देश बता तुझे हुआ क्या है?उर्मिला शिरीष |
दृश्य: एक
मई का महीना. आसमान से आग बरस रही है. तीखी धूप. शरीर को झुलसा देने वाली गरम हवाएँ. तापमान लगभग पचास डिग्री के आसपास. झुलसी धरती उदास है. सूनी-सूनी है. पेड़ों पर हवा बर्फ़ की तरह जमकर बैठ गयी है. सड़कों पर पसरा सन्नाटा और मन में बैठा मृत्यु का भय. मृत्यु तरह-तरह के स्वाँग भरकर आ रही है. उसने अपने परायों को अलग कर दिया है. वह सजा दे रही है सबको.
नहीं सबको नहीं, केवल मनुष्यों को. उसकी उद्दण्डता को, उसके अहंकार को. उसके सर्वस्व होने को. उसके दिमागी फितूर को. होड़ मची है, पर गिरधारी पत्नी को साइकिल के पीछे बैठाकर चला जा रहा है. पैडल मारते-मारते पाँव दुखने लगे हैं. पंजे जल रहे हैं, तलवों में छाले पड़ गये हैं. सिर पर लपेटा कपड़ा पसीने से गीला हो गया है, पर तेज़ धूप से जल्द सूख भी जाता है.
पत्नी कैरियर पर बैठी है पर उसने कसकर गिरधारी की कमर पकड़ी हुई है. कैरियर पर कपड़ा बाँध लिया था कि वह चुभे न, लेकिन नितम्बों पर निशान उभर आये थे. एक तरफ पाँव लटकाये-लटकाये, उनमें हल्की-सी सूजन आ गयी थी और कमर टेढ़ी हो गयी थी. सिर पर बाँधा कपड़ा, वह बार-बार खिसक जाता जिसे कसकर पकड़ा था उसने.
‘‘प्यास लगी है.’’ पत्नी ने कहा.
‘‘आगे पेड़ की छाँव में रोकता हूँ.’’
वह जिस दिशा से आ रहा है, ठीक उलट दिशा में लोगों की लाइन लगी है. भूखे-प्यासे, थके-हारे लोग, रात-दिन, दिन-रात पैदल चले जा रहे हैं. न बसें चल रही हैं, न रेलगाड़ियाँ. न टैक्सी, न ट्रक, बैलगाड़ी, साइकिल, स्कूटर जिसके पास जो है उसी से चल देता है, एक राज्य से दूसरे राज्य. एक शहर से दूसरे शहर. एक घर से दूसरे घर तक. अपनों के पास. अपने घर. पहुँचने की तड़प ऐसी कि समय भी इनके सामने हार गया है. एक तरफ से निकलते तो दूसरी तरफ यानी राज्य, शहर, गाँव की सीमा पर पुलिस रोक लेती. लोग हड़का देते, सीमाएँ बंद कर देते. खबरें सुनकर गिरधारी का मन भी काँपने लगता. पत्नी को कैंसर है. दो साल से इलाज चल रहा था. उसे रेडिएशन थैरेपी (कीमो) दी जा रही थी कि पता चला टोटल लॉकडाउन लग गया है. डॉक्टर से बात की तो उन्होंने अपनी मजबूरी बता दी. ओ.पी.डी. बंद है.
ज़मीन बेचकर गिरधारी अपनी पत्नी का इलाज करवा रहा था. वह डाक्टर के सामने गिड़गिड़ाने लगा.
‘‘आओगे कैसे?’’
‘‘आने का कुछ न कुछ इन्तज़ाम करेंगे साहब.’’
‘‘कैसे?’’
‘‘आप तो इतना बता दो कि इसकी कीमो तो हो जायेगी.’’
‘बहुत परेशान हो जाओगे गिरधारी.’’ डॉक्टर भी परेशान और चिन्तित हो उठे.
क्या पता वायरस पत्नी में हो, पत्नी से पति में और पति से डॉक्टर में…!
‘‘दादा, परेशान हो जाओगे.’’ डॉक्टर गिरधारी को समझा रहे हैं.
लड़का पूना में था. वहीं रह गया. आने का कोई रास्ता और उपाय नहीं था. रेस्टोरेंट बंद थे तो खाने की परेशानी हो रही थी. हर रोज गाड़ियों की या बसों की आने-जाने की अफवाह फैलती, वे सब भाग-भागकर उस स्थान पर पहुँच जाते, पता चला वहाँ तो कुछ भी नहीं है सिवा पुलिस के डण्डों के. किसी तरह मुम्बई तक आ पाया था. वह भी लाखों की भीड़ का हिस्सा बनकर रह गया था.
तब गिरधारी रातभर बरामदे में बैठा जागता रहा. यहाँ से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर था भोपाल. इतनी दूर साइकिल से, वो भी भरी गरमी में, वो भी डबल सवारी.
‘‘मरने तो नहीं दूँगा तुझे. तेरी जान बड़े भाग्य से बची है, अब परमात्मा ही बचायेंगे.’’
पत्नी चुप बैठी थी. जीने की इच्छा डगमगाने लगी थी, कुछ हो गया तो इनका क्या होगा?
तब एक बड़े से थैले में भरी थी रोटियाँ. सब्जी. अचार. पत्नी की दवाईयाँ. पानी की बोतलें. जेब में रख लिये थे पैसे जिन्हें कमर के पीछे बाँध लिया था. रास्ते में कहाँ क्या घटित हो जाये. कोई लूट न ले.
और चल पड़ा था गिरधारी साइकिल पर सवार होकर पत्नी को बैठाकर उस कठिन राह पर, जिस पर चलते हुए उसे लग रहा था कि चाहे जो हो पत्नी का जीवन तो बच ही जायेगा.
दृश्य-दो
लगभग पन्द्रह दिन हो गये हैं. पति नहीं आये हैं. सरकार का आदेश है कि डॉक्टरों को मुख्यालय छोड़कर नहीं जाना है. अपने मरीज की जान बचाना और उसे ठीक करना, यही तो उनका मकसद रहता है. वह अकेली है घर पर. पहले हर शनिवार पति आ जाते थे. बाईयाँ आती थीं. लोगों का आना-जाना बना रहता था. मगर अब कोई भी नहीं आ रहा है. न बाईयाँ. न पेपरवाला. न पोस्टमेन. न कुरियर. न फल-सब्जीवाला. न प्रेसवाला. न माली. चौराहे पर पुलिस की पहरेदारी है. एकाध बार निकलना भी चाहा तो वापस भेज दिया. यहाँ तक कि घूमना भी बंद. बाज़ार, दुकानें, सिनेमाघर, मॉल, हाट… सब तो बंद हैं सिवा मेडिकल स्टोर के.
जीवन में कभी बर्तन नहीं माँजे थे. कपड़े नहीं धोये थे. झाड़ू-पोंछा नहीं लगाया था, घर की सफाई न की थी. प्रेस न की थी. लेकिन अब, अब तो सुबह से लेकर शाम तक यही सब कर रही है. हाथों में छाले पड़ गये हैं. पूरा शरीर थकान से भर गया है.
‘‘इतना काम फैलाती क्यों हो? अकेली हो थोड़े से बर्तनों से काम चला लिया करो.’’
वह कैसे समझाये कि इंसान अकेला हो या चार जन, बर्तन तो लगेंगे ही. दो समय चाय तो पीनी है. खाना भी खाना पड़ता है. हर काम करना पड़ता है. रह-रहकर सारी बाईयाँ याद आ रही हैं. फ़ोन पर हालचाल पूछ लेती है, उनके एकाउण्ट में पैसा ट्रांसफर करवा देती है. इतना घनिष्ठ सम्बन्ध बाईयों से इससे पहले कभी न था.
वीडियो पर सबसे बात हो जाती है. बच्चों से, माता-पिता से. पति से. फिर भी घर का सन्नाटा है कि टूटता ही नहीं. पहले तो ग्यारह बजे के बाद ही रात्रि निस्तब्ध होती थी, अब तो सुबह-शाम, दोपहर, आधी रात्रि, सब समय स्तब्धता फैली रहती है. साथ बैठने, खाने-पीने, जीने का सुख सपना बनकर रह गया था.
सूनी सड़कों पर तेज रफ्तार से भागती एम्बुलेंस की गूँजती आवाज़ दिल में धक से बैठ जाती.
देश में कितने संक्रमित. राज्य में कितने! शहर में कितने! अपनी कॉलोनी में कितने! अपनी लाइन में कितने! वह भी एडमिट. यह भी एडमिट. इसकी मृत्यु. उसकी मृत्यु!
उफ! हे भगवान! कब तक!
डर. डर. असीम डर. बचे रहो. बचकर रहना. काढ़े पियो. काढ़े बनाने की हज़ारों विधियाँ फेसबुक से लेकर वॉट्सअप पर भरी पड़ी है. हज़ारों तरह के काढ़े. अगल-बगल में लगी बेलें, पौधे अचानक ही जीवनदायी बन गये थे. दिनभर काढ़ा बन रहा है. चाय उबल रही है. चूर्ण बना रही है. भाप ले रही है. नथुनों, कानों, मुंह में तेल डाल रही है. प्राणायाम कर रही है. ताजी हवा. ताजी हवा यानी ऑक्सीजन! साफ हवा भरते फेफडे़. जरा सी गले में खराश होती, धक् कोरोना हो गया. हल्का-सा सर्दी-जुकाम हो गया तो मन घबरा उठता. बुखार या ताप शरीर में बढ़ता तो शक विश्वास में बदल जाता… हो ही गया कोरोना!
‘‘किसी से मिली थी क्या?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘फिर क्यों होगा? तुम्हारे दिमाग में कोरोना का भूत बैठ गया है. चलो अच्छे प्रोग्राम देखो. मूवी लगा लो. कोई किताब उठा लो.’’
अच्छे प्रोग्राम, मूवी, किताब, किसी में भी मन नहीं लग रहा है. उधर लोग मर रहे हैं कोरोना से, और देखा नहीं सड़कों पर कैसे लोग भूखे-प्यासे, थके-हारे चले जा रहे हैं, कोई नहीं है उनकी परेशानी दूर करने वाला. लोगों ने घर से निकाल दिया. काम से निकाल दिया. न रहने का ठौर, न खाने के लिए, कैसे तड़प रहे हैं और तुम कह रहे हो प्रोग्राम देखूँ, किताब पढ़ूँ.
‘‘अपने आपको तो ठीक रखना है. ऐसे अवसाद में जीओगी तो कैसे काम चलेगा.’’
‘‘कोशिश तो करती हूँ.’’
‘‘दूसरे देशों में नहीं देखा, लोग अकेलेपन से घबराकर कैसे खिड़कियों से झाँकते थे, चीखते थे, रोते थे, वही हाल तुम्हारा हो जायेगा. सुबह-सुबह छत पर चली जाया करो. अपना मन मजबूत करो.’’
सचमुच, मन को मजबूत करना ही होगा. जब वह पाँच जनवरी को दिल्ली के एयरपोर्ट पर उतरी थी तब टी.वी. पर देखा था वुहान शहर के अस्पताल में एक डॉक्टर और दो लड़कों को. कहा जा रहा था उन्हें कोरोना हो गया है. और, इससे पहले कि वह अपने लौटने को एन्जॉय कर पाती, देखते ही देखते पूरी दुनिया कोरोना की गिरफ्त में आ गयी. मौत का सजीव ताण्डव.
हे ईश्वर! तू किस जन्म की सजा दे रहा है.
अपनों से दूर रहने की, सबसे भयानक बीमारी की सजा. अंतिम समय न अपनों का स्पर्श मिलता है, न कंधों का सहारा न छाती पर सिर रखकर रोने का अवसर.
’’मैं कल आ रहा हूँ.’’ पति ने कहा.
यह खबर सुनकर वह जरा भी खुश नहीं हुई. हास्पिटल में पता नहीं किस-किसको छूते होंगे, किसके भीतर वायरस बैठा है, अभी टेस्ट भी नहीं हो रहे थे उतने. क्या पता पति को लग गया हो या…!
‘‘कब तक आओगे?’’
‘‘दोपहर तक. रात में ही लौट जाऊँगा. सरकारी गाड़ी कुछ सामान लेने आ रही है.’’
फिर भी वह खुश नहीं हुई. और दिन होता तो वह पति के लिए दो तरह की सब्जियाँ बनाती, चाय पर उसका इन्तज़ार करती. लेकिन अब, अब तो अन्दर आने को लेकर भी सशंकित. उसने मास्क लगाया. सिर पर कपड़ा बाँधा. ग्लब्स पहने. बाहर साबुन और पानी रखा.
‘‘सारा सामान बाहर ही रखो.’’
बाल्टियों में पानी भरा रखा है. तीन बार सब्जियाँ धुलेगी. फल भी. और बाकी सामान चौबीस घंटे बाद उठाया जायेगा.
सोफ़ों के कवर पर चादर डाल दी है.
‘‘यहीं बैठो, पहले जाकर नहाओ, फिर अन्दर के कमरे में आना.’’
‘‘अरे हमारे यहाँ कोई कोरोना नहीं है. एक भी पेशेंट नहीं आया. सख्ती की जा रही है बाहर से आने वालों के साथ. बाहर ही रखते हैं, क्वारेंटाइन.’’
‘‘नहीं आया पर जो आते हैं उनको भी तो हो सकता है.’’
ड्राइवर हँसने लगा- ‘‘मैडम, आप तो हमसे ज़्यादा प्रकॉशन ले रही हैं…’’
‘‘लेना ही पड़ेगा वरना घर कौन सँभालेगा?’’ हर चीज अलग. चादरें. टॉवल. साबुन. जूते-चप्पल, खाने के बर्तन.
छह फीट की दूरी पर बैठ रही है. कोई भी चीज़ ‘टच’ नहीं होना चाहिए.
‘‘अब मैं नहीं आऊँगा. तुम्हें इतना डर है.’’
‘‘क्या मैं गलत कर रही हूँ?’’
शादी के पैंतीस साल बाद दोनों अलग-अलग कमरों में सो रहे थे.
‘‘कंधों में दर्द हो रहा है. पीठ पर हाथ फेर दो.’’
उसकी आँखों में आँसू आ गये. जानती है पति के कंधे… पीठ… पर जब तक वह हाथ नहीं फेरती उनका दर्द नहीं जाता.
दूसरी सुबह सरकारी जीप आ पहुँची.
टिफिन तैयार कर दिया.
पति के जाते ही सारी चादरें धोने के लिए डाल दी. कपड़े, तौलिये बार-बार गरम पानी में डाल रही है. सेनेटाइजर से दरवाज़े, परदे, स्विच बोर्ड क्लीन कर रही है. बर्तनों को अलग रख दिया है…. गरम पानी में बर्तन उबल रहे हैं.
दूसरे दिन जब उसके गले में दर्द हुआ तो उसका माथा ठनका. फिर लगा तालू पर कोई झिल्लीनुमा चीज़ लटक रही है. गरम-गरम काढ़ा पीने से ऊपर की झिल्ली जल गयी थी. अब क्या होगा? पक्का कोरोना हो गया. वह मन ही मन डर रही है. रो रही है. कितना मना किया था कि अभी मत आओ. बाहर ही रहो, पर उन्हें क्यों मानना! मुँह के अन्दर तालू का फ़ोटो लेकर डॉक्टर को भेजा. डॉक्टर कह रहे हैं गले में सूजन है. छाले पड़ गये हैं. ये दवाएँ लीजिए. दूसरा डॉक्टर कह रहा है… टेस्ट करवा लेना चाहिए. मेडीकल स्टोर वाला जवान लड़का है. दवाओं के नाम व्हाट्सएप पर भेज देती है, लड़का गेट के पास रखी टंकी पर दवाएँ रख जाता है. वह ग्लब्स पहनकर दवाएँ ऊपर लाती. दूसरे दिन उनको खोलती, फिर खाती.
बाहर, बरामदे के बाहर चार-पाँच पेड़ लगे हैं जिन पर असंख्य चिड़ियाँ आ जाती हैं. उनका सामूहिक कलरव पूरे घर का सन्नाटा पी जाता है. छत पर कबूतरों का डेरा जम जाता और दूसरी ओर गिलहरियाँ उछलकूद कर रही हैं. इन सबका आना कितना सुकून देता है. बहिन के पास एक लड़का आता था जो कम्पाउण्डर है. उसके पास ‘पास’ है, जिसकी वजह से वह आ-जा सकता था, वह कभी-कभी खेत से सब्जियाँ ला देता है, पर खाये कौन और बनाये कौन. टी.वी. खोलती तो वही अस्पताल, वही डॉक्टर्स. वही एम्बुलेंस, वही पैक्ड शव… और श्मशानों में जलती अनगिनत लाशें. चिताओ की उठती आग में जैसे खुद जल रही हो. उधर सड़कों पर… बस अड्डों पर, सीमाओं पर अन्तहीन भीड़. हृदय को चीर देने वाली तस्वीरें. बिना चप्पलों के… पैदल चलते लोग. या ट्राली में, ट्रैक्टरों में, कण्टेनरों में जान जोखिम में डालकर छुपकर, भागते लोग. क्या ये कोई फ़िल्म है?
कई बार दिमाग ऐसा सुन्न पड़ जाता कि लगता सच है या सपना! अगर ये सच है तो इनकी रक्षा करने वाली सरकार कहाँ है? नेता कहाँ हैं? समाजसेवी कहाँ हैं? जनता की भलाई और सेवा के दावे करने वाले आदर्शवादी लोग कहाँ हैं? वह गुस्से से काँप रही है, चिल्ला रही है, प्लीज़ कोई तो इनकी मदद करो. कोई तो इनके पाँवों में छालों के लिए मरहम दो! टी.वी. स्टूडियो में गरजती-बरसती सवाल पूछती, चीखती-चिल्लाती आवाज़ें और जवाब देते आंकड़े गिनाते नेता या उनके प्रतिनिधि. उनके चेहरों में उसे केवल और केवल क्रूरता नज़र आती है. उनके चेहरों पर मानवीयता और संवेदना की जगह खूंखार चेहरे नज़र आ रहे हैं.
संवाददाताओं पर दया आ रही है उसे, कहाँ-कहाँ कितनी रिस्क उठाकर कवरेज में लगे हैं. बता रहे हैं देश का हाल. बता रहे हैं कहाँ कितने डॉक्टर हैं. कितनी नर्से हैं. कितनी दवाइयाँ हैं. कितनी ऑक्सीजन है. कितने बेड हैं… पीपीई किट कितनी हैं. कितनों की ज़रूरत है. कितने टेस्ट हो रहे हैं और टेस्ट के नाम पर भी कितना बड़ा गोरखधंधा चल रहा है. उफ! क्या करूँ, कहाँ जाऊँ?
शाम से ही दरवाज़े बंद कर लेती है. बातों से मन भर गया है. लायब्रेरी में जाती है. किताबों को छूती है. उलटती-पलटती है. यह पढ़ना चाहिए. हाँ यही. प्रेम का उपन्यास. धूल तो नहीं है… धूल से एलर्जी हो सकती है और एलर्जी से जुकाम, जुकाम से बुखार, बुखार यानी कोरोना…
खिड़की के पार रात्रि में ग्यारह-बारह बजे तक वो उसी तरफ देखती रहती… सामने इंसान दिखाई न दे तो आदमी पागल हो जाये! और हाथ में उपन्यास है. पन्ने खोलती है… पर उधर रिमोट से टी.वी. खुल जाता है. दिनभर के आंकड़े दिखाये जा रहे हैं. किस देश में कितने लोग मर गये हैं? कितने संक्रमित हो गये हैं…. फिर दिख रहे हैं मर्माहत करने वाले दृश्य, पैदल चलते लोगों के स्याह पड़ते चेहरे. मजदूर. छोटे-छोटे काम करने वाले लोग. भूख से तड़पते. किताब परे रख दी. किताब में भरा प्रेम अभी मन को जरा भी नहीं भा रहा है. अभी तो बस वही भाता है, दिखता है जो सड़कों पर है… जो अस्पतालों में है.
कोरोना वारियर्स के लिए दीपक जला रही है. फिर किसी दिन मोमबत्ती जलाती है. किसी दिन शंख. किसी दिन थालियाँ बजाती है तो किसी दिन प्रार्थना करती है. मंत्र जपती है. हाँ उन देवताओं के लिए जो अस्पतालों में है, सड़कों पर है. जो रोटी दे रहे हैं. पानी पिला रहे हैं. दवाइयाँ और सामान भिजवा रहे हैं…. लेकिन वह स्वयं… स्वयं क्या रही है… बिल में चूहे की तरह छुपकर बैठी है. हाँ गले तक भर आईं हिचकियों को जबान पर आने से पहले ही रोक लेती है.
सामने जो मुख्य सड़क है उस पर गाड़ियों की इतनी ज़्यादा आवाजाही रहती थी कि निकलने में डर लगता था पर अब उसी सड़क पर कोई बिस्तर लगाकर सो जाये तो पता नहीं चलेगा. पीछे का कमरा जिसके पीछे आम का पेड़ है, नीम आँवला और बादाम के पेड़ लगे हुए हैं. दोनों खिड़कियाँ खोल दीं. दीवार के ठीक पीछे से झुग्गियों की कतार शुरू हो जाती है. एक के बाद एक बनती झुग्गियों की उसने कई बार शिकायत की थी, क्योंकि इन लोगों ने खाली ज़मीन पर कई-कई कमरे बना लिये थे. चौबीस घंटे बच्चे चीखते-चिल्लाते. कुत्तों की आवाज़ें आती. औरतें आपस में बातें करतीं. झगड़ा करतीं. उसे बेहद गुस्सा आता था. रात-बिरात शराब पीकर आने वाले आदमियों की आवाज़ें उसे घृणा से भर देती थीं.
लेकिन… अभी…
आशा भरी नज़रों से देख रही है वहाँ की छोटी-छोटी गलियों में खूब सारे बच्चे खेल रहे हैं क्रिकेट. बॉल से. छुपा-छुपी. वे सब गोल घेरा बनाकर बैठे हैं, खूब ज़ोर से हँस-बतिया रहे हैं. उन्हें नहीं मालूम कि इस बीमारी के चलते उन्हें दूर-दूर बैठना चाहिए. हवा में घूमता वायरस कब उनकी हँसी को छीन ले… सोचकर वह घबरा उठती है, पर अभी तो उनकी जीती-जागती आवाज़ें उसके विषाद से भरे मन को ढाँढस बँधा रही हैं.
‘‘गीता! गीता! वह अनायास ही चिल्लाती है. अरे बच्चों! सुनो. मेरी आवाज़ आ रही है. मैं आण्टी, पीछे वाली. इधर देखो. इधर.’’
वे नहीं सुन रहे हैं. क्योंकि यहाँ से आवाज़ नहीं पहुँच रही है.
वह गीता को फ़ोन लगाती है.
‘‘मम्मी तो गाँव गयी थी, वहीं अटककर रह गयी हैं. मैडम, कुछ काम था.’’
‘‘नहीं…. तुम सब ठीक हो. कोई ज़रूरत हो तो बताना! घर में खाने-पीने का सामान है?’’
‘‘जी… मैडम.’’
और जो कुछ बाहर देख-सुन रही थी, वह देखकर लग रहा था कि पता नहीं इन लोगों के पास भी कुछ होगा या नहीं. आज हृदय में इतनी करुणा क्यों. क्योंकि इनकी उपस्थिति उसे जीने का संबल दे रही है वरना इनकी आवाज़ें सुनकर वह बड़बड़ाती होती. गणेश चतुर्थी, नवदुर्गा, बैठाने के लिए चंदा माँगने आ जाते. दो-दो ग्रुप. रात-रातभर चलने वाले डीजे की शिकायत करती, लाउडस्पीकर लगाकर जब आरती होती और बेसुरा पंडित ऊँची आवाज़ में आरती गाता होता या बच्चे नाम लेकर दूसरों को पुकार रहे होते तो वह स्वयं जाकर चिल्लाती, क्या पागलपन है, क्या रातभर यह सब करोगे? बारह बज रहे हैं, हम लोग कामकाजी लोग हैं, कब सोएंगे? या होली के समय सुबह से लेकर शाम तक जब उन सबका जो हुड़दंग चलता था, सस्ते फ़िल्मी गानों या लोकगीतों पर जो उनके डांस चलते और एक दूसरे पर रंग डालने की जो मस्ती चलती, उसकी आवाज़ें उसके घर तक सुनाई देतीं… तब उसका गुस्सा सातवें आसमान को छू जाता. रात-दिन चलने वाले क्रिकेट मैच की कमेन्टरी करने वालों के लिए तो उसके पास शब्द ही न होते, उनकी बातें… लोगों को आमंत्रित करना… और जोर से चिल्लाना… ओह… तब वह पुलिस को फ़ोन लगाती.
‘‘मैडम, क्या करें? लीग मैच चल रहे हैं. डे-नाइट.’’
‘‘पर इन्हें सोचना चाहिए कि हम लोग सीनियर सिटीजन हैं. बीमार हैं. नींद कितनी ज़रूरी है.’’
‘‘कुछ दिनों की बात है. बच्चे हैं. फिर भी मैं बोलता हूँ कि वॉल्यूम कम कर लें.’’
अब वो तरस रही है उस कमेन्टरी को सुनने के लिए. उस हुड़दंग को सुनने के लिए. कहाँ हैं वे गीत, लोकगीत जो थिरकने पर मजबूर कर देते हैं… कहाँ है वो बेसुरा पंडित जिस पर वह गुस्सा करती थी… हे भगवान, कोई तो बोलो. कोई तो चीखो-चिल्लाओ. शोर मचाओ. गाओ. नाचो.
बच्चों का स्वर धीमा हो गया. उन्हें लगा मैडम नाराज़ हो जायेगी. पर उन्हें नहीं पता कि आज मैडम उनकी आवाज़ें सुनने के लिए बेचैन हैं, अन्यथा मौत से हारते उन चेहरों की याद कहीं उन्हें ही न मार डाले.
और जो कुछ बाहर देख-सुन रही थी, लॉकडाउन के पहले जितने दिन ऑफिस जाना हुआ था, तब का अपना ही रूप-पहचान खो चुका था. हाथों में ग्लब्स, सिर पर बँधा कपड़ा या टोपी. मास्क के ऊपर शील्ड. गरम पानी. बहुत दूरी बनाकर बैठना जैसे इंसान न हो सामने वाला, मौत का दूत हो. ऊपर से दिखने वाले स्वस्थ शरीर में भी, नाक-गला, कहाँ वायरस ने डेरा बना लिया हो. कब चुपके से फेफड़ों में चला जायेगा. न बुखार. न सर्दी-जुकाम. न सुगन्ध में कमी, फिर भी महाराज आ बैठे हैं. वे कैसे भयावह दिन थे. अकल्पनीय. दुःख और अवसाद से भरे. परायापन ही अपनापन था. दूरी में ही अपनों की सुरक्षा थी. सबसे समझदार, विवेकवान, संवेदनशील वही इंसान माना जा रहा था, जो अपनों से दूर रहता था. न आपका पानी पीता था न पिलाता था, एक अजीब-सा मौत का अंधड़ चल रहा था. तो जो चीज़ें बाहर दिखाई देती हैं- तूफान, आँधी, बारिश, बड़ी-बड़ी बीमारियाँ, बाढ़, सूखा, भुखमरी… पता चला एक दिन वे सब आपके दरवाज़े पर खड़ी आपका दरवाज़ा बिना खटखटाये उजड्डों की तरह आपके बेडरूम में आकर बैठ गयी है.
उस दिन पति का फ़ोन आया- ‘‘कल से अच्छा नहीं लग रहा है. कम्प्यूटर पर काम करने वाले लड़के को सर्दी-जुकाम हो गया है… आज आया भी नहीं. बता रहा था बुखार चढ़ा है. तबियत घबड़ा रही. मैं घर आकर आराम करना चाहता हूँ एकाध दिन.’’
‘‘ठीक है आ जाओ.’’ बेमन से बोली.
फिर वही धुक-धुक.
‘‘मैंने तो मना किया था पर तुम तो मानते ही नहीं.’’
‘‘मैं क्या कर सकता हूँ अभी कोई भी छुट्टी नहीं मिल सकती. देख रही हो कैसी आफत मची हुई है! मैं डॉक्टर हूँ… मुंह छुपाकर, बहाना बनाकर घर में नहीं बैठ सकता.’’
जब पति आते हैं तो उनका भाई भी आ जाता है. कितना मना करती है कि अन्दर नहीं आना है, कोई चीज़ नहीं छूनी है पर नहीं, वह अन्दर भी आयेगा. सामान भी छूयेगा. पानी भरकर पियेगा. जबकि उसने बाहर ही पानी की बोतलें और डिस्पोजल गिलास रख दिये हैं, पर वो उन हिन्दुस्तानियों में से था जिन्हें सूनी सड़कों पर निकलना ही है, जिन्हें शहर का जायजा लेना ही है, जिन्हें कानूनों को धता बताकर पुलिसवालों से बहस करके निकलना ही है. वह मज़े से बता रहा था कि अपनी दोस्त की गाड़ी में घूमता रहा है. उसको (दोस्त) बुखार आ गया. अब वह टेस्ट करवा रहा है, उसका पॉजीटिव आया है. बड़ी जुगाड़ से सरकारी हास्पिटल में जगह मिली है.
‘‘आपके पाँव दबा दूँ?’’ वह लक्ष्मण बनकर भाई के हाथ-पाँव दबा रहा था. दोनों ए.सी. में बैठे थे. वहीं खाना खाया. सोये भी. वह नाराज़ हो रही है.
दूसरे दिन पति को निकलना था. जाकर पति ने टेस्ट करवाया.
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘पॉजीटिव…!’’
‘‘पॉजीटिव.’’ उसके पाँवों के नीचे की ज़मीन खिसक गयी. लगा पानी में डुबकी लगा रही है. डूब रही है. लो आ गया मौत का आमंत्रण!
‘‘तुम भी टेस्ट करवा लेना. मैंने संतोष को भी बोल दिया है.’’
‘‘मना किया था पर नहीं, तुमने तो मज़ाक समझ रखा है ज़िन्दगी को. अब क्या होगा?’’
‘‘मेरे पास तो सी.एम.ओ. के डॉक्टर्स की टीम से फ़ोन आ गया है, वे मुझे होम क्वारेंटाइन का बोल रहे हैं. मैं वहीं आ जाता हूँ. कहीं हालत खराब हुई तो एडमिट तो हो जाऊँगा.’’
और रात के दो बजे होंगे कि उसने महसूस किया, तेज बुखार से उसका बदन टूट-तप रहा है. टेबलेट ली. बुखार कम तो हुआ पर उतरा नहीं.
‘‘जाकर टेस्ट करवाओ.’’
‘‘किसके साथ जाऊँ? गाड़ी है पर ड्राइवर नहीं आ रहा है. ऑटो, टैक्सी कुछ भी नहीं.’’
कई जगह बात की. मित्र का बेटा पैथॉलॉजी चलाता है. हो सकता है उसके पास कोई साधन हो.
‘‘आंटी, घर तो आ जायेंगे पर आपको थोड़ा दूर आना पड़ेगा. पड़ोसी पसन्द नहीं करते हैं.’’
‘‘कितने पैसे लगेंगे?’’
‘‘तीन हज़ार.’’
वह सोच में पड़ गयी. अगर पॉजीटिव आई तो कहीं न कहीं तो इलाज करवाना ही पड़ेगा. फिर क्यों न वहीं टेस्ट करवाया जाये.
‘‘डॉक्टर साहब, टेस्ट करवाना है. एंटीजन टेस्ट करवाया था तब निगेटिव आया था पर रात में बुखार आ गया था. और हसबैंड तो पॉजीटिव हैं ही.’’
‘‘अभी आप एक दिन रुक जाओ. हमारे हास्पिटल को सरकार कोविड सेण्टर बना रही है. वहीं आपके लिए बोल दूँगा. वे लोग घर आकर सैम्पल ले जायेंगे.’’ उसके पारिवारिक डॉक्टर ने सलाह दी.
‘‘जी….’’
फिर डॉक्टर अजय को फ़ोन लगाया…
‘‘आप तो प्राइवेट में ही जाएँ. अभी से परेशान क्यों हैं?’’
‘‘क्योंकि घर में एक व्यक्ति को हो चुका है.’’ हाथ-पाँव काँप रहे थे. दिल की धड़कनें बढ़ गयी थीं. बच्चों के चेहरे याद आ रहे थे. हे ईश्वर! कहीं कुछ हो गया तो. बचपन में गायों को देखा था हरी घास के मैदान में! कैसे वे एक छोर से दूसरे छोर तक घास चर डालती थीं. वैसे ही कोरोना वायरस उसके फेफड़ों को चर रहा होगा.
हर घंटे ऑक्सीजन का लेबल देखती. हर घंटे टेम्प्रेचर लेती… हर पल मृत्यु को जैसे पीछे धक्का दे रही हो.
लाजवाब कहानी। सूक्ष्म रचनात्मकता के साथ रचा है कहानी को।अंश अंश में दंश भरती कहानी। पंक्ति पंक्ति सजीव
बहुत मार्मिक और यथार्थपरक कहानी…साक्षात देखे और झेले हुए अनेक पल स्मृति को झकझोर गए… उर्मिला दी मन को भिगो गई आपकी कहानी 🙏
बेहद मारक कहानी… दर्द की चादर में लिपटी जो बेबसी में ढल गया है धीरे-धीरे.. आत्मनिर्वासित करता हुआ।
अब तक समय मानो वहीं भंवर में फंसा ऊभ-चूभ कर रहा है, और ठगी सी खड़ी मनुष्य की जिजीविषा आगे कदम बढ़ाने के लिए जमीन ही नहीं पा रही है। महामारी ने मनुष्य के आत्मविश्वास को तोड़ा है सबसे ज़्यादा, फिर उसकी सामाजिकता को। उर्मिला जी को बधाई
पहले प्रोफ़ेसर अरुण देव जी का धन्यवाद । क्योंकि इन्होंने उर्मिला शिरीष की कहानी ‘देश बताओ तुम्हें क्या हुआ है ?’ को समालोचन पर साझा किया है । यह कहानी दो चरणों में पूरी होती है । एक विषय पर केंद्रित है । कोरोनावायरस, कोरोना या कोरोना-19 । मैं टिप्पणी को 2 या 3 हिस्सों में पूरा कर रहा हूँ । टिप्पणी देरी से करने का कारण मेरा रोग है । दवा सेवन करने के बाद दिन में एक से अधिक घंटे तक नींद लेना अनिवार्य है । समालोचन और एक्सप्रेस नहीं पढ़ पाता ।
पृथ्वी की अनश्वरता के बरक्स कोरोनावायरस मनुष्य जगत को चुनौती देने आ खड़ा हुआ है । मुझ सहित अन्य व्यक्ति क्वारन्टीन शब्द से वाक़िफ़ नहीं होंगे । कन्फाइन पढ़ा और सुनता आया था । अनंत में, 1670 किलोमीटर प्रति घंटे की दर से घूमती धरती अपने होने में आश्वस्त है । लेकिन मनुष्य अनश्वर नहीं है । मेरी दृष्टि में अनश्वर है । वह पिछली कड़ी को पकड़कर पुनः जीवित हो जाता है । जैसे ‘The Phoenix is an immortal bird associated with Greek mythology that cyclically regenerates or is otherwise born again. Associated with the sun, a Phoenix obtain new life by arising from the ashes of its predecessor. Wikipidiya.
1924 में एक घटना घटी । 1924 में जर्मनी 🇩🇪 में अणु विज्ञान के संबंध में जो शोध का पहला संस्थान निर्मित हुआ, अचानक एक दिन सुबह एक आदमी, जिसने अपना नाम फल्कानेली बताया, एक काग़ज़ लिख कर वहाँ दे गया । और उस काग़ज़ में एक छोटी सी सूचना दे गया कि मुझे कुछ बातें ज्ञात हैं, और कुछ लोगों को भी ज्ञात हैं, उनके आधार पर मैं यह ख़बर देता हूँ कि अणु के साथ खोज में मत पड़ना, क्योंकि हमारी सभ्यता के पहले भी सभ्यताएँ इस खोज में पड़ कर नष्ट हो चुकी हैं । इस खोज को बंद ही कर देना । बहुत खोजबीन की गयी, उस आदमी का कुछ पता न चला । बाक़ी अगली टिप्पणी में ।
Werner Karl Heisenberg (5 December 1901-February 18 1967) was a German theoretical physicist who was professor of physics at University of California, Berkeley. He was father of atomic bomb. And one of the key pioneers of quantum mechanics. He has also made contribution to the theories of hydrodynamics of turbulent flows, the atomic nucleus, ferro magnetism, cosmic rays, and sub atomic particles. He was a principal scientist in the German nuclear weapons programme during World War 2. He was also president of German Research Council, chairman of the commission for Atomic Physics, chairman of the Nuclear Physics Working Group.
He had to withdraw his hands after the disastrous results of Second World War. In my opinion he was full of guilt to hinder the immortality of human beings. Most of the details from Wikipidiya.
कहानी पर लिखने से पहले अणु बम पर कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ । विकिपीडिया की सहायता ली है । इसमें गीता के एक श्लोक का उद्धरण है । ढूँढकर बाद में लिखूँगा ।
J. Robert Oppenheimer (April 22, 1904-February 18, 1967) was an American theoretical physicist who was professor of physics at University of California, Berkeley was the wartime head of Los Alamos Laboratory and is among those who are credited with being the “father of atomic bomb” for their role in the Manhattan Project-the World War 2 undertaking that developed the first nuclear weapons. Oppenheimer was among those who observed the Trinity test in New Mexico 🇲🇽, the first bomb was successfully detonated on July 16, 1945. He later remarked that explosion brought to mind words from Bhagavad Gita,”Now I am become Death, the destroyer of worlds.” In August 1945, the weapons were used in the atomic bombing of Hiroshima and Nagasaki.
इस बेहद मार्मिक कहानी की रचयिता उर्मिला जी को हृदय से धन्यवाद और इसके प्रकाशन के लिए अरुण जी को साधुवाद।
गिरधारी अपनी पत्नी को साइकिल के कर्रिएर पर बिठाकर अपने घर पहुँचने की तड़प ऐसी की समय भी इसके सामने हार गया है । पुलिस एकेडमी में मानवीय प्रशिक्षण प्राप्त करने के बावजूद पुलिस का काम हड़काना है । गिरधारी की पत्नी कैंसर से पीड़ित है । अत: पति अपनी पत्नी की रेडिएशन थैरपी (कीमोथैरपी) कराने के लिये भोपाल ले जा रहे हैं । यह उनके निवास से 150 किलोमीटर दूर है । कोरोनावायरस ने सभी यात्री वाहनों के चलाने पर रोक दी जा चुकी है । कहानी में नहीं बताया गया कि गिरधारी ग़रीब आदमी है । उर्मिला शिरीष जी ने पत्नी का नाम लिखना चाहिये था । डेढ़ सौ किलोमीटर और वो भी डबल सवारी ? सवारी यात्री वाहनों को कहते हैं । और यात्री सवार । परंतु सवारी लिखना चल निकला है । जैसे वर और वधू जब तक सप्त पदी अर्थात् फेरे नहीं लेते तब तक होने वाली पत्नी होने वाले पति के वामांग में नहीं बैठती । वामा शब्द इसी से निकला है । कभी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप ‘वामा’ नाम की पत्रिका प्रकाशित करता था ।
समालोचन ने उर्मिला शिरीष की कहानी के माध्यम कोरोना काल में पैदल यात्रियों का सजीव चित्रण किया है । उर्मिला जी को साधुवाद ।
कहानी का दूसरा हिस्सा एक डॉक्टर के संबंध में है । वे इस दौरान अपने घर नहीं आ पाये । उनकी पत्नी कहती है कि पहले मेरे पति प्रत्येक शनिवार को घर आ जाते थे । घर में ज़िंदगी जीवंत हो उठती थी । घर में कपड़े सूखने लगते थे । अब सरकार का आदेश है कि डॉक्टरों को मुख्यालय नहीं छोड़कर कहीं नहीं जाना है । डॉक्टर की पत्नी ने जीवन में कभी बर्तन नहीं माँजे थे, कपड़े, झाड़ू-पोंछा और घर की सफ़ाई नहीं की थी । डॉक्टर कहते हैं “इतना काम क्यों फैलाती हो” अकेली हो तो थोड़े बर्तनों से काम चला लिया करो । रह-रहकर बाईयाँ याद आ रही हैं । सकारात्मक पक्ष है कि पत्नी हर महीने बाईयों के खाते में ट्रांसफ़र कर देती है ।
डॉक्टर की पत्नी ने कभी अकेले रहना नहीं सीखा । उसे सारे संसार में सन्नाटा पसरा हुआ लगता है ।
हमारे पारिवारिक जीवन में दोस्त और MD (Medicine) डॉक्टर ने अखिल भारतीय आयुष विज्ञान की सलाह पर सात दिनों तक काढ़ा पिया था । सात दिनों में ही पेट की गर्मी बढ़ गयी । तकलीफ़ हो गयी । कहानी के डॉक्टर की पत्नी ने आस-पड़ोस में जगह जगह झुग्गियाँ बन गयी हैं । बच्चे खेलते हैं । वे कोरोनावायरस में दो मीटर की दूरी बनाये रखने की हिदायत नहीं मानते । साधु और गुरु सत्संग कर रहे हैं और social distancing की धज्जियाँ उड़ा रहे हैं । मैं बाहर की बात क्या लिखूँ ।
मेरे भाई साहब की पत्नी एक गुरु की कथा में एक वर्ष में साढ़े दस महीने उपस्थित रहती हैं । कोरोनावायरस के आरंभिक एक वर्ष में दो महीने बमुश्किल घर में बिताये । वे मानसिक रूप से अवसाद में चली गयी थी । उनके गुरु ने सामाजिक दूरी की धज्जियाँ उड़ाते हुए कथा की । प्रोफ़ेसर अरुण देव जी, अकेली ज़िंदगी गुज़राना साधना करने के समान है ।
बढ़िया कहानी है । उर्मिला शिरीष सिद्धहस्त लेखिका हैं। यह आपदा अपने पर लिखने के लिए बहुत कठोर अनुशासन चाहती है। बहुत कुछ दिखाने के मोह में कहानी का तनाव शिथिल पड़ गया है। फिर भी यादगार कहानियों में शुमार तो रहेगी।