राहुल सांकृत्यायन: बुद्ध, जापान और ‘जपनिया राछछ’(‘जापान’ और ‘जपनिया राछछ’ में प्रतिबिम्बित राहुल सांकृत्यायन की जापान दृष्टि पर केन्द्रित)
पंकज मोहन |
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हिन्दी के क्षितिज पर जयशंकर प्रसाद, प्रेमचन्द, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, रामचन्द्र शुक्ल सदृश अनेक प्रतिभावान साहित्यकारों का उद्भव हुआ जिन्होंने हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं को अभूतपूर्व ऊंचाई दी, लेकिन महापंडित राहुल सांकृत्यायन ही एकमात्र साहित्यकार हैं जिन्होंने महात्मा बुद्ध की प्रज्ञा ज्योति और मार्क्सवादी विचारधारा के मशाल से आलोकित पथ पर यात्रा कर हिन्दी को तेजोमय वैश्विक फलक प्रदान किया.
राहुलजी ने हिमालय की अभ्रभेदी श्रृंखलाओं के पार एशिया के दुर्गम भूभाग में बिखरे हुये बौद्ध सूत्रों और शास्त्रों की खोज तथा “मेरी लद्दाख यात्रा”, “श्री लंका यात्रावली” “तिब्बत में सवा वर्ष” “मेरी तिब्बत यात्रा” “यात्रा के पन्ने” “जापान” “एशिया के दुर्गम खण्डों में” आदि यात्रा ग्रंथों की रचना कर भारत और विश्व की बौद्ध सभ्यताओं के बीच समन्वय और सामंजस्य का सेतुबंध स्थापित किया.
“सिंह सेनापति” “विस्मृत यात्री”, जैसे उपन्यास और “वोल्गा से गंगा” मे संकलित “बंधुल मल्ल”, “नागदत्त” और “प्रभा” जैसी कहानियाँ लिखकर उन्होंने हिन्दी समाज के सामने भारत के गौरवमय अतीत की झांकी प्रस्तुत की. “पाली साहित्य का इतिहास” “बुद्धचर्या”, “बौद्ध संस्कृति” “बौद्ध दर्शन”, “तिब्बत में बौद्ध धर्म” आदि पुस्तकों के प्रणयन और “विनय पिटक” और “मज्झिमनिकाय” जैसे बौद्धग्रंथों के हिन्दी अनुवाद द्वारा उन्होने भारत मे बौद्धविद्या की आधारशिला तैयार की.
वस्तुतः राहुलजी के भगीरथ प्रयत्न के फलस्वरूप ही हिन्दी वांगमय में भारतीय संस्कृति के वैश्विक विस्तार की अवधारणा को ठोस आधार मिला.
राहुलजी की अन्तर्राष्ट्रीय का दूसरा स्रोत है साम्यवाद. बौद्ध भिक्षु, धर्मप्रचारक और बौद्ध दर्शन के अथक अध्येता के रूप में राहुलजी ने परम्पराओं को युगसत्य के निकष पर परखा, उन्हें अपने अनुभवों के आलोक में नए सिरे से समझा और कभी किसी एक विचारधारा से न बंधकर सत्य की खोज में हमेशा आगे बढ़ते रहे. उन्होंने अपनी आत्मकथा “मेरी जीवन यात्रा” के आरम्भ में अपने हृदय पटल पर अंकित महात्मा बुद्ध की देशना को उद्धृत किया है:
“कुल्लुपमं देसेस्यामि वो भिक्खवे धम्मं
तरणत्थाय नो गृहणत्थाय.”
अर्थात्
“हे भिक्षुओ! मेरी धर्म देशना छोटी सी नौका है जो सिर पर रखकर ढोने के लिये नहीं, श्रम और विवेक के बल पर खेकर पार उतरने के लिए है”.
बौद्ध दर्शन में दस पारमिताओं में प्रज्ञा पारमिता को सर्वश्रेष्ठ माना गया है. प्रज्ञावान व्यक्ति विवेक की कसौटी पर हर स्थिति का सम्यक विश्लेषण करता है. इसी प्रज्ञाचक्षु के कारण राहुलजी किसी एक विचारधारा से बंधकर नहीं रह सके । 1930 के दशक के जब उन्हें शोषण मुक्त और न्यायमूलक समाज के निर्माण का मार्ग मार्क्स की विचारधारा मे दिखा, वे कम्युनिस्ट पार्टी से जुड गये.
स्पष्ट है कि वैचारिक गतिशीलता जो बौद्ध दर्शन का वैशिष्ट्य है, राहुलजी के जीवन दर्शन को भी परिभाषित करती थी.
उन्होंने अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत 1921 के असहयोग आन्दोलन के समय छपरा में कांग्रेस के कार्यकर्ता के रूप में की और जून 1931 में जयप्रकाश नारायण, अब्दुल बारी और गंगाशरण सिंह आदि नेताओं के साथ बिहार समाजवादी पार्टी की स्थापना की. अक्टूबर 1939 में जब कम्युनिस्ट पार्टी की बिहार इकाई का गठन हुआ, वे इसकी स्थापना के लिये आयोजित बैठक में शामिल हुये. साम्यवादी विचारधारा से जुड़कर उन्होंने सामंतवाद और साम्राज्यवाद के दमन चक्र में पिसते सर्वहारा वर्ग की मुक्ति के लिये संघर्ष किया. विश्व की पददलित जनता की आवाज बनकर और उन्हें अपनी ताकत और अधिकार के प्रति सजग करने के उद्देश्य से उन्होंने “भागो नहीं दुनिया को बदलो”, “साम्यवाद ही क्यों”, “सतमी के बच्चे” “दिमाग़ी ग़ुलामी”, “तुम्हारी क्षय”, “नइकी दुनिया” ‘मेहरारुन के दुरदसा’, “साम्यवाद ही क्यों” जैसी विभिन्न विधाओं की किताबें लिखीं, और साथ ही कार्ल मार्क्स, लेनिन, स्टालिन और माऊ चे तुंग की जीवनियों का भी प्रणयन किया.
विश्व के अनेक देशों में राहुलजी की सर्वतोमुखी प्रतिभा, हिंदी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता तथा साहित्य की विविध विधाओं के उन्नयन में उनके योगदान पर अनेक शोधकार्य सम्पन्न हुये हैं.[1] पिछले कुछ वर्षों में राहुलजी की नेपाल, तिब्बत, मध्य एशिया और चीन यात्रा के वृतांत और इन देशों के इतिहास और संस्कृति पर लिखे उनके निबंधों, शोध ग्रंथों और यात्रा पुस्तकों के आधार उनकी अन्तर्राष्ट्रीयता के कुछ महत्वपूर्ण पक्षों को उद्घाटित करने के प्रयास भी हुये हैं, फिर भी कुछ पहलू अभी भी अछूते हैं.
एक ऐसा ही विषय है राहुल जी की जापान दृष्टि जिसे समझने के लिये उनकी आत्मकथा के अलावा उनकी दो पुस्तकों- “जापान” और भोजपुरी नाटक “जपनिया राछछ” (जापानी राक्षस) का सम्यक विश्लेषण आवश्यक है. “जिनका मै कृतज्ञ” में भी “दो जापानी मित्र” नामक एक लेख संकलित है जिसमें उन्होंने जापान के दो मित्र (जिनके वे जापान-प्रवास के दौरान अतिथि थे) के सान्निध्य की स्मृति को संजोया है.
कैशोर्य काल में राहुलजी का मन जापान की शौर्य गाथा से अभिभूत था और कालांतर में वे जापान की वैभवशाली बौद्ध संस्कृति के प्रति भी श्रद्धानवत हुये, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उनका जापान प्रेम वितृष्णा और विक्षोभ में परिवर्तित हो गया.
जापान के सैन्य फासीवाद के प्रति अपने आक्रोश को वे अपनी आत्मकथा “मेरी जीवन यात्रा” (प्रथम भाग) में भी संक्षेप में व्यक्त करते हैं. वे लिखते हैं कि साम्यवादी विचार की लोकप्रियता के कारण शासकवर्ग ने देश पर फासीवाद थोपा और अनेक मार्क्सवादी युवकों को जेल में ठूंस दिया. वे यह भी लिखते हैं कि सत्ता सैनिक सामंतवंशों के हाथ में है और सम्राट उनके हाथ की कठपुतली मात्र है.
राहुलजी को यह देखकर दुख हुआ कि एक ओर सेना साम्राज्यवाद के विस्तार के लिये उद्धत है, और दूसरी ओर भुखमरी के मारे आत्महत्या करने को विवश होने वाले जापानियों की संख्या में वृद्धि हो रही है. जापानी फासीवाद के खिलाफ राहुलजी के आक्रोश के स्वर को हम उनके भोजपुरी नाटक “जपनिया राछछ” में स्पष्टता के साथ सुन सकते हैं.
इस लेख में मैंने राहुलजी की जापान दृष्टि के परिवर्तन की इस प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया है और साथ ही मैने “जपनिया राछछ” जिसे लुप्त साहित्य माना जाता था, के महत्व पर भी प्रकाश डालने की कोशिश की है.
जैसा कि मैंने ऊपर लिखा है, राहुलजी के हृदय में जापान के प्रति निर्मल, निष्कलुष भाव था. कैशोर्य काल में अपने पितामह के मुख से रूस-जापान युद्ध में जापान की विजय का समाचार सुनकर उनका हृदय बल्लियों उछलता था. वे सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित अध्यापक पूर्ण सिंह के “सच्ची वीरता” जैसे लेख जिसमें जापानी शौर्य की स्तुति थी और अपने स्नेही और हितैषी शिव प्रसाद गुप्त की पुस्तक “पृथ्वी प्रदक्षिणा” (जिसमें पोर्ट आर्थर की वन्दना थी) से भी बहुत प्रभावित हुये होंगे. अपनी विदेश यात्रा के दौरान गुप्त जी ने पोर्ट आर्थर की धूलि को शीष लगाकर जापान की शौर्य गाथा का स्मरण किया:
“एशिया में स्वतंत्रता की घोषणा करने वाले… अमेरिका की बात को रुद्ध करने वाले.. एशिया फार एशियाटिक्स की घोषणा करने वाले.. श्वेतांगों के तुषार से ठिठुरे हुये सवर्णों के शरीर को वसन्तागमन का सन्देश पहुंचाकर गर्मी पहुंचाने वाले… वन्दे पोर्ट आर्थरम! वन्दे मातरम.”
इसे पढ़कर महावीर प्रसाद द्विवेदी इतना प्रफुल्लित और रोमांचित हुये, कि उन्होंने लिखा:
“यह नक्काल मसिजीवी भी गुप्त जी को ऐसी पुस्तक प्रकाशित करने के लिए सादर प्रणाम करता है, और आप ही की तरह प्रमोदपूर्ण उच्च स्वर से कहता है, वन्दे मातरम.”
(रामविलास शर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण).
वस्तुतः 1937 के द्वितीय चीन-जापान युद्ध के आरंभ तक भारत के प्रायः बुद्धिजीवी के मन में जापान के प्रति कटुता नहीं थी. 1937 में जब जापान ने नानजिंग नगर में खून की नदी बहाई जिसे चीनी जनता तीन लाख लोगों को मौत के घाट उतारने वाला “रेप आफ नानजिंग” कहती है, भारतीयों का हृदय परिवर्तन हुआ. इसी संदर्भ में गुरुदेव टैगोर ने जापानी कवि याने नोगुचि को पत्र लिखकर उनके राष्ट्रवादी विचारों का खंडन किया और जापान के इस दावे को कि जापान एशिया के पराधीन देशों को गोरों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए कृतसंकल्प है, को खोखला बतलाया.
उन्होंने लिखा, ‘एशिया की आपकी अवधारणा मूलतः नरकंकाल का मीनार है’.
राहुलजी ने मई 1935 में जापान की यात्रा की. वे भारत में चुसिओ ब्योदो जिन्होंने टोक्यो विश्वविद्यालय से बौद्ध धर्म तथा भारतीय दर्शन में बीए की डिग्री प्राप्त की थी और 1933-34 में शांतिनिकेतन में भी संस्कृत का विशेष अध्ययन किया, से मिल चुके थे. जापान में राहुलजी के दूसरे परिचित थे जुन्जी सकाकिवारा जिनसे वे 1932 में अपने जर्मनी प्रवास के दौरान मिले थे. बर्लिन के समीप फ्रोनो नामक स्थान पर एक बौद्ध विहार था Das Buddhistische Haus (बौद्ध भवन) जहां रहकर सकाकिवारा संस्कृत और बौद्ध धर्म का अध्ययन कर रहे थे. महाबोधि सभा ने जब राहुलजी को धर्म प्रचार के लिए यूरोप भेजा, वे भी कुछ समय के लिये यहीं रुके थे.
महाबोधि पत्रिका के जनवरी 1934 अंक में जर्मनी में वैसाख पूर्णिमा के अवसर पर सकाकिवारा द्वारा दिये गये एक अभिभाषण का उल्लेख है जिससे पता चलता है कि वे अपने जर्मनी के छात्र जीवन के दौरान वहां के बौद्ध विहार समाज में लोकप्रिय थे. राहुल जी के दोनों जापानी मेजबान बौद्ध धर्म के सुधी अध्येता और बौद्ध मंदिर के महंत थे.
अपने जापान-प्रवास के दौरान राहुलजी ने जापान की बौद्ध संस्कृति का गहन अध्ययन किया और शोध सामग्रियों को इकट्ठा किया जिसके आधार पर उन्होंने “जापान” पुस्तक के कुछ अध्याय लिखे और “बौद्ध संस्कृति” पुस्तक के जापान-विषयक अध्याय की रचना की.
1936 में साहित्य सेवक संघ, छपरा द्वारा प्रकाशित “जापान” नामक पुस्तक का बहुलांश जापान की बौद्ध संस्कृति पर केन्द्रित है. इस पुस्तक में राहुलजी ने जापान के अनेक विश्वविद्यालयों, बौद्ध विद्या संस्थानों और बौद्ध विहारों में दिये गये अपने व्याख्यानों और जापान के बौद्ध विद्या के पंडितों के साथ हुये विचारों के आदान-प्रदान का रोचक वर्णन किया है.
एक जगह वे लिखते हैं:
“जापान आने का मेरा एक मतलब था, बौद्ध पंडितों से मिलना. 10 मई को मैं तोक्यो पहुँचा था. 14 मई को रिश्शो विश्वविद्यालस में प्रोफ़ेसर किमूरासे मिलने गया. यह विश्वविद्यालय उसी निचिरेन सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखता है, जिसके भिक्षु ने भारत (कलकत्ता) में पहला जापानी बौद्ध-मंदिर स्थापित किया. प्रोफ़ेसर किमूरा बीस वर्ष के क़रीब भारत में रह चुके है. कितने ही वर्षों तक वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे थे. वे उन सुसंस्कृत जापानियों में है, जिन्हें भारतीय नागरिक मंडली में बहुत काल तक आत्मीयों की भाँति रहना पड़ा, और जो उससे बहुत प्रभावित हुये हैं. जिस वक्त वे अपने गुरु स्वर्गीय महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री का वर्णन करते थे, प्रेम और श्रद्धा के मारे वे गदगद-कंठ हो जाते थे. बहुत देर तक हम दोनों भारतीय बौद्ध दार्शनिकों के काल के सम्बन्ध में बातचीत करते रहे.”
प्रोफ़ेसर किमुरा से मिलकर राहुल जी सचमुच बहुत प्रसन्न और प्रभावित हुये होंगे क्योंकि दोनों ही विद्वानों ने अपने-अपने देशों में बौद्ध विद्या के विकास में अप्रतिम योगदान दिया. 1920 के दशक में प्रोफ़ेसर किमुरा जब कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक थे, उन्होंने दो महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं: “The Original And Developed Doctrines Of Indian Buddhism” (1920) और “A Historical Study of the Terms Hinayana and Mahayana and the Origin of Mahayana Buddhism” (1927).
राहुल जी प्रोफ़ेसर किमूरा के गुरु प्रोफ़ेसर हर प्रसाद शास्त्री के भी ऋणी थे. शास्त्री जी ने नेपाल के अनेक विहारों और प्राचीन ग्रंथ के अभिलेखागारों से हजारों वर्ष पूर्व विरचित “चर्यापद” या “चर्यागीत” तथा संस्कृत की अन्य पांडुलिपियों का उद्धार किया, बंगला में “बौद्ध धर्म” और अंग्रेजी में मागधी साहित्य, “आधुनिक भारत में संस्कृत साहित्य” , “बंगाल में जीवित बौद्ध धर्म की खोज” आदि पुस्तकें लिखी और कई शीध प्रबंधों की रचना की. 1917 में प्रकाशित शास्त्री जी के ग्रंथ “বৌদ্ধ গান ও দোঁহা” (बौद्ध गान और दोहा) जिसमें सरहपा के चालीस दोहे संकलित हैं, ने राहुल जी के शोध का मार्ग प्रशस्त किया जिसका एक उदाहरण प्रकाशित पुस्तक दोहा कोश है जिसमें तिब्बती भाषा में अनूदित सरहपाद की काव्यकृति (165 दोहे, सोरठे, चर्यापद आदि जो उन्हें तिब्बत के शाक्य विहार में प्राप्त हुये थे) राहुलजी द्वारा किये गये हिन्दी रूपांतरण के साथ संकलित हैं.
राहुलजी ने आठवीं सदी के सिद्ध सरहपा को हिन्दी का प्रथम कवि कहा है.
वर्ष 1935 के मई महीने में जापान की धरती पर पैर रखते ही इन्डो-जापानी असोसियेशन, रिश्शो विश्वविद्यालय ओर अन्तर्राष्ट्रीय बौद्ध संघ ने राहुल जी का अभिनंदन किया.
एक-जून को जापान-तरुण-बौद्ध संघ ने एक स्वागत समारोह आयोजित किया जिसकी अध्यक्षता प्रोफ़ेसर किमूरा ने की. राहुलजी ने अपने भाषण में कहा कि जापानी बौद्धों को भारत में अपने प्रचारक भेजने चाहिये- ऐसे प्रचारक, जो भारतीयों को बौद्ध धर्म के महत्व के साथ जापानी कृषि, गृहशिल्प आदि की भी शिक्षा दें.. प्रोफ़ेसर किमूरा ने जब भारत के बारे में बोलना शुरू किया, भावावेश के कारण उनका कंठ अवरुद्ध हो गया और कई बार बीच-बीच में उन्हें रुक जाना पड़ा.
भाषण की औपचारिकता जब समाप्त हुई, राहुलजी ने छात्र-संघ की ओर से दिये गये प्रीतिभोज में हिस्सा लिया. प्रीतिभोज के अवसर पर छात्रों के प्रतिनिधि द्वारा दिये गये भाषण ने राहुलजी बहुत प्रभावित हुये. इस भाषण को राहुलजी ने अविकल प्रस्तुत किया है:
“आपके देशवासियों के प्रति हमारे भाव मित्रतापूर्ण ही नहीं, घनिष्ठ प्रेम के हैं. भारत का नाम ही हमारे हृदय में भगवान बुद्ध का स्मरण कराता है. उनके सर्वांगपूर्ण व्यक्तित्व और सिद्धान्तों के द्वारा सुखावती लोकधातु का चित्र हमारी आँखों के सामने खिच जाता है. हम नवयुवकों के लिये भारतवर्ष वही अर्थ रखता है, जो फिलिस्तीन ईसाइयों के लिये.
हमारा आदर्श भारतवर्ष है; किन्तु वह भारत नहीं, जो अंग्रेजों की मातहती में है, और न वह भारत, जहाँ भगवान बुद्ध की पवित्र धातु (बोध गया का मंदिर) अन्य धर्मावलम्बियों के हाथ में है.
हमारे हृदय में वह भारत है, जहाँ २,५०० वर्ष पहले भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था, जहाँ उन्होंने ज्ञान अर्जन किया, संन्यास ग्रहण किया, गुद्धकूटपर सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र का प्रचार किया, और जहाँ उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया.
जब कभी हम आपके देशवासियों को देखते हैं, हमारे नेत्रों के सामने यही दृश्य घूम जाता हैं, इसलिये आपको यहाँ देखकर हमें जो प्रसन्नता होती है, वह वर्णनातीत है. भाषा, जाति और आचार-विचार में भिन्न होते हुये भी भगवान बुद्ध के महान नाम पर हममें और आपमें एकता है. सांसारिक एकता टूट सकती हैं; किन्तु आध्यात्मिक एकता कभी नहीं टूटती. हम समझते हे कि दोनों (देशों) की भौगोलिक स्थिति और अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति को देखते हुये भारत और जापान को एकता के सूत्र में बंध जाना चाहिए.
हमारे निचिरेन-सम्प्रदाय के संस्थापक ने 700 वर्ष पहले ही बड़ी बुद्धिमत्ता से यह कहा था कि भारत में उत्पन्न हुआ बौद्ध धर्म जापान में आकर पूर्णता को प्राप्त करेगा. यह परिपूर्ण धर्म फिर भारत को उसी प्रकार आशा और प्रकाश प्रदान करेगा, जिस प्रकार भगवान बुद्ध के सिद्धान्तों ने जापान को प्रदान किया है हमें आशा है कि जापान में रहते समय आप हमारे निचिरेन-सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का अध्ययन करके भारत लौटने पर वहां उसका प्रचार करेंगे.
आपके यहाँ पधारने पर यहां की प्रकृति भी असाधारण मौसम से आप पर कृपा दिखला रही है. ऐसा मौसम जैसा आजकल हमें मिल रहा है, वर्ष के इस भाग में जापान में बहुत कम नसीब होता है. हम समझते हैं कि यह आपके शुभागमन के बदौलत ही है. हमें आशा हैं और हम प्रार्थना करते हैं कि जब तक आप रहें, मौसम ऐसा ही सुन्दर रहे और आपका स्वास्थ्य ठीक रहे.“
इस पुस्तक के जापानी बौद्ध संस्कृति से सम्बन्धित अनको अध्याय हैं:
“होर्योजी: जापान का प्रथम बौद्ध मंदिर; जापान में बोद्ध धर्म; जापान के अशोक उपराज शोतोकु; महात्मा निजिरेन; कामाकुरा; एक जापानी बौद्ध कन्या-पाठशाला; नारा; क्योतो और कोयासान.
कुल मिलाकर इस पुस्तक में राहुल जी का ध्यान बौद्ध धर्म की आधारशिला पर निर्मित जापान की महिमामंडित संस्कृति पर केन्द्रित है. वे नागरिक सुरक्षा सायरन या हवाई-छापे सायरन को सुनते है, सैन्य गतिविधियों के विस्तार को देखते हैं और यह भी लिखते हैं कि जापान चीन के कुछ प्रान्तों पर आधिपत्य स्थापित करने के लिए उद्यमशील प्रतीत हो रहा है, लेकिन वे इससे असाधारण रूप से विचलित या चिन्तित होते नहीं दिखते हैं. वे अभी मूलतः एक बौद्ध भिक्षु हैं जिनके मन में दोनों देशों के बीच के आपसी सौहार्द, सद्भाव और समन्वय को सुदृढ़ करने की अभिलाषा है.
यही कारण है कि वे जापान के जातीय शौर्य के प्रतीक सामुराई (क्षत्रिय ) और उसकी बुशिदो परम्परा (क्षात्र धर्म) की प्रशंसा करते हैं. वे लिखते हैं:
“यह जापानी बुशिदो ही है, जो आज यूरोप, अमेरिका सभी को विचलित’ कर रहा है. चितौड़ के राजपूत जिस भाव से प्रेरित हो केसरिया बाना पहनते थे, उसी को जापानी शब्द “बुशिदो” प्रकट करता है. यदि रूस-जापान-युद्ध में सेना में भरती करने में (अगर परिवार) इनकार करता था तो व्यक्ति अपने आश्रित प्राणियों को मारकर भरती हो जाता था. यह बुशिदो है. शंघाई में चीनी सिपाही की अभेद्य पंक्ति को तोड़ने के लिये जापानी सैनिक अपने शरीर में बम्ब बाँधकर दौड़ते हैं, कूदते हैं, तो यह बुशिदो है.”
राहुलजी को ज्ञात था कि 1919 और 1931 में जापान ने बुशिदो या योद्धा-मार्ग की परम्परा का दुरुपयोग क्रमशः कोरिया और मन्चुरिया की निर्बल और निर्दोष जनता के उत्पीड़न में किया, साम्राज्यवाद के विस्तार में किया और निकट भविष्य में जापान बुशिदो के कहर को चीनी जनता पर ढहाने के लिये कृतसंकल्प था, फिर भी किसी कारणवश वे इस ग्रंथ में जापानी सामंतवाद के इस अवशेष की आलोचना नहीं करते.
एक बार जब वे चुशिओ ब्योदो के साथ एक स्कूल में गये और सैन्य प्रशिक्षण को देखकर जब उन्होंने राष्ट्रवाद से सम्बद्ध कुछ प्रश्न पूछे, जापानियों को आशंका हुई कि राहुलजी भारत लौटकर “जापानियों को बुरे रंग से चित्रित करेंगे”. उनके मेजबान ने कहा, जापानी जनता अपने राष्ट्र के प्रति प्रतिबद्ध है और अपने सम्राट की भक्त प्रजा है. राहुलजी ने हँसते हुये उत्तर दिया, “आपको ऐसा संदेह नहीं करना चाहिये.” राहुलजी ने “जिनका मैं कृतज्ञ” पुस्तक में संकलित ब्योदो सान के संस्मरण में इस घटना का विस्तार से वर्णन किया है:
“मैं जापानी जीवन और उसकी आर्थिक व्यवस्था को बहुत नजदीक से देखना चाहता था. इसलिये आमदनी-खर्च, वेतन-मजदूरी सबकी छान-बीन करता था. ब्योदो सान को ख्याल हो गया कि मैं कोई ऐसी पुस्तक लिखूँगा, जिसमें जापान का रूप काला चित्रित किया जायेगा. वह हमें अपने गाँव का स्कूल दिखाने के लिये ले गये. दोपहर में काफी गर्मी थी, लेकिन उस धूप में भी बच्चे सैनिक कवायद कर रहे थे- पाँच ही छह वर्ष बाद तो उन्हें विश्व-विजय के लिये निकलना था. इसे कहने की आवश्यकता नहीं कि जापान के इस रूपकों मैं बड़ी नफरत की निगाह से देखता था. मैंने स्कूल के लड़के-लड़कियों की पढ़ाई देखी, प्रधानाध्यापक ने सभी बातें बताई. जापान में लड़के-लड़कियाँ दोनों के लिये छह साल की पढ़ाई अनिवार्य थी. सारे जापान में आधे दर्जन से अधिक लेडी डाक्टर नहीं थे. स्त्रियों की अवस्था में जापान ने बहुत कम परिवर्तन होने दिया. विवाह से पूर्व उसका काम है शरीर तक भी बेचकर माँ-बाप की सेवा करना. लड़कों की तरह लड़कियों की भी आरम्भिक शिक्षा अनिवार्य थी; लेकिन वहाँ के राष्ट्र-कर्णधार पूरी चेष्टा करते थे कि स्त्री अपने पैरों पर खड़ी न होने पाये. इसलिये पाठ्य-विषयों में भी अन्तर रखा गया. तोकियो से काफी दूर सेनदाई विश्वविद्यालय को छोड़कर. कहीं उन्हें विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त करने की गुझ्ञाइश नहीं थी.
स्कूल में जो सवाल करके मैंने जानकारी प्राप्त करनी चाही, उससे एक बार ब्योदो सान नाराज हो गये. कहने लगे-
“मैं इसे नहीं बताऊँगा. इससे जापान की बदनामी होगी.”
मैंने नर्मी से समझाया-
“दुनिया में कोई देश देवता नहीं है. कौन-सा देश है जहाँ दरिद्रता, मूर्खता और स्वार्थपरता न हो !”
राहुल जी जापान के जिन बौद्ध भिक्षुओं और विद्वानों से मिले, उनकी विद्वता, सज्जनता और उदारता से बहुत प्रभावित हुये. चुशिओ ब्योदो के गुरु वोगिहारा उनराय (1869-1937) से मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुये. वोगिहारा को आधुनिक जापान की बौद्ध विद्या का शलाका पुरुष माना जाता है. उन्होंने 1899 से लेकर 1905 तक जर्मनी में रहकर संस्कृत और बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया और स्वदेश लौटकर ताईशो विश्वविद्यालय में अध्यापन किया.
उन्होंने महा व्युत्पत्ति पर आधारित संस्कृत-चीनी शब्दकोश तथा संस्कृत-चीनी-जापानी शब्दकोश का निर्माण किया, और इसके अलावा सद्धर्मपुण्डरीक सूत्रम” और हरिभद्र विरचित अभिसमयालङ्कार की टीका ‘आलोक’ के प्रामाणिक पाठ तैयार किये.
ओनिशि रियोकेई (1875-1983) जो होस्सो (धर्मलक्षण) सम्प्रदाय के मंदिर कोफुकुजी के महास्थविर या महंत थे और विज्ञानवाद के तलस्पर्शी विद्वान थे, के व्यक्तित्व की भी उनके मन पर अमिट छाप पड़ा. राहुल जी से उन्होंने अनुरोध किया कि बौद्ध धर्म में रुचि रखने वाले भारतीय छात्रों को उच्च अध्ययन के लिये जापान भेजें. वे पांच भारतीय छात्रों को छात्रवृत्ति देने के लिये तैयार थे. भिक्षु ओनिशि ने लम्बी उम्र पाई. मृत्यु के समय वे जापान के सर्वाधिक वयोवृद्ध व्यक्ति थे.
जापान में राहुलजी की मुलाकात प्रख्यात विप्लवी देशभक्त रास बिहारी बोस से भी हुई. उन्होंने 1912 में दिल्ली में वाइसराय पर बम फेंका था और तीन साल बाद नाम बदलकर जापान चले गये. वे आनंद मोहन सहाय जो श्री राजेन्द्र प्रसाद के साथ काम कर चुके थे और 1922 से जापान के कोबे नगर में रहकर भारत की मुक्ति के लिये संघर्षरत थे, से भी मिले. 1943 में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जब जापान पहुंचे, रास बिहारी बोस और आनंद मोहन सहाय के सहयोग से उन्होंने इंडियन इंडिपेंडेंस लीग और इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना की. सहाय जी की सुपुत्री भारती आशा सहाय चौधरी (जन्म 1928) जो जापान में आसाको के नाम से विख्यात है, भी झांसी की रानी ब्रिगेड में शामिल हो गईं. 2015 में उनकी एक जीवनी प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है “Indo dokuritsu no shishi asako (आशाको: भारतीय स्वतंत्रता सेनानी) और लेखक का नाम है रियोहेई कासाई.
महंत सकाकिवारा और महंत ब्योदो ने हरसंभव प्रयास किया कि महापंडित की जापान यात्रा सुखद और सार्थक हो. टोक्यो-स्थित सकाकिवारा के कोशोजि मंदिर में करीब एक महीना रहने के बाद जब वे महंत ब्योदो के पास जा रहे थे, दोनों के चेहरे पर उदासी के बादल छाए हुये थे. राहुल जी ने लिखा कि सकाकिवारा के विषय में इतना ही कहना पर्याप्त है कि “यदि अनगिनत जापानी पुरुषों ने मेरे साथ अभद्रता का बर्ताव किया होता तो भी सकाकिवारा के स्नेहिल सान्निध्य की स्मृति जापान के प्रति सारी नकारात्मक धारणा को मिटा देती.”
अपने दूसरे मित्र चुशिओ ब्योदो के प्रति भी उनके मन में अपार श्रद्धा और स्नेह का भाव था. उनकी दृष्टि में ब्योदो सान मधुर स्वभाव, सहज स्नेह ईमानदारी जो जापान का जातीय गुण है, की प्रति मूर्ति थे. वे बहुत सीधे-सादे, उदार विचार के पुरुष थे
1935 की जापान यात्रामे राहुलजी जापानी सैन्यवाद को समझने की कोशिश करते हैं और जापान के इस राजनैतिक परिवर्तन से असहमत होने का संकेत भी देते हैं, लेकिन सामंतवाद की कोख से जन्मे जापानी सैन्य सरदारों के फासीवाद के वीभत्स रूप को वे 1942 मे लिखे गये नाटक “जपनिया राछछ” मे ही साहसपूर्वक बेनकाब करते हैं। ” “जापान” पुस्तक मे जापान के राजनैतिक रुझान से असंतोष के स्वर को वे इन पंक्तियों मे व्यक्त करते है:
“आज जापान का शासन न सम्राट के हाथ में है, न बनियों के. हयाशी, अराकी, मिनामी और मसाकी यह चार फौजी जनरल और उनके सामंती वंश जापान के वास्तविक शासक थे. सामंतवाद वस्तुतः वहाँ से लुप्त हुआ ही नहीं. उसने पूंजीपतियों को बढ़ने दिया, पार्लियामेंट और चुनाव की व्यवस्था को भी स्वीकार किया, किन्तु वोट को नहीं, सेना को अंतिम निर्णायक बनाया.”
सामंतवाद की कोख से जन्मे सैन्य सरदारों के फासीवाद के वीभत्स रूप को वे द्वितीय विश्वयुद्ध के समय लिखे गये नाटक “जपनिया राछछ” में करते हैं.
1930 के दशक के अंत तक राहुलजी गहराई से मार्क्सवाद और साम्यवाद से जुड़ गये थे और प्रगतिवाद जिसे साम्यवाद का साहित्यिक उच्छवास माना जाता है, के पुरोधा के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे. वे स्वामी सहजानन्द के किसान आंदोलन के स्तम्भ के रूप में भी ख्याति अर्जित कर चुके थे. साथ ही अब चीन के क्षितिज पर जापानी साम्राज्यवाद के भयावह बादल मंडराने लगे थे और यह आशंका भी व्यक्त की जा रही थी कि कोरिया और चीन का लहू पीने वाले जापान की साम्राज्यवादी प्यास तब तक शांत नहीं होगी जबतक वह सारे एशिया-प्रशांत को पैरों तले नहीं रौंदेगा. जुलाई 1935 में आयोजित कम्युनिस्ट इंटरनेशनल (कोमिन्टर्न) की सातवीं कांग्रेस ने फासीवाद के वर्गीय चऱित्र को परिभाषित किया और पश्चिम में जर्मनी और पूरब में जापान के फासीवादी इरादों के खिलाफ संघर्ष की व्यापक रणनीति तैयार की गयी. जापान ने नाजी जर्मनी और फासीवादी इटली के साथ एंटी-कॉमिन्टन संधि पर हस्ताक्षर भी किया था. राहुलजी ने जर्मनी और जापान के फासीवाद के खतरे से जनता को आगाह करने की दृष्टि से “जरमनवा के हार निश्चय” और “जपनवा राछछ” जैसे नाटकों का प्रणयन किया.
“जपनवा राछछ” में राहुलजी जापान के सैनिक फासीवाद को वित्तीय पूंजी की निकृष्टतम विकृति के रूप में व्याख्यायित करतै हैं. इस नाटक के प्रथम अंक में ही जापानी सेना के प्रतिनिधि जेनरल तोयो और जापानी पूंजीपति वर्ग के स्वार्थ का प्रतिनिधित्व करने वाले बडे-बडे उद्योग (जायबात्सु/conglomerate) के सेठ मित्सुई और सेठ मित्सुबिशी जैसे मालिकों के साथ बैठकर विश्व के समस्त आर्थिक संसाधनों पर कब्जा करने की रणनीति गढ़ते हैं. इस नाटक में राहुलजी शोषित वर्ग के प्रति गहरी संवेदना और सहानुभूति और साम्यवाद के प्रति अपनी गहरी आस्था को किसान-मजदूर और बुद्धिजीवी वर्ग के विद्रोह के समवेत शंखनाद के रूप में व्यक्त करते हैं.
राहुलजी लिखते हैं कि अपने देश के मुट्ठीभर पूंजीपतियों के लोभ के लिए जापान अनेक देशों में खून की नदिया बहा रहा है. जापान के फासीवादी शासन के वीभत्स रूप को उजागर करने के लिये वे नाटक के प्रथम तीन अंकों में तीन बिन्दुओं-
जापानी उपनिवेश के रूप में कोरियाई जनता की असह्य पीड़ा, चीन के पूर्वोत्तर क्षेत्र (मंचुरिया) की जनता का शोषण और उत्पीड़न तथा नारी अस्मिता का दानवी दमन- पर प्रकाश डालते हैं.
नाटक का चौथा अंक चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की चौथी लाल सेना के जापान-प्रतिरोध युद्ध पर केन्द्रित है.
भारत में सक्रिय जापान के दलाल दलील देते थे कि जापान बौद्ध धर्म मानता है, इसलिये भारत का ऋणी है. जापान का उद्देश्य है गोरों की गुलामी की जंजीर से जकड़े भारत को स्वतंत्र करना और भारत की सत्ता को भारतवासियों के हाथ में सौंपना, एशिया को एकीकृत कर महत्तर और मजबूत एशिया का निर्माण करना.
इस तर्क को काटने के लिये राहुलजी जापानी उपनिवेश कोरिया का उल्लेख करते हैं. वे कहते है कि कोरिया जापान से सिर्फ अठारह कोस की दूरी पर है, दोनों देशों की जनता बौद्ध धर्मावलम्बी है, उनके इतिहास पारस्परिक सामंजस्य के सूत्र से बंधे हैं, लेकिन कोरिया की जनता जापान में दमनचक्र में पिसकर त्राहि माम कर रही है. जब जापान अपने सर्वाधिक निकटवर्ती कोरिया का उपकार न कर सका, तो महामूर्ख ही जापान के इस आश्वासन में विश्वास करेगा कि जापान भारत के मुक्ति संग्राम में हमारा सहचर और सहयोगी बनना चाहता है. इस संदर्भ में राहुलजी 1923 के भयंकर भूकंप का भी उल्लेख करते हैं जो जापान में रह रहे कोरियाई लोगों के लिये घोर अभिशाप सिद्ध हुआ. कुछ जापानियों ने झूठी अफवाह फैला दी कि कोरिया की मुक्तिकामी जनता भूकंप में घायल जापानी जनता का गला घोंटकर मार रही है, कुंए में जहर घोल रही है, धरा ध्वस्त घरों से सामान चुरा रही है, आगजनी कर रही हैं तथा तरह-तरह के अन्य षड्यंत्र द्वारा जापान को कमजोर और अस्थिर बनाने का प्रयास कर रही है.
आखिर सिर्फ चार साल पहले ही 1 मार्च 1919 को कोरिया में जापानी औपनिवेशिक शासन के खिलाफ सुलगते हुये आक्रोश के ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ था. कोरिया के इस राष्ट्रव्यापी आंदोलन की प्रतिक्रिया समस्त विश्व में हुई. 1929 में पटना से प्रकाशित युवक पत्रिका में जापान-कोरिया सम्बन्ध पर एक लेख प्रकाशित हुआ जिसने जापानी शोषण की सही तस्वीर प्रस्तुत की: जापान ने कोरिया के “दुबले शरीर का सारा मांस तो खा ही लिया, अब जो कुछ ठठरी बची हुई है उसे गिद्ध की तरह नोच रहा है; और यह दम्भ भरता है कि हम तो उसके अपने हैं, हमारा उसका चचा भतीजा का नाता है, रूप में, रंग में, सभ्यता में, भाषा में- हम एक हैं, उस पर हमारा पैतृक अधिकार है”.
कुछ अखबारों ने इस तरह के निराधार अफवाह ठोस समाचार के रूप में छापकर जापानियों को कोरियाई लोगों के खिलाफ भड़काया. टोक्यो और योकोहामा सहित अनेक शहरो में उग्र और आक्रोशित भीड़ ने निर्दोष कोरियाई जनता का नरसंहार किया. आठ से दस हजार कोरियाई जापानियों के हाथों मारे गये. राहुलजी जापान के चंगुल में फंसे कोरिया की करुण कहानी इस तरह कहते हैं:
“किसान– त कोरिया नजदीकी भाई भइल कि हमनी?
उहे जपान नू कोरिया के बतिस बरिस से
भूँजता ? जपान में भुइकम्प कौना साल आइल
रहे, ऊ बड़का भुइकम्प ?
दलाल– ओनइस बरिस भइल.
किसान– ओही सलिया बेकसूरे नू आठ हजार
कोरिया भाइन के जपान मारि देलस ? अउर
जपान आजो कोरिया का छाती पर बइठि के
कोदो दरता. के कहता, ऊ हमनी के उधार करी?”
जापानी फासीवाद के पैरों तले रौंदी जाने वाली निरीह जनता और यौन शोषण का शिकार हुई महिला के उदाहरण के रूप में राहुलजी सितम्बर 1932 में चीन के उत्तर पूर्व क्षेत्र (मंचुरिया) के फुशुन जिला के गांवों में हुये नरसंहार और “कम्फर्ट वुमन” (सुख देने वाली महिला) की त्रासदी का वर्णन करते है. “कम्फर्ट वूमन” वस्तुतः जापानी फौजियों के यौन शोषण की शिकार उन बालिकाओं के लिये प्रयुक्त अभिव्यक्ति है जिन्हें या तो फरेब द्वारा फंसाया गया था या अपहृत किया गया था. यह ध्यातव्य है कि “कम्फर्ट वुमन” से सम्बद्ध विवाद-विमर्श 1990 में आरंभ हुआ, लेकिन राहुल जी ने 1942 में ही जापानी साम्राज्यवाद के इस घृणित कृत्य का उल्लेख किया.
अपने देश के इने-गिने धन्नासेठों के लोभ के लिए जापान हर देश में खून की होली खेल रहा है. मां के हाथों से बच्चों को छीनकर उनकी हत्या करता है और गांवों में आग लगाता है जापान. जहां-जहां जापान अपने फौजियों को भेजता है वहां-वहां बेटियों बहनों की इज्जत लूटी जाती है इज्जत बचाने के लिये, देश बचाने के लिये हमें जोर से मार-मारकर भगाना चाहिए जापानियों को.
(अपने मुलुकवा के दुई-चारि जन लोभे
देसे देसे खुनवा बहाई इ जपनवा.
छीनि के महतरियन से बचवन के बध करे
गउवां में अगिया लगावे रे जपनवा..
बेटिया-बहिनिया के इज्जतो ना रहे पावे,
जहँवा सिपहिया पठावे रे जपनवा.
इजते गोहार लागि देसके गोहार लागि,
हनि तेगा मार भागि जाई रे जपनवा.)
राहुलजी ने जापानी सिपाहियों की बर्बरता के शिकार फुशन गाँव (चीन) की व्यथा कथा को एक गीत में पिरोया है.
“हाथ में लुकाठी लेकर जापानी सैनिक फूशन गांव को जला रहे हैं. गांव धू धूकर जल रहा है, लपटे आकाश को छू रही है, चारों ओर धुआं उड़ रहा है. जिस जगह पर बच्चे किलकारियां भरते थे, औरतें हंसती-गाती थी और जवान मर्द नाचते थे, वह श्मशान बन गया है. गांव के तीन हजार व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया गया है. दुधमुंहा बच्चों को गोद में लेकर औरतें भागती हैं और जापानी सेना उनपर गोलियों की बौछार करती है. छाती से सटे हुये बच्चे धरती पर गिरते हैं और धरती खून से लाल हो जाती है.”
(अगिया लगौले लेले हाथ में लुकरिया मेंरा फूशन गांव.
पटपट जरे घर लपटि अकसवा धुंआ उड़े चारो ठाँव..
किलके बलकवा, हंसे पतरि तिरियवा जँह नाचें गभरू जवान.
तीन हजार मोर गाँव के बेकतिया सेहु आजु भइल मसान..
लेहले बलकवा गोदि भगली बहुरिया करे लागे गोली बौछार.
छतिया सटल बचवा गिरले धरतिया बहे लागे खुनवा के धार.. )
1931 में जापान ने मंचुरिया को हड़प लिया और सितम्बर 1932 में जापानी सैनिकों ने (मंचुरिया के) फ़ुशुन जिले के गाँवों में आग लगा दी और खून की होली खेली क्योंकि “लाल बरछी” (रेड स्पीयर्स) नामक आत्मरक्षा जन सेना (मिलिशिया) ने फुशुन की जापानी छावनी पर हमला किया था. इस हमले में कुछ जापानी सैनिक खेत आये थे. “लाल बरछी” के आक्रामक फुशुन इलाके से नहीं थे, लेकिन फुशुन शहर में तैनात जापानी सैनिकों पर छापे मारने के लिए वे बगल के गांवों से गुजरे थे. जापानियों के प्रतिशोध का ज्वालामुखी जब फूटा फुशुन जिला के अनेक गांव मसान बन गये, भूतों की क्रीडास्थली बन गये. जापानी सेना को रोबोट की तरह “तीन सब नीति” में अटूट आस्था रखने का प्रशिक्षण दिया गया था: जब हमला हो सबको मार डालो, सब को जला दो, सबको लूटो”. इसे जलाकर खाक करने की रणनीति भी कहा जाता है. इतिहास में इसका आदिरूप नेपोलियन की सेना को परास्त करने के रूसी उपक्रम “स्कार्च अर्थ” में दिखता है.
एडवर्ड हंटर नामक बेइजिंग-स्थित इनटरन्यूज एजेन्सी के रिपोर्टर ने 30 नवम्बर 1932 के अपने रिपोर्ट में लिखा:
“मैने फुशुन नरसंहार के घटनास्थल और आसपास के इलाके का निरीक्षण किया और सम्बद्ध तथ्यों की जानकारी प्राप्त की. यह सच है कि कोयले के खान के लिये विख्यात फुशुन शहर के तीन हजार चीनी आबाद वृद्ध नर नारी को मौत के घाट उतार दिया गया. जापानी सैनिकों ने इस शहर के आसपास की नौ बस्तियों को आग के हवाले किया और धू धू कर जलते हुये मकानों से जब लोग बाहर निकले, उन्हें मशीनगन से भून दिया गया.”
चीनी सरकार ने यहां फिंगतिनशान त्रासदी स्मारक का निर्माण किया है जहाँ निर्दोष चीनी जनता पर ढाये गये अनिर्वचनीय अत्याचार और उत्पीड़न की करुण कथा की अनुगूँज सुनाई देती है. यह जापानी आक्रमण और तद्जनित चीनी त्रासदी का सच्चा इतिहास है जिसके दर्पण में हम अतीत के अपराधों अमानवीय कृत्यों को देख सकते हैः स्मारक भवन की प्रदर्शनी में यह दर्शाया गया है कि जापानी सेना ने 1931 में चीन के हाथ से मंचूरिया क्षेत्र को हड़प कर जापान की समृद्धि के लिये फुशुन कोयला खदान का किस तरह उपयोग किया और खदान में काम करने वाले खनिक मजदूरों के साथ कैसा व्यवहार किया. इस प्रदर्शनी में मृतकों के अवशेष भी प्रदर्शित हैं. यहां एक बड़ा गड्ढा भी है जिसमें आठ सौ नरकंकाल हैं और जिसे सामूहिक कब्र कहा जाता है.[2]
ब्रिटिश सरकार ने भी भारतीयों के साथ घोर अत्याचार किया. “सात समुन्दर पार करायिके, ले गईल दूर बड़ी दूर पेठायिके” यह दर्द भरा गीत फिजी, मौरिशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, मैडगास्कर, जमैका के गन्ना के खेतों में गूंजता था. ब्रिटिश सरकार के दलाल बिहार और उत्तर प्रदेश के किसान परिवार के गरीब, अशिक्षित बच्चों को सुनहरे भविष्य की मृगमरीचिका दिखा कर, अच्छी नौकरी का प्रलोभन देकर एग्रीमेंट (गिरमिटिया) के पेपर पर उनके अंगूठे का निशान ले लेते थे और उन्हें आजीवन चाबुक और बेड़ियों के साये में जीने और बैल की तरह जुये के नीचे गर्दन डालने के लिये मजबूर करते थे. फिर भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद नैतिक रूप से इतना पतित नहीं था. ब्रिटिश शासनकाल में भारत की अबोध बालाओं को रैस्टोरेंट में वेट्रेस या सेना में नर्स की नौकरी का हसीन सपना दिखाकर फौजियों की यौनदासी नहीं बनाया गया. जापान ने कोरिया, चीन या जहाँ कहीं भी आधिपत्य स्थापित किया, वहां की मासूम, भोली-भाली लडकियों को बहला-फुसलाकर, अच्छी नौकरी का आश्वासन देकर एशिया-प्रशांत क्षेत्र के युद्ध के मोर्चे पर हर रोज तीस-चालीस फौजियों के यौन शोषण को सहने के लिये मजबूर किया.
आरंभ में सत्रह से बीस साल की लड़कियों का चयन होता था, लेकिन जैसे-जैसे युद्धक्षेत्र का एशिया प्रशांत के सुदूर देशों तक विस्तार हुआ, चौदह से तीस साल की आयु की बालिकाओं और महिलाओं को “ianfu (慰安婦)” अर्थात कम्फर्ट वुमन बनाया गया. सेना की छावनियों में कम्फर्ट वुमन या देहसुख देने वाली महिला को वेश्या या परिचारिका कहा जाता था.
“कम्फर्ट वुमन” की कुल संख्या संख्या दो लाख बताई जाती है. यद्यपि जापानी, चीनी, फिलिपींस, मायन्मार, हॉलैंड की स्त्रियों को भी यौनपेशे की गलाम बनाया गया, सबसे अधिक (करीब अस्सी प्रतिशत से अधिक) कोरियाई स्त्रियों को इस नरक में धकेला गया.
जापानी स्त्रियां जो “कम्फर्ट वुमन” बनीं, मूलतः सेना के अधिकारियों के हवश को पूरा करती थीं और उन्हे सुरक्षित स्थान में रखा जाति था, जबकि कोरिया या अन्य देशों की औरतों को सामान्य फौजियों की शारीरिक क्षुधा के शमन के लिए युद्ध के मैदान में भेजा जाता था.
युद्ध के वज्रपात को हर दिन अपने नग्न शरीर पर झेलने वाली इन महिलाओं को दिन रात कड़े पहरे में जीवन बिताना होता था और अगर कोई महिला भागने की कोशिश करती थी उसे अमानवीय यातना झेलना पड़ती थी. दूसरी महिलाओं को सबक सिखाने के लिये अवज्ञा का दुस्साहस करने वाली महिलाओं की प्राणांतक पीडा और हृदयविदारक चीत्कार को छावनी में प्रचारित किया जाता था. एक महिला को प्रतिदिन खून के आंसू बहाकर औसतन तीस-चालीस जवानों का बलात्कार झेलना होता था, लेकिन कुछ परिस्थितियों में बलात्कारियों की संख्या बढकर एक सौ भी हो जाती थी. फौजी कमरे के बाहर लाईन में खडे होकर अपनी बारी का इन्तजार करते थे. नशे में धुत्त या मानसिक विकार से ग्रस्त फौजी कभी कभी इन महिलाओं पर बर्बर हिंसा का प्रयोग भी करते थे, लेकिन महिलाओं को खून का घूंट पीकर सब कुछ चुपचाप सहना होता था. अपने घर-परिवार से किसी तरह का सम्बंध रखना या किसी फौजी से निजी सम्बन्ध स्थापित करना अपराध माना जाता था
राहुलजी के पास विश्व इतिहास और राजनीति के क्षितिज को आरपार भेदने वाली दृष्टि थी, यही कारण है कि वे 1942 में ही जापानी सैन्यवाद के उस कडवे सच का जिक्र किया जिससे दुनिया 1990 के दशक में अवगत हुई. जेनरल तोयो नामक पात्र जो वस्तुतः प्रधानमंत्री जेनरल तोजो है, जापानी उद्योगपति मित्सुई से कहता है:
“कह सेठ मित्सुई? ई सराब पियावेवाली
छोकरी कहाँ से झिटल ह ?
मित्सुई – जावा से जर्नेल ! अब छोकरिन के कौन दुख
बा, जहाँ हमनी के झंडा जाता, जहाँ के सुन्नर
मेंहरारू हमनी से बँची तब न उहाँ रहे पाई.”
नाटक के तीसरे अंक में राहुलजी हांगकांग में दरबान की नौकरी करने वाले दो भारतीय- जंगलीराम और जुम्मन– को मंच पर उतारते हैं और इन पात्रों के माध्यम से कम्फर्ट वुमन की त्रासदी और चीन के कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्त्व में लडे जा रहे जापान-प्रतिरोध युद्ध पर विस्तार से रोशनी डालते हैं. बनवारी प्रसाद नामक जापान के हिन्दुस्तानी दलाल ने इन दोनों की पत्नियों को झांसा देकर “कम्फर्ट वुमन” बनाकर युद्ध के मोर्चे पर भेज दिया. जंगली कहता है कि बनवारी जो हमारे ही जिला-जबार का आदमी है, कैसा-कैसा झूठ बोलता था. उसने हमें भरोसा दिया कि हम दोनो की घरवालियों को सही-सलामत घर पहुंचे देगा. उसने अगर इस तरह का भरोसा न दिया होता तो जब पंजाबी भाइयों की पत्नियां स्वदेश लौटने रही थीं, उसी जत्थे में हम सलीमी और मंगरी को भेज देते.
(जंगली– कहि द जुम्मन भइया! ऊ जपान के दललवा के बात. ऊ बनवरिया हमनी के पंजरे के रहवइया कैसन-कैसन झूठ बोलत रहल.)
जेनरल तोयो भी यह स्वीकार करता है कि जापानी सिपाहियों की पूरी छूट दे दी गई है कि वे जिस किसी मोर्चे पर तैनात हों, वहां उन्हे यौन सुख और शराब की कमी नहीं होगी. (सिपाहिन के छुट दे देले बानी, कि जहाँ जासु, उहाँ जेतना चाहसु ओतना मेंहरारू आ सराब उड़ाबस.)
द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद पैतालीस वर्ष तक जापान ने ‘कम्फर्ट वुमन’ की सच्चाई पर पर्दा डाला और पीडिताओं (कम्फर्ट वुमन) ने भी बदनामी और घर-परिवार टूटने के डर के कारण इस खौफनाक राज को दिल में दफन किये रखा. 1990 के दशक में कुछ “कम्फर्ट वुमन” ने दिल दहलाने वाली अपनी व्यथा-कथा सुनाई, और यह भी कहा कि वे अबतक लोकलाज के कारण चुप थीं. अगर जवानी में वे मुंह खोलतीं, तो परिवार और समाज उन्हें बहिष्कृत करता, उनका या परिवार के अन्य लोगों का कहीं विवाह नहीं होता. समाज में जब नई चेतना आई और वे वृद्धावस्था के चौखट पर पहुंच गई, वे इस राज को खोल पाने का साहस जुटा पाईं. 1997 में 73 वर्ष की आयु में संसार से विदा होने के छह साल पहले किम हाक-शुन नामक पूर्व कम्फर्ट वुमन ने दुनिया के सामने अपने दर्दनाक अतीत की कहानी कही:
“जब मै सत्रह साल की थी, मुझे अपने गांव से उठाकर चीन में तैनात जापानी फौजियो के रंडीखाने में भेज दिया गया जहा रोज राक्षस मेंरे शरीर को नोचते-खसोटते थे. आंखो से टप टप गिरते आंसू को पोंछते हुये वृद्धा ने कहा, “मैने भागने की कोशिश की, लेकिन फौजियो ने मुझे पकडकर फिर नरक में ढकेल दिया.”
1996 में चंग ओक-सन नामक दूसरी पूर्व कम्फर्ट वुमन ने भी अपना बयान दर्ज करवाया:
“उस समय मै तेरह साल की थी. जब मै खेत की तरफ जा रही थी जापानी सिपाहियो ने मुझे दबोच कर एक गाडी में डाल दिया. मेरे मुंह में बदबू से भरे और कीचड सने मोजे ठूंस दिए गये थे. फिर न जाने कितने नरपिशाचों ने बारी-बारी से मेरा बलात्कार किया. मैं बेहोश हो गई थी. जब मुझे होश आया, मैने पाया मै जापान में हूँ. एक बहुत बडे हाल-नुमा कमरा था जिसमें करीब चार सौ कोरियन लड़कियों को रखा गया था. जापानी फौजियों की संख्या पांच हजार से उपर थी. इसका अर्थ यह हुआ कि एक कोरियाई लड़की के शरीर पर रोज चालीस से ज्यादा हैवानों के हवश को झेलने की विवशता थी.”[3]
“जपनिया राछछ” के अंतिम अंक में हांगकांग में कार्यरत दो भारतीय दरबान जंगली और जुम्मन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की चतुर्थ लाल सेना जिसका गठन 1928 में हुआ था, में भर्ती हो जाते हैं और बहादुरी के साथ जापानी फौज के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध करते है. जापानी फौज के रंडीखाने में नारकीय कष्ट और अपमान झेल रही अपनी पत्नियों की याद आते ही उनके सीने में प्रतिशोध की ऐसी ज्वाला दहकने लगती है जो जापानियों के खून से ही बुझ सकती है. माओ के निर्देश के अनुसार वे आम लोगों की तरह जनता के बीच रहते हैं या जंगलों में छिपे रहते हैं और मौका लगते ही दुश्मन सेना पर हमला कर देते हैं. वे अप्रत्याशित रूप से और तेज गति से आक्रमण करते हैं, जापानी संसाधनो को छीनकर लाल सेना के शस्त्रागार को समृद्ध करते है और हर तरह से आम जनता का विश्वास जीतने का प्रयास करते हैं ताकि शोषित किसान लम्बी दीवार की तरह लाल सेना की सुरक्षा कर सके. वे जापानी सैन्यवाद को नेस्तनाबूद करने के उद्देश्य से लड़े जा रहे युद्ध को किसान और मजदूर का युद्ध या जनयुद्ध में परिणत करने के लिए कृतसंकल्प है. इस अंक में उल्लिखित लाल सेना की युद्ध प्रणाली एडगर स्नो की पुस्तक “रेड स्टार ओवर चाइना” पर आधृत है.
1935 में जापान भ्रमण के शीघ्र बाद लिखी गई पुस्तक जापान में राहुलजी अपनी शक्ति और समय का उपयोग जापान की बौद्ध संस्कृति को समझने में करते हैं.
वे बौद्ध दर्शन के विद्वानों से मिलते हैं, बौद्ध सभाओं में व्याख्यान देते हैं और बौद्ध धर्म से जुडे ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण करते हैं. कभी कभी जापानी राजनीति के फासीवादी रुझान और आर्थिक विषमता पर उनकी दृष्टि जाती है, लेकिन चूंकि उनकी जापान यात्रा का मूल उद्देश्य जापान की बौद्ध संस्कृत से अवगत होना था, वे इस पुस्तक में राजनैतिक और सामाजिक विषयों को बस छूते हैं, गहराई में नहीं जाते है.
जापान में रहकर राहुलजी ने देखा होगा कि उग्र राष्ट्रवाद के नये ढांचे में ढलकर जापान के बौद्ध धर्म ने किस तरह एक नया स्वरूप धारण कर लिया और नूतन मूल्यों और मान्यताओं अपना लिया. 1872 के राजकीय निर्देश के तहत जापान में एक नये ढंग के संघ का प्रादुर्भाव हुआ. सरकार ने भिक्षुओं को गृहस्थ जीवन जीने, मांसाहार करने और सामान्य उपासक का वस्त्र पहनकर भी पूजा, अनुष्ठान आदि धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने की अनुमति दी और फलस्वरूप बौध्द मंदिर जो पहले नगर से दूर थे, अब हर गांव मोहल्ले में बन गये और मंदिर के महास्थविर का पद पीढी दर पीढी हस्तांतरित होने वाली पारिवारिक विरासत बन गया. राहुलजी को जापानी बौद्ध संप्रदायों और जापान की विस्तारवादी और साम्राज्यवादी ताकतों के बीच बढती हुई घनिष्ठता की भी जानकारी मिली होगी और उन्होने देखा होगा कि जापानी बौद्ध भिक्षु किस तरह साम्राज्यवादी एजेंडा के ध्वजवाहक की भूमिका निभा रहे है. कहाँ गये महात्मा बुद्ध के उपदेश, महायान के दान, शील, क्षान्ति, प्रज्ञा पारमिता? रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1916, 1924 और 1929 में जापान में दिये गये अपने भाषणों में जापानी श्रोताओ को पश्चिमी साम्राज्यवाद के पथ का परित्याग कर महात्मा बुद्ध की देशना से आलोकित मार्ग पर अडिग अग्रसर रहना का आह्वान किया. राहुलजी ने इस पुस्तक में कहीं नहीं लिखा है कि उन्होंने अपने भाषण में जापानी सैन्यवाद की आलोचना की.
“जापानी राछछ” राहुलजी की वैचारिक प्रौढ़ता का अद्भुत दस्तावेज है जिसमें वे विश्व की शोषित और उत्पीड़ित जनता का सशक्त स्वर बनकर सामने आते है. एशिया में प्रभुत्व को स्थापित करने के उद्देश्य के प्रति कृतसंकल्प जापानी सैन्यवादियों को वे राक्षस कहते हैं.
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय चीनी जनता भी जापानी आक्रामकों को “日本鬼子” (riben guizi) अर्थात जापानी दस्यु कहती थी. इस पुस्तक में वे स्पष्ट रूप से जापानी फासीवाद के विद्रूप चेहरे को बेनकाब करते हैं और सैन्यवादी ताकतों की शिकार भारत, चीन, कोरिया और एशिया के अन्य देशों की शोषित जनता ही नहीं, जापान के मजदूरों और किसानों को भी साहस और बहादुरी के साथ फासीवाद से लड़कर विजय प्राप्त करने का आह्वान करते हैं.
जपनिया राछछ
राहुल सांकृत्यायन
(नाटक)
[मंच से नीचे लाल आ तिन रंगा झंडा लेले मजूर-किसान विदारथी लोग गावत आवता]
अपने मुलुकवा के दुई-चारि जन लोभे,
देसे-देसे खुनवा बहावे रे जपनवा.
छिनिके मतरियनसे बचवन के बध करे,
रोउवाँ में अगिया लगाये रे जपनवा ॥
बिटिया-बहिनिया के इजतो ना रहे पावे,
जहंवा सिपहिया पेठावे रे जपनवा.
इजते गोहार लागि देसके गोहार लागि,
हनि तेगा मार भागि जाइ रे जपनवा ॥
[कुरता, टोपी, धोती, चसमा पहरिले एगो जपान के दलाल मंच के उपर खड़ा होके बरबरात आ मुक्का तानता, दोसर एगो किसान ओकरा पास जाके तनके खड़ा हो जाता. ]
दलाल – जपानके निन्दत बाड़. नइख जानत, जपान हमनी का देस के सुराज देबे खातिर आवता ?
किसान– का क़हत बाड़ ? जपान के दलाल त तू नइख? जपान हमनी के सुराज दी ?
दलाल – जपान हमनी के भाई ह.
किसान – कइसन भाई ? मूँडी काटेवाला भाई त नइखे?
दलाल– ऊ गोरा नइखे, जापानी हमनिए का लेखा काला अदमी ह, एही से हमनी के सुराज देवे खातिर आवता.
[२]
किसान – सुराज दिहला से न मिलेला, सुराज अपन पहुँचा का ज़ोर से मिलेला, ई त बताव भइया कोरिया करिया मुलुक बा कि गोर ?
दलाल – करिया.
किसान – जपान से कोरिया अठारहे कोस पर नू बा आ ओही कोरिया के सुराज जपान आइ बत्तिस बरिस से छीनि लेले बा. उहे नू जपान ह, जे आजि हिनुतान के सुराज देबे आवता. आ ई त बताब भइया ! कोरिया के लोग जपाने अइसन निमोछिया, रूपो-रंग में एके अइसन होला नू ?
दलाल – दूनों के अनुहार नेपाली अइसन होला.
किसान – त कोरिया नजदीकी भाई भइल कि हमनी? उहे जपान नू कोरिया के बतिस बरिस से भूँजता ? जपान में भुइकम्प कौना साल आइल रहे, ऊ बड़का भुइकम्प ?
दलाल – ओनइस बरिस भइल.
किसान – ओही सलिया बेकसूरे नू आठ हजार कोरिया भाइन के जपान मारि देलस ? अउर जपान आजो कोरिया का छाती पर बइठि के कोदो दरता. के कहता, ऊ हमनी के उधार करी?
[ ३ ]
दलाल – जपान बौधा भाई ह, हमनिओ बौधा अवतार के मानी ले. हमनी के धरमभाई ह, ये ही वास्ते ओकर हौसला बा कि हिनुतान के सुराज दे देबे के.
किसान – भाई, कोरिया कौन धरम मानेला ?
दलाल – बौधा धरम.
किसान – हमनी हिनुतानी भाइन में त बौधो नइखन, कोरिया त सोरहो आना बौधा बा, ओकर सुराज आज बतिस बरिस से जे दबौले बा, से हमनी के सुराज दी, ई बज्जर बुरबके बिस-बास करी. आ चीनो बौधे नू ह ?
दलाल – हाँ,
किसान – कै लाख चीनी लीग के मुऔलस जपान बतइब भइया ! चीन में गाँव-के-गाँव के जे जपान आगि लगा देहले, से ही के सुराज दिहल त नइखे क़हत.
दलाल – काँटे से काँट निकसेला, तनि एहूके समुझ. अंगरेज के निकाले खातिर जपान के मदद लिहल बाउर नइखे.
किसान – आ एक काँट के हटा के दुसर काँट बइठि जाये तब ? ऐही के सुराज क़हत बाड़ भइया ?
दलाल – त अंग्रेज़ से कैसे सुराज लिहल जाई ?
किसान – जौना पहुँचा के बल पर हमनी जपान के देस में धँसे ना देब, ओही पहुँचा के बल पर.
अंक १
[ जपान में, मेंज का किनारे चारि गो कुरसी पर जर्नेल तोया, दुगो तोन फूलल सेठ मित्सुई आ मित्सुईविशी आ एक जने गुरु ओयामा बइठल बाड़े. एगो सुन्नर मेंहरारू दुगों बोतल आ चारि गो पियाला राखि देतिया. जर्नेल तोयो मेंहरारू के गाल पर हाथ फेरि के हँसता. मेंहरारू नराज होके चल जातिआ ]
मित्सुई [ पियाला ढारिके ] – मेंहरारू आ मदिरा बस इहे दुगो चीज चाहीं.
तोयो [ पियाला मुँह से चीखिके ] – ठीक कहला, मित्सुई सेठ ! मेंहरारू आ मदिरा. ई मेंहरारू त निमन लौकतिआ. कहाँ से फंसौला हा सेठ ?
मित्सुई – पैसा चाहीं, फंसावे के कौन बात बा.
तोयो – आ पलटन चाहीं, दुनिया भर के पैसा अपने ही दु जने के बा.
ओयामा – लेकिन सेठ मित्सुई ! जपान के आधा धन त तुही दु जने के बा. पाँच भाग में चारि भाग धन दसे घर का हाथ में बा, तौनो पर तोहरा लोगिन का संतोस नइखे होत.
मित्सुविशी – संतोस पाप ह महटर साहेब. फेरु, हमनी जपाने के नइखे, दुनिया भरि के धन लूटी के राखि देबे के चाह तानी. औ
तोयो – ओयमा चुप रह, तोहार अकिल अपना बहि – नियो जेतना नइखे , जपान समुच्चा धरती,
[ ५ ]
सातो समुन्दर पर राज करे खातिर जनम लेले बा. जपान के तरुवार एक बेर मियान से निकल गइल, अब बिना धरती पर आपन झण्डा
गड़ले ऊ फेरु ना मियान में जाई.
ओयामा – लेकिन, ई झंडा चोरी-लुक्के त ना गड़ा सकेला. केहु अपना देस पर तोहार झंडा खुशी से गाड़े ना दी.
तोयो – पलटन बा, तरुवार बा येही खातिर.
ओयामा – [सेठ मित्सुई के तोन पर पर हाथ फेरिके] सेठ अबहिन ई पेट ना भरल. कै लाख मेंहरारू रांड भइली, कै लाख बच्चा टूअर भइले.
तोयो – दया – मया से काम ना चली.
ओयामा – लेकिन सेठ मित्सुई. अपना के बुद्ध भगवान् के चेला कहे ल नू.
तोयो – हाथी के दांत देखावे के और, खाये के और. हमनी के मेंहरारू मदिरा चाहीं. दस-बीस लाख अदिमी के मुअला-जिअला के पर्वाह नइखे.
मित्सुविशी – आ अदिमिन के जपान में कौन दुख बा. हर साले दस लाख नया जनम लेता.
ओयामा – मित्सुई आ तोयो के मुवावे खातिर !
तोयो – हमनिये खातिर ना, हम अपना सिपाहिन के छुट दे देले बानी, कि जहाँ जासु, उहाँ जेतना चाहसु ओतना मेंहरारू आ सराब उड़ाबस.
ओयामा – जपान के नाँव पर लोग थुड़ी-थुड़ी करी,
[ ६ ]
जर्नेल साहेब.
मित्सुई – लेकिन हमनी का सब काम खुलि के ना करे के बा. हमनी दुनिया में हाल कर तानी कि जपान सब करिया देसन के गोरन के गुलामी से छोड़ाबे के चाहता.
ओयामा – जर्मनी जैसन हतियारा गोरा देस के साथ
मिलिके ! दैवो-राजा से डेराये के चाहीं तोयो!
तोयो – दैवो राजा से डेरइला से कोरिया के राज मिलल होइत, दैवो-राजा से डेरइला से फार्मूसा मिलल
होइत ? दैवो-राजा से डेरइला से मंचूरिया के तीन करोड़ अदिमी हमनी के गुलाम भइल होइते ? दैवो-राजा से डेरइला के काम नइखे.
हमनी का चारो खूँट धरती, सातो समुंदर पर राज करेके बा, कह सेठ मित्सुई.
मित्सुई – ठीक क़हत बाड़ जर्नेल ! देखल भुइकंप का समय ?
ओयामा – झूठ, बिल्कुल झूठ. भुइकंप धरती हिलला से भइल रहे, लेकिन तोहरा लोगन हल्ला कर दिहल, कि ई कोरिया के लोग के काम ह. गुंडा कसाइन के लहका के आठ हजार अदिमी के मुवा दीहल ई कौनो भलमानुस के काम नइखे.
मित्सुई – कोरिया के लोग अबहिन ले सोझ ना भइल, एकर दवाई इहे बा महटर ओयामा ! कोरिया
[ ७ ]
के लोग जो जीये के चाहता त जपान के हुकुम मानो, नाहीं त आठ हजार का आठसिओ हजार मुऔला में हमनी के कौनो मया-मोह
ना लागी.
ओयामा – माया त नइखे ई दुनिया जानतिआ.
[ एही बखत तीन-चार गो मजूर-किसान विदारथी, ए गो मेंहरारू का साथ चल आवत बाड़े. मेंहरारू के आँख से लोर गिरत बा. ]
कसाई तोयो के छै. तोन फुल्ला मित्सुई के छै. पलटनिहा राज के छै.
किसान – हे भगवान् ! कब एहि कसाइन के राज उठी. हाय ! कंजी !
किसान – मेंहरारू [ छाती पीटके ] हाय कंजी ! हाय कंजी ! उफर परो सात पीढ़ी तोयो के, भगवान् करसु ओकर लास चिल्हो-कौआ न पूछे. हाय, कंजी ! हाय, कंजी ! तोहरा के मंचूरिया में भेजि के मुऔले इ मित्सुइया, आपन तोन फ़ुलावे खातिर ! जैसे हमार बंस बुड़ल तैसे कसाइन के बंस बुड़ो !
मजूर – [ किसान से ] कसाई तोयो! मित्सुइया के एक बोतल सराब खातिर देस का जुबानन के मुबावता.
विदारथ – केहु के साँच बात बोले नईख देत. केकरा खातिर तोयो ! केकरा खातिर ई जुलुम. ई उन्तिस-उन्तिस हजार बड़का-बड़का पढुआ पंडित आ विदारथिन के जेहल में भर
[ ८ ]
देलस कौना कारन ? [ मजूर से ] ई तोहार बाँह कैसे फूटल ह ?
मजूर – इहे तोया के पुलिस मरले हा. चार-चार आना मजूरी में रात-दिन काम में खटावता. हमनी के पेट काट के दुनिया में आपन माल बेंचि के नफा करता. हमनी का बोलनी हाँ, ओही पर ई डंडा-गोली चलल ह. दस अदिमी मरि गइले बा. बाबू, दस अदिमी ! आ तोहरो त बाबू टोपी, पैजामा फाटल था.
विदारथी – हमनियो के कालेज पर पुलिस चहुंपि के डंडा-गोली चलौलस ह, आ पचास अदमी के मारते ले गइल ह.
किसान – ई कुल केकरा खातिर.
विदारथी – एही पाँच गो जर्नेलन, पाँच गो सेठन के तोन भरे खातिर. अपना देस में ई जुलुम, त दुसरा देस में तोयो के गोइंदा का करत होइहें. असुर, राछछ, दानो तोयो ! खूनी मित्सुई!
[ सब मिलिके ] कसाई तोयो के छै ! तोन फुल्ला मित्सुई के छै. पलटनिहा राज के छै. [ गावत बाड़न ]
अपनेहि दुइ-चारि घरवा के लोग खातिर. देसे देसे खुनवा बहावे रे अधमवा. छीनि के मतरिया से बचवन के बध करे. घर-घर पिटना लगावे रे अधमवा.
[९ ]
तोयो – ओयामा ! जपान के झंडा गाढ़े खातिर जो घरो में गोली चलावे के परी, हमनी बाज ना आइव.
ओयामा – जपान के झंडा ना, तोयो आ मित्सुई के मेंहरारू आ मदिरा खातिर.
तोयो – अपना बहिन का भरोसे बनल-बाड़, ओयामा ! नाहीं त तुहूँ ओही उन्तिस हजार में रहल होइत. कह सेठ मित्सुई? ई सराब पियावेवाली छोकरी कहाँ से झिटल ह ?
मित्सुई – जावा से जर्नेल ! अब छोकरिन के कौन दुख बा, जहाँ हमनी के झंडा जाता, जहाँ के सुन्नर मेंहरारू हमनी से बँची तब न उहाँ रहे पाई.
तोयो – सेठ मित्सुविशी ! तू त बहुत कम बोलत बाड़, कह रोजगार बात के का हाल था.
मित्सुविशी – रोजगार बात के का पुछले बाड़ा जर्नेल ! जपान के झंडा गड़ते बड़का-बड़का कल- करखाना, कोठी-दुकान पर हमनी के आदमी पहुंचि जाता. देसी लोग के, जे अपने हुकुम देले बानी कि पाँच हजार से बेसीके कारबार, उलोग ना कर सकेला, ओसे हमनी
के आउर मौज बा. बड़का रोजगार कुल हमनी के हाथ में चलि आबता.
तोयो – इहो हुकुम निकालि देले यानी कि इसकूल-कच- हरी अब जपानी मासा में होई. एसे हजारन – हजार जपान का महटर लोग के काम मिलता,
[ १० ]
आ देसी महटर, ओकील पटपटाता. डगडरों खातिर हुकुम निकाल ही वाला बानी.
मित्सुई – से त खबर मिलल ह, नौका मुलुकन में छोटका छोटका दौरी-दुकान से लेके रंडीखाना तक जपनिये के खुलि गइल बा.
तोयो – कौनो तरह से धन दुहि के ले आवे के चाहीं.
मित्सुई – हमनी अइसन धन केहू का लूटी ? अंगरेज बरमा में रहल ह, ऊ खाली बड़का-बड़का नोकरी आ बड़का-बड़का रोजगारे धइले
रहल ह, लेकिन हमनी के छोटको नोकरी छोटको रोजगार नइखी छोड़त.
तोयो – जब दौरी-दुकान से रंडीखाना तक धरा गइल त अबका बाँकी ?
[ सब चलि गइले ]
अंक २
[ गुस्सा में लाल दु गो किसान, अवाज आ आगि के लपट दूर से देखि के आपुस में बतियावत बाड़े. ]
फूची – फूशन गाँव के हाल सुनल ह तू ?
थाईची – अबहिन तक बाँस के फाटे के अवाज सुनात रहल हा. आ आग के लपट त केतना दूर ‘ ले लौकत रहल हा.
फूची – नगीचा से ना तू देखल थाईची भाई. देखि के करेजा फाटत रहल ह. फरका से सुनी के
[ ११ ]
विसवास ना होखत रहल कि जपानी एतना जुलुम करत होइ हें.
थाइची – लेकिन हमरा त भाई ? विसवास रहल ह. नौ बरिस पहिले संघाई में देखि चुकल बानीं ओकनी के निसाचरी काम.
फूची – गाँव के निहत्था लोग पर ई जुलुम ! ई वीर के काम नइखे, ई राछछ के काम ह. गाँव भर में लोग के घरन में जौन किछु रहल लुटि-पाटि लेहले सन. रुपए-पैसा ले ना, तामलेट, थरिया-कटोरा, बिछौना-ओढ़ना तक.
थाइची – बिछौना-ओढ़ना तक
फूची – गाय-भईंस एको ना छोडले. आ कुछ भैंसिन के त ओही जरत घर का आसि में झोंकारि के खाये लगले.
थाइची – अपना देस में सिपहियन के पेट ना भरत रहल ह का ?
फूची – का भरी, जहाँ समुचा देस के कमाई खाये वाला दूसरे दस-बीस गो बड़का बड़ा आदमी बाड़े.
थाईची – बाकी आलम के कहाँ ले गइले सन ?
फूची – छावनी पर. आ गाँव के गाय-बकरी, सूअर के छौना से लेके एगो मुर्गी तक न छोड़ले.
थाईची – कइसन दरिदरा लोग ह.
फूची – एतनेले रहल होइत तबौ कुछ रहल ह. लुटि पाटि के बाकी घर में आगि लगा देलल, समुच्चा
[ १२ ]
गाँव धाँय-धाँय जरे लागल ! लोग जहाँ-तहाँ भागे लागल आ तब जपनिया रछछवा चारों ओर से गोली बरसावे लागल.
थाइची – गोली बरसावे लागल निहत्था लोग पर.
फूची – मेंहरारू बच्चा तक ना छोड़लस. जरत घर से निकल के जे केहु पराये लागल, सबके ऊपर तड़-तड़ गोली चलौले. ओहू से बचल से सबसे घेरि के संगीन से भोंके लागल. सबके थाइची भाई ! सबके !
थाइची – मेंहरारू आ लइकनों के ?
फूची – छाती से लगौले मतारिन के संगीन भोंकि के छाती का आर-पार कर देहलस.
थाइची – कैसन अदमी !
फूची – खून देखिके अदिमी के करेजा सिहरि जाला आ दुध पिउआ बच्चन के संगीन भोंकेवाला अदिमी के करेजा पत्थर के होई थाइची भैया !
थाइची – पत्थर के करेजा पसिजि जाई, दुधमुँहा बच्चा पर हाथ उठवला में.
फूची – एतने ना, मरदों में बूढ़-जवान जे धराइल, तेकरा से गाँव के गोंयड़ा खाँड़ खोनौले, फेनु अपने खोनल खाँड़ में भरि के दबा देहलस.
थाइची – त फूशन गाँव उजाड़ हो गइल ?
फूची – तीन हजार अदिमी के मुआ देहलस, तीन हजार ! केतना जवान महरारून के पकरि के
[ १३ ]
छावनी में धरि के ले गइल.
[ चलि जात बाड़न ]
[ पर्दा गिरि के नया पर्दा आवता, जौना में जरिके कोइला भइल फूसन गाँव के तस्वीर बा, पर्दा का ओर एगो पागल
निहारतिआ गावतिआ ]
अगिया लगौले लेले हाथ में लुकरिया मोरा फूशन गाँव.
पटपट जरे घर लपटि अकसवा धुआँ उड़े चारो ठाँव..
किलके बलकवा, हँसे पतरी तिरियवा जहं नाचें गभरू जवान.
तीन हजार मोर गाँव के बेकतिया सेहु आजु भइल मसान..
लेहले बलकवा गोदि भगली बहुरिया करे लागे गोली बौछार.
छतिया सटल बचवा गिरले धरतिया बहे लागे खुनवा के धार.
कहाँ गइले बाबा मोर कहंवा मतरिया कहाँ गइले बीरन भाय.
खोभि के संगिनियाँ से मरले जपनवा निरदय बजर कसाय..
[ चलि गइल ]
अंक ३
[ थाइची आ फूची मंच पर ]
थाइची – एगो फूशन गाँवे ले नइखे. आगि आ खून ऊहें देखे में आवता जहंवा- जहंवा जपान गइल ह.
फूची – जिब जाइत त जाइत लेकिन ई इज्जत के गइल !
[ दु गो हिनुतानी जुम्मन आ जंगलीराम घबराइल अइलें, थाइची आ फूची एक एक जने के हाथ में ले के ]
फूची – कहाँ से आवत बाड़ भइया हिनुतानी ?
जुम्मन – हङ्कङ् से भइया ! राछछ के हाथ से भागि
[ १४ ]
परा के चहुंपनी हाँ. चीनी भाइन के उपकार कबहुँ ना भुलाई. समुंदर के खाड़ी पंबड़ के हमनी अइनी हाँ, जो चीनी भाई ना लुकवौले
होइते, त फेनु कसाइन क हाथ में पड़ती जा. आहि ! जंगली भाई ! हमनी क जानत रहनी हाँ, कि जपान ऐसन कठकरेज़ या. जंगलीराम – मति मन पार जुम्मन भइयवा ! अबहूँ, सलिमिया आ मँगरी मन परति बाड़. आहि हमनी के जियला के धिकार बा. फूची – का बात भइलि हा, भाई ! हमनिओ से कह. जुम्मन – अनसुनल, अनहोनी बात. करेजा फाटता, धरती में धस जाये के मन करता. जंगली
भाई ! हमार त जीभ नइखे खुलत. जंगली – कहे के चाही भाई ! कहले से लोग नू पहिले से सजग होई. देखल ह ना, ऊ जपान के
दललवा ! रोज-रोज का फुसुर-फुसुर बतिआवत रहल.
जुम्मन – आजु मिलित त कांचे खा जइतीं. क़हत रहे जपान हिनुतान के सुराज दिआबे चाहुता. जपान हिनुतान के भाई ह. ऊ हमनी के गरीबी दूर करी.
जंगली – गरीबी दूर करी ? पदरह बरिस में कौड़ी कौड़ी जोरिके जौन जमा कइले रहनी कुलि उठा के ले गइल चोरबा ? एगो लोटो तक ना छोड़लस.
[ १५ ]
जुम्मन – एगो टीन के बधनो तक ना भइया !
जंगली – हम बरजत रहनी कि भौजी के मति ले चले, परदेस ह.
जुम्मन – लेकिन चीनी भाइन के नू मुलुक हा, देखल नू हमनी के पकड़ि लेला पर तीन गो जवान हमनी के इज्जत बचावे खातिर जिउ देहलन.
जंगली – हाँ, भइया चीनी भाई त जिउ-जहान से मदत कइले हा. [ दाँत पीसि के ] लेकिन ई जपनवा ! घनवे लुटला से ना सन्तोस कइलस.
थाइची – का कइलस भइया !
जुम्मन – हमनी महरारून के परदा में राखीले चीनी भाई ! हिनुतानी के इहे रबाज़ बा. ना परदा में रहलि होइती त का जानी सलिमिया-मँगरी अन्हारे-धुन्हारे लुकाके परा गइल होइत. हङ्कङ् में हमनी निचिन्त रहनी.
जंगली – कहि द जुम्मन भइया ! ऊ जपान के दललवा के बात. ऊ बनवरिया हमनी के पंजरे के रहवइया कैसन झूठ-झूठ बोलत रहल. ऊ जो ना भरोसा देले होइत, त पंजाबी भाइन के मेंहरारू देसे जात रहली, ओही में हमनियों सलिमिया आ मँगरी के भेज दहले होइती नू.
जुम्मन – हाँ, चीनी भइया ! एगो पटुआ उज्जर टोपी उज्जर कुरता पहिरले हिनुतानिए रहलन
[ १६ ]
बनवारी परसाद ओकर नांब बा, हमनिये के जिला-जवारके अदिमी. उहे दगा कइलस भइया !
जंगल – मूँड़ी में छूड़ी लगा देहलस भइया !
जुम्मन – जियते जबह कइलस ! हाइ सलिमिया !
जंगली – हाइ मँगरी ! रछछवा हमनी के मुसुक वान्ह देहले रहल, नाहीं त जियते ई इज्जत ना लूटे देतीं.
फूची – इज्जत लुटल !
जुम्मन – हाँ, भइया ! जनावरों तनी आड़ खोजेला लेकिन ई जपनिया ! ई अदिमी नइखे भाई ! राछछ बाड़ेसन.
जंगलीराम – रछछे ना भाई ! रावनो छ महीना ले सीताजी के हाथ ना लगौले.
जुम्मन – साँचे क़हत बाड़ भइया ! ई जपनिया जनावरों से रछछों से गइल-बीतल बाड़न्. लेकिन जो ऊ बनरिया कतहूँ मिलि जाइत ! हाइ जंगली भाई ! कलेजा में आगि लागलि बा. आज जो देखि पवतीं वनबरिया के.
जंगली – जियते खा जाइतीं भइया ! जियते.
जुम्मन – ओकरा इज्जत-पानी के कौनो पर्वाह नइखे.
जंगली – पर्वाह होइत, त हमनी के धोखा दित. कमुनिस्त भइयवा. साचे कहत रहे. हमनी ना मननी असरफ के बतिया. केतना बेरि-बेरि
समुझावत रहसन कि जपान ऊहे ह, जौन
[ १७ ]
कोरिया के जब्बह कइले, ऊहे ह, जौन मंचूरिया के इज्जत-धन लुटले, ऊहे ह जे तिनसिन में महरारून के नंगा करिके नंगाझोरी लेहले. लेकिन हमनी ना मननी.
थाइची – त महरारून के कहाँ ले गइल भाई !
जुम्मन – मति पूछ, भइया ! करेज में आग लहकत बा. दस गो महल्ला के जौना में पचीस हजार अदिमी बसेला –
जंगली – एगो छपरा जइसन सहर.
जुम्मन – दस गो महल्ला में अपना बोली, अपना अच्छर में इसतिहार साटि देहले कि ई रंडी महल्ला ह.
फूची – रंडी महल्ला.
जुम्मन – हमार हिनुतानी कमुनिस्त भाई असरफ एतने क़हत रहल कि जपान समुच्चा जुबान, अधेड़ महरारून के ले जाके छाबनिन में
कोठन पर राख़ देला, लेकिन हमनी बिसबास ना कइनी, ओही चंडाल बनबरिया के बाति सुनि के. आ आंखे देखनी समुच्चा महल्ला
के रंडीखाना बना देहलस !
जंगली – मन करता उड़ि जाये के जुम्मन भइया ! हिनु-तानी में केतना बनबरिया होइहें, जपान के दलाल. जाके लोग से कह देतीं कि भइया ! मत बिसबास कर जपनियन के दलालन के
[ १८ ]
बात पर, मत बिसबास कर देस बेचवन पर, ई इज्जति बेंचवा दीहें. हाइ मँगरी !
जुम्मन – हाइ सलिमिया !
थाइची – त, महल्ला के महल्ला के रंडीखाना बना देहलस, छोत-बड़ सबके ?
जुम्मन – एकोर से सबके भइया ! लाख गो जपनिया सिपाही आ मेंहरारू पाँचे हजार. केतना मरि गइली भइया आ जे जीवन बाड़ी सेहु कै दिन खातिर !
थाइची – आ घर के लोग ?
जुम्मन – घर के लोग ? जे तनिको बोलल, सेकरा के संगीन से खोभि के, मुवा देहलस. आ कइसन कइसन इज्जतदार घर ! वकील के बेटी मेंहरारू डाकडरन के बहिन-पतोह, सेठन के सुकुमार ज़नानी, आ हमनी जैसन सिपाही – दरवानन के
मेंहरारू – सबके ले गइल, सबके कस्बी-पतुरिया बनौलस.
जंगली – आहि, करेजा में आगि लहकता. बिना चार गो जपनियन कै करेजा चिरले ई आगि ना बुझाई जंगली भइया ! लेकिन, हमनी के गाँव के इज्जत, जिला-जवार के इज्जत, का होई !
जुम्मन – सौ पुटुत ××× के जोगावल इज्जत ! हाइ, केहू जा के कहित भइया ! जपनिया के दलालन के बात मत मानव, आपन तीर-धनुही, तरुआरि गँड़ासा
[ १९ ]
घरे-घरे तैयार कर. सजग ना रहिब तबे धोखा खाइब. आपन इज्जत धन अपने बचौला से बँची.
जंगली – एही से जंगली भइया ! उड़ि जाये के मन करता. का जानीं उहों बनबरिया के भाई-बंध, देस बेंचवा, इज्जत बेंचवा ना होखसु.
जुम्मन – हाइ, छपरा. हाइ आरा, हाइ मोतिहारी, हाइ कुलि सहर-दिहात. सजग हो जा भइया, कसि ला तेगवा. तोहार कौनो सलिमिया-मँगरी ना बचिहें. भगवाने बजार ना कुलि छपरा के रंडी खाना बना दी, अपना तीर-तरुअरियन पर सान ना घरइब ?
जंगली – कायरन के धिक्कार, जिउलोभियन के धिक्कार, देस बेंचवन के धिक्कार ! इज्जत बेंचवन के धिक्कार ! खून पी घाल जपनिया का दलालन के.
जुम्मन – लेकिन छपरा दूर बा, हमनी के गांवों दूर बा. आ ई करेजा में आग लहकल बा, ई कंहवा बुझावल जाई ?
जंगली – ई त ना बुझाई जुम्मन भइया ! जबले मँगरी सलिमिया का इज्जत के बदला ना लिआई.
थाइची – हमनिओ इहे सोचेले बानी , जपनिया हमनि ओके गाँव फूँकले बा, हमनिओके इज्जत लुटले बा, हमनिओ जपनिया के खून पीये के किरिया खइले बानी.
फूची – आ हमनी दूनो भाई मिलि के बीसि जपानिन
[ २० ]
के मारि चुकल बानी.
जंगली – बीसि गो ! हमनी दोनों भाई के जो पंच पंचो गो के मारि पाई त करेजा जुड़ा जाई.
थाइची – बीसि मारि चुकल बानी भइया. हमनिओ मूवे के संकलप कइले बानी, लेकिन बेसी से बेसी जपानिन के मारिके, कई रछ्छन के मार के
फूची – आ अबहिन बीसि गोके अउरि मारि के मूअत सन.
जुम्मन – हमनिओ के बताव भइया ! उहे उपाय. हमनिओ जिउ संकलप कइले बानी. हमनिओ धन-इज्जत-लुटब, जपनियन के कांचे खाये
चाहतानी.
थाइची – त तोहरा लोगन के पास हथियार बा ?
जुम्मन – हथियार त छुरा भर बा.
थाइची – ना रहला से छुरी निम्मन बा, छोटकी छुरियो निम्मन बा. बनूकि चलावे जाने ल भाई ?
जुम्मन – हमनी दूनो जने पछिला लड़ाई में पलटनि में रहल बानी.
थाइची – त निम्मन बात बा. हमनी दुनो भाई के पास दुगो बनूक आ एगो पेसतौल बा. हमनी चारो जने में जे दु जना के सबसे निम्मन
निसाना लागत होय. उनहीं के हाथ में दुनो बनूक रही, फेर निम्मन चलावेवाला के हाथ में पेसतौल रहे के चाहीं.
[ २१ ]
फूची – आ दुगो तरबरिया बा, एसे चारो जने के हाथ में कौनो ना कौनो हथियार रही.
थाइची – आ हिनुतानी भाई ! हमनी के पास पहिले दु गो तरुवारे, रहे, ई बनूक, पेसतौल जप-नियन के मार के छिनले बानी.
फ़ूची – आ ओहि दिन जे हमनी दु गो बनूक नदी में फेंक देहनी.
थाइची – कहा ढोइतीं भाई ! गाड़ि के राखे के मोका होइत, त गाड़ि देले होइतीं. लेकिन फेरु मिली, बनूक के कौन, दु जपनियन के मारला में दुगो बनूक.
जुम्मन – ई जंगली भइयवा, चनमारी में सौ में सौ गोली मारेवाला ह, एकर एको नीसान ना बांव जात रहल ह, हमनिओ के अपने साथे कर
चीना भाई ! हमनि चारो के एगो जमात होखो.
थाइची – चीन मुलुक में हमनि बड़का जमात बा. कमुनिस्त के किरिया बा कि पाँच गो से कम जपानिन के जिउ लेहले बिना जिउ ना देनदबे के.
जुम्मन – आ तोहरा लोगन के नांब भाई ?
थाइची – हमार थाइची, आ हमरा साथी के फूची.
जुम्मन – हमार नांब ह जुम्मन, हमरा साथी के जंगली.
[ चारो जने एक दुसरा से छाती से मिललन ]
थाइची – आज से चीन के चौथी लालि पलटन हिनुतानी भाइन के अपना गोरिल्लन मिलाबतिआ.
[ २२ ]
जुम्मन – लाल पलटन !
जंगली – लाल पलटन ! असरफ भइबा एही लालि पलटन के नांव लेत रहे.
थाइची – हाँ, उहे मजूरन-किसानन के पलटन, उहे समूचा पढुबा देसभक्तन के पलटन. उहे जौना के सुनला से जपानी रछछन के करेजा
कांपेला.
जुम्मन – अपना कमुनिस्त भाई असरफ से सुनले बानी थाइची भइया !
जंगली – असरफ भइयबाके कुलि बतिया साँचे उतरल. क़हत रहे, हमनी कमुनिस्तन के लाख-लाख पलटन जूझति बा जपानिन से.
थाइची – उहे लाल पलटन में अब तोहरा दोनों भाइन के भरती होतिआ.
जुम्मन – हमनी के सिखावा गुनावा ना थाइची भइया.
थाइची – सिखे गुने के बहुत बा भइया ! सबसे पहिले ई सीखे के बा कि जेतना गाँव-सहर के लोग बा से सब हमनी के सगे बाप भाई-बहिन मतारी ह. केहु से हरुस वचन ना बोले के, केहू के चीजु बिना देहले न लेबे के. सबके इज्जति सबके घन बचावे के खातिर हमनी आपन जिउ संकपले बानी. ई बात मन में बतिसो घड़ी आठी पहर राखे के.
फुची – ई समुझ गइला से, लोग बिना कहले हमनी के
[ २३ ]
बाप-मतारी बन जाई.
जुम्मन – गँठिया ले जंगली भइयवा ! ई बड़का सीखि द.
थाइची – आ एगो बात ई कि दुसमन से समुहें ना लड़ें के, हमनी फल-बल-छल से लड़ीले. दुसमन के एहि मुलुक के धरती समुझल-बुझल नइखे आ हमनी के एक-एक अंगुर जमीन चालल बा. एही बासते रात-बिरात, नहीं-नारा देखिके बिलार का नाहिन देहि सिटुका के, साहिल का नाहिन आपन देहिं लुकबा के छूरी भोंके के.
जुम्मन – ई दूसरे तरह के लड़ाई बा, जंगली बबुआ !
जंगली – हाँ भइया ! आ ऐसे हमनी दुसमन के बेसी नुकसान कर सकीले.
थाइची – इहो बूझीं जुम्मन भाई! जपान हमरा चालिस करोड़ के बसती में गाँव-गाँव पलटन ना राखि सकेला. हमनी आपन जिउ देके, आपन बिद्दा सिखा के अपना देस के सब भाइन के निडर कर दे तानी.
फूची – अकेले फुशन गाँव के तीन हजार भाई-बहिन मूके केतना लाखन-चीना भाइन के निडर कर देहले.
थाइची – जपान एकोर से बिना बराब के जे लोग के बध करता ओके देखिके कायरो समुझता कि भाई दु – चार जपनियन के मुवा के जिउ दिहल निम्मन बा.
फूची – त अब चले के.
[ २४ ]
थाइची – हाँ चले के. लेकिन जुम्मन भाई ! आपन भेस हमनिये जैसन बना ल, नाहीं त फरके से जपनिया चीन्हि ली.
जुम्मन – ठीक कहल ह भाई ! मोछ-दाड़ी मुंडौला से हो जाई नू.
थाइची- हमनी जैसन लिल रंग के कोट पैजामा पहिरि के.
जुम्मन – जौन-जौन कहब उहे हमनी करबिसन, लेकिन उहे जे पाँच गो जपानिन के मारि के मरे वाली बाँब ना जाय.
[ सब लोग निकाल जाता ]
अंक ४
[ मैदान में गाँव-गिरांव से फरका चार गो गोरिल्ला बनूक कान्हा पर लगौल बइठल बाड़न, थाइची फूची से कुछ कहलस, ऊ चलि गइल ]
थाइची – कह जुम्मन भाई ! आजि दुइये महीना नू भइल कह कैसन मन करता ?
जुम्मन – मन के खुसी थाइची भाई मति पूछ. पाँचे जपानिन के मरला में छाती जुड़ा गइल [ बनूक का मोहरी के चूमी के ] बारह रछछन के भुंजि चुकलि बा ई बिटिया हमार.
जंगली – [ अपना बनूक के चूमी के ] आ ई बीस के जुम्मन भाई. दु महीना में कम नइखे.
[ २५ ]
थाइची – जंगली भाई के निसाना साँचे अचूक होला.
जंगली – थाइची भाई तोहरा से भेंट ना भइल होइत, त ई कुलि नीसान दरबानिये करे में खतम हो जाइत. आ ऊ हमनी के जर्नेल. ओ अइसन जर्नेल के पसीना के जगह काहे ना हमनी आपन खून बहायेब [ गदगद हो के ]
जर्नेलहान् – पिङ्, जर्नेल हान-पिङ् के जय, चौथी लाल सेना के जै.
जुम्मन – अरे जंगली भाई हमनी गोरिल्लन का एतना ज़ोर से चिल्लाये के ना चाहीं. [ जंगली भरमि गइले ]
थाइची – एहि बखत कौनो हरज नइखे जुम्मन भाई !
जंगली – हमनी एक लाख जवान के जर्नेल, आ देखे में कइसन ?
जुम्मन – हमनिये जइसन. तनिको फरक ना, हमनिये का साथे बइठि के खाइल, हमनिये का साथे सुतल, ई बेल्कुल दूसरे तरह के जर्नेल.
थाइची – लाल पलटन के अइसने हाले जुम्मन भाई. जो कहूँ तू कूल्ही लाल जर्नेल के बड़का जर्नेल छू-ते के देखले होइत. लड़ाई के बखत, हुकुम लेबे के बखत, अपिसंर अपिसर आ सिपाही सिपाही, ना त लाल पलटन में जर्नेल सिपाही में कौनो फरक ना.
जुम्मन – एही से नू हमनी के एगो लाल सिपाही बीस गो जपानी रछछन का बराबर बा. एही से नू
[ २६ ]
जुम्मन बीस बेर मूवे के तैयार बाड़न.
जंगली – एही से जंगली के छाती फूलि के गज भर के भइल बा. (बनुक के मोहरी गाल में लगा के ]
आज ई बनूक हाथ में ले के मालूम होता कि हमरा में केतना तागत बा. आजु कालो से लड़ला में जंगली का तनिको संका नइखे.
जंगली अपना मतारी के कोख पवितर कर देहलन, बीस गो रछछन के मारि के सलिमिया भौजी आ मँगरी के बदला ले लेहलन. अब से
जेतना दिन जिहें, जेतना जपानिन के मरिहें, ऊ नफा में.
जुम्मन – जंगली बबुआ ! आजु देखु आज हमनी खातिर जिनगी तिरिन बरोबर बा. तनिको चिन्ता नइखे !
जंगली – चिन्ता ! जुम्मन भइया ! उछाह होला उछाह. आ जौना गांवे हमनी जाई ले, लोग कैसन मानेला ?
जुम्मन – गाँव भर जैसे बापे-मतारी बा, सब लोग हाथे हाथ उठौले चलेला.
थाइची – लोगन के हाड़ से हमनी क हाड़ बा, लोगन के मांसु से हमनी के मांसु बा, लोगे के खून से हमनी के खून बा. हमनी एहि बात के जानी ले आ लाखन लाल सिपाही आपन जिउ दे-दे के देखा देहलन कि हमनी झूठ ना बोलीले.
[ २७ ]
जंगली – आ थाइची भाई ! लाल गोरिल्लन के आठो परनिया तनी दोहरइह त.
थाइची – अच्छा सुन, हमनी गोरिल्ला लाल सिपहिया के आठो परन.
(१) बिना मालिक के हुकुम के केहु के घर-दलान में ना पइसेके.
(२) जौना घर में डेरा करीं ओके खूब साफ राखे के.
(३) लोग से नरम रहे के, सब काम में मदद देबे के.
(४) उधार मिलल चीजु के ठीक लौटा देबे के.
(५) टूटल-भांगल चीजु के बदला देबे के
(६) जेतना चीजु खरीदीं, ओकर पूरा दाम चुकाबे के.
(७) पास-पड़ोस में सफाई राखे के, घर से पूरा हटि के पेसाब-पैख़ाना खातिर गड़हा बनावे आ अपने हाथ से सफाई करके.
(८) दुसमन हथियार छोड़ि दे त ओके ना मारे के चाहीं ना लुटे के चाहीं.
जंगली – लेकिन बनूक पेसतौल त ले लेये के चाहीं थाइची भाई !
थाइची – बनूक आ पेसतौल जब छोड़ि देता तबहीं नू ओकर जिउ बाँचता.
जंगली – ई हाथ के बसवा गज़ब के हथियार नू बा.
[ २८ ]
ओहि दिन हमनी केतना रछछन के मुऔले रहितीं.
थाइची – पचीस गो.
जंगली – ई दु गो हथबमवा तीन दिन से लटकौले बानी, देखी कब फेरु मौका मिलता.
[ एही बखत मसिनगन के अवाज भइल, फूची घोडा की नाहिन सर्पट भागल आइल ]
फूची – राछछ गाँव के धन-इज्जत लूटे आवत बाड़े, हम ओके देखि आइल बानी.
[ चारो जने अपना दुनों हाथ में दागे खातिर बनूक कइले दौरले ]
[ उहै पहिले वाला पर्दा, जरत गाँव, जपानी अफिसर मुह में बोतल लगा के सराब पीयता. एगो जपानी सिपाही ले आ के एगो लइका के जरत आग में फेंक देता, सब ठठा के हँसता. एही बखत चारि गो सिपाही दु गो जुवान महरारून के बांहि के ले आवता. चारो लाल गोरीला तीन ओर से अन्हारे – अन्हारे सरकत आवत बाड़न. आ एक बेर चारि गो हाथ के बम फेंकत बाड़न. बजर घहराये के आवाज होता. पचासन राछछ मूआत बाड़न. दूनो महरारून के छोड़ाके गोरिला भाग जात बाड़न ]
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समाप्त
सन्दर्भ:
[1] Alaka Atreya Chudal Freethinking Cultural Nationalist: A Life History of Rahul Sankrityayan , Oxford University Press 2016; M. Puri, “Traveller on the Silk Road: Rites and Routes of Passage in Rahul Sankrityayan’s Himalayan Wanderlust” China Report (2011); John Bray, “Rahul Sankrityayan, Tsetan Phuntsog and Tibetan Textbooks for Ladakh in 1933. Tsetan Phuntsog and Tibetan Textbooks for Ladakh in 1933” Himalaya 39 (2020);
Tenzin Tsenyi, “Rahul Sankrityayan in the Land of Snow with Gedun Choephel” The Tibet Journal Vol. 44 (2019); Jia Yan, “The Fraternal Travelogue and China-India Cultural Diplomacy in the 1950s”, In Francesca Orsini; Neelam Srivastava; Laetitia Zecchini edited,
The Form of Ideology and the Ideology of Form: Cold War, Decolonization and Third World Print Cultures, Open Book Publishers, 2022
[2] फुशुन नरसंहार और चीनी स्मृति के इतिहास में इस घटना के स्थान पर आक्सफर्ड विश्वविद्यालय के आधुनिक चीनी इतिहास के प्रोफेसर राणा मित्तर (Rana Mitter) ने तलस्पर्शी शोध किया है: The Manchurian Myth: Nationalism, Resistance and Collaboration in Modern China, University of California Press (2000); China’s War with Japan, 1937-1945 : The Struggle for Survival. London: Allen Lane (2004); और China’s Good War: How World War II Is Shaping a New Nationalism, Harvard University Press (2020). Louise Young, The Shadows of Total War: Japan’s Wartime Empire in China भी एक उल्लेखनीय शोधकार्य है.
[3] दुनिया के अनेक विद्वानो ने इस विषय पर शोध किया है जिसके कुछ उदाहरण नीचे दिये गये हैं: Pyong Gap Min, Korean “Comfort Women”: Military Brothels, Brutality, and the Redress Movement, Rutgers University Press 2021; Caroline Norma, The Japanese Comfort Women and Sexual Slavery during the China and Pacific Wars, Bloomsbury Publishing 2015; Margaret D. Stetz, Bonnie B. C. Oh , edited, Legacies of the Comfort Women of World War II, . MR Sharpe 2001; George Hicks
The Comfort Women: Japan’s Brutal Regime of Enforced Prostitution in the Second World War, WW Norton 1997
पंकज मोहन ने उत्तरी एशिया की भाषा और संस्कृति की पढ़ाई का आरम्भ 1976 में जे.एन.यू. मे किया, और तदुपरांत सेओल नैशनल यूनिवर्सिटी और आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी से इतिहास मे क्रमशः एम.ए. और पीएच.डी. डिग्री हासिल की. उन्होंने यूरोप, आस्ट्रेलिया और एशिया के कई विश्वविद्यालयों में तीस वर्षों तक उत्तरी एशिया के इतिहास का अध्यापन किया. जुलाई 2020 मे नालंदा विश्वविद्यालय, राजगीर के स्कूल ऑफ हिस्टोरिकल स्टडीज के प्रोफ़ेसर और डीन पद से सेवानिवृत्त होने के बाद वे आस्ट्रेलिया मे रहकर शोधकार्य में संलग्न हैं. उत्तर एशिया की संस्कृति पर हिन्दी, अंग्रेजी, कोरियाई और चीनी भाषाओं में लिखे उनके अनेक ग्रंथ तथा शोध आलेख प्रकाशित हो चुके हैं. pankajnmohan@gmail.com
|
नमस्ते,
राहुल जी का यह भोजपुरी नाटक शाया करने के लिए, प्रो पंकज मोहन जी और समालोचन को, बहुत बधाइयां। शुक्रिया। मैं इस नाटक का हिंदी अनुवाद करूंगा और इसपर लिखूंगा भी।
सादर
राजीव रंजन गिरि
बहुत विचारोंत्तेजक है यह, कितनी ही मानसिक यंत्रणाओं और मानवता के प्रति अपनी सच्ची संवेदना के उतप्रेरण को अनुभूत करके लिखा है, प्रथम पाठ किया है, और विस्तार से लिखूंगा, आप कितने परिश्रम से संचयन करते हैं
राहुल जी के व्यक्तित्व एवं शोध-क्षेत्र के इस नए आयाम को उजागर करने के लिए पंकज मोहन जी को साधुवाद।
बहुत महत्वपूर्ण आलेख.नाटक का हिंदी रूपांतर हो तो बेहतरीन
साबित हो
राहुल सांकृत्यायन पर एक बहुत ही सुंदर आलेख। Pankaj Mohan को आभार इस आलेख के लिए। राहुल सांकृत्यायन पर अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कितनी ही बातें हैं जिसकी चर्चा से ambiential रियलिटीज का एक अंदाज़ा होता है, तत्कालीन राजनीतिक यथार्थ को समझने के लिए सुराख भी।
राहुल सांकृत्यायन पर अध्ययन-मनन करने वाले विद्वानों की एक लंबी परंपरा है। गुणाकर मुले, शेखर पाठक, हितेन्द्र पटेल और ज्ञानेंद्र पाण्डेय(उनका एक लेख प्रतिमान में छपा था) उनमें सर्व प्रमुख हैं।
नौजवानों में शुभनीत कौशिक ने राहुल जी पर बहुत ही प्रामाणिकता के साथ लिखा और बोला है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो राहुल जी पर विद्वानों की एक शानदार शृंखला ही है जिसका नाम गिनाना यहाँ कोई उद्देश्य नहीं है। हिंदी के अधिकांश बड़े लेखकों ने राहुल जी पर लिखा है, बोला है।
उस शृंखला में यह मूल्यवान लेख है।
महत्त्वपूर्ण
अच्छा और जरुरी लेख है. जानकारी व विश्लेषण से परिपूर्ण.
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय फासिस्ट हिटलर और मुसोलनी के साथ जापान की साम्राज्यवादी भूख की जानकारी तो थी पर इतने विस्तार से जानने के लिए इस आलेख को पढा जाना चाहिए। राहुल जी द्वारा भोजपुरी में लिखा नाटक भी भोजपुरी की एक अमूल्य धरोहर है। यह नाटक अपनी मातृभाषा के महत्व को समझने की दृष्टि भी देता है।
गंभीर शोध,विवेचन और परिप्रेक्ष्य। उग्र राष्ट्रीय उन्माद किस तरह के पिशाची सैन्य दुष्कर्म में धकेल देता है, सामान्य जीवन किस तरह क्रूर अमानुषिक संवेदन विहीन हो जाता है, यह राहुल जी के अनुभव विश्लेषण रचनात्मक आवेग के साथ , पंकज मोहन जी ने भी फिर हम सबको “वेक अप काॅल” दिया है। खास कर हमारे सुप्त प्राय बौद्धिक बहुलांश को।
प्रोफ़ेसर पंकज मोहन जी के लेख के लिए साधुवाद ।बहुत महत्वपूर्ण ।मेरा सौभाग्य है कि मैं पंकज जी को निजी तौर पर जानता हूँ।उनसे धारावाहिक लिखवाया जाय तो एक पूरी अद्वितीय किताब हमें मिल जाएगी।