज़रा पाउंड ने सम्पादित किया था। तब यह कविता और भी कस जाती। कॉलरिज की कविता “The Rime of Ancient Mariner” के प्रसिद्ध वाक्य के उद्धरण में कुछ अशुद्धि है, ऐसा लग रहा है। जहाँ तक मुझे याद है वह वाक्य इस तरह है:
“Water, water, every where,
Nor any drop to drink.”
रोहिणी जी की कविताएं आक्रोश, गुस्से और विडंबना-बोथ की कविताएं हैं। पर वे संक्रमणकाल की कविताएं हैं। इन्हें राजनीतिक कविताएं भी कह सकते हैं। वे लाउड हैं। इन पर बात सावधानी पूर्वक ही की जा सकती है। लेकिन कविताएं हैं जबर्दस्त-एक नुक्कड़ नाटक के लंबे संवाद की तरह। आपकी चेतना को झकझोरती-सीं।
इस दीर्घ कविता में आशा का मासूम संदेश नाना विपरीत मिथकों और काव्य-संकेतों (allusions) के बीच अपनी व्याप्ति का आभास देता है। वेस्टलैंड, पैंडोरा के बक्से में छिपी आशा का मिथक, समुद्र-मंथन, ज्यूस, इंद्र, शेषशायी विष्णु, चंगेज, तैमूर, आधुनिक युग में ईराक और लीबिया में अमेरिका और उसके मित्र देशों की कारस्तानियां, पर्यावरण का संकट आदि के बीच अधिकतर एल्यूज़न आशा को नष्ट करने वाले हैं। आशा का रूपक कविता के सहयोग से अमृत-मंथन के बिम्ब में है। ‘ दाम्यत, दत्त, दयध्वम्’ सुधार की गुंजाइश का रूपक है। मंथन के रूपक से भी आशावादी कर्म का रूपक झांकता है।
मुझे कविता अच्छी लगी। इसमें भावना और विचार का सही सामंजस्य है। शिल्प में कोई कमी नहीं दिख रही। पूर्ण कविता है।
थोड़ा सम्पादन करना पड़ेगा। चंगेज को तैमूर के साथ जोड़कर उन दोनों के संदर्भ में धर्मयुद्ध और काफिर का उल्लेख यह भ्रम उत्पन्न कर रहा है कि चंगेज मुसलमान था और धर्मयुद्ध को निकला था। एंशियेंट मैरिनर वाले उद्धरण में होना चाहिए- ‘नाॅर ए ड्राॅप टु ड्रिंक’। गुंझलक नहीं गुंजलक, कलोल नहीं कल्लोल, अस्त्र-शस्त्रों से लैस, न कि चाक-चौबंद – ऐसी ही कुछ छोटी-मोटी चीजें।
मैं कविता से बड़ा प्रभावित हुआ।