रचना और आलोचना
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हमारे समय के बड़े कथाकार धीरेंद्र अस्थाना ने आज से 38 वर्ष पूर्व तब की महत्वपूर्ण पत्रिका “दिनमान” (15- 21 जुलाई 1984 अंक ) में नामवर जी के जरिए समकालीन कहानी और कथा समीक्षा की प्रवृत्तियों के विभिन्न मुद्दों को उभारने के क्रम में अपनी बात रखते हुए एक आलेख लिखा. इधर “पाखी” पत्रिका ने अपने जून 2022 अंक में संदर्भित आलेख को पुनर्प्रकाशित किया है.
लेख का शीर्षक है- ‘नामवर सिंह फिर से कहानी पर क्यों लिखना चाहते हैं ?’
उस समय दिनमान ने इसे प्रकाशित करते हुए पाठकों को इस प्रत्याशा में सक्रिय भागीदारी के लिए आमंत्रित किया ताकि बहस से कथा समीक्षा के व्यापक बिंदुओं और नए आयामों को छुआ जा सके. अब पाखी का कहना है कि आज हिंदी आलोचना सुस्त पड़ चुकी है और उम्मीद जाहिर की है कि यह लेख हिंदी आलोचना की सुस्ती को न केवल तोड़ेगा बल्कि गहरी नींद में सोई आलोचना को झकझोर कर जगाएगा.
मेरे विचार में चिंत्य प्रश्न सिर्फ़ यही नहीं है कि हिंदी आलोचना के क्षेत्र में सुस्ती आ गई और समीक्षाधर्मिता उतने नए आयामों को नहीं छू सक रही है ?
मुझे लगता है कि आज रचना की आलोचना विवेच्य विधा विशेष के लिए तयसुदा खांचे में रखकर की जा रही है और इस क्रम में रचना का थोड़ा सा परिचय देकर कुछ शास्त्रीय किस्म के विश्लेषण की रस्म अदायगी भर कर दी जा रही है. बारीकी से देखा जाये तो कथा, कविता या कथेतर साहित्य के लिए इस बीच एक खास अकादमिक शैली भी ईजाद कर ली गई है.
प्रसंगवश मेरे कहने का अभिप्रयोजन यह भी नहीं है कि रामविलास शर्मा ने सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को जिस महत्वपूर्ण ढंग से प्रतिष्ठित करने का काम किया या फिर जितने अहम तरीके से नामवर सिंह ने गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ को स्थापित किया, आलोचना का निकष उससे कमतर हमें कतई स्वीकार न हो.
अपितु मेरा मंसूबा तो महज़ इस बिंदु पर फोकस करने का है कि हमारे लोग डॉ. कमला प्रसाद की इस स्थापना से दिनों दिन विमुख होते जा रहे हैं कि
“रचनाकार और आलोचक अलग-अलग पहचाने जाने के बजाए एक समय में एक कृति से पहचाने जाते हैं. रचयिता होने की वजह से एक तात्विकता को रचकर आकृतिबद्ध करता है और आलोचक के नाते दूसरा रचना के विवेक को अर्जित करता है.”
माना कि रचनाकार और आलोचक- अपने समकाल और जीवन में बहुत जीवंतता से साथ न भी जुड़े हों, तब भी किसी कृति को लेकर आलोचक धारा के साथ जितनी दूर तक बह सका तो क्यों बहता गया या जहां से रवानी के मुखालिफ़ हुआ तो क्योंकर हुआ ? और क्या उसने इन बातों पर पृथक-पृथक अपनी निष्पति भी सामने रखी या नहीं ? यह मेरा सवाल है.
राजेंद्र यादव ने प्रसिद्ध कहानी संकलन “एक दुनिया: समानान्तर” की 22 कहानियों के लिए 58 पृष्ठ की भूमिका लिखी है, 7 पृष्ठ प्रस्तावना के अलग. यह भूमिका चयनित कहानियों के रचित या असल संसार को कम खोलती है और उस काल की दूसरी कहानियों के बाबत हमें ज्यादा बताती है. परिणामतः यहां दरअसल उस स्वर को रेखांकित किया गया है जो उस दौर की कथाओं की जमीन, आनुषंगिक आकाश और संगत क्षितिज की शानदार प्रस्तुति है.
राजेंद्र यादव जी ने पूछा भी है कि क्यों एक रचना अपनी ओर सहसा ध्यान खींच लेती है और क्यों दूसरी, अनेक आयोजित परिचर्चाओं और प्रेरित समीक्षाओं के बावजूद वहीं की वहीं रह जाती है ? यद्यपि उन्होंने इसका कारण भी बताया है कि महत्वपूर्ण कृति कहीं न कहीं परंपरागत जीवन दृष्टि की जड़ता और कला- रूप के रूंधाव को तोड़ती है और यह तोड़ना ही उसे महत्वपूर्ण बनाता है. जबकि समीक्षाओं, परिचर्चाओं और गोष्ठियों में अक्सर उन कहानियों का ज़िक्र होता है, जो पहली बार अपनी जीवन- संचेतना और रूप- प्रयोग के कारण हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं.”
परंतु उपर्युक्त व्याख्या में आप देखें, आलोचक के रोल या ड्यूटी के बारे में कोई बात नहीं है, बल्कि आगे जाकर राजेंद्र यादव ने इसे कला-प्रौढ़ता और आयु-वार्धक्य से जोड़ दिया है, जो कि फिलहाल हमारा अभीष्ट है नहीं.
हां, “एक दुनिया: समानान्तर” में एक बात निश्चित ही बड़े पते की कही गई है कि-
“स्वतंत्रता के बाद के कथाकार का एक संसार वह है जो उसके चारों ओर है और जिससे उसे आंतरिक घृणा है, बेहद नफरत है; लेकिन जिसमें रहने, टूटने और समझौता करने को वाह बाध्य है. दूसरा संसार वह है, जिसे अपने भीतर से निकालकर उसने बाहर फैला दिया है, जिसका निर्माण उसने स्वयं किया है और जो उसके टूटने, घुटने और घिसटने की और भी घिनौनी तस्वीर को सामने रखता है, उसकी असामर्थ्य, पराजय और हताशा का लेखा है– उसकी नियति है.”
अब कृतिकार की इस बाध्यता और नियति, जो प्रकारांतर से कहानी में पात्रों की मनोदशा के रूप में मिलती है या कथानक के पार्श्व में निबद्ध रहती है, का आलोचक किस तरह मूल्यांकन करता है, यह हमारा विषय है.
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने अपने एक निबंध में आलोचना को लेकर एक दूसरे ही उपालंभ की बात उठाई है-
“समकालीन आलोचना के बारे में यह बात बहुत तीखी लग सकती है, लेकिन सच यही है कि समकालीन आलोचना समकालीन रचना के पीछे चलने वाली, उससे आक्रांत और उसकी पिछलग्गू होकर रह गई है.”
मैं इस शिकायत में ‘आक्रांत’ शब्द के साथ ‘दीगर कारणों से आसक्त’ होने को भी जोड़ना चाहता हूं.
यहीं तिवारी जी का स्पष्ट रूप से यह कहना भी है कि
“हमारे यहां रचनाकारों ने जितना आत्मसंघर्ष किया उतना आलोचकों ने नहीं किया. आलोचकों ने आसान रास्ते चुने. क्या कारण है कि रचनाकारों ने ‘रचना क्यों’ का सवाल उठाया पर आलोचकों ने ‘आलोचना क्यों’ का सवाल नहीं उठाया. आलोचना क्यों का सवाल भी उठाया तो रचनाकारों ने ही. उनकी इस चुनौती पर किसी आलोचक ने गहरा आत्ममंथन नहीं किया. ख़ुद आलोचक आलोचना क्यों लिखता है, इसका जवाब किसी आलोचक ने नहीं दिया. यदि इस सवाल पर आत्मरूप की खोज की गई होती तो इस आत्मपरीक्षण से आलोचना की असल चिंता सामने आती. उस चिंता के आधार पर आलोचना में एक ध्रुवीकरण होता, किंतु ऐसा नहीं हुआ.”
इस पर मेरा कहना है कि रचना के समानान्तर आलोचक द्वारा यथेष्ट, यथाविधि और ईमानदारी से की गई यात्रा ही वास्तव में मायने रखती है, जिसे मैंने प्रारंभ में प्रवाह के साथ बहना या कि असहमति (अबूझ, अरुचि के अर्थ में भी) के मोड़ के बाद धारा के विरुद्ध चलना भी कहा है. क्योंकि मनीषियों का यही मत है कि रचनाकार की पीड़ा को सच्चा और इंडेफरेंट आलोचक भी महसूस करे. इसके उपरांत ही वह रचना को आत्मसात कर सकेगा और फिर जो भी, जैसी भी उसकी प्रतिक्रिया हो, इसी की तवक्को आमतौर से लेखक करता है और आलोचक की यही विशेष टिप्पणी सर्जनात्मक समीक्षा कही जा सकती है.
यह विषय का व्यतिक्रम लग सकता है पर यहां इसका उल्लेख करना होगा. कहानीकार ललित कार्तिकेय ने मंगलेश डबराल से एक लंबी बातचीत में सवाल किया कि हिंदी में काफी समय से जो स्वीकृत सिद्धांत है वे सब उथल-पुथल हैं. मसलन विजय कुमार जी ने आपके एक कविता संग्रह पर लिखते हुए यथार्थवाद के मुख्य प्रवर्तक एवं सिद्धांतकार जॉर्ज लुकाच से एक अवधारणा लेकर ‘फ्लीटिंग रियलिटी’ (नकारात्मक ) नाम से आपके काव्य यथार्थ को संज्ञापित किया. तो क्या वाकई आपको लगता है कि उत्तर-संरचनावाद से आपके काव्यकर्म को यथार्थवादी आलोचना दृष्टि के मुकाबले बेहतर तरीके से समझाया जा सकता है ?
इसके उत्तर में मंगलेश जी ने कहा, अगर लुकाच नहीं होते तो आलोचनात्मक यथार्थवाद की व्याख्या संभव नहीं होती. लुकाच साहित्य के समाजशास्त्रीय सौंदर्य को केंद्र में रखते हैं. इस मुद्दे पर लुकाच की बर्टोल्ट ब्रेश्ट से हुई आलोचनात्मक यथार्थवाद बनाम समाजवादी यथार्थवाद वाली बहस भी मशहूर रही कि आलोचनात्मक यथार्थवाद चीजों की प्रतीकात्मक व्याख्या करता है और समाजवादी यथार्थवाद, जो कि उससे आगे का विमर्श है, वह प्रातिनिधिक सांचे बनाकर नहीं चलता. इसके अतिरिक्त उत्तर- संरचनात्मक पद्धति निरी साहित्यिक आलोचना की पद्धति नहीं है. वह किसी भी घटना या पाठ या वाक् के अर्थ स्तरों को खोजने की भी एक पद्धति है.
प्रस्तुत साक्षात्कार अंश से आलोचात्मक यथार्थवाद और उत्तर संरचनात्मकता का नया गान सुन पड़ता है. जबकि हिंदी में प्राय: जो भी आलोचना पढ़ने को मिलती है वह केंद्रीय कथ्य पर या सकल विषय वस्तु पर एक टिप्पणी-अच्छी या बुरी, ही होती है. वह ज्यादा से ज्यादा भाषिक, शैल्पिक और रचनात्मक स्तर पर किताब को समझ चुकने का मुजाहिरा देती एक प्रतिक्रिया तक महदूद रह सकती है.
यहां मैं कहूंगा कि कोई आख्यान, कहानी या बड़े कथानक की रचना लेखक की सर्जनात्मक कूवत का परिणाम होती है, क्योंकि वह उसके मन-स्नायु से मथ कर निकलती है और इसीलिए पाठक के हृदय पर असर करती है और समाज पर, समय पर प्रभाव भी डालती है, यानी मेरा तो मानना है कि आलोचना भी आलोचक के आत्ममंथन से पैदा होनी चाहिए, तभी वह सर्जनात्मकता से लबरेज़ हो पाएगी और बहुत हद तक सार्थक भी हो सकेगी.
स्थापित अवधारणाओं और निष्कर्षित सिद्धांतों के फेर में न पड़कर हमें यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि जिस तरह लेखक के लिए उसका परिवेश, समाज से उसकी अंतक्रिया और उसका वाह्य जगत कच्चे माल की मानिंद है, ठीक उसी तरह आलोचक के लिए लेखक की रचना ही कच्चा माल है. दोनों ही अपने-अपने कच्चे माल से एक नई निर्मित का प्रणयन करते हैं.
इसीलिए कहा भी गया है कि रचना रचनाकार को रचनापूर्व की बेचैनी से मुक्त करती है तो सम्यक आलोचना भी आलोचक को आलोचना पूर्व की प्रश्नाकुलता से निजात दिलाती है. इस परिप्रेक्ष्य में यह कहना- आलोचक को अपनी विवेचना में लेखक की रचना से भी एक कदम आगे निकल आना चाहिए, यद्यपि कुछ अधिक अपेक्षा करना हो जाएगा अथवा अनर्गल ध्वनि से जूझना हो जायेगा, तथापि ऐसी रचनात्मक हाइलाइट मेरे विचार में रचना विशेष को निश्चित ही आगे ले जाएगी.
नामवर सिंह से जब इस बारे में उनकी राय बताने का आग्रह किया गया कि प्रगतिशील विचारधारा के आलोचकों ने “नई कहानी” के दौर की कहानियों का विश्लेषण सोच, कन्सर्न और विचारधारा के स्तर पर करने की दिशा में पहल की है और इनके नई कहानी आंदोलन में भी प्रगतिशील और गैर-प्रगतिशील, दोनों ही तरह के लेखक सक्रिय थे, जिनके फ़र्क का रेखांकन जरूरी था लेकिन आपकी कहानी संबंधी आलोचना में यह फ़र्क या उस तरह का विश्लेषण क्यों नहीं मिलता ?
नामवर जी ने बताया कि स्वयं कविता और कहानी की रचना में यह पार्थक्य छठे दशक में कितना था, इसकी जांच की जानी चाहिए और मुझे लगता है …. कहानी की ही बात लें …. कहानी की दुनिया में यह पार्थक्य कहां था? नई कविता वाले उस समय कितने थे, जो कहानियां लिख रहे थे ? जितने कहानीकार थे, कुछ ज्यादा प्रगतिशील थे तो कुछ कम प्रगतिशील, लेकिन थे तो कहानी की ही दुनिया में. नई कविता वालों के सबसे बड़े नेता अज्ञेय बंद कर चुके थे कहानी लिखना.
आगे उन्होंने जोड़ा; जो प्रयोगशील या प्रयोगवादी थे, वे लोग कहानी को फिल्मी गीत की तरह से जीवन के अनुभवों के यथार्थ का सरलीकरण कहते हुए कहते थे कि यह कोई गंभीर विधा है ही नहीं, जिस पर विचार किया जा सके. कदाचित इसीलिए धीरेंद्र अस्थाना ने तब लिख दिया कि यह बिल्कुल भी महत्वपूर्ण नहीं है कि वे (नामवर सिंह) फिर कहानी पर लिखना चाहते हैं, महत्वपूर्ण यह जानना है कि वे कहानी पर क्यों लिखना चाहते हैं ?
बहरहाल नामवर सिंह का वैसा कहा एक लकीर की तरह आज भी कथा लेखन को लेकर कवियों के मन में या कथेतर साहित्यधर्मियों के चित्त में अक्सर कौंध कौंध जाता है. खुलकर मैं यहां यह तो नहीं कह सकता कि कवियों, कहानीकारों के अलग-अलग खेमे हैं या उनके मुख्तलिफ घटक की मुख्तल छायाएं जब तब साहित्य चर्चाओं या अदबी बहस-मुबाहिसों में उभरती और विलीन होती देखी जा सकती हैं. पर कुछ है अवश्य जो आलोचना कर्म को बहुत गंभीर काम की तरह स्थापित करने में हायल होता है और इसे एक जरूरी रोशनी समझने में लापरवाही कर जाता है.
यही नहीं, नामवर सिंह ने साठोत्तरी कथा पीढ़ी (ज्ञानरंजन ने बतौर कहानीकार लिखना बंद कर दिया), समांतर कहानी (घोषणा पत्रों से कहानी नहीं पैदा होती ), जनवादी कहानी (साहित्य की दुनिया में जनवादी कोई प्रवृति नहीं है) और युवतर कथाकारों की कहानियों (‘ लिरिक’ हमेशा रूमानी ही नहीं हुआ करता है) पर भी जो बात की है, वह तत्समय भी तार्किक कही गई और आज भी कहानी आलोचना विमर्श के लिए आधार मानी जाती है. सिर्फ इसलिए कि महान रचनाएं आलोचना को भी महान बनाती हैं और रचना का ह्रास आलोचना के ह्रास का भी कारण बनता है.
उन्होंने नई कहानी आंदोलन के समय जब मोहन राकेश, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर की त्रयी का दबदबा था निर्मल वर्मा की कहानी “परिंदे” को पहली नई कहानी बताकर खलबली पैदा कर दी और कहा कि सच्ची, जेनुइन, प्रामाणिक अनुभूति निर्मल ने इस कहानी में तीव्रता और सघनता के साथ व्यक्त की है. साथ में यह भी कहा कि निर्मल की कहानियों का अनुभव-संसार, जैसा कि सभी जानते हैं, बहुत सीमित है और इस कारण उनकी कहानियों की एक सीमा तो बन ही जाती है. यही नहीं उनके चरित्र एक निश्चित वर्ग से आते हैं ….
मतलब सधे हुए आलोचक के चिंतन का केंद्र सदैव एक सा रहे, यह भी आवश्यक नहीं है. नामवर ने पहले पहल जितनी शिद्दत और श्रम से मुक्तिबोध को स्थापित किया, वे स्वयं बाद के वर्षों में निराला के बाद अज्ञेय को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृतिकार मानने लगे. इसके मूल में जो भी हो विमर्श के बीच में नामवर सिंह का होना उनके आलोचक रूप की एक विशिष्ट पहचान रही है.
यही सर्जनात्मक आलोचना है, जो विचारों को अनेक स्तरों पर छूती है और परिणामी तौर पर रचना के बजाए उस पर की गई आलोचना चर्चा के केंद्र में आ जाती है. इसी की आज जरूरत है, पूर्व में यह सर्जनात्मक वृति किंचित रही भी थी तो अब इसका सर्वथा लोप हो गया है.
आलोचक को चाहिए कि रचना की चर्चा सम्यक तरीके से की जाये और उसका सार संप्रेषित करने में चर्चा अपरिभाष्य न रह जाये. इन बातों को ध्यान में रखकर की गई आलोचना ही सार्थक होती है. यह इसलिए भी कि असली संसार को रचना संसार बनाने में लेखक जिस आत्म संघर्ष से गुजरा है, रचना के पाठ के समय सृजनशील आलोचक की जिज्ञासा, आकुलता उस भीतरी आत्मसंघर्ष को बाहर लाने का काम करे.
अकादमिक लहजे में कृति के विश्लेषण हेतु जो अंतरंग तथा बहिरंग समीक्षा पद्धतियां चलन में रही और जो सौंदर्यवादी तथा मूल्यवादी दृष्टियां बताई गई, वे आज भी काम कर रही हैं परंतु यदा कदा जब भी आलोचकों का पूर्वाग्रह रचना पर हावी हो रहता है तो रचना का सही मूल्यांकन नहीं हो पाता. दूसरी तरफ एकांगी दृष्टि, चालू मुहावरे, लॉबी और गुटबाजी के चलते भी अच्छी रचनाओं के लुप्त हो जाने, प्रकाश में न आ पाने और पीछे छूट जाने का खतरा बना रहता है !
अंत में इतना ही कि रचना प्रक्रिया शहद बनाने जैसी कितनी ही जटिल और नैसर्गिक प्रक्रिया क्यों न हो, आलोचना कर्म में जब उसका रासायनिक विश्लेषण किया जाये तो वह भी “तकरीबन करेक्ट” और कुछ मीठा तो हो.
15 अगस्त 1958 को अल्मोड़ा (उत्तराखंड) के छोटे से गांव में जन्म. उच्च शिक्षा- बी.एच.यू. वाराणसी से. लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित. पहला कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य.
उत्तर प्रदेश सरकार की सेवा से निवृत, संप्रति स्वतंत्र लेखन. |
नामवर सिंह ने अपने एक साक्षात्कार (बात बात में बात) में कहा था कि आलोचक लेखक का सहचर होता है और लेखक के आगे वह एक मार्गदर्शक (रक्षक) बनकर चलता है। सेना में तैनात सैपर्स एवं माइनर्स की तरह जो आगे चलते हैं और सबसे पहले वही मारे जाते हैं।वह बचाव पक्ष का ऐसा वकील है जो अपने मुव्वकिल को पहले ही बता देता है कि तुम्हारा केस कमजोर है फिर भी मैं लड़ूँगा।