उत्तराखण्ड में नवलेखन–7बटरोहीनाद से नहीं, चीख से उपजी हैं भाषाएँ
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लोक और शास्त्र में वही फर्क है जो चीख और नाद में. हालाँकि आज हम फ्यूज़न के दौर में जी रहे हैं जहाँ सब-कुछ एक दूसरे में घुलमिलकर एक नयी ही शक्ल ले रहा है. लोक, जो हमारी जड़ है, हमसे छूटता चला जा रहा है और हम उसे शास्त्र की मरीचिका में खोजते हुए दीवानों की तरह भटक रहे हैं. इस उम्मीद में कि शायद इस प्रदूषित हो चुके वायुमंडल के बीच हमें वह एकांत मिल जाय जहाँ हम उस आदिम तरंग को सुन या गा सकें जिसे हमने अपने जीवन की पहली साँस लेते वक़्त सुना और महसूस किया था.
कुमार गंधर्व और भीमसेन जोशी जब कबीर गाते हैं या नुसरत फ़तेह अली खान या आबिदा परवीन जब वेद और लोक के बीच घुसकर मनुष्य की जिजीविषा के मूल स्वर को अपने सूफी आलाप के माध्यम से नया संसार रचते हैं, कौन-सा स्वर है वह? वह स्वर है या भाषा? चीख है या नाद? भाव है या संगीत? क्या इन स्वर-अनुभूतियों को हम परिभाषा के आवरण में बाँध सकते हैं?
असलियत यह है कि जो परिभाषा की जादुई गांठ में समा जाये, वह कला कैसी? कला तो मुक्त विहार का नाम है जो वायुमंडल में मौजूद चेतना की तरह है जिसे हम महसूस तो करते हैं, छू नहीं सकते. जितना ही आप उसके पीछे भागोगे, वह आपसे दूर होती चली जाएगी. मजेदार बात है कि वह आपके ठीक बगल में मौज से बैठी है और आप हैं कि उसकी खोज में भटक रहे हैं! वह आपको तलाश रही होती है और आप उसे. दोनों एक-दूसरे को जानते हैं, एक दूसरे के अभिन्न हैं फिर भी एक-दूसरे की तलाश में बेचैन हैं. आदमी की जिंदगी भी तो ठीक ऐसी ही है: उसकी पहली साँस से लेकर आखिरी हिचकी तक. जिसे हम अंतहीन यात्रा कहते हैं, उसी के कुछ आत्मीय टुकड़ों को पागलों की तरह सहेजना ही तो है कला. चाहे वह साहित्य हो या संगीत, नृत्य हो या अभिनय, अट्टहास हो या रुदन अथवा अपनी स्मृति को चित्रों, वास्तु अथवा मिट्टी-पत्थर की अनुकृतियों का रूप देकर एक-दूसरे को सौंपना. जाहिर है, इस परस्पर लेन-देन में सबको सुख मिलता है और इसी से कलाओं का विस्तार होता है.
दो)
बहुत पहले एक मामूली बम्बइया फिल्म देखी थी, जिसमें ऐसे दो भाइयों की कहानी है जिनमें से एक धनवान बन गया है लेकिन दूसरा गरीब ही रह गया है मगर है ईमानदार. छोटा भाई, जो गलत तरीकों से अकूत सम्पत्ति का स्वामी बन चुका है, बड़े भाई को ललकारता है कि मेरे पास इतनी दौलत है जिससे मैं सब कुछ खरीद सकता हूँ. तुमने अपनी शराफत और ईमानदारी से क्या पाया? तुम्हारे पास दर-दर की ठोकरें खाने के सिवा आज है क्या? छोटा गरीब भाई गर्व से जवाब देता है, ‘मेरे पास माँ है.’
हम पहाड़वासियों को भी जब अपने पिछड़ेपन को लेकर इसी अदा में उलाहना दिया जाता है, हम उसी गर्व-भरे अंदाज़ में कहते है, ‘हमारे पास हिमालय है.’
क्या है यह हिमालय? यह महज बर्फ की अपराजेय चट्टान है या मनुष्य की सनातन यात्रा के साथ जुड़ी कोई भौगोलिक इकाई? हम भारतीयों ने इसे अपने मिथकों में पिता और उसके स्राव से जन्मी सदानीरा नदियों को ‘शैलसुता’ या ‘माँ’ क्यों कहा? आखिर मनुष्य के गर्भ से मिट्टी-पत्थर और पेड़-झरने तो नहीं पैदा हो सकते. फिर भी गंगा हमारी माँ है और हर पर्वत-शिखर पर हम पर्वतवासियों ने अपने देवताओं के घर बसा दिए जिन्हें हम अपने आविर्भाव-काल से ही परम-पिता और माँ मानते आए और इस रूप में उन्हें पूजते आये हैं.
उत्तराखंड का लोक-स्वर एक पहाड़ी आदमी की खुद की जड़ों से जुड़ी ऐसी ही तलाश तो है जिसे एक भावुक संवेदनशील पहाड़ी अपनी चेतना अंकुरित होने की उम्र से ही तलाशता है मगर धीरे-धीरे भौतिक संसार की जानकारियों के तले वह इस कदर दबता चला जाता है कि पहाड़ी होने का बोध उसमें एक हीनता-ग्रंथि के रूप में बदलता चला जाता है.
संसार भर के पहाड़ी समाजों में लोक-कवियों और गायकों की बेहद समृद्ध परंपरा रही है और सभी जगह आदिम (नोमेड) संगीत-ध्वनियों की तरह वह स्वर आज भी हर उत्तराखंडी के कंठ में मौजूद है. पिछली पीढ़ियों ने बाहरी दबावों और प्रकृति के बदले खुद को प्रक्षेपित करने के चलते उसे विखंडित, कुछ हद तक प्रदूषित कर डाला, मगर संतोष की बात है कि एकदम हाल में सामने आये, इस नई सदी के आस-पास जन्मे युवाओं ने संगीत और कविता की आदिम स्वर-परंपरा को अपने मूल रूप में सुरक्षित रखने का अविस्मरणीय काम शुरू किया है. यहाँ अपनी जड़ों के अंकुरण की ताज़गी है तो भाषा और भंगिमा की किशोर लहर उसे नए आकार में बुन रही है. बुजुर्ग हिमालय के गर्भ में से जन्मी ये शिशु-संतानें हमारा परिचय भारत और हिमालय की जड़ों से ही नहीं, समकालीन विश्व की कला-तरंगों की आदिम-संवेदना के साथ भी उसी तीव्रता से जोड़ती दिखाई दे रही हैं.
यूट्यूब में पिछले दिनों ‘अपरमिता’ नाम से उभरा तिब्बती पहाड़ी संगीत सारे संसार में तेजी से लोकप्रिय हुआ है और पहाड़ी बाँसुरी को (जिसे पुराने समय में कुमाऊँ में ‘जोंयाँ मुरली’ कहा जाता था) आज के युवाओं ने उसे अलग ताज़गी के साथ लोगों तक पहुँचाया है. नए ज़माने के हिसाब से उसमें नए वाद्य-यंत्रों और ध्वनि-तरंगों की मिलावट हुई है जो जरूरी थी और अपनी जड़ों का विस्तार भी. उसे सुनना, देखना और महसूस करना निश्चय ही एक नया ताज़गी-भरा अहसास है. ये लोग ही उत्तराखंड के भावी स्वर हैं इस रूप में हम लोग जो नई सदी को इन ताज़ा स्वरों के माध्यम से अपनी परंपरा की जड़ों को महसूस कर रहे हैं, ऐसा रोमांच हमें प्रदान करते हैं जो आज के संगीत-प्रेमियों को भविष्य के कला-पटल पर अनायास खड़ा कर देते हैं, हम पूरी तल्खी से भविष्य की आहटें सुनने लगते हैं.
इन्हीं में से कुछ लोक-स्वर यहाँ प्रस्तुत हैं.
तीन)
भास्कर भौर्याल
प्रकृति की अकूत संपदा से लदे-फदे उत्तराखंड के दूरस्थ वनांचल दानपुर के बागेश्वर जिले की नाकुरी पट्टी के कुरोली गाँव में 12 जनवरी, 2000 को जन्मे भास्कर भौर्याल की आरंभिक शिक्षा गाँव में और बाद में निकटवर्ती क़स्बे गंगोलीहाट में हुई. बिना किसी कला-गुरू के अपने लोक की स्वर-लहरियों और वाद्य-यंत्रों की अनवरत साधना से उन्होंने कुछ ‘शोध’ किये हैं जिन्हें वह अपने लोगों के बीच जाकर सुनाते हैं. अल्मोड़ा परिसर में फाइन आर्ट्स के विद्यार्थी इस होनहार कलाकार के चारों ओर छोटी-सी उम्र में ही एक विशाल प्रशंसक-समूह जुट आया है.
अपनी गहरी-मखमली किशोर आवाज में भास्कर सार्वजनिक मंचों पर गाने के बजाय गाँव-इलाके के लोगों, खेत-खलिहानों और वन-पर्वतों पर श्रम में जुटे नर-नारियों के बीच गाते हुए उनकी हौसला-अफजाई ही नहीं करते खुद का रियाज़ करते हुए प्रकृति के चहेते शिष्य के रूप में खुद की तथा परिजनों की संगीत चेतना का विस्तार करते हैं. यद्यपि उनके गीतों में शास्त्रीय ढंग के आलाप साफ झलकते हैं किन्तु वे स्वर-आलाप पंडितों की शरण में जाकर नहीं, लोक-जीवन की संगत से सीधे पैदा हुए हैं.
भास्कर को सुनकर इस बात की साफ जानकारी मिलती है कि जो संगीत अनादि काल से लोक के गर्भ में से अंकुरित हुआ है और जिस पर पंडितों ने शास्त्र के महिमा-मंडित के जरिए अपना कब्ज़ा जमा लिया है, उसकी जड़ें वास्तव में कहाँ हैं. और यह काम भास्कर ने अपनी गायकी से ही नहीं किया, प्रकृति के बीच घुस कर उसके संगीत को लिपिबद्ध कर, उसके मानवीकरण को मनुष्य की आस्थाओं, विश्वासों, चाहतों और विडम्बनाओं के साथ घुला-मिलाकर एकदम नवीन-मौलिक आकार प्रदान करते हुए किया है. भास्कर के गीत उन तमाम पंडितों के लिए चुनौती हैं जो वर्षों की रियाज़ के बाद एक-एक सुर या राग की तलाश में ‘गगन-मंडल’ की अनथक यात्रा करते हुए अपनी लम्बी-लम्बी तानों द्वारा श्रोताओं से देर तक ताली बजाने की अपेक्षा करते हैं. इन सब शारीरिक भंगिमाओं और स्वर-चेष्ठाओं से अलग संगीत की दुनिया का यह शिशु-कलाकार मानो उन्हें एक बार फिर से प्रकृति के आदिम राग की ओर लौट जाने का आह्वान करता है.
भास्कर भौर्याल ने अनेक संगीतमय गीत रचे हैं, मगर उत्तराखंड में नए-नए स्थापित हुए ‘इजा स्टूडियो’ ने उनकी एक रचना प्रस्तुत की है, ‘ह्यून बुड़’ (शिशिर बूढ़ा). भारत के दूसरे भागों की तरह पहाड़ों में भी वसंत से आरम्भ होकर शिशिर तक छः ऋतुएँ आती हैं. मैदानी भागों में वसंत को ऋतुराज कहा जाता है, शायद इसलिए कि प्रकृति यहाँ से नया अवतार ग्रहण करती है. इसके उलट पहाड़ी क्षेत्रों में शिशिर का सबसे अधिक विस्तृत और रोमांचक वर्णन देखने को मिलता है. शिशिर से जुड़ी कहानियाँ संसार के सभी पहाड़ी भूभागों की आत्मीय बानगी हैं. अगर आप संसार के सबसे बड़े पहाड़ी लोक-कवि रसूल हमजातोव की विश्वप्रसिद्ध आत्मकथा ‘मेरा दागिस्तान’ से गुजरे हों तो आप पहाड़ी आदमी, प्रकृति और उसके निजी संसार का ऐसा चित्र देखेंगे जहाँ आपको पता चलेगा कि सृष्टि का आदि-स्वर बर्फीली घाटियों और चोटियों से ही क्यों अंकुरित हुआ होगा!
‘ह्यून बुड़’ गीत में भास्कर ने वर्ष की अंतिम तिमाही के माध्यम से अपने पुरखे लोक-कवियों की परंपरा की सीढ़ी चढ़ते हुए पहाड़ की आत्मा को पकड़ने और उसे पूरी कलात्मकता के साथ रेखांकित करने का प्रयास किया है. एक जीवंत लोक-परम्परा समय के लम्बे अन्तराल के बाद बूढ़ी होने के बजाय नौजवान-कंठ का हिस्सा बन कर उसे किस तरह नौजवान बनाकर नयी उमंगों से भर देती है, यह सौन्दर्य हमें भास्कर की इस कविता/गीत में सहज ही महसूस होने लगता है.
लोक-भाषा को ठीक उसी आशय के साथ दूसरी भाषा में अनूदित कर पाना संभव नहीं होता, भले ही वह उसके मातृकुल की भाषा ही क्यों न हो. इसलिए पहले मैं कविता की कुछ आरंभिक मूल कुमाउनी पंक्तियां प्रस्तुत करने के बाद उसके कुछ हिस्सों का हिंदी में भावानुवाद और अंत में कवि के स्वर में गीत का एक अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ: (गीत का लिंक शीर्षक में)
‘ह्यूनी बुड़’
ह्यूनी बुड़ हैगो रे, जांठा टेकी की, सुकीली कमाव ढकी बे ह्यूवे की;ह्यूनी बुड़ हैगो रे जांठा टेकी की
सुकीली कमाव ढकी बे ह्यूवे की.
बांजा बुग्याट जगावो कुनो छ
साग गडेरी र्वाटा चुपड़ी घ्युवे की.
द्वी-तीन मैणा को बास रौलो कूणों
पें जूलो घरै की देई नवै की.
(शिशिर बूढ़ा हो गया है और वह अपनी जादुई लाठी टेकता बर्फ का सफ़ेद कम्बल ओढ़े धरती पर आ पहुंचा है. (बूढ़ा सबको सचेत करता है कि) बांज की लकड़ी के बड़े-बड़े शाख जलाओ रे, गडेरी का साग और घी चुपड़ी रोटियाँ तैयार करो. यहाँ मेरा सिर्फ दो-तीन महीने का रहवास है, उसके बाद तो मैं नयी देहरी की शरण में चला जाऊंगा.(इसलिए मेरी खूब आव-भगत करो!)
गीत में शिशिर ऋतु का एक वृद्ध (सयाने व्यक्ति) के रूप में मानवीय रूपक प्रस्तुत किया गया है और एक तरह से शीत-ऋतु की कठिन ज़िंदगी में खुशहाली के साथ हँसते-खेलते दिन गुजारने का सन्देश दिया गया है. वर्ष भर की मेहनत के बाद थककर सो चुकी वनस्पतियां गहरी नीद में चली गई हैं जिस कारण नव-अंकुरण समाप्त हो चुका है. आने वाले बर्फ भरे मौसम के लिए क्या-क्या तैयारियां करनी हैं, इसकी जानकारी भी शिशिर-वृद्ध ‘सांता क्लौज’ की तर्ज पर देता है, मानव-प्रकृति और धरती के अस्तित्व की सनातन खुशहाली को कैसे बनाये रखा जा सकता है, इसके छोटे-छोटे विवरण यह बुजुर्ग लोगों के सामने पेश करता है; यही नहीं, उन्हें परम्परागत सामुदायिक जीवन की याद दिलाता हुआ ठण्ड भरी रातों में अलाव के चारों ओर देह-से-देह सटाकर किस्से-पहेलियों और निजी अनुभवों का आदान-प्रदान करने और इन विश्राम के दिनों में अधिक उमंग के साथ जीने का पैगाम देता है. बारी-बारी से सबके सिर पर हाथ रखकर वह उनके दीर्घायु होने का आशीर्वाद देता है.
इस अद्भुत गाथा-गीत के अंतिम हिस्से का एक टुकड़ा देखें:
ह्युने की रात फसकिया राता,
आणे सुणोनी, काथ लगौनी, गीत लगौनी आपण भितेरै,ह्युनी दिनों में क्या भल लागछो. घाम में बैठी चूख सानण
भाँग भुटो मणी लाषण थ्यचो पै गुड़बुड़ दै डालो क्वे भाने में.
ह्युनै की रात फसकिया राता यकठी जानी सब चूले भतीरे
आण सुणोंनी क्वे काथ लगौनी क्वे गीत लगौनी आपण भितेरे.
भट भुटनी क्वे भाँग ठुंगनी क्वे हुमुर दिनी उणीने उणीने
ह्युनी दिनों में क्या भल लागछो. घाम में बैठी चूख सानण
(शिशिर की रातें किस्से-गप्पों की रातें होती हैं, परिवार के सब लोग भीतर रसोई के कमरे में एकत्र को जाते हैं. पहेलियाँ बूझते हैं, किस्से सुनाते हैं, गीत गाते हैं, सब आपस में एक-दूसरे से आप-बीती सुनते हैं. शिशिर की दुपहरियाँ कितनी प्यारी होती हैं, धूप में बैठकर पहाड़ी नीबू सानना, भांगा भूटना, लहसुन कुटकुटाना, उसके बाद सारी चीजों को प्यार के साथ बड़े बर्तन में डालकर गाढ़े दही में सानकर चटखारे लेकर खाना. कोई भट भूनता है, कोई भाँग ठूंगता है और कोई उनीदे स्वर में हूँ-हाँ करता रहता है.)
प्रस्तुत रोपाई गीत शरद-ऋतु में पहाड़ की मुख्य फसलों– मडुआ-मादिरा, कोंड़ी- झुंगरा, भट-गहत आदि – की रोपाई के वक़्त महिलाओं के उत्साह-वर्धन और प्रकृति के साथ एकाकार होने की अद्भुत बानगी है. इसमें भास्कर ने कुमाऊँ की परम्परागत लोक-जागर शैली को लेकर अपना गीत रचा है जिसमें अतीत, परम्परा और स्मृति मिलकर एक नया संसार उदघाटित करते हैं. यह गीत पहाड़ी ऋतुओं तथा लोक-परंपरा का वह संधि-स्थल है जहाँ बुजुर्ग और शिशु परंपराएं विदाई का गीत गाते हुए एक-दूसरे के गले मिलते हैं. एक नयी संस्कृति का अंकुरण होता है और शुरू होता है जीवन का नया अध्याय. सुनिए गीत का छोटा-सा अंश:
भास्कर भौर्याल कुमाऊँ के दुर्लभ वाद्य-यंत्रों – बिणई, जोया मुरली, खंजड़ी हुड़का आदि के तो मास्टर हैं ही, अनेक स्वर-लहरियों के ताल-मेल के साथ उनके संयोजन में भी उन्हें महारथ है. स्पष्ट है, इस युवा गायक को प्रदेश को बड़ी उम्मीदें हैं.
चार)
गणेश मर्तोलिया
भारत-नेपाल से लगे सीमान्त जनपद मुनस्यारी के गाँव मर्तोली में 17 अक्टूबर, 1991 को पिता विजय सिंह मर्तोलिया और माँ पुष्पा देवी के घर जन्मे गणेश ने आरंभिक शिक्षा गाँव में प्राप्त की और उसके बाद लखनऊ विवि से ग्रेजुएशन किया. सम्प्रति वह भारतीय स्टेट बैंक में अधिकारी हैं. एक सामान्य निम्न-मध्यवर्गीय परिवार की जड़ों ने उन्हें अपनी धरती के मूल संस्कारों से जोड़े रखा और आज भी अपने मूल परिजनों के साथ वक़्त गुजारने में उन्हें आत्मिक शांति और सुकून मिलता है. खूब यात्राएँ करते हैं और अपनी जड़ों के सांस्कृतिक विकास में लगातार नज़र रखते हैं.
कुमाऊँ के लोक-कंठ से सीधे अंकुरित यह युवा जन्मजात गायक लगता है, ठीक भास्कर भौर्याल की तरह. पिता विजय सिंह जड़ी-बूटियों के संरक्षण का काम करते थे और माँ में अपनी लोक-संस्कृति के प्रति गहरा जुनून था. युवा कवि-संस्कृतिकर्मी अनिल कार्की के साथ अपने साक्षात्कार में गणेश बताते हैं कि गाँव-इलाके में जहाँ भी गीत-नृत्य आयोजित होते थे, माँ भागकर वहाँ चली जाती थी और गीत-नृत्यों को लीड करने लगती थी. माँ के इस व्यवहार से वह खिन्न रहते थे और नाराज होकर घर चले आते थे. उनके गुस्से को शांत करने के लिए दादी मुर्गी के चूजे खेत में बिखरा कर उन्हें चुगने और रखवाली करने के लिए भेज देती थीं. माँ का यह विछोह एक प्रकार से गणेश के बाल-मन में माँ की सांस्कृतिक धरोहर का बीज बन गया और खेतों-जंगलों के एकांत में उनके अवचेतन मन में पैठी स्वर-लहरियाँ कंठ से गीत-संगीत का रूप लेने लगीं. इसी बाल-सुलभ भोलेपन में उन्होंने अपनी पहली गीत-रचना रची और उनके मन-कंठ में इस रचनात्मकता का विस्तार होता चला गया. एक तरह से अपनी जैविक माँ के बहाने प्रकृति माँ का संगीत उनके कंठ से फूट पड़ा.
पहले उनके उस आधार गीत को सुनें/पढ़ें जो उनकी रचना-यात्रा का प्रस्थान-बिंदु था: (गीत का लिंक शीर्षक में )
गीत : लाखों हजार मा
न्योली : ओहो मली छ खलियाधुरा,
तली गोरी गाड़,
क्या मायालो, क्या शोभिलो,
म्यर मुनस्यार….
गीत: लाखों हजार म्हा, सारी दुनिया
और संसार म्हा
एक म्यर मुनस्यार, एक म्यर जोहार,
भल म्यर मुनस्यार, भल म्यर जोहार..
ऊंच डाण हिमालको, हरी भरी बुग्याल,
कि बतौं मैं यो मुखै ले, कस छ म्यर मुनस्यार.. 2
यां डाली बोठी फलदार, जड़ी बूटी यां गुणदार,
भल म्यर मुनस्यार, भल म्यर जोहार…
छै मैण मुनस्यार, छै मैण जुहार,
बुबू जांछी हुणदेश, आच्चे हंछी उदास.. 2
ऐसी छी हम शौकार, ऐसी छी हामर व्यौपार,
भल म्यर मुनस्यार, भल म्यर जोहार..
बुढ़िया आच्च्ये हाथ म्हा, छिजू फुरफुराट,
भली रैये मेरी आच्चे नि होये उदास,
आच्च्ये मेरी मायादार, बुबू ले भल दिलदार,
भल म्यर मुनस्यार, भल म्यर जोहार..
गणेश मर्तोलिया ने कुमाऊँ की लगभग सभी गीत-शैलियों को अपनाया है, लोक-स्वरों के आधार पर कुछ लोकप्रिय वीडियो तथा लघु फ़िल्में भी तैयार की हैं. गणेश की खासियत यह है कि वह आज की बम्बइया फ़िल्मी चकाचौध से बचे हैं तथा खुद के लिए अपनी निजी जगह तलाश रहे हैं. फिल्म की चकाचौध से मुक्ति का यह दबाव कहने में जितना आसान लगता है, वास्तव में उससे बाहर निकलना हज़ार तालों की कैद से बाहर निकलने जैसा है. यह दबाव इस वक़्त सारे देश की लोक भाषाओँ में दिखाई देता है जिसने हमारी लोक-भाषाओँ को निर्दयता से कुचल डाला है. गणेश मर्तोलिया और भास्कर भौर्याल जैसे युवा अभी अनछुए हैं और यही बात उनकी प्रतिभा की संभावनाओं की ओर आश्वस्ति का स्पष्ट संकेत है.
उनका सबसे लोकप्रिय गीत है ‘लाल बुरांश’ जो आज हजारों-लाखों लोक-कंठों की आवाज बन मध्य और उच्च हिमालय के सबसे खूबसूरत पुष्प के रूप में जाना जाता है. समुद्र सतह से साढ़े-पांच हजार फुट की ऊंचाई के बाद अनेक रंगों में खिलने वाला यह यह पुष्प हिमांचल प्रदेश का यह राज्य-पुष्प है, हालाँकि इसकी अधिक पहचान उत्तराखंड के लोक गीतों के कारण है. उत्तराखंड का राज्य-पुष्प ब्रह्मकमल है जो उच्च हिमालय में ही खिलता है. ब्रह्मकमल आम पहाड़ी जनों की पहुँच से दूर है, सिर्फ देवता के चरणों में चढ़ाने के काम आता है, इसलिए इसे जनता का पुष्प नहीं कहा जा सकता. यही कारण है कि लोक जीवन में इस फूल की वो महिमा नहीं गाई जाती जो बुरांश की. इसके उलट बुरांश को न जाने कितने रूपों और कथा-सन्दर्भों में याद किया जाता रहा है. विशेष रूप से नव-यौवनाओं की स्मृति का तो यह पुष्प अमर प्रतीक बन गया है. लोक-कवियों ने ही नहीं, हिंदी रचनाकारों के साहित्य में जहाँ भी उत्तराखंड का संदर्भ आया है, चाहे निर्मल वर्मा हों, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, शमशेर, कुंवर नारायण से लेकर कृष्णा सोबती तक, इस पुष्प को इन सभी ने अपने चरित्रों की स्मृति के साथ अनिवार्य रूप से जोड़ा है. गणेश मर्तोलिया का गीत ‘मैं लाल बुरांश भई’ एक प्रकार से पर्वतवासियों की उन्हीं के निजी कंठ से उपजी अनायास अभिव्यक्ति है. गणेश के अनुसार इस गीत की धुन उन्होंने अपने वरिष्ठ मित्र अनिल कार्की के सुझाव पर एक नेपाली गीत से प्रेरित होकर निर्मित की है. गीत इस प्रकार है: (गीत का लिंक शीर्षक में )
मैं लाल बुरांश भई,
मैं तो लाल बुरांश भई
वन भरी फुली द्यूंलो
मन भरी फुली द्यूलो …
तू पहाड़ मुनाल भई,
तू पहाड़ मुनाल भई
बन भरी बासी दीये,
मन भरी बासी दीये…
जीवन तेरी मेरी, घाम छाया जैसी,
उमर बीती जाली, दगड़ी हँसी-खुशी
तू चांद अन्यार भई,
मेरी चांद अन्वार भई
संग मेरी जागी रये,
संग मेरी ढली जाये…
तू लाल बुरांश भई,
हां मैं लाल बुरांश भई,
बन भरी फुली दीये, मन भरी फुली दीये..
बन भरी फुली द्यूंलो, मन भरी फूली द्यूंलो…
मैं लाल बुरांश भई…
(हिंदी पाठक को इसे समझने में कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि इसकी जड़ें कुमाउनी के मानक रूप खसपर्जिया के निकट है कुमाऊँ के नागर-क्षेत्र के निकटवर्ती इलाकों में बोली जाती है. मोटे तौर पर यह गीत बुरांश के बहाने पहाड़ी प्रकृति का बेहद आत्मीय रूपक है.)
पांच)
लवराज
सुप्रसिद्ध हिमालयी ग्लेशियर मिलम से लगे मुनस्यारी क़स्बे से जुड़े नानसेम गाँव में 24 अक्टूबर, 1991 को जन्मे लवराज टोलिया सिर्फ अपना प्रथम नाम लिखते हैं और लोक-संगीत के साथ-साथ रचनात्मक लेखन से भी वह गहराई से जुड़े हैं. आरंभिक शिक्षा मुनस्यारी और गंगोलीहाट में प्राप्त करने के बाद वह अल्मोड़ा कैंपस, कुमाऊँ विवि से स्नातक तथा जीबी पंत कृषि विश्वविद्यालय, पंतनगर से परास्नातक हैं. एक कविता-संग्रह ‘दुंगचा’(समय साक्ष्य प्रकाशन, देहरादून) से प्रकाशित और चर्चित रहा है. तीन कुमाउनी गीतों – ‘आस’, ‘घाम-पानी’ और ‘पालन’ के गीत लिखने के साथ उनका निर्देशन भी किया है.
मायानगरी का आकर्षण लवराज को भी वहाँ तक खींच ले गया और विवेक ओबरॉय अभिनीत फिल्म ‘पी. एम. नरेंद्र मोदी’, ‘वॉर इन द हिल्स’ (वेब सीरीज इन हॉट स्टार), ‘बॉम्बर्स’ (वेब सीरीज इन जी) के लिए तो गीत लिखे ही, अलग-अलग राष्ट्रीय म्यूजिकल चैनलों के साथ-साथ कुछ स्वतंत्र कलाकारों के लिए भी गीत लिखे और कुछ का संगीत भी दिया.
वर्तमान में लवराज प्रतिष्ठित अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी की आने वाली फिल्म के लिए गीत लिख रहे हैं. इसके साथ ही एक कुमाउनी लधु फिल्म का निर्देशन कर रहे हैं. उनकी कुमाउनी फिल्म ‘आस’ के गीत इस साल उत्तराखंड संगीत के क्षेत्र में दिए जाने वाले ‘यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड’ के अंतर्गत सभी श्रेणियों में नामांकित एकमात्र फिल्म है.
यह बात कम महत्वपूर्ण नहीं है कि इस छोटी उम्र में देश के सांस्कृतिक मानचित्र पर अपनी पहचान बनाने वाले सुदूर हिमालयी क्षेत्र के ये युवा अपनी प्रतिभा के बल पर और भी चमकेंगे और पहाड़ी संगीत और संस्कृति की वास्तविक जड़ों को आज की विकसित कला-दृष्टि से जोड़ते हुए उसका विस्तार करेंगे.
(क्रमशः)
अगली बार: उत्तराखण्ड में बाल-लेखन
बटरोही जन्म : 25 अप्रैल, 1946 अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का एक गाँवपहली कहानी 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में प्रकाशित, हाल में अपने शहर के बहाने एक समूची सभ्यता के उपनिवेश बन जाने की त्रासदी पर केन्द्रित आत्मकथात्मक उपन्यास ’गर्भगृह में नैनीताल’ का प्रकाशन, ‘हम तीन थोकदार’ प्रकाशित अब तक चार कहानी संग्रह, पांच उपन्यास. तीन आलोचना पुस्तकें और कुछ बच्चों के लिए किताबें आदि प्रकाशित.इन दिनों नैनीताल में रहना. मोबाइल : 9412084322/batrohi@gmail.com |
बटरोही जी बहुत सूक्ष्मता से नवागंतुकों की पहचान करते हैं । यह बहुत बड़ी उदारता है । हमने शुरू में अपनी किताबें दिग्गजों को प्यार से दीं , उनकी सलाहों के लिए , उनके मशविरों के लिए पर हमें उस दौर में कोई बटरोही नहीं मिला । उनके द्वारा दिया गया यह नवलेखन का परिचय स्वागतेय है । पर एक इल्तज़ा है कि वे अपनी परिधि को विस्तार दें तब विशुद्ध न्याय होगा
बहुत सुंदर सर
प्रणाम
कमाल है ! बटरोही जी अथक कलमवीर हैं । सलाम उन्हें ! भाव को भी और इरादों को भी ।
वरिष्ठ लेखक बटरोही जी ने पहाड़ी संगीत पर भास्कर भौर्याल, विजय जी और लवराज के पहाड़ी लेखन के बहाने उत्तराखंड के गीतों और संगीत का जायज़ा लिया है ।
आरंभ में लिखा गया है कि भाषा का पहला चरण चीख है नाद नहीं । मेडिकल साइंस का अध्ययन बताता है कि शिशु बालक या बालिका जब चीखते या रोते हैं तो उन्हें चुप नहीं कराना चाहिये । चीखने रोने से शिशुओं की बोलने की शक्ति का विकास होता है ।
पहाड़ी गीत-संगीत पर एक शे’र याद आ गया है ।
वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे सू
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था
काश पहाड़ी गीतों का हिन्दी भाषा में अनुवाद किया गया होता । मुझे ख़ुशी है कि पहाड़ी बोली बची हुई है । Dilect is our richest heritage.
पहाड़ में दोपहर के समय बाहर आकर लहसुन कूटना, गीत गाना और अपने सुखों को साझा करना सुखद होता है । शाम ढलते ही ठंड बढ़ने लगती है । परिवार रसोई में आँच के चूल्हे के नज़दीक बैठकर भोजन करते हैं । शहरी ज़िंदगी ने इस आनंद को छीन लिया है ।
विजय जी भारतीय स्टेट बैंक में अधिकारी हैं और लवराज फ़िल्मों (यदि मेरी याद सही है) के लिये गीत लिखते हैं । लवराज अपना उपनाम नहीं लिखते । ये जी बी पंत, पंत नगर विश्वविद्यालय से परास्नातक हैं ।
पहाड़ी वाद्ययंत्रों पर पहाड़ी गीत हमारी धरोहर है ।
बहुत सारगर्भित और महत्वपूर्ण आलेख है। बटरोही जी को सादर प्रणाम उत्तराखण्डियों को उनकी विरासत के गर्व देने के लिए।
अत्यंत प्रभावशाली लेखन. लोक संगीत का माधुर्य मनो मुग्ध कारी प्रतीत होता है. आनंद आ गया.