प्रतिकार की कहानियाँपूनम सिन्हा |
कथाकार मिथिलेश्वर का लेखकीय जीवन कहानी लेखन से प्रारंभ होता है. मात्र 15 वर्ष की कच्ची उम्र से उन्होंने लिखना शुरू किया जो आज तक बरकरार है. बकौल मिथिलेश्वर,
‘आज मुझे लगता है कि साहित्यसृजन से मेरा जुड़ा आंतरिक स्तर पर कहीं गहरे से हुआ था, इसीलिए बीतते समय के अनुसार अभी तक बना हुआ है.’
कुछ रचनाकार धूमकेतु की तरह साहित्याकाश में अपनी उपस्थिति से चकाचौंध उत्पन्न करते हैं, किन्तु जल्दी ही विलीन हो जाते हैं. मिथिलेश्वर अपनी कहानियों में जिस जीवन और परिवेश को अभिव्यक्त करते हैं, वे स्वयं उसका अंग है. मिथिलेश्वर का मन गाँव का खांटी मन है.
विषय की कमी उन्होंने कभी महसूस नहीं की है. इसीलिए वे न तो चूके हैं और न उन्होंने लेखन में अपने को दुहराया है. अपने कहानी-लेखन के प्रारंभिक दौर में ही वे ‘धर्मयुग’ एवं ‘सारिका’ जैसी मानक पत्रिकाओं में न सिर्फ प्रकाशित होते थे बल्कि संपादकों एवं पाठकों द्वारा प्रशंसित एवं विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं पुरस्कृत होते थे.
मिथिलेश्वर कहते हैं कि
‘उस समय की व्यापक पाठकीयता, साहित्य से समाज का जुड़ाव और लेखन-प्रकाशन के विस्तृत साहित्यिक माहौल को देखते हुए मुझे अपना लेखन कार्य सामाजिक विकास के संघर्ष में एक मजबूत रचनात्मक भागीदारी का एहसास कराता था. कहने की आवश्यकता नहीं कि इस एहसास ने ही मुझे आजतक रचनारत रखा है.’
(सोच-विचार, दिसम्बर, 2021, पृ.-5)
तमाम औद्योगिकीकरण के बावजूद भारत आज भी कृषि प्रधान देश है. मिथिलेश्वर की विशेषता यह है कि वे प्रेमचन्द एवं रेणु के किसानों को भी जान समझ रहे हैं और आज के किसानों को भी समझ रहे हैं. जातीय स्मृतियों को सहेजने के साथ ही वे अपनी समकालीन स्थितियों एवं समस्याओं के प्रति संलग्न एवं सम्बद्ध हैं. साहित्य का काम समकालीन समस्याओं की अनुगूँज को व्यक्त करना है तो जातीय स्मृतियों को बनाये एवं बचाये रखना भी है.
‘रैन भई चहुँ देस’ कथाकार मिथिलेश्वर का नवीन कहानी-संग्रह है. बारहवाँ कहानी-संग्रह इसमें संकलित सात कहानियों की रचना-भूमि अलग-अलग है. किन्तु सभी कहानियों में समाज के प्रति उनके गहरे सरोकार लक्षित हैं. मिथिलेश्वर कलात्मक व्यायाम किये बिना किसी भी कथ्य को अपनी कहानी का विषय बनाकर उसे सहज ढंग से प्रस्तुत करते हैं. यही कारण है कि उनकी कहानियों में पठनीयता भरपूर होती है. डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन का कथन समीचीन है कि
‘मिथिलेश्वर की कथाओं से गुजरते हुए हर पल ऐसा लगता है कि हम खींचकर एक ऐसे संसार में पहुँचा दिये गये हैं; जो अनजाना दिखते हुए भी कहीं न कहीं हमारा भी है.’’
समीक्ष्य कहानी संग्रह की पहली कहानी है ‘गेटमैन गोवर्धन’. जब भी कहीं आते-जाते हम ट्रेन के गुजरते समय गुमटी पर रुकते हैं तो गेटमैन की भी अपनी दुनिया है, उसपर हमारा ध्यान नहीं जाता. इस कहानी से गुजरते हुए हम गेटमैन के जीवन की दुश्वारियों को गहराई से महसूस करते हैं. कहानी कोई भी हो, कथ्य के अनुरूप वातावरण चित्रण में मिथिलेश्वर सिद्धहस्त हैं. किन्तु इस वातावरण चित्रण में यथातथ्यवादिता नहीं है. उनकी संवेदनशीलता एवं सूक्ष्म पर्यवेक्षण-क्षमता स्पष्ट लक्षित होती है. अतः इनकी कहानियाँ नीरस और उबाऊ नहीं होती.
मिथिलेश्वर को प्रेमचंद की परंपरा का कथाकार अकारण ही नहीं माना जाता. ‘गेटमैन गोवर्द्धन’ कहानी को समाप्त करते हुए मन में प्रश्न उठता है क्या यह कहानी ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ का उदाहरण है? कहानी का जिस प्रकार अन्त हुआ है उससे ऐसा प्रश्न उठना लाजिमी है. किन्तु क्या साहित्य सिर्फ मनोरंजन के लिए है? चाँद पर पहुँचने के इस काल में भी यह प्रश्न मिटा नहीं है. गोवर्द्धन गेटमैन है. जाहिर है वह ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं है. रात्रि के बियावान में गुमटी के पास की एक झोपड़ीनुमा बंद दुकान के बाहर रखी चौकी पर कुछ गुंडे इकट्ठे होते हैं, जो लूट-पाट, छिनतई एवं कई तरह के आपराधिक वारदातों को अंजाम देते रहते हैं. शराब पीने एवं जबरदस्ती किसी औरत की इज्जत लूटने के लिए गुमटी के पास की वह झोंपड़ी उनका अड्डा है. एक दिन उन गुंडों के विरोध में वह कुछ ऐसा कर गुजरता है जो अकल्पनीय लगता है.
औरत की बेबसी एवं उनके लूटने की पीड़़ा एवं उन्हें किसी भी प्रकार से बचाने में अपनी असमर्थता के कारण गोवर्धन तिलमिला कर रह जाता. वे गुंडे अपना रामपुरी चाकू दिखाकर बार-बार गोवर्धन को डराता धमकाता रहता था. गोवर्धन इतने बरसों से यह सब देख एवं सह रहा था वही एक रात एक स्कूली छात्रा को उन दरिंदों से बचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगा देता है. न जाने कहाँ की शक्ति उसके भीतर आ जाती है. प्रतिरोध के क्रम में गुंडों द्वारा बुरी तरह घायल होने के बावजूद अपनी सूझ-बूझ से वह उस लड़की की अस्मत बचा लेता है. गुंडे मारे जाते हैं. कहानी का अंत सुखान्त है लेकिन मनगढ़ंत या आरोपित नहीं लगता. जीवन में कभी-कभी ऐसा भी घटित होता है जो कल्पना से भी अधिक अविश्वसनीय होता है. कहानी की बुनावट में यह अन्त जीवन की अच्छाइयों के प्रति सहज ही विश्वास दिलाने वाला है. इस कहानी के अंत तक पहुँचते हुए प्रेमचंद बरबस याद आते हैं.
संग्रह की अगली कहानी ‘एक बार फिर’ गेटमैन गोवर्धन’ से बिल्कुल भिन्न धरातल पर रची गयी है. इस कहानी में एक ही परिवार की दो भिन्न दुनिया है. एक दुनिया है गाँव के अपने घर में रह रहे विधुर विमलेश जी की, जो स्कूल शिक्षक के पद से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं. छोटे पुत्र चित्तरंजन, उसकी पत्नी एवं उसके पुत्र एवं पुत्री के साथ विमलेश जी का लगावपूर्ण एवं सम्मानपूर्ण जीवन है. चित्तरंजन से बड़े उनके दो पुत्र मधुररंजन एवं मृगरंजन हैं, जो सचिवालय में कार्यरत हैं. दोनों अपने परिवार के साथ शहर में रहते हैं. विमलेश जी उन दोनों के यहाँ बारी-बारी से जाकर अवहेलना झेल चुके हैं. विमलेश जी अब गाँव के अपने घर में दुमुंहे कमरे में रहते हैं. ‘दुमुंहा’, जिसका संबंध घर के भीतर और बाहर दोनों से है. यह ‘दुमुंहा’ दो दुनियाओं का संधि स्थल मालूम होता है. दुमुंहा के भीतर उनके छोटे बेटे का परिवार है जो उनसे प्रेम करता है और दुमुंहा से बाहर निकलकर शहरी दुनिया के बासी उनके दो पुत्र हैं, पिता के बीमार पड़ने पर जिनकी चिन्ता है कि पिताजी के मरने के बाद उन्हें एकबार और गाँव आने का कष्ट झेलना होगा. दूसरी तरफ बेटी आती है तो ‘वह कभी उनके हाथ सहलाती तो कभी पैर, तो कभी माथे पर हाथ फेरती. विमलेशजी जानते थे, उम्रदराज बेटी पिता के लिए भी माता बन जाती है.’
बिना किसी आरोपित विमर्शवादी मशक्कत के कहानी में सहज ढंग से बेटी का महत्त्व मुखर है. इस कहानी की ताकत मुख्य रूप से इसकी भाषा है. ‘चुपा क्यों गये’, ‘दोनों के दोनों एक जइसे’, ‘मुखिया की बात पर कैसे महटिया जाते’ आदि वाक्य या वाक्यांश गाँव में प्रचलित संवाद में प्रयुक्त होते हैं.
‘प्लेटफार्म की रात’ कहानी की शुरुआत छोटे से शहर के उपेक्षित रेलवे स्टेशन के रात्रिकालीन ब्योरों से होती है. लगभग चार पृष्ठों तक ब्योरा चलता रहता है. तारीफ की बात यह है कि ये ब्योरे इतने रोचक लगते हैं कि घटनाओं का अभाव महसूस ही नहीं होता. कहानी में आगत घटनाओं के लिए ऐसा वातावरण चित्रण अनिवार्य होता है. समीक्ष्य कहानी में कथावाचक ‘मैं’ शैली में कस्बानुमा शहर के रेलवे प्लेटफार्म के रात के ग्यारह बजे से लेकर तीन बजे के पूर्व तक के अवलोकन को कहानी के रूप में प्रस्तुत करता है. गाँव से सटे उस छोटे से शहर के प्लेटफार्म पर किशोरवय का एक लड़का एक किशोरवय की एक लड़की के साथ एकान्त की तलाश में आता है. वे दोनों प्लेटफार्म पर घूमने वाले गुंडों के हत्थे चढ़ने पर अपनी रक्षा के लिए कथावाचक, जो पेशे से प्रोफेसर है, की शरण में आते हैं. किस तरह उन गुंडों एवं स्टेशन थाने के सिपाहियों से कथावाचक उनकी रक्षा करता है, इसका विश्वसनीय चित्र इस कहानी में है.
‘प्लेटफार्म की रात’ की लड़की की आबरू कथानायक बचाने में सफल इसलिए हो पाता है कि उस छोटे से शहर में अधिकांश लोग उन्हें पहचानते हैं. लेकिन इसी संग्रह की कहानी ‘रोशनी की राह’ की रोशनी की आबरू शहर के प्रभावशाली गुंडों के द्वारा बार-बार लूटी जाती है. चाहकर भी कोई उसकी रक्षा नहीं कर पाता. वह एक बड़े शहर की झुग्गी में अपने माता-पिता एवं भाई-बहनों के साथ रहकर शिक्षा प्राप्त करती है एवं विद्यालय में अध्यापिका भी बनती है. इसके बाद उसके साथ दरिंदगी और वहशीपन का जो सिलसिला शुरू होता है, उससे निजात पाने के लिए वह अपने छूटे हुए सुदूर गाँव में लौट जाती है. गुंडों के वहाँ पहुँचने पर पूरा गाँव एकजुट हो अपने गाँव की इस लड़की रोशनी को बचाने के लिए उन गुंडों को मार डालते हैं.
मिथिलेश्वर जी ने कल्पनावादियों की तरह गाँव का मोहक एवं आडम्बरपूर्ण चित्र नहीं खींचा है. रोशनी के माध्यम से इस कहानी में एक सशक्त स्त्री चरित्र उभरकर आता है जो अपना यौन शोषण होने पर न तो पलायन करती है और न ही आत्महत्या. बल्कि गाँव जाकर सुनियोजित ढंग से उन गुंडों को बुलाकर उन्हें मृत्यु के मुख तक पहुँचाने का काम करती है. मिथिलेश्वर की कहानियाँ दिल पर सीधे चोट करती हैं.
‘मिथिलेश्वर की कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनमें कलात्मक बनाव-शृंगार के बगैर भी मन को छू लेनेवाला कहानीपन मौजूद है.’
(आलोचना-93, अप्रैल-जून, 1990)
मिथिलेश्वर लंबे अरसे से कहानी लिख रहे हैं. लगातार लिख रहे हैं. लेकिन विषय-वैविध्य एवं तदनुकूल शिल्प के कारण इनकी कहानियाँ नित-नित नूतन है.
एक लेखक की रचनाओं में उसके स्वयं के व्यक्तित्व के बहुत सारे पहलुओं, मसलन-सामाजिक, पारिवारिक, क्षेत्रीय, वर्गीय, भाषायी आदि की भूमिका होती है. अपनी वैयक्तिक भिन्नता एवं निजता के कारण कोई एक घटना किसी को ज्यादा प्रभावित करती है और किसी को कम. ‘भीड़ हिंसा’ की घटनाएँ मिथिलेश्वर जी को मर्मान्तक पीड़ा देती हैं. उन्होंने इस विषय पर कई बार लिखा है. इस संग्रह में संकलित ‘भीड़ के अभियुक्त’ कहानी भी भीड़ हिंसा पर केन्द्रित है.
मिथिलेश्वर की अधिकांश कहानियों की तरह इस कहानी में भी ‘मैं’ कथावाचक है. मिथिलेश्वर बहुधा ऐसे विषयों को अपनी रचनाओं का कथ्य बनाते हैं, जिन्हें देखते हुए भी लोग अधिक ध्यान नहीं देते. गाँव में व्याप्त भूत-प्रेत या डायन की समस्या को लेकर भी मिथिलेश्वर जी ने गंभीर लेखन किया है. भीड़ के द्वारा किसी को भी अज्ञानतावश अभियुक्त बना दिया जाना सामान्य बात है.
अभियुक्त वास्तव में दोषी है कि नहीं इसकी पड़ताल भीड़ कभी नहीं करती. अगर कोई व्यक्ति भीड़ द्वारा घोषित उस अभियुक्त की रक्षा करना चाहे, तो नहीं कर सकता. कोई भीड़ ही इस भीड़ से अभियुक्त को बचा सकती है. ‘भीड़ के अभियुक्त’ कहानी का कथ्य यही है. कहानी का निष्कर्ष वाक्य है, ‘‘भीड़ की हिंसा कोई भीड़ ही रोक सकती है.’’
लेकिन परिवार में बुजुर्गों के प्रति उनकी संतान के द्वारा हो रही हिंसा को कौन रोकेगा? अब गाँव भी पहले जैसा गाँव नहीं रहा, जहाँ वृद्ध माता-पिता की सेवा को उनकी संतान पुण्यकार्य और अपना दायित्व समझती थी. गाँव भी निरंतर बदल रहा है और मिथिलेश्वर न सिर्फ गाँव के विगत को जानते हैं बल्कि आज के गाँव को भी तमाम बदलाव के साथ जान समझ रहे हैं. उनके जीवन का बड़ा हिस्सा गाँव में बीता है और आज भी वे बिहार के एक छोटे से शहर आरा में रहते हैं, जहाँ गाँव के बदलाव की धमक आसानी से महसूस होती है. समीक्ष्य कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी ‘रैन भई चहुँ देस’ घोर स्वार्थपरता के कारण पारिवारिक जीवन और खून के रिश्ते को भी विकृत और तार-तार कर देने वाली अमानवीय कृत्यों की मार्मिक अभिव्यक्ति है. इस कहानी में वर्णित कठोर यथार्थ हमें अन्दर तक तिलमिला देता है.
मिथिलेश्वर की कहानियाँ फार्मूलेबाजी और वैचारिक साँचों या निकष से उपजी कहानियाँ नहीं हैं, वे सीधे-सीधे जीवन से उपजी हैं. अतः ‘एक बार और’, ‘रैन भई चहुँ देस’, इन दोनों कहानियों के दोनों ग्रामीण पुत्र अलग-अलग मन-मिजाज के हैं. अगर वे यथार्थ की उपज नहीं होते तो दोनों ही पिता के प्रति संवेदनशील होते अथवा दोनों ही पिता के प्रताड़क होते.
‘मैं’ शैली में लिखित ‘रैन भई चहुँ देस’ कहानी के मुख्य पात्र राजदेव राज अपने शहरवासी दो पुत्रों से अवहेलित होकर अपना वार्द्धक्य गाँव में अपने छोटे पुत्र सुधीर के साथ आराम और सम्मान से बिता रहे थे. लेकिन यह स्वार्थीपुत्र उन्हें नशे का इंजेक्शन देकर रजिस्ट्री ऑफिस ले जाता है. उनके होश में आने पर भी सुधीर जैसा चाहता है वैसा ही होता है. वह अपने पिता से दस बीघा अतिरिक्त जमीन अपने नाम से लिखा लेता है. राजदेव किसके बल पर विरोध करते!
‘‘अब शहर की तरह गाँव में भी कोई किसी के बीच पड़ना नहीं चाहता, उस पर भी तो पिता-पुत्र के आपसी मामले में तो हरगिज नहीं…..’
जिस पुत्र के द्वारा की गयी अपनी सेवा-सुश्रूषा को पाकर वे उसे श्रवण कुमार समझते थे, वह तो स्वार्थवश सेवा कर रहा था.
‘‘जो हो, अब सुधीर उन्हें खूंखार जल्लाद तथा हर दर्जे का शातिर जान पड़ रहा था……’’
इस आघात को वे सह नहीं पाते एवं जमीन रजिस्ट्री के एक सप्ताह के बाद ही गुजर जाते हैं. इस कहानी को पढ़ते हुए दिल में हौल-सा उठता है. इस कहानी में भी कहानीकार बेटियों की संवेदनशीलता और सदाशयता को प्रतिष्ठापित करता है,
‘‘लड़कियाँ जन्मजात और स्वभाव से संवेदनशील होती है. संबंधों की तरलता कभी सूखने नहीं देतीं’’
स्वार्थपरता के कारण संबंधों के अवमूल्यन के आज के दौर में बेटियों का दोहन भी अब वर्जित नहीं रहा. अगर परिवार में अकेली लड़की नौकरी करके परिवार का पालन कर रही होती है तो परिवार के आत्मीयजन भी स्वार्थलोलुपता में उसके व्याह नहीं होने देना चाहते हैं. अपनी स्वार्थपरता के तहत लोग किसी के जीवन की स्वाभाविक और प्राकृतिक माँग को भी रोकने की कोशिश करते हैं. लेकिन अंततः उन्हें मुँह की खानी पड़ती है.‘वज्रपात’ कहानी की रचना इसी यथार्थ से प्रेरित रही है.’ ‘वज्रपात’ इस संग्रह की अंतिम कहानी है. इस कहानी की नायिका हेमा स्कूल की शिक्षिका है. उसका पूरा परिवार उसी पर आश्रित है, क्योंकि परिवार में कोई दूसरा नौकरीपेशा नहीं है. उसकी शादी हो जाने पर पूरा परिवार सड़क पर आ जाएगा. इसी भय से परिवार के सभी सदस्य उसे किसी से मिलने-जुलने नहीं देते. लेकिन मन और शरीर की भी उम्रजनित माँग होती है. अतः तीस से चालीस वर्ष की उम्र के बीच की हेमा अपने परिवार में ही रह रहे फुफेरे भाई अनभ्र के साथ चली जाती है कोर्ट में शादी के लिए.
इस कहानी को पढ़ते हुए राजेन्द्र यादव की कहानी ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ की याद आती है. ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ में पिता पुरुष-सम्पर्क से अपनी पुत्री को अलग रखने के लिए उसे कमरे में बंद करके रखता है, एक अंधविश्वास के तहत वहाँ ‘वज्रपात’ कहानी में हेमा को किसी के सम्पर्क से इसलिए दूर रखा जाता है कि अगर उसने शादी कर ली तो घर का खर्च कैसे चलेगा. लगभग प्रत्येक कहानी में मिथिलेश्वर जी समाज की किसी न किसी समस्या को पूरी पारदर्शिता के साथ अभिव्यक्त करते हैं. इनकी कथाओं का एक बड़ा पाठक समुदाय है. यह अकारण नहीं. इनकी कहानियों और उपन्यासों की पठनीयता असंदिग्ध है.
कवि वर्डसवर्थ ने कहा है कि कविता के हर एक घंटे के लिए मैंने समाज के बारे में बारह घंटे सोचा है. मिथिलेश्वर की कहानियों से गुजरते हुए समाज के प्रति उनकी गहरी चिन्ता एवं सरोकार से हम सिर्फ परिचित ही नहीं होते, उसपर भरोसा भी करते हैं.
अधिकांश कहानियों का प्रथम पुरुष में लिखा जाना मिथिलेश्वर का उन स्थितियों, घटनाओं एवं परिदृश्य से लगाव को सूचित करता है. गाँव आधारित कहानियों में गाँव में प्रचलित मुहावरों, जुमलों एवं वाक्यांशों का प्रयोग उन कहानियों को रोचकता प्रदान करता है. अधिकांश कहानियों में मिथिलेश्वर ने अपनी स्मृतियों एवं अनुभवों का सफल एवं संतुलित उपयोग किया है.
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इंद्रप्रस्थ प्रकाशन
के-71, कृष्णा नगर, दिल्ली-110051
मूल्य: 450 रुपये.
पूनम सिन्हा मुजफ्फरपुर, बिहार मो.-9470444376 |
सुंदर ,सटीक विश्लेषण। कहानी संग्रह में संकलित सभी कहानियां समाज,परिवार में व्याप्त कुविचार, व्यभिचार को बखूबी चित्रित करता है साथ ही साथ सही और सुंदर सोच को भी उजागर करता है जिससे कि समाज,परिवार को सही दिशा मिल सके।इस मामले में मिथिलेश्वर जी की सभी कहानियां प्रेमचंद युग की समाज,परिवार सुधारक कहानियों के समतुल्य है।
“समालोचन” में अपने नए कहानी संग्रह “रैन भई चहुँ देस” की समीक्षा देख कर खुशी हुई।डा.पूनम सिन्हा ने बहुत अच्छा लिखा है।आपकी स्तरीय प्रस्तुति और कुशल संपादन-संयोजन के लिए हार्दिक धन्यवाद और शुभकामनाएं।
सारगर्भित, संतुलित और बेहतरीन आलेख।मैम ने सरल शब्दों में अलहदा व्याख्या की है।