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समालोचन

Home » समाज अध्ययन के पुनर्गठन का घोषणा-पत्र: नरेश गोस्वामी

समाज अध्ययन के पुनर्गठन का घोषणा-पत्र: नरेश गोस्वामी

भारतीय ज्ञान परम्परा से संवाद का प्रतिफल है प्रसिद्ध राजनीतिक शास्त्री मणीन्द्र नाथ ठाकुर की पुस्तक ‘ज्ञान की राजनीति: समाज अध्ययन और भारतीय चिंतन’. मणीन्द्र नाथ ठाकुर के लेखन की विशेषताओं में एक ख़ास बात साहित्य की उपस्थिति है, वह भारतीय राजनीतिक व्यवस्था को समझने में साहित्य की भूमिका को मुखरता से स्वीकार करते हैं. इस पुस्तक पर आधारित समाज विज्ञानी नरेश गोस्वामी का यह आलेख गम्भीरता से इसकी महत्ता को समाने रखता है और कुछ प्रश्न भी यहाँ खड़े करता है. क्या यह पुस्तक समाज अध्ययन की परिपाटी में बड़े बदलाव की घोषणा है? प्रस्तुत है.

by arun dev
December 10, 2022
in समाज
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समाज अध्ययन के पुनर्गठन का घोषणा-पत्र:  नरेश गोस्वामी
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समाज अध्ययन के पुनर्गठन का घोषणा-पत्र

नरेश गोस्वामी

इस किताब को पढ़ने और इसका समग्र अर्थ ग्रहण करने के लिए पुनर्विचार का मानस चाहिए. विचार के तयशुदा सांचों या पूर्व-स्‍थापित मुहावरों के इर्दगिर्द खड़ी बौद्धिकता  को यह किताब कुछ नागवार गुज़रेगी.

मणीन्द्र नाथ ठाकुर

कुछ लोगों को इसमें वैज्ञानिक-तार्किक चेतना के स्‍थगन या उससे भटकाव की बू आएगी तो कुछ इसलिए निराश होंगे कि लेखक भारत की एक निश्चित ज्ञान-परंपरा के बजाय ज्ञान-परंपराओं की बात करता है और उनके प्रति पर्याप्त सम्मान प्रकट करने के बावजूद उन्हें विचार का अंतिम संदर्भ मानने को तैयार नहीं होता.

यानी संक्षेप में कहा जाए तो यह किताब अपने सूत्रीकरणों को अकाट्य, अटल और पुनर्मूल्‍यांकन से परे मानने वाले किसी भी विद्वान/पाठक को असहज, बेचैन या रुष्ट कर सकती है.

हालांकि इस किताब में बहुत कुछ ऐसा है जो राजनीति के समकालीन सरोकारों से ताल्लुक रखता है. और यह वहां भी कई अंधेरे कोनों को रोशन करने का काम करती है, लेकिन अपने अभिप्रेत और प्रतिपादन में यह मुख्यतः समाज अध्ययन (समाज विज्ञान) के पुनर्गठन का एक लंबा और सुविचारित घोषणा-पत्र है.

इसके बाक़ी पहलुओं पर हम बाद में आएंगे लेकिन यह बात शुरु में ही कह देनी चाहिए कि इस किताब में मणीन्द्र नाथ ठाकुर ने बड़ी हद तक वह काम कर दिखाया है जिसका हिंदी के विचार-जगत में बरसों से इंतज़ार किया जा रहा था. हम जानते हैं कि हिंदी में समाज विज्ञान के अनुदित ग्रंथ तो ख़ूब है लेकिन मूलत: हिंदी में संकल्पित, अद्यतन संदर्भों और विद्वत्ता से लैस किताब किसी आश्चर्य से कम नहीं होती. इसका स्वागत तमाम मत-मतांतर और पूर्वाग्रहों को एकतरफ़ रखकर किया जाना चाहिए क्योंकि ज्ञान-मीमांसा के बुनियादी सवालों से लेकर उसके जटिलतम पक्षों के परिचय और विवेचना की दोहरी जिम्मेदारी को एकसाथ उठा सकने वाली किताब कभी-कभार लिखी जाती है.

बहरहाल, समाज अध्ययन के मौजूदा स्वरूप से लेखक की असहमति के कई आयाम हैं. पहला, लेखक का तर्क है कि पश्चिमी आधुनिक चिंतन मनुष्य को विवेकशील प्राणी मान कर उसके स्वभाव के बाक़ी पहलुओं पर चर्चा नहीं करता. इसलिए वह एक एकांगी चिंतन है. इसके बरक्स भारतीय दर्शन मनुष्य के स्वभाव को बहुआयामी मान कर चलता है. इसलिए, भारतीय दर्शन में सार्वभौमिकता के लिए ज़्यादा गुंजाइश है.

लेकिन, भारतीय दर्शन को मनुष्य के बहुआयामी स्वभाव का ज्यादा प्रामाणिक स्रोत तथा सामाजिक जटिलताओं व यथार्थ की व्याख्या का ज्यादा कारगर तरीक़ा घोषित करने के बावजूद लेखक इस प्रश्‍न से परहेज़ नहीं करता कि “जब हमारे यहां उपनिवेशवाद का विस्तार हो रहा था तो क्‍या किसी संस्कृत या फ़ारसी के विद्वान ने कोई ग्रंथ इसके बारे में लिखा? यदि नहीं तो स्पष्ट है कि उनके ज्ञान से बदलते हुए विश्व को समझना संभव नहीं था. यानी अपने तत्कालीन समय को समझने की क्षमता उनमें रह नहीं गई थी” (भूमिका : XX).

इसलिए लेखक का आग्रह है कि समाज अध्ययन के अनुशासनों को अपनी स्वायत्तता के लिए भारतीय दर्शन से संवाद करना चाहिए. उसके मुताबिक़ यह संवाद इसलिए भी ज़रूरी है कि दर्शन का प्रभाव सामूहिक चेतना में अभी तक मौजूद है. आधुनिकता की सशक्त उपस्थिति के बावजूद यह प्रभाव जनचेतना और क्षेत्रीय सांस्कृतिक चेतना के रूप में विद्यमान है.

बंगाल, असम तथा मिथिला आदि के जनजीवन में क्रमशः सांख्य, तंत्र और न्याय दर्शन का प्रभाव अभी तक विन्यस्त है. इस प्रभाव को लक्षित किए बिना इन क्षेत्रों की संस्कृतियों को समझना मुश्किल है. लेकिन लेखक इस बात को लेकर भी सचेत है कि अब भारतीय दर्शन पर लिखना विवाद का काम बन गया है क्योंकि लोगबाग या तो उसका कीर्तिगान करने लगते हैं या फिर उसे ख़ारिज करने पर तुल जाते हैं जबकि सत्‍य हमेशा इन ध्रुवांतों के बीच स्थित होता है. इस संबंध में उसका यह सवाल उन तमाम विद्वानों को संबोधित है जो भारतीय ज्ञान-परंपरा को अविच्छिन्न और आत्‍मपूरित मानने पर ज़ोर देते हैं: “हमारे यहां आधुनिक विज्ञान का विकास क्यों नहीं हो पाया?  अगर, जैसा कि दावा किया जाता है कि हमारे यहां एक ख़ास तरह का विज्ञान बहुत विकसित था तो उस विज्ञान को हम दुबारा क्रियान्वित क्यों नहीं कर पाते?” (भूमिका: पृ. XX).

शायद यही वजह है कि लेखक ज्ञान की परंपराओं के बीच संवाद की ज़रूरत को लाज़िमी बताते हुए यह कहता है कि “हमें भारतीय दर्शन और पश्चिमी दर्शन या फिर किसी भी और दर्शन का स्वतंत्र अध्ययन करना चाहिए और बेहतर सार्वभौमिक समझ बनाने के लिए उनमें से तत्त्वों को ग्रहण करना चाहिए. हमारा उद्देश्य मनुष्य की मुक्ति के लिए ज्ञान सृजन करना होना चाहिए और इसके लिए जहां से भी तत्वज्ञान मिल सके उसे ग्रहण करना चाहिए” (भूमिका : XXIII).

ज़ाहिर है कि लेखक के परिप्रेक्ष्य में असहमति का विवेक और बहिष्कृत ज्ञान में निहित संभावनाओं का उद्घाटन केंद्रीय महत्त्व रखता है.

इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि लेखक भारतीय दर्शन के किसी विशुद्धतावादी उत्‍स की खोज नहीं कर रहा है. उसके लिए वह अस्मिता की राजनीति का साधन नहीं है. यही वजह है कि पश्चिम  के सामाजिक सिद्धांतों की अपूर्णता और भारत के लिहाज़ से उनकी अप्रासंगिकता को इंगित करने के बावजूद लेखक किसी तरह के राष्ट्रवादी अतिरेक से ग्रस्त नहीं होता, न ही वह भारतीय और पश्चिमी ज्ञान-मीमांसा को श्रेष्ठता के पदानुक्रम में रखकर देखना चाहता है. उसके लिए यह पड़ताल मुक्ति का माध्यम है जिसका मानव स्वभाव और सामाजिक यथार्थ के अपेक्षाकृत पूर्णतर अंकन के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए. यानी लेखक के लिए भारत की ज्ञान-परंपरा श्रेष्‍ठता-बोध की वस्तु नहीं जिज्ञासा, पड़ताल, विनियोग और उपयोगिता की विषय-वस्‍तु है.

दूसरे, लेखक को समाज अध्ययन का प्रचलित ढांचा और उसका पद्धतिशास्‍त्र प्राकृतिक विज्ञान की ज्ञान-मीमांसा से प्रतिकृत लगता है. मसलन, उसका तर्क है कि आधुनिक समाज विज्ञान का बुनियादी परिप्रेक्ष्य प्राकृतिक नियमों की अटलता, घटनाओं की बारंबारता के आधार पर सिद्धांत के निरूपण तथा अनुसंधान की प्रक्रिया को मानवीय चेतना से स्वतंत्र मानने पर ज़ोर देता है. उसका कहना है कि मुख्‍यत: भौतिकी की मीमांसा के आधार पर संगठित इस ज्ञान को समाज अध्ययन के पठन-पाठन में वस्तुनिष्ठ और सार्वभौमिक मान लिया, जबकि पिछली एक सदी में विज्ञान की अपनी ज्ञान-मीमांसा में ही बड़ा उलटफेर हो चुका है. मिसाल के तौर पर, पहले आइंस्‍टीन के सापेक्षिकता सिद्धांत, फिर क्‍वांटम भौतिकी और सातवें दशक में मौसम विज्ञान के क्षेत्र में केऑस थियरी (अनिश्चितता के सिद्धांत) के बाद एक तरह से यह सिद्ध हो गया है कि “हमें यथार्थ को अनेक परतों में समझना होगा. मनुष्य एकसाथ ही भौतिक, रासायनिक, जैविक और चेतन पदार्थ है” (पृ. 55).

लेखक विज्ञान के यथार्थवादी दर्शन के व्याख्याकार रॉय भास्‍कर के हवाले से भी कहता है कि अंततः हमें एक ऐसी तत्त्व मीमांसा की तरफ़ जाना चाहिए “जिसमें भौतिक पदार्थ और चेतना को अलग-अलग कर देखने के बदले उन्हें एक ही यथार्थ के दो आयामों की तरह समझा जाए” (पृ. 56).

इस संबंध में वह समाज विज्ञान की दशा-दिशा को लेकर 1995 में गठित किए गए गुलबेंकियन आयोग का उल्लेख करता है जिसका एक निष्कर्ष यह था कि आधुनिक समाज विज्ञान का प्रारंभिक रूप धर्मशास्त्र में देखा जा सकता है. लेकिन, आधुनिक विज्ञान की ज्ञान-मीमांसा ने समाज को देखने समझने का नज़रिया बदल दिया है. वह भावनाओं और मूल्यों के बजाय तथ्यपरकता को ज़्यादा अहमियत देता है. उसकी तत्त्व-मीमांसा का वर्चस्व इतना प्रबल है कि उसके आगे शोध की अन्य पद्धतियां अवैध ठहरा दी गईं हैं. और इसके चलते धर्म और संस्कृति का अध्ययन हाशिये पर ठेल दिया गया है.

समाज अध्ययन के मौजूदा पठन-पाठन से लेखक की असहमति का तीसरा कारण यह है कि अपनी बनावट में उसका ढांचा आज भी मुख्यतः राज्‍य की औपनिवेशिक संकल्पना को संबोधित करता है. लेखक का आग्रह है कि समाज अध्ययन को मुक्तिकामी होना चाहिए जबकि वह यथास्थितिवाद का वाहक बना हुआ है. उसका भारतीय चिंतन से उसका कोई वास्ता नहीं है. अगर कभी वह भारत की ज्ञान-परंपराओं की ओर जाता भी है तो आमतौर पर उसका रवैया अवहेलना और अवमानना का रहता है. उसके अनुसार भारत की ज्ञान-परंपराओं में समाज अध्ययन कथाओं के रूप में विन्यस्त रहा है. इसलिए रामायण और महाभारत को भी समाज अध्ययन की एक श्रेणी या उसके स्रोत के रूप में स्वीकृत किया जाना चाहिए. लेखक इस संदर्भ में योगवाशिष्ठ को राजनीति के प्रशिक्षण तथा महाभारत में धृतराष्ट्र और विदुर के संवाद को न्याय-अन्याय के एक उपयोगी विमर्श की तरह देखता है.

इस प्रसंग में लेखक भारतीय भाषाओं के पक्ष में बग़ैर किसी नारेबाजी के यह बात भी कह देता है कि भारत में समाज अध्ययन का क्षेत्र मूलतः अंग्रेजी भाषी, अभिजन-सवर्ण के नज़रिये और उसकी प्राथमिकताओं से आक्रांत रहा है. इस कारण वह भारतीय समाज की वृहत्तर सच्चाइयों, परिघटनाओं और प्रवृत्तियों के अध्ययन से बचता रहा है और इसके चलते शोध की नयी दृष्टि व अलक्षित इलाक़ों का संधान करने में विफल रहा है.

वृहत्तर समाज से समाज अध्ययन की असंपृक्ति के प्रसंग में लेखक की यह टिप्पणी गौरतलब है कि राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ज्ञान का सृजन भारतीय भाषाओं में ज़्यादा हुआ लेकिन आज़ादी के बाद भारत के विवि में ज्ञान की भाषा अंग्रेजी बन गई. इस तरह, समाज अध्ययन का जनता से कोई संवाद नहीं रह गया. पश्चिमी देशों में इस संवाद की ज़रूरत इसलिए नहीं थी क्योंकि वहां समाज में परिवर्तन का दौर ख़त्म होकर स्थायित्व आ चुका था. भारत में इस संवाद का टूटना बहुत गहरे अर्थ रखता था. हाशियाई समूहों के लिए समाज अध्ययन की भाषा और शब्दावली एकदम अजनबी थी क्योंकि वह अपनी बातों और अनुभवों को आपबीती के मुहावरे में रखना चाहता था. उसके लिए यही सहज और स्वाभाविक था. (पृ. 135)

लेखक की यह प्रश्‍नाकुलता भारत में समाज विज्ञान के अध्ययन-अध्यापन से संबंधित चार बड़े सवालों तक जाती है :

1 क्या समाज अध्ययन का ज्ञान समाज में कोई प्रभाव और अहमियत रखता है?

2 क्या वह समतावादी है?

3 क्या समाज अध्ययन के लिए अनुभवजनित और आत्मज्ञान का कोई महत्त्व है?

4 क्या भारतीय समाज की ज्ञान-परंपराओं, उसकी विशिष्टताओं तथा अनुभवों के आधार पर समाज अध्ययन के स्वरूप में किसी मौलिक परिवर्तन की दरकार है?
(पृ. 135)

इन चार सवालों के विवेचन की प्रक्रिया में लेखक ने समाज अध्ययन के पूर्व और उत्तर पक्ष की युक्ति का बड़ा विचारोत्तेजक इस्तेमाल किया है. यहां पूर्व-पक्ष से लेखक का अभिप्राय समाज अध्ययन के प्रचलित ढांचे से है जिसमें सामाजिक ज्ञान की वस्‍तुपरकता, मानवीय चेतना से उसकी तटस्थता या असंपृक्ति, धर्म से सायास दूरी तथा औपनिवेशिक श्रेणियों का बोलबाला रहा है जिसके प्रभाव में हम समाज की संस्थाओं तथा उनकी कार्यप्रणाली को विज्ञान की ज्ञान-मीमांसा के आधार पर समझने का प्रयास करते रहे हैं तथा इसके अनुलग्‍नक के तौर पर ज्ञान की यूरोपीय श्रेणियों को सार्वभौम मान बैठे हैं. समाज अध्ययन के इस स्‍वीकृत स्वरूप से लेखक की आपत्ति का मुख्य आधार यह है कि एक विधा के तौर पर वह मनुष्य के बहुआयामी स्‍वभाव तथा उससे निर्मित जटिल सामाजिक यथार्थ को व्यक्त करने में विफल रहा है.

लेखक ने पूर्व-पक्ष की इस संरचनात्मक अपूर्णता को दुरुस्त करने के लिए उत्तर-पक्ष के तौर पर बहुत कुछ ऐसा तजवीज़ किया है जिसे समाज विज्ञान के अंतर्गत आने वाले विभिन्न अनुशासनों की स्थापित विद्वत्ता सहज भाव से स्‍वीकार नहीं करती. मसलन, आधुनिक समाज विज्ञान का पूर्व-पक्ष अनुभवजन्‍य ज्ञान को बहुत वैधता नहीं देता. इसके पीछे यह दलील दी जाती है कि चूंकि अनुभवजन्‍य ज्ञान व्‍यक्तिनिष्‍ठ होता है इसलिए उसके आधार पर कोई सार्वभौम सिद्धांत नहीं गढ़ा जा सकता.

लेखक ज्ञान की अनुभवजन्‍यता बनाम वस्‍तुपरकता की इस बहस में राजनीतिक सिद्धांतकार गोपाल गुरु के तर्कों तथा तुलसीराम की आत्‍मकथा ‘मुर्दहिया’ के अपने विश्लेषण को शामिल करते हुए बड़े निश्‍शंक भाव से कहता है कि समाज अध्ययन की वर्चस्‍वी ज्ञान-मीमांसा में अनुभवजनित ज्ञान की अनुपस्थिति के कारण समाज के अनेक आयाम ज्ञान की प्रक्रिया से बहिष्कृत हो गए हैं. इसलिए समाज का अध्ययन करने वाली इस विधा को कला, कविताओं, आत्मकथाओं और मौखिक आख्‍यानों की सहायता लेनी चाहिए. लेखक के अनुसार यह इसलिए ज़रूरी है क्योंकि “समाज अध्ययन की विधा और भाषा की तुलना में इनमें भावनाओं के माध्यम से सामाजिक विश्लेषण की क्षमता ज़्यादा होती है” (पृ. 165.166).

कहना न होगा कि लेखक ने अपने इस तर्क को ‘मुर्दहिया’ के विश्लेषण के ज़रिये बखूबी साबित भी किया है. ‘मुर्दहिया’ का यह पाठ बताता है कि महज़ आत्‍मकथा कही जाने वाली एक कृति कैसे औपचारिक समाजशास्‍त्र से ज्यादा प्रामाणिक हो सकती है. यह दरअसल इस बात का भी निदर्शन है कि समाज विज्ञानों के औपचारिक विन्‍यास में जब तक अनुभवजन्‍य ज्ञान को जगह नहीं दी जाएगी तब तक ज्ञान के ऐसे तमाम अनुशासन समाज के जीवंत संदर्भों से संपृक्‍त नहीं हो पाएंगे.

बहरहाल, पूर्व-पक्ष की इस चर्चा के अंतर्गत लेखक ने धर्मनिरपेक्षता के विचार की जैसी मज़म्मत की है उससे पहली नज़र में बहुत-से लोग शंकित हो सकते हैं. लेकिन, अगर धर्मनिरपेक्षता के इस प्रतिवाद को धैर्य और ध्यान से पढ़ा जाए तो यह समझते देर नहीं लगेगी कि धर्मनिरपेक्षता का प्रति-विमर्श रचते हुए लेखक किसी किस्म की अनालोचित धार्मिकता का आह्वान नहीं कर रहा है. दरअसल, यहां लेखक का मंतव्‍य धर्म की सामाजिक भूमिका के कुछ ऐसे पहलुओं को दर्शाना है जिन पर अमूमन ध्यान नहीं दिया जाता.

उदाहरण के लिए, अपने इस विमर्श में लेखक ने तीन प्रकार के समाजों और उनके अनुषंगी धर्मों की चर्चा की है.

इनमें एक समाज ऐसा है जिसमें धर्म न केवल जनचेतना और लोगों के आचार-व्‍यवहार में स्थित होता है बल्कि वह प्रकृति और मनुष्‍य के अस्तित्‍वमूलक-नै‍तिक संबंधों को भी निर्धारित करता है. दूसरे प्रकार के समाज में धर्म प्रचार-प्रसार का विषय होता है. ऐसे समाज में किसी एक धर्म का अन्य स्थानीय धर्मों से द्वंद्व चलता रहता है. इस द्वंद्व के चलते समाज में ऐसी धार्मिक संस्थाएं अस्तित्व में आती हैं जिनका ‘स्वरूप लगभग राज्य जैसा ही होता है’, जबकि तीसरे प्रकार के समाज में किसी विश्‍व-धर्म को बाहर से लाकर स्थापित किया जाता है.

लेखक का कहना है कि पहले प्रकार के समाज में धर्मनिरपेक्षता का अभिप्राय यूरोपीय समाज से भिन्न होता है. ऐसे समाज में ‘सर्व धर्म समभाव’ या सभी धर्मों से उसूली फ़ासले को धर्मनिरपेक्षता का पर्याय माना जाता है. चूंकि दूसरे प्रकार के समाज में राज्य और धार्मिक संस्थाएं एक दूसरे के समकक्ष खड़ी रहती हैं इसलिए राज्य धार्मिक संस्थाओं को पराजित करने के लिए सन्नद्ध रहता है. ऐसे समाज में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धार्मिक संस्थाओं के प्रभाव को ख़त्‍म करना होता है, जबकि तीसरे प्रकार के समाज में संस्‍थागत धर्म के बजाय नास्तिकता को प्रश्रय दिया जाता है.

ज़ाहिर है कि लेखक धर्म की श्रेणी और परिघटना को इकहरी या निर्द्वंद संरचना की तरह नहीं देखता- यह बात किताब के एक अन्‍य लेख में बड़ी साफ़गोई से दर्ज की गई है. वह धर्म और समाज के बीच चलने वाली वर्चस्व की लड़ाई को इस तरह देखता है :

“इस वर्चस्व को बनाए रखने के लिए धर्म समाज के ताक़तवर वर्ग से संबंध स्थापित करता है और फिर दोनों एक-दूसरे के वर्चस्व को बनाए रखने के लिए तरह-तरह के उपाय करते हैं. इस वर्चस्व को बनाए रखने के लिए धर्म के ग्रंथों, उसके रीति-रिवाजों आदि का मानकीकरण किया जाता है ताकि उसे लोगों की अस्मिता से जोड़ा जा सके. अस्मिता से जुड़ते ही धर्म का नया स्वरूप सामने आता है जो उसके अनुयायियों को समुदाय में बदल देता है और फिर धर्म ज्ञान और उससे उपजे रीति-रिवाजों आदि की जगह विचारधारा बन जाता है. विचारधारा के रूप में धर्म समुदायों को संगठित करने और उनका संचालन करने वाली अन्य विचारधाराओं की तरह ही काम करने लगता है. उसमें ज्ञान की प्रमुखता की जगह यथास्थिति को बनाए रखने की ज़रूरत ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है”
(पृ. 207).

स्पष्ट है कि धर्म के उपरोक्त विमर्श में लेखक धर्म को अपरिवर्तनशील और अनैतिहासिक प्रत्यय के रूप में नहीं देखता. इससे यह भी ज़ाहिर है कि वह धर्म के प्रश्न को इतनी शिद्दत से इसलिये संबोधित कर रहा है क्योंकि समाज के अधिसंख्‍य लोगों का जीवन धार्मिकता से निर्धारित होता है और ऐसे में अगर समाज अध्ययन का कोई भी उपक्रम उसे एक ज़रूरी और वैध श्रेणी की तरह नहीं देखता तो उसकी सैद्धांतिकी अधूरी और एकांगी बनी रहेगी.

इस संबंध में हिंदी के दो चर्चित उपन्यासों-  ‘अनामदास का पोथा’ (आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी) तथा ‘कंकाल’ (जयशंकर प्रसाद) पर लेखक की विस्तृत टिप्पणी एक बार फिर इस बात का उदाहरण प्रस्तुत करती है कि साहित्य का जीवंत परिप्रेक्ष्य समाज अध्ययन की रूढ़ परिपाटियों को कैसे नये अर्थ और संदर्भों से लैस कर सकता है. लेखक द्विवेदी जी के रचना-संसार को भारतीय समाज की अस्मितागत बेचैनियों व राष्ट्रीय आंदोलन द्वारा भारतीय दर्शन को मौलिक आधार बनाने के प्रयासों का संदर्भ देकर कहता है कि द्विवेदी जी दर्शन और धर्म के संबंध में एक नयी और परिवर्तनकामी समझ, उनके सार्वभौम स्वरूप तथा कर्ममार्गी प्रतिबद्धता स्थापित करते हैं जिससे धर्म की आंतरिक आलोचना को एक दार्शनिक आधार प्राप्त होता है. लेखक के मुताबिक इस रचना में द्विवेदी जी एक तरह से भारतीय दर्शन का पुनर्पाठ प्रस्तुत करके यह स्थापित करते हैं कि ‘मुक्ति केवल चिंतन से ही संभव नहीं है बल्कि मुक्ति के संघर्ष के लिए क्रिया मार्ग ही उपयुक्त है… कि मुक्ति केवल एक व्यक्ति का प्रोजेक्ट नहीं हो सकता इसका सामाजिक स्वरूप ही संभव है’.

लेखक ने जयशंकर प्रसाद के उपन्यास ‘कंकाल’ के प्रतिपाद्य और संवादों की विस्तृत छानबीन के ज़रिए धर्म की आंतरिक आलोचना का एक ऐसा ही पाठ तैयार किया है. इससे ज़ाहिर होता है कि प्रसाद हिंदू धर्म की केवल आलोचना नहीं करते बल्कि इसके साथ विकल्प और मुक्ति के मार्ग की खोज भी करते हैं.

चूंकि लेखक समाज अध्ययन के प्रचलित स्वरूप को अपूर्ण, अपर्याप्त और एकांगी पाता हैं और उसे दुरुस्त करने के लिए भारतीय दर्शन में विहित पुरुषार्थ/विकार जैसी अवधारणाएं तजवीज़ करता है. लेकिन, इस संदर्भ में वह यह स्पष्ट करना नहीं भूलता कि पुरुषार्थ की अवधारणा का संबंध केवल हिंदू धर्म से नहीं है. उनके लिए यह एक दार्शनिक अवधारणा है जिसके सूत्र बौद्ध और जैन दर्शन के ग्रंथों में भी मिलते हैं. उसका कहना है कि हिंदू धर्म के ग्रंथों  की तुलना में बौद्ध और जैन ग्रंथों में इसकी ज़्यादा व्याख्याएं मिलती हैं. इसलिए पुरुषार्थ की अवधारणा को किसी धर्म से जोड़कर देखना उचित नहीं होगा.

देशज समाज विज्ञान की दृष्टि से लेखक का पुरुषार्थ विषयक विमर्श निस्संदेह एक रचनात्मक हस्‍तेक्षप की श्रेणी में आता है. हम जानते हैं कि स्वतंत्रता के बाद समाज विज्ञानों के भारतीय स्वरूप का प्रश्न किसी न किसी रूप में हमेशा मौजूद रहा है, लेकिन इस दिशा में दावे ज़्यादा किए गए हैं. पिछले चार दशकों के दौरान यह तर्क ख़ासा आमफ़हम हो चला है कि पश्चिम के वैचारिक-अकादमीय प्रभुत्‍व को प्रतिस्‍थापित करने के लिए हमें अपनी बौद्धिक परंपराओं का अवगाहन करना चाहिए और अपने विश्लेषण के प्रत्यय, श्रेणियां और संकल्‍पनाएं वहीं से ग्रहण करनी चाहिए. इस संदर्भ में दर्शन के जयपुर घराने का बड़े सम्मान से नाम लिया जाता रहा है, लेकिन वृहत्तर सच यह है कि सामाजिक परिघटनाओं के अध्ययन की दृष्टि और उपलब्धियों के नाम पर हमारे पास बहुत ठोस और मूर्त साक्ष्य नहीं हैं. इस मायने में सोवियत संघ के विखंडन, नव-उदारवादी अर्थव्‍यवस्‍था के वैश्विक प्रसार, राष्‍ट्र-राज्‍य की वैधता के गहराते संकट और पिछली सदी की निश्चितताओं के अवसान को समझने तथा मानव-समाज की एक नयी परिकल्पना हेतु पुरुषार्थ की अवधारणा का विनियोग निस्संदेह एक नवोन्‍मेषी योगदान है.

हालांकि इस संक्षिप्त समीक्षा में लेखक के पुरुषार्थ विषयक विमर्श के साथ न्याय नहीं किया जा सकता फिर भी इस संबंध में एक न्यूनतम प्रश्न यह उठता है कि क्या आधुनिक समाज को सरल समाजों द्वारा विकसित की गयी श्रेणियों के आधार पर संचालित किया जा सकता है? दूसरे, इस विमर्श के प्रसंग में एक कमी यह भी खटकती है कि इसमें अन्य विद्वानों के कार्यों का पर्याप्त उल्लेख नहीं मिलता. यह बात इसलिए कही जा रही है कि जहां अन्य अवधारणाओं की पड़ताल के क्रम में लेखक ने अद्यतन शोध के हवाले दिए हैं, वहीं पुरुषार्थ के प्रसंग में दयाकृष्‍ण तथा एंथनी परेल के नामोल्‍लेख के अलावा ज़्यादा पता नही चल पाता कि इस अवधारणा पर बाक़ी विद्वानों ने क्‍या कुछ लिखा है.

उपरोक्‍त दो बिंदुओं के अलावा किताब के वैचारिक गठन में एक बात स्पष्टीकरण की मांग करती है. लेखक अपनी भूमिका के आखिरी हिस्से में कहता है कि पूंजी आधारित उत्पादन प्रणाली के कारण जिस तरह का सामाजिक ताना-बाना बना वह पिछली व्यवस्था से बहुत अलग है. फिर इससे अगली ही पंक्ति में लेखक यह कहता है कि “इस सामाजिक व्यवस्था में तात्त्विक परिवर्तन के बावजूद मनुष्य के तात्त्विक गठन में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है” (पृ. XXVII-XXVIII).

हमें लगता है कि लेखक इस निष्पत्ति पर ज़रा जल्दी पहुंच गया है क्योंकि अगर सामाजिक व्यवस्था में कोई तात्त्विक परिवर्तन आता है तो उसका मनुष्य के मानसिक गठन पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है. ऐसे में सामाजिक व्यवस्था में आए बदलाव और मनुष्य के गठन में आए बदलाव दो पृथक इकाई मानना शायद उचित नहीं होगा. हम यह बात केवल अपनी तरफ़ से नहीं कह रहे, प्रस्तुत किताब के एक अत्यंत विचारोत्तेजक अध्याय— ‘संक्रमण काल में चिंतन के लिए सृजन-संवाद’, में उन तमाम कारकों और परिघटनाओं— आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, जीन एडिटिंग, न्‍यूरोन गतिविधि आदि से लेकर कोख को किराए पर देने जैसी घटनाओं का उल्लेख किया है जो मनुष्य के स्वभाव को आमूल बदलने की क्षमता रखते हैं.

इनके अलावा प्रौद्योगिकी के मनोवैज्ञानिक प्रभाव के अध्येताओं ने भी विभिन्न शोध-अध्‍ययनों में यह बात दर्ज की है इंटरनेट के आगमन के बाद जिस तरह डिटिटल-सोशल मीडिया का प्रसार-विस्‍तार हुआ है, उससे मनुष्‍य की सूचनाओं को धारण और संसाधित करने की क्षमता बाधित होने लगी है. खैर, हमारा कुल मंतव्‍य इतना है कि डिजिटल प्रोद्यौगिकी ने मनुष्‍य के स्वभाव को जिस अनजाने मुकाम पर पहुंचा दिया है, उसके बाद मानव-समाज द्वारा विकसित  पिछले परिप्रेक्ष्‍यों को बहुत निर्द्वन्द्व भाव से नहीं देखा जा सकता.

बहरहाल, यह किताब एक अन्‍य दृष्टि से भी विशेष महत्त्व रखती है. पिछले लगभग चार दशकों से सामाजिक सैद्धांतिकी के क्षेत्र में सांस्कृतिक सापेक्षतावाद का दबदबा रहा है. ख़ास तौर पर सोवियत संघ के पतन के बाद अकादमिक दुनिया के अधिकतर विद्वान समाज के वर्गीय अंतर्द्वंदों और अंतर्विरोधों से बचकर भिन्नता, अस्मिता और परंपराओं के अध्ययन पर ज़ोर देने लगे हैं. लेकिन, इस किताब का लेखक पूंजीवाद की उपस्थिति से कन्‍नी नहीं काटता. वह पूंजीवाद के सामाजिक प्रतिफलन- उन्नीसवीं सदी में उपनिवेशवाद के विस्‍तार, पहले विश्वयुद्ध के बाद लोक-कल्‍याणकारी नीतियों के सूत्रपात, बीसवीं सदी के सातवें दशक में सुविधा बनाम स्वतंत्रता यानी समानता के बजाय स्वतंत्रता की प्रतिष्ठा आदि के साथ इस बात पर भी नज़र रखे हुए है कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में उभरे विश्वव्यापी संकट के बाद पूंजीवाद के पास अपनी वैधता के लिए कोई तर्क नहीं बचा है. इसलिए अब आत्मरक्षा के लिए वह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे मानवेतर उपायों का सहारा लेने लगा है.

यहां, शायद इस बात का जिक्र करना अनुचित न होगा कि देशज समाज विज्ञान के ज़्यादातर पैरोकार पूंजीवाद की चतुर्दिक उपस्थिति और उसके दूरगामी प्रभावों को संबोधित नहीं करते. उन्हें लगता है कि जैसे केवल अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता के बल पर कल्पित समाज का निर्माण किया जा सकता है. इसके विपरीत इस किताब का लेखक अपने संधान में पूंजीवाद से उत्पन्न अमानवीय और पारिस्थितिक विसंगितियों को बहस से बदर नहीं करता (पृ.178).

जैसा कि हमने शुरु में कहा था, यह किताब समाज अध्ययन के पुनर्गठन का एक घोषणा-पत्र है. लेकिन, समाज विज्ञान की प्रचलित पद्धतियों और उसके विजयी विमर्शों के खि़लाफ़ पेशबंदी करते हुए लेखक ने एक तरह से सत्याग्रह का अंदाज़ अपनाया है. इसकी भाषा असंयत या तुर्श नहीं होती. यह भी कम उल्‍लेखनीय नहीं है कि लेखक किसी विचार या दृष्टिकोण का प्रत्‍याख्‍यान करते हुए हमलावर दिखाई नहीं देता.

वह उस विचार की सीमाओं की ओर इंगित करता है और फिर अपने उस विकल्‍प को आगे रख देता है जिसे अपनाकर प्रश्नांकित विचार अपनी अपूर्णता को छोड़ आगे बढ़ सकता है; लेखक अपने विश्लेषण के द्वारा पहले उन अवधारणाओं, श्रेणियों, पदों और परिप्रेक्ष्‍यों की अपूर्णताओं की ओर ध्‍यान खींचता है और फिर अपनी प्रस्‍थापनाओं से यह साबित करता है कि सैद्धांतिकी के इस संरचनात्मक असंतुलन को कैसे दुरुस्त किया जा सकता है. इस संबंध में यह भी ग़ौरतलब है कि लेखक प्रश्नेय को तुरंत विस्थापित या निर्वासित नहीं करता. वह ज्ञान के जीवंत और उपयोगी तत्त्वों को कहीं से भी ग्रहण करने की हिमायत करता है. इसके लिए वह ज्ञान के कमतर या प्रतिगामी मान‍ लिए गए या अलक्षित छोड़ दिए गए विमर्शों को संपादन, छंटाई-सफ़ाई, पुनर्व्याख्‍या, पुनर्संयोजन और पुनराविष्‍कार के ज़रिये दोबारा केंद्रस्थ करता है.

ज़ाहिर है कि बतौर विमर्शकार मणीन्‍द्र नाथ ठाकुर का यह बौद्धिक हस्तक्षेप किसी सेमिनार या विचारगोष्ठी की फौरी गर्मी से पैदा हुआ प्रतिक्रियात्मक पैंतरा या सत्ता के किसी केंद्र से निर्देशित संशोधनवादी एजेंडा नहीं है. अपनी आकांक्षा में यह पूर्व-स्थापित और समकालीन दृष्टियों, विभिन्न प्रकार के सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्यों और उनके व्यावहारिक फलितार्थों के बीच एक अन्विति की खोज है.

एक सीमित अर्थ में इसे रचनात्मक समन्वय का दृष्टिकोण कहा जा सकता है लेकिन यह भिन्नताओं से घबराकर या उन्हें समाधान से परे मानकर प्रदत्त यथार्थ को स्वीकार कर लेने वाला समन्वय नहीं है.
_____

यह पुस्तक यहाँ से प्राप्त की जा सकती है.

 

 

नरेश गोस्वामी
समाज विज्ञानी और हिंदी के कथाकार

‘स्मृति-शेष: स्मरण का समाज विज्ञान’ पुस्तक प्रकाशित.
सम्प्रति:
डॉ. बी.आर. अंबेडकर युनिवर्सिटी के देशिक अभिलेख-अनुसंधान केंद्र में अकादमिक फ़ेलो.
naresh.goswami@gmail.com

 

 

Tags: 20222022 समाजThe Politics of Knowledge: Social Studies and Indian Thoughtज्ञान की राजनीतिनरेश गोस्वामीमणीन्द्र नाथ ठाकुर
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Comments 13

  1. भूपिंदर बिष्ट says:
    2 years ago

    मनींद्र ठाकुर की इस जरूरी किताब पर हमारे यहां के राजनीतिक ताने बाने और राजनय के जाल में साहित्य की उपस्थिति को युक्तियुक्त करता पर यह बढ़िया आलेख है. समाज अध्ययन और राजनीतिक चिंतन की मुसलसल चलते रहने वाली गतिहृत क्रिया को नरेश जी ने यहां फिर से प्राणवान कर दिया है.
    लेखक को बधाई आपको साधुवाद.

    Reply
  2. रुबेल says:
    2 years ago

    इस बात में कोई दोराय नहीं है कि भारतीय ज्ञान परंपरा को फिर से देखने की जरूरत है। मैं बस ये जोड़ना चाहूंगी कि देशज का अर्थ क्या है ?क्या वाकई में उसका भारत में कोई एकाकी रूप है?

    देश का अर्थ भूमि से जुड़ा हुआ होता है जिसको नेमाडे विस्तार देते हुए कहते है कि देशीवाद एक तात्कालिक अवस्था ही होती है।बाहर से आने वाले भाषा और संस्कृति का जब देशी मूल्यों पर आक्रमण होता है तब अस्तित्व की रक्षा के लिए ही सही इस विचार का गठन होता है।

    क्या ऐसे में इस देशज में से किसी एक विचार को अलग किया जा सकता है और अगर विभिन्न विचारों को भी साथ ले कर चलें तब कैसे बाहरी और देशी के बीच की सीमाएं तय की जा सकती हैं।

    Reply
    • Naresh Goswami says:
      2 years ago

      Rubel आपकी बात से असहमत होने का कोई कारण ही नहीं है. सच यही है कि देशज की कोई एक परंपरा नहीं होती. शायद उसकी बनावट ही बहुलतावादी होती है. मेरे ख़याल में नेमाडे जी का कथन देशजता के समग्र बोध की केवल आंशिक व्याख्या कर पाता है. देशजता को महज़ किसी ख़ास क्षण या परिस्थिति की प्रतिक्रिया मानना उसके महत्त्व को सीमित कर देता है. मुझे तो लगता है कि एक नज़रिए के तौर पर वह स्वतंत्र रूप से मौजूद रहती है. इस तरह, उसे एक स्थायी संरचना माना जाना चाहिए.

      Reply
  3. Anonymous says:
    2 years ago

    प्रो. मणीन्द्र नाथ ठाकुर की यह किताब हमें समाज विज्ञान के ऐसे पक्ष की ओर ले जाती है जो एक तरफ विचारतंत्र की रीढ़ बनी हुई है और दूसरी तरफ कई विचारो की फांस बनी हुई है I फिर भी नरेश जी की यह समीक्षा अपने आप में पूरी किताब पर एक मुश्त विचार रखने का एक सफल प्रयास है l ज़ाहिर है कि प्रो मणीन्द्र नाथ ठाकुर की यह किताब समाज विज्ञान के बढ़ते उतावलेपन की गति को धीरे करते हुए उसके भारतीय पक्ष से संवाद करने की गुजारिश करता है l किताब से सहमती और असहमति का दौर तो चल पढ़ा है जो शायद कुछ वर्षों से शुष्क पड़ गया था l इस सब के साथ मैं यह जोर देकर कहना चाहुगा कि प्रो मणीन्द्र नाथ ठाकुर ने हिन्दी में जो समाज विज्ञान लिखने का जो साहस किया उसको मैं हिन्दी माध्यम के तालिबे इल्म की और से सलाम करता हूँ शुक्रिया ढाढ़स बढ़ने के लिए l नरेश जी को विशेष बधाई और अरुण जी “एक ही दिल कितनी बार जीतेंगे आप”l

    Reply
  4. दया शंकर शरण says:
    2 years ago

    समाज अध्ययन के औपचारिक औजारों का पुनर्मूल्यांकन करती यह किताब वस्तुपरकता से अधिक अनुभवजन्यता के पक्ष में है।इस स्थापना से समाजशास्त्र की परिधि में साहित्य के आने से इसका महत्व और भी बढ़ जाता है।

    Reply
  5. पवन माथुर says:
    2 years ago

    यह पुस्तक कहां से छपी है इसका भी उल्लेख हो जाता तो पाठक के लिए इसे खरीद कर पढ़ने की गुंजाइश बढ़ जाती ।

    Reply
    • समालोचन says:
      2 years ago

      सेतु प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है। ‘पुस्तक यहां से प्राप्त की जा सकती है’ में लिंक है । उसे क्लिक करके अमेज़न से इसे प्राप्त किया जा सकता है।

      Reply
  6. प्रवीण कुमार says:
    2 years ago

    पहली बात तो यही कि इतनी रचनात्मक भाषा में आलेख का आना अपने आप में अब एक अचरज है। सैद्धांतिकी को समझने और समझाने की सरस लेकिन सूई की नोक वाली भंगिमा और सिद्ध भाषा । मणिंद्र जी की किताब अब हाथ में है। इसकी वजह भी यह आलेख ही है। मुर्दहिया पर पढ़ना प्राथमिक उद्देश्य होगा। बधाई लेखक को भी और नरेश जी को भी।

    Reply
  7. Vinod Padraj says:
    2 years ago

    नरेश जी द्वारा की गई समीक्षा की सफलता यह है कि वह इस महत्वपूर्ण पुस्तक को पढ़ने को प्रेरित करती है
    उन्होंने अपने आलेख में पुस्तक के जिन संदर्भों से अपनी बात कही है लगता है पुस्तक समाज शास्त्र के प्रचलित पश्चिमी और पूर्वी दोनों पद्धतियों की सीमाएं बताते हुए नए विमर्श की प्रस्तावना है

    Reply
  8. RAMA SHANKER SINGH says:
    2 years ago

    मैंने इस किताब को पढ़ रखा था और इधर इस पर जो ऑफलाइन/ऑनलाइन चर्चाएँ हुईं, उनसे भी परिचित था. इसके बावजूद इस किताब के सामाजिक और ज्ञान मीमांसीय सन्दर्भ छूट जा रहे थे. नरेश जी ने उन्हें न केवल व्यवस्थित रूप से पेश किया है बल्कि इस किताब को पढ़ने की कई खिड़कियाँ भी खोल दी हैं. एक अच्छी समीक्षा यही तो करती है. उन्हें और मणीन्द्र जी को बार-बार बधाई.

    Reply
  9. सत्य नारायण says:
    2 years ago

    यह पुस्तक पढ़नी ही है। नरेश जी जिस नज़रिये से साहित्य को देखते हैं मैं अभिभूत हूँ। उनका आकलन कम से कम मेरे लिए तो आंख खोलने वाला है कि ऐसे भी देखना चाहिए साहित्य को ।

    Reply
  10. Kamlnand Jha says:
    2 years ago

    हिंदी में इस तरह की किताबों की आमद सुखद ही नहीं आश्वस्तकारी भी है। नरेश जी ने अत्यंत मनोयोगपूर्वक उसकी छानबीन की है। अमूमन पुस्तक की समीक्षा इतना डूबकरकर नहीं हो पाती है। वास्तविक टिप्पणी तो पुस्तक पढ़ने के बाद ही की जा सकती है। किंतु प्रथमदृष्ट्या समीक्षा पढ़कर ऐसा लगा कि समीक्षक ने कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण कथन पुस्तक के बारे में की है। अतिशयोक्ति पूर्ण कथन समीक्षा के धार को कुंद करता है। उदाहरण के लिए इस तरह के कथन “समाज अध्ययन (समाज विज्ञान) के पुनर्गठन का एक लंबा और सुविचारित घोषणा-पत्र है।”
    ” इस किताब में मणीन्द्र नाथ ठाकुर ने बड़ी हद तक वह काम कर दिखाया है जिसका हिंदी के विचार-जगत में बरसों से इंतज़ार किया जा रहा था।”
    ” हिंदी में संकल्पित, अद्यतन संदर्भों और विद्वत्ता से लैस किताब किसी आश्चर्य से कम नहीं।”
    पुस्तक के बारे में जिन महत्त्वपूर्ण स्थापनाओं की बात समीक्षक ने की है, उसकी स्थापना पहले भी विद्वानों ने की है। जैसे देशज ज्ञान बनाम औपनिवेशिक ज्ञान, भारतीय दर्शन के प्रति अनभिज्ञता, और शंका बनाम पाश्चात्य विचार और दर्शन, ( ओरेंटलिज्म की पूरी बहस इसी पर केंद्रित है) स्थानीय भाषाओं (वर्नाक्यूलर लैंग्वेज)में विन्यस्त ज्ञान बनाम अंग्रेजी ज्ञान, ज्ञान का सिद्धांत पक्ष बनाम बनाम व्यवहार पक्ष आदि- आदि। लेकिन पूर्व में इस तरह की बातें हो जाने का कदापि यह अर्थ नहीं है कि उस पर नये सिरे से बात न हो। यह सच है कि हिंदी (मौलिक) में इस तरह की किताबों का अकाल है। मणीन्द्र जी लगातार साहित्य और समाज के अंतरसंबंध को लेकर चिंतित रहे हैं और बहुत गहराई से उस पर विचार करते रहे हैं। मैं उनका नियमित ही नहीं प्रशंसक पाठक रहा हूँ। इसके बावजूद मुझे लगता है, समीक्षा में अभिभूत और न भूतो न भविष्यत’भाव नहीं आना चाहिए।

    Reply
    • नरेश गोस्वामी says:
      2 years ago

      आदरणीय कमलानंद जी, टिप्पणी के लिए शुक्रिया.

      आपकी यह बात बिल्कुल दुरुस्त है कि समीक्षा में अतिश्योक्ति से बचा जाना चाहिए. लेकिन, मैंने इसमें कुछ सवाल भी उठाए हैं. संक्षेप में कहूँ तो मैंने लेखक से यह दरियाफ़्त की है कि क्या पुरुषार्थ जैसी अपेक्षाकृत सरल समाजों में विकसित हुई संकल्पना से औद्योगिक-उपभोक्तावादी समाजों की जटिलताओं का हल निकाला जा सकता है? दूसरे, मैंने यह भी पूछा है कि पिछले तीन दशकों में मनुष्य के जीवन में जिस तरह के बुनियादी परिवर्तन ( जीन एडिटिंग तथा वर्चुअल रियलिटी आदि) हुए हैं उनमें मनुष्य के स्वभाव को तात्त्विक रूप से बदलने की क्षमता है, इसलिए लेखक का यह कहना आश्वस्त नहीं करता कि सामाजिक परिवर्तनों के बावजूद मनुष्य के गठन में कोई तात्त्विक अंतर नहीं आया है.
      इसके अलावा, ‘ऐसी किताब का हिंदी विचार-जगत बरसों से इंतज़ार कर रहा था’ जैसा फ़िक़रा अतिश्योक्ति के बजाय
      एक व्यापक सच्चाई की ओर इंगित करता है. जहाँ तक समाज विज्ञानों के पठन-पाठन का प्रश्न है, पिछले बीस बरसों में मूलतः हिंदी में लिखी गई कोई ऐसी किताब बताईये जो समाज विज्ञान के नये, समकालीन और पुराने विमर्शों का पता देती हो या जिसमें शोध के क्षेत्र में नये प्रयोगों और नवाचारों का ऐसा सघन परिचय और विश्लेषण मिलता हो!
      आपकी नज़र में ऐसी रचनाएँ हों तो कृपया बताईये.

      Reply

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