मैं कारावाज्यो हूँ
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मैं पंचमकार से पूरित कलाकार हूँ. कला का तांत्रिक हूँ.
चित्र मेरे तंत्र हैं. मेरी सिद्धि हैं. मैं माल्टा में हूँ, सिसली में और नेपल्स में हूँ. रोम में हूँ और तुम्हारे शहर में हूँ. मैं संसार में हर जगह हूँ, हर युग में हूँ. मैं कठिनता का आसान चित्रकार हूँ. और सरल दिखता कठिन मनुष्य. यह कैनवस पर ब्रश के चलने की खरखराहट है. सरसराहट भी. मेरी तरह कौन रच सकता है. मेरी तरह कौन जी सकता है? कौन मेरी तरह द्वंद्व करेगा. मेरी तरह कौन कर सकता है अपराध. कौन है जो मेरी तरह प्रेम करेगा. भला कौन कर सकता है मेरे जैसा प्रायश्चित? मैं अपना कटा हुआ सिर हाथ में लेकर पेश हूँ. मैं ख़ून को रंग में बदल देता हूँ और रंग को ख़ून में. मैं रंगों का स्वामी हूँ लेकिन उनकी नागरिकता में रहता हूँ. उनकी अधीनता में रहकर उन्हें अधीन बनाता हुआ. मैं सत्रहवीं शताब्दी में कला का पूर्वार्द्ध हूँ. और उपरांत कला सभ्यता का उत्तरार्द्ध.
मैं इतालवी, मिकेलेंजलो कारावाज्ज्यो हूँ.
यह मेरा अंत है. मैं ऐसी मैराथन दौड़ रहा हूँ, जिसकी कोई राह नहीं. कोई दूरी निश्चित नहीं. कोई समय सीमा तय नहीं. थमकर साँस लेने का अवकाश नहीं. मेरा कोई मित्र नहीं. जो मित्र थे, मैं उन्हें ख़त्म कर चुका हूँ. बाक़ी किसी को मैंने अपना मित्र रहने नहीं दिया. मैं किसी को नहीं बख़्शता. शत्रुओं की तो बात ही क्या. उनकी बिसात ही क्या. लेकिन अब देखो, नीले समुद्र के हहराते किनारे-किनारे, तप्त सूर्य के नीचे, ऋतुओं के तने हुए खुले आसमान तले मैं भाग रहा हूँ. अपने जीवन का नमक, अपनी सुबहों की, रातों की ओस और बारिश को उँगलियों के पोरों से, आँखों की कोरों से टपकाता हुआ दौड़ रहा हूँ. पठार पर नहीं, पत्थरों पर नहीं, घास और बर्फ़ पर नहीं, मैं रेत पर दौड़ता धावक हूँ. मुझे केवल मछुआरे बचाएँगे. उनकी पतवारें मेरी अचेत देह को पार लगाएँगी. उनका आलिंगन शायद मुझे मृत्यु के बाहुपाश से विलग कर देगा. मेरी देह का कौन सा दृश्य-अदृश्य अंग है जो घावों से नहीं भरा है. कौन सा कोना है जहाँ से इतना रक्त नहीं रिस रहा हो कि पूरा तसला न भरा जा सके. मैं कलाक्षेत्र में रहता हुआ जीवन का सैनिक हूँ. व्रणों से सुशोभित.
मैं कारावाज्यो हूँ.
(दो)
यह मेरा बचपन है जो निशीथ के आकाश के सितारों में ही अपने चमकते हीरों को देखकर बहलता रहा है. वही निधि, वही संतोष. अमीर अपने हीरे-जवाहरातों को तिजोरियों में रखते हैं, ग़रीब उन्हें अपने रात के आसमान में बिखेर देते हैं कि सब उन्हें देख सकें. उनकी छाँह में बेफ़िक्र सो सकें और अरमानों के सपने देखें. अंत समय सबको अपना व्यतीत याद आता है. सुदूर का समय. आदि समय. बचपन. मुझे अकेलेपन का, विस्थापन, अवसादी जीवन का शाप मिला. मगर मेरे पास मेरा ब्रश था. मुझे प्रकृति से रंग बनाने आते थे. उन्हें मैं मनचाहे तरीक़े से लगा सकता था कि वे सार्थक होकर मुझे संपन्न कर दें. और मैं सपने देख सकता था. मेरे पास हमेशा एक चाकू था. मैं निर्भय था.
एक चित्रकार को और क्या चाहिए?
कुछ आवाज़ें जैसे दुर्लभ धातुओं के पात्रों की तलहटी से टकराकर, बिलखकर गूँजती हैं. ये आवाज़ें स्त्रियों की हैं. यह ममत्व की पुकार है. यह दादी की. यह पिता की. और ये प्रेमिकाओं की आवाज़ें हैं. इनकी गूँज अनुगूँजों में मिल गई है. यह पहाड़ की पुकार है. यह पानी की. यह रोशन रात की. यह सुबह की. यह छूट गईं जगहों की. यह रंगों और कैनवस की पुकार है. अँधेरा घिर रहा है. यह घिरते अँधेरे की आवाज़ है. इनसे घिरा हुआ मैं कारावाज्यो हूँ.
मैं ख़ुद का बनाया वानस्पतिक मुकुट पहनता हूँ. यह कला का किरीट है. मुझे कोई राजा नहीं चुनता, मैं अपनी प्रजा चुनता हूँ. चुनी हुई प्रजा मेरी कला दर्शक दीर्घा में बैठती है. मैं अपने संसार का निर्माता हूँ. किसी और के बनाये संसार को ध्वस्त कर देता हूँ. मैं ईश्वर को मदिरा में घोलकर पीता हूँ और उसे अपनी देह में, अपने हृदय में जगह देता हूँ. मैं जिस देवता को, जिस आदमी को पसंद करता हूँ, उसे चित्रित कर देता हूँ. फिर उसी का रूपाकार हो जाता हूँ. मैं अतिरेकी हूँ इसलिए आनंदातिरेकी भी हूँ. मेरी दृढ़ता, मेरी प्रतिबद्ध अराजकता और मेरा अनिश्चित चरित्र ही मेरा भाग्य है. कलाकर्म का उत्स है. उसे मैं ही रोज़ाना सुबह उठकर तय करता हूँ. मैं जीवन में सब कुछ चुनता हूँ जैसे अपने चित्रों के लिए रंगों को चुनता हूँ. मैं सत्य का उद्घाटन करता हूँ. तुम्हारी सीमाएँ हैं. मैं असीम हूँ. वह सत्य तुमको तब तक ठीक से नहीं दिखता जब तक मैं उसे अपनी कला के रंग में रंग नहीं देता. फिर तुम कहते हो कि कला ही सत्य है. एक साथ कला का और जीवन का सत्य. मैं सत्य को कला बना देता हूँ. मैं कारावाज्यो हूँ.
कोई आशा नहीं. कोई भय नहीं. यह मेरा जीवन दर्शन है. चाकू मेरा साथी है. यदि मेरा काम आपको पसंद है और मुझ में प्रतिभा की कणिका दिखती है तो अनुमति दो कि मैं चाकू अपने साथ रख सकूँ. यह मेरा एक दूसरा अनिवार्य ब्रश है. एक दूसरा उपकरण. इसे गुरुकुल में रखने की इजाज़त देना ही मेरी कला का मूल्य है. मुझे सिखाओ. मैं श्रमशील हूँ. लेकिन चाकू को मेरे साथ रहने दो. मैं जिसे प्रेम करता हूँ, उसका चित्र बनाता हूँ और लिख देता हूँ कि तुम जानती हो कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ. यह संभव नहीं कि जिसे मैं प्रेम करूँ, वह मेरे प्रेम से अनभिज्ञ रह सके. मेरी अभिव्यक्ति चाकू की धार की तरह है. मैं चाकू की धार उँगलियों से तेज़ करता हूँ. उस धार को अपने दाँतों से परखता हूँ. मैं अपने नसों की सान पर धार को तीक्ष्ण करता हूँ. ऐसा ही मैं अपने ब्रश के साथ करता हूँ. मेरे लिए कुछ भी असंभव नहीं. मैंने यही जाना है. यही सीखा है. यही कंठस्थ है. प्रिय फादर, मुझ मिकेलेंजलो को मिकेल कहने के लिए तुम्हें मेरा संरक्षक होना होगा. मेरा सरपरस्त. मेरा क़ुतुबनुमा. यह मेरी अराजकता को सर्जनात्मक दिशा देगा. कला में भी. जीवन में भी.
मैं पुराना सत्य नयी भाषा में कहता हूँ. चुनौती रख देता हूँ कि कलाएँ जीवन के पुराने सत्य को किसी नयी भाषा में कहें. नये संयोजनों में और नये स्वरों में. सरल. साफ़. यही सबसे ज़्यादा मुश्किल है. जब उड़ते धूल कणों पर रोशनी गिरती है तो वे चमकते हैं. कला की रोशनी वैसी ही होती है. जब भी कोई कला में सत्य को कहेगा तो वह एक रोशनी होगी. जिसमें अप्रकाशित सूक्ष्म चीज़ें प्रकाशित हो जाएँगी और कलाविहीन लोग भयभीत हो जाएँगें. मेरे चित्र यदि किसी ने नहीं देखे हैं तो वह कला का दर्शक नहीं. मैं तार्किक आत्ममुग्ध हूँ. नार्सीसिस्ट. इस शीर्षक का मेरा चित्र देखो. मैं कला हूँ और कलाविज्ञान भी. मैं पर्वतों से ऊँचा हूँ. और रसातल से गहरा. मैं सुख में, दुख में एक जैसी तीव्र गति से घूर्णन करता हूँ. मैं कारावाज्यो हूँ.
(तीन)
मेरी कहानी विशृंखल है लेकिन जो यहाँ कह रहा हूँ, मेरा मृत्युकालिक कथन है. यह बुदबुदाहट है. बड़बड़ाहट है. यह अव्यवस्थित है. मगर मेरा बयान है. इससे अधिक विश्वसनीय कोई और आत्मकथा नहीं हो सकती. असंभव अप्रत्याशित मेरा साध्य है. वही लक्ष्य. वही प्राप्य. आवरणविहीनता मेरी प्रियता है. मेरे लिए सुंदरता वही जो विवस्त्र होकर सुंदर हो. सौंदर्य को ढँकना अपराध है. मैं सुंदर को उसकी प्राकृतिकता में चित्रित करना चाहता हूँ. माँसपेशियों के प्रस्तर कंगूरों, घाटियों, मैदानों और कोमल उभारों के साथ. हड्डियों और संधियों के तिकोनों, वृत्तों और उनकी चाप के साथ. उन कोणों और त्रिज्याओं को जो देह को अप्रतिम बनाते हैं. चित्रकारी एक व्यग्रता है. कामना है, वासना है. दर्शन है, दुर्जेय आकांक्षा है और सच्चे कलाकार के लिए आपदा. (मैं व्यायामशाला में भी बैठकर चित्र बनाना चुन सकता हूँ.) मैं स्त्री देह की सुंदरता में आस्था रखता हूँ, उतनी ही पुरुष देह के सौंदर्य में. मैं लिंगभेद से परे सौंदर्य का उपासक हूँ. दुनिया इसे ठीक तरह समझ नहीं सकती. सुंदरता का कोई विभाजनकारी वर्गीकरण नहीं हो सकता. औसत बुद्धि खुले सौंदर्य के खिलाफ हो जाती है. लेकिन कलाकार को तो सुंदरता के साथ एकाकार होना होता है. और उसका अंश भी. मैं कला उपासक हूँ. मुझसे ज्यादा इसे कौन समझेगा. मैं कला और जीवन का सहभोक्ता हूँ. सह अपराधी हूँ.
मैं कारावाज्यो हूँ.
मैं कलागत संदेह और अनिश्चितता में विश्वास करता हूँ. उन गतियों में जो रेखागणित से बाहर हैं. उन अंकों, उन चिह्नों में जो अंकगणित और बीजगणित से निष्कासित हैं. उस कीमियागरी में जो रसायन विज्ञान का उपहास करती है. उस भौतिकी में जो भौतिकशास्त्र में नहीं है. उन लिपियों में जो आविष्कृत नहीं हुई हैं. उन व्यग्र लहरों में जो अँधेरों में उठती हैं, दिखती नहीं हैं लेकिन उनका आलोड़न, क्रोध, असहायता, ताक़त और छाती पछीटना दिखता है. उनकी आवाज़ से परे. आवाज़ों के अलावा. आवाज़ों को चीरकर. उन्हें सहन करने के लिए कोई अन्य आलंबन नहीं जबकि सारे ईश्वर बीमारियों में बदल चुके हैं. उनके और रोगों के नाम समान हो गए हैं. सिवाय निर्धनता को छोड़कर. विडंबना है कि विचार के पास समुचित बिंब नहीं रह गए हैं. हृदयस्पर्शी रूपक और प्रतीक नहीं. कोई विचलनकारी आकृति नहीं. कला के आकार में समाहित अनेकानेक निराकार हैं. अब मैं एक दुनियावी मतिभ्रम में और यथार्थ के कुँजों में रह सकता हूँ और एक स्वप्न में. और कला में.
संदेह, तुम चिरंजीवी रहो. उसी में कला की अमरता है. अनिश्चितता तुम चिरायु होओ. इसी में कला की अनश्वरता है. ये वे संदेह और अनिश्चितताएँ हैं जो किसी वायवीयता, आध्यात्मिकता और निराश आस्थाओं से नहीं बल्कि जीवन की संभाव्यताओं, कार्य-कारणों और संवगों से जन्म लेती हैं. सामाजिकता के लघुत्तम महत्तम समापवर्तकों से प्रसूत होती हैं. ये सर्जना के लिए अंतर्दृष्टियाँ हैं. इसलिए मेरी कला की ज़रूरत है कि मुझे जीवित छायाएँ चाहिए. जीवंत देह के प्रारूप. धड़कते हुए. धधकते. ज्वलंत और श्लथ. श्रमजन्य सीकर से सज्जित. योद्धा और वीर. विजेता और पराजित. प्रेम, वितृष्णा और आत्ममुग्धता के प्रतीक. सच्चे लगनेवाले मिथक. मुझे सब कुछ इस जीवन में से चाहिए.
मैं जिससे प्रेम करता हूँ, उसका घातक वार सह सकता हूँ. मेरे लिए सब कुछ जीवन के अधीन है. कलानुभव भी जीवनानुभव है. पूर्वकथनों और आगामी कथनों से इसका कोई अंतर्विरोध नहीं. सूर्य की घड़ी उतनी ही पुरानी है जितना ख़ुद समय. यही कला के बारे में सच है. समय कला है. और कला भी एक समय है. दोनों पर एक-दूसरे के निशान हैं. दोनों एक साथ यात्रा करते हैं मगर एक-दूजे की प्रतीक्षा में थमे नहीं रहते. ये चलायमान ग्रहों या अविचलित तारों का लिहाज़ नहीं करते. मेरी कला भी किसी का लिहाज़ नहीं करती. पवित्र प्रेम का और अपवित्र प्रेम का भी. सबका स्वागत है. अपवित्रताएँ अधिक मूल्यवान हैं. अगर पवित्रता आलोच्य नहीं तो वह भयानक अपवित्रता है. यही मैं कला के बारे में कहता हूँ. मैं कारावाज्यो हूँ.
(चार)
मैं अपने समय का उदास परावर्तन हूँ. काँपता. झिलमिलाता. समकाल के समस्त रसायनों, सारे गरल को कला में जगह देता हूँ. वर्जित को प्रतिष्ठित करता हूँ. हर पीड़ा, वासना और नैराश्य को, हर मिथक को रंग समुच्चय में बदलता हुआ. निषिद्ध को स्वीकृत बनाता. जैसे बचपन की उन आवाज़ों, उन वास्तविकताओं को भी जो कलाकर्म के दौरान संगरमरमर की किरचों की तरह उचटकर चेहरे से टकराती रहीं. मैं फिर कहता हूँ तुम अपने बाहरी शृंगार और ऊपरी वस्तुओं को देह से अलग कर दो. शैया में निर्वसनित देह सबसे अधिक सुगंधित और सुंदर है. अब वह अधिक सभ्य है. उस पर गिरा हुआ सभ्यता का आवरण हट गया है, वह अनावृत नहीं है, प्राकृतिक है. मनोरम है.
प्रिय, फिलहाल किसी सुरा, किसी मदव्य की ज़रूरत नहीं, अधरामृत प्रचुर है. तुम्हारे केश मुलायम लंबी घास की तरह, फूले काँस के रेशों की तरह मेरे श्वास-प्रश्वास की हवाओं में लहराते हैं. उनमें तरंगे उठती हैं. उनका अपना ज्वार-भाटा का संस्करण है. मैं तुम्हारे रक्त की रफ़्तार को अपनी रोमावली से माप सकता हूँ. मेरा हृदय अपनी गति में दो सीढि़याँ एक साथ चढ़ रहा है. एक सीढ़ी छोड़कर. कभी एक सीढ़ी पीछे. चिकित्सक इसे बीमारी बता सकते हैं लेकिन यह उपलब्धि है. प्रेम की नियति है. मैं विस्मृति के जल में डूब रहा हूँ. मेरा जीवन तुम्हारे उलझे केश सुलझाने में सार्थक हो रहा है. तुम्हारा जीवन बचाने का यह निष्फल यत्न है. तुम कइयों का शामिल प्रेम हो. मेरे कई रक़ीब हैं. वे मेरे मित्र हैं और शत्रु भी. लेकिन मेरी प्रिया, तुम गणिका नहीं, मेरा प्यार हो. मैं विवश देखता हूँ कि तुम मृत्यु की तरफ़ जा रही हो. तमाम दैवीय आश्वासनों को असत्य करती हुईं कि अब संसार में कोई दुख नहीं होगा. मृत्यु नहीं होगी. पीड़ा नहीं होगी और आँसू नहीं होंगे- ये सारे वचन मिथ्या हैं. मैं अपनी असमर्थता में भी तुम्हें बचाना चाहता हूँ. मैं तुम्हारे सिरहाने बैठा हूँ. मेरे वश में यही है. अब अवश मैं रंगों के पास जाता हूँ. तुम्हें कला में सुरक्षित करता हूँ. रंगों में संरक्षित. मैं फिर अकेला होता हूँ. असंख्य अनुगूँजों से आप्लावित चुप्पी को अपना आवास बनाता हूँ. अंधकार और उजास भरे आकाश के नीचे हर बार अकेला हूँ. मगर पर्याप्त हूँ. तुम निस्पंद हो, मैं तुम्हें चित्रों में स्पंदित करता हूँ. हर झूठ पर, हर सच पर, हर हँसी, हर जख़्म पर अपनी कूची चलाता हूँ. मैं प्रदत्त जीवन का प्रतिवाद करता हूँ. उसे अपने रंगों से शब्द देता हूँ. चित्रों से ही प्रस्ताव करता हूँ. तुम हँस सकते हो. इसी से आगे एक दिन तय होगा कि कूची बदलाव कर सकती है. अब मैं क्षमायाचना करता हूँ. और विदा लेता हूँ.
मैं कारावाज्यो.
अपने इसी जीवन को
एक और तरीक़े से आपके समक्ष करता हूँ
(पाँच)
मैं मुसीबतों के लिए अजनबी नहीं हूँ. मुसीबतें भी मुझे ठीक तरह से पहचानती हैं. हमारी मुलाकातें बार-बार होती हैं. मैं ख़ुद भी उनका निर्माता हूँ. जैसे चित्र बनाता हूँ, उसी तरह जीवन के कैनवस पर मुसीबतों की रचना कर देता हूँ. कुछ जाने, कुछ अनजाने. मैं क़ानून के, नियमों के उल्लंघन का आदी हूँ. मैं असीम स्वतंत्रता में विश्वास करता हूँ. कई जन इसे अराजकता भी कहते हैं. लेकिन इस बार मामला ज़्यादा गंभीर हो गया है. मैं हत्या करके भाग रहा हूँ. मेरे सिर पर इनाम है. जीवित या मृत. आपको दोनों स्थितियों में पुरस्कार मिलेगा. अब मेरे पास एक ही उपाय है. मैं एक ही उपाय जानता हूँ. मुझे यही सूझ पड़ता है कि ऐसा चित्र बनाऊँ जिसमें मैं नायक नहीं, दंड प्राप्त कर चुका अपराधी हूँ. एक देवता के हाथ में मेरा कटा हुआ सिर है. यह मिथक है लेकिन इसे मैं यहाँ अपने वर्तमान जीवन में प्रमाणित करता हूँ. दर्शाना चाहता हूँ कि वह असुर इतिहास में दण्डित हुआ होगा, आज के इस चित्र में तो मैं खलनायक हूँ. मैंने अपना कटा हुआ सिर पेश कर दिया है. यही मेरा माफ़ीनामा है. उस भाषा में, जो मुझे आती है. मैं अपनी पेंटिंग में स्वीकार करता हूँ कि मैं जीनियस हो सकता हूँ मगर नायक नहीं. मैंने जुर्म किया है. मुझे क्षमादान दो. यह माफ़ी दो. मुझे मार दोगे तो मेरे साथ मेरे आगामी सारे कलावर्ष, एक कलासमय भी मार दोगे. इस तरह मैं एक द्वैत, एक विमर्श रख रहा हूँ कि क्या श्रेष्ठ कलाकार को अपराध करने पर कोई छूट, कोई रियायत दी जा सकती है?
यह अभी-अभी की तो बात है जब एक प्रकार के धार्मिक विश्वासियों ने पूजा घरों, प्रार्थना स्थलों में बने पुराण कथाओं के चित्र मिटाए. इन पृथक धार्मिक विश्वासों ने, पंथों ने जितनी किताबें, कलाकृतियाँ, चित्र और मनुष्य जलाए हैं या उन्हें समूल नष्ट किया है, संसार में उतना अन्य किसी ने नहीं. फिर एक दूसरे पंथ का वर्चस्व लौटकर आता है, वह कहता है कि हमारे धर्म, उसकी गौरवमयी, चमत्कारी कथाओं को निरक्षर जनता चित्रों और चित्र शृंखला के माध्यम से ही समझ सकती है. उनके लिए ये चित्र, ये म्युरल ही पुस्तकों का काम करते हैं. ये पेंटिंग वस्तुत: धार्मिक कथाओं की प्रचार सामग्री हैं. हमारे धर्म के लिए साधन हैं. उपकरण हैं. प्रमुख सहायक हैं. यहाँ एक और विमर्श पेश है कि धर्म की निगाह में कला क्या है? सिर्फ़ प्रचार सामग्री. या महज औज़ार. या अचूक हथियार?
मैं इन सबका शिकार और लाभार्थी हूँ.
रोम के उस हिस्से में पला बड़ा हूँ जो भिखारियों, पादरियों, लुटेरों, गुण्डों, जुआरियों, शिल्पकारों, जालसाज़ों, चित्रकारों और वेश्याओं से भरपूर था. शराब के लिए, नाना प्रकार के खाद्य पदार्थों के लिए विख्यात. वहाँ सबका एक ही दर्शन था: ऋण लेकर घी पिओ. और सुख से जियो. ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत. मेरी ऐसी ही संगत थी. यही प्रशिक्षण और प्रचलन. विचार करोगे तो पाओेगे यही दर्शन विगत में था, आज है और यही चलता रहेगा. मगर मेरे लिए एक अतिरिक्त आफ़त यह थी कि मेरी रुचि चित्रकला में थी. दीवानगी को अतिक्रमित करती हुई. पिछली तमाम चित्रकला के उद्देश्य और आकांक्षा से अलग. मैं रहस्यात्मक और कल्पित देवताओं के चिकने-चुपड़े चेहरों में नहीं, मेरे सामने मौज़ूद ज़िंदा लोगों में विश्वास करता था. मेरी कला का यही विपक्ष और प्रस्थान बिंदु था. एक तरह से आगमन. ‘मैं जो देख सकता हूँ, वही बना सकता हूँ.’ जो नहीं देखा उसे भी वैसे ही बनाऊँगा जैसा जीवन में देख सकता हूँ. इसलिए मेरे स्टूडियो में, कलाकक्ष में आम रहवासियों का, दुखी, विपन्न, बदनाम लोगों का प्रवेश हुआ. वे मेरे लिए मॉडल बने. मैं निखरे हुए चेहरों में नहीं, ज़िंदगी से सताये और संघर्षशील प्रारूपों में, मुखाकृतियों में, देहयष्टियों में भरोसा करता हूँ. यही मेरा ध्वंस है और यही पुनर्जागरण में एक और जागरण. जान गया हूँ कि कला में अभिजात का उल्लंघन ही सच्चा हस्तक्षेप और नवजागगरण हो सकता है.
मैं पौराणिक कथाओं के चेहरों को नया कर दूँगा. मिथकीय चरित्रों, पात्रों को आसपास के लोगों की तरह बना दूँगा. उनमें रहस्य नहीं, अलौकिक आभा नहीं, जीवन की हलचल भर दूँगा. ईर्ष्या, दुख, हिंसा, प्रेम, करुणा, लालसा को लौकिक बनाऊँगा. बस, मुझ में एक ही कमी है: मुझे कोई भी काम परंपरागत ढंग से करना नहीं आता. लेकिन मैं यह जानता हूँ कि देवता भी बीमार हो सकते हैं. पीड़ित और चिंतित. कमज़ोर और हरे. उनमें ज्वर उपरांत की रक्ताल्पता हो सकती है. उनकी त्वचा पर चकत्ते और पीलापन मुमकिन है. उनके नाखूनों में मैल जमा हो सकता है. उनकी आँखें बता सकती हैं कि वे भी अनिद्रा के शिकार हैं. कोई भी आदमी, भले ही वह देवता की तरह प्रतिष्ठ क्यों न हो, हर समय पूर्ण स्वस्थ, प्रसन्न और तरोताज़ा कैसे रह सकता है. मैं चित्रकार हूँ, कारावाज्यो हूँ. मैं सबकी तकलीफ़ समझ सकता हूँ, पैगम्बरों की, ईश्वरों की, देवताओं की भी. आप इतना समझ लें कि मेरे आसपास के इन लोगों को मैं फ़रिश्तों की तरह चित्रित नहीं कर रहा हूँ बल्कि देवताओं को साधारण मनुष्यों की तरह चित्रित कर रहा हूँ.
इस फ़र्क़ को समझना कारावाज्यो को समझना है.
(छह)
कला सुंदरता है. सुंदरता कला नहीं है. दाग़ छोड़कर सुंदरता नहीं बनाई जा सकती. असुंदर समझे जानेवाले रूपाकार भी कला के संपर्क में आते ही दर्शनीय, आकर्षक हो उठते हैं. चर-अचर में ऐसी कोई सुंदरता नहीं जिसमें कोई कमी न हो. जिसमें चोट, कचोट का निशान न हो. जिसमें कोई कलुष या घाव न हो. मैं सुंदर को उसमें निवास करती असुंदरता और असुंदर को उसमें विन्यस्त सुंदरता में चित्रित करता हूँ. उन्हें पूर्ण बनाता हूँ. जुएबाज़, मद्यप, कामुक, प्रेमी, हत्यारे, तनी भृकुटि, रक्तिम कपोल, माथे की सिलवटें, विस्फारित आँखें, कायर, ताक़तवर सब मेरे विषय हैं. दैवीय प्रसंगों में ये सब शामिल हैं. इन चित्रों में बीत चुके और अभी रह रहे सभी लोग मेरी अपनी दुनिया से लिए गए हैं. वे मेरे कला संसार के नागरिक हैं. मैं घिनौने दिखते आदमियों में से पवित्र पात्रों को रच सकता हूँ. मैं प्रकाश और अँधेरे के रंग से अपनी बात कह सकता हूँ. यही मेरी सापेक्षता है. मेरे चित्र घटना-स्थल हैं और घटनाएँ भी हैं. उनका नया आख्यान मैंने चित्रमय कर दिया है. वहीं हमारे रोज़मर्रा के लोग हैं. तुम देखोगे तो विश्वास करोगे. मैं वधिक को वधिक की तरह चित्रित करता हूँ, फिर भले तुम उसे संत कहते रहो.
मैं सफलता से गर्वित हूँ. सफलता का मारा हुआ हूँ. मेरा उद्धार मुमकिन नहीं. मैं कला में कुछ भी कर सकता हूँ. और मैंने मान लिया कि मैं जीवन में भी सब कुछ कर सकता हूँ. मुझसे उलझोगे तब भी और नहीं उलझोगे तब भी मैं तुम्हारे अंडकोष निकालकर, उन्हें तलकर खा जाऊँगा. मुझसे दूर रहो. मैं गुस्सैल हूँ. अप्रत्याशित हूँ. हिंसक हूँ. मेरी अराजकता मेरी प्रेरणा है. तुम अपनी देवी की मृत्यु को महज निद्रा प्रसंग में चित्रित करते रहे हो लेकिन मैं उसकी सहज मानवीय मृत्यु को कैनवस पर रच देता हूँ. तुम इसे ईशनिंदा कहते हो. मैं नवोन्मेषी हूँ. इसलिए तुम सब मुझे बरबाद करना चाहते हो. मुझे प्रतिभा का दंड भुगतना है. मेरे घमंड का भी और उस उपहास का भी जो मैं समकालीनों का करता हूँ. हालाँकि वे हैं इसी लायक़. यद्यपि मैं चर्च के कार्डिनल के संरक्षण में हूँ. उनके वरद हस्त के नीचे. लेकिन मैं अपनी कला से भी रक्षित हूँ और उसके नशे में चूर हूँ. मुझसे कोई बदतमीज़ी नहीं कर सकता. मैं कर सकता हूँ. मैं कारावाज्यो हूँ.
बहरहाल, तुम मुझे नहीं मेरे चित्रों को देखो. तुम उन्हें अपने भीतर रचा हुआ अनुभव करने लगोगे. उन्हें देखते हुए तुम्हारा रक्तचाप ऊपर-नीचे हो सकता है. तुम अचानक सोचेगे कि आखिर कला में चकित होना क्या होता है. मैं अलौकिक के लौकिक का चित्रकार हूँ. अनश्वर के नश्वर का. परियाँ मेरे चित्रों में आकर सामान्य स्त्रियाँ हो जाती हैं. ईश्वरीय दूत सांसारिक आदमियों में बदल जाते हैं. चर्च में मेरे इन चित्रों को देखो, इनमें तुम्हारी तरह साधारण जन मिलेंगे. तुम जो पैदल चलकर आए हो. तुम, जिनके तलुओं पर इतनी दूर पैदल चलने से ख़ून जमा हो गया है और मिट्टी के साथ सन गया है. तुम असहायजन जो ईश्वर से कुछ माँगते हो तो ईश्वर अवाक् और असहाय हो जाता है. तुम सब साधारण लोग ही मेरे इन चित्रों में हो.
(सात)
नहीं. तुम मेरी प्रेमिका को छू भी नहीं सकते. यह द्वंद्व के लिए ललकार होगी. मेरी तलवारें मेरी कूचियों से भी ज़्यादा तेज़ चलती हैं. यह लो, मैं तुम्हारे लहू से अपना क्रोध शांत करता हूँ. तुम्हारी तड़पती देह पर थूकता हूँ. ठीक है, अब मैं हत्यारा हूँ. मेरी सज़ा मृत्युदंड है. ख़ून का रंग मेरे कैनवस पर नहीं, मेरे हाथों पर लग गया है. हथेलियों की रेखाओं में. उँगलियों के पोरों पर. मैं इनामी मुज़रिम शहर से भागने के लिए विवश हूँ. मुझे मेरे प्रशंसक, दोस्त, संरक्षक शरण देंगे. लेकिन वे कब तक मुझे छिपाएँगे? अंतत: मुझे मेरी कला शरण देगी. मेरे चित्र ही मुझे बचाएँगे. वे ही मेरे रक्षक होंगे. मेरे सारे गुण, सारी अच्छाइयाँ चित्रों में आ जाती हैं, अवगुण मेरे व्यक्ति के पास धरे रह जाते हैं. यही मेरे व्यक्तित्व की फाँक है. विडंबना है. अंतर्विरोध है. अनुल्लंघनीय अंतराल है. मैं चित्रों के साथ पूरा हूँ. मुझे अकेला देखोगे तो अधूरा हूँ. अवगुण संपन्न हूँ. मैं अपने अपराध की कोटि जानता हूँ, यह नृशंस है. अक्षम्य है. भटकते-भटकते वर्ष गुज़र गया. डगर-डगर की धूल से धूसरित हूँ. अब मेरे पास पेंटिंग करने के अलावा और क्या रह गया है. मैंने ख़ुद का सिर क़लम करके कैनवस पर लटका दिया है. इधर की हर नयी पेंटिंग में मैंने ख़ुद के चेहरे को खलनायक बनाया है. जबकि जो कोमल, कमनीय और सभ्य दिख रहे हैं, वे भी हत्याओं को राजकीय आदेश की ओट में अंजाम दे रहे हैं. मैंने अभी तक के कला सौंदर्यबोध को सिर के बल खड़ा कर दिया है. जो कला में सिर्फ़ तथाकथित सुंदरता चाहते हैं वे दूर रहें. जो भयभीत हैं वे चीख़ सकते हैं. पेंटिंग में भी और बाहर दर्शक की तरह भी. मैं इन्हीं चित्रों के ज़रिये अपने प्राणों की रक्षा चाहता हूँ. देर से ही सही, मैं समझ चुका हूँ कि अभिमान पर विनम्रता एक दिन विजय पा लेती है. लेकिन क्या मेरे बनाए इन तमाम चित्रों से मेरी ख़ून-आलूदा स्लेट धुलेगी? हत्या का कलंक पोंछा जा सकेगा?
पता नहीं.
मैं इन्हीं अंतिम चित्रों के साथ वापस अपने शहर रोम पहुँचना चाहता हूँ. क्षमादान वहाँ मेरी प्रतीक्षा कर रहा है. लेकिन मुझे लग रहा है कि यह यात्रा मुझसे पूरी नहीं होगी. मैं दौड़ रहा हूँ. इस भगोड़े जीवन के दलदल में फँस गया हूँ. वहाँ से निकलकर समुद्र किनारे की कठोर लवणसिक्त धूप में गिर पड़ा हूँ. फिर कभी न उठने के लिए. आगे की शताब्दियाँ मुझे खोज लेंगी. मेरा आलिंगन करेंगी. फिलहाल इस चित्र में, अपना कटा शीश लेकर हाज़िर हूँ. वह शीश जिस पर इनाम था और जो माफ़ी का हक़दार हो सकता था. अब जबकि मैंने ही अपना सर क़लम कर दिया है, तुम वह इनाम किसे दोगे?
यह विमर्श बचा रहेगा कि क्या संगीन अपराध के आरोप का सामना कोई कलाकार अपनी रचनात्मकता को, अपनी सर्जनात्मकता को सामने रखकर कर सकता है. जैसे चित्रकार पेंटिंग बनाकर. बहरहाल, मेरे बाद भी मेरे ये चित्र तुमसे क्षमायाचना करते रहेंगे.
तुम अजीब विस्मय से इन्हें देखते रहोगे.
शायद कुछ गर्व से भी.
***
(आभार-: ‘ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत’ पंक्ति चार्वाक से.)
Movie: Caravaggio,1986, Director: Derek Jarman
Documentary, BBC TV Mini Series: Power of Art, 2006, Season-1, Episode-1, By Simon Schama
और यह पत्र भी.
प्रिय अरुण, विश्व सिनेमा पर नियमित लिखने का यह पहला दौर इस आलेख के साथ पूरा होता है. पिछले डेढ़ बरस के संक्षिप्त कालखंड में लगभग एक पूरे साल का लेखन ‘समालोचन’ पर ही है. अब दूसरा सत्र, अगला फेरा कितने अंतराल बाद शुरू होगा, तीन महीने, नौ महीने या दो बरस बाद, कहना मुश्किल है. यदि हुआ भी तो वह किंचित अनियमित होगा. या न भी हो. कुछ कहा नहीं जा सकता. लेकिन अभी यह यहाँ कुछ थमेगा. काश, मैं उन शताधिक फ़िल्मों पर लिख सकता जो ज़ेहन में बनी रहती हैं. नींद में और जाग में. या कम से कम उन बीस-पच्चीस फ़िल्मों पर तो ज़रूर ही जो हर तरह से श्रेष्ठ कलाकृतियाँ हैं और स्मृति से ओझल नहीं होतीं. अकसर अनुवीक्षण अधिकारियों की तरह मेरा पीछा करती हैं. जिन्होंने मुझे संपन्नकारी ढंग से बदल दिया है. लेकिन तन-मन और जीवन जीने की मुश्किलों के अपने गति-अवरोधक हैं. तुमने जिस उत्साह, जिज्ञासा, अन्वेषी उपक्रम के साथ इन्हें प्रकाशित किया, उसके बारे में जो भी कहूँ, अपर्याप्त होगा. तुमने अपनी प्रस्तुति को चुंबकीय तत्व से भर दिया. इस क़दर कि मैं ख़ुद उत्सुक हो जाता था कि देखूँ, इस बार तुम किस नये तरीक़े से पोस्ट संयोजित करोगे. जानकर मुझे अचरज हुआ कि मेरे प्रत्येक निबंध को प्रकाशित करने से पहले तुम संबंधित फ़िल्म किसी तरह देख ही लेते थे फिर पोस्टरों और स्टिल चित्रों का चुनाव करते थे. ऐसी संपादकीय रुचि, सौंदर्यबोध और श्रमशीलता दुर्लभ है. इस बीच मेरे सुझाए बीसियों मामूली परिवर्तनों, अनवरत संशोधनों को प्रसन्न तत्परता से ग्रहण करते हुए अद्यतन करते रहे. पाठकों ने भी, जिनमें अधिकांश प्रियतर वरिष्ठ, हमउम्र और नव्यतम लेखक भी हैं, अनपेक्षित प्रतिसाद दिया. अनेक लोगों ने प्रिंट लेकर पढ़ा, फ़ोन किए. संदेश भेजे. विमर्शात्मक संवाद किए. प्रतिक्रियाएँ लिखीं. मित्रों के बीच पठन, वाचन और फिर ध्वनि अंकन किया. पत्रिकाओं ने पुनर्प्रकाशन किया. कुछ नये मित्र बने. कई प्रशंसाएं इस तरह मिलीं कि संकोच में पड़ गया. यह उस सुंदर, अविश्वसनीय यथार्थ की तरह है जो ऐसे सपने की तरह होता है जो नींद खुलने पर भूलता नहीं और सर्जनात्मक ताक़त की तरह साथ में ही रहने लगता है. बहरहाल, अभी हम और काम करेंगे. यह पूर्ण विराम नहीं, साँस लेने की नीयत से किंचित विश्राम है. कोई लघु मध्यांतर. छूटते जा रहे दूसरे कामों पर ध्यान देने की अनिवार्यता भी इसमें शामिल है. जल्दी ही फिर इस यात्रा पर चल सकेंगे. प्यार सहित, |
कुमार अम्बुज कविता संग्रह: ‘किवाड़’-1992, ‘क्रूरता’-1996, ‘अनंतिम’-1998, ‘अतिक्रमण’-2002, ‘अमीरी रेखा’-2011, ‘उपशीर्षक’- 2022. कविताओं का चयन ‘कवि ने कहा’-2012, किताबघर से. राजकमल प्रकाशन से ‘प्रतिनिधि कविताएँ’- 2014.कहानी और अन्य गद्य: ‘इच्छाएँ’-2008. कहानी संग्रह: ‘मज़ाक़’ और चयनित फ़िल्मों पर निबंधों का संकलन ‘आँसुओं का स्वाद’ शीघ्र प्रकाश्य. ‘वसुधा’ कवितांक-1994 का संपादन. गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’- 2002 का नियोजन एवं संपादन. अनेक वैचारिक बुलेटिन्स और पुस्तिकाओं का भी प्रकाशन, संपादन. हिन्दी कविता के प्रतिनिधि संकलनों एवं कुछ पाठ्यक्रमों में रचनाएँ शामिल. साहित्य की शीर्ष संस्थाओं में काव्यपाठ, बातचीत तथा वक्तव्य. कविताओं के कुछ भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में अनुवाद तथा संकलनों में कविताएँ चयनित. कवि द्वारा भी कुछ चर्चित कवियों की कविताओं के अनुवाद प्रकाशित. ‘विश्व सिनेमा’ से कुछ प्रिय फ़िल्मों पर अनियत लेखन. भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार(1988), माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार,(1992), वागीश्वरी पुरस्कार(1997), श्रीकांत वर्मा सम्मान(1998), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान(1998), केदार सम्मान(2000). kumarambujbpl@gmail.com |
समालोचन पर जिस संलग्नता और मार्मिकता से कुमार अम्बुज ने लिखा है, वह बहुत महत्त्वपूर्ण है। मैंने उनके सारे लेख पढ़े…
“मैं ईश्वर को मदिरा में घोलकर पीता हूँ और उसे अपनी देह में, अपने हृदय में जगह देता हूँ. मैं जिस देवता को, जिस आदमी को पसंद करता हूँ, उसे चित्रित कर देता हूँ. फिर उसी का रूपाकार हो जाता हूँ.” – अद्भुत!
कविता की लय में आग और राग का सहमेल.
वाह,बहुत बढ़िया आप के सार्थक, रचनात्मक योगदान को जितना सराह जाए ,उतना कम है, बहुत ही महत्वपूर्ण काम आप कर रहे हैं, हमारी शुभकामनाएं
एक महान कलाकार के आत्मसंघर्ष की अभिव्यक्ति। पूरा आलेख एक अद्भुत काव्यात्मकता लिए भाषा के कैनवस पर एक सजीव पोर्ट्रेट की तरह। कु अम्बुज एवं समालोचन को इस श्रृंखला के लिए साधुवाद!
विश्व सिनेमा पर कुमार अंबुज के जो भी आलेख आपके यहां पढ़ने को मिले, अद्भुत और हर अर्थ में विरलतम हैं. उनकी भाषा, उनका ऑब्जर्वेशन और विषय पर उनकी टिप्पणी — इन सबसे गुजरते हुए अपने अध्ययन की लघुता का पता भी चलते जाता है. बहुत आभार अंबुज जी का, स मा लो च न को साधुवाद.
इस श्रृंखला से फिलवक्त उनका pause हमें काफी ज्यादा सालने वाला है !
कुमार अंबुज का इस शृंखला के लिए धन्यवाद।
फिल्मों के बारे में मेरी जानकारी शून्यवत् है। मैंने कुमार अंबुज के अधिकांश लेख उनकी प्रतिपादन शैली, सर्जनात्मक भाषा और उत्सुक-अन्वेषी दृष्टि के लिए पढ़े।
कहने की ज़रूरत नहीं कि अरुणदेव की प्रस्तुति लेखकीय सामग्री को खास बना देती है।
अद्भुत, अविश्मरणीय, काव्यात्मक आलेख। भाषा के बिचित्र कैनवास पर एक महान कलाकर के संघर्ष की विरल अभिव्यक्ति। कुमार अम्बुज सर एवं समालोचन को बधाई।
कुमार जी ने समालोचन के मार्फ़त एक नई दुनिया से परिचय कराया है। वो दुनिया जो फिल्मों को साहित्य और समाज से जोड़ती है। हमारे लिए समालोचन अपने आप में एक गिफ्ट है इस पर कुमार जी के लेख टॉपिंग का काम करते हैं। एक रंगकर्मी होने के नाते मैं समालोचन का गम्भीर पाठक हूं और इससे मिली संपदा को धरोहर समझता हूं। आपकी मेहनत को सलाम अरुण भाई।
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अम्बुज जी ने अपनी लेखनी से हम सब पाठकों को वाक़ई अद्भुत यात्रा करवाई है. मैंने लगभग हर आलेख बहुत ठहर कर पढ़ा है. कितना गहन चिंतन उन्होंने किया और कितनी अद्भुत फ़िल्में उन्होंने चुनी. कुछ पहले देखी थीं, कुछ उनकी सुझाई फ़िल्मों को देखने की इच्छा है. तारकोव्स्की की नॉस्टेलजिया और एले रेज़्ने की हिरोशिमा मोन आमोर पर लिखे आलेख अद्भुत ही हैं. ज़ाहिर है त्वरित प्रतिक्रिया बतौर ही यह लिख रहा. कितना समृद्ध हुआ हूँ मैं हर दृष्टि से. मैंने हर बार ही यह कहा है. आप दोनों का बहुत सारा शुक्रिया है. इंतज़ार रहेगा कि अम्बुज जी की दूसरी किस्त फिर शुरू हो.
निःशब्द तल्लीनता से कैसे काम किया जाता है, यह प्रिय रचनाकार कुमार अम्बुज से सीखा जाना चाहिए। किसी साधक की तरह निष्काम कर्म। क्या तो गद्य की भंगिमा और क्या तो विचार। आज के दौर में ऐसी तल्लीन रचनात्मकता दुर्लभ है। वह प्रेरक हैं। उनको बधाई बहुत। आपको भी बारम्बार धन्यवाद कि हमें इतने शानदार आलेख पढ़वाते रहे।
कला समीक्षा की नयी भाषा, नया तेवर ,नयी अभिव्यक्ति।
आकस्मिक आघात| कुमार अंबुज का यह कहना कि चौदह फ़िल्म का रेखाचित्र लिखने के बाद वह फिल्मों पर नहीं लिखेंगे, उफ़ क्या दुःख है? मेरे लिए प्रश्न सदा यह रहा कि फ़िल्में आखिर देखी ही क्यों जाएँ| लोकप्रिय फ़िल्में बौद्धिक रूप से औसत लगती रहीं, तो कला फ़िल्में बोझिल| तीन जीवंत घंटों का बेड़ा गर्क कर देना उचित नहीं जान पड़ता|
पिछले वर्षों में फिल्म संदर्शन का लोकतांत्रिकरण हुआ है| अब कोई धन्नासेठ या लालफ़ीताशाह यह तय नहीं करता कि मुझे क्या देखना है| लगातार तीन घण्टे का समय निकालने कि पाबंदी समाप्त हो चुकी है| कई बार सुविधा के लिए फिल्मों को किस्तों में तोड़कर दिया जा रहा है| इस से फ़िल्मकार और दर्शक में समझ का तारतम्य सरलता से बन जाता है| आम भारतीय द्वार पर विश्व सिनेमा ने महत्वपूर्ण दस्तक दी और सरल सुलभ हो गया|
इस महत्वपूर्ण प्रासंगिक समय में हिन्दी पाठक-दर्शक के लिए कुमार अंबुज को सिनेमा पर पढ़ना सुखद एहसास ही नहीं समृद्ध होना रहा| उन्होंने सिनेमा देखने, सुनने, समझने, उधड़ने और बुनने के साथ भावपूर्ण तरीके से पढ़ने की दृष्टि हिन्दी पाठकों को प्रदान की| सिनेमा के मेक और रीमेक से बढ़कर हमें सिनेमा के पाठ और पुनर्पाठ के नए आयाम मिले| कुमार अंबुज का सिनेमा पाठ पाठक को कैमरे के दूसरी ओर लेखक-निर्देशक के निकट आने का अवसर देता है| पाठक सहजता से उन विचार बुलबुलों को सहेज पाता है जिन्हें फ़िल्मी गतिशीलता तीव्र गति से कुचलती मचलती निकल जाती है| प्रचण्डवेगवती सिनेमा गहन विचार की स्थूलता के ठहराव के साथ उनकी इस विधा की जटाओं में ही जन सुलभ होता है|
उनके इस वादे पर भरोसा रहेगा, उनके द्वारा फ़िल्मों पर पुनः लिखा जाएगा| निजी रूप से मुझे उन बीस फ़िल्मों के नाम जानने कि इच्छा रहेगी जिनपर वह लिखना चाहते हैं|
बहुत अर्थभरी बात कही गई है,मैं वधिक को वधिक ही कहूंगा फिर भले ही तुम उसे संत कहो ! कुमार अम्बुज भाई सा.की दृष्टि और उसका कहन स्फटिक की तरह पारदर्शी और साफ होती है, चाहे फिल्म हो या कहानी, कविता उनकी यह खूबी पाठकीय विवेक को समृद्ध करती है !
यह फ़िल्म पर आलेख नहीं, लंबी कविता है यह. गद्य की सीमारेखा को लांघकर फ़िल्म की गहराई तक पहुँचाया आपने अंबुज जी. बहुत बहुत धन्यवाद! समालोचन का भी आभार!
” संदेह तुम चिरंजीवी रहो, उसी में कला की अमरता है ”
फिर एक बार फिल्म के बहाने कुमार जी का अद्भुत गद्य. कुमार जी आपका धन्यवाद और अरुण जी आपका भी. क्षणिक विश्राम के बाद फिर प्रतीक्षारत….
कुमार अंबुज इधर कुछ समय के लिए सिनेमा पर लिखने से विश्राम चाह रहे हैं।वह लेखक हैं और यह उनका विशेषाधिकार है।वह अपने रचनाकर्म,उसकी प्रक्रिया को जितना बेहतर जानते हैं उतना कोई दूसरा नहीं।
उनकी अगली कड़ी का इंतजार हम जरूर करते रहेंगे।
हर बार की तरह इस बार भी उनका इस फिल्म को ‘देखना'(बल्कि सांस दर सांस उसी तापमान और तनाव में जीना) अद्भुत है। फिर इस बार तो माइकल एंजेलो हैं जिसे मैं कारावाज्ज्यो के नाम से बिल्कुल नहीं जानता था।एक अचूक अटूट जादू उस फिल्म में कितना है मैं यह तो नहीं जानता, लेकिन अंबुज जी जो जादू रचते हैं उससे मुक्ति नहीं चाहिए।इस सिनेमा के मार्फत दरअसल कुमार अंबुज ने कला, कलाकार और इनकी परस्पर भूमिका का ने एक सर्वकालिक डिस्कोर्स खड़ा किया है जो उनके इन नोट्स,चिंतन में शुरू से आखिर तक पंक्ति दर पंक्ति देखा जा सकता है। यहां कथा या बायोग्राफी पार्श्व में चली जाती है और इस डिस्कोर्स में पाठक अपने को चौतरफा घिरा हुआ पाता है –एक अनिवार्य बहस में बेहद सघन, शिद्दत से शामिल होते हुए। कला की आत्महंता साधना को जीवन मूल्य में बदल देना घटित हो रहा है यहां।यह कोई सतही फार्मूले बाजी या चतुर पैतरेबाजी से बिल्कुल अलग अपनी उंगलियों को तेज़ धार की सान पर चढ़ाना है,–
मैं ख़ून को रंग में बदल देता हूं और रंगों को ख़ून में। मैं रंगों का स्वामी हूं लेकिन उनकी नागरिकता में रहता हूं।उनकी अधीनता में रहकर उन्हें अधीन बनाता हुआ।
मैं अतिरेकी हूं इसलिए आनंदातिरेकी भी हूं।मेरी दृढ़ता,मेरी प्रतिबद अराजकता और मेरा अनिश्चित चरित्र ही मेरा भाग्य है।कलाकर्म का उत्स है।’
वह सत्य तुमको तब तक ठीक से नहीं दिखता जब तक मैं उसे अपनी कला के रंग में नहीं रंग देता। मैं सत्य को कला बना देता हूं।’
‘जब भी कोई कला में सत्य कहेगा तो वह एक रोशनी होगी। जिसमें अप्रकाशित सूक्ष्म चीज़ें प्रकाशित हो जाएंगी और कलाविहीन लोग भयभीत हो जाएंगे।’
समय कला है और कला भी एक समय है।मेरी कला भी किसी का लिहाज नहीं करती।’
‘मैं अपने समय का उदास परावर्तन हूं।सारे गरल को कला में जगह देता हूं। वर्जित को प्रतिष्ठित करता हूं।’
‘मैने अभी तक के कला को सिर के बल खड़ा कर दिया है।’
इन आप्त वचनों में कला का जीवन संघर्ष किस घातक आवेग, उद्वेग और उसके समूचे ताप और प्रतिबद्धता के साथ प्रकट हो रहा है, बिल्कुल साफ देख सकते हैं।कारावाज्जयो के साथ हम निराला और मुक्तिबोध को देखने पढ़ने लग जाते हैं।कला का वह सुदुर पहाड़ों के पीछे खिलता अरुण कमल देखने लग जाते हैं या राम की शक्ति पूजा चारों ओर अनायास गूंजने लग जाती है।यह कला का दुष्प्राप्य साधना है, युद्ध है जीवन भर लड़ते रहने के लिए। इस लेख में मुझे यह तय करना मुश्किल लगा कि यह पर्दे पर देखी जाती एक फिल्म है या फिल्म के किरदार की आत्मा में यह समीक्षक प्रवेश किए हुए हैं।
अंत में यह कहूंगा कि मौजूदा समय में कला को जिस तरह नवढनाढ्यों, पूंजीपतियों को आधुनिक शैली में दास बना देने की पुरजोर कोशिश जारी है ऐसे समय में कला का यह प्रतिपक्ष कितना मूल्यवान है,जो कला को उसके वास्तविक गंतव्य को ले जाने चट्टान की तरह अविचलित और दृढ़ है।
कुमार अंबुज के साथ साथ समालोचन और अरुण देव का हृदय से बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं!
धन्यवाद
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