‘बतकही’ से ‘साधना’ तक
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पिछले साल मैनेजर पाण्डेय की दो नयी पुस्तकें प्रकाशित हुईं – ‘बतकही’ तथा ‘शब्द और साधना’ (वाणी प्रकाशन). ‘बतकही’ उनसे लिये गये साक्षात्कारों की चौथी पुस्तक है, जिसमें ‘सन् 2012 से 2018 के बीच’ के प्रकाशित साक्षात्कार हैं. पहले के तीन साक्षात्कार-संकलनों-
‘मेरे साक्षात्कार’ (1998),
‘मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूँ’ (2006),
तथा ‘संवाद-परिसंवाद’ (2013) की संक्षिप्त भूमिकाओं में उन्होंने साक्षात्कार जैसे साहित्य-रूप के संबंध में कई महत्वपूर्ण बातें कही हैं.
‘मेरे साक्षात्कार’, ‘बाबा नागार्जुन को सादर’ समर्पित है, जिनसे उन्होंने ‘बतकही’ की कला सीखी’. हिन्दी में इण्टरव्यू के लिये जो कई शब्द- ‘साक्षात्कार’, ‘भेंटवार्ता’, ‘वार्तालाप’, ‘बातचीत’ और ‘संवाद’ प्रचलित हैं, उनके स्थान पर ‘बतकही’ का महत्व उनके यहां इसलिए प्रमुख है कि यह ‘जन-जीवन’ में प्रचलित लोक-भाषा का शब्द है’. वे ‘रामचरितमानस’ के ‘बालकाण्ड’ के दोहा-संख्या- 231 को उद्धृत करते हैं- ‘करत बतकही अनुज सन, मन सिय रूप लोभान’.
‘बतकही’ में इतिहास के पुनर्लेखन, लोक-साहित्य और उसकी उपेक्षा, साठोत्तरी साहित्य, मौखिक और वाचिक साहित्य, वर्तमान समय, ब्राह्मण वादी पितृसत्ता, पूंजीवाद, सम्प्रदायवाद, सोवियत संघ का विघटन, लेखक-संगठन, भूमंडलीकरण, अस्मितावादी विमर्श, दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, यथार्थ, बाजारवाद, यथार्थवाद, शिक्षा-तंत्र, शासन-तंत्र, आधुनिकता, वामपंथ भारतीय सौन्दर्यशास्त्र, सूफी-काव्य, भक्ति-आन्दोलन, दाराशिकोह, मार्क्सवाद, साहित्य, कविता, आलोचना, मुक्तिबोध, अज्ञेय, समकालीन कविता, समकालीन कथा-साहित्य, उपन्यास, गांधी, आम्बेडकर, रूसी क्रान्ति, वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन आदि से जुड़े अनेक सवाल और उनके जवाब हैं.
पुस्तक में सोलह साक्षात्कार हैं और ‘परिशिष्ट’ में रामविलास शर्मा से उनकी बातचीत है. पाण्डेय जी से बातचीत निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध और केदारनाथ अग्रवाल के अलावा ‘अंधेरे में’ कविता एवं मार्केज के उपन्यास ‘एकान्त के सौ वर्ष’ पर भी है. एक काव्य-रूप ‘ग़ज़ल’ पर अभी तक स्वतंत्र रूप से किसी मार्क्सवादी या प्रमुख आलोचक से बातचीत शायद ही की गयी हो. पाण्डेय जी इस ‘अत्यन्त लोकप्रिय विधा’ पर ‘विचार करना हिन्दी आलोचना का दायित्व’ समझते हैं. उनकी दृष्टि में ग़ज़ल ‘आयातित विधा’ नहीं है.
वे दाराशिकोह के गंभीर अध्येता हैं, जिस पर उनकी स्वतंत्र पुस्तक शीघ्र प्रकाशित होगी. दाराशिकोह के ‘मज़्म उल बहरैन’ (समुद्र संगम) का मुख्य उद्देश्य इस्लाम और हिन्दू धर्म-दर्शन के बीच संगम का था. ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के दौर में ‘संगम संस्कृति’ पर विचार बेहद उपयोगी, सार्थक और आवश्यक है. यह संगम संस्कृति ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ की काट है. गंगा-जमुनी संस्कृति ही संगम संस्कृति है और पाण्डेय जी ने ग़ज़ल को संगम संस्कृति से उत्पन्न एक विधा माना है. ग़ज़ल सम्बन्धी यह बातचीत ‘अलाव’ पत्रिका में पांच वर्ष पहले (2015) प्रकाशित हुई थी. इसी पत्रिका में 1993 के एक साक्षात्कार में उन्होंने ग़ज़ल में ‘चमत्कार करने की प्रवृत्ति’ अधिक देखी थी. उन्होंने अपनी धारणा बदली. संभवतः पहली बार किसी विधा विशेष की बुनियादी विशेषता उसके गैर साम्प्रदायिक और धर्म निरपेक्ष होने में बतायी गयी है और ‘गैर साम्प्रदायिक होना ही प्रगतिशील होना है’.
‘बतकही’ में कुछ प्रश्न कर्ताओं ने उनके निजी जीवन, छात्र-जीवन, दिनचर्या आदि से संबंधित कई सवाल भी पूछे हैं. इन सवालों के उत्तर में उन्होंने छात्र-जीवन में हिन्दी और भोजपुरी दोनों भाषाओं में कविता लिखने की बात कही है. ‘अभी भी गांव जाने पर मेरे पुराने मित्र मुझे कवि जी-कवि जी कहकर ही बुलाते हैं’. उन्होंने अध्यापक डॉ. शितिकण्ठ मिश्र की ‘प्रेरणा और प्रभाव से आलोचना में प्रविष्ट’ होने की बात कही है. आचार्य शुक्ल की आलोचना से उनका परिचय उनके कालेज के प्रिंसिपल ‘कृष्णानन्द जी के माध्यम’ से हुआ. बनारस के साहित्यिक वातावरण और गोष्ठियों के साथ पत्र-पत्रिका के कारण भी उनकी ‘आलोचना में रुचि और पैठ बनी’. एम.ए. के दौरान धूमिल से उनकी मित्रता हुई. वे स्वीकारते हैं कि धूमिल से कविता और कविता संबंधी बातचीत से उन्हें ‘कविता और समकालीन कविता, दोनों को समझने में बहुत मदद मिली’. उनके आलोचनात्मक लेखन का आरंभ छात्र-जीवन से हुआ – ‘1964-65 के आस-पास’. निराला को उन्होंने छात्र जीवन में ही देखा और उनसे ‘आह! वेदना मिली विदाई’, गीत भी सुना. वे ‘गीत गा रहे थे और साथ-साथ रो भी रहे थे’.
पाण्डेय जी को जिन्दगी से केवल निजी शिकायत है. पिता की नहर में डूबकर हुई मृत्यु के तुरंत बाद इन्दिरा गांधी की हत्या से उत्पन्न स्थिति के कारण वे दिल्ली से गांव तीन दिन बाद पहुंचे थे. उस समय के नागार्जुन पर अपने अधूरे काम को आज हाथ में लेते ही वह स्मृति साथ नहीं छोड़ती. फिर इकलौते पुत्र की हत्या. सामान्य व्यक्ति इन स्थितियों में टूट सकता था, पर यह मार्क्सवाद था जिसने उन्हें टूटने से बचाया. वे ‘अपनी मार्क्सवादी प्रतिबद्धता के साथ अपनी जमीन पर’ सदैव खड़े हैं. आज अपनी जमीन से जुड़े मार्क्सवादियों की संख्या कम होती जा रही है.
‘बतकही’ का पाठक पाण्डेय जी की दिनचर्या से भी अवगत होता है. वे पांच बजे उठते हैं, ग्रीन टी पीकर अपने आवास के पास के लक्ष्मीबाई पार्क में टहलते हैं. लौटने पर चाय बनाते हैं. नहाने, शेव करने और जलपान के बाद अपने कार्य में व्यस्त. सप्ताह में एक बार जेएनयू की लाइब्रेरी नियमित जाने वाले वे जेएनयू के अकेले प्रोफेसर रहे हैं. उनकी व्यवस्थित, समयबद्ध और अनुशासित दिनचर्या है. रामविलास शर्मा के साथ भी यही बात रही है. पाण्डेय जी को डॉ. शर्मा ने अपने छात्र-जीवन के बारे में बताया. हाईस्कूल से रामविलास जी कविताएं लिखने लगे थे. उन्होंने इंटरमीडिएट के अपने एक दोस्त बाल नारायण पेंढारकर का अपने जीवन पर बड़ा असर स्वीकारा है. प्रसिद्ध क्रिकेट खिलाड़ी डॉन ब्रैडमेन पर लिखे रामविलास जी के लेख से पाण्डेय जी परिचित थे. उन्होंने उनके प्रिय क्रिकेट खिलाड़ी के बारे में पूछा. डॉ. शर्मा ने बैट्समैन के रूप में कपिल देव का नाम लिया और यह कहा ‘उनके जैसा बल्लेबाज कोई दूसरा भारत में नहीं हुआ. सुनील गावस्कार, सौरव गांगुली वगैरह सब उनसे सीख सकते हैं.’ रामविलास शर्मा से मैनेजर पाण्डेय ने लखनऊ दूरदर्शन के लिए यह इंटरव्यू लिया था.
‘बतकही’ में गंभीर सवालों के गंभीर जवाब हैं. जिस समय ये इंटरव्यू लिये गये हैं, वह भुतहा, उन्मादी और भयावह समय है जिसे पाण्डेय जी ने ‘व्यापक सामाजिक चिन्ता विहीन’ समय कहा है. इस समय भारत अमरीकी साम्राज्यवाद की गिरफ्त में है. रामविलास शर्मा के बाद पाण्डेय जी दूसरे प्रमुख आलोचक हैं जिन्होंने अमरीकी साम्राज्यवाद और भूमंडलीकरण का सदैव विरोध किया है. वे आज के भारत को ‘भूमंडलीकृत विश्व के हिस्से के रूप’ में देखते हैं और अपने समय की दो प्रमुख ऐतिहासिक घटनाएं मानते हैं –
‘सोवियत संघ का विघटन और पूंजीवादी भूमंडलीकरण. इनका असर अर्थव्यवस्था और राजनीति के अलावा साहित्य और संस्कृति पर भी पड़ा है.’
उनके यहां ‘साहित्यिक चेतना’ से महत्वपूर्ण ‘सांस्कृतिक चेतना’ है. एशियाई देशों की साहित्यिक चेतना उसकी सांस्कृतिक चेतना से निर्मित है. ‘आलोचना की सामाजिकता’ पाण्डेय जी से अधिक क्या किसी वर्तमान आलोचक ने पहचानी है? रामविलास जी से उनका सवाल था कि क्या व्यापक सामाजिक विकास-प्रक्रिया में आलोचना की कोई सार्थकता है? शर्मा जी ने उत्तर में ‘बहुत बड़ी सार्थकता’ कहा था. ‘समाज से कटकर अच्छी आलोचना नहीं लिखी जा सकती.’ पाण्डेय जी के कई वाक्य सूक्ति-वाक्य हैं – ‘सार्थकता सामाजिक होती है, सफलता हमेशा व्यक्तिगत होती है.’ जिन कवियों- नागार्जुन, त्रिलोचन और शमशेर से उनके व्यक्तिगत संबंध रहे, उनके यहां सफल जीवन का कोई अर्थ नहीं था.
पाण्डेय जी की चिंता यह है कि भारत में लोकतंत्र खतरे में है, पर वह ‘सारे कवियों, रचनाकारों की बेचैनी का विषय नहीं है.’ मार्क्स का यह कथन ‘कविता मनुष्यता की मातृ भाषा है’ को वे केवल साक्षात्कार और भाषण-व्याख्यान में ही नहीं, अपने निबंधों में भी बार-बार उद्धरित करते हैं. उनसे पूछे गये सवालों से प्रश्नकर्ताओं की चिन्ताएं और जिज्ञासाएं दोनों प्रकट हुई हैं. प्रश्नकर्ताओं का अपना व्यक्तित्व और कंसर्न भी सवालों से व्यक्त हुआ है. समकालीन कवि निशान्त और प्रोफेसर-आलोचक देवेन्द्र चौबे तथा अन्य प्रश्नकर्ताओं की बातचीत में इसी कारण भिन्नता है. प्रश्नकर्ताओं ने केवल साहित्यिक प्रश्न ही नहीं किये हैं. एक सवाल यह है कि वे इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र द्वारा आयोजित नामवर जी के जन्म समारोह में क्यों शामिल हुए?
उनका उत्तर है कि उन्हें वहां अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा ने एक वक्ता के रूप में आमंत्रित किया था. अशोक वाजपेयी से जुड़े सवाल पर उन्होंने यह कहा ‘हम दोनों में से किसी ने अपना मूल स्टैण्ड नहीं बदला है. व्यक्तिगत विरोध न पहले था, न अब है… असहिष्णुता वाले मसले पर वे किसी भी वामपंथी की तुलना में अधिक सक्रिय हैं.’ वे एक दूसरे की स्वतंत्रताओं के सम्मान के हिमायती हैं. नामवर सिंह से उनकी असहमति एक मार्क्सवादी आलोचक के रूप में है. जिस वामपंथी विचारधारा और राजनीति में पाण्डेय जी की सक्रियता रही है, वह विचारधारा और राजनीति ‘आज कमजोर होकर बिखराव की शिकार है.’ आज वामपंथी राजनीति ढलान पर है, बुद्धिजीवियों के चरित्र में बदलाव आ चुका है, सिद्धान्तों की राजनीति के स्थान पर सुविधा की राजनीति प्रमुख है, गंभीर विचार-विमर्श के स्थान पर ‘नोक-झोंक, गाली-गलौज और उठा-पटक ज्यादा है,‘ पर पाण्डेय जी अविचल-अडिग हैं. उनकी चिन्ताएं बड़ी हैं. दृष्टि समग्र और व्यापक है. अपने उत्तर के जरिये वे एक तरह से पाठकों को सावधान भी करते हैं. अज्ञेय के संबंध में पूछे गये प्रश्नों में उन्होंने उनकी प्रारंभिक कविताओं में मौजूद सामाजिकता की बात कही है – ‘पचास के पहले अज्ञेय सामाजिक चिंताओं से जुड़े हुए थे’ और ‘वैयक्तिकता और सामाजिकता के बीच एक संतुलन था,’ जो बाद में नहीं रहा.
पाण्डेय जी के कथन में कहीं-कहीं व्यंग्य, विनोद और चुटीलापन है, जिससे वे बातचीत का माहौल सदैव गुरु-गंभीर नहीं होने देते. विवेकपूर्ण आलोचना के अभाव में ही कोई आलोचक अज्ञेय में केवल अच्छा ही अच्छा देखता है. पाण्डेय जी 1963 की फिल्म ‘मेरे महबूब’ की गीत-पंक्ति ‘मेरे महबूब में क्या नहीं/वो तो लाखों में है एक हंसी, एक हंसी’ कहकर आलोचक की आलोचना पर प्रश्न खड़ा कर देते हैं.
मैनेजर पाण्डेय जी के पास लगभग सभी प्रश्नों के उत्तर हैं. उनकी सुविचारित वैचारिक दृष्टि पचास वर्ष में आज जहां पहुंची है, वह ‘साधना’ के बिना संभव नहीं थी. भारतीय आधुनिकता को वे ‘भारतीय समाज से जुड़ी हुई आधुनिकता’ कहते हैं. स्वाधीनता की चेतना उनकी दृष्टि में ‘आधुनिकता का प्राण’ है, उत्तर आधुनिकतावादी यथार्थवाद विरोधी प्रवृत्ति है, और आलोचना में यथार्थवादी प्रवृत्ति आज पहले की तुलना में कमजोर है. उन्हें भारतीय समाजशास्त्री और न्यूयार्क यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफेसर विवेक छब्बर की पुस्तक ‘पोस्ट कालोनियल थ्योरी एण्ड स्पेक्टर आफ कैपिटल’ (वर्सो, 2013) इसलिए पसंद है कि इस पुस्तक में छब्बर ने उन ‘बुद्धिजीवियों की तेज तर्रार कुटम्मस’ की है, जिन्हें वे एन.आर.आई.आई. (नान रेजिडेंट इंडियन इंटेलैक्युअल्स) कहते हैं. गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक, होमी भाभा, दीपेश चक्रवर्ती आदि इसी प्रकार के उत्तर औपनिवेशिक विमर्शकार हैं. उत्तर आधुनिकतावादी को पाण्डेय जी ने ‘आधुनिकता का विस्तार’ कहा है और संरचना वाद, उत्तर संरचना वाद, उत्तर आधुनिकतावाद द्वारा उत्पन्न विचार की भाषा को ‘संध्यारण्य की तरह’ माना है. एक शब्द विशेष के प्रयोग से वह एक सही अर्थ उत्पन्न कर देते हैं. आपरेशन ग्रीन हंट को उन्होंने आपरेशन ‘ट्राइबल हंटिंग’ कहा है.
आज की हिन्दी कविता में वे अधिक विस्तार देखते हैं, पर कवियों के ‘आत्म का आयतन’ व्यापक नहीं मानते. कवि की व्यापक चेतना ही ‘कविता में बड़ा बदलाव’ लाती है. आज के कवियों की ‘कविता में मनुष्यता की अभिव्यक्ति तो है, लेकिन उतनी व्यापकता या गहराई नहीं है’. समग्र और व्यापक चिंतन-लेखन पाण्डेय जी की वह विशेषता है, जो तुरंत ध्यान आकर्षित करती है. एक वर्ष विशेष 1936 में प्रकाशित ‘कामायनी’, ‘गोदान’ और ‘राम की शक्ति पूजा,‘ का उल्लेख अब सामान्य बात है, पर इन तीनों में ‘आजादी के समय की त्रासदी का पूर्वाभास’ वही देख सकते थे. वे नागार्जुन की कविताओं के माध्यम स्वाधीन भारत का राजनीतिक इतिहास लिखे जाने की बात करते हैं. उनके विवेचन-विश्लेषण और प्रश्नों को सुलझाने की अपनी एक शैली है, जो इतनी विकसित हो चुकी है कि उसे हम ‘पाण्डेय शैली’ या ‘स्टाइल’ कह सकते हैं. एक उदाहरण से देखें –
‘शब्द का अर्थ से, अर्थ का अनुभव से, अनुभव का संवेदना से, संवेदना का यथार्थ से, यथार्थ का समाज से और समाज का इतिहास से जटिल संबंध होता है.’
जटिल से जटिल प्रश्नों को वे जिस सरल ढंग से समझाते हैं, वह अद्भुत है. उनके सुयोग्य शिष्यों की कमी नहीं है. प्रश्न कर्ताओं में कई उनके शिष्य हैं – कवि, कहानीकार, आलोचक और प्रोफेसर, जिनके प्रश्न केवल साहित्यिक नहीं हैं. इन प्रश्नों का दायरा भी बड़ा है. मैनेजर पाण्डेय इतिहास के पुनर्लेखन के लिए एक नयी इतिहास-दृष्टि आवश्यक समझते हैं, साहित्येतिहास को सामाजिक इतिहास से जोड़कर देखते हैं, हिन्दी साहित्य में प्रतिबंधित साहित्य और ज्ञान का साहित्य का उल्लेख और विवेचन आवश्यक मानते हैं, परम्परा को मात्र साहित्य की न मानकर सामाजिक सांस्कृतिक भी मानते हैं और साहित्य के इतिहासकार में ‘इतिहास बोध’ के साथ ‘आलोचनात्मक विवेक’ भी जरूरी समझते हैं. वे केवल प्रश्नकर्ता को ही नहीं अपने पाठकों को भी अपनी स्पष्ट समझ और विचारों से समृद्ध करते हैं. गंभीर लेखन के लिए उनके यहां ‘अनुभव को विवेक से संचालित और अनुशासित करने’ पर सारा बल है. ‘खाली अनुभव का जाप ठीक नहीं है’. आलोचना केवल ‘रचना निष्ठ’ नहीं हो सकती उसे ‘समाजनिष्ठ’ भी होना चाहिए. आलोचक का यथार्थ बोध किसी भी रचनाकार के यथार्थ बोध से बड़ा होने पर ही यथार्थवादी आलोचना संभव होगी.
हमारे समय में कवियों और आलोचकों दोनों में ही परम्परा बोध का अभाव है, जिसके बिना न तो बड़ी कविता संभव है और न बड़ी आलोचना. ‘अंधेरे में’ कविता को उन्होंने ‘व्यक्तिवादी मानस को सावधान करने वाली कविता के रूप में आज भी प्रेरक और सावधान करने वाली कविता’ कहा है. इस बातचीत में कई नयी बातें और जानकारियां हैं. दाराशिकोह पर प्रेमचन्द की लिखी कहानी- ‘दारा दरबार’ के साथ रामविलास शर्मा की उन पर लिखी गयी कविता का उल्लेख है.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से मैनेजर पाण्डेय की शिकायत वाजिब है. वे बताते हैं कि आर.एस.एस. ने स्वाधीनता आंदोलन में शामिल न होने के बाद भी उससे बहुत कुछ सीखा. उसने सामाजिक कार्यक्रमों को महत्व दिया, अपने सोच-विचार के अनुरूप शिक्षण संस्थाओं का निर्माण किया, अपना व्यापक प्रसार किया, पर ‘वामपंथी दलों ने ऐसा कोई काम नहीं किया. समाज सुधार के कार्यक्रम से वे दूर रहे, सिद्धान्तों की राजनीति न कर सुविधा की राजनीति की. अब वामपंथी राजनीति का जनान्दोलन से कोई रिश्ता नहीं है.’ पाण्डेय जी इस समय भारतीय मार्क्सवाद में गांधी और आम्बेडकर के विचारों को समाविष्ट करना आवश्यक और उपयोगी मानते हैं.
हिन्दी आलोचना में वे अकेले आलोचक हैं, जिनका ध्यान ‘शब्द’ पर है. ‘शब्द और कर्म’ (1981) उनकी पहली पुस्तक है और ‘शब्द और साधना’ नवीनतम. ‘शब्द और साधना’ (2019) के कुल बाईस निबंध तीन खण्डों में विभाजित है. पहले खण्ड के तेरह निबंध हिन्दी साहित्य के विविध रूपों और पक्षों से संबंधित है, दूसरे खण्ड के पांच निबन्धों में ‘सैद्धान्तिक सोच और व्यावहारिक विश्लेषण की एकता’ है और तीसरे खण्ड के चार निबन्धों में तीन निबंध तमिल, तेलुगु और बांग्ला के महत्वपूर्ण कवियों पर लिखे गये हैं और चौथा एडवर्ड सईद पर है, जो रामकीर्ति शुक्ल की सईद पर लिखी, अनूदित पुस्तक ‘वर्चस्व और प्रतिरोध’ (2015) की भूमिका है. यह उल्लेख रहता तो ठीक रहता. आलोचकों में यह ‘साधना’ रामविलास जी के बाद मैनेजर पांडेय में ही है. नामवर में वह हो सकती थी, पर हो न सकी.
‘महावीर प्रसार द्विवेदी का महत्व’ निबंध में उन्होंने द्विवेदी जी के ”सोच का दायरा व्यापक और समग्रतापरक” माना है. पाण्डेय जी के सोच का दायरा भी ऐसा ही है. जिस पर किसी आलोचक का ध्यान नहीं या बहुत कम जाता है, उस पर उनका ध्यान बहुत अधिक रहता है. उनके निबंध में ही नहीं, भाषण और व्याख्यान में भी उनका रिसर्च वर्क किसी से ओझल नहीं रहता. एक भाषण में उन्होंने कहा भी है –
”मैं जब कोई काम करता हूँ, तो काफी गहरी खुदाई करता हूँ.”
वे हिन्दी आलोचना में ही नहीं, भारतीय आलोचना में भी इस समय ‘गहरी खुदाई’ करने वाले अकेले आलोचक हैं. उनकी आलोचना उनकी श्रम-साधना, इतिहास-दृष्टि और विवेक चेतना का परिणाम और प्रमाण है.
महावीर प्रसाद द्विवेदी पर काफी लिखा गया है. रामविलास शर्मा से भी जो छूट गया वह पाण्डेय जी से नहीं छूटा. ”आज तक किसी ने स्त्री-विमर्श में महावीर प्रसाद द्विवेदी के स्त्री-संबंधी लेखन और दृष्टिकोण की चर्चा नहीं की है.” यह गंभीर चर्चा करने वाले वे पहले आलोचक हैं. उनकी नजर और पकड़ अद्भुत है. वे द्विवेदी जी के स्त्री-संबंधी उन आठ लेखों का जो 1903 से 1914 के बीच लिखे गये हैं, की केवल चर्चा नहीं करते, उस पर अपने विचार भी प्रकट करते हैं कि द्विवेदी जी ‘स्त्री-पुरुष समानता के प्रबल समर्थक’ थे, स्त्री-शिक्षा को आवश्यक समझते थे, स्त्री-पराधीनता के ‘कड़े’ आलोचक थे और उनका ध्यान भारत की स्त्रियों पर ही नहीं जापान की स्त्रियों पर भी था. पाण्डेय जी ने द्विवेदी जी के ‘समाज-संबंधी चिंतन के प्रत्येक पक्ष’ के एक अन्तर राष्ट्रीय संदर्भ’ की ओर ध्यान दिलाया है. उनकी आलोचना में उनका एकाग्र और समग्र अध्ययन किसी को भी चकित कर सकता है.
महावीरप्रसार द्विवेदी अभिनन्दन-ग्रंथ के एक लेख प्राचीन अरबी कविता ‘(मुंशी महेश प्रसाद मौलवी आलिम-फाजिल का लेख) से वे यह बताते हैं कि ’’प्राचीन अरबी में पुरुषों के समानान्तर स्त्रियां भी कविता करती थीं’’. ‘शब्द और साधना’ में उनके दो लेख ‘मुक्तिबोध और कामायनी’ पर हैं. वे केवल कामायनी-संबंधी मुक्तिबोध और उनकी आलोचना-दृष्टि पर ही गंभीर विचार नहीं करते, रामचन्द्र शुक्ल और भगवतशरण उपाध्याय पर भी ध्यान देते हैं. भगवत शरण उपाध्याय ने जहां काव्य और दर्शन को एक दूसरे का विरोधी माना था, वहां मुक्तिबोध इन दोनों में आत्मीय संबंध देखते हैं. उन्होंने मुक्तिबोध की रचनाशीलता में ‘कामायनी’ की भूमिका देखी है. मुक्तिबोध को फैंटेसी के स्वरूप की चर्चा करने वाला पहला कवि-आलोचक कहा है और फैंटेसी के संबंध में लेनिन का कथन उद्धृत किया है. ‘कामायनी’ पर मुक्तिबोध ने दो पुस्तकें लिखी थीं, जिनमें समानता और अंतर दोनों है, जिसका ‘तुलनात्मक अध्ययन एक स्वतंत्र निबंध का विषय’ है. वे मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि और पद्धति को सही मानते हैं. मुक्तिबोध ने ”ऐतिहासिकता, समाजशास्त्रीय, मनोवैज्ञानिकता और सौन्दर्यात्मक विवेचन की एकता’ की बात कही है. हिन्दी आलोचकों के ‘धारणात्मक’ शब्दों और पदों पर कम ध्यान दिया गया है. उनका मत है कि ”रामचन्द्र शुक्ल के बाद मुक्तिबोध ने ही हिन्दी आलोचना को सर्वाधिक धारणात्मक शब्द, पद और पदावलियां दी हैं.”
मुक्तिबोध की तरह इस पुस्तक में रामविलास शर्मा पर भी दो निबंध हैं. एक निबंध ‘हिन्दी नवजागरण’ पर और दूसरा रामविलास जी की ‘आलोचना-दृष्टि के मूल स्रोत’ पर है. हिन्दी नवजागरण आज भी चर्चा में है. राहुल सांकृत्यायन ने 1944 में ‘हिन्दी काव्य धारा’ और प्रकाश चन्द्र गुप्त ने 1956 में ‘साहित्य-धारा’ के एक निबंध में ‘नवजागरण’ का प्रयोग किया था, पर इसे एक महत्वपूर्ण अवधारणा के रूप में स्थापित करने का सारा श्रेय रामविलास जी को है. पाण्डेय जी को पहले बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में ‘आधुनिकता’ के जन्म पर आपत्ति थी, पर अब उन्हें इसका ‘सुखद आश्चर्य’ है कि “देशी भाषाओं के उत्थान के साथ ही आधुनिकता या आरंभिक आधुनिकता का उदय शेल्डन पोलक और गेल आम्बिड जैसे अंग्रेजी में लिखने वाले लोग भी मानने लगे हैं.”
इस ‘आधुनिकता’ का संबंध ‘व्यापारिक पूंजीवाद’ से है, जिसकी चर्चा पाण्डेय जी ने नहीं की है. उन्होंने हिन्दी नवजागरण से संबंधित चिंतन से उत्पन्न जिन कतिपय समस्याओं का उल्लेख किया है उन पर विस्तारपूर्वक विचार की आवश्यकता है. रामविलास शर्मा की आलोचना-दृष्टि के निर्माण में साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष प्रमुख है. ‘हिन्दी आलोचना की जातीय परम्परा को उनकी ‘आलोचना-दृष्टि का मूल स्रोत’ मानकर पांडेय जी ने बालकृष्ण भट्ट, द्विवेदी युग, रामचन्द्र शुक्ल और प्रेमचन्द का स्मरण किया है. हिन्दी की जातीय आलोचना पर सुसंगत विचार के लिए वे एक आधार तैयार करते हैं और हिन्दी आलोचना की जातीय परम्परा के साथ ‘हिन्दी की जातीय सृजनशीलता की परम्परा’ की भूमिका रेखांकित करते हैं. उन्होंने रामविलास जी में जिस ‘आलोचना की भाषा के जनतंत्र’ की बात कही है वह स्वयं उनकी आलोचना में है.
वैचारिक भिन्नता के बाद भी उनका ध्यान उन लेखकों पर भी जाता है, जिन्हें कुछ मार्क्सवादी एक फूंक में उड़ा देने का दंभ करते हैं. मध्य कालीन हिन्दी कविता के विवेचन-विश्लेषण में विद्यानिवास मिश्र की अनदेखी नहीं की जा सकती. उनका ‘अपना योगदान’ है. उन्होंने ‘सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र’ की भूमिका भी लिखी है. विद्यानिवास मिश्र भक्तिकाल और रीतिकाल का भेद नहीं स्वीकारते. निर्गुण-सगुण, ज्ञान मार्गी-प्रेम मार्गी, रीतिबद्ध-रीतिमुक्त, लोकाश्रित-दरबाराश्रित, हिन्दू-मुसलमान किसी में भेद न देखना कम बड़ी बात नहीं है. ”काव्य भेद में मौजूद इस अभेदवाद के मूल में उनकी काव्य-दृष्टि की उदारता’ पाण्डेय जी ने देखी है. पाण्डेय जी की विशेषता समग्रता और व्यापकता में देखने की है. मार्क्सवादी आलोचना में यह समग्र-व्यापक दृष्टि विरल है. विद्यानिवास मिश्र की उदार दृष्टि को उन्होंने स्वयं उदार दृष्टि से देखा है. वे सर्वत्र मार्क्सवाद को थोपने वाले आलोचक नहीं हैं. वे विद्यानिवास मिश्र द्वारा चार कवियों के एक छन्द के विवेचन में एकता और समानता दिखाते हैं. दादू और रसखान से सभी परिचित हैं, धरमदास से परिचित कुछ कम हैं और जोइसी से? “वे मिश्रजी की खोजी प्रवृत्ति की देन है.”
तुलसी को समझने के लिए रामचन्द्र शुक्ल, कबीर को समझने के लिए हजारी प्रसाद द्विवेदी और जायसी को समझने के लिए जिस प्रकार विजयदेव नारायण साही महत्वपूर्ण हैं, उसी प्रकार सूरदास को समझने के लिए मैनेजर पाण्डेय. उनका ध्यान विश्वम्भर नाथ उपाध्याय की 1958की किताब ‘सूर का भ्रमरगीत : एक अन्वेषण’ पर भी है. पाण्डेय जी एक अन्वेषी आलोचक भी हैं. डॉ. उपाध्याय की इस अचर्चित पुस्तक पर नये ढंग से विचार करने का श्रेय उन्हें है. डा. उपाध्याय मार्क्सवादी आलोचक थे, जिनकी ओर कई मार्क्सवादी आलोचकों ने ध्यान नहीं दिया. ‘शब्द और साधना’ के तीन निबंधों में आलोचक विद्यानिवास मिश्र, विश्वम्भरनाथ उपाध्याय और विष्णुचन्द्र शर्मा पर विचार किया गया है. विष्णुचन्द्र शर्मा को ‘सीन’ से ‘आउट’ करने – रखने वाले जानें कि यह पुस्तक पाण्डेय जी ने उन्हें ‘सादर’ समर्पित की है. सूर के गंभीर आलोचक होने के कारण उन्होंने डा. उपाध्याय की सूर-संबंधी आलोचना की पहचान की. सूर की कविता में वे विचारधारा को ‘दूध में पानी की तरह’ देखते हैं और तुलसी-कबीर में ‘पानी में तैरती सूखी लकड़ी की तरह.’ डा. उपाध्याय ने सोलह मध्यकालीन कवियों और सात आधुनिक युग (कुल तेईस) के कवियों की भ्रमर गीत संबंधी कविताओं पर विचार किया. ‘भ्रमरगीत परम्परा की सम्पूर्णता’ का यह विवेचन पाण्डेय जी के अनुसार ‘दुर्लभ’ है पाण्डेय जी को व्यावहारिक आलोचक न कहने वालों ने उन्हें ध्यान पूर्वक नहीं पढ़ा है.
उनके यहां ‘सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचना का संतुलित सामंजस्य है’. सर्जक- आलोचक विष्णु चन्द्र शर्मा की अब कहीं कोई चर्चा नहीं होती. ‘नागार्जुन : एक लम्बी जिरह’ को पाण्डेय जी ने ‘नागार्जुन की पक्षधर रचनाशीलता की पक्षधर आलोचना’ कहा है. बड़ी बात यह है कि विष्णु चन्द्र शर्मा “विधाओं की बंदिश नहीं मानते.” उनकी आलोचना सर्जनात्मक है. आलोचनात्मक चेतना सर्जनात्मक चेतना से अलग नहीं है. “उनकी आलोचना में हिन्दी आलोचना की प्रचलित पद्धतियों का अनुकरण नहीं है.”
‘शब्द और साधना’ में हिन्दी के तीन समकालीन कवियों- वीरेन डंगवाल, बल्ली सिंह चीमा, मिथिलेश श्रीवास्तव, तमिल के महान कवि सुब्रह्मणय भारती और विख्यात क्रान्तिकारी कवि वरवर राव के साथ बंगाल के अनन्य बाउल गायक लालन शाह फकीर की कविता पर विचार है. संक्षिप्त होने के बाद भी ये विचार मूल्यवान हैं. पाण्डेय जी की व्यावहारिक आलोचना में किसी भी सजग-सावधान पाठक को उनकी वैचारिकी और सैद्धांतिकी का पता चलेगा. वे अच्छे और बड़े कवि में परम्परा की प्रतिध्वनियों का होना आवश्यक मानते हैं.
वीरेन डंगवाल की कविता को वे ‘परम्परा और समकालीनता का संगम’ कहते हैं क्योंकि उनकी कविताओं में ‘परम्परा की प्रतिध्वनियों के अनेक रूप’ हैं. वहाँ निराला, मुक्तिबोध नागार्जुन, रघुवीर सहाय सब मौजूद है. ‘रामसिंह’ को पहली बार मैनेजर पाण्डेय ने ही ‘महाकाव्यात्मक कविता’ कहा है. बल्ली सिंह चीमा को ‘उम्मीद और यकीन के गज़ल गो शायर’ इसलिए कहा गया है कि वहां “जनता के जागरण से उपजी उम्मीद और जनता के संघर्षो की जीत पर यकीन” है. उनके यहां गदर पार्टी, भगत सिंह और पाश की क्रान्तिकारी स्वरों की गूंज है. समकालीन कविता के एक गुण व्यंग्य और विनोद अब बहुत कम कवियों में है. मिथिलेश श्रीवास्तव की कविता में यह है. वहाँ ‘सोच की गंभीरता के साथ शिल्प की सहजता’ है. वीरेन और बल्ली सिंह चीमा की कविताओं और मिथिलेश श्रीवास्तव के काव्य-संग्रह ‘पुतले पर गुस्सा’ पर विचार से यह प्रकट होता है की कृति-विशेष हो या कृतिकार वहां सम्पूर्णता में विचार है. इस विचार में नयी दृष्टियां हैं. भीष्म साहनी के नाटक ‘आलमगीर’ पर नाट्यकला की दृष्टि से विचार नहीं किया गया है, पर सामंतवाद की जिस विशेषता ‘अतिरंजना का सर्वव्यापी विस्तार’ को उदाहरणों से समझाया गया है, उधर अभी तक किसी का ध्यान नहीं था. यहां यह जानकारी भी है कि प्रेमचन्द ने दाराशिकोह को ‘अकबर की राजनीतिक और सांस्कृतिक नीति का समर्थक’ कहा था. यह प्रेमचन्द को भी समझने में भी मददगार है.
भीष्म साहनी के नाटक ‘आलमगीर’ पर लिखते हुए समीक्षक द्वारा औरंगजेब पर लिखित इन्दिरा पार्थ सारथी का तमिल नाटक ‘औरंगजेब’ और मौलाना अबुल कलाम आजाद की पुस्तक ‘रूबाइयातेसरमद’ की भूमिका में एशिया में हमेशा से मजहब की आड़ में राजनीति’ का उल्लेख उनके व्यापक ‘कंसर्न’ के तहत भी है. औरंगजेब के सम्बन्ध में इन्दिरापार्थ सारथी की इस पंक्ति को उद्धृत करने का एक अन्य अर्थ भी है- “वह एक देश, एक भाषा और एक धर्म का स्वप्न देखता था.” आलोचना के सामाजिक-सांस्कृतिक समकालीन दायित्व का निर्वाह मैनेजर पाण्डेय कई स्तरों पर, कई रूपों में करते है. औरंगजेब के वंशज आज भी मौजूद हैं, जो एक देश, एक भाषा और एक धर्म का स्वप्न देखते हैं. आवश्यक नहीं कि वे मुसलमान ही हो.
कृष्णा सोबती को मैनेजर पाण्डेय ने ‘कलम की जादूगर या कलम का चित्रकार’ कहा है. ‘बुद्ध का कमण्डल लद्दाख’ का महत्व वे ‘वर्णन से अधिक चित्रण’ में देखते हैं. कृति और कृतिकार के वैशिष्टय को निचोड़ में प्रस्तुत करते है. वे ‘तत्वाभिनिवेशी’ आलोचक हैं. परम्परा कभी उनकी आंखों से ओझल नहीं है. सोबती के हिमालय वर्णन में इसी कारण ‘कालिदास के कथन की प्रतिध्वनि’ सुनी गई है. कृति पर लिखते हुए वे उसका कोई पक्ष नहीं छोड़ते. ‘लद्दाख के राजतंत्र में लोकतंत्र की उपस्थिति’ है. यह विडम्बना ही है कि आज के लोकतंत्र में परिवारतंत्र और धर्मतंत्र की उपस्थिति है.
पाण्डेय जी ने सुब्रह्मणय भारती को ‘स्वाधीनता का साधक’ कवि कहा है. मैनेजर पाण्डेय का यह वह साधक-आलोचक रूप है, जो भारती के साधक पक्ष को भी देखता है. ‘भारतीयता’ को वे एक वाक्य में परिभाषित करते हैं कि यह ‘भारत की प्रकृति और संस्कृति के मेल से बनती है.’ सुब्रह्मणय भारती का साहित्य ‘हर तरह की पराधीनता के विरुद्ध युद्ध की घोषणा का साहित्य’ है. मुचकुन्द दूबे की पुस्तक ‘लालन शाह फकीर के गीत’ (2017) को उन्होंने ‘अनुवाद’ के बदले ‘रूपान्तर’ कह कर इसे ‘संस्कृति और धर्म का जनतंत्र’ माना है. वे टेक्स्ट और विषय से जुड़ी अन्य सामग्रियों का हवाला देकर एक परम्परा में रखकर इसकी आलोचना करते हैं. क्षितिमोहनसेन, रवीन्द्रनाथ ठाकुर और कबीर-दादू ही नहीं, सुनील गंगोपाध्याय के उपन्यास ‘फकीर’ और लालनशाह पर बनी फिल्म ‘मनेर मानुष’, की चर्चा कर लालनशाह का महत्व रेखांकित किया गया है. वे बांग्ला गीतकार थे पर उनकी विचारधारा और संत कवियों की विचार धारा के बीच जो ‘गहरी एकता और आत्मीयता’ है, उसे आज समझने की कहीं अधिक आवश्यकता है.
पाण्डेय जी की आलोचना में इस सामाजिक-सांस्कृतिक एकता की पहचान की जा सकती है. वरवर राव पर उनका लेख बत्तीस वर्ष पहले 1988 में ‘कतार’ में प्रकाशित हुआ था. अपने कई लेखों के आरंभ में ही नहीं लेख में भी उन्होंने मार्क्स की कविता-संबंधी पंक्ति उद्धृत की है. 1988 में ‘तीसरी दुनिया के कई देशों में आन्तरिक उपनिवेशवाद के पनपने’ की उन्होंने बात कही थी. इस लेख में उस समय अशोक वाजपेयी की आलोचना की गई है, जो ‘संस्कृति के सरकारीकरण के नये अभियान के नेता’ थे. वरवर राव आज जेल में हैं. वे निर्विवाद रूप से आज विश्व के सबसे बड़े क्रान्तिकारी कवि हैं. उन पर लिखते हुए चेरबण्ड राजू की याद स्वाभाविक थी. इस लेख में पाण्डेय जी ने ‘इतिहास-प्रक्रिया में कवि की साझेदारी’ की जो बात कही है, वह आलोचक पर भी लागू होती है. सभी आलोचकों की ‘इतिहास-प्रक्रिया में साझेदारी’ नहीं होती. मैनेजर पाण्डेय की है.
‘शब्द और साधना’ में समय-समय पर दिये हुए चार महत्वपूर्ण व्याख्यान भी हैं- ‘समाज, साहित्य और आलोचना’, ‘रीतिकाल की कविता और इतिहास-बोध’, ‘वैश्वीकरण के दौर में प्रगतिवाद’ और ‘समकालीन सौन्दर्य बोधीय संदर्भ में उत्तर आधुनिकतावाद और मार्क्सवाद’. उनके लिए ‘रचना की अर्थवत्ता’ का ही नहीं, ‘रचना की सार्थकता’ का भी महत्व है. सार्थक रचना के स्वरूप-निर्माण में वे शब्द, अर्थ, संवेदना, जीवनानुभव, जीवन का यथार्थ, जीवन का इतिहास सबको एक दूसरे से जुड़ा मानते हैं. यह अविछिन्न संबंध-भाव आज कहीं अधिक उपयोगी है. पाण्डेय जी एक अच्छी आलोचना के लिए रचना-संदर्भ पर ध्यान देना जरूरी मानते हैं. केवल टेक्स्ट नहीं, कंटेक्स्ट भी. आलोचक के लिए जरूरी है ‘परम्परा और समकालीनता के बीच संबंध की पहचान.’ आलोचना की भाषा के दो दोष- ‘अतिरंजना’ और ‘सरलीकरण’ बताकर उन्होंने ‘सरलीकरण’ को ‘अतिरंजना की सहेली’ कहा है. रीतिकाल की उनके यहां एक नयी व्याख्या है. वे रीतिकालीन कवियों में ‘अपने समय और समाज की चिंता’ देखते हैं. भक्तिकाव्य में परलोकवाद की चिंता है, पर रीतिकाल ‘परलोकवाद’ से मुक्त है. भक्तिकाव्य में ‘जनपद’ शब्द नहीं आता पर वह केशवदास के यहां उपस्थित है. रीतिकाल के चार कवि- भूषण, केशवदास, पद्माकर आदि भारत में अंग्रेजों के आगमन से चिंतित थे. घासीराम, दीनदयाल गिरी, बूंदी के राजकवि ‘सूर्यमल्ल मीषण की चर्चा दिल्ली विश्वविद्यालय के वेंकटेश्वर कॉलेज में अपने इस व्याख्यान (11 फरवरी, 2013) में उन्होंने की थी, पर यहां ‘पोएट्री आफ किंग्स : द क्लासिकल हिन्दी लिटरेचर आफ मुगल इंडिया’ (आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2011) की चर्चा नहीं है.
साहित्य अकादमी में प्रगतिशील लेखक संघ के एक आयोजन में दिया गया उनका व्याख्यान ‘वैश्वीकरण के दौर में प्रगतिवाद’ (24 दिसम्बर 2008) आज कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. उन्होंने आयोजकों को सही विषय भी सुझाया था- ‘भूमंडलीकरण और मार्क्सवाद’. भूमंडलीकरण के राजनीतिक और सांस्कृतिक पक्ष की चर्चा आर्थिक पक्ष की तुलना में कम की जाती है. रामविलास शर्मा के बाद पाण्डेय जी ने यह चर्चा की है. वे अमरीका के 33वें राष्ट्रपति हैरी एस ट्रूमैन (12 अप्रैल 1945–20 जनवरी 1953) और पूर्व विदेश मंत्री हेनरी अल्फ्रेड किसिंगर, जो अभी 97 वर्ष के हैं, जीवित भी. उद्धृत कर भूमंडलीकरण का वास्तविक अर्थ समझाते हैं. भूमंडलीकरण अमरीकीकरण है. किसिंगर ने ही चिली में एलेंदे की हत्या कराकर निर्वाचित सरकार गिराई थी. उत्तर आधुनिकतावाद में ग्लोबलाइजेशन की अभिव्यक्ति सांस्कृतिक प्रक्रिया के तहत हुई. भूमंडलीकरण को पाण्डेय जी ने ठीक ही ‘अमेरिकी प्रभाव का विश्वव्यापी प्रसार’ कहा है. उन्होंने फुकोयामा, ल्योतार और हटिंगटन के उल्लेख के साथ रोलाँबार्थ के निबंध-संग्रह ‘माइथालाजीज’ की भी चर्चा की है, जो फ्रेंच में 1957 में और अंग्रेजी में 1972 में प्रकाशित हुई थी. बार्थ ने आज के जमाने में भी मिथक के गढ़े जाने की बात कही है.
पाण्डेय जी ने 2008 में ‘भारतीय राज्य’ को ‘कल्याणकारी’ न कहकर ‘दमनकारी’ कहा था, विरोध को अपराध कहे जाने की बात कही थी और सरकारों को ‘संविधान विरोधी’ माना था. यह 12 वर्ष पहले की बात है जब केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी. ‘सेज’ के ‘इकॉनोमिक’ शब्द को बदलकर वे ‘एक्सप्लाइटेशन’ कहते हैं अर्थात ‘स्पेशल इकॉनोमिक जोन’, ‘स्पेशल एक्सप्लाइटेशन जोन’ है. उत्तर आधुनिक्तावाद की देन में उन्होंने ‘मध्ययुगीनता की वापसी’ देखी. कुछ ऐसी जानकारियां दीं जिन्हें कम लोग जानते हैं. अमरीकी सीनेट में उन्होंने लिंडन जॉनसन के उस भाषण की याद दिलाई, जिसमें उसने बिन लादेन आदि को ‘लाइक फाउंडिंग फादर्स ऑफ़ अमरीका’ कहा था.“अमरीका में जार्जबुश दूसरी बार राष्ट्रपति नहीं बनते, अगर इवांजिलिस्ट क्रिश्चियंस ने इनको वोट नहीं दिया होता.”
भूमंडलीकरण ने सबको प्रभावित ही नहीं, संकटग्रस्त भी किया. भाषा, साहित्य, संस्कृति सब को. काठमांडू में दिये अपने व्याख्यान (2014) में उन्होंने अमरीका को ‘उत्त्तर आधुनिकतावाद का पोषक और प्रचारक’ कहा. ’उत्तर’, ‘अन्त’ और ‘मृत्यु’ को इस विचारधारा के ‘अपने आविष्कृत शब्द’ कह कर उत्तर आधुनिकतावाद की बात करने को धोखा माना. हिन्दी में उत्तर आधुनिकतावाद पर कई पुस्तकें लिखी गयी हैं, पर ऐसी स्पष्ट समझ किसी में नहीं है. एक सैद्धांतिक धारणा के रूप में वे उत्तर आधुनिकतावाद को मृत देखते हैं. “उत्तर आधुनिकतावाद ने बुद्धि और विवेक का विनाश किया है, जिससे कट्टरता वाद, रहस्यवाद और धार्मिक बुनियाद परस्ती फैली है.”
हिन्दी के मार्क्सवादी आलोचकों में केवल मैनेजर पाण्डेय ने ही दलित साहित्य पर लिखा और उसका समर्थन किया है. बजरंग बिहारी तिवारी हिन्दी के प्रमुख दलित आलोचक हैं. एक प्रोजेक्ट के तहत उन्होंने अब तक इससे संबंधित चार पुस्तकें लिखी हैं. पाण्डेय जी उनकी इस दलित आलोचना को दलित साहित्य का ‘एक सर्व भारतीय चित्र’ कहते हैं. वे गेल आमवेट द्वारा रैदास के एक पद की नयी व्याख्या की ओर ध्यान दिलाते हैं जो आमवेट की पुस्तक ‘सीकिंग बेगमपुरा : द सोशल विज़न ऑफ़ एंटी कास्ट इंटलेक्चुअल्स’ (2008) में है. इस में रैदास के यूटोपिया या कल्पना लोक की चर्चा है. पाण्डेय जी ने बजरंग बिहारी तिवारी के सोच-विचार की प्रक्रिया की कतिपय विशेषताएं बताई हैं. वे उनका ध्यान ‘दलितों द्वारा भारतीय समाज में अपने अस्तित्व की रक्षा और बेहतरी के लिए’ दलितों के ‘लम्बे आन्दोलन, संगठन और संघर्ष के प्रयत्न’ पर भी हिन्दी में एक किताब लिखने की जरूरत मानते हैं.
एडवर्ड डब्ल्यू सईद को मैनेजर पाण्डेय ने ‘मूलगामी बुद्धिजीवी’ कहा है, जिनमें ‘सतत सतर्कता और सच कहने का साहस’ है. वे सईद को सुकरात और सार्त्र जैसे बुद्धिजीवियों की कतार में रखते हैं. सलमान रूश्दी का सईद के संबंध में यह कथन कि वे जितनी बारीकी से दुनिया को पढ़ते हैं, उतनी ही बारीकी से किताबों को भी पढ़ते हैं, स्वयं पाण्डेय जी के ऊपर लागू होता है.
‘बतकही’ और ‘शब्द और साधना’ भी बारीकी से पढ़ी जानी चाहिए, नहीं तो बहुत कुछ छूट जाएगा. जिस आलोचक का प्रत्येक निबंध, भाषण और इंटरव्यू सघन और व्यापक हो, उस पर संक्षेप में विचार नहीं किया जा सकता. मैनेजर पाण्डेय हिन्दी के साधक-आलोचक हैं. ‘बतकही’ और ‘शब्द और साधना’ में उसकी झलक देखी जा सकती है.
रविभूषण
१७ दिसम्बर 1946, मुजफ्फ़रपुर (बिहार)
‘रामविलास शर्मा का महत्व’ तथा ‘वैकल्पिक भारत की तलाश’ किताबें प्रकाशित.
साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर प्रचुर लेखन
राँची विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद से सेवा-निवृत्त.
ravibhushan1408@gmail.com
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