कालिंजरकेशव तिवारी की कविताएँ |
कालिंजर
तुमने एक लंबे काल तक सुनी है
तोपो की आवाज़
मनुष्यता की चीख पुकार
एक नया इतिहास धीरे धीरे
आ रहा है तुम्हारे पास
आओ साथ मिल सुने उसकी
पदचाप
पर्याप्त जल हो गया है कोटि तीर्थ में
नीलकंठ प्रसन्न हैं
बस आशीर्वाद की मुद्रा में हैं
नीलकंठ के घोर मौन में
नाथ पंथियों की दीक्षा सा
माहौल है
पर
मैं तुम्हारे दुखो का क्या करूँ तुम्हारी
स्मृतियों का
उन बनते बिगड़ते राजवंशों का
जिनके निशान तुम्हारे शरीर नहीं
मन पर पड़े हैं
एक काल जब अपने को अतिक्रमित करता है
तमाम ध्वनियां हर्ष विषाद की
छोड़ जाता है
हम अक्सर मृगधारा की रिज पर
खड़े हो उसे सुनने की कोशिश करते हैं
तुम्हारे असीम गौरव के बीच
बस हमें
तुम्हारे चौबे महल की एक सीढ़ी पर्याप्त है
साथ साथ बैठ तुम्हें निहारने की
इतिहास के हाहाकार के बीच से
जो आ रहा है हम उसे भी
देख सुन रहे हैं.
जेठ में कालिंजर
अग्नि बरस रही है तुम्हारी
चट्टानों को छुआ भी नहीं जा सकता
जल स्रोत सूख चुके हैं
तुम्हारे विगत दर्प की तरह
लप लप कर रहीं हैं दिशाएं
जंगली जीव पलायित हो चुके हैं
बस आग ही आग बहती हवा में
रानी महल के सामने अभी अभी
सड़क पार कर रहा है
एक प्यास से हांफता हिरन
कोटि तीर्थ के ताल से उठ रही हैं
गर्म हवाएं
मृगधारा बस किसी तरह बचाये
मनुष्य और जीवन को
तुम्हारी चोटी से चांदी की पतली
धार की तरह बहती बागे* को
देखना है तो आना ही होगा
तुम्हारे पास
इस मौसम में भी
जेठ में हरदम तुम अपने
मूल रूप में होते
सार्थक करते अपने नाम को
जो काल को भी जीत ले
जेठ में तुम्हें देखना
असल मे कालिंजर को देखना है.
कभी कभी लगता है
जेठ में तुम पर कुछ भी लिखना
तपती धूप में कटरा की तरफ से
तुम पर चढ़ने जैसा ही कठिन है.
आसाढ़ का कालिंजर
तुम ठहरो मेघ कुछ दिन और ठहरो
अभी कहाँ भरे हैं
जेठ में धू धू जलती इन घाटियों के
प्राण अभी तो हमारे मन भी कहाँ
भरे हैं नके नके तक
मैं समझ रहा हूँ तुम्हारी चिंताए
तुम उत्तर को कुछ समय को
भेज दो अपने हरकारे
देखो वो दूर जो एक क्षीण काया
में तब्दील हो गई थी बागे
उसके तट तोड़ने का उन्माद देखो
गहराती रात में हमारे साथ
सुनो अपने चारों ओर घिर रहे
झरनों का शोर.
जाड़े का कालिंजर
जाड़े के दिन तुम्हारे आस्ताने* में
कुछ सुबहें कुछ दोपहर कुछ शाम
कुछ गहरी अंधेरी रात झींगुर रीवां
जुगनुओं सियारों की आवाजों
से रची एक अलग दुनिया
पेड़ दुशाले से तुम्हें ढांके रहते हैं
गहरी धुंध में
नीलकंठ से कटरा देखना
जहां जीवन मन्थर गति से
हिलता डुलता
जहां से एक अंदाजा लगा सकते हैं
स्त्री है फिर पुरुष
इतिहास की खोह में दुबका
जंगली खरगोश सा मन
दुर्ग में बैठ कर भी दुर्ग के बाहर
उचक उचक कर देख रहा है.
बसंत का कालिंजर
तुम्हारी घाटियाँ ऊंघ रही सुबह हो गई है
लगता रात बागे के साथ किसी
गहरे विमर्श में थी
चोटियां नीलकंठ की घंटी
की आवाज़ के साथ जाग जाती हैं
सूर्य की रश्मियों के साथ तुम्हें देख
लगता है एक बार फिर
लौट आया है तुम्हारा गौरव
अक्सर देखता हूँ
वैभव और विषाद साथ साथ
टहलते हैं यहां
कभी कभी लगता है तुम्हारे
भग्नवाशेषो पर पीठ टिकाए
बैठा कुछ बिसूर रहा बसंत
कभी कभी लगता है दूर
गठिया के मरीज बूढ़े सा
जो रोज नीलकंठ पर
जल ढारने आता है
शिव शिव कहता
हांफता उतर रहा है तुम्हारी
घाटियों से
भैरव भनचाचर की मूर्तियां
दिखा अब थक गया है पुजारी
बस उत्साह दक्षिणा में है
कुछ आश्वस्त नहीं करता
सब ठहरा थिर
सैकड़ों सालों की आवाजाही
ठहरी है हनुमानपोल के सामने
डण्डा लिए खड़ा गार्ड
बकरियां चराता बूढ़ा
जिनकी जिंदगी खुद जंग हो चुकी है
वो क्या करें सुनकर तुम्हारी जंगो का इतिहास
तुमसे बेहतर कौन पढ़ सकता है
इस बसंत का मन
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बागे: नदी
आस्ताना: औलिया अल्लाह (इस्लामी सूफी संत) की क़ब्र, दर, दरवाज़ा, दहलीज़, दरबार, मक़ाम, ठिकाना, रौज़ा आदि.
केशव तिवारी 4 नवम्बर, 1963 प्रतापगढ़ (उत्तर-प्रदेश) कविता संग्रह- इस मिटटी से बना, आसान नहीं विदा कहना, तो काहे का मैं. कविता के लिए अनहद सम्मान से सम्मानित.
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ऋतु के सौंदर्य से सजी ये चारों कविताएं अप्रतिम हैं ।कालिंजर का दुर्ग जो कि कभी सत्ता की धमक , तोपों की आवाज , मनुष्यों की चीखों से गूंजता था अब ऋतुओं की नवीन सुंदरता से सज जाता है । वसंत ऋतु की कविता में ये विषाद कवि कहते हुए जैसे संताप और संघर्ष की अपनी मूल प्रकृति में जैसे गा पड़ता है कि तुम्हारे संघर्षों के इतिहास को जो सबसे करीब से निहारते हैं वे उस पर क्या गर्व करें , जिनका जीवन स्वयं संघर्ष है।
केशव की कविता में कालिंजर के अनेक रूप दिखाई देते है । यह कवि की प्रिय जगह है ।
मैं भी कालिंजर के सौंदर्य से मुग्ध हुआ हूँ ।
सच तो ये है कि काल अखण्ड है।हम अपनी समझ और
सुविधा के लिए इसे खण्ड-खण्ड में देखते हैं।इन कविताओ
में काल की प्रतिध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं।अंतिम कविता
की अंतिम चार पंक्तियाँ मूल्यवान हैं।
केशव तिवारी जिस तरह से कविता में इतिहास को दर्ज करते हैं तब दोनों में कोई फ़र्क नहीं रह जाता। इतिहास पढ़ते हैं तो वह कविता लगने लगता है और कविता पढ़ते हैं तो वह इतिहास लगने लगती है। इनके बीच जिस समय में हम रह रहे हैं वह अतीत को अपने साथ लेकर उसका अतिक्रमण कर जाता है यानी अतीत का मानवीय सारतत्व ही जैसे वर्तमान बन जाता है। इसके अलावा केशव तिवारी की भाषा और शिल्प का अनूठापन कभी अपनी धार नहीं खोता।
सभी मौसमों के कालिंजर को देखती ये कविताएँ
आप नहीं लिखेंगे कवि केशव तिवारी तो किस कवि की कलम लिखेगी भला। क से कवि क से केशव तिवारी क से कालिंजर क से कालिंजर की कविता। हार्दिक बधाई आपको कवि। ये कविताएँ कालिंजर की तरह सहेजने योग्य हैं। बधाई-बधाई।
केशव तिवारी मेरे प्रिय कवि हैं। केशव जी इन कविताओं ने कालिंजर देखने की उत्कंठा बढ़ा दी है।
बहुत अच्छी और कई जगहों पर रुककर सोचने को विवश करती कविताएँ।
बधाई।