क्या आपने ‘नेशनल स्कूल’ का नाम सुना है?
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दरभंगा की सबसे मशहूर जगह है- टावर; और उसी के पास है एक टूटा-फूटा, जर्जर, हांफता विशाल भवन जिसे नेशनल स्कूल के नाम से जाना जाता था. इस बेशकीमती धरोहर को लगभग मार्केट कांप्लेक्स में बदल दिया गया है. नेशनल स्कूल के तार असहयोग आंदोलन से जुड़ते हैं. असहयोग आंदोलन ने विदेशी सामानों का बहिष्कार ही नहीं किया बल्कि ब्रिटिश शिक्षा का भी बहिष्कार किया. महात्मा गांधी और उनके सहयोगियों के आह्वान पर विद्यार्थी स्कूल कॉलेज का बहिष्कार करने लगे. स्कूल-कॉलेज छोड़कर आंदोलन के मैदान में कूद पड़े. वरिष्ठ आंदोलनकर्मियों का बड़ा दायित्व था कि विद्रोही युवा शिक्षा से वंचित न रहें. उनकी पढ़ाई और लड़ाई साथ-साथ चले. जो ब्रिटिश शिक्षा ‘काला अंग्रेज’ बनाती थी, वह शिक्षा इन्हें नामंजूर थी. अगुआ आंदोलनकारियों को भारतीय युवाओं को ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा देनी थी जो उन्हें भारतीय नागरिक बनाये और वह नागरिक राष्ट्रहित की सोचे. इसी उदात्त विचार ने नेशनल स्कूल की नींव डाली. यहाँ बिहार के कुछ नेशनल स्कूलों की चर्चा की गयी है.
बिहार के अधिकांश जिलों में राष्ट्रीय विद्यालय की नींव पड़ी. पटना, दरभंगा, मधुबनी, मोतिहारी, बेतिया इत्यादि जगहों पर इसकी स्थापना की गयी. यह दूसरी बात है कि अर्थाभाव में कई नेशनल स्कूल जल्दी ही अपना अस्तित्व खो बैठे. लेकिन कई नेशनल स्कूल लंबे समय तक देश की शिक्षा व्यवस्था और राष्ट्रीय आंदोलन के केंद्र में रहे.
बिहार विद्यापीठ राष्ट्रीय स्कूलों के केंद्र में था. महात्मा गांधी ने पटना के अतिरिक्त दो विद्यापीठ और खोले-काशी विद्यापीठ तथा गुजरात विद्यापीठ. उक्त दोनों विद्यापीठ आज भी अच्छी स्थिति में है, लेकिन बिहार विद्यापीठ नाममात्र का रह गया है. इसके 35 एकड़ जमीन पर भू माफियाओं की गिद्ध-दृष्टि लगी हुई है. सन 1921 में महात्मा गाँधी ने कस्तूरबा, राजेन्द्र प्रसाद और अली मुहम्मद की उपस्थिति में पटना में बिहार विद्यापीठ की नींव रखी थी. एक वर्ष के अंदर 500 असहयोगी छात्रों ने बिहार विद्यापीठ के अधीन परीक्षा देने के लिये नामांकन कराया था और 20-25 हजार छात्र बिहार विद्यापीठ से संबद्ध संस्थाओं में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे. मौलाना मजहरुल हक़ इसके पहले कुलपति बनाये गए. बिहार विद्यापीठ नेशनल स्कूलों को मजबूती प्रदान करने, उसका संरक्षण करने तथा सरकारी विद्यालयों, महाविद्यालयों की तरह परीक्षाएँ आयोजित कर प्रमाण-पत्र देने संबंधी उद्देश्यों को पूरा करने के लिए अस्तित्व में आया. बिहार विद्यापीठ की रिपोर्ट के अनुसार
“6 फरवरी 1921 को गांधी जी द्वारा राष्ट्रीय महाविद्यालय ‘विद्यापीठ’ का औपचारिक उद्घाटन किया गया. बिहार विद्यापीठ का उद्देश्य था- प्रांत में खोली गयी सभी राष्ट्रीय विद्यालयों का समायोजन करना तथा उनका नियंत्रण एवं निर्देशन करना.”
(रिपोर्ट, सर्वे एवं पत्र-पत्रिका, बिहार विद्यापीठ की रिपोर्ट, 1921-26, पृष्ठ: 4-5)
ध्यान देने की बात यह है कि राष्ट्रीय विद्यालय असहयोग आंदोलन के समय असहयोग की भावना से पनपने वाला महज आक्रोश नहीं था बल्कि शिक्षा का भारतीयकरण, सबके लिए शिक्षा, तथा अपने मूल्यों और विरासतों की रक्षा करते आगे कैसे बढ़ा जाए, इन दिशाओं में भी गंभीरता से विचार करना था. महात्मा गांधी और रवीन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षा व्यवस्था भले ही उस समय के अंग्रेजी चाल-ढ़ाल के सामने बौनी नज़र आती हो लेकिन इन लोगों की संकल्पना में देश के हर व्यक्ति के लिए शिक्षा सहज रूप से उपलब्ध हो सके, इसकी अवधारणा थी. नयी तालीम की अवधारणा में विद्यार्थी पढ़ते हुए रोजगार का सृजन भी कर सकते थे. टैगोर के शैक्षिक दर्शन और गाँधी की नयी तालीम के विचार-बीज इन राष्ट्रीय विद्यालयों में हमें देखने को मिलता है.
बिहार विद्यापीठ की स्थापना के किस्से भी कम रोचक नहीं हैं. यह किस्सा ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ के मुहावरे को अमली जामा पहनाने वाला है. यह किस्सा हमें बताता है कि संसाधनों का रोना कमजोर रोते हैं. महात्मा गाँधी जैसे ‘मजबूर’ नहीं ‘मजबूत’ नेता संसाधन पैदा कर लेते थे. हमें यह जानना आवश्यक है कि जब स्वाधीनता आन्दोलन में संघर्ष करते हुए लोग जेल जा रहे थे, फाँसी पर झूल रहे थे, आन्दोलनों के लिए खुद को समर्पित कर रहे थे, जुनूनी तौर पर देश के लिए मर मिटने पर उतारू थे; क्रांतिकारियों के भीतर इस तरह की ऊर्जा और संघर्ष करने वाली प्रेरणा कहाँ से आती थी? यह एक सवाल है, जिसका जवाब राष्ट्रीय विद्यालयों की अवधारणा और उनके मेनिफेस्टों से मिल जाता है. किसी भी संस्था को चलाने के लिए संस्था के पास धन और धैर्य की आवश्यकता होती है. धैर्य तो पर्याप्त मात्रा में इन संस्थाओं के पास था, लेकिन धन का अभाव विद्यालयों को संचालित करने वाले लोगों को बहुत परेशान करता था. चंदे और दया भाव से चलने वाली संस्था कब बंद हो जाये इसका कोई निर्धारित समय नहीं होता.
बिहार विद्यापीठ की स्थापना भी चन्दों के पैसे से हुई. गांधी अपनी यात्राओं के दौरान विद्यालयों के लिए पैसे भी इकट्ठा किया करते थे. राजेन्द्र प्रसाद के शब्दों में,
“महात्मा गांधी ने बिहार से जाने के समय कहा था कि बिहार में भी विद्यापीठ होना चाहिए. मेरे यह कहने पर कि हमारे पास रुपये नहीं है, उन्होंने कहा था कि चिंता न करो, अगर काम ठीक तरह से होगा तो रुपये की कमी न होगी. जब नागपुर कांग्रेस के बाद वह दुबारा बिहार के दौरे पर आये तो झरिया में पचास-साठ हजार रुपये जमा करके मेरे पास तार दिया कि पटने आ रहा हूँ विद्यापीठ के उद्घाटन का प्रबंध करो. उसी मकान में, जहाँ हमने महाविद्यालय खोल रखा था, उन्होंने आकर विद्यापीठ का उद्घाटन किया. श्री मजहरूल हक साहब उसके चांसलर मुकर्रर किये गये. हमने बाजाब्ता सिनेट वगैरह भी बना लिया. हम लोग पाठ्यक्रम निर्धारित करने के काम में लग गए.”
(आत्मकथा, राजेन्द्र प्रसाद, सस्ता साहित्य मंडल, नयी दिल्ली, संस्करण-20117, पृष्ठ: 194-195)
बिहार विद्यापीठ से पहले मजहरुल हक़ ने सदाकत आश्रम बनाया था, जो कालांतर में राष्ट्रीय विद्यालय के रूप में प्रसिद्ध हुआ. हक़ साहेब के मित्र खैरुन मियाँ ने सदाकत आश्रम के लिए बहुत सारी जमीन दान में दी थीं. सदाकत आश्रम के ही एक हिस्से में बिहार विद्यापीठ की स्थापना की गई थी. सदाकत आश्रम’ का योगदान कई मायने में महत्त्वपूर्ण है. यह आश्रम उन बच्चों का आश्रय बना जिन्होंने आवेश में आकर या फिर अंग्रेजी राज का विरोध करते हुए स्कूल, कॉलेज का त्याग कर दिया था. ऐसे बच्चों के लिए सदाकत आश्रम न सिर्फ खाने और रहने का जरिया बना बल्कि जिस मकसद को पूरा करने के लिए सरकारी विद्यालय का त्याग किया उसे भी पूरा करने में पूर्ण सहयोग दिया.
विद्यार्थी उस समय जितने विद्यार्थी होते थे उससे कहीं ज्यादा क्रांतिकारी होते थे. यह भी एक कारण रहा कि सरकारी स्कूलों के शिक्षकों से जब-तब उनके टकराव की ख़बरें आती रहती थीं. पटना के इंजीनियरिंग स्कूल के विद्यार्थियों और वहाँ के प्रिंसपल के साथ होने वाले टकराव उसी वैचारिकी का हिस्सा था, जहाँ विद्यार्थियों की सहमति और असहमति को लेकर टकराव की स्थिति बनी रहती थी.
वैचारिक शिक्षा के लिए जब-तब होने वाले मतभेद शिक्षार्थियों के भविष्य के लिए घातक थे. यह बात उस समय का बौद्धिक वर्ग खूब जानता था. मजहरूल हक, शम्भूशरण वर्मा, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, बदरीनाथ वर्मा, श्री जगन्नाथ प्रसाद एम.ए., प्रेमसुन्दर बोस आदि बुद्धिजीवी सरकारी स्कूल कॉलेजों से निष्कासित या स्वेच्छया से सरकारी स्कूल को त्याग देने वाले बच्चों के भविष्य के प्रति काफी गंभीर थे.
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद अपनी आत्मकथा में ‘सदाकत आश्रम’ की निर्मिति के बारे में लिखते हैं कि
“मजहरूल हक साहब बड़े भावुक और निर्भीक व्यक्ति थे. उनके त्याग की शक्ति भी अपूर्व थी. उस समय वह बहुत ही ऐश-आराम से उस बड़ी कोठी में रहा करते थे. सबकुछ छोड़कर, उन लड़कों को साथ लेकर पटना-दानापुर सड़क पर एक बगीचे में चले गए. वहाँ उनके एक परिचित सज्जन का छोटा सा मकान था. वहीं रहने लगे. जाड़े के दिन थे. खूब सर्दी पड़ रही थी. वह स्थान गंगा के किनारे होने के कारण कुछ अधिक ठण्डा था. घने बगीचों से घिरे रहने के कारण वहाँ की जमीन में कुछ सील भी थी. तब भी मजहरूल हक साहब वहाँ कुछ दिनों तक उसी छोटे बंगले में रहे. आहिस्ता-आहिस्ता वहाँ ताड़ की चटाइयों के कुछ झोंपडे भी बन गए. लड़के भी बड़े उत्साही थे, कष्ट का ख्याल न करके उनके साथ आनंद से रहने लगे उसी स्थान का नाम उन्होंने सदाकत आश्रम रखा.”
(आत्मकथा, राजेन्द्र प्रसाद, सस्ता साहित्य मंडल, नयी दिल्ली, संस्करण 2017, पृष्ठ: 4-5)
‘सदाकत आश्रम’ न सिर्फ नैतिक शिक्षा देने में समर्थ था बल्कि हिंदू-मुस्लिम एकता का बड़ा हिमायती भी था. ब्रिटिश हुकूमत के खात्मे के लिए यह एकता बहुत आवश्यक थी. जिस एकता को तोड़कर अंग्रेज सत्ता पर काबिज रहना चाहते थे, उसी का एकीकरण उस समय के राष्ट्रीय विद्यालयों में किया जा रहा था. एकता में ‘बल’ की पहचान को बारीकी से समझने वाले सदाकत आश्रम के कर्ता-धर्ता मजहरूल हक साहब को जब लगा कि संस्कृत पढ़ने वाले मुहम्मद खलील के भीतर धार्मिक कट्टरता फैल रही है तो उन्होंने बिना देर लगाए उसे आश्रम से निष्कासित कर दिया. ‘भारत जननि, तेरी जय तेरी जय हो’ गीत उस समय पूरे प्रदेश की सभाओं में गाए जाते थे जिसे मुहम्मद खलील ने लिखा था, लेकिन उनके भीतर पनपने वाला द्वेष किसी भी सूरत में कौमी एकता को बनाए रखने के लिए उपयुक्त नहीं था. राष्ट्रीय विद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा इस बात के प्रति गंभीर थी कि विद्यार्थी आगे चलकर मानवता की सेवा सच्ची निष्ठा से कर सकें.
दरभंगा का नेशनल स्कूल बिहार प्रांत का एक ऐसा राष्ट्रीय विद्यालय था जिससे गांधी जी सीधे-सीधे जुड़े हुए थे. इस सन्दर्भ में ‘मैं और मेरे कुछ अनमोल साथी’ नामक किताब एक विद्यालय की स्थापना को लेकर किए गए संघर्ष से रूबरू कराती है. बाबू कमलेश्वरी चरण सिन्हा जिस स्कूल के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत का सामना कर रहे थे, वह राष्ट्रीय विद्यालय ही था. यह विद्यालय अपनी स्थापना के दिन से लेकर संघर्ष के बुरे दिनों में भी राष्ट्रीय चेतना का संचार करता रहा. विद्यालय के भीतर कई तरह की गतिविधियाँ होती रही. अनाथ बच्चों को लेकर ये विद्यालय न सिर्फ चिंतित था बल्कि अनाथ बच्चों के जीवन की अहमियत को भी खूब समझता था. क्रांतिकारियों का अड्डा ‘नेशनल स्कूल दरभंगा’ के योगदान की चर्चा भले ही न के बराबर हो लेकिन उत्तर बिहार में स्वाधीनता आंदोलन को खाद-पानी देने में इस विद्यालय के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है. (मैं और मेरे कुछ अनमोल साथी एवं दो मनीषियों का महाप्रयाण, कमलेश्वरी चरण सिन्हा, संस्कृति प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, संस्करण 2021, पृष्ठ: 14)
दरभंगा का नेशनल स्कूल और सरस्वती एकेडमी शिक्षालय के साथ-साथ क्रांतिकारियों की शरणस्थली भी थी. राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की अवधारणा यहाँ भारतीय जीवन-मूल्यों को पुनः स्थापित करते हुए देश की सांस्कृतिक परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखने की ही नहीं थी बल्कि अंग्रेजी शिक्षा का प्रतिरोध करते हुए जिन बच्चों ने अंग्रेज सरकार द्वारा संचालित स्कूल को त्याग दिया ऐसे बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था भी करनी थी. दरभंगा जिले में क्रांतिदूतों के प्रयास से कई विद्यालय खुले. ‘सरस्वती एकेडमी’ एक ऐसी ही संस्था थी, जहाँ पढ़ाई और लड़ाई दोनों के लिए बच्चों को तैयार किया जाता था. ‘मैं और मेरे कुछ अनमोल साथी’ नामक किताब में क्रांतिवीर कमलेश्वरी चरण सिन्हा लिखते हैं कि
“सरकारी स्कूलों से लड़के हटने लगे. उनकी पढ़ाई की कोई व्यवस्था नहीं थी. ब्रजकिशोर प्रसाद के सभापतित्व में वकालत खाने में एक सभा हुई और तय हुआ कि दरभंगा में एक राष्ट्रीय विद्यालय (नेशनल स्कूल) की स्थापना की जाये. विद्यालय की स्थापना का पूरा भार मुझ पर दिया गया. ब्रजकिशोर प्रसाद, धरणीधर जी तथा अन्य व्यक्तियों का पूरा सहयोग मुझे इस काम में मिलता रहा. उन नेताओं के सहयोग और हमारे प्रयास तथा परिश्रम से दरभंगा में भी एक राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की गयी.”
(उपर्युक्त)
कमलेश्वरी चरण सिन्हा के पौत्र अमलेश्वरी चरण सिन्हा अपने पूर्वजों द्वारा किए गए संघर्षों को याद करते हुए कहते हैं कि-
“बाहर से नेशनल स्कूल एक स्कूल जैसा ही दिखाई देता था जहाँ विद्यार्थियों का पढ़ाई-लिखाई के लिए आना-जाना लगा रहता था, शिक्षकों द्वारा पढ़ने-लिखने जैसी बातें मालूम होती थीं, लेकिन यह स्कूल भीतर से क्रांतिकारियों का अड्डा माना जाता था. जहाँ देश को आज़ाद कराने के लिए गोष्ठियाँ तथा अलग-अलग तरह की योजनाएँ बनाई जाती थीं. यहाँ से पूरे बिहार के आंदोलनों को संचालित किया जाता रहा है. गाँधी जी के चंपारन और मोतिहारी यात्रा के दौरान इस स्कूल के कई सदस्य गाँधी जी के साथ थे. ब्रजकिशोर प्रसाद, धरणीधर प्रसाद, कमलेश्वरी चरण सिन्हा आदि ये सभी गाँधी के न सिर्फ करीबी माने जाते थे बल्कि एक ऐसे संगठन के कर्ता-धर्ता थे जो एक अलग तरह के क्रांति दल तैयार कर रहे थे.”
गाँधी की चंपारन यात्रा किसानों की समस्याओं को लेकर काफी महत्त्वपूर्ण रही है. यह बहुत कम लोगों को ज्ञात है कि इसी यात्रा के दौरान गाँधी जी स्कूल खोलने को लेकर भी प्रतिबद्ध थे. इस तरह के कार्य के लिए गाँव के लोगों का सहयोग बहुत आवश्यक था. उत्तर भारत में आज भी ऐसे सैकड़ों स्कूल कॉलेज हैं जिसे स्थानीय लोगों ने जमीनें दान देकर स्थापित किया है. अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के बरक्स भारतीय लोगों के लिए उनकी खुद की शिक्षा प्रणाली हो इसके लिए समाज के सबसे निचले तबके के लोग भी प्रतिबद्ध थे. स्कूलों का संचालन कैसे हो सकेगा? यह कैसे आगे भी सुचारु रहेंगे? काम करते रहेंगे इन सब के लिए ग्रामीणों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. ‘स्वतंत्रता आंदोलन में बिहार के विद्यार्थियों का योगदान’ नामक लेख में गांधी जी द्वारा चंपारण यात्रा के दौरान खोले गए स्कूल का उल्लेख मिलता है-
“चंपारण दौरे के समय गांधी जी द्वारा 1917 ई. में चंपारण के बरहड़वा लखन सेन नामक गाँव में एक स्कूल स्थापित किया गया. गाँव के शिव गुलाम लाल नामक एक उदार व्यक्ति ने स्कूल के लिए अपना घर दान कर दिया. 1919 ई. में चंपारण में गांधी स्कूल के प्रधानाध्यापक के नेतृत्व में हड़ताल हुई.” (http://examvictory.com/svtantra-aandolan-mein-bihar-ke-vidyarthi)
राष्ट्रीय विद्यालय के लिए जिन लोगों ने अपनी नौकरी छोड़ी और अपने पद प्रतिष्ठा का त्याग किया उन लोगों की निर्माणकारी भूमिका से अवगत होना बहुत ही आवश्यक है. बिहार विद्यापीठ और इनसे जुड़े नेशनल स्कूल की स्थापना त्याग और समर्पण के अलावा जज़्बाती तथा आन्दोलनधर्मी लोगों से परिचय कराती थी. सुविधा संपन्न स्कूल के सामने किराये के घर में चलने वाले विद्यालय का इरादा कितना मजबूत रहा होगा, इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है.
वर्तमान में जब गैर सरकारी विद्यालयों के नाम पर गरीब तबके के बच्चों को शिक्षा से दूर कर देने का उपक्रम चल रहा है. स्कूल फीस के नाम पर उन्हें शिक्षा से दूर कर दिया जा रहा है तब ऐसे में राष्ट्रीय विद्यालयों का मानवीय सरोकारों का याद आना स्वाभाविक है. शिक्षा के मायने और सबके लिए शिक्षा कितनी आवश्यक है, इस दिशा में विचार करते हुए नेशनल स्कूलों को याद करना चाहिए.
राष्ट्रीय विद्यालयों में आना न सिर्फ सरकारी विद्यालय से बगावत करना था बल्कि अंग्रेज सरकार के लिए बागी बन जाना भी था. स्कूल के दौरान ही इस तरह की चेतना से लबालब हो जाना किसी बड़े मिशन के लिए जीवन को समर्पित कर देना भी था. रश्मि झा के आलेख ‘स्वतंत्रता आन्दोलन में मिथिला का योगदान’ में बिहार के अलग-अलग क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों को त्यागने वाले विद्यार्थियों का उल्लेख मिलता है.
“तब के समय के हेकौक अकादमी (आज का गोपाल साह विद्यालय) मोतिहारी के छात्र लक्ष्मीनारायण झा ने सरकारी स्कूल छोड़कर, राष्ट्रीय विद्यालय मोतिहारी में अपना नामांकन करवाया. उनके इस कदम ने क्रांति पैदा कर दी. इसके बाद तो कई सत्याग्रहियों और देश भक्तों ने भी सरकारी आदर्श स्कूल, बेतिया को छोड़कर राष्ट्रीय विद्यालय बेतिया में नामांकन करवाया. यह वही राष्ट्रीय विद्यालय है जिसकी स्थापना रानीपुर बेतिया के प्रजापति मिश्र के सहयोग से हुई थी और जो राष्ट्रीयता के उद्देश्य से स्थापित किया गया था.” (http://m.facebook com/story.php?story_fbid {maithil se dharohar book}
इस तरह के विद्यालय मेधावी छात्रों के साथ-साथ साहसी कर्मठ स्वतंत्रता सेनानी भी पैदा कर रहे थे.
मिथिला का भूभाग भले ही आज अपनी बौद्धिक ताकत के बल पर सबको चौंका दे लेकिन वर्षों तक यह क्षेत्र कई तरह के पिछड़ेपन का शिकार रहा है. राष्ट्रीय विद्यालयों के द्वारा जब शिक्षा और नव चेतना का विकास हो रहा था तब भी यह क्षेत्र उस रूप में अपनी प्रगति नहीं कर पा रहा था जैसा कि बाकी प्रांत कर रहे थे. मिथिला में असहयोग आंदोलन नामक लेख में रश्मि झा ने मधुबनी जिले के राष्ट्रीय विद्यालय का उल्लेख किया है. बड़ी आबादी के लिए राष्ट्रीय विद्यालय महज प्रेरणा स्रोत मात्र रहा होगा क्योंकि चाह कर भी मधुबनी जिले के पूर्वी छोर के लोग वहाँ तक नहीं पहुंच पाते होंगे वह लिखतीं हैं कि
“चतुरानंद दारा की देख रेख में मधुबनी में, वंशीधर मारवाडी की देख-रेख में दलसिंह सराय में, राष्ट्रीय विद्यालय खोले गए. दरभंगा का राष्ट्रीय विद्यालय, बिहार विद्यापीठ से स्वीकृत था और राष्ट्रीय विद्यालय के निरीक्षकों ने तथा विद्यापीठ के तत्कालीन उपकुलपति डॉ. रवीन्द्र प्रसाद ने इसके संचालन-प्रबंधन और शिक्षा प्रणाली की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी.”
( इतिहास: तथ्य और संदर्भ, अवनींद्र कुमार झा, शंकरदेव झा (सम्पादित), शशि प्रकाशन, दिल्ली, 2018, पृष्ठ: 383)
स्वाधीनता आन्दोलनों में बिहार के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. बिहार के अलग-अलग क्षेत्रों ने जिम्मेदारी पूर्वक अंग्रेजी सत्ता और उनकी बर्बरता का डटकर सामना किया. राष्ट्रीय विद्यालय और बिहार विद्यापीठ के योगदान पर चर्चा होनी चाहिए. बाहर से साधारण उद्देश्य को पूरा करती नजर आती ये संस्थाएँ भीतर से क्रांतिकारी विचारधाराओं को किस तरह से आगे बढ़ा रही थी इस पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है. कोई भी क्रांति या प्रतिरोध एकाएक अस्तित्व में नहीं आता या फिर अपना आकार ग्रहण नहीं करता. राष्ट्रीय विद्यालयों के संस्थापकों ने यह महसूस किया कि अखबारों में लिखकर बगावत करने का मतलब है जेल जाना, जो हुआ भी. कई लोगों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिखते और बोलते हुए जेल की यातनाएं भी झेली. राष्ट्रीय विद्यालय एक साथ कई उद्देश्यों को पूरा करने वाली संस्था बनी. जिसका पहला उद्देश्य ही इस बात की ओर संकेत था कि यहाँ पढ़ने वाले विद्यार्थी देश को आजाद कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे और ऐसा हुआ भी. इस तरह राष्ट्रीय विद्यालयों से निकलने वाले विद्यार्थियों ने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया. हिन्दू-मुस्लिम एकता को बनाए रखने में भी विद्यालय ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. शिक्षकों का त्याग और समर्पण शहादत देने वाले क्रांतिवीरों से किसी भी रूप में कमतर नहीं रहा है.
राष्ट्रीय विद्यालय के उद्भव और विकास के साथ-साथ स्वाधीनता आन्दोलन को खाद-पानी देने वाले विविध कारकों पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता जान पड़ती है. राजेन्द्र प्रसाद और मजहरूल हक के द्वारा किया गया संघर्ष किस रूप में भारतीय शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित करता है? स्वाधीनता आंदोलन में इन विद्यालयों के योगदान और गुमनाम शिक्षकों और विद्यार्थियों ने किस रूप में अपना योगदान दिया? उन लोगों के बारे में भी तफ़सील से बात करने की आवश्यकता है जो सीधे तौर पर क्रांतिकारी दलों से तो नहीं जुड़े थे, लेकिन क्रांति के लिए जरूरी साधन को मुहैया करा रहे थे. श्री भगवान दास और गजाधर प्रसाद साहु जैसे महान लोगों ने जिस नियत से दान दिया उस पर भी विचार करने की आवश्यकता है. आर्थिक कठिनाइयों से लड़ते हुए जिन शिक्षकों ने राष्ट्रीय विद्यालयों का संचालन जारी रखा उनके संघर्ष और त्याग पर भी चर्चा करने की आवश्यकता है. आम जनता एक विद्यालय की निर्मिति में किस तरह शामिल रही तथा अपनी जेब काटकर भी विद्यालय के लिए कुछ न कुछ करते रहे इस काम से उन्हें क्या हासिल हुआ, यह बात भी विचारणीय है. आज भी ग्रामीण भारत में ऐसे हजारों विद्यालय देखने को मिल जाते हैं जो गाँव के किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के नाम पर होता है. विद्यालय के लिए दान देने की जो परंपरा राष्ट्रीय विद्यालय से प्रारंभ हुई वह आगे भी कायम रही. देश के निर्माण में राष्ट्रीय विद्यालय के योगदान को नए सिरे से रेखांकित करने की आवश्यकता है.
रामलखन कुमार 25 नवंबर 1992 मधुबनी (बिहार) पुस्तक: ‘लोक काव्य: प्रतिरोध और मुक्ति का सौंदर्य’ प्रकाशित. ramlakhan2rl@gmail.com |
सुंदर आलेख।
ऐसे शिक्षण संस्थानों का नष्ट होना व्यवस्था और जागरूक समाज के काइयांपन को दर्शाता है…ऐसे नष्ट होते ऐतिहासिक धरोहर की ओर दृष्टिपात करने के लिए लेखक को साधुवाद🌹
संभव हो तो इस लेख को बिहार के शिक्षा मंत्रालय तक पहुंचाएं।
सारगर्भित आलेख….
इस आलेख को पढ़कर बिहार की शिक्षा व्यवस्था की कार्यप्रणाली पर सोचने, समझने पर मजबूर होना पड़ रहा है, बिहार विद्यापीठ का ज़िक्र बताता है जिस प्रदेश में नालंदा और तक्षशिला जैसी यूनिवर्सिटी रही हों, वहां के शिक्षा व्यवस्था को देखकर केवल रोना ही आता है। वर्तमान स्थिति पूरे देश की भयावह है लेकिन बिहार पिछड़ता ही जा रहा है। शिक्षा देने की व्यवस्था पूंजीपतियों के हाथ में जा रही हैं जो निश्चित की गरीब से कलम छीनकर उनको मज़दूरी, भुखमरी की तरफ मोड़ेगी….
जय जगत
जबकि आज़ादी के अमृत महोत्सव में वही पुराने राग की आवृत्ति-पुनरावृत्ति हो रही हो, आज़ादी के परवानों द्वारा नेशनल स्कूल की संकल्पना पर पढ़ना काफ़ी अच्छा लगा। नयी शिक्षा नीति में जहाँ लगातार सरकारी स्कूल बंद किये जा रहे हों और निजी स्कूलों के लिए ‘राजमार्ग’ बनाया जा रहा हो, नेशनल स्कूल के बारे में पढ़ना सकारात्मक नॉस्टैल्जिक अनुभूति है। हिंदुस्तानी शिक्षा के इतिहास में नेशनल स्कूल को भूलना भारतीय शिक्षा के एक महत्वपूर्ण पड़ाव को भूलना है। उक्त गंभीर लेख के प्रकाशन हेतु संपादक अरुण देव जी को साधुवाद और लेखक रामलखन जी को बधाई।
रामलखन कुमार का यह लेख दिलचस्प है। इन राष्ट्रीय विद्यालयों से ब्रिटिश हुकूमत हिल गयी थी। इन पर अनेक तरह के प्रतिबंध लगाए गये। इससे निकले छात्रों को सरकारी नौकरी से वंचित कर दिया गया था।
उस जमाने के लोग सामाजिक हित के लिए जमीन दान कर देते थे। तब और अब की जब हम तुलना करते हैं तो समकालीन शिक्षा माफियों पर क्रोध आता है। इस देश में न जाने कितने पुराने स्कूल बरबाद कर दिए गये हैं।
बेहतरीन और ज्ञानवर्धक लेख…बहुत सी महत्त्वपूर्ण जानकारियां साझा करने हेतु रामलखन का धन्यवाद।
कितनी ही जानकारियाँ समेटे हुए इस ज्ञानवर्धक आलेख के लिए रामलखन जी को बहुत धन्यवाद। इसे पढ़ते हुए ऐसा लग रहा है जैसे वर्तमान दौर की पूंजीवादी शिक्षण व्यवस्था भी उक्त दौर वाली अंग्रेजी शिक्षा से होड़ ले रही है: द्वेष फैलाओ, फूट डालो और शासन करो। आम जन को हासिल शिक्षा के अधिकार की वस्तुस्थिति दारुण ही है। खैर… लेखक और ‘समालोचन’ दोनों को पुनः धन्यवाद।
इस अंक की विषय वस्तु से पहली बार राष्ट्रीय विद्यालयों को खोले जाने की जानकारी प्राप्त हुई है । गांधी द्वारा राष्ट्रीय विद्यालय या नेशनल स्कूल की संकल्पना अद्भुत थी । गुजरात में विद्यापीठ में नाम से प्रसिद्ध हुए राष्ट्रीय विद्यालयों ने ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने के लिये क्रांतिकारी पैदा किये ।
सस्ता साहित्य मंडल से प्रकाशित डॉ राजेंद्र प्रसाद जी की जीवनी ख़रीदूँगा । देश के प्रथम राष्ट्रपति बनने से पहले ही इन्होंने ‘सदाक़त आश्रम’ का निर्माण कराया ।
बिहार राज्य से देश के प्रबुद्ध नागरिक फ़लक पर फैल गये थे । सबसे नया उदाहरण आनंद कुमार हैं । इनके संस्थान से ग़रीब विद्यार्थियों को मुफ़्त शिक्षा प्रदान की जाती है । यहाँ से प्रशिक्षण प्राप्त बच्चे आईआईटी और आईआईएम में दाख़िल होते हैं ।
आप दोनों को यह अंक प्रस्तुत करने की बधाई ।