मध्यकालीन साहित्य की ओझल परतों की खोज
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हिंदी शोध पर नए विमर्शों और समकालीन साहित्य की गहरी छाप अभी महसूस होती है. यह एक अच्छी बात है और ऐसा होना हिंदी शोध की दुनिया को विस्तार भी देता है लेकिन इस परिदृश्य में हुआ यह है कि कुछ विरल अपवादों को छोड़कर हिंदी के प्राचीन तथा मध्यकालीन साहित्य के समर्पित अध्येताओं की कमी होती जा रही है. इसका परिणाम यह हुआ है कि प्राचीन और मध्यकालीन हिंदी साहित्य के प्रति हमारी समझ लगभग स्थिर-सी हो गई है.
हिंदी की अकादमिक और साहित्यिक दुनिया में शायद यह बात मान ली गई है कि जो ‘आज’ का है वही ‘नया’ है जबकि ऐसी बात है नहीं. ज़रूरी नहीं है कि जो ‘आज’ का हो वह ‘नया’ हो ही. जिस प्रकार संस्कृत के महान कवि कालिदास ने यह कहा था कि पुराना होने से ही कोई अच्छा नहीं हो जाता एवं नया होने से ही कोई ख़राब नहीं हो जाता उसी प्रकार आज यह कहने की आवश्यकता है कि पुराना होने से ही कोई ख़राब नहीं हो जाता और ‘आज’ का होने से ही कोई ‘नया’ नहीं हो जाता.
ज्ञान की दुनिया का एक काम ज्ञान को लगातार समकालीन बनाना भी है. यही कारण है कि आज भी अंग्रेजी के प्रमुख प्रतिष्ठित प्रकाशक प्लेटो और अरस्तू आदि पुराने लेखकों पर भी नए काम को आगे बढ़ कर छापते हैं.
हिंदी शोध के इस वातावरण में अमेरिका के ‘टेक्सास यूनिवर्सिटी’ में कार्यरत मध्यकालीन हिंदी साहित्य के युवा अध्येता दलपत सिंह राजपुरोहित की किताब ‘सुन्दर के स्वप्न’ आश्वस्ति का भाव जगाती है. इस पुस्तक का प्रकाशन ‘भक्ति-मीमांसा’ शृंखला के अंतर्गत हुआ है जिस के संपादक मध्यकालीन हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ और प्रखर सार्वजनिक बौद्धिक पुरुषोत्तम अग्रवाल हैं.
‘सुन्दर के स्वप्न’ किताब भक्तिकाल के निर्गुण धारा के कवि दादू के शिष्य सुन्दरदास पर केंद्रित है. हिंदी क्षेत्र में दो सुन्दरदास प्रचलित हैं. तनिक रोचक आदर का आवरण ले कर इन्हें ‘बड़े’ और ‘छोटे’ कहा जाता है. दोनों का संबंध दादू के नाम पर निर्मित दादू पंथ से ही है. ‘बड़े’ सुन्दरदास बीकानेर के राजा भीमराज थे जिन को दादू पंथ के नागा लोग ‘गुरु’ मानते हैं. ‘छोटे’ सुन्दरदास हिंदी की निर्गुण धारा के कवि हैं. यह किताब इन्हीं ‘छोटे’ सुन्दरदास (1596-1689 ई.) पर केंद्रित है.
‘सुन्दर के स्वप्न’ किताब की एक आह्लादकारी विशेषता यह है कि इसमें मूल स्रोतों के सहारे गहरी छानबीन की गई है. इन सब के साथ देशी-विदेशी शोध-ग्रंथों एवं आलोचनात्मक पुस्तकों का भी यथोचित उपयोग किया गया है. यहाँ तक कि पांडुलिपियों को भी खँगाला गया है जो अब हिंदी शोध में लगभग मृतप्राय अनुशासन हो गया है.
बिना पांडुलिपि-अध्ययन के हिंदी के प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य पर विचार एवं ज्ञान के नए क्षितिज की खोज करना संभव नहीं जान पड़ता. ऐसा इसलिए कि हमारे पास प्राचीन और मध्यकालीन हिंदी साहित्य के जो भी पाठ उपलब्ध हैं वे काफ़ी पुराने हैं. वासुदेवशरण अग्रवाल, विश्वनाथप्रसाद मिश्र, माताप्रसाद गुप्त और लाला भगवान दीन के द्वारा किए गए पाठालोचन का सहारा लेने को हम बाध्य हैं.
दलपत जी ने सुन्दरदास के साहित्य से संबंधित पांडुलिपियों का न केवल उपयोग किया है बल्कि अपनी किताब में उन की तस्वीरें भी दी हैं जिस से उन के काम की प्रामाणिकता तो सिद्ध होती ही है और साथ ही पाठक को एक नई दुनिया खुलती हुई महसूस होती है.
यह किताब इस परिकल्पना के सहारे आगे बढ़ती है कि हिंदी क्षेत्र में या कहें कि भारत में ‘यूरोपीय आधुनिकता’ से अलग या वैकल्पिक रूप में एक ‘आधुनिकता’ अपने तरीक़े से मध्यकालीन संदर्भों में उत्पन्न हो रही थी. इसे ‘आरंभिक आधुनिकता’ पद से अब विचार-विमर्श के क्षेत्र में बरता जा रहा है. कभी-कभी इसे ‘देशज आधुनिकता’ या ‘वैकल्पिक आधुनिकता’ भी कहा जाता है. यह अवधारणा अत्यंत विचारोत्तेजक है. उपनिवेशवादी दौर में भारत में जिस प्रकार बड़े पैमाने पर ‘यूरोपीयकरण’ हुआ और उसे ही ‘आधुनिकता’ की कसौटी मान लिया गया उस का यह अवधारणा खंडन भी करती है और उस पर कई महत्त्वपूर्ण सवाल भी खड़े करती है.
किताब का पहला अध्याय इसे ही विवेचित करता है. इस विवेचन से दलपत जी ने ‘यूरोकेंद्रित आधुनिकता’ के लक्षणों के समानांतर भारत की इस ‘आरम्भिक आधुनिकता’ की प्रवृत्तियों को स्पष्ट किया है. उन के अनुसार ‘आरंभिक आधुनिकता’ को
“भारत में व्यापार के बढ़ने, वर्णाश्रम के बंधन शिथिल पड़ने व उसके परिणामस्वरूप उभर रहे नए समाज में निम्नवर्गीय संतों तथा स्त्री भक्तों की प्रतिष्ठा और भक्ति कविता की व्यापक लोक स्वीकृति से जोड़ा जाता है.”
इन सब के साथ ही वे प्रसिद्ध संस्कृतज्ञ प्रो. शेल्डन पोलक के विचारों को प्रस्तुत करते हुए यह निर्धारित करते हैं कि
“आधुनिकता एक प्रकार की चेतना या बोध के होने की शर्त है जिसमें व्यक्ति-सत्ता का नया बोध तथा तर्कपूर्ण, संशय या सवाल करने वाले चित्त का उभरना और एक नई ऐतिहासिक संवेदना का विकास होना आदि प्रमुख हैं. यूरोकेंद्रित आधुनिकता से बाहर निकलकर उपर्युक्त सभी को ‘आधुनिकता’ का प्रमाण मानें तो भारत भी ‘अर्ली मॉडर्न’ दुनिया का हिस्सा बनता है.”
इस तरह से विचार करने पर कई प्रश्न भी मन में आते हैं. जैसे आधुनिकता का एक सिरा स्वतन्त्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व से जुड़ता है तो दूसरा सिरा वैज्ञानिक आविष्कारों से जुड़ता है. अगर हम ‘मध्यकालीन भारत’ को ‘अर्ली मॉडर्न’ कहना चाहते हैं तो हमें यह भी बताना होगा कि वैज्ञानिक आविष्कारों की किन कसौटियों पर वह समय आधुनिक है? ऐसा इसलिए कि आधुनिकता का अनिवार्य संबंध वैज्ञानिक चेतना और वैज्ञानिक आविष्कारों से है. दूसरा सवाल यह भी सामने आता है कि क्या ऐसा कहा जा सकता है कि भक्तिकाल या रीतिकाल में वैयक्तिकता का नया बोध सामने आता है? ऐसा इसलिए कि वैयक्तिकता भी आधुनिकता की एक भेदक प्रवृत्ति है. ‘व्यक्ति की उपस्थिति’ अलग चीज़ है और ‘वैयक्तिकता’ भिन्न वस्तु. ‘वैयक्तिकता’ व्यक्तित्व की वह ख़ास चीज़ है जो समेकित रूप से दूसरों से एक व्यक्ति को अलग करती है. इन सब के साथ यह भी प्रश्न मन में आता है कि यदि हम न्याय की अवधारणा पर विचार करें तो क्या भक्तिकाल या रीतिकाल के साहित्य में न्याय की ‘आधुनिक’ अवधारणा मिलती है? क्या व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा का भाव हमें प्राप्त होता है? प्रेम की स्थितियों के संदर्भ में व्यक्ति की उपस्थिति को देख कर हमें ऐसा लगता है पर क्या यह व्यापक पैमाने पर प्राप्त है? निश्चय ही ऐसे अनेक प्रश्न, जिज्ञासाएँ, उधेड़बुन तथा गुत्थियाँ ‘आरम्भिक आधुनिकता’ के प्रसंग में हमारे सामने आती हैं और इस किताब की यही ख़ूबी है कि इन बिंदुओं पर अत्यंत गहराई एवं सुलझे रूप से विचार भी करती है और हमें भी प्रेरित करती है.
किताब का दूसरा अध्याय दादूपंथ पर केंद्रित है. इस तरह से यह किताब भक्ति कविता के ‘बृहद आख्यान’, जिस में कबीर, सूर, तुलसी, जायसी और मीरा शामिल हैं, का विस्तार करती हुई उस में दादू एवं दादूपंथ को शामिल करती है और हमारे सामने भक्ति कविता के बृहत्तर परिवेश को उपस्थित करती है. इस अध्याय में दलपत जी ने अनेक प्रारंभिक शोध-स्रोतों का इस्तेमाल कर दादूपंथ के गठन, उस की शाखा-प्रशाखाओं, उन के बीच एकता, तत्कालीन केंद्रीय सत्ता यानी मुग़ल दरबार और स्थानीय अर्थात् यानी राजपूत रजवाड़ों से दादूपंथ के संबंध को विश्लेषित किया है. इस से यह भी पता चलता है कि निर्गुण धारा से जुड़े रहने के बाद भी दादू पंथ व्यवसाय और व्यापार करनेवालों से किस प्रकार न केवल जुड़ता है बल्कि उन के बीच समादृत भी होता है. इस से यह समझ में आता है कि दादूपंथ लोक परिवेश और राजसी अभिजात वर्ग की बौद्धिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के संवाद के रूप में भी कार्य कर रहा था. इस दृष्टि से देखने पर यह किताब मध्यकालीन हिंदी साहित्य के संदर्भ में दरबार और लोक के रिश्ते को नए रूपों में व्याख्यायित करती है.
मध्यकालीन हिंदी साहित्य के संदर्भ में हमारे मन में जो दरबार और लोक का जो द्वैध एवं द्वित्व (‘बाइनरी’) जमा है उसे भी यह थोड़ा झकझोरती है.
सुन्दरदास रामचंद्र शुक्ल के अनुसार-
“निर्गुणपंथियों में यही एक ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्हें समुचित शिक्षा मिली थी और जो काव्यकला की रीति आदि से अच्छी तरह परिचित थे.”
दलपत जी सुन्दरदास को केंद्र में रखते हुए भक्ति कविता के संदर्भ में ‘संत’ के रूढ़ हो गए अर्थ का विस्तार करते हैं और सुन्दरदास को ‘संत’ की नई परिभाषा रचते-गढ़ते पाते हैं. शब्दकोश के अनुसार यदि ‘संत’ शब्द का अर्थ समझा जाए तो उस का मतलब होता है ‘गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने वाला साधु.’ हालाँकि सुन्दरदास के बारे में प्रसिद्ध है कि वे बाल-ब्रह्मचारी थे.
दलपत जी ने यह विस्तार से बताया है कि सुन्दरदास कबीर और रैदास आदि संतों से अलग ही संत को परिभाषित करते हैं. इस प्रसंग में एक बात यह है कि सुन्दरदास ‘भक्त’ की तुलना में ‘ज्ञानी’ को अधिक महत्त्व देते हैं. दूसरी बात यह है कि वे वर्णाश्रम को कबीर की तरह न तो चुनौती देते हैं और न ही रैदास की भाँति उस की विनम्र किन्तु दृढ़ आलोचना करते हैं. सुन्दरदास के लिए वेदान्त समर्थित भक्ति सब से ऊपर हो जाती है. वे संतों का जो अनुक्रम निर्धारित करते हैं उस में सब से उत्तम संत वह है जो भक्ति के प्रति पूर्ण समर्पित हो, वर्णाश्रम के नियमों का पालन करता हो और विषय-वासनाओं से स्वयं को अलग रखता हो. क्या इसे विडंबना कहा जाए या भक्ति की बहुलता की पेचीदगी का उदाहरण कि जो निर्गुण धारा वर्णाश्रम के विरोध में सामने आई उसी का एक संत कवि वर्णाश्रम पालन करने वाले को उच्च स्तर का संत मान रहा है ?
क्या इस से यह सोचना सही होगा कि मुक्तिबोध ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘मध्ययुगीन भक्ति-आंदोलन का एक पहलू’ में जो सवाल पूछा है कि-
“क्या कारण है कि निर्गुण-भक्तिमार्गी जातिवाद-विरोधी आन्दोलन सफल नहीं हो सका?”
उस का जवाब सुन्दरदास जैसे संतो के निर्माण तथा उन की व्यवसायी-वर्ग में स्वीकृति और उन की कविता के प्रतिमानों में मिलता है? मतलब यह कि सुन्दरदास का साहित्य परोक्ष रूप से हमारे सामने यह स्पष्ट करता है कि निर्गुण-भक्तिमार्गी जातिवाद-विरोधी आन्दोलन किन प्रक्रियाओं के तहत असफल हो गया? इन सब के साथ सुन्दरदास अपने और संतों के कवि-कर्म को ले कर भी अत्यंत सावधान हैं. एक ओर जहाँ कबीर और रैदास आदि संत भूले से भी यह नहीं कहते कि वे कविता रच रहे हैं वहीं दूसरी ओर सुन्दरदास कविता रचने की बात तो मानते ही हैं और इस के लिए छंद आदि का ज्ञान भी आवश्यक करार देते हैं. दलपत जी ने यह भी ठीक लक्ष्य किया है कि-
“सुन्दरदास के लिए रीतिकवियों का ‘कवित्त’ (यानी कविता) और संतों की ‘वाणी’ का पैमाना एक ही है कि उसे कवियों की सभा में सराहा जाना चाहिए.”
हालाँकि सुन्दरदास ‘रसमंजरी’ (नंददास), ‘रसिकप्रिया’ (केशवदास) आदि किताबों को पढ़ने से मना करते हैं क्योंकि इन में नख-शिख वर्णन और शृंगार वर्णन बहुत अधिक है ! यद्यपि सुन्दरदास की इस स्थिति से यह भी पता चलता है कि भक्ति कविता की रीति कविता में जो रूपांतरण हुआ उस की कैसी और किस तरह की प्रक्रिया रही होगी ?
दलपत जी ने बहुत ही विस्तार और सप्रमाण केशवदास और सुन्दरदास के कविता संबंधी दृष्टिकोण का विश्लेषण किया है. केशवदास की ‘रसिकप्रिया’ किताब की आलोचना सुन्दरदास बाकायदा नाम ले कर करते हैं. इस से यह भी पता चलता है कि जिस मध्यकालीन साहित्यिक परिदृश्य को हम ठहरा हुआ या ‘जबदी हुई’ मनोवृत्ति मानते हैं वह ऐसा नहीं था. आधुनिक काल में ‘नई कविता’ को ले कर जिस तरह मुक्तिबोध एवं अज्ञेय में विचार-विमर्श होता है तो भक्तिकाल में भी सुन्दरदास केशवदास के कविता संबंधी दृष्टिकोण की आलोचना करते हैं. इस से यह भी पता चलता है कि साहित्य के इतिहास में प्रत्येक काल अपने हिसाब से ‘तुमुल कोलाहल’ वाला होता है और हमें हमेशा इसे ध्यान में रखना चाहिए ख़ासकर जब हम उस काल के साहित्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन कर रहे हों या उसे वर्गीकृत कर रहे हों. इसी संदर्भ में दलपत जी ने गुजरात के कच्छ राज्य में 1749 ई. में स्थापित ‘ब्रजभाषा पाठशाला’ या ‘भुज की पाठशाला’ का उल्लेख किया है जो एक नवीन तथ्य की तरह हमारे सामने आता है.
इस पूरे विवेचन में दलपत जी ने निर्गुण कविता की रूढ़ अवधारणा, कवि शिक्षा और भक्ति से रीति कविता में रूपांतरण की प्रक्रिया को स्पष्टता से रखा है. यह भी दिलचस्प है कि उक्त ‘पाठशाला’ में सुन्दरदास की दो रचनाएँ ‘सवैया ग्रन्थ’ और ‘ज्ञान समुद्र’ को पाठ्य-पुस्तक के रूप में प्रमुख स्थान मिला हुआ था. इस तथ्य के प्रकट होने से भी मध्यकालीन हिंदी साहित्य के प्रति इकहरी अवधारणा का खंडन होता है.
अध्येताओं के सामने यह सवाल भी आता है कि मध्यकालीन हिंदी साहित्य के प्रति इकहरी अवधारणा कैसे निर्मित होती चली गई?
दलपत जी ने अपनी किताब के आख़िरी अध्याय में इस पर भी विचार किया है. भारत में अंग्रेजी-राज के पहले बहुभाषिकता का अद्भुत रूप उपस्थित था. कवि एक भाषा में रचते हुए भी ‘षटभाषा’ को जानता था और उन भाषाओं के रचनात्मक दाय को स्वीकार भी करता था. लेकिन धीरे-धीरे इस बहुभाषिकता पर इकहरी भाषाई मानसकिता हावी होती चली गई. इस का परिणाम यह हुआ कि जो ब्रजभाषा एक तरह से पूरे मध्यकाल में एक ‘सार्वभौम भाषा’ की तरह थी और जिस के बारे में रीतिकाल के कवि भिखारीदास ने यह कहा था कि “ब्रजभाषा हेत बृजबास ही न अनुमानो” वह एक ‘बोली’ में तब्दील कर दी गई.
राष्ट्रवादी रुझानों ने उस की इस विविधता को परे करने में महत्त्वपूर्ण निभाई. दलपत जी ने यह अत्यंत कुशलता से रेखांकित किया है कि ब्रजभाषा की जिस ‘विविधता’ को रामचंद्र शुक्ल आलोचना का विषय मानते हैं उसी को भिखारीदास प्रशंसा के लायक समझते हैं. उन्होंने विस्तार से स्पष्ट किया है कि जिस ब्रजभाषा को मात्र कृष्ण काव्य की भाषा समझा जाता है वह काव्यशास्त्र, धर्मशास्त्र, शिक्षा, नीति, ज्योतिष आदि की भाषा बनती है. इतना ही नहीं उस का गद्य भी अनूठा है जिस की छाप आधुनिक काल के आरंभिक गद्य लेखक लल्लूलाल की रचनाओं पर भी देखी तथा महसूस की जा सकती है.
‘सुन्दर के स्वप्न’ किताब अपनी सहजता, विश्लेषण और गहराई में आकर्षक है. इस किताब को पढ़ने से मध्यकालीन हिंदी साहित्य के बारे में कई ‘मिथक’ टूटते हैं. साथ ही कई अवधारणाओं के बारे में सवाल मन में कौंधते हैं. अब तक मध्यकालीन हिंदी साहित्य के प्रति हमारी समझ को वैचारिक आलोड़न मिलता है. यह किताब मध्यकालीन हिंदी साहित्य के ओझल इतिहास की परतों की खोज करती है. अत: यह पुस्तक ‘अवसि पढ़हुँ पढ़न जोगू’ है.
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यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त की जा सकती है.
योगेश प्रताप शेखर दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय, गया(बिहार) में हिंदी के सहायक प्राध्यापक हैं. ‘हिंदी के रचनाकार आलोचक’ पुस्तक प्रकाशित है. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन.
ypshekhar000@gmail.com |
वियोगी जी की संत कविओं की किताब में इनपर थोड़ी बात है l अब विस्तार से इस पुस्तक में मिलेगा l जिज्ञासा बढ़ गई है पुस्तक प्राप्त करता हूँ l
सुंदर के स्वप्न की सुंदर समीक्षा, आपने जिस ओर अपनी चिंता जाहिर की है वह विकराल तो है ही, ऐसी किताब उम्मीद जगाती है। पढ़ता हूँ।
मध्यकालीन काव्य प्रवृतियों को समझने में इस आलेख से मदद मिलती है।विशेष रूप से आधुनिकतावादी विमर्श में।
योगेश प्रताप शेखर आदिकालीन और मध्यकालीन साहित्य के गम्भीर अध्येयता हैं। परिणामस्वरूप जहाँ कहीं विषय से संबंधित अच्छा काम होता है, उसकी नोटिस लेते हैं। राजकमल से ‘भक्ति मीमांसा’ श्रृंखला में अत्यंत महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हो रहीं हैं। इसी श्रृंखला के तहत डेविड लौरेंजन की किताब ‘निर्गुण संतो के स्वप्न’ ने आलोचकों का ध्यान आकर्षित किया था। दलपत सिंह राजपुरोहित लिखित ‘सुंदर का स्वप्न’ की योगेश जी की समीक्षा पुस्तक के प्रति उत्सुकता बढ़ाती है। और यही समीक्षा की सफलता है।
ये निश्चित ही एक विरल शोध लगता है। हो सकता है मेरा ज्ञान अल्प हो और मैंने सुन्दरदास के विषय में न पढ़ा हो। मैं भी ये पुस्तक पढ़ना चाहूँगा। बहुत बधाई समालोचन और लेखक को🙏🙏
अवसि पढहूं, पढ़न जोगू’… इस महत्त्वपूर्ण किताब की आमद का स्वागत है।