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Home » गांधीजी का पुन: पदार्पण: जयप्रकाश चौकसे

गांधीजी का पुन: पदार्पण: जयप्रकाश चौकसे

महात्मा गांधी की अनुपस्थिति उनकी स्मृतियों से भरी हुई है. यह बताता है कि वह अभी वैचारिक रूप से ज़िन्दा हैं. अगर सशरीर उपस्थित हो जाते तो क्या होता? ज़ाहिर है यह कल्पना है. जयप्रकाश चौकसे को सिनेमा का विश्वकोश माना जाता था. 2012 में उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई ‘महात्मा गांधी और सिनेमा’. यह लगभग अनुपलब्ध है. इसकी एक प्रति कृपापूर्वक मुझे यशस्वी कवि-लेखक कुमार अम्बुज ने भेजी थी. इसमें गांधी के फ़िल्मों पर गहरे प्रभाव की विवेचना है. इसी में यह अंश भी है जहाँ चौकसे यह कल्पना करते हैं कि अगर गांधी होते (21 वीं सदी का पहला दशक) तो क्या होता. एक दृश्य भी रचते हैं जिसमें विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हीरानी गांधी जी से मुन्नाभाई श्रृंखला की अगली कड़ी में अभिनय का प्रस्ताव रखते हैं. अंतर्दृष्टि पूर्ण आकांक्षा है. आपको समृद्ध करेगा यह आलेख ऐसा मुझे विश्वास है. प्रस्तुत है.

by arun dev
January 31, 2023
in विशेष
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गांधीजी का पुन: पदार्पण: जयप्रकाश चौकसे
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गांधीजी का पुन: पदार्पण

जयप्रकाश चौकसे

जब जनवरी 1915 में गांधीजी दक्षिण अफ्रीका के लम्बे प्रवास के बाद भारत आये थे, तब भी आज की तरह नैराश्य और अंधकार था. अंतर केवल इतना है कि उस समय शत्रु स्पष्ट दिखाई देता था और उस ब्रिटिश आधिपत्य में एक अखण्ड भारत भी मौजूद था, भले ही उसे गुलामी की जंजीर से बांधकर एक रखा गया हो. उस दौर में गांधीजी एक अवतार की तरह उभरे. अफ्रीका में किये गये सफल आन्दोलन ने उनके इर्दगिर्द आभामंडल रच दिया था. आज अगर गांधीजी पुन: अवतार की तरह वापसी करते हैं तो उन्हें कठिनाई यह होगी कि शत्रु स्पष्ट नजर नहीं आएगा. न ही उस समय की तरह देश भी एक नजर आएगा. इस वापसी में संचार साधन विकसित हैं, परन्तु बात क्या करना है, कैसे करना है, यह स्पष्ट नहीं है. विगत अवतार में जेल में भी उनके साथ उन्हीं की विचारधारा को मानने वाले लोग थे, परन्तु इस बार गांधीजी विस्मित रह जाएंगे. इस बार की जेल यात्रा उन्हें अजीब लग सकती है. अब अपने क्षेत्र के सफल और बड़े लोग देश को लूटने के अपराध बंदी हैं. इन कैदियों में गांधीजी को कोई चेहरा पहचाना नजर नहीं आएगा. अब उनकी पहली प्रार्थना मीडिया से बचने की होगी. इस बार की सितारा हैसियत उन्हें रास नहीं आएगी.

इस बार वे यह देखकर चकित होंगे कि कुछ छोटी देहाती खोपड़ियों पर बड़ी-सी टोपी लगी है, जिसे वे गांधी टोपी कह रहे हैं और निष्क्रिय सरकार की चौड़ी छाती पर नेहरू जैकेट तंग आ रहा है. उन्होंने अपने पहले अवतार के प्रारंभिक अल्प समय में ही टोपी पहनी थी, जबकि नेहरू ने इसे ज्यादा पहना था, फिर भी न जाने क्यों नेहरू की टोपी को गांधी टोपी मान लिया गया. उनके विचार और दर्शन भी नेहरू की आधुनिक मिक्सी में मथकर मौलिक स्वरूप में प्रकट हुए थे. नेहरू सर्वथा मौलिक और विलक्षण थे और इसीलिए गांधी उन्हें स्नेह करते थे.

गांधीजी को अपनी वापसी पर सुखद आश्चर्य यह होगा कि विगत अवतार में उनसे शत्रुता रखने वाले भी आज उनके नाम की दुहाई देते हैं. विगत में उनकी जान लेने वालों के वंशज और अनुयायी अब उनके लिए मंदिर बना रहे हैं और उनकी प्रतिमा स्थापित करने की होड़ लगी है. वे एक ऐसे ब्राण्ड बन गये हैं, जिसकी कॉपीराइट अवधि समाप्त हो चुकी है और जिसे कोई भी कैसे भी इस्तेमाल कर सकता है.

राजघाट पर भी उन्हें बगुला भगत बैठे दिखाई देते हैं. पर अपने गांधीजी बाजार और विज्ञापन की ताकतों से कैसे लड़ेंगे? मल्टीनेशनल कम्पनी के मालिक जाने किस देश में बैठे हों. सबसे बड़ी समस्या नैतिक मूल्यों की स्थापना की होगी.

जीवन में सादगी, सरलता और किफायत की बात कोई सुनना ही नहीं चाहता. गांधीजी जीवन और चिंतन पर अमेरिका के प्रभाव को महसूस करेंगे. अपने 1915 में भारत आगमन गुरु गोखले की सलाह के अनुसार वर्ष भर तक उन्होंने कोई वक्तव्य नहीं दिया था और केवल भारत को समझने का प्रयास किया था. इस बार भी वे भारत यात्रा पर निकल जाएंगे. इस बार उन्हें भारत ही पहचान में नहीं आएगा. छोटे शहरों और कस्बों में भी छद्म आधुनिकता उन्हें दु:खी करेगी. ध्वस्त बाबरी मस्जिद देखकर उन्हें दुःख होगा, परन्तु अयोध्या में आम नागरिक की असुविधाएं और उसके परिसर में सुरक्षा सैनिक तथा अखाड़ों का जमघट देखकर वे और भी ज्यादा व्यथित होंगे. उन्हें कदाचित पश्चाताप होगा कि अपने विगत अवतार में उन्होंने अपनी सनातनी निष्ठा के कारण जिस रामराज्य की दुहाई बार-बार दी थी, उसका उदात्त स्वरूप और अर्थ तो समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा, धर्मनिरपेक्षता और न्याय आधारित व्यवस्था से था, परन्तु आज तो वह अवधारणा मात्र वोट जुटाकर सत्ता प्राप्त करने के काम आ रही है. कभी जो सदाचार का मंत्र था, आज केवल सरकार में मंत्री बनाने का काम कर रहा है.

उनके मन में पाकिस्तान की यात्रा करने की इच्छा जागेगी. इसी इच्छा को हृदय में लिए उन्होंने हत्यारे की गोलियां खाई थी. वे बहुत उत्सुक होंगे, यह जानने को कि मुहम्मद अली जिन्ना का आधुनिक आदर्श मुस्लिम देश किस हाल में है. क्या उनकी ही तरह मुहम्मद अली जिन्ना की भी वापसी हुई है? क्या पाकिस्तान को फिर जिन्ना की आवश्यकता महसूस हुई है? अगर सचमुच ऐसा है तो जिन्ना अब कैसी जिरह करेंगे ?

गुज़श्ता सदी के पहले कुछ दशकों में मुहम्मद अली जिन्ना गांधी के परम अनुयायी थे. अब नई सदी में दोनों का दुःख समान होगा. पाकिस्तान में इस्लाम के मानने वाले कई खण्डों में बँट गए हैं. भारत में तो महज एक मस्जिद तोड़ी गई है, परन्तु पाकिस्तान में मजहबी जुनून के कारण भाइयों ने एक दूसरे की मस्जिदें तोड़ दी हैं और रोज अनेक मासूम लोग मारे जा रहे हैं. विभाजन के समय से ज्यादा जानें अब जा रही हैं और कोई दूसरा मजहब मानने वाला यह नहीं कर रहा है.

गांधीजी ने अपने पहले अवतार में स्वदेशी आन्दोलन चलाया था. ब्रिटेन में बने माल को नहीं खरीदना और हाथ से बुने धागों से बने वस्त्र पहनने की शिक्षा दी थी. वे हस्तकला उद्योग को पुनः जीवित करना चाहते थे. उन दिनों चौराहों पर विदेशी चीजें जलाई गई थीं. वह अलग किस्म की राष्ट्रीय होली थी. अब गांधीजी देखेंगे कि भारतीय बाजार विदेशी माल से भरा पड़ा है. चीन में बनी हुई चीजें अमेरिका में बनी चीजों से अधिक हैं.

आज चीन में युवा वर्ग रॉक संगीत का प्रेमी है. तानाशाही व्यवस्था के लौह पाश से बचकर कई गुप्त जगहों पर युवा वर्ग मौजूदा व्यवस्था से अपने विरोध को संगीत द्वारा अभिव्यक्त करते हैं. उनकी एक पत्रिका भी प्रकाशित होती है और एक अंक के मुखपृष्ठ पर गांधीजी की तस्वीर प्रकाशित हुई है. उन्होंने गांधी की पारम्परिक छवि में परिवर्तन किया है. उनके चश्मे को गिटार का रूप दिया गया है और रोलिंग स्टोन की तरह उनकी जीभ बाहर है तथा उंगलियों से वे विजय का प्रतीक बना रहे हैं. उस मैगजीन के सम्पादक का कहना है कि चीन का रॉक संगीत पसंद करने वाला युवा वर्ग गांधी को जीवन ऊर्जा का प्रतीक मानता है और व्यवस्था के खिलाफ उनकी भावनाओं की शक्तिशाली अभिव्यक्ति का प्रतीक मानता है. चीन में अनेक पढ़े-लिखे लोग गांधीजी के जीवन, स्वतंत्रता के लिए संघर्ष और उनके आदर्श के बारे में सब कुछ जानते हैं. गांधी साहित्य चीनी भाषा में भी अनुदित हो चुका है. सम्पादक का विचार है कि युवा वर्ग गांधीजी को रॉक स्टार की तरह पूजते हैं और वे महसूस करते हैं कि चीन को अपने गांधी की आवश्यकता है गोया कि मार्क्स और महात्मा गांधी की मुलाकात संभव है.

गांधीजी से वर्तमान के अनेक नेता मिलना चाहते हैं. अमेरिका के राष्ट्रपिता बराक ओबामा एक स्कूल गए, जहाँ एक बच्चे ने पूछा कि अगर यह मुमकिन हो कि उन्हें किसी भी गुजर चुके या जीवित व्यक्ति के साथ रात्रि भोजन का अवसर मिले तो वे किसके साथ भोजन करने की तीव्र इच्छा रखते हैं. बराक ओबामा का उत्तर था कि वे अपने सर्वकालिक आदर्श महात्मा गांधी के साथ भोजन करना पसंद करेंगे. उन्होंने कहा कि गांधीजी ने इतिहास की धारा को अपने नैतिक साहस से मोड़ दिया. हिंसा या धन से आप कोई परिवर्तन नहीं कर सकते. अमेरिका के महान नेता मार्टिन लूथर किंग की प्रेरणा भी गांधीजी थे. कल्पना करें कि बराक ओबामा और गांधीजी भोजन कर रहे हैं. ओबामा की प्लेट में मांसाहारी भोजन परोसा जाएगा तो गांधीजी खिचड़ी और दही खायेंगे. प्लेटों को देखकर लगेगा कि अमेरिका पेटू और भारत भूखा है. भव्यता अमेरिका के लोगों के अवचेतन की ग्रंथि है- बड़ी कार, बड़ा बर्गर, बड़ा केक और भव्य महल की कामना उनके दिल में है. अमेरिका की जीवनशैली में किफायत की गुंजाइश नहीं. वे आदतन फिजूलखर्च हैं.

भारत महान में जाने कितने लोग होंगे, जिन्हें पूरे जीवन में एक बार भी सम्पूर्ण आहार युक्त भोजन नहीं मिल पाता. अमेरिका में अनखाये भोजन की बात छोड़िये, शाइनिंग इंडिया में भूख के अंधकार को अनदेखा किया जाता है. भारत का श्रेष्ठि वर्ग अमेरिका के धनाढ्य लोगों से ज्यादा अनखाया झूठा भोजन छोड़ते हैं और इसे वे अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं. क्या इस रात्रि भोजन के अवसर पर उन्हें अपने देश द्वारा की गई हिंसा की याद आएगी, जो हिरोशिमा, वियतनाम, कोरिया, अफगानिस्तान से होती हुई ईराक तक पहुँचती है ? इस स्मृति के कौंधते ही बराक ओबामा पशेमान हो जाएंगे और गांधी से आँख नहीं मिला पायेंगे. इस रात्रि भोजन में सूट पहने बराक ओबामा आश्चर्य करेंगे कि ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य अस्त कराने वाले गांधीजी महज एक धोती से अपना पूरा तन ढके बैठे हैं. ओबामा को अपने बदन में शीत लहर चलने का अहसास होगा. बराक ओबामा आश्चर्य चकित हैं कि इस दुबले पतले अधनंगे व्यक्ति ने पूरी दुनिया का इतिहास कैसे बदला ? इस विलक्षण व्यक्ति ने तो शक्ति की परिभाषा ही बदल दी.

गांधीजी बड़े मनोयोग से अपनी खिचड़ी खाते रहे और उनके चेहरे पर दुनिया के श्रेष्ठ भोजन खाने जैसा संतोष दिखाई दे रहा है. बराक ओबामा अपना खाना भूल गए. गांधीजी ने उनकी भरी हुई अनछुई प्लेट को देखा और कहा कि वे थोड़ी खिचड़ी खाकर देखें. भोजन का स्वाद भूख ही तय करती है. ओबामा खिचड़ी खाने का प्रयास करते हैं और हँसकर कहते हैं कि क्या गांधीजी उनका स्टेक खाना पसंद करेंगे. गांधीजी ने कहा कि वे केवल इतना ही खाते हैं, कि जी सकें. इससे अधिक कभी नहीं खाते. बराक ओबामा को याद आया कि गांधीजी ने अनेक बार लम्बे उपवास किए हैं और उनके शरीर ने सब कुछ सहन किया है.

बहरहाल गांधीजी उन्हें भारत आने का निमंत्रण देते हैं और यह रात्रि भोज समाप्त आज के भारत में गांधीजी की वापसी असफल नहीं होती, परन्तु अंग्रेजों की दासता से मुक्ति के लिए किए गये प्रयासों से उन्हें कुछ अलग करना होता. किसी भी संघर्ष का परिणाम केवल आपके शस्त्र साधन पर निर्भर नहीं करता, वरन शत्रु पक्ष के शस्त्र साधन भी परिणाम पर प्रभाव डालते हैं. गांधीजी ने अंग्रेजों के खिलाफ जिस तरह का संघर्ष किया वैसा संघर्ष हमें इतिहास में कहीं और दिखाई नहीं देता. अंग्रेज शोषण और अन्याय करते हुए भी अपनी छवि को न्याय का स्वरूप देते थे और इसी दिखावे का नतीजा है कि गांधीजी के प्रति उन्हें सन्मान दिखाना जरूरी लगता था. गाँधीजी के संघर्ष में धैर्य ने अंग्रेजों को थका दिया. अपनी वापसी में गाँधीजी को भारत के लोगों के दोहरेपन से जुझना होगा.

भारत के अधिकांश लोग आदर्श की बातें करते है, अपनी हजारों वर्ष पुरानी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व महसूस करते है परन्तु भ्रष्टाचार का कोई अवसर नहीं छोड़ते. देश को लूटने में सभी राजनीतिक दलों के साथ आम आदमी भी शामिल है. इसलिए इस बार का संघर्ष ज्यादा विराट है. बाहरी शत्रु से लड़ना अपेक्षाकृत आसान होता है. 1 जनवरी 1915 के भारत में जब गाँधीजी अफ्रीका से भारत आए थे और आज के भारत में गहरा अंतर आ गया है. आज भीतर- ही -भीतर बहुत से विभाजन हो चुके है. उस दौर में इस्तेमाल किये गये साधन इतिहास के हाशिये में अनदेखे पड़े हैं, परन्तु गांधीजी ने तो अपने हर आन्दोलन में उसके स्वरूप में समयानुसार परिवर्तन किया था, अत: आज संभवतः वे स्त्रियों और बच्चों को सम्बोधित करते और सार्थक परिवर्तन के बीज नई पीढ़ी में ही रोपित करते. वयस्क तो पक्के घड़े की तरह होते हैं. भरे घड़े पर पानी डालना निरर्थक होता है. गांधीजी यह समझ लेते कि इस बार की लड़ाई अधिक लम्बी और दुरूह है. राजनीतिक स्वतंत्रता आर्थिक स्वतंत्रता और सच्ची सार्थक शिक्षा के बिना अधूरी होती है. अपने इस दूसरे अवतार में गांधीजी शायद इस बात पर जोर देते कि अवाम को अवतार के मोह से मुक्त कराने का प्रयास करते. उनके विलय होने से ही यह मुक्ति संभव होती.

भारत को आख्यानों से बाहर निकाल कर यथार्थ के धरातल पर लाना आवश्यक होता. संसदीय गणतंत्र व्यवस्था में हर आदमी को अपनी स्वतंत्र सोच विकसित करके स्वयं नायक या अवतार की तरह आचरण करना होता है. अवतारवाद का साधारणीकरण एवं विलय होना सच्चे गणतंत्र की स्थापना के लिए आवश्यक है. लहर पर सवारी या लहर होने से बात नहीं बनती. बात बनती है हर बूंद के सशक्त बनने में क्योंकि बूंद में ही पूरा सागर समाया है. अपने पहले अवतार में वे एक मिथ की तरह उभरे और मायथोलॉजी को सशक्त किया, क्योंकि उस समय सदियों से गुलाम देश को जागृत करने का वही एकमात्र रास्ता था और ठीक इसी तरह दूसरे अवतार में ‘मिथ’ को तोड़ना आवश्यक है. दानव और देवता की अवधारणा से परे मनुष्य की गरिमा को स्थापित करना ही सर्वोत्तम धर्म है.

गांधीजी संभवतः यह भी महसूस करें कि अपने पहले अवतार में उन्होंने सिनेमा माध्यम को अनदेखा किया, परन्तु उसी माध्यम में वे हर दशक में मौजूद रहे. गांधीजी के भय मुक्त होने के प्रथम संदेश से उनके अनजाने और अपरोक्ष रूप से सिनेमा को दर्शक मिले तो सिनेमा ने भी उन्हें कभी भुलाया नहीं, वरन् आम आदमी के मन में उनकी स्मृति को अक्षुण्ण रखने का प्रयास किया. यह भी संभव है कि अपने इस दूसरे अवतार में विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हीरानी उनसे अनुरोध करें कि मुन्नाभाई श्रृंखला की अगली कड़ी में गांधीजी स्वयं अपनी भूमिका में प्रस्तुत हों और इस बार आम आदमी को उसकी पसंद के माध्यम में ही सम्बोधित करें. पात्र का भूमिका में विलय हो जाएगा या कहें कि भूमिका इस अवतारी कलाकार के कारण अजर अमर हो जाएगी. टेक्नोलॉजी केन्द्रित इस नई सदी में सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्रांति इसी माध्यम से होना आश्चर्यकारी नहीं लगता.

गांधीजी को खामोश बैठा देख, यह संभव है कि उन्हें अभिनय के लिए तैयार करने के लिए उनसे कहा जाए कि इस बार आप दोहरी भूमिका करेंगे- महात्मा गांधी और मुहम्मद अली जिन्ना. सदियों पूर्व लिओनार्डो डॉ. विन्ची ने अपनी अजर अमर कृति ‘द लास्ट सपर’ के लिए पहले शैतान को पेन्ट करने के लिए जिस मॉडल को चुना था, कुछ वर्ष पश्चात क्राइस्ट के लिए भी उसी का चयन हुआ. यद्यपि इस अंतराल में वह व्यक्ति हत्या का दोषी पाया गया था और सजा काटकर उसी समय छूटा था और लिओनार्डो डॉ. विन्ची इस तथ्य से अनभिज्ञ थे. एक ही मनुष्य में दानव और देवता की मौजूदगी को कैसे समझते. यही तो मनुष्य की विशेषता है कि वह परिभाषाओं से परे है और उसे समझने का कोई फार्मूला नहीं है. उसका ‘कैमिकल लोचा’ तो स्वयं उसकी समझ के परे है.

बहरहाल लम्बे समय के बाद गांधीजी बोलते हैं और वे कहते हैं कि इस महत्वाकांक्षी भव्य फिल्म में उनके जैसे नये कलाकार को लेना जोखिम का काम हो सकता है, अत: आप इस भूमिका में सफल सितारा बेन किंग्सले से निवेदन करें तो बेहतर होगा. इतना कहकर गांधीजी अपनी बकरी के घायल पैर की पट्टी बदलने के लिए चले गये. उनके लिए अपनी बकरी की सेवा आवश्यक थी. प्राणी मात्र में करुणा का पुजारी ही ऐसा कर सकता है. अपने पहले अवतार में उन्होंने दिग्गज नेताओं और हुकूमते बरतानिया के नुमाइन्दे को इसी तरह बैठा छोड़ दिया था.

(जयप्रकाश चौकसे की पुस्तक ‘महात्मा गांधी और सिनेमा’ से आभार के साथ)

जयप्रकाश चौकसे
(01 सितम्बर,1939- 02 मार्च, 2022)
.
सोनाट फ़िल्म्स में कार्यकारी निर्माता के रूप में ‘शायद’, ‘हरजाई’, ‘कन्हैया’ और ‘वापसी’ का निर्माण. 1982 से ‘प्रेमरोग’ फ़िल्म द्वारा मध्य प्रदेश में वितरण व्यवसाय की शुरुआत. लगभग 100 फ़िल्मों का वितरण.  आर.के. नैयर, पूरनचन्द्र राव और विजयपथ सिंघानिया आदि के लिए फ़िल्में लिखीं.1965 से ही पत्रकारिता प्रारम्भ की और अनेक अख़बारों के लिए लिखा. ‘दैनिक भास्कर’ में ‘परदे के पीछे’ नामक प्रतिदिन कॉलम का लगातार 25 वर्षों तक लेखन.

कृतियाँ : ‘राजकपूर : सृजन-प्रक्रिया’, ‘दराबा’ और ‘राज : बेकरारी का बयान’ की रचना की आदि.

Tags: 2023गांधीगांधीजी का पुन: पदार्पणजयप्रकाश चौकसे
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Comments 7

  1. कुमार अम्बुज says:
    2 months ago

    जयप्रकाश चौकसे जी की यह फंतासी हमारे यथार्थ और विडंबनाओं को समझने हेतु न केवल दिलचस्प है बल्कि प्रभावी भी है। इस तरह और इस प्रसंग में इसे साया करने के लिए आभार।

    Reply
  2. दया शंकर शरण says:
    2 months ago

    पठनीय आलेख। समकालीन यथार्थ से गाँधी का संभावित संघर्ष दिलचस्प आख्यान की तरह है।साधुवाद!

    Reply
  3. प्रिया वर्मा says:
    2 months ago

    बहुत रोचक किंतु पर्याप्त गंभीर आलेख। पढ़ते हुए मेरी देखी तमाम फिल्में जिनमें गांधी चरित्र के रूप में मौज़ूद रहे हैं, ध्यान आ गईं। हाल ही में मैंने गांधी माय फादर देखी है।
    बहरहाल पढ़ते हुए बालसुलभ उत्कंठा से भर गई कि ऐसी कोई फ़िल्म बने – और जल्द बने काश। कितनी सही बात लिखी है जयप्रकाश जी ने कि सिनेमा ने ही गांधी को कभी भूलने नहीं दिया। नेहरू कट जैकेट और गांधी टोपी के मार्फ़त बाज़ार पर किया गया कटाक्ष एकदम मुफीद बैठता है जिसे हर जागरूक व्यक्ति जानता समझता होगा, हां दर्ज किया हुआ मैंने पहली बार पढ़ा। आभार

    Reply
  4. Surendra prajapti says:
    2 months ago

    बेहद प्रभावी और दिलचस्प आलेख।

    Reply
  5. धनजंय वर्मा says:
    2 months ago

    जप्रकाश मेरे मित्र थे.यहाँ दो बार आये थे.उन्होंने अपनी कुछ कहानियाँ भी भेजी थीं.यह अंश गांधी जी के प्रति उनके आदर और सम्मान के साथ सम सामयिक राजनीति की उनकी पैनी वेधक दृष्टि को व्यक्त करती है.

    Reply
  6. Himanshu B. Joshi says:
    2 months ago

    बचपन से लेकर अब तक कई बार इस तरह सोचा था आज इस आलेख में वो पढ़कर सुकून मिला। गांधी महान थे इसमें कोई शंका नहीं पर हम लोग, हमारे संस्थान और हमारी सोच आज कितनी गिर गई है कि एक भले और पारदर्शी इंसान के लिए यहां कदम कदम पर विस्मय है, डर है पर मानने सुनने वाला कोई नहीं है।

    Reply
  7. Dinesh Chandra Joshi says:
    2 months ago

    गांधी जी की पुनर्वापसी को लेकर लिखी गई यह परिकल्पना वास्तव में रोचक है। दूसरे अवतार में गांधी जी देश की दशा दिशा से कैसे व्यथित विस्मित चकित होते,क्या मनोदशा व प्रतिक्रिया होती,यह दिलचस्प अनुभव जगाती यह गजब की फंतासी है।

    Reply

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