• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » जिधर कुछ नहीं: ओम निश्‍चल

जिधर कुछ नहीं: ओम निश्‍चल

देवी प्रसाद मिश्र का पहला कविता संग्रह ‘प्रार्थना के शिल्प में नहीं’ 1989 में आया था. लगभग तीन दशकों बाद उनकी दूसरी कविता-पुस्तक ‘जिधर कुछ नहीं’ 2022 में राजकमल से प्रकाशित हुई है जिसकी कविताओं को ‘लम्बी कविता’ कहा गया है. देवी प्रसाद मिश्र की काव्य यात्रा के अगले पड़ाव की जहाँ यह सूचक है वहीं नयी सदी की हिंदी कविता में आये बदलावों का भी प्रतिनिधित्व करती है. जर्जर आधुनिकता और ढहते हुए जनतंत्र में कविता की यह ऐसी विकट पुकार है जिसमें उजाड़ का शोक और घटित ध्वंस का शिल्प है. आलोचक ओम निश्चल ने बड़े मन और विस्तार से इस संग्रह जिसमें ‘यह एक ही कविता है’ को देखा-परखा है, इसकी अद्वितीयता की व्याख्या की है. प्रस्तुत है.

by arun dev
October 25, 2022
in समीक्षा
A A
जिधर कुछ नहीं: ओम निश्‍चल
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

जिधर कुछ नहीं
‘अशांत उजाड़ का विग्रह और विघटन’

ओम निश्‍चल

जो तुम्‍हारे खाने से बचा ली है
वह हमारी भूख है

जो तुम्‍हारे रहने से बचा ली है
वह हमारी बारादरी है

जो तुम्‍हारी लालसा से बचा ली है
वह हमारी एषणा है

जो तुम्‍हारी आग से बचा ली है
वह हमारी धधक है

जो तुम्‍हारे कुचलने से बचा ली है
वह हमारी सनक है

जो तुम्‍हारे अपराधों से बचा ली है
वह हमारी आत्‍मा है

जो तुम्‍हारे रौंदने से बचा ली है
वह हमारी पगडंडी है

जिधर कुछ नहीं है
दिशा है 

 

शिल्‍प और शिल्‍पहीनता के हर नाट्य और पाखंड को श्‍लथ करते हुए देवी प्रसाद मिश्र फिर पिछले दशक से उन बेचैनियों की ओर लौटे हैं जो लंबे अरसे से उनका पीछा करती आ रही थीं. मसलन कविता के गतिहीन, रूढ़ व स्‍थिर व रीतिबद्ध होते पाठ के विपरीत उन ध्रुवों की तलाश जिनसे कविता ही नहीं अपने समय और सदी के वर्तमान (समकाल की रटन्‍त भर नहीं) को उसके मूल उद्गम और उस पर लगी खरोंचों को ठीक-ठीक पहचाना जा सके.

एक दौर ऐसा होता है जब कोई कवि कवियों की भीड़ से उठ कर सबकी ओर से एक कविता लिखता है: ‘अँधेंरे में’ और वह नई कविता का एक केंद्रीय रूपक बन जाता है. अपने दौर के तमाम कवियों की अभिव्यक्ति के सार को समेटे वह कविता युगपत प्रवाह बन जाती है. कविता के ढांचे और पाठ की एकायामिता को भग्न कर जिस कविता-कथा की ओर वे लौटे थे और ‘हर इबारत में रहा बाकी’, ‘यह एक और आखिरी वाक्‍य है’ या ‘निजामुद्दीन’  जैसी कविता से कविता की दुनिया में एक मोड़ और मरोड़ पैदा की थी, उसका चरम ‘जिधर कुछ नहीं’ में दीखता है. ऐसी हर कविता के पीछे हमारे वक्‍त की सामूहिक और एकल बदहवासी के बिम्‍ब बहुधा समाए होते हैं जिनकी जटिल पेचीदगियों को खोलने का काम यह कवि लगभग एक दशक से ज्यादा समय से कर रहा है.

इस प्रकृति की कविताएं पहल, आलोचना व तद्भव में छप कर ख्याति पा चुकी हैं तथा वे कविता के पाठ को नए अर्थबोध के साथ देखे जाने की मांग करती हैं. कविता के ऐसे फार्मेट को देख कर ऐसा लगता है कवि अरसे से इसकी तलाश में था कि वह मुख्‍यधारा के नैरेटिव के साथ समूह या समाज की कनबतियों की भी टोह ले सके.

 

२)

जिधर कुछ नहीं, कविता की वैकल्पिक संरचना की खोज तो है ही, वैकल्पिक मनुष्य की खोज और कविता के गतानुगतिक विन्‍यास के भूगर्भ को हलचलों से भरने का एक उपक्रम भी है. इसके प्रारंभिक प्रस्‍तावन में कहा भी गया है कि इस महाकविता का पाठ मुश्किल नहीं है जितना वह अपनी संरचना में दिखता है. तथापि यह कविता एक तरफ कविता की भेड़चाल से अलग चलने की कार्रवाई का नतीजा है तो दूसरी तरफ अपने समय की जटिल पेचीदगियों और सत्ता की कारगुजारियों को ठीक-ठीक पहचानने का एक उपक्रम भी है. कथ्‍य और संरचना के इस मिले जुले खेल में कविता कैसे एक संजीदा वैचारिक अन्‍विति रचती है, वह देखने योग्‍य है.

यह लगभग अविश्वसनीय सी बात है कि देवी प्रसाद जैसा जीवंत कवि कैसे अपने पहले संग्रह के बाद अब तक किसी नए कविता संग्रह के प्रकाशन से विरत रहा है. बस छिटपुट कविताएं कुछ पत्रिकाओं में आती रही हैं. किन्‍तु उसकी कविता का तापमान सदैव ऊँचा रहा. रोज-रोज दिखने और दिखावे की अनिवार्यता बन चले फेसबुक के आत्‍मप्रचार के झमेले से भी वह दूर रहा है जैसे कि किसी भी संजीदा कवि के लिए फेसबुक पर उतरना बाजार के घटाटोप में उतरना हो जहां कभी-कभी अपनी ही वाल पर बुद्ध जैसा हाव भाव टांकना ही एक मात्र उद्देश्य रह गया हो. वे अपने प्रारंभिक कथन में जब यह संकेत देते हैं कि हो सकता है यह कविता भारतीय हिंसा का संक्षिप्त इतिहास-सरीखी हो और उत्तर कथन में यह दुहराते हों कि कविता की तात्विक अंतर्यात्रा एक बीहड़ सुरंग से गुजरती है जिसके रास्ते में कितने ही जलाए, उजाड़े और बर्बाद किए गए स्‍टेशन मिलते हैं. वे मानते हैं कविता अपने सम्यक् निर्वचन के लिए आलाप, आत्‍मालाप, विलाप, प्रलाप और संलाप से होकर गुजरती है. सम्‍यक् कविताभिव्‍यक्‍ति के इन पांच पड़ावों को उत्तर कथन में सलीके से व्‍याख्‍यायित भी किया गया है. तथापि यह जान पाना कि इस कविता का मूल कथ्य क्‍या है और कवि आखिर कहना क्‍या चाहता है, यह मुश्‍किल नहीं तो कठिन अवश्य है. किन्‍तु कवि ही इस पर रोशनी डालते हुए जब यह कहता है कि

”यह कविता लूटे जाते हिंदुस्‍तान और उसकी विनष्ट होती नागरिकता की कथा कहने की कोशिश है जिसमें प्रतिकार के विमर्श खुद ब खुद शामिल होते जाते हैं.”

तो इसे भारतीय हिंसा के संक्षिप्त इतिहास कहे जाने की सांकेतिकता समझ में आती है.

 

3)
नए नैरेटिव का उद्वेग

कविता में नैरेटिव या वृत्तांत का बोलबाला बहुत पहले से रहा है, इतिवृत्‍तात्‍मक से लेकर सार्थक वक्तव्य या सूक्‍तिपरकता के काव्‍य तक. लेकिन यह वृत्‍तांतपरक संरचना का पाठ बहुत ऊबड़-खाबड़ और उबाऊ रहा है कि लंबी कविता की संरचना में कूदे कवियों में से अनेक के पास यह कौशल न था कि वे उसकी गत्‍यात्‍मकता को साध सकें. उसके उबाऊ होते पाठ पर अंकुश लगा सकें. उसे भीतर की लय या बाहर के संगीत के प्रभावों से आवेग और वैचारिक स्‍थिरता से भर सकें. लिहाजा लंबी कविता उजाड़ हो चली वृत्‍तांतप्रियता का एक विकल्प तो बनी रही किन्तु वह कविता में निष्‍प्रभावी बनती गयी.

”जिधर कुछ नहीं”  कविता की वैकल्पिक संरचना का एक नया प्रस्तावना है. देवी प्रसाद मिश्र की भाषा यहां कवितानुकूल तत्‍सम् और तद्भव के पराक्रम का उदाहरण है तो भाषा की इस दौर की विकलता और नवाचार के लिए आकुलता के उद्वेग को साधने की कोशिश भी है. वह भले कहे कि

मैं     तत्‍सम नहीं
अपनी सभ्‍यता का सबसे विकट तद्भव.

संस्‍कृत नहीं, प्राकृत. आगत की आहट.

किन्‍तु इस भेद को खोलने की विवृति ही उसकी कविता का पाथेय है. उसका यह कहना उसकी कविता की कुंजी भी है जो कविता के हेतु की तरह उसकी कविता के उद्दिष्‍ट पथ का विधायक तत्व है–

कविता इस विलाप से क्‍यों न भरी हो
कि कौन ले आया हमें इस हाल में

क्‍यों हमें बनाने पड़े
भूस्‍खलन वाले     भूखंडों पर घर

मनुष्‍य हो जाना क्‍यों विपत्ति हुआ

क्‍यों नहीं मिला न्‍याय

कौन ढँक देता है दुखों का आख्‍यान कविता के पीछे

4)

कहना यह कि देवी प्रसाद मिश्र की कविता उस नए का संधान है जिसकी खोज में हर कवि को लगना होता है किन्‍तु सिद्धि किसी-किसी को मिलती है या नहीं मिलती है. यों कविता किसी सिद्धि को पाने का उपक्रम भी नहीं, यह खोज करने की प्रक्रिया का ही साफल्‍य है. कविता किसी मंजिल को खोज लेने का दावा नहीं करती, वह एक रास्ता सुझाती है. वह पथ है, मंजिल नहीं, तभी तो कवि कहता है: जिधर कुछ नहीं, दिशा है. और इस कार्य में दत्तचित्त कवि के पास गद्य पद्य चंपू की सबसे वेधक भाषा है, वह छंद है जिसमें आम कवियों का हाथ तंग दिखता है, वह संगीत है जिससे कविता विरत हो रही है, वह गद्य के अस्तबल में हिनहिनाते अश्वों की तरह हुंकार तो भरती है किन्तु कविता अश्‍वशक्‍ति से नहीं, संवेदना शक्‍ति से आती है जो कविता में वैसे ही क्षीणप्राय है जैसे मनुष्‍य की हड्डियों में घटता फासफोरस. इस कविता के विहंगम पाठ से जो अनुगूंज, जो कथ्य कोलाज, जो आंतरिकता, जो सांगीतिक अल्‍हड़ता, छांदिक स्‍थापत्‍य और नए मनुष्‍य और नई भाषा के निर्माण के लिए जो विकलता ध्‍वनित होती है वह साफ तौर पर सुगम संगीत में ढलती कविता के सतत स्‍खलन के विरुद्ध एक हस्‍तक्षेप है, एकध्रुवीय होती कविता के विरुद्ध एक नए काव्‍यास्‍वाद का प्रस्‍तावन. याद आती है ”हर इबारत में रहा बाकी”  के प्रकाशनोपरांत एक कवि की मुनादी कि यह काव्यशैली कवि की आत्‍महत्‍या का प्रस्‍तावन है.

आज हिंदी समाज जानता है कि प्रकाशनलोलुप वातावरण के बावजूद अपने कवि संयम का संवरण करते देवी प्रसाद मिश्र ने संग्रहों की ढेरी लगाने के बजाय अपरिग्रह और अप्रकाशित रहने की सतत इच्छा का ही वरण किया है और 87-88 के लगभग 34 साल बाद अब आए इस लंबी कविता के संग्रह ने उन्हें फिर एक बार सार्वजनिक रूप से चर्चा में ला दिया है.

‘यह एक लंबी कविता है’ – के उद्घोष के साथ शुरु कवि की प्रस्तावना बताती है कि इसमें चार पात्रों का समवाय है. कवि ही नैरेटर है जो मैं से वह में बदलता है. मैं बाद में पुरुष से स्‍त्री में बदलती ट्रांसजेंडर परालैंगिक कलाकार से मिलता है. वे दोनों लाइब्रेरी में एक स्‍त्री मिलते हैं जो वहां छुपी बैठी है. यह स्‍त्री क्‍या है? प्रकृति या पृथ्‍वी या कोई छात्रा, युवती,उसे भान नहीं. वह कहता है हो सकता है यह कविता भारतीय हिंसा का संक्षिप्‍त इतिहास सरीखी भी हो. यही वह बिन्‍दु है जो एक संकेत सरीखा होकर भी इस लंबी कविता का केंद्रीय बीजक बन जाता है. इसकी व्याप्ति इतनी नाटकीय और इसका रंगमंच पूरा भारतीय भूखंड या पूरी सृष्‍टि है, लिहाजा यह देख पाना मुश्किल नहीं कि यह हिम्‍मत बांध कर अपने वृत्तांत में उस हिंसापरकता की प्रवृत्ति और निवृत्‍ति बनती जा रही गतिविधियों को सहेजना है जो सत्ता संस्कृति और राजनीति को बहुत उड़ी-उड़ी नज़र से नहीं देखा जा सकता.

देवी प्रसाद मिश्र की कविता संरचना में खास कर ‘प्रार्थना के शिल्‍प में नहीं’ के बाद से जटिलताओं का आगमन हुआ है. किसी बात को उसी व्यग्रता से समझने और उसे उसके उत्कट कन्‍ट्रैस्‍ट में रख कर देखने की अभ्यस्त कवि-मुद्रा ने अपने किसी भी प्रयोग को हल्के से नहीं लिया. उसका यह कहना कि ‘परिवार, ईश्‍वर स्‍कूल और सृष्‍टि से मैं नाराज़ रहता था’  या ‘मेरे पास अशांत उजाड़ का विग्रह और विघटन था’ , मुझे ज्ञानेन्‍द्रपति सरीखे उस प्रयोग की याद दिलाता है जहां वे कहते हैं ‘मुझमें सजल उज्‍ज्‍वल रौद्र मिलते हैं’ . यह सजल उज्‍ज्‍वल रौद्र क्‍या होता है, यह पूछने का साहस आज तक सैकड़ों बैठकियों के बाद मैंने नहीं किया, क्योंकि यही वह अंदाजेबयां है जो कवि का अपनी तरह से निर्माण करता है. ऐसी पदावलियां देवी प्रसाद मिश्र के यहां अक्‍सर आती हैं जो अतिशयता के सूचकांक को छूती हुई हमें ठिठकने पर विवश कर देती हैं.

 

5)

देवी प्रसाद मिश्र की हर लंबी कविता के पीछे एक रूपक गढ़ने की चेष्टा चलती है. ‘हर इबारत में रहा बाकी’ और ‘यह एक और आखिरी वाक्य है’- दोनों के पीछे एक रूपक है जो कविता की पूरी बुनावट को लेजिटेमेट और युक्तियुक्त बना सके. यहां कवि के अवचेतन में लाइब्रेरियों की स्मृति है जो उसे इलाहाबाद और रीवा ने दी है. लाइब्रेरी के पीछे चाय बेचती स्‍त्री को देख वह सोचता है कि कविता लिखना कब आसान होता है. मंटो उससे बोलता है कि सीधे बात कह दो. गजानन आवाज़ देता है विकल होना जटिल होना. असमंजस के इसी चौराहे पर आकर वह फिर ऐसी उक्तियों से हमें चौंका देता है-  जो प्रथमद्रष्‍ट्या तो उक्‍ति वैचित्र्य की तरह उतरती है पर जो धीरे-धीरे उक्‍तिवैशिष्‍ट्य में बदलने की भूमिका भी अदा करती हैं –

मैं सरल होने की संश्‍लिष्‍टता था और
गुफाओं में छिपी
प्रागैतिहासिक नग्‍नता का एकायामी भित्‍तिचित्र

**

अपने बियाबान का मैं गुमशुदा तलत था
लपटों को लपेटे
सौंदर्य के साठ डिग्री सेल्‍सियस के सामने
थूक न निगल पाता हलक था

प्रेम की आवासीयता का वास्तु ग़लत था

 

6.
उक्‍तिवैशिष्‍ट्य की व्यग्रता

इस अर्थ में देवी प्रसाद कभी कविता के शिल्‍प को एकरस नहीं रखते, उसे वैविध्य और उक्‍तिवैशिष्‍ट्य के घोल से नम रखने की चेष्टा करते हैं तभी उनमें एक गुनगुनाते हुए हिंदुस्‍तानी शायर की आत्‍मा भी दिखाई पड़ती है.

“कामना में भस्‍म
शामे ग़म की क़सम…”

और यह मिजाज़ उनकी ‘निजामुद्दीन’  जैसी कविताओं या दोहे-नुमा प्रयोगों में देखा जा सकता है. यहां भी उन्होंने निराला के मुक्‍तछंद की राह पर चलते हुए न कविता के नवाचारों से मुंह मोड़ा है न कविता से छंदों की विदाई की है. जो जितना भी छंद है इस आपाधापी भरे जीवन में एक नागरिक के पास उसका प्रयोग वे करते हैं एक सिद्ध कवि की तरह. अंत्‍यनुप्रास को तो अपने जटिल कथ्‍य के बावजूद मुक्‍तिबोध तक ने नहीं छोड़ा. देवी प्रसाद भी कविता के स्‍थापत्‍य में तुकों का खेल रचते हैं और अपनी काव्‍य वस्‍तु को मानीखेज़ भी बनाते चलते हैं. उदाहरणत:

इसी बदकार अहंकार ने मेरा सर्वनाश किया
कि मैं जानता हूँ हिंदुस्‍तान को क्योंकि मैं कैसे कह पाता कि
मैं नहीं जानता जम्‍बूद्वीप को पूरे महाद्वीप को
क्योंकि और किस प्रक्रिया में होता कि ज्यादा जान पाता
आर्यावर्त्‍त को
उसके आवर्त्‍त को
पर्त्‍त के बाद की पर्त्‍त को
संवर्त्‍त को

यह आर्यावर्त, आवर्त, पर्त और संवर्त मुक्‍तिबोधीय शैली का ही अनुकरण है जहां वे व्रीड़ा है, पीड़ा है, अधीरा है, गंभीरा है टाइप के वाक्‍य कविता में एक नाद और अनुगूंज पैदा करते हैं- वह विरल संगीत भी जहां आकर कविता अपनी सुविधानुकूल टेक पर आराम फरमाती है.

किन्‍तु देवी प्रसाद अपने इस शिल्‍प को पूरी कवि परंपरा में अकेले साधते हुए प्रतीत होते हैं- यानी इस स्‍तर पर अपने काव्‍यवस्‍तु के अवगाहन के लिए सर्वथा एक ऐसा रूपक निर्मित करते हैं जिसमें खुद कवि यह कहे कि वह मनुष्‍य होने की दिक्‍कत भी था: ‘युद्ध और अहिंसा, विवेक और विग्रह, आधिपत्‍य और प्रतिकार, संगीत और प्रतिहिंसा, परानुभूति और समूह की चिप लेकर घूमता था’,  तो यह पता चलता है कि यह कविता हमें किस-किस करवट और मोड़ों तक ले जा सकती है. वे काव्‍यवस्‍तु के साथ-साथ कविता की संरचना पर भी बात करते हुए कहते हैं जहां हम पुन: वही अंत्‍यनुप्रास की मानीखेज़ छटाएं देख सकते हैं-

कुछ निराला-सा कि कुछ कुछ काफ्का-सा
मोड़ पर पहुंचा कि कितना हॉंफता-सा
लग रहा हर बार कविता में
कि मैं कितना नया हूँ

कि मैं कुछ मोड़ने और तोड़ने का हूँ इशारा
अगर मौका मिले तो मैं रचूँ दुनिया दोबारा
घोंसला फिर से बनाती-सी बया हूँ
अकेला पड़ गया हूँ

और फिर एक निष्‍कर्ष कि :

”कवि, दार्शनिक और संन्‍यासी एक जगह पर 
                                बहुत दिनों तक नहीं रह पाते.”

सो यह परिव्राजकता इस कवि में भी अटूट है- न कहीं ठहर कर रह जाने वाली, न कहीं बिलम जाने वाली आसक्‍ति के साथ पेश आने वाली. हर कवि के भीतर कई-कई विस्‍थापन होते हैं. इस विस्‍थापन को यायावरी का नाम नहीं दे सकते पर इससे जो अनुभव आयत्त होते हैं वे दिलचस्प होते हैं. कवि अपने शहर इलाहाबाद की जीरो माइल रिपोर्टिंग करता हुआ अपनी विफलताओं को भी दर्ज करते हुआ उन जगहों, लोगों को जैसे रेलयात्रा के दौरान आने वाली छवियों की तरह पाता है जो उसके जीवन का पड़ाव रहे हैं तथा स्‍वीकार करता है कि ”वह एक शहर में अस्‍वीकृत होने के बाद दूसरे शहर की अस्‍वीकृतियों के लिए निकलता रहा.”

इस आत्‍मस्‍वीकार के साथ ही वह हिंदी की कविता की घुड़दौड़ वाली नियति को विस्‍मृत नहीं कर पाता जहां वर्चस्‍व के लिए वैचारिक अपराध किए जाते हैं. मुझे याद है ‘पहल’ पत्रिका के लिए मेरे द्वारा की गयी बातचीत ‘कई फाइलें मौत के बाद खुलती हैं’  में शहर दर शहर विस्‍थापन से गुजरने वाली मानसिकता और एक कवि के अवलोकनों के साथ वे कवि की अपनी भूमिका पर बात करते हैं. मैंने इन्हीं शहरों के आलोक में उन्हें पहचानने का यत्न किया जैसे इन्हीं शहरों ने कवि को रचा और सिरजा हो.

 

7)

यह कविता लिखते हुए देवी प्रसाद का कवि सर्वथा जाग्रत और बदहवास दोनों मुद्राओं में दिखता है. वह यह भी नहीं भूलता कि वह कवि है. वह हमारे समय की कला, जीवन और आदतों में फैली तमाम व्याधियों का साक्षी बनता है और अपने मैं को मैं के अलावा वह में भी तब्दील कर चलता है. वह स्‍वयं के लिए यह कहता हुआ कि- तत्‍सम नहीं, अपनी सभ्‍यता का सबसे विकट तद्भव–संस्‍कृत नहीं प्राकृत. आगत की आहट- अंतत: इस सवाल तक पहुंचता है कि ” कौन ढँक देता है दुखों का आख्‍यान कविता के पीछे ”. वह रह-रह कर तमाम सवाल उछालता है. मसलन- मृत्यु यदि एक लंबी नींद हो तो… मनुष्‍य हो जाना क्‍यों विपत्ति हुआ. क्यों नहीं मिला न्‍याय. मार्क्‍सवाद से कौन चुराकर उठा ले गया अनीश्वरवाद की प्रतिमा. जाहिर है कुछ सवालों के सीधे जवाब नहीं होते. यह कवि भी जानता है. वह लाइब्रेरी के एक रेग्‍युलर की आत्‍मालाप शैली में जो कुछ दर्ज करता है वह इस वक्त का सच भी है यथा-

कि मजूर फ़ोन बदलना चाहता है सिस्‍टम नहीं.
तो भूख अब उसे याचक बनाती है, विद्रोही नहीं.
एक विषम और लंपट लोकतंत्र
आगे बढ़ने का सपना मरने नहीं देता,

कुछ करने भी नहीं देता औ’ अख़ीर में कुछ नहीं देता.

 

8)
पाठ: खंड खंड पाखंड पर्व

इस कविता के लंबे और बार-बार पटरी से उतरते पाठ से होते हुए हम कहीं न कहीं कविता की केंद्रीयता तक पहुंचना चाहते हैं जो एक लंबी बौद्धिक कवायद की मांग करता है. क्योंकि यह नैरेटिव कई खंडों में विन्‍यस्‍त और अटूट धारावाहिता में खंडित लगता है जैसे यह इस लोकतंत्र के खंड खंड पाखंड पर्व का बेतरतीब उदघाटन हो. यह आत्‍मा और आत्‍मालाप के बीच टहलती उदासियों का वृत्तांत जैसा लगता है कि अचानक कहीं सोच के नए फूल दिखने लगते हैं. वह बार-बार भारतीय मनुष्‍य की दुहाई देता हुआ लगता है जो निर्धारक और निर्धारित, उत्‍पीड़क और उत्‍पीड़ित नियामक और नियमित के बीच सतत विभाजित है……और फिर वह एक दूसरे निष्‍कर्ष पर पहुंचता है और अपने ही वृत्तांत हताश भी दिखता है-

न किताब न आब न भूमि न स्‍वतंत्रता
ज़ंजीर से बँधी थी आत्‍मा की अनंतता

यहां कविता की इस लंबी यात्रा में देवी प्रसाद , जिंदल, मित्‍तल, वेदांता और अडानी के अहंकार को भी सामने लाते हैं तथा इस बात की ओर भी इशारा करते हैं कि गृहमंत्रालय कैसे मांगों और टांगों पर गोली चलाने के लिए बेताब सा दिखता है. उसके इस विमर्श में माइनिंग की गर्द में सने आदिवासी भी हैं, नक्‍सलवाड़ी भी, आवारा आशावाद भी है, सरहदमुक्‍त राष्‍ट्रवाद भी है, सोशियोपैथ में बदल गया कारपोरेट, समता की विराट और अछोर मारचुअरी बना कल्याण मंत्रालय, अज्ञान का प्रसारक शिक्षा मंत्रालय, उन्माद के लिए संस्कृति मंत्रालय,ट्रांसफर ऐप बना वित्‍त मंत्रालय. लोकतंत्र और पूंजीतंत्र के इस असली चेहरे पर रोशनी डालते हुए कवि कहता है-

दस-बारह भाषण लेखकों के सहारे चल रही थी सरकार
जो रात भर मेहनत करके
क्रूरता का पर्यायवाची करुणा ढूँढ लेते थे
और सैन्‍यवादी नियंत्रक के कंधे पर
ख़ून और थूक पोंछने के लिए गमछा रख देते थे

पाप के प्रमाणों से लैस थे जन प्रतिनिधि
राजनीति भारतीय मनुष्य के विरुद्ध सतत अपराध थी-
क्राइम अगेंस्‍ट ह्युमनिटी मेरी पैंट थी पीछे से फटी

 

9)

देवी प्रसाद मिश्र ने पिछले दो दशकों में अपने लिए जो काव्‍य यात्रा चुनी है वह विविधताओं-भरी है. जहां विष्‍णु खरे और विजेंद्र अपने गद्य में भीषण प्रोजैक दिखते हैं, मंगलेश डबराल में यह गद्य थोड़ा विगलित तरल और विकल एकालाप-सा दिखता है, रघुवीर सहाय में लोकतांत्रिक विफलताओं का प्रतिफल बुनने की चेष्‍टा दिखती है, जगूड़ी में संवेदना के बदले तर्कवाद और औचित्‍य ज्‍यादा सबल दिखता है, ज्ञानेन्‍द्रपति में शब्‍दयुग्‍मों की बनावट से गद्य को तरल सजल बनाने की चेष्‍टा दिखती है, वीरेन डंगवाल में नागार्जुन के अंदाजेबयां की रेप्‍लिका नजर आती है, राजेश जोशी प्रतिरोध के लोकप्रियतावादी मुहावरों के मुरीद दिखते हैं, तो देवी प्रसाद मिश्र अपनी कविताओं में गद्य-पद्य-चम्‍पू की सारी छटाओं के साथ सामने आते हैं, आते रहे हैं. उनका ‘मैं’ या ‘वह’ बदहवासी में भी पते की बात कह जाता है गो कि यहां खूब बेतरतीबी-सी है तथापि नैरेशन के बीच की ऊब को पिघलाते हुए वे कविता में कहीं-कहीं एक ग़ज़ल-सी हरकत पैदा करते हैं. आप कह सकते हैं कि भई यह यदि एक ही लंबी कविता है तो इसमें शैली-वैविध्‍य इतना ज्यादा क्‍यों. गद्य और पद्य का यह काकटेल क्‍यों. क्‍योंकि ऐसा काकटेल न राजेश जोशी में है, न कुमार अंबुज में. विरोध-प्रतिरोध कुमार अंबुज में कम नहीं पर वहां जटिलता के इतने प्रत्‍यय और हिकमतें सक्रिय नहीं दिखतीं जो कविता में भूल भुलैया से हालात पैदा कर दें जहां से निकलना मुश्किल. किन्‍तु इतनी आसान हो तो कविता ही क्‍यों हो. बहरहाल अब जब ग़ज़लनुमा पंक्‍तियों या कहें कि उनकी एक मुकम्‍मल ग़ज़ल के सम्‍मुख हूँ तो वहां लगता है कवि अपनी जटिलताओं के गुणसूत्र स्‍वयं ही बखान रहा हो. दो टूक.

सब्र-आज़्मा  हैं  सारे  हुक्‍मरान
रोज़े सियाह को नहीं हटाना आसान

सरगिरॉं है वो रहे सद्रे-क़फ़स
मेरी तहरीर नहीं समझना आसान

ये नहीं ख़ब्‍त फ़लसफ़ों से फ़कत
पिरामिडों को हुआ ढहाना आसान

यह अत्युक्ति नहीं कि कोई भी सभ्यता हो, युद्ध और आधिपत्य के ताने और बाने से बुनी गयी होती है. पर दास और अधिपति का डीएनए नष्‍ट क्‍यों नहीं हो पाता, कवि को इसकी चिंता ज्‍यादा है. कवि बार-बार अपने कथ्‍य के मंतव्‍य तक ले जाता हुआ इस संशय में रहता है कि कहीं वह कविता की मूल प्रकृति से भटक तो नहीं रहा और कितना और किस तरह कहा जाये कि कविता नष्‍ट होने से बच जाये. लेकिन यहीं हाशिए की वह टिप्‍पणी आती है जो यह कहती है:

मैं अगर लालसा हूँ छोड़ मुझे
मैं अगर रास्ता हूँ मोड़ मुझे.

कविता इन्हीं कठिन प्रतिश्रुतियों से निकलती है. वह प्रतिष्‍ठानबद्ध होकर पहचान नहीं कमा सकती. इस तरह देवी प्रसाद जी कविता के प्रतिष्ठानों को तोड़ने निकले हैं. वे इस बहाने अपनी कविता का वैकल्‍पिक सौंदर्यबोध सामने रखते हैं जो अपने समय की विभीषिका से आंख नहीं चुराती, वह गतानुगतिकता से लोहा लेती है. जैसे मुक्‍तिबोध जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचियों से लोहा ले रहे थे. उसकी कविता का डीएनए पुराने कवियों से मेल नहीं खाता. उसकी काव्‍याभिरुचियों तक पहुंचने की जैसे एक न्‍यूनतम अर्हता हो. बौद्धिकता के इस तानेबाने के बीच देवी प्रसाद का कवि अपनी पोयटिक्‍स के टर्म्‍स ईजाद करता है.

 

10)
कविता का नया गद्य बन रहा है

कविता के हाशिए पर प्रस्तुत एक ग़ज़ल उसकी इस प्रतिश्रुति का सम्‍यक उत्तर है-

जिसमें डेढ़ अरब के दुख हों वैसी सी भाखा गढ़ना है
कथ्‍य रहे पर कला न बचे यह अपराध नहीं करना है

इसे पढ़ते हुए एक कवि के गीत का यह टुकड़ा टकराता है- ‘न गंगाजल न हलाहल न कोई और ही जल हो. किसी लाचार आंसू को हमारे भाल पर लिखना.’ फिर कहता हूँ यह कविता हमारे समय का दस्तावेज ही नहीं, कविता के नए सौंदर्यबोध और शास्‍त्र का मानक भी है. कवि कहता है कि उसे छंद आता है. जैसे निराला को आता है, मुक्‍तिबोध को आता है, अज्ञेय को आता है, सर्वेश्‍वर को आता है, केदारनाथ सिंह को आता है, कुंवर नारायण को आता है, कैलाश वाजपेयी को आता है- पर ये सारे कवि नई कविता के आधुनिक गद्य के पैरोकार कवियों में गिने जाते हैं.

अज्ञेय ने खुल कर कहा था: छंद में मेरी समाई नहीं है. देवी भी कहते हैं- ” छंद आता है लेकिन हिंदी की विपत्ति को अब गद्य ही कह पाता है.”

कविता में गद्य का बोल बाला तो दशकों से है बल्कि साठोत्‍तर समय से ही है. तथापि देवी प्रसाद का ‘वह’ या ‘मैं’  यहां कहता है-

कविता का नया गद्य बन रहा है
और नये सामाजिक सत्य का कोई छोर मिल रहा है

और यह काव्‍य जैसे इस नए गद्य का प्रस्तावना हो. पर इस काव्‍य का कोई एक केंद्रीय कथ्य नहीं है. जो है जो घट रहा है इस शताब्‍दी के साथ, मनुष्‍य के साथ, वह सब यहां पर बेतरतीब ढंग से व्यक्त किया गया है. प्रवाचक जैसे द्रष्‍टा भाव से विचरण कर रहा है और मनुष्य व देश की दुर्गति के साक्ष्‍य बटोर रहा है. तभी तो वह एक जगह लिखता है-

मैं थक गया था       सुस्‍ताने के इरादे से
नयी संसद बनाने के लिए काटे गए
जामुन के पेड़ों के दुख के बीच बैठ गया था
नीले और लाल         कलाकार के साथ

यह प्रेक्षण तब और सांकेतिक और गहरा हो जाता है जब वह पाता है कि

देश का सबसे धनी आदमी देश के
सबसे क्रूर आदमी से मिल रहा था.
परिपार्श्‍व में क्रिकेट मैच चल रहा था-
एक देश बेच रहा था दूसरा उसे ख़रीदने के लिए
ब्रीफकेस खोल रहा था

‘जिधर कुछ नहीं’ का पाठ यद्यपि निराशा हताशा अवसाद और बेचैनियों और अकबकाहटों भरा हो सकता है पर इन्हीं हताशाओं के बीच वह स्त्री मिलती है जो नयी सृष्टि का श्‍वेतपत्र लिखती हुई इस प्रदत्‍त सभ्‍यता को अपने लिए अपर्याप्‍त मानती हुई कहती है,

मैं किसी नहीं अपनी द्रौपदी हूँ
पुरुष के प्रति प्रतिश्रुत सप्‍तपदी नहीं हूँ

तथा पूछती है:

‘क्‍यों मैं सतत अधीन’ और दुख से भर कर कहती है: संसार ने अपनी आत्‍मा खो दी है. जाहिर है कि आधुनिक स्‍त्री को एक वैकल्‍पिक भाषा और वैकल्‍पिक दुनिया चाहिए. एक वैकल्‍पिक मनुष्‍य भी. प्रवाचक या कवि यह भी देख रहा है कि

सरकार और सत्ता के
सतत मरते जाने के शव

दुनिया की पवित्र नदी में बह रहे थे

हिंदू परम सत्य को खोजते खोजते
उत्तर सत्‍य के आश्रमों में घूम रहे थे

कौन कितनों को मार कर आया है
इस बुनियाद पर राष्ट्राध्यक्ष बन रहे थे…

…….

जैसे कोई रेत में फँसे जहाज पर खड़ा हो
हम एक देश के छोर पर खड़े थे
जहां न शुरू होने की उत्तेजना थी
न बीच में होने के असमंजस और न खत्म होने की राहत
उजड़ा हुआ किसान था भारत

जैसा कि लाइब्रेरी का एक संदर्भ इस कविता के परिप्रेक्ष्य में है, एक दिन ‘वह’  पाता है कि लाइब्रेरी में नई किताबें लाई और पुरानी किताबें हटाई और जलाई जा रही हैं. यह एक फासिस्‍ट होते समय की दास्तान है जहां कुछ भी दुनिर्वार नहीं है. कुछ भी असंभाव्‍य नहीं है. जहां असहमति के लिए कोई जगह नहीं रह गयी है न राजनीति में न समाज में. ले दे कर थोड़ी सी जगह बची है अभी कविता में. यह कविता भी एक असहमत प्रवाचक की कविता है. एक ऐसे समय में जब असहिष्णुता हमारे रग-रग में व्याप्त हो गयी हो सत्ता को आलोचना सहने की बिल्कुल आदत न रह गयी हो ऐसे में एक नागरिक भला किसे पुकारे. उत्तर कथन में देवी प्रसाद मिश्र ने कविता की पृष्ठभूमि को खोलने की कोशिश की है. वे यातनाओं का एक चेहरा बुनने की कोशिश करते दिखते हैं. निष्‍कवच और निरुपाय होते मनुष्य की व्यथा कथा का निरूपण करते हुए उसकी बुनियादी स्‍वतंत्रताओं और स्‍त्री के स्वतंत्र व्‍यक्‍तित्‍व की बात उठाते हैं.

जहां तक इस कविता का सवाल है यह अंतर्ध्‍वनियों से बनी कविता है. कई जगहों पर बात अधूरी सी छूट गयी लगती है और कवि को इसमें कुछ भी अपर्याप्त जैसा नहीं लगता तो यह उस शमशेरियत के कारण है जिनकी कविताओं के बीच में तमाम गैप्‍स दीख पड़ते हैं. ये अंतराल अस्‍फुट वार्तालाप की तरह होते हुए भी कविता के भाष्‍य के लिए एक रचनात्मक अवकाश देते हैं. यह कविता कवि की उस आत्मकथा जैसी है जिसमें प्राय: दूसरों की कथा है. यह उस असहमत की आत्मकथा है जो समाज में अन्यों के साथ अन्याय होते हुए देख तिलमिलाता है, बुदबुदाता है और उसके भीतर इस लोकतंत्र और राज्‍य को लेकर बहुत से संदेह जन्‍म लेते हैं. यह उस अन्याय सहती स्त्री के पक्ष में खड़ी दिखती है जिसे प्रेम या विवाह के नाम पर बस पुरुष में रेपिस्‍ट खोज लेने की सुविधा है. ऐसे वातावरण में किसी भी आत्‍मदया में स्‍खलित होने से इनकार करती स्त्री के रुप में चेतना निर्मिति का एक उजाला भी उसे दिखता है. तमाम जैविक, भौतिक या नैतिक मूल्‍यों के ध्‍वंस के बावजूद जब सब कुछ निर्विकल्‍प हो उठता है तब भी होप अगेंस्‍ट होप की तरह एक दिशा दिखाई देती है. क्योंकि भीगे नयनों से प्रलय प्रवाह के बावजूद एक इकाई में यह क्षमता है कि वह सृष्‍टि को फिर से सृजित कर सकता है. कवि की आवाज में दूसरों की आवाज़ और दूसरों की आवाज़ में कवि की आवाज के रुप में हाशिए में दर्ज टिप्पणियां हैं जो अर्थ की निष्पत्ति में इजाफा करती है और हमारी बहुस्तरीय समाज के सोच को मूर्त करती हैं. अकेला कवि पूरे समवाय के हिताहित की सोचता है. एकोहंबहुस्‍याम..

 

11
छंद का लुब्रीकेशन

इस कविता में ध्‍वनियां हैं, रस है, भाव है, रीति है, रणनीति है, विभाव है, आवेग है, संवेग हैं और हर तरह की रीतिबद्धता और जड़ता के विरुद्ध नई रचनात्मक चेष्‍टाओं के उपक्रम हैं. कवि से जिस पोयटिक जस्‍टिस की मांग की जाती है, यह कविता उसका एक अनन्य उदाहरण है. आज की कविता में संगीत विरल होता जा रहा है जैसे घुटनों के संचलन के लिए लुब्रीकेशन का अभाव. कविता के घुटने मजबूत हों इसके लिए देवी प्रसाद संगीत का लुब्रीकेशन बनाए रखते हैं और मुक्‍त छंद के स्‍थापत्‍य में भी छंद की जरूरत को कविता की जरूरत के रूप में इस्तेमाल करते हैं कि शायद इससे सोने में सुहागा हो. वे अंत्‍यनुप्रास से लेकर लय, नाद, अनुनाद, आवृत्ति और थोड़े-थोड़े अंतराल पर अनुभवपगे मुहावरे व सूक्‍त देते चलते हैं जैसा मायकोव्‍स्‍की के यहां, धूमिल के यहां, जगूड़ी के यहां बहुधा दीख पड़ते हैं.

पग पग पर स्‍टाइल मारती उनकी कविता अपने अभेद्य कवच खुद तैयार करती है और ऐसा करते हुए वह किसीप्रकार की रीतिबद्धता को तोड़ती भी चलती है. और कवि तो अपनी शैली से ही जाना जाता है. हो न हो इस अनूठी शैली के आविष्कार के लिए पूरी दुनिया की कविता में देवी प्रसाद मिश्र को याद किया जाए. नयी राहों का अन्वेषण यही तो है. मैं सोच ही रहा कि यह कविता भी एक तरह की भूल भुलैया है और तभी मेरी नजर कवि के उत्‍तरकथन के इस अंश पर पड़ती है जहां वह अपनी कविता को इमामबाड़ा कह रहा है. इसमें प्रवेश तो सरल है पर इसकी बेतरतीबी से बाहर निकलना मुश्किल है जब तक कि कवि की ऊँगली थाम कर बाहर न निकलें. यह कविता एक तरफ प्रवाचक का आलाप है तो दूसरी तरफ लोकतंत्र और इस विराट समय की मीमांसा भी जहां अन्‍याय और पाप के लिए उठे हाथ पुण्‍य और न्‍याय के पथ पर उठने वाले हाथों से ज्‍यादा हैं. एक तरफ नेहरूवियन दौर में ध्वस्त प्रतिमानों वाला और आगे चल कर बीस सूत्री कार्यक्रम की विफलताओं वाला देश, दूसरी तरफ पुननिर्माण के बाद सांप्रदायिक अलोकतांत्रिक और फासीवाद मिजाज वाली सांप्रदायिक गतिविधियां- जिसे देख कर खोते हुए देश का ख्‍याल हो आता है. पूंजी और सत्ता की वासना ने इस देश में भ्रष्‍ट ताकतों को जन्‍म दिया है. कवि इस बात पर चिंता व्‍यक्‍त करता है कि

“दरिद्र भारत को अधिपति राज्‍यसत्‍ता ने शक्‍ति क्रीड़ा की लीलास्‍थली बना दिया. … बैलट बक्‍से चायनीज़ बक्‍से हैं जहां डिब्‍बे के भीतर डिब्‍बा है. तो वो दिया जाता है स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के लिए, पड़ जाता है दरिद्रीकरण, आजादी के अपहरण और घोर विषमता के लिए.”

मैं से वह में परावर्तित होती हुई कवि चेतना समय के मटमैले होते अंत:करण को कटघरे में खड़ा करती चलती है. वह यहां कविपुरखा निराला की ‘मैंने मैं शैली अपनाई’  को याद भी करता है. माना जाता है कि विकल्‍पहीन नहीं है दुनिया. इसलिए एक दूसरे अर्थ में यह कविता उसके ही शब्‍दों में, ” एक वैकल्‍पिक दुनिया के लिए आग्रह करती कविता की वैकल्‍पिक संरचना”  भी बन जाती है. यहां कवि की अतिरंजनाओं का सामना भी करना पड़ता है किन्‍तु कविता की अंतर्वस्‍तु को वैचारिक रसद उपलब्‍ध कराने का काम भी कवि ने बखूबी किया है कि आजाद भारत की विडंबनाओं की एनाटामी हमारे सामने प्रत्‍यक्ष हो उठती है. ‘सब चुप साहित्‍यिक चुप’ वाला वातावरण आज ज्यादा मुखर है. सत्‍य को ट्रोल करने वाली ताकतें बढ़ी हैं, असत्‍य के पक्ष में हजारों हाथ एकजुट होकर प्रोपेगंडा रचते हैं. शायद यही वजह है कि लीलाधर जगूड़ी को आज के समय को देख कर ही कहना पड़ा कि खबर का मुंह विज्ञापन से ढंका है. कविता की जिस एसथेटिक्‍स से होते हुए हम गुजरे हैं हमें यह नवाचार एक भुलावा तो देता हुआ दिखता है पर कहन की हर रूढ़ि को तोड़ कर तथा छंद से किनारा न करने की निरालाई लीक पर चलते हुए देवी प्रसाद मिश्र कविता के लिए एक प्रशस्त मैदान तो चुनते ही हैं.

कविता में लाइब्रेरी एक ऐसा ठीहा है जिसकी स्मृति इलाहाबाद और रीवा की लाइब्रेरियों की स्मृति से टकराती है और यही कविता का एक बौद्धिक लोकेल तय करता है. किसी वार्ता में उन्होंने यह संकेत भी किया है, यही ज्ञान का कार्यस्‍थल है, ज्ञान पाने के बाद विवेक की प्रयोगशाला है, प्रतिरोध की विकसित होती जगह है इसलिए वह वधस्‍थल भी है. जामिया मिलिया में पुलिस का दमन और कविता की लाइब्रेरी में फैला आतंक निश्चय ही तुलनीय है. लेकिन सुना है कि जामिया में पुलिस के उत्‍पीड़न के पहले इस कविता का पाठ लिखा जा चुका था. इस अर्थ में कवि विज़नरी होता है जैसा कि वे हैं. यह कविता अपनी शैली के लिहाज से स्‍वांत: सुखाय लगती है तो अंतर्वस्‍तु के लिहाज से राजनीतिक-सामाजिक व सांस्‍कृतिक भी जो प्रतिरोध की कविता को एक बौद्धिक धरातल देती है. ‘मुझे पहचानना जैसे अवध का आदमी पहचाना जाता है’ या ‘ मेरा पहचान पत्र किसी भी सताए हुए आदमी की जेब में मिल सकता है’ कहने वाले देवी प्रसाद मिश्र को कविता में भी उस नवाचार के लिए पहचाना जाना चाहिए जो उन्होंने डेढ दो दशक पहले कविता के नए स्‍थापत्‍य के लिए संभव किया उस जोखिम के साथ कि वे कविता के रौनकशुदा नक्‍शे से बाहर भी हो सकते थे. किन्‍तु वे आज भी प्रतिरोध की अटूट, अचूक समझ और कविता की एक सगुण इकाई के रूप में हमारे सम्‍मुख हैं.

 

12)
कुछ नया कहने की अप्रमेय झक

इस लंबी कविता की विषयवस्तु जैसा कि इसके लंबे आयाम में उद्घाटित है, वह सब है जो इस वक्त हमारे समय में घट रहा है और जिसे कवि अपनी सयानी आंखों से देख रहा है. कवि न ‘अहा’ और ‘अहो’  की आश्‍वस्‍तिपरकता में जाता है न ‘बालू में गाड़ दो आततायी सरकार को’- की युद्ध मुद्रा में. वह कविता को कविता के नए स्‍थापत्‍य में बरतते हुए नए अर्थ और छवियों का निर्वचन करता है. इसके लिए वह धुर तत्‍सम और धुर रेख्‍ते की शरण में जाता है और वहां से अनेक ऐसे शब्‍द लाता है जो प्रयोग में अत्‍यल्‍प दिखते हैं किन्‍तु कवि को लगता है कि इससे कम में बात बन नहीं सकती. ऐसे जटिल और पेचीदा यथार्थ को बेपर्दा करने के लिए ऐसी ही शब्‍दावली की जरूरत है. वह पाठक पर दया नहीं करना चाहता न सरल हिंदी के पाट को चौड़ा करने की नीयत से निकला है.

यही कवि की स्‍वायत्‍तता है कि कविता को लेकर लाख संप्रेषणीयता पर बहसें उठायी जाती रही हों, कवियों ने अपना सरलीकरण नहीं होने दिया. अज्ञेय ने अपनी कविता का रास्ता नहीं बदला, मुक्‍तिबोध ने नहीं बदला, शमशेर ने नहीं बदला. कवि संप्रेषणीयता के संकटों का समाधान करने नहीं निकले हैं;  वे तो नए अर्थ के उद्भावन की मुहिम में लगे हैं. देवी प्रसाद के पास अवध की भाषा संपदा और उस लोकेल की बारीक समझ है तो हिंदुस्तानी और उर्दू की आमफहम जबान में जो बेहतर कहा जा रहा है, उसका सतत अध्ययन और उपयोग भी वे करते हैं. वे इस कविता में दोहे आजमाते हैं, ग़ज़लें आजमाते हैं, नज्‍़में आजमाते हैं.  ऐसा वे कविता को आसान करने की वजह से नहीं करते, किन्‍तु यह कविता की काया में एक तरह से रस छंद का पुनर्वास है या उसका एक कोना बचाये रखने की कोशिश भी है.

इससे पहले मुझे लगता था कि ज्ञानेन्‍द्रपति ही अमरकोश की शरण में जाते हैं और अपने शब्‍द के सही स्‍थापन्‍न की व्यग्रता से खोज करते और उसे प्रयुक्त करते हैं. लेकिन इस दिशा में देवी प्रसाद भी एक सर्वोत्तम उदाहरण हो सकते हैं जो जटिल से जटिल प्रत्‍यय को कविता के अर्थोत्‍कर्ष के लिए आजमाने से नहीं चूकते.

यह एक रैखिक कविता नहीं है. बहुत कम कवि हैं जो अपनी कविता का रहस्य खोलने के लिए प्रतिश्रुत हों. देवी प्रसाद यह काम उत्तर कथन और भूमिका में करते हैं. वे जब फरमाते हैं कि ‘एक और बोली खोजने का बियाबान था मैं’  तो अपनी भूमिका स्पष्ट कर देते हैं कि प्रदत्त भाषा संस्कारों से मेरी कविता का काम नहीं चलने वाला. वह तमाम ध्रुवांतों में कविता के उद्गम तलाशता हुआ यहां तक पहुंचा है. ”मैं सरल होने की संश्‍लिष्‍टता था”, यह वाक्य तब तक समझ में नहीं आ सकता जब तक कि युद्ध और अहिंसा, विवेक और विग्रह, आधिपत्य और प्रतिकार, संगीत और प्रतिहिंसा, परानुभूति और क्रूरता, लालसा और वैराग्य तथा एकांतिकता और समूह के द्वंद्वात्‍मक रिश्‍ते को न समझ लिया जाए. यह पूरे विश्व के पूंजीवादी चरित्र को पढ़ने का यत्न है. सर्वहारा और नारीवाद के प्रत्‍ययों को सरलता के गर्क में डुबो कर तृप्त का डकार लेने वाली मानसिकता को पढ़ने का यत्न है. अब आप जितने भी होशियार हों लेकिन बिना बिटगेन्‍स्‍टाइन, आविष्‍ट चंद्रापीड, ज़ाबिए दोलां, जोआओ पेड्रो रोड्रिग्‍स, स्‍यूडोलॉजिका फेंटास्‍टिका, जैसी संज्ञाओं  को समझे बिना आप कविता कथा के मर्म को नहीं जान सकते. कैसे समझें कि ”अग्रसरण की हांक देता पश्‍चात्‍पादविचार का ब्‍योपारी”  कहने से कवि का क्‍या आशय है और ”दायराबद्ध तत्‍कालवादी आकुलता की अद्वितीयता”  क्‍या है. लेकिन यही वह कवि है जो भाषा और बोलियों से अपने रिश्ते को उजागर करते हुए तत्‍सम, तद्भव, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के निकट जाता है. वह शायरी के चरम पर आता है तो कहता है-

मैं हक़ीक़ी हक़परस्‍त हक्‍के़मुरुर
कुछ बिगाड़ा कुफ्र ने कुछ फ़िक्र ने

खेल ख़ुदा से और ख़ुदी से खूब रहा
खुद्दारी के परखच्‍चे भी खूब उड़े

नज्‍़म को कुव्‍व्‍त ए पैग़ाम करूँ
बहुत कोने में यहां बैठा हुआ

दु:ख का बयान हिंदी से बेहतर कहीं न हो
हिंदी में लिखने पढ़ने में काफिर के हौसले

मैं अगर लालसा हूँ छोड़ मुझे
मैं अगर रास्ता हूँ मोड़ मुझे

यह कविता का नया मेनीफेस्‍टो है- कुछ नया कहने की अप्रमेय झक. इसलिए यदि एक ही कविता में भारत और विश्‍व के हालात का एक विहंगम जायज़ा लेना हो जहां आधुनिक मनुष्य, संस्कृति, राजनीति और समाज की तमाम व्याधियां, लालसाएं, विकृतियां और सोच की नई निर्मितियां डिकोड की जा सकती हैं तो वह यही कविता है.
____

यह संग्रह यहाँ से प्राप्त किया जा सकता है. 

डॉ.ओम निश्चल हिंदी के सुधी आलोचक, कवि एवं भाषाविद हैं तथा शब्द सक्रिय हैं, मेरा दुख सिरहाने रख दो (कविता संग्रह) शब्दों से गपशप;  कविता के वरिष्ठ नागरिक;  कुंवर नारायण: कविता की सगुण इकाई;  समकालीन हिंदी कविता: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य; कविता में स्‍त्री प्रत्‍यय;  चर्चा की गोलमेज पर अरुण कमल; कवि विवेक जीवन विवेक: कविता का वैचारिक हस्‍तक्षेप(आलोचना);  कैलाश वाजपेयी(विनिबंध) भाषा की खादी(निबंध), खुली हथेली और तुलसीगंध(संस्‍मरण), व कुंवर नारायण पर संपादित कृतियों ‘अन्वय’ एवं ‘अन्विति’ सहित अनेक आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं.

वे हिंदी अकादेमी के युवा कविता पुरस्कार एवं आलोचना के लिए उ.प्र. हिंदी संस्थान के आचार्य रामचंद शुक्ल आलोचना पुरस्कार, जश्ने अदब द्वारा शाने हिंदी खिताब व कोलकाता के विचार मंच द्वारा प्रोफ़ेसर कल्या‍णमल लोढ़ा साहित्य सम्मान,यूको बैंक के अज्ञेय भाषा सेतु सम्मान और माहेश्‍वर तिवारी साहित्‍य साधना सम्‍मान से सम्मानित हो चुके हैं. 

ओम निश्चल
जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली 110059
फोन 9810042770
मेल dromnishchal@gmail.com

Tags: 20222022 समीक्षाओम निश्‍चलजिधर कुछ नहींदेवी प्रसाद मिश्र
ShareTweetSend
Previous Post

अमन त्रिपाठी की कविताएँ

Next Post

नाट्यान्वेषण: आनंद पांडेय

Related Posts

कोई है जो :  सुधांशु गुप्त
समीक्षा

कोई है जो : सुधांशु गुप्त

उन्मुक्तक : देवी प्रसाद मिश्र
कविता

उन्मुक्तक : देवी प्रसाद मिश्र

समय की मलिनताओं को निहारते कुँवर नारायण: ओम निश्‍चल
आलेख

समय की मलिनताओं को निहारते कुँवर नारायण: ओम निश्‍चल

Comments 21

  1. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    3 years ago

    इससे बेहतरीन समीक्षा क्या हो सकती है । देवी प्रसाद जी हमारे समय के योग्यतम कवि हैं । उनके काव्यानुभव हमे हैरान करते हैं ।

    Reply
  2. Hardeep Singh says:
    3 years ago

    ओम निश्चल द्वारा की गई यह समीक्षा जानदार और शानदार है . पाठक को इन कविताओं के पढने की प्रेरणा देने में सक्षम और समर्थ है.

    Reply
  3. Susheel Dwivedi says:
    3 years ago

    ‘जिधर कुछ नहीं’ पर इतनी विस्तृत व तर्कपूर्ण टिप्पणी पढ़ने का यह मेरे लिए पहला अवसर है। कविता जितनी जटिल और विद्वत पाठक की मांग करती है, यह आलोचनात्मक-पाठ उसके साथ न्याय करता है। ओम निश्चल जी ने जिस आलोचनात्मक विवेक को अपनी सर्जना का साधन बनाया है, वह आप्त वचन भर नहीं रह जाता है, बल्कि वह सजग,तार्किक व अर्थान्वेषी पाठक की मनोभूमि तैयार करता है। इसीलिए ‘जिधर कुछ नहीं’ पर वे लिखते हैं तो पाठक बड़ी सहजता से दुनिया भर की लम्बी कविताओं/ महाकविताओं के बरक्श उसके पाठ और भिन्नता को समझ पाता है। ‘जिधर कुछ नहीं’ का विस्तृत अर्थ-संदर्भ और इसकी नवीनता को समझ पाता है। ऐसी कविताएँ पाठकों व समय के लिए कितनी जरूरी हैं, यह ओम निश्चल जी की इस टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है। कवि व आलोचक को हार्दिक बधाई । समालोचना ने इस लेख को पढ़ने का अवसर दिया, उनका भी आभार।

    Reply
  4. Pankaj Tripathi says:
    3 years ago

    जब इस लंबी कविता की किताब आई थी तब शायद ओम जी ने विस्तृत समीक्षा लिखने का वायदा फेसबुक पर किया था। लेख देवी प्रसाद मिश्र के कविता संसार को समझने के लिए महत्वपूर्ण है। देवी अपनी कविताओं में एक ऐसे नए संसार को रचते हैं जो बेशक हमारे आस पास की सूक्ष्म चीजों से ही बना होता है लेकिन उसको देखने लिए देवी की कविताओं का सहारा लेना पड़ता है। इस बात पर ध्यान जाना चाहिए कि देवी की किसी भी कविता को पढ़ने पर कविताओं की समझ अनिवार्य रूप से विकसित होती है। जिस तरह से उनके यहां नए प्रयोग दिखाई देते हैं वो फ़िलहाल तो किसी कवि की स्याही में नहीं हैं। इस समीक्षा को पढ़ने के बाद ओम जी द्वारा लिया गया इंटरव्यू याद आ रहा है जिसमें देवी प्रसाद मिश्र को बहुत गहराई से और व्यापक तरीके से जानने का मौका मिला था। जर्मन रेडियो में रह आए कवि पत्रकार शिव प्रसाद जोशी ने इस इंटरव्यू की तुलना मार्केज के साथ किए गए इंटरव्यू से की थी जो पेरिस रिव्यू में छपा था। शिव का वह लेख पहल में बडी शान से ज्ञान जी ने फालो अप के तौर पर छापा था। ओम जी देवी प्रसाद को लंबे समय से पढ़ते और देखते रहे हैं। इसलिए उनकी कही बातें बहुत प्रामाणिक और Valid दिखती हैं। किसी की कविता और कवि व्यक्तित्व यदि बहुत अच्छा है तो उसे उसी तरह से कहने में क्या हर्ज है ? और केवल इसीलिए इस समीक्षा को एकांगी नहीं मानना चाहिए। बहुत संकोच से यह पूछने का मन हो रहा है :
    क्या हमारी समकालीनता ने अपना सबसे बड़ा कवि पा लिया है ?

    Reply
    • Anonymous says:
      3 years ago

      देवी प्रसाद मिश्र को “मान्यता” का संकट नहीं । उनकी कविता का विन्यास उस स्थिरता को लक्षित करता है जिसे हमने लगातार खोया है । जिंदा रहने के लिए कुछ जरूरी शब्द और हरकतें। जिसे पूंजीवाद लगातार अस्थिर किए हुए है।

      Reply
  5. रवि रंजन says:
    3 years ago

    हिंदी कविता के एक आम पाठक के रूप में कवि देवी प्रसाद मिश्र के कविकर्म से पुराना परिचय रहा है।उनकी ‘जो पीवे नीर नैना का’ कविता की रचनात्मक प्रतिध्वनि समय-समय पर आज भी कानों में गूंजती है।
    जहाँ तक याद है,इस श्रेष्ठ कविता की ओर हिंदी पाठकों और ख़ासकर महाविद्यालयों /विश्वविद्यालयों में हिंदी साहित्य पढ़ने-पढ़नेवालों का ध्यान पहली बार आदरणीय प्रोफेसर नामवर सिंह जी ने ‘आलोचना’ के सम्पादकीय के माध्यम से खींचा था।
    ‘जिधर कुछ नहीं’ कविता संग्रह के लिए मिश्र जी को मुबारकबाद।
    वरिष्ठ कवि-आलोचक ओम निश्चल ने इस संग्रह की सम्यक मीमांसा की है जिसके लिए उन्हें जितना भी धन्यवाद दिया जाए ,वह कम है।उनका यह आलेख पाठक को मूल पुस्तक की ओर उन्मुख करने में समर्थ है और यह अच्छे आलोचनात्मक लेखन की एक बड़ी विशेषता हुआ करती है।
    बावजूद इसके, पूरे आलेख में कविता संग्रह में आए किसी विचलन,किसी कमी का कहीं कोई उल्लेख न किया जाना थोड़ा अखरता है।
    जाहिर है कि इस मुद्दे पर कविता संग्रह से दो-तीन बार गुजरने के बाद ही कुछ कहना संभव है।

    Reply
    • Dr Om Nishchal says:
      3 years ago

      भाई Ravi Ranjan जी, जटिल प्रमेयों का जिक्र तो किया है मैंने। मानता हूं कि कविता आसान होनी चाहिए, पर जब कही जाने वाली बातें सरलता के स्थापत्य में निबटाने योग्य न हों तो इस तरह जटिल कविताओं की नींव रखनी पड़ती है। प्रयोगों का जोखिम उठाने वाले कवि के साथ सदैव यह चुनौती होती है कि पता नहीं इस कविता को नए विचलनों का अनभ्यस्त पाठक किस रूप में ले। वह इस तरह प्रत्याशित विफलताओं और चुनौतियों से खेलता भी है।

      Reply
  6. Mohan Kumar Deheria says:
    3 years ago

    देवी प्रसाद मिश्र हिंदी कविता के सर्वाधिक प्रयोगशील कवि है

    Reply
  7. मुकुल अमलास says:
    3 years ago

    ऐसी बेहतरीन समीक्षा पढ़े अरसा हो गया था। ओम निश्चल जी की लेखनी को सलाम। किसी कवि के कवित्व तथा उसके गुणधर्मों की इतनी सघन जांच पड़ताल सब के बस की बात नहीं, यह माद्दा आप जैसे विरले लोगों में ही होता है। साहित्य जगत से जुड़े होने के कारण देवी प्रसाद मिश्र जी की इस पुस्तक को अब नहीं पढ़ना तो एक अपराध जान पड़ता है, आखिर जिस कवि ने तीस से भी अधिक वर्षों की चुप्पी तोड़ ऐसा झंझावात पैदा किया है तो उससे झंकृत होने से खुद को क्यों रोका जाए, आज ही पुस्तक को मंगवाती हूं।

    Reply
  8. हीरालाल नागर says:
    3 years ago

    कवि देवीप्रसाद मिश्र शुरू से ही कविता के कंटेंट और फार्म को लेकर चौकन्ने रहनेवाले कवि हैं। जिन कविताओं से देवीप्रसाद मिश्र चर्चित रहे हैं उन कविताओं का कंटेंट जबरदस्त रहा। दूसरों से बिलकुल अलग और क्लासिक दिखने के लिए उन्होंने बहुत मेहनत की। शिल्प का भी उन्होंने अनुसंधान किया है। जैसे कि उनकी कुछ छंदबद्ध कविताओं में दिखता है।
    उनकी कविताओं की आलोचना और समीक्षा कम नहीं हुई है। कई सतरों पर उन्हें देखा और परखा है। भाई ओम निश्चल की इस आलोचना से कोई इत्तेफाक नहीं रखता। पहले तो उनकी समीक्षा को समझना होगा कि वह क्या कह रहे हैं, फिर कविता को। रचनाकार पर हावी होनेवाली कोई समीक्षा या आलोचना को पहले पाठक आत्मसात करे फिर रचना को समझे। यह स्थिति हमेशा समीक्षक के अनुकूल नहीं ठहरती।

    हीरालाल नागर

    Reply
  9. Kamlnand Jha says:
    3 years ago

    अत्यंत सुचिन्ति और सुव्यवस्थित आलोचना। कविता के सारे आयाम खुल कर सामने आ गए हैं। काव्य-स्थापत्य पर ओम जी ने गंभीरता से विचार किया है। कवि देवी प्रसाद और आलोचक ओम जी को बहुत बहुत बधाई।

    Reply
  10. Premshankar Shukla says:
    3 years ago

    बहुत बढ़िया समीक्षा, समग्रता बोध के साथ संग्रह पर लिखा गया है। किसी एक कविता संचयन पर इतने विस्तार से और गहरी काव्यदृष्टि के साथ की गई समीक्षा हम सब हिन्दी के विद्यार्थियों के लिए अनूठा उदाहरण है। बेहद गंभीर और सुविचार के साथ विस्तारित समीक्षा। यह संग्रह मैंने पढ़ा है, इतनी अच्छी समीक्षा संग्रह की उत्कृष्टता को उद्घाटित करती है। विद्वान आलोचक आदरणीय ओम निश्चल जी और विशिष्ट कवि देवीप्रसाद मिश्र को खूब बधाइयां। समालोचन के इस सुन्दर प्रयत्न के लिए धन्यवाद और शुभकामनाएं भी।

    Reply
  11. Raphael Farmer says:
    3 years ago

    For the reason that the admin of this site is working, no uncertainty very quickly it will be renowned, due to its quality contents.

    Reply
  12. Ashish K Singh (@filmashish) says:
    3 years ago

    देवी प्रसाद मिश्र की कविताएं दृष्टि, संवेदनशीलता और भाषा-शिल्प तीनों ही आधार पर नए धरातल का अद्भुत अहसास कराती हैं। इस समीक्षा में जिन कविताओं का ज़िक्र है वैसी कविताओं को पढ़ना-देखना हिंदी कविता में एक सुखद अहसास है। देवी जी की एकाकी साधक वाली रचनाशीलता को सलाम।

    Reply
  13. दिनेश कुमार शुक्ल says:
    3 years ago

    देवीप्रसाद मिश्र की यह कविताएं बिल्कुल नये रास्ते खोलती हैं । नये धरातल की कविताएं हैं। इन कविताओं को पढ़कर कुछ नया महसूस कर रहा हूं। बहुत बहुत बधाई कवि को। कवि समीक्षक ओम जी को भी बहुत बधाई।

    Reply
  14. प्रभात मिलिंद says:
    3 years ago

    ओम निश्चल जी की समीक्षाओं का अपना एक भिन्न पाठकीय रस है, जो सामान्यतया हमें एक अच्छी मौलिक रचना को पढ़ने सा स्वाद देता है। आलोचना के शास्त्रीय और परंपरागत निषेधों से पृथक रचनाओं और रचना-कर्म के सकारात्मक पक्षों के उदारतापूर्ण प्रकटन के कारण उनकी व्याख्याएँ मुझे समीक्षात्मक आलेख होने के अधिक निकट लगती हैं। विषय-केंद्रित गहनता और अपनी वस्तुनिष्ठता के बावजूद ओम जी के पठनीय और रोचक होने का एक कारण यह भी है।

    इस आलेख में भी देवी प्रसाद मिश्र जी के दूसरे कविता संग्रह के परिप्रेक्ष्य में उनके कविकर्म की जैसी सूक्ष्म और विशद विवेचना ओम जी ने की है, वह कविता के आधारभूत अंतर्तत्वों के बारे में उनकी विस्मित कर देने वाली समझ का प्रमाण है। जब वे किसी कवि के प्रति अपने किसी आलेख में प्रशंसा-भावों से भरे दिखते हैं, तो उस आलेख में अपनी उक्त स्थापनाओं को बिंदुवार प्रमाणित भी करते चलते हैं।

    देवी प्रसाद मिश्र जी हमारे समय के एक अप्रतिम कवि हैं। देश और काल के संदर्भ में उनकी दृष्टि-व्याप्ति, और रचनाकर्म में उस दृष्टि का अधिकतम प्रासंगिक और प्रभावी उपयोग उन्हें और उनकी कविताओं को विशिष्ट बनाता है। जिन कवितांशों को इस आलेख में उद्धृत किया गया है, वे समकाल के नागरिक-कवि की चिंताओं का पता देती है।

    सचमुच बहुत सुंदर और सारगर्भित विश्लेषण, जो पाठकों को इन कविताओं की अपरिहार्यता के बारे में भी बतलाता है। बहुत आभार भाई अरुण देव जी।

    Reply
  15. Madhu Shukla says:
    3 years ago

    पूरी समीक्षा पढ़ ली है, बहुत अच्छी और स्तरीय समीक्षा है। शीषर्क से लेकर अंतिम पंक्तियों तक प्रभावित किया।
    आप के शीर्षक तो हमेशा ही विशिष्ट और गूढ़ अर्थ से भरे होते हैं।
    आ देवी प्रसाद मिश्र बड़े कवि हैं।
    आप ने अपनी समीक्षा के माध्यम से उनकी कविताओं को नया अर्थ बोध प्रदान किया है।
    वर्तमान समीक्षा के स्वरूप और शैली को जानना ,समझना हो तो आपकी यह समीक्षा पढ़नी चाहिए।
    बहुत-बहुत बधाई सर!🙏

    Reply
  16. yogesh says:
    3 years ago

    इस समीक्षा की भाषा एक बार के लिए चमत्कारिक रूप से आकर्षण तो पैदा करती है लेकिन धीरे धीरे वह आकर्षण ऊब में बदलने लगता है. लगता है लेख को समझने के लिए फिर किसी समीक्षा की जरूरत होगी. या तो यह लेख केवल हिंदी शब्दों के किसी ज्ञानी के लिए लिखा गया है या फिर मैं ही हिंदी शब्दों से अनजान हूँ, आखिर इतनी अच्छी समीक्षा की भाषा क्यूँ आसान नहीं हो सकती ? शायद इसी वजह से मैनेजर पाण्डेय कहते हैं कि ‘हिंदी कभी ज्ञान की भाषा नहीं बन पाई.’ क्योंकि जब भी कोई अच्छी बात कही जाती है उसके लिए मुश्किल शब्द खोजने की कवायद पहले शुरू हो जाती है.

    Reply
  17. Sandhya kulkarni says:
    3 years ago

    इसे बार-बार पढ़ना होगा , इतना सुन्दर लिखा है , हर बार नए अर्थ खुलते हैं ।

    Reply
  18. Dr Hare Ram Pathak says:
    2 years ago

    देवि प्रसाद मिश्र एक सधे हुए कवि के रूप में ख्यात हैं। उनकी कविताओं पर निष्पक्ष रूप से कुछ लिखना जोख़िम भरा तो नहीं, पर सीधी लीक पर चलते चले जाने में अचानक गड्ढे का आ जाना और उसमें गिरते – गिरते बचने की कोशिश करना जैसी अवस्था कई बार होती है। देवी प्रसाद मिश्र की कविताएं अपनी ओर आकर्षित करने की चमत्कारी चाल चलती हुई काव्य जगत में प्रवेश हुई थीं। चिंतन का विकास उनमें ज्यों- ज्यों होता गया उनकी कविताओं के फलक व्यापक होते गए।
    ओम निश्चल जी की बहुकोणीय समीक्षा- दृष्टि इस आलेख में सहज ही देखी जा सकती है। कवि चाहे कोई भी हो हो जब ओम जी की कलम चलती है तो उनका ध्यान हमेशा उस हीरे के टुकड़े पर होता है जिसकी आभा अंधेरे में राह दिखाती है, अपनी चमक की ओर जौहरी का ध्यान भी खिंचती है। काव्य में वर्तमान मूल्य- बोध का अभिज्ञान करना ओम निश्चल जी की पहली प्राथमिकता होती है। मैंने कई जगह देखा है, ओम निश्चल जी जब समीक्षा लिखते हैं तो उनके सामने कवि नहीं, कविता होती है।
    प्रस्तुत समीक्षा में देवी प्रसाद मिश्र की कविताओं के समाकलन के साथ- साथ तत्कालीन परिवेश से निकली कविता की ताक़त को उन्होंने बखूबी चित्रित किया है। राजनीति के बाहर होते हुए भी देवी प्रसाद मिश्र की कविताएं जबरदस्त विपक्ष की भूमिका निभाती रही है। ऐसा करते वक्त कहीं कहीं वे वैचारिक कट्टरता के शिकार दिखाई देते हैं। विवेक शून्यता के तट पर सुदूर एकांत में खड़े और अपनी प्रतिबद्धता पर अड़े, एक शुष्क कवि की छवि की मुहर उन पर चस्पां हो चुकी है। पर यह सब है काव्य प्रतिभा की बाहरी परतें। ओम निश्चल जी उनके काव्य की भीतरी परतों को खोलते हैं और जहां जैसा पाते हैं उसकी बारीकियों पर जमकर लिखते हैं।
    प्रस्तुत आलेख देवी प्रसाद मिश्र की व्यापक काव्य प्रतिभा का अनुशीलन करता है एवं अन्य समकालीन कवियों के बीच कवि मिश्र की जगह निर्धारित करता है।

    Reply
  19. Dr.Rekha Singh says:
    2 years ago

    “जिधर कुछ नहीं ” मात्र कविता नहीं अपितु सम्पूर्ण युग की झलक दिखाता आईना है और डॉ.निश्चल द्वारा की गई समालोचना उस युग को प्रकाशित करने वाली रोशनी की लौ है।

    जितनी गूढ़ कविता है वैसी ही गहन समालोचना…..कवि एवं समालोचक दोनों को बहुत -बहुत बधाई एवं अनंत शुभकामनाएं…..💐💐🙏🙏

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक