देह की एकान्तिक भूमि पर (सपना भट्ट की कविताएँ) सन्तोष अर्श |
महादेवी वर्मा एक गीतिका में लिखती हैं:
अश्रु ने सीमित कणों में बाँध ली,
क्या नहीं घन-सी, तिमिर- सी वेदना ! (रश्मि)
कविता की स्वच्छन्दता के साथ प्रगाढ़ वेदना सैलाब की तरह उमड़ कर आयी. ऐसी विकट विषादग्रस्त भावाकुलता, वैयक्तिक दुःख की ऐसी विस्फोटक अभिव्यक्ति कविता में पहले कभी नहीं देखी गयी थी. वेदना आयी, फिर संवेदना बनी और वैज्ञानिक-चिन्तन से जुड़कर ज्ञानात्मक-संवेदना बन गयी. वहाँ से फिर तीसरे रास्ते की तलाश शुरू हुयी. आगे निस्सारता का मार्ग मिला, उस पर भी त्राण नहीं, प्राण आकुल ही रहे. घन-सी, तिमिर-सी वेदना, निस्सारता की, शून्य में जाने वाली सुरंग में भी पीछा नहीं छोड़ती. जिस अनन्त निस्सार सुरंग में हम घुसते जाते हैं, वह हमारी चेतना में उतनी ही गहराई से पैबस्त होती जाती है. जैसे समय अनन्त है और कहीं नहीं ले जाता, वैसी ही वेदना अनन्त है.
जैसा कि खगोलविद् कार्ल सेगन कहता है कि ‘हम उन तितलियों की भाँति हैं जो एक दिन के लिए अपने रंगीन पंख झिलमिलाती हैं और सोचती हैं कि यह सदा के लिए है.’ कविता उसी घन-सी, तिमिर-सी वेदना का उपचार है, जिसे महादेवी के एक अश्रु ने ‘सीमित कणों’ में बाँध लिया. हिन्दी की छायावादी कविता में दुःख, शोक, वेदना, प्रेम, स्मृति और आत्मछाया की जो रहस्यमय अभिव्यक्ति है, वह आगे आने वाली कविता के लिए प्रेरक तत्त्व रही है इसलिए उसका रूपविधान और अभिव्यंजना अब तक की कविता में बने हुए हैं. रामचन्द्र शुक्ल ने छायावादी काव्य-चेष्टाओं को आलोचकीय व्यंग्य के पुट में ‘मधुचर्या’ शब्द से टाँक दिया था. जीवन की सारी मिठास शोक, दुःख, वेदना और अश्रुओं के साये-साये रिसती है. इस प्रकार मानवीय जीवन से अभिन्न, इन भावों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति वस्तुतः जीवन और साहित्य के गहरे सम्बन्धों की भी पुनर्रचना है.
कविता को पढ़ने, समझने और उसकी समुचित व्याख्या के लिए जितने सिद्धांत हैं, कविता अपनी रचनात्मक और वैचारिक प्रगति से उन्हें पीछे छोड़ती जाती है. निस्सारता की दहलीज़ पर खड़े हो कर भी हम अर्थ के लिए हाथ-पाँव मारते रहते हैं. निरर्थकता में अर्थ की तलाश (Meaning of Absurdity) वैचारिक उद्विग्नता और रचनात्मक उलझनों से घेरे रखती है, लेकिन मनुष्य झूठे अर्थ भी अपनी हथेली पर बुलबुलों की तरह सजाकर जीना चाहता है. और जीना भी चाहिए. दर्शन में निहित तमाम वादों से गुज़रने के पश्चात् लगता है कि दुनिया और मानवीय व्यवहार व उसकी सामाजिकता को समझने के लिए मार्क्स और फ़्रायड से बच पाना आज भी सम्भव नहीं. शायद यही कारण है कि अब तक ये दोनों संसार में सर्वाधिक पढ़े और व्याख्यायित किये जाने वाले दार्शनिक बने हुए हैं.
सपना भट्ट के ‘चुप्पियों में आलाप’ संग्रह की कविताएँ पढ़कर हम भाषा के व्यंजनात्मक प्रभावों से बच कर नहीं निकल सकते. इन कविताओं में सरल, सुगठित हिन्दी गद्य और डिक्शन का बर्ताव सुफलित हुआ है, बल्कि कई बार यह कौंध उठता है. इन्हें पढ़कर काव्य-रस-ग्राही मन को प्रतीत होगा कि उसने शहद निकालने वाले बहेलियों की तरह किसी छत्ते को टटोल कर देखा है और शहद-रस चू कर उसके हाथों से लिपट गया है. यहाँ डिक्शन को मधुमक्खियों की तरह माना जाय. हिन्दी में प्रचलित ‘मधुमक्खी के छत्ते में हाथ देना’ मुहावरा केवल मधुमक्खियों के डंक पर व्यञ्जना-केन्द्रित है, उनकी मधु-संग्रह की जीवन-रीति पर नहीं ! स्मरण होती हैं रीतिकाल के बेहतरीन कवि ‘देव’ की पंक्तियाँ :
“बेगि ही बूड़ि गयीं पँखियाँ, अँखियाँ मधु की मखियाँ भयीं मेरी”
रूखे शब्दों से रस निचोड़ लेना काव्य-कला का पहला क़ायदा है. संभवतः तभी इस देश की समृद्ध रसवादी काव्य-परम्परा में भाषा-प्रयोग का लाघव भी निहित है.
अध्यात्मवादी जिसे आत्मा कहते हैं, पदार्थवादी उसे चेतना कहते हैं. आत्मा सपना की कविताओं में बहुत पीड़ित है. आत्मिक पीड़ा की इस धारा के उद्गम स्थल तक पहुँचने के लिए दर्शन का मार्ग अभीष्ट है. आत्मा के भीतर, आत्मा का घर है. आत्मा के रोशनदान, आत्मा का कारावास, आत्मा पर दुःखों के दाग़, आत्मा का सहन, आत्मा का साज़, आत्मा की सांकलें, आत्मा का आँगन, आत्मा का खोखल, आत्मा की देहरी, आत्मा का विलाप, आत्मा का ताप, आत्मा का पता और आत्मा का तिर्यक भी है. गोया यह कोई दुःखती, कसकती आत्मा हो. किन्तु आत्मा तो रोशनी का झरना भी है, उसके गवाक्षों से अँधेरे की टपकन किंचित अस्तित्ववादी है. लिहाज़ा इन कविताओं में कवि का क्लान्त आत्म, आत्मनिर्वासन के निर्जन में ले जाता है. गीता के एक श्लोक में आत्मा के विषय में कहा गया है :
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चाण्यः I
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रणोति श्रुत्वाप्येनम वेद न चैव कश्चित् II (2-29)
इससे पूर्व के श्लोक में कथन है :
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत I
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना II (2-28)
“सारे जीव प्रारंभ में अव्यक्त रहते हैं, मध्य अवस्था में व्यक्त होते हैं और विनष्ट होने पर पुनः अव्यक्त हो जाते हैं. अतः शोक करने की क्या आवश्यकता है?”
(भगवद्गीता, स्वामी प्रभुपाद)
सपना की कविताओं को पढ़कर मैं उनकी आत्मा को गीता के उसी अन्य पुरुष की भाँति ‘आश्चर्य’ से देखता हूँ. विचित्र संयोग है कि हिन्दी की बेहद ज़हीन कवि मोनिका कुमार ने गीता के इसी श्लोक (2-29) से अपने कविता-संग्रह का शीर्षक ‘आश्चर्यवत्’ चुना था. बहरहाल गीता के उद्धरित श्लोकों में यह रहस्य छिपा है कि आत्मा हो-न-हो, शोक किसी भी स्थिति में नहीं करना चाहिए. आत्म-असन्तोष का यह आख्यान अस्तित्ववादी विचार-भूमि के अलावा फ़्रायड के मनोविश्लेषण की ओर ले जाता है. वह महान दार्शनिक अपनी चिकित्सकीय स्थापनाओं में कहता है, ‘दुःख में संसार वंचित दिखायी देता है, क्योंकि वहाँ प्रिय देर तक नहीं रहता और अवसाद में अहं का दारिद्र्य उत्पन्न हो जाता है.’ यही जीवन का शोक है और कवि की ख़ातिर जीवनपर्यंत बने रहना चाहता है :
फिर भी चाहती हूँ कि
प्रेम का यह दु:ख जीवनपर्यंत बना रहे
(सुख का स्वांग)
शोक के अलावा अतृप्त-कामनाओं का देहराग है जो फ़्रायड के विश्लेषण के आँगन में बेतकल्लुफ़ी से खड़ा है. देह के व्यक्त होने से आवेगमयता और बढ़ जाती है और कविताओं में ऐन्द्रिक सम्मोहन उत्पन्न हो जाता है. यहाँ दुःख में लिपटी हुई यौनिकता है, किसी परित्यक्ता नायिका की सी टीस है-
मेरी यह सजीली देह
तुम्हारी निषिद्ध देहरी पर सर रखे ऊँघती रहती है
और मुझे अचानक
तुम्हारा द्वार खुल जाने के मीठे सपने आते हैं.
मेरे निकट आते लोगों को
मुझसे तुम्हारी गंध आती है
हैरत है कि तुम अपनी गंध नहीं पहचानते.
(अहर्निश दु:ख)
अतृप्त रह गयीं इच्छाएँ
आत्मा के सहन में अस्थियों की तरह
यहाँ-वहाँ बिखरी पड़ी हैं
जिनका अंतर्द्वंद्व तलवों में नहीं
हृदय में शूल की तरह चुभता है.
अपनी देह में तुम्हारा स्पर्श
सात तालों में छुपा कर रखती हूँ.
मेरी कंचुकी के आखिरी बंद तक आते-आते
तुम्हें संकोच घेर लेता है.
(तुम कहाँ हो!)
छुए इतने ठीक तरीके से कि पति स्वप्न में भी न जान पाए
कि उसके कंधे पर दिया सद्य तप्त चुंबन उसे नहीं दरअसल उसके प्रेम की किस्मत के लिए है.
(रियायत)
इक मद्धम-मद्धम सी थिरकन
मेरी देह की एकांतिक भूमि पर तुम्हारा रोपना प्रेम था.
(वह प्रेम था)
फ़्रायड के बूते यह बात कही जा सकती है कि इन कविताओं में जो औदात्याभास है वह अतृप्त प्रेम-कामनाओं (sublimation of unsatisfied libido) से उत्पन्न है. और इसे कवि ने अनायास प्रकट कर दिया है. बड़ी बात यह है कि छायावादी कवियों की भाँति (आचार्य शुक्ल के शब्दों में) यहाँ कोई ‘रहस्यवाद का परदा’ नहीं है. प्रतीकों से बना ऐसा कोई परदा होता तो निश्चय ही कविता का ऐन्द्रिक सौंदर्य जाता रहता. ‘तुम कहाँ हो’ कविता में कंचुकी के आख़िरी बन्द के पास जो संकोच घिरता है, वह इस इमेज़ में एक सिनेमैटिक सेंसुअलिटी भर देता है. निश्चय ही यह कविता में एक बड़ी सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति है. दूसरी ओर अतृप्ति, शोक और अतीव दुःख फ़्रायड के और नज़दीक ले जाते हैं. इतनी तीव्र वेदना, इतना गहरा शोक कहाँ से आता है ?
मन के कौमार्य से देह की तृष्णाओं तक
एक शोकागार इस अश्रव्य रुदन की
ध्वनियों से भरा हुआ है.
(प्रेम की अहर्ताएँ)
अश्रव्य रुदन वस्तुतः अरण्य रोदन है जो आत्मनिर्वासन की स्थितियों के धुँधले चित्र खींचता है. शोक की यह गाढ़ी स्याही जैसे सपना की मूल काव्य-प्रवृत्ति है. यहाँ ध्यान देना होगा कि इस प्रगाढ़ शोक को अभिव्यक्त करने में सपना सफल रहती हैं तो उद्दाम आवेगमयता के बल पर. निःसन्देह यह प्रेम की उद्दाम चाह है. फ़्रायड लिखता है :
“Profound mourning, the reaction to the loss of someone who is loved, contains the same painful frame of mind, the same loss of interest in the outside world- in so far as it does not recall him- the same loss of capacity to adopt any new object of love.”
(Freud, Mourning and melancholia)
बाहर और भीतर की इसी दुनिया में संवेदनापूर्ण मानवीय अस्तित्व झूलता रहता है. वाह्य और अभ्यंतर के इसी द्वंद्व में संतुलन न साध पाने पर व्यक्तित्व में द्वैत उत्पन्न हो जाता है. भारतीय समाज में जैसी प्रथाएँ हैं, वहाँ साधारण स्त्री को दोहरे निर्वासन का सामना करना पड़ता है. एक भौतिक निर्वासन, जो वह पितृसत्तात्मक व्यवस्थाओं को निबाहते हुए स्वीकार करती है और दूसरा मानसिक, जो भौतिक निर्वासन की प्रति छाया है. फिर आती है इन परम्पराओं से विद्रोह करने वाली स्त्री, वह तो निर्वासन के अजदहे के मुख में स्वयं ग्रास बनकर जाती है. यही कारण है कि स्त्री जीवन में कई बार ख़ुद को कातर दृष्टि से देखते हुए (ख़ुद को ही) अलविदा कहती है. इन चरणबद्ध अवस्थाओं के सत्य में बिंधी स्त्री के मन को दुःख, शोक, वेदना, स्मृतियों और आत्मपीड़ाओं के सिवाय क्या हासिल होगा ?
बाहर देह की मिट्टी भीजती रहती है
भीतर मन को शोक गलाता रहता है
पीड़ा के अक्षुण्ण धूसर दागों से
आत्मा बदरंग होती जाती है.
(पलायन)
शोक के विषय में फ़्रायड आगे लिखता है, ‘शोक लागातार एक प्रेमी व्यक्ति की क्षति की प्रतिक्रिया है, किसी अमूर्त के नुक़सान के लिए जिसने किसी का स्थान ले लिया है, जैसे किसी का देश, स्वतंत्रता, कोई आदर्श या ऐसा ही कुछ.’
(Freud, Mourning and melancholia)
यहाँ एक बात हैरान करने वाली है कि वाह्य और अभ्यंतर के इस द्वंद्व और आत्म निर्वासन के जंगल में भटकते हुए भी सपना की कविताओं में फैन्टेसी का प्रचुर प्रयोग नहीं मिलता. इस तथ्य के आधार पर यह ख़याल भी आना चाहिए कि फैंटसी के प्रयोग से वे और सघन तथा कलात्मक कविताएँ रच सकती हैं. फ़्रायड के अनुसार,
‘हम यह कह सकते हैं कि एक प्रसन्न व्यक्ति कभी रम्य-कल्पना-मग्न (फैंटेसाइज़) नहीं होता, केवल असंतुष्ट कोई. अतृप्त इच्छाएँ ही रम्य-कल्पना-मग्न करने की प्रेरक शक्तियाँ हैं और प्रत्येक रम्य-कल्पना किसी इच्छा की पूर्ति है, असंतुष्टि के यथार्थ में संशोधन.’
(The standard edition of complete psychological work of Sigmund Freud)
प्रेम की इंटेंस स्मृति को कविता में रचाव देने के अपने तरीक़े अवश्य हैं, लेकिन वह स्मृति ही है जो ऐसे भीषण रचाव को रूप प्रदान करती है. बिना स्मृति के किसी प्रकार की रचनात्मकता सम्भव नहीं है. बहरहाल स्मृति के निर्मम दुःख का भारी पत्थर वही है जो ‘मीर’ जैसे ‘ना-तवाँ’ से उठाये नहीं उठता था. प्रेम की स्मृति की यह न्यूरोटिक आवेगमयता पिछली सदी के शुरुआती पाँच दशकों के काव्य में अधिक देखी जा सकती है.
तुम्हारी याद का निर्मम दु:ख सीने में
भारी पत्थर की तरह पड़ा रहता है.
(तुम्हारा नाम)
जरूरी है कि सपना की उपरोक्त पंक्तियाँ पढ़कर अन्ना आख्मातोवा की अग्र लिखित पंक्तियाँ स्मृति में सूखी पत्तियों की तरह खनक जाएँ :
‘कुएँ के तल में किसी सफ़ेद पत्थर की तरह
एक अकेली याद मुझ में बाक़ी रह गयी है.’
(लाइक अ व्हाइट स्टोन)
आख्मातोवा के यहाँ आवेगमयता अधिक है. वह उसे कला से थामना चाहती है, लेकिन थाम नहीं पाती. इस प्रयास में कला और सध जाती है. सपना उसे व्यक्त करना चाहती हैं, किन्तु उस योग्य शिल्प नहीं जुटता. आवेगमयता को बाँधने के लिए शिल्प और डिक्शन जुटाना ही कवि-कर्म के लिए चुनौती है. प्रवृत्तियों के आधार पर सपना की कविताओं में पुराने छायावादी मूल्यों की छाप दिखायी देती है. प्राकृतिक बिम्ब भी उसी काव्य-योजना के साथ प्रयुक्त हुए हैं. कुछ कविताओं में स्त्रीवाद की सतही वैचारिकी का प्राथमिक पाठ प्राप्त होता है. वे प्रायः कमज़ोर कविताएँ हैं. व्यंग करने की कोशिश है, परंतु व्यंग्यार्थ का अभाव है. पहाड़ी घसियारिन पर लिखी गई कविता उपदेशात्मक इतिवृत्त से कृत्रिम जान पड़ती है. कुछ कविताएँ छायावादी लय के साथ संग्रह में प्राप्त होती हैं, वे महादेवियन परिधि में सीमित हैं-
मैं दु:खों की अनंत सहचरी हूँ
मेरे मन की तपती भूमि पर
अनुराग के गीत उपजते हैं
विरह के स्वप्न फलते हैं
याद के फूल खिलते हैं, दु:ख के बीज झरते हैं.
(सहचरी)
तब सपना की कविताओं में ख़ास क्या है ? ज़ाहिर है सघन ऐंद्रिकता और मनोविश्लेषणवादी आवेगमयता. प्रेम का ऐसा तीव्र स्मरण छायावादी कविता में भी नहीं मिलता है. दु:ख और शोक की प्रगाढ़, न्यूरोटिक अनुभूति वहाँ भले ही सपना की कविताओं से अधिक है. फिर शोक और अवसाद तो है, लेकिन वह प्रेम के सत्य से अधिक दूर खड़ा है. जो साहस प्रेम के लिए चाहिए वह प्रेम-कविताओं से नहीं मिलता. प्रेम की सच्ची यातना प्रेम मिल जाने के बाद शुरू होती है, क्योंकि तब निस्सारताओं का नया चरण शुरू होता है. यह भी सत्य है कि बिना यातनाओं के किसी तरह का प्रेम होता भी नहीं है :
साँस के क्लांत शंख पर
निरंतर बजती है एक
अनथक प्रार्थना !
एक उदासी नित
बैठ जाती है
धड़कन के थके, म्लान फूल पर
भीषण यातना है यह जीवन
और प्रेम इस यातना से अधिक पीड़ादायी.
(युक्ति)
पितृसत्ता की सेवा करते हुए पितृसत्ता की आलोचना करने में एक द्वैत है. ऐसे में स्त्रीवाद फैशन का लगने लगता है. स्त्रीवाद का ऐसा सतही और पथभ्रष्ट पाठ हिंदी-समाज में ही संभव है. इस मौके पर एनी एरनॉक्स की उस दुविधा को व्यक्त करना जरूरी है जो उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में बताई थी कि महामारी के दौरान ‘कोरोना से मरने से अधिक वे इस बात से डर रही थीं कि लॉकडाउन में उन्हें कहीं किसी पुरुष के साथ एक कमरे में न रहना पड़ जाए.’ स्त्रीवाद की वैचारिक पृष्ठभूमि स्त्री की दीनता से नहीं उसकी मुक्ति से जुड़ी हुयी है. और यह मुक्ति अपने सिद्धांतों की राह पर किये गये जीवन-संघर्ष से मिलती है ‘पिता की पगड़ी’ बचाने से नहीं. यह पलायनवादी शोकाकुलता भी छायावादी काव्य-मूल्यों से जुड़ती है :
कभी पिता ने गुस्से में कह दिया था
“अपनी पसंद से ब्याह करना है
तो मेरे घर से निकल जाओ.”
मैंने उनकी पसंद से ब्याह करके
उनकी पगड़ी बचा ली थी.
(घर)
पिता की पगड़ी बचाने के बाद फेमिनिज़्म व्यावहारिक नहीं रह जाता. वहीं फेमिनिज़्म का अन्त हो जाता है. रही बात प्रेम से मिलने वाले दुखों और आघातों की तो इस बात की कोई गारण्टी नहीं है कि इच्छित प्रेम मिलने के बाद दुःख नहीं होगा. जीवन की नग्न निरर्थकता (Absurdity) मुमकिन है वहाँ से और अधिक साफ़ दिखे. ‘पतझड़’ का यह प्रयोग कविता में शीघ्रता से किया गया जान पड़ता है अन्यथा पतझड़ कितना अच्छा लगता है, प्रिय (वसन्त) के आने की मीठी प्रतीक्षा जैसा. और उपेक्षा की यह स्याह परछाई हिन्दी स्त्री कवियों के यहाँ अधिक मिलती है, वरना उर्दू कवियों में तो यह मुहब्बत का मुहावरा बनी हुयी है :
इस पृथ्वी के सारे पतझड़ तब क्यों
मेरे ही भाग्य में बदे हैं ?
देखो न !
मेरी चाहनाएँ इतनी कोमल हैं
ज़रा सी उपेक्षा से झर-झर जाती हैं.
(कामनाओं का जल)
चुनांचे कहना चाहिए कि सपना को अपनी कविता में प्रचलित स्त्रीवाद से अधिक ध्यान सघन ऐन्द्रिकता, रूप, शिल्प और बिम्बों पर देना चाहिए. क्योंकि कहीं-कहीं वे क़लमतोड़ काव्य-रचना को सम्भव करती हैं, जैसे कि यहाँ :
यह ऋतु ऐसी बैरन है
कि काले मेघ को आँख भर
देख लेने से ही ज्वर उठा आता है.
श्वास भारी और प्राण क्षीण होने लगते हैं
ताप देह को यूँ गह लेता है
जैसे अंतिम बार गहता हो अभागा प्रेमी
विदा होती प्रेयसी की बाँह.
(दिलासा)
सपना की कविताएँ पढ़ते हुए उनमें दुःख, वेदना, शोक, स्मृति आदि की तो वही पुरानी अनुभूतियाँ नज़र आती हैं, जो पीछे की कविता में प्रचुर अभिव्यक्ति पाते हैं, परन्तु उनकी अच्छी भाषा और कहन में गढ़े हुए ऐन्द्रिक सौंदर्य का नयापन अनुभव किया जा सकता है. ‘बैरन’ जैसे लोकभाषा के शब्द भी उन्होंने प्रयोग किये हैं. ‘बैरन’ (Feminine) है. ‘बैरी’ (Masculine) है. ‘सजनवा बैरी हो गये हमार’, ‘रेलिया बैरन पिया को लिये जाये रे.’
प्रमुख बात यह है कि सपना भट्ट अच्छी कविताएँ लिख रही हैं और वे पठनीय हैं. उनमें प्रवाह है, रस है.
संतोष अर्श कविताएँ, संपादन, आलोचना . रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ पर संतोष अर्श की संपादित क़िताब ‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित. poetarshbbk@gmail.com |
इधर के नए कवियों में सपना भट्ट एक अलग और महत्वपूर्ण नाम है । उनकी भाषा, अनुभव, पहाड़ का जीवन, स्त्री संवेदना और गहरी मानवीयता ने उनकी कविता को एक द्युति दी है । वे अलग से पहचान में आती हैं । संतोष अर्श ने सपना भट्ट की कविताओं का सुंदर विश्लेषण किया है । समालोचन का आभार ।
संतोष अर्श लिखते हैं कि आध्यात्मिक व्यक्ति जिसे आत्मा कहते हैं; पदार्थवादी उसे चेतना । मेरी दृष्टि में पदार्थवादियों ने नयी बात नहीं कही है । सिर्फ़ शब्दों का फ़र्क़ है । आत्मा चेतन है और भौतिक जगत अवचेतन । आत्मा और अध्यात्म एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं । मैं सहमत हूँ कि फ्रायड और मार्क्स के सिद्धांत और निष्कर्ष ऊँचे हैं । लेकिन ऐसी क्या मजबूरी है कि पदार्थवादी (materialists) आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते । जबकि इनकी रचनाओं में बार बार आत्मा का उल्लेख किया जाता है । Sigmund Freud and Karl Marx were highly mindful persons. I do believe in reincarnation of souls. Freud and Marx were also reincarnated. Every birth is a step of stair.
बहरहाल, Sapna Bhatt की कविताओं पर संतोष अर्श का विश्लेषण । पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को भौतिक रूप से अपना घर छोड़कर जाना पड़ता है । मुझे अमोल पालेकर की फ़िल्म चितचोर फ़िल्म का संवाद याद आ गया है । एक व्यक्ति अपने ससुराल में घर जमाई बनकर रहता है । अमोल पालेकर कहते हैं कि घर जमाई पहले से अपने ससुर के उसके ससुर के घर रह रहा है ।
सपना भट्ट की कविताओं में ससुराल में जीने का तजुर्बा है जो बार-बार अलग-अलग शब्दों में व्यक्त होता है । जबकि यह भी सत्य है कि वे पत्नी और पति दोनों अलग अलग जगहों पर नौकरी कर रहे हैं ।
गृहस्थ जीवन में देह की तृष्णा के दु:ख ख़त्म नहीं होते । मुझे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म-बहार आयी तो जैसे एक बार आ गये हैं अदम से याद आ गयी है । इसी नज़्म के मुताबिक़ ज़िंदगी तृप्ति होती है और नहीं भी होती । यह खेल लंबी आयु तक चलता है । पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के पूरक हैं ।
संतोष अर्श के आलेख का जितना कुछ याद था उस आधार पर लिख दिया है । बेशक इनका अध्ययन गहरा है । ये इंटेलीजेंट हैं । कुशाग्र बुद्धि वाले व्यक्ति ही समाज का मार्गदर्शन करते हैं । इतनी ही मेरी इल्तिजा है कि हर विद्वान भौतिक और आध्यात्मिक जगत के अटूट संबंधों की अनदेखी न करे ।
मेरी सनातन धर्म (हिन्दुत्व नहीं) और संस्कृति में गहरी आस्था है ।
अंत में-प्रोफ़ेसर अरुण जी, संतोष जी और सपना भट्ट के लिये शुभकामनाएँ ।
संतोष जी को पढ़ते हुए यह संतोष बना रहता है कि तहों के भीतर जाकर पढ़ने वाले अभी बचे हुए हैं। सपना भट्ट की कविता पर बहुत कुछ पहले ही कहा जा चुका है लेकिन उसके बावजूद यह पढ़त उस कहे हुए में बहुत कुछ महत्वपूर्ण जोड़ती है।
सरस समीक्षा। Santosh Arsh के लिखे परचे पहले भी पढ़े हैं। वे अपनी समीक्षाओं से चकित कर देते हैं। इस समीक्षा ने सपना जी का संग्रह पढ़ने को लालायित कर दिया है।
अच्छी समीक्षा है। संतोष अर्श जी ने श्रमसाध्य कार्य किया है। बधाई स्वीकारें।।
बहुत गहन, विश्लेषणात्मक समीक्षा है
समीक्षक का शब्द कौशल प्रशंसनीय है
सपना जी की कविताएँ निश्चित ही इस योग्य हैं
केवल एक सन्दर्भ में बात कहना आवश्यक लगा मुझे-
‘घर’ कविता जिसकी पंक्तियाँ इस समीक्षा में दर्ज की गई हैं
“पिता की पसन्द से ब्याह करके मैंने उनकी पगड़ी बचा ली थी”
अगर किसी स्त्री ने यह समीक्षा की होती तो लिखा होता कि यह कविता स्त्री जीवन की त्रासदी की, उसके सच की कविता है। वहाँ कोई स्त्रीवाद नहीं है बस एक व्यथा है। वैसे भी सपना जी कहीं दावा करती दिखाई नहीं देतीं कि वे एक स्त्रीवादी कवि हैं उनकी कविताएँ एक सामान्य स्त्री की कविताएँ हैं जो अपनी स्थिति पर खीझती भी है, गाहे बगाहे कहती रहती है अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो, उससे बाहर निकलने को छटपटाती भी है, और यह स्वीकार करते हुए कि उसके पास विद्रोह का न साहस है न सुविधा, मन मारकर अपने वर्तमान से समझौता कर लेती है।
यूँ भी स्त्रीवादी होने या स्त्री की मुक्ति का अर्थ पुरुष से परे किसी ऐसे संसार के निर्माण की क़वायद नहीं है जहाँ स्त्री की सत्ता हो और पुरुष का नामोनिशान न हो, वह पुरुष के साथ बराबरी की साझेदारी की लड़ाई है। एक मनुष्य होने के नाते अधिकारों की लड़ाई है। स्त्रीवाद स्त्री के अपने अस्तित्व के प्रति चेतना है उसका आत्मबोध है। वह उस चेतना को विद्रोह के स्तर तक ले जाती है या नहीं यह उसका अपना चुनाव है।
समीक्षक का यह कहना कि कवि को प्रचलित स्त्रीवाद के बजाय अन्य तत्वों पर ध्यान देना चाहिए एक पुरुष का वक्तव्य लगा मुझे, थोड़ा असंवेदनशील
सपना भट्ट प्रेम और प्रेम में वेदना की बहुत गहरी अभिव्यक्ति करने वाली कवि हैं | उनकी कविताओं में व्यक्त मर्म और संवेदना की संतोष अर्श ने भरपूर थाह ली है | संतोष अर्श और समालोचन को इस सटीक लेख के लिये बहुत बहुत साधुवाद और सपना भट्ट को बधाई |
यकीनन सपना भट्ट अच्छा लिख रही हैं। वह अनुभव से लिख रही हैं। देखे-भोगे गए यथार्थ जीवन से उनकी कविताएँ समाज की कविताएँ हैं। उनकी कविताओं पर इस समीक्षा में कुछ खास नहीं लिखा गया। उलट समीक्षक स्वयं की बौद्धिकता का प्रदर्शन करते नज़र आते हैं। शायद वे पहाड़ और पहाड़ के जीवन से परिचित भी नहीं हैं। पूरा पढ़ लेने के बाद वे कह क्या रहे हैं ज़्यादातर पाठकों के हिस्से क्या आएगा? उन्हें खुद भी समझना होगा। बहरहाल आखिरी कुछ शब्द उचित जान पड़ते हैं। संभव है हमें कविता की समझ कम हो। लेकिन थोड़ा बहुत तो पढ़ते ही हैं।
संतोष अर्श ने सपना भट्ट की कविताओं की निष्पक्ष समीक्षा कर उनकी लेखन क्षमता को और विस्तार दे दिया है। निस्संदेह सपना भट्ट की कविताओं में महादेवी वर्मा की झलक दिखती है, लेकिन नए प्रतिविंब उनमें अच्छी भावाव्क्ति की संभावनाएं पैदा करती हैं। दरअसल हमसे पहले के कवि और शायर हर विषय पर इतना कुछ कह और लिख चुके हैं कि उनकी छाया हमारे कहन पर कहीं न कहीं जरूर दिखाई पड़ जाती है और उनकी छाया से बचकर हम कितना अलग रच पाते हैं, यही हमारी काव्यात्मक क्षमता को प्रदर्शित करती है। सपना और अर्श दोनों को बधाई।
दर्द गढ़वाली, देहरादून 09455485094
अतिशयोक्ति नहीं होगी लेकिन सपना भट्ट की कविताएँ भाषा को बरतना सीखने, उसके शिल्प को साधने, अर्थ की अनुभूति तक पहुँचने और कविता के कविता होने का प्रमाण हैं. बीते कुछ सालों में प्रकाशित हुए संग्रहों में ये संग्रह सचमुच अनूठा है. बहुत शुक्रिया कवयित्री, आलोचक और संपादक तिकड़ी का. संतोष जी ने ग़ज़ब लिखा है.
सपना भट्ट की कविताएँ अपने विश्लेषण और अन्वेषण के लिए ऐसा आलेख एकाधिक बार चाहती हैं। चूँकि वे प्रेम जैसे एक सामान्य विषय की एक असमान्य कवि हैं, तो मेरे देखे उनकी कविताओं को पढ़ते हुए पाठांतर की संभावनाएँ सदैव बनी रहेंगी।
अब अध्यात्म और पदार्थ के संदर्भ में ही ले लें तो आत्मा और चेतना भले ही दो निकटअर्थी शब्द हों किंतु इन कविताओं में ये एक-दूसरे का पर्याय तो कतई नहीं हैं। इन कविताओं की रचना आत्मा की उर्वर मिट्टी में हुई हैं, चेतना की सतर्कता या होशियारी यहाँ कहाँ ! फ्रायड के दर्शन के सन्दर्भ की सीमितता यहाँ इसलिए भी है क्योंकि फ्रायड के दर्शन की बुनियाद कमोबेश ऐन्द्रिकता पर ही है, जबकि सपना भट्ट कविताएँ बरास्ते आत्मा, गाहे-बगाहे ऐन्द्रिक होने का ‘भान कराती हैं।’ वे अपनी कविताओं में मूलतः प्रेम के उन तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो न्यूनतम लौकिक (materialitic) है। किसी भी कवि को ऐसा प्रेम एक विषय की दृष्टि से अंततः बहिर्गामी बनाता है। विषय-सापेक्ष आलेख होने के नाते यहाँ प्रेम और ऐन्द्रिकता पर बात होना लाज़िम है, वर्ना उनकी हालिया कविताओं में स्त्रीत्व और मनुष्यत्व के दूसरे आयामों की भी बृहत्तर चर्चा दिखती है। उनकी कविताओं के केंद्र में पहाड़ के जीवन से लेकर, पर्यावरण, किताब और प्रेम से इतर मानवीय संबन्ध भी हैं।
आलेख में संतोष अर्श जी की ईमानदार मेहनत और दृष्टि स्पष्ट दिखती है। कवि के कविकर्म की इतनी गहरी और गंभीर पड़ताल आलेख को पठनीय और महत्वपूर्ण बनाती है। और, विशेष रूप से उल्लेखनीय यह है कि इस उपक्रम में वे अकादमिक बोझिलता की ग्रंथि से भी बचे रहते हैं।
अरुण देव जी का संपादकीय समर्पण दुर्लभ है। जितनी तेज़ी से वे स्तरीय सामग्रियाँ उपलब्ध कराते हैं, कई बार पाठकों के लिए उतनी ही तेज़ी से उन्हें पढ़ पाना कठिन हो जाता है। उनका आभार तो रहेगा ही।
सपना भट्ट की कविताओं ने कविता के अनुरागियों और सधे हुए विश्लेषकों — दोनों का इधर ध्यान खींचा है. संतोष अर्श ने उनके कविता संग्रह ‘ चुप्पियों में आलाप ‘ पर अपनी टिप्पणी में अध्यात्म और आत्मा, पदार्थ और चेतना या अतृप्त कामनाओं का देहराग व अश्रव्य रुदन जैसे पुनर्व्याखेय शब्दों का इस्तेमाल किया है. जबकि सपना के बिंब बहुत निजता वाले हैं और भाषा उतनी ही आत्मीय.
“जोशीमठ की दरार” जिस तरह वह हमें दिखलाती है उससे हम इसका अर्थ सहज ही समझ लेते हैं कि :
‘ खौलता रहेगा चाय का पानी/ उड़ती रहेगी तुम्हारी स्मृति के निषिद्ध स्पर्श की भाप चहुंओर. ….’
उत्कृष्ट समीक्षा .इन कविताओं को बारम्बार पढ़ा जाना ज़रूरी है .बधाई सपना जी और संतोष अर्श जी