• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • अन्यत्र
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • संस्मरण
    • आत्म
    • अन्यत्र
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » हरि मृदुल की कविताएँ

हरि मृदुल की कविताएँ

हरि मृदुल की कविताएँ पहाड़ की थाप पर थिरकती हैं, वहां की हवा, बहता पानी और लोक-कंठ उनकी कविताओं में आते हैं. स्मृतियाँ हैं जो महानगर में कवि को बरबस अपनी जड़ों की ओर खींचती हैं. कुछ नयी कविताएँ प्रस्तुत हैं.

by arun dev
February 26, 2022
in कविता
A A
हरि मृदुल की कविताएँ
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

हरि मृदुल की कविताएँ

 

1.
पाताल जा रहा है पानी

पेड़ कट चुके हैं
मिट्टी खिसक रही है
चट्टानें दरक रही हैं
पाताल जा रहा है पानी

पानी का कनस्तर सर पर रखे
पसीने से तर है पिरमा
अलबत्ता मेहनताने के पचास रुपयों के बारे में सोच-सोच कर
हरी हुई जा रही है उसकी आत्मा

आधी चढ़ाई पार कर चुका है
आधी और पार करनी है

नीचे गाड़ की सूसाट अभी तक उसके कानों में
किसी मधुर संगीत की तरह गूंज रही है
उसे नहीं अहसास कि गधेरे का यह पानी भी
अब पाताल ही जा रहा है

0 गाड़-गधेरे – छोटी नदी और नाले, सूसाट – पानी के तेज बहने की आवाज़

 

2.
हुड़के की घम-घम

बीच बाजार सुनी
हुड़के की घम-घम
देखा कि एक बूढ़े ने सड़क के किनारे
महफिल जमा रखी थी

जाड़े की गुनगुनी धूप में
जिस तन्मयता से उस बूबू ने
चांचरी, छपेली, झोड़े और जोड़ सुनाने शुरू किए
बीसियों जन खिंचे चले आए –
‘… आंखि में दुनिया रिटी
हिरदी में तुई…
– आंखों में तो पूरी दुनिया समाई
लेकिन हृदय में एक बस तू ही…’

कुछ लोगों के दस-बीस रुपए देने के बाद
एक आदमी ने सौ रुपये का नोट हुड़के पर
जबर्दस्ती खोंस दिया
तो बूढ़ा बेहद संकोच में पड़ गया
उस संस्कृति प्रेमी महादानी के मुंह से
ठर्रे की महक भी तो आ रही थी…

वृद्ध के चेहरे पर जितना विस्मय दिखाई दे रहा था
उतनी ही खुशी भी तिर आई थी –
‘क्या बताऊं महराज
कितने वर्षों से घर के कबाड़ में
पड़ा था यह हुड़का
नैनीताल काम से आया था तो
इसकी मरम्मत करवाने की सूझ गई
पता नहीं था कि इस बुढ़ापे में
जब नाते-रिश्तेदारों तक ने मुंह फेर लिया
यह पुश्तैनी बाजा कुछ इस तरह मेरा पेट पालेगा’

बड़ी विनम्रता से बूढ़े ने और भी न जाने
क्या-क्या कहा
और जारी रखी
अपने हुड़के की घम-घम

0 हुड़का – डमरू की तरह का एक पहाड़ी वाद्ययंत्र, बूबू – दादा जी

 

3.
उत्तरैणी का मेला उर्फ नर राम के दिन

साढ़े तीन हजार देखने-सुनने वाले हुए
उत्तरैणी मेले में
हम ठहरे तीन
मैं, जोग राम और तिल राम
वानर की तरह पहाड़ों पर चढ़ने-उतरने वाले हुए
लेकिन मंच पर चढ़ने के बाद माइक के सामने
थर थर थर हाथ-पांव कांपने लगे महराज

हम तीन
सामने साढ़े तीन हजार

हे परमेसर! क्या करें हो?
लाज रख देना हो महराज

आखिर सुन ही ली पुकार मुरारि ने
जैसे आंग में देवता आ गया
मैं, जोग राम और तिल राम
सामने भी जैसे जोग राम, तिल राम और खुद मैं

तनी रीढ़
कस गई कमर
फिर तो ऐसे बजे दमू कि पूछिए मत
झ्यान टुकड़ि झ्यान टुकड़ि झ्यान झ्यान…

चमत्कार हो गया
इतनी तालियां बजीं इतनी तालियां
बेड़ा पार हो गया
फिर जो गाया गाना ठेठ अपनी बोली में
सबकी समझ में आया
तीन तारे साथी
तीन तारे साथी
सब इतने लीन कि
हमारे सुर में सबका सुर लग गया
झ्यान टुकड़ि झ्यान टुकड़ि झ्यान झ्यान
इतनी मिली इज्जत महराज कि
हमसे जैसे कोई बड़ा व्यापार हो गया

फोटो वालों ने फोटो खींचे
फिल्मवालों ने फिल्म बनाई
अखबार वालों ने खबर छापी
खबर में हमारा नाम लिखा
नर राम, जोग राम और तिल राम…

तो लिख कर रख लीजिए
मैं तो लिखना जानता नहीं
कहता हूं मैं नर राम
अब अपने दिन बदलने वाले हैं

इतनी तालियां
इतनी इज्जत
महराज…।

 

4.
मैं गवाह

ढलान पर बने इस घर के पाथर इसीलिए बचे हैं कि
तुम इसमें वास करती हो
सीढ़ियों जैसे पथरीले खेत इसीलिए हरे-भरे हैं कि
ये तुम्हारे पसीने से सिंचे हैं
दाड़िम के पेड़ में फल बनने के लिए ये जो फूल आए हैं
तुम्हारे मुस्कराने पर मुस्कराते नजर आते हैं
केले के इन नन्हे पौधों का तो क्या कहना
तुम्हें नजदीक पाकर कैसे तो इतराते हैं!
और ये चंदन-टीका लगे
अक्षत-फूल-पाती चढ़े डांसी पत्थर
इसीलिए वरदानी देवता हैं कि
इन्हें तुम पूजती हो
गोठ के गोरू-बछड़ों की बानी
सिर्फ तुम्हीं बूझ पाती हो
यह भी गजब कि वे भी बोलते दिखते हैं
तुम्हारी बोली
सुख-दुख की यह एक अकल्पनीय बतकही!!
यह गाड़-गधेरों के पानी का सूसाट भी निरंतर
तुम्हें ही तो पुकारता है
आंगन में चिड़ियों की चहचहाहट हो
या वन में बाघ का घूघाट
तुम हो
इसीलिए सुनाई पड़ते हैं
ऐसे में अपनी क्या कहूं
मैं तो अपलक तुम्हें निहारता
इन तमाम अलौकिक स्थितियों का जैसे अनायास ही गवाह बन जाता हूं

0 घूघाट- बाघ के डुकरने का स्वर

 

5.
भीमल का पेड़

मैंने इजा को देखा

भीमल के पेड़ की सबसे ऊपर की टहनी पर
किसी तरह पैर अटकाए
एक हाथ से तने को पकड़े और
दूसरे हाथ से चलाती दातुली

नीचे पत्ते ही पत्ते
खूब हरे चौड़े पत्ते
अलग ही गंध बिखेरते उकसे पत्ते

इजा ने गाय को देखा

जो महीनाभर पहले ही ब्याही थी
गुनगुनी धूप में
बछड़े के साथ आंगन में बंधी पुकार रही थी – अम्माऽऽऽ

हां – अम्माऽऽऽ – हां
इजा ने भी जैसे गाय की भाषा में ही जवाब दिया
फिर भीमल के पेड़ से
नीचे उतरी
किसी वरदानी कुल देवी की तरह

गाय ने फिर से उसे पुकारा
बछड़े ने भी मिलाया अपना महीन सुर
अनायास ही मेरा भी सुर मिल गया – अम्माऽऽऽ

‘हां – अम्माऽऽऽ – हां
खूब भूख लग आई होगी अब तुम्हें
देती हूं
घड़ी भर में देती हूं तुम्हारा खाना’
पता नहीं उसने मुझे कहा
कि गाय को
या फिर उस नवजात बछड़े को

करुणा से भरी हुई
तेजी से पात बटोरती
खुद से बातें करती
देखा मैंने मां को
कि वह कैसे भीमल का पेड़
होती जा रही.

0 इजा – मां, भीमल – एक पेड़, जिसकी पत्तियों को जानवर बड़े स्वाद से खाते हैं

कवि–पत्रकार हरि मृदुल कहानियां भी लिखते हैं. 2012 में उनकी लिखी कहानी ‘हंगल साहब, जरा हंस दीजिए’ को ‘वर्तमान साहित्य’ की ओर से दिया जानेवाला ‘कमलेश्वर कहानी पुरस्कार’ मिल चुका है. 

 संप्रति:
‘नवभारत टाइम्स’, मुंबई में सहायक संपादक.
harimridul@gmail.com

Tags: 20222022 कविताएँहरि मृदुल
ShareTweetSend
Previous Post

जल है, पर जल नहीं, दूर तक दिगंत में: रोहिणी अग्रवाल

Next Post

किनो: हारुकी मुराकामी: श्रीविलास सिंह

Related Posts

विशेष प्रस्तुति: 2022 में किताबें जो पढ़ी गईं.
विशेष

विशेष प्रस्तुति: 2022 में किताबें जो पढ़ी गईं.

पंकज सिंह: सर ये नहीं झुकाने के लिए:  रविभूषण
संस्मरण

पंकज सिंह: सर ये नहीं झुकाने के लिए: रविभूषण

छोटके काका और बड़के काका:  सत्यदेव त्रिपाठी
संस्मरण

छोटके काका और बड़के काका: सत्यदेव त्रिपाठी

Comments 11

  1. राहुल झा says:
    11 months ago

    हरि मृदुलजी की कविताएँ अपनी मिट्टी की गंध-नमी…

    और लोक-राग की आसावरी लिए स्मृतियों के फेनिल संसार में उतरती हैं…

    इन कविताओं में बहुत कुछ ऐसा है… जिसकी जागती धुन… भीतर की सार्वजनिकता को निथारती है…

    भाषा के जल में… पहाड़ के जड़ों की मृदुलता प्रवाहित करना मृदुलजी की खूबी रही है…

    उन्हें हमारा अभिवादन…!

    और ‘समालोचन’ का शुक्रिया… इन कविताओं के लिए…

    Reply
  2. कौशलेंद्र says:
    11 months ago

    बहुत बढ़िया कविताएँ, किसी लोकगीत की तरह, वास्तव में कविताओं पर मेरा मन इसी किस्म की लिखावट से लगता है।

    Reply
  3. हिमांशु बी जोशी says:
    11 months ago

    पहाड़ की प्रकृति और उसमें शामिल इंसानों की आवाजाही से उत्पन्न संगीत की धुनों जैसी कविताएं हैं मृदुल जी की। सौंधी खुशबू भी है मिट्टी पानी की। बधाई समालोचन और मृदुल जी को।

    Reply
  4. सपना भट्ट says:
    11 months ago

    लोकरंग की सम्पन्नता में रंगी इन कविताओं का गुढार्थ जितना जाना पहचाना है उतना ही अलहदा है इनका स्वर भी ।
    इन कविताओं से बार बार गुज़र कर इन्हें देखना होगा, इनके भीतर के तरल मर्म को कई पुनर्पाठों से अन्तस् में उतारा जा सकेगा।
    मुझे व्यक्तिगत रूप से पाताल का पानी और भीमल का पेड़ बहुत अच्छी लगी।
    पहाड़ की छटपटाहट की अनुगूँज इनमें ख़ूब मुखरता से प्रकट हो रही है, लोकांचल के नॉस्टैल्जिक शब्दो का सार्थक प्रयोग मेरे पहाड़ी मन को ख़ूब भला सा लगा।
    इन कविताओं से परिचय कराने के लिए समालोचन का आभार। हरि मृदुल जी को बहुत बहुत बधाई।

    Reply
  5. अमित उपमन्यु says:
    11 months ago

    बहुत अच्छी कविताएं हैं. बहुधा एक जैसे विषयों और समानधर्मा शिल्प की बहुतायत के बीच एक शांत, खूबसूरत और हंबल पहाड़ी बैकग्राउंड की दुनिया को बारीकी और तफ़्सील से उकेरती हुई. कोरी भावुकता से बच कर भी पानी का (या और भी सारी ज़रूरी चीज़ों का) पाताल में जाना कैसे स्थापित किया जा सकता है या लोक-संस्कृति के दृश्य कैसे घटनाओं में पिरो कर कविता में कथात्मक बहाव को संभव बना सकते हैं यह इन कविताओं में देखा जा सकता है। यहां जो सिम्प्लिसिटी और स्वीटनेस पर्यावास में एकसार है वह मेडीवल अंग्रेज़ी कंट्रीसाइड साहित्य की याद दिला देती है

    Reply
  6. Dr Nutan Gairola says:
    11 months ago

    कविताएं अपने भीतर पहाड़ का मर्म छुपायें वहाँ के रोजमर्रा के जीवन की दास्तां है और लगता है हमारे इर्दगिर्द जीती है| अगर कविता मे बंधी छोटी छोटी घटनाओ को ध्यान से देखते गहरी संवेदनाओ के साथ विडंबना उजागर करती हैं॥ जैसे हुड़के की घम घम में एक आदमी सौ रुपये हुड़के मे खोंसता है .. क्या यह खोसना इतना आसान था ? आदमी के मुंह से ठर्रे की बास वरना होश और विपन्नता में कोई कहाँ मे देता ,, और गुनगुनी धूप मे बाजार मे यानि दिन मे भी शराब के नशे मे बाजार, पहाड़ की त्रासदी है शराबखोरी दो पंक्तियों मे जैसे कितनी ही बाते ॥ इस तरह ये कविताएं अपने हर पंक्ति मे पहाड़ के किसी ने किसी विषय का दर्शन कराती ठोस पहाड़ी कविताए है और मानवीय भावनाओं से शैलाब दर्द इन त्रासदियों मे है॥। सभी कविताए मुझे पसंद आई पर भीमल का पेड़, उत्तरेणी का मेला मन को सीधे छू गई …. इन कविताओं के लिए समालोचन को धन्यवाद और हरि मोहन जी को बधाई

    Reply
  7. वसन्त सकरगाए says:
    11 months ago

    लोक की परिपाटी पर चलते हुए कवि अपने स्मृति-प्रदेश को कितना व्यापक और हिन्दी-संसार को कितना समृद्ध करता है, ये कविताएँ इसका बेहतरीन उदाहरण है। इन कविताओं में कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि लोकभाषा की उपस्थिति के लिए कवि ने अतिरिक्त प्रयास अथवा किसी क़िस्म की सतर्कता और चालाकी की हैं बल्कि ये सहजता में संभव का प्रतीक हैं। बहुत बधाई मृदुल जी…समालोचन के मंच के लिए अरुण भाई को साधुवाद

    Reply
  8. नवीन जोशी says:
    11 months ago

    क्या खूब कविताएँ हैं, हमारे भीतर बचे रह गए धड़कते पहाड़ की आवाजें! मन रंगतुंगा गया हो, मृदुल जी। जिए लाख बरस आपकी कलम और संवेदनशीलता।

    Reply
  9. त्रिनेत्र जोशी says:
    11 months ago

    पहाडी पर्यावरण और जीवन में भीगी-डूबी कविताएं । मन लौट- लौट जाता है। जडो को सींचना स्मृति को सींचना ही है। यशस्वी हो।

    Reply
  10. Sanjeev+buxy says:
    11 months ago

    अलग स्वाद की पहाड़ी कविताएं पढ़ने में आनंद देती हैं पढ़कर बहुत अच्छा लगा बहुत-बहुत बधाई साधुवाद

    Reply
  11. Vishakha says:
    11 months ago

    कितनी सरलता व सहजता से पँक्ति दर पँक्ति लोक से जोड़ रहीं हैं कविताएँ । हरि मृदुल जी की कविताओं को पढ़वाने के लिए आभार समालोचन का । बहुत बधाई हरि मृदुल जी ।

    Reply

अपनी टिप्पणी दर्ज करें Cancel reply

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2022 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फिल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक