जाली किताबकृष्ण कल्पित |
यह कहानी तब की है !
हिन्दी अभी नई चाल में नहीं ढली थी. हिन्दी-नवजागरण आने में अभी समय था. कलकत्ता नें फोर्ट विलियम कॉलेज और एशियाटिक लाइब्रेरी की स्थापना अभी होनी थी. राजा शिवप्रसाद सितारे-हिन्द और भारतेंदु हरिश्चंद्र को अभी पैदा होना था. खड़ी बोली और रेख़्ता को अभी आकार लेना था.
यह वह समय था जब उर्दू भी हिन्दी थी. थी ही नहीं कहलाती भी हिन्दी/हिन्दवी थी. ख़ुदा-ए-सुख़न कहलाने वाले मीर तक़ी मीर ख़ुद को हिन्दी का कवि कहते थे. मीर ने कहा भी है:
क्या जाने लोग कहते हैं किसको सुरुरे क़ल्ब
आया नहीं है लफ़्ज़ यह हिन्दी ज़बां के बीच !
यह कहानी तब की है !
यह कहानी/क़िस्सा/अफ़साना/बात/उपन्यास एक किताब के बारे में है और मज़ेदार बात यह कि यह किताब भी एक किताब के बारे में है, इससे भी दिलचस्प बात यह कि यह किताब भी इन्हीं दोनों किताबों के बारे में है और सर्वाधिक आश्चर्यजनक बात यह कि विद्वानों की दृष्टि में ये तीनों किताबें संदिग्ध हैं.
एक सर्वप्रिय और जातीय गौरव की गाथा कहने वाले महाकाव्य की रक्षार्थ एक किताब लिखी जाती है. यह बात सच है कि जलाने से किताब नहीं जलती. किताब को किताब से ही नष्ट किया जा सकता है लेकिन यह भी सत्य है कि किताब की रक्षा भी किताब से ही की जा सकती है. प्रस्तुत किताब के लिखने का प्रयोजन भी यही समझा जाए.
कवि चंद विरचित ‘पृथ्वीराज रासो’ प्रमाणिकता-अप्रामाणिकता के बारे में विद्वानों के मुख्यतः तीन मत हैं. पहला यह कि रासो पूर्णतः प्रामाणिक रचना है. दूसरा यह कि यह पूर्णतः अप्रामाणिक है और तीसरा मत यह कि रासो न पूरा प्रामाणिक है, न अप्रामाणिक. रासो एक अर्द्ध प्रामाणिक ग्रन्थ है.
क्या दुनिया का समस्त साहित्य इसी ‘अर्द्ध प्रामाणिक’ की श्रेणी में नहीं आता? क्या यह भी एक साहित्य की परिभाषा नहीं हो सकती? आधा उजाला है आधा अँधेरा, चले आओ ये है कविता का डेरा !
पृथ्वीराज रासो के बारे में हिन्दी के आदि आलोचक रामचन्द्र शुक्ल का और अन्य विद्वानों के अभिमत और उनकी नीर-क्षीर-विवेक पड़ताल आगे कही/की जाएगी लेकिन उससे पूर्व हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास लिखने वाले बच्चन सिंह का अभिमत पढ़ लेना ठीक रहेगा: चंद का रासो पारम्परिक पैटर्न ग्रहण करते हुए भी अपनी समग्रता में मौलिक है. मंगलाचरण, सज्जन-दुर्जन, प्रशंसा-निंदा, नखशिख-वर्णन, अलंकार-विधान, अप्रस्तुत-योजना आदि परम्पराभुक्त है. किन्तु उनका विनियोजन नया है. यह न शृंगारगाथा है, न वीरगाथा और न उनका मिश्रण.
इतना लिखने के बाद बच्चन सिंह रासो पर अपना निर्णय देते हुए कहते हैं कि रासो एक राजनीतिक महाकाव्य है, यहाँ पर राजनीति की महाकाव्यात्मक त्रासदी का वर्णन हुआ है. अपनी बात के समर्थन में वे चंद की ये पंक्तियाँ लिखते हैं :
राजनीति पाइये ज्ञान पाइये सु जानिय I
उकति जुगति पाइये अरथ घटि बढ़ि उनमानिये II
उकति और जुगति शब्द राजनीति के शब्द हैं. इस राजनीति के दो छोर हैं- आंतरिक विग्रह का सामना और बाहरी आक्रांताओं के साथ युद्ध. रासो का केंद्रीय कथ्य युद्ध है लेकिन विलास इससे नाभिनालबद्ध है. रासो में युद्ध ताना है और विलास बाना. इसी ताने-बाने से रासो को बुना गया है. इसके बुनावट को समझे बिना रासो को समझना मुश्किल है.
पृथ्वीराज चौहान की वीरता और विलासिता रासो में यत्र-तत्र बिखरी हुई है. संयोगिता-हरण से पूर्व पृथ्वीराज रसरंग में डूबा हुआ था. इसी समय मुहम्मद गौरी ने फिर आक्रमण कर दिया. पृथ्वीराज को यह समाचार देना तक मुश्किल. वह रानी से छुट्टी माँगने जाता है और महीनों वहीं बिलम जाता है और फिर संयोगिता जैसी अव्याज-सुंदरी को पाकर विलास में डूब जाता है. राजदरबार के महाजन इस बात से चिंतित कि पृथ्वीराज को सूचित कैसे किया जाए? अंत में पृथ्वीराज चौहान का बालसखा कवि चंद उसे ऋतु के श्लेष से जगाता है. कवि चंद कहता है- किम बुज्झे रतिवंती राजन ! अर्थात रागरंग और रति में डूबे राजा को कैसे समझाया जाए. जब चंद के ये शब्द ज्यों त्यों पृथ्वीराज तक पहुंचते हैं तो वह रतिवंती शब्द सुनकर हिल जाता है. कहाँ हमलावर मुहम्मद गौरी और कहाँ रतिवंती राजा!
(यहाँ कवि बिहारी की याद आना स्वाभाविक है जब रासो लिखे जाने के बहुत बाद बिहारी वृत्ति की तलाश में आमेर गए जहाँ राजा जयसिंह अपनी नवपरिणीता पत्नी के प्रेम में निमग्न थे. बिहारी ने जयसिंह को यह दोहा लिखकर भिजवाया/जगाया:
नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल ।
अली कली ही सों बंध्यो आगे कौन हवाल ।।
पृथ्वीराज चौहान को अपने कामोत्सव और युद्ध याद आते हैं और यहीं पर रासो महाकाव्य एक त्रासदी में बदल जाता है. इस त्रासदी को समझ पाना ही रासो का मर्म पाना है. यहाँ पर कवि चंद कहते हैं :
निराधार आधार करतार तू ही बन्यो संकट मो लीन सों ही ।
कली कद्द मंगाय वृंदावनी कों सम्भालो नहीं तो कहाओ धनी क्यों ।।
‘निराधार आधार करतार तू ही’ इसी त्रासदी की फलश्रुति है. जब कोई सहारा नहीं बचता तब मनुष्य को ईश्वर और काशी-वृंदावन की याद आती है. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास के लेखक का यह कथन रासो के रहस्य से पर्दा हटा देता है: यह भक्तिकालीन करतार नहीं है, बल्कि विशुद्ध उदासी की अंतिम शरणगाह है. समग्र महाकाव्य के भीतर से पृथ्वीराज की त्रासदी के साथ एक सामाजिक-राजनीतिक त्रासदी भी उभरती है जो जितनी पृथ्वीराज की है उससे अधिक राष्ट्र की है.
एक प्राचीन और महान राष्ट्र की त्रासदी को व्यक्त करने वाले महाकाव्य की कथित संदिग्ध भाषा के लिए कवि स्वयं रासो में कहते हैं:
उक्ति धर्म विशालस्य राजनीति नवरसं ।
खट भाषा पुराणं च कुरानं कथितं मया।।
कवि का कथन है कि नवरस, उक्ति, भाषा, सभी राजनीति के इर्दगिर्द घूमती हैं. खटभाषा इसलिए कि इसमें राजस्थानी, ब्रज, फ़ारसी, डिंगल इत्यादि के शब्द मिले हुए हैं और इसमें अवहट्ट और अपभ्रंश की चाशनी भी है. भाटों की कई पीढ़ियों द्वारा गाये जाने के कारण कुछ भाषागत अव्यवस्था मिलती है लेकिन कुल मिलाकर रासो की भाषा ब्रजमिश्रित राजस्थानी या डिंगल है. भाषा अनघड़ है लेकिन अनघड़ भाषा का भी अपना एक अलग स्वाद और सौंदर्य होता है.
रासो के प्रणयन के बाद कहते हैं कवि जगनिक ने परमालरासो लिखा था जिसका केवल एक हिस्सा आल्हखंड के नाम से मिलता है जिसे बैसवाड़ा, पूर्वांचल और बुंदेलखंड में पीढ़ी दर पीढ़ी गाया जाता है. इस युद्ध-काव्य (बैलेड) को 1865 ईस्वी में फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर चार्ल्स इलियट द्वारा भाटों की सहायता से लिपिबद्ध कराया था. बाद में वाटरफील्ड ने इसका अंग्रेज़ी अनुवाद भी किया. वाटरफील्ड आल्हा को पृथ्वीराज रासो का ही एक खंड मानता है लेकिन बाद में ग्रियर्सन ने इस बात का खंडन किया लेकिन यह ज़रूर कहा जा सकता है कि आल्हा रासो की परम्परा का ही हिस्सा है. आल्हा में विवाह, प्रतिशोध और लूट का वर्णन है लेकिन वह रासो के महाकाव्यात्मक और उदात्त स्वरूप के अनुरूप नहीं हैं.
इसे विडम्बना या सोची समझी साज़िश या रणनीति ही कही जानी चाहिए कि अंग्रेज़ों के आगमन और 1800 ईस्वी में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना के बाद हमारे लोक और शास्त्र में प्रचलित ग्रन्थों का पाश्चात्य दृष्टि से अध्ययन कर उन्हें जाली, नक़ली और फ़र्ज़ी ठहराने का सिलसिला शुरु हुआ. एशियाटिक लाइब्रेरी की स्थापना के बाद यह सिलसिला तेज़ हुआ. उर्दू और हिन्दी में दूरियाँ भी इसी दरम्यान बढ़ी. खड़ी बोली शब्द भी फोर्ट विलियम कॉलेज की टकसाल से निकला था. सबसे पहले कॉलेज के भाषा-मुंशी लल्लूजी लाल और सदल मिश्र ने किया. ‘प्रेम सागर’ में लल्लूजी लिखते हैं: संवत 1860 में लल्लूजी लाल कवि गुजराती ब्राह्मण सहस्र अवदीच ने जिसका सार ले, यामिनी भाषा छोड़, दिल्ली-आगरे की खड़ी बोली में कह, नाम प्रेमसागर धरा. वैसे 1804 में जॉन गिलक्रिस्ट ने ‘द हिन्दी-रोमन आर्थो एपिग्राफिक’ में खड़ी बोली शब्द का प्रयोग किया है.
औपनिवेशिक दृष्टि की यह तो हद है लेकिन बेहद यह कि ग्रियर्सन ने ‘दी मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान’ की भूमिका में यह लिखा कि हिन्दी भाषा अंग्रेज़ों द्वारा आविष्कृत है.
बाद में इसी राह पर चलते हुए भारतीय विद्वानों ने भी हमारे वांगमयों, हमारी परम्पराओं, हमारे महाकाव्यों और हमारे महाकवियों को संदिग्ध दृष्टि से देखना शुरू किया. यह औपनिवेशिक सोच हमारे यहाँ ब्राह्मण अथवा कुलीन दृष्टि को बहुत रास आई. यह दृष्टि हमारे गैर ब्राह्मण महाकवियों को हेय समझने की थी. इसी कुलीन दृष्टि के शिकार बहुत से कवियों के साथ कवि गंग भी हुए जिनकी कथा आगे कही गई है.
अकबर के दरबारी कवि होकर भी कवि गंग को अपने समय और अपने जनमानस की सुध रहती थी. इसके बिना वे यह नहीं कह सकते थे- गंग कहै सुनि साह अकब्बर सोई बड़ो जिन गांठ रुपय्या !
कवि गंग गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन इस अर्थ में भी थे कि इन दोनों कवियों ने भूख पर, दरिद्रता पर और मनुष्य की लाचारी पर मार्मिक काव्य लिखा है :
भूख में राजा को तेज सब घट गयो. भूख में सिद्ध की बुद्धि हारी ।
भूख में कामिनी काम को तज गई. भूख में तजि गयो पुरुष नारी ।।
भूख में कोउ व्यवहार नाहीं रहत. भूख में रहत कन्या कुमारी ।
भूख में गंग नहीं भजन हूँ बन परत. चारहु बेद ते भूख न्यारी ।।
कवि गंग भूख को चारों वेदों से अलग बताते हैं. कवि के स्वाभिमान की रक्षार्थ गंग ने अपने प्राण गंवा दिए. वह कथा आगे कथित है. कवि गंग ने करुणारहित-अर्थरहित कविता और चमत्कारप्रिय कवि के लिए कहा है: अर्थ बिना कवि वाक पशु प्रमानिये ! अर्थात बिना अर्थ का कवि केवल वाक पशु है.
प्राक्कथन में इन सब बातों का ज़िक्र इसलिए किया गया है कि ये तमाम प्रसंग आगे कही गई कथा से न केवल जुड़ते हैं, बल्कि वे कथा को पाठक के लिए सुगम भी बनाते हैं. ये प्रसंग कथा के अर्थ को खोलते हैं और विस्तार देते हैं. लेखक की चाहना होती है कि उसकी बात को समूचे मर्म के साथ ग्रहण किया जाए और यह भी चाहता है कि उसकी बात का अनर्थ न हो. यह प्राक्कथन उसी के निमित्त है.
कोई भी कविता, कहानी, नाट्य, लेख, कृति, किताब इसीलिए लिखी जाती है कि लेखक कुछ कहना चाहता है. यह कुछ कहना ही रचना है. लिखनेवाला इसलिए लिखता है कि उसके हृदय में कुछ करकता है, चुभता रहता है- इसी करकने वाले कांटे को निकालने के लिए ही लेखक लिखता है. जो किसी अन्य प्रयोजन के लिए लिखते हैं वे लेखक तो हो सकते हैं पर सच्चे लेखक नहीं हो सकते. यह नया उपन्यास भी दिल का कांटा निकालने के लिए लिखा गया. यही समझा जाए.
कृष्ण द्वैपायन व्यास ने भी पुराणों और महाभारत की रचना इसी वेदना से की थी. किसी द्वीप पर किसी मछुवारन/धीवर के पेट से पैदा हुए कृष्ण द्वैपायन को यह बात खटकती थी कि भारतवर्ष के अधिकांश लोग वेदों के अध्ययन से वंचित थे. उस समय वेदाध्ययन का अधिकार केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जैसे द्विजमात्र को ही है. इन तीन वर्णों में भी जिनका विधिपूर्वक उपनयन-संस्कार न हुआ हो वे भी वेदाध्ययन से बहिष्कृत कर दिए जाते थे.
यह बात कृष्ण द्वैपायन के अंतःकरण में खटकती रहती थी. द्वैपायन चाहते थे कि वेदों के गम्भीर ज्ञान को सरल रूप देकर सभी मनुष्यों के लिए इसे उपलब्ध कराया जाए. महाभारत की रचना या जयकाव्य की पुनर्रचना का प्राथमिक उद्देश्य द्वैपायन के निकट यही था. इस बारे में ख़ुद द्वैपायन ने यह लिखा है :
स्त्रीशूद्रद्विजबंधूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा ।
इति भारतमाख्यानं कृपया मुनिना कृतम ।।
अर्थात स्त्री, शूद्र और यथाविधि उपनयन-संस्कार से रहित लोग वेद को पढ़-सुन नहीं सकते, इसलिए व्यास मुनि ने कृपा कर महाभारत की रचना की.
महामहोपाध्याय पण्डित गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी का इस बारे में कथन है: महाभारत और पुराण महर्षि व्यास ने ऐसे लोगों को पढ़ाये, जो वेद पढ़ने का अधिकार नहीं रखता था. इससे भी उनका उद्देश्य स्पष्ट प्रकट हो जाता है कि वह वेद के अधिकार से शून्य जातियों में भी ज्ञान का प्रसार करना चाहते थे और किसी न किसी तरह उन जातियों के योग्य व्यक्तियों को भी उचित सम्मान दिलाना चाहते थे. उनका प्रतिफल भी ख़ूब प्रकट हुआ. सूत जाति के रोमहर्षण और उग्रश्रवा ने वह दुर्लभ सम्मान पाया, जो बड़े-बड़े ब्राह्मणों को भी हासिल नहीं था.
साहित्य-क्षेत्र का इतना भार उठाते हुए भी महर्षि व्यास ने सामाजिक और राजनीतिक कार्यों के लिए सुदूर देशों का भ्रमण किया, जिसका वृतांत पुराणों में पाया जाता है. यह भी पुराणों से सिद्ध होता है कि उनका एक मंडल था, जहाँ कहीं धर्म या संस्कृति की रक्षा के लिए प्रयत्न करते थे. ईरान इत्यादि अन्यान्य देशों के इतिहासों से भी यह पता चलता है कि व्यासजी समय-समय पर वहाँ भी पहुँचते थे तथा पुनर्जन्म आदि के सिद्धांत वहाँ के लोगों को समझाते थे. कालांतर में इसी तरह का काम गोरखनाथ ने भी किया. अस्तु.
कोई भी रचना या विचार हवा में नहीं पैदा होता, उसकी एक परम्परा होती है. भारतेंदु के ज़माने में जो हिन्दी नई चाल में ढल रही थी उसकी भी परम्परा चली आती थी. यह नये चाल की हिन्दी क्या थी ? कब यह नई चाल में ढ़लना शुरू हुई ? यह तब तक स्पष्ट नहीं हो सकता जब तक भारतेंदु की पूर्ववर्ती गद्य-परम्परा का विश्लेषण न किया जाए. भारतेंदु के पूर्व राजा लक्ष्मण सिंह और शिवप्रसाद सितारे-हिन्द टकसाली गद्य की रचना कर चुके थे. प्रेमघन भारतेंदु को सितारेहिंद का अनुकर्ता मानते थे. रामविलास शर्मा का इस बारे में मत है कि 1873 ईस्वी में हिन्दी नए चाल में नहीं ढली. यह कार्य बहुत पहले सम्पन्न हो चुका था.
नयी चाल में ढलने के बाद हिन्दी में ‘हँसमुख गद्य’ विकसित हुआ जिसके बारे में कहा जाता है कि भारतीय नवजागरण में साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध इसकी शुरुआत हुई. यह सही है लेकिन यह जानना भी ज़रूरी है कि हिन्दी जब नयी चाल में ढली उससे पूर्व हिन्दी में गद्य किस तरह का था ? यही परम्परा ‘चंद छंद बरनन की महिमा’ के गद्य तक जाती है और जिसे एशियाटिक लाइब्रेरी ने खड़ी बोली हिन्दी के गद्य का प्रथम नमूना कहा है. यही गद्य का नमूना इस पुस्तक का प्रतिपाद्य है. यही इस किताब का कथानक है और यही इस नया उपन्यास का कथ्य है. और यह और आश्चर्यजनक बात है कि इस नया उपन्यास का नायक इसका कथानक ही है. इसे भी कबीर की उलटबाँसी ही समझना चाहिए.
इस नया उपन्यास में जितने भी चरित्र या किरदार हैं वे पुस्तकों से निकलकर ही यहाँ अपनी जगह खोजते हैं. चाहे वह ‘चंद छंद बरनन की महिमा’ हो या ‘पृथ्वीराज रासो’ या यह ‘जाली किताब’.
प्राक्कथन को पूर्ण कथन नहीं होना चाहिए और उसे अधूरा भी नहीं होना चाहिए. सो अब विराम लेना उपयुक्त होगा. अब पाठक इस सप्तखंडी इमारत के प्रथमखण्ड/अध्याय में प्रवेश कर सकता है.
बस इस बात का ध्यान रहे कि कथानक ज़रूर पुराना है लेकिन उपन्यास नया है. उपन्यास नया है यह तो कोई नई बात नहीं. हर समय में हर भाषा में नये उपन्यास लिखे ही जाते रहे हैं और लिखे जाते रहेंगे लेकिन इस उपन्यास की विशेषता यह है कि यह हिन्दी-भाषा का पहला नया उपन्यास है.
यह कहानी तब की है तभी यह कहानी अब की है !
कृष्ण कल्पित भीड़ से गुज़रते हुए (1980), बढ़ई का बेटा (1990), कोई अछूता सबद (2003), एक शराबी की सूक्तियाँ (2006), बाग़-ए-बेदिल (2012), हिन्दनामा (२०१९), रेख्ते़ के बीज और अन्य कविताएँ (2022) आदि कविता संग्रह प्रकाशित K 701, महिमा पैनोरमा,जगतपुरा, |
कृष्ण कल्पित अनोखे व्यक्तित्व हैं , ज़ाहिर है उनका गुण उनके उपन्यास में भी आयेगा, और आ रहा है । मेरी यह समझ है कि कवियों ने बहुत अच्छा गद्य रचा है । समकालीन सृजन से अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं । प्रखर काव्य दृष्टि गद्य के लिए वरदान है ।
कल्पितजी सबसे अलग… सबसे अलहदा हैं…और शायद इसीलिए उनकी आवाज़…उनका आलाप…उनका संधान…उनका सौंदर्य सबसे अलग और अलहदा है…
‘जाली क़िताब’ उनकी ऐसी ही अनुपम कृति है…जिसे पढ़कर जौन एलिया का यह मानीख़ेज शे’र याद आता है…
“बे-क़रारी सी बे-क़रारी है
वस्ल है और फ़िराक़ तारी है”
गज्ज्जब !!! बिल्कुल नई तासीर | इन पंक्तियों का स्वाद ही अलग है | धन्यवाद!
किताब जरूर पढ़ूंगा |