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समालोचन

Home » कालिंजर: केशव तिवारी की कविताएँ

कालिंजर: केशव तिवारी की कविताएँ

बाघेन (बागे) नदी के किनारे विन्ध्याचल पर्वत श्रृंखला पर स्थित कालिंजर (बांदा, उत्तर-प्रदेश) प्राचीन दुर्ग है. अब इसमें सत्ता की धमक नहीं सुनाई पड़ती, ऋतुओं का सौन्दर्य बसता है, स्मृतियों की इधर-उधर टूटी बिखरी कड़ियाँ हैं. कवि केशव तिवारी कालिंजर के इसी बदलते हुए अर्थ को अपनी कविता में रचते हैं. प्रस्तुत है.

by arun dev
December 2, 2022
in कविता
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कालिंजर: केशव तिवारी की कविताएँ
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कालिंजर

केशव तिवारी की कविताएँ

 

कालिंजर

तुमने एक लंबे काल तक सुनी है
तोपो की आवाज़
मनुष्यता की चीख पुकार

एक नया इतिहास धीरे धीरे
आ रहा है तुम्हारे पास
आओ साथ मिल सुने उसकी
पदचाप

पर्याप्त जल हो गया है कोटि तीर्थ में
नीलकंठ प्रसन्न हैं
बस आशीर्वाद की मुद्रा में हैं

नीलकंठ के घोर मौन में
नाथ पंथियों की दीक्षा सा
माहौल है
पर
मैं तुम्हारे दुखो का क्या करूँ तुम्हारी
स्मृतियों का
उन बनते बिगड़ते राजवंशों का
जिनके निशान तुम्हारे शरीर नहीं
मन पर पड़े हैं

एक काल जब अपने को अतिक्रमित करता है
तमाम ध्वनियां हर्ष विषाद की
छोड़ जाता है

हम अक्सर मृगधारा की रिज पर
खड़े हो उसे सुनने की कोशिश करते हैं

तुम्हारे असीम गौरव के बीच
बस हमें

तुम्हारे चौबे महल की एक सीढ़ी पर्याप्त है
साथ साथ बैठ तुम्हें निहारने की

इतिहास के हाहाकार के बीच से
जो आ रहा है हम उसे भी
देख सुन रहे हैं.

 

photo courtesy: Sagar Das

जेठ में कालिंजर

अग्नि बरस रही है तुम्हारी
चट्टानों को छुआ भी नहीं जा सकता
जल स्रोत सूख चुके हैं

तुम्हारे विगत दर्प की तरह
लप लप कर रहीं हैं दिशाएं

जंगली जीव पलायित हो चुके हैं
बस आग ही आग बहती हवा में

रानी महल के सामने अभी अभी
सड़क पार कर रहा है
एक प्यास से हांफता हिरन

कोटि तीर्थ के ताल से उठ रही हैं
गर्म हवाएं

मृगधारा बस किसी तरह बचाये
मनुष्य और जीवन को

तुम्हारी चोटी से चांदी की पतली
धार की तरह बहती बागे* को
देखना है तो आना ही होगा
तुम्हारे पास
इस मौसम में भी

जेठ में हरदम तुम अपने
मूल रूप में होते
सार्थक करते अपने नाम को
जो काल को भी जीत ले

जेठ में तुम्हें देखना
असल मे कालिंजर को देखना है.

कभी कभी लगता है
जेठ में तुम पर कुछ भी लिखना

तपती धूप में कटरा की तरफ से
तुम पर चढ़ने जैसा ही कठिन है.

 

आसाढ़ का कालिंजर

तुम ठहरो मेघ कुछ दिन और ठहरो
अभी कहाँ भरे हैं
जेठ में धू धू जलती इन घाटियों के
प्राण अभी तो हमारे मन भी कहाँ
भरे हैं नके नके तक

मैं समझ रहा हूँ तुम्हारी चिंताए
तुम उत्तर को कुछ समय को
भेज दो अपने हरकारे

देखो वो दूर जो एक क्षीण काया
में तब्दील हो गई थी बागे
उसके तट तोड़ने का उन्माद देखो

गहराती रात में हमारे साथ
सुनो अपने चारों ओर घिर रहे
झरनों का शोर.

 

जाड़े का कालिंजर

जाड़े के दिन तुम्हारे आस्ताने* में
कुछ सुबहें कुछ दोपहर कुछ शाम

कुछ गहरी अंधेरी रात झींगुर रीवां
जुगनुओं सियारों की आवाजों
से रची एक अलग दुनिया

पेड़ दुशाले से तुम्हें ढांके रहते हैं
गहरी धुंध में

नीलकंठ से कटरा देखना
जहां जीवन मन्थर गति से
हिलता डुलता

जहां से एक अंदाजा लगा सकते हैं
स्त्री है फिर पुरुष

इतिहास की खोह में दुबका
जंगली खरगोश सा मन

दुर्ग में बैठ कर भी दुर्ग के बाहर
उचक उचक कर देख रहा है.

 

बसंत का कालिंजर

तुम्हारी घाटियाँ ऊंघ रही सुबह हो गई है
लगता रात बागे के साथ किसी
गहरे विमर्श में थी

चोटियां नीलकंठ की घंटी
की आवाज़ के साथ जाग जाती हैं

सूर्य की रश्मियों के साथ तुम्हें देख
लगता है एक बार फिर
लौट आया है तुम्हारा गौरव

अक्सर देखता हूँ
वैभव और विषाद साथ साथ
टहलते हैं यहां

कभी कभी लगता है तुम्हारे
भग्नवाशेषो पर पीठ टिकाए
बैठा कुछ बिसूर रहा बसंत

कभी कभी लगता है दूर
गठिया के मरीज बूढ़े सा
जो रोज नीलकंठ पर
जल ढारने आता है

शिव शिव कहता
हांफता उतर रहा है तुम्हारी
घाटियों से

भैरव भनचाचर की मूर्तियां
दिखा अब थक गया है पुजारी
बस उत्साह दक्षिणा में है

कुछ आश्वस्त नहीं करता
सब ठहरा थिर

सैकड़ों सालों की आवाजाही
ठहरी है हनुमानपोल के सामने

डण्डा लिए खड़ा गार्ड
बकरियां चराता बूढ़ा

जिनकी जिंदगी खुद जंग हो चुकी है
वो क्या करें सुनकर तुम्हारी जंगो का इतिहास

तुमसे बेहतर कौन पढ़ सकता है
इस बसंत का मन

___

बागे: नदी
आस्ताना:   औलिया अल्लाह (इस्लामी सूफी संत) की क़ब्र, दर, दरवाज़ा, दहलीज़, दरबार, मक़ाम, ठिकाना, रौज़ा  आदि.

केशव तिवारी
4 नवम्बर, 1963 प्रतापगढ़ (उत्तर-प्रदेश) 
कविता संग्रह- इस मिटटी से बना, आसान नहीं विदा कहना, तो काहे का मैं.
कविता के लिए अनहद सम्मान से सम्मानित.

 

सम्पर्क
बांदा (उत्तर-प्रदेश)
keshavtiwari914@gmail.com

Tags: 20222022 कविताएँकालिंजरकेशव तिवारी
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Comments 6

  1. रूपम मिश्र says:
    2 years ago

    ऋतु के सौंदर्य से सजी ये चारों कविताएं अप्रतिम हैं ।कालिंजर का दुर्ग जो कि कभी सत्ता की धमक , तोपों की आवाज , मनुष्यों की चीखों से गूंजता था अब ऋतुओं की नवीन सुंदरता से सज जाता है । वसंत ऋतु की कविता में ये विषाद कवि कहते हुए जैसे संताप और संघर्ष की अपनी मूल प्रकृति में जैसे गा पड़ता है कि तुम्हारे संघर्षों के इतिहास को जो सबसे करीब से निहारते हैं वे उस पर क्या गर्व करें , जिनका जीवन स्वयं संघर्ष है।

    Reply
  2. स्वप्निल श्रीवास्तव says:
    2 years ago

    केशव की कविता में कालिंजर के अनेक रूप दिखाई देते है । यह कवि की प्रिय जगह है ।
    मैं भी कालिंजर के सौंदर्य से मुग्ध हुआ हूँ ।

    Reply
  3. दया शंकर शरण says:
    2 years ago

    सच तो ये है कि काल अखण्ड है।हम अपनी समझ और
    सुविधा के लिए इसे खण्ड-खण्ड में देखते हैं।इन कविताओ
    में काल की प्रतिध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं।अंतिम कविता
    की अंतिम चार पंक्तियाँ मूल्यवान हैं।

    Reply
  4. Jeevan Singh says:
    2 years ago

    केशव तिवारी जिस तरह से कविता में इतिहास को दर्ज करते हैं तब दोनों में कोई फ़र्क नहीं रह जाता। इतिहास पढ़ते हैं तो वह कविता लगने लगता है और कविता पढ़ते हैं तो वह इतिहास लगने लगती है। इनके बीच जिस समय में हम रह रहे हैं वह अतीत को अपने साथ लेकर उसका अतिक्रमण कर जाता है यानी अतीत का मानवीय सारतत्व ही जैसे वर्तमान बन जाता है। इसके अलावा केशव तिवारी की भाषा और शिल्प का अनूठापन कभी अपनी धार नहीं खोता।

    Reply
  5. रुचि भल्ला says:
    2 years ago

    सभी मौसमों के कालिंजर को देखती ये कविताएँ
    आप नहीं लिखेंगे कवि केशव तिवारी तो किस कवि की कलम लिखेगी भला। क से कवि क से केशव तिवारी क से कालिंजर क से कालिंजर की कविता। हार्दिक बधाई आपको कवि। ये कविताएँ कालिंजर की तरह सहेजने योग्य हैं। बधाई-बधाई।

    Reply
  6. B K Tripathi says:
    2 years ago

    केशव तिवारी मेरे प्रिय कवि हैं। केशव जी इन कविताओं ने कालिंजर देखने की उत्कंठा बढ़ा दी है।
    बहुत अच्छी और कई जगहों पर रुककर सोचने को विवश करती कविताएँ।
    बधाई।

    Reply

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समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

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