साहित्य, लोकप्रिय साहित्य और कुछ पूर्वाग्रहदिनेश श्रीनेत |
पॉपुलर लिटरेचर यानी कि लोकप्रिय साहित्य विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाना चाहिए या नहीं, यह इन दिनों हिंदी के साहित्यिक और अकादमिक संसार में विवाद का विषय बना हुआ है. हमेशा की तरह पक्ष विपक्ष दोनों आमने-सामने खड़े हैं. बहस इस पर भी है कि लोकप्रिय, पॉपुलर और लुगदी में क्या फ़र्क़ है? इस दिलचस्प ‘शास्त्रीय बहस’ से कुछ देर के लिए अलग हो जाते हैं. बात को यहीं तक सीमित रखते हैं कि विश्वविद्यालयों में हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में लोकप्रिय साहित्य को शामिल किया जाना चाहिए या नहीं. तो हमारी बहस किस दिशा में आगे बढ़ेगी?
क्या किसी भी लेखक या किताब को इस आधार पर ख़ारिज़ कर दिया जाना चाहिए कि उनकी प्राथमिकता में अपने वक्त के आमजन की अभिरुचि शामिल थी?
लोकप्रिय साहित्य को आखिर किस आधार पर परिभाषित किया जाए?
बात की शुरुआत लोकप्रिय या पॉपुलर की अवधारणा से ही करते हैं. यदि हम साहित्य की केंद्रीय विधाओं जैसे कविता, कहानी या उपन्यास के इतिहास में जाएं तो पाएंगे कि उनकी शुरुआत भी लोकप्रिय संस्कृति के उत्पाद के रूप में ही हुई थी. धीरे-धीरे अभिव्यक्ति का परिष्कार होता गया और उसमें गहराई और जटिलताएं शामिल होती गईं. लोकप्रिय साहित्य का अगर स्थूल वर्गीकरण करें तो दो बातें सारी दुनिया में समान पाई जाएंगी.
पहली लोकप्रिय साहित्य में रोमांचक यात्राओं, भावुक और उदात्त प्रेम कहानियों, भय, रहस्य और अपराध की प्रमुखता होती थी.
दूसरे, इसका विस्तार मूल रूप से एक ही विधा यानी कि उपन्यास में हुआ. यानी कि आधुनिक गल्प को अगर समझना है तो उसे लोकप्रिय संस्कृति के अध्ययन के बिना नहीं समझा जा सकता. उपन्यास विधा ने ही लोकप्रिय साहित्य का नेतृत्व किया है.
उपन्यास निर्विवाद रूप से अपने आरंभ से लेकर आज तक साहित्य की सबसे लोकप्रिय विधा है. गौर करें तो उपन्यास का सीधा रिश्ता यूरोपीय औद्योगीकरण से है.
प्रिंटिंग प्रेस का प्रसार और परिवहन का विस्तार: इसने शब्दों, विचारों और किस्सों के विस्तार को नया आयाम दिया. विक्टोरियन काल के अधिकतर अंगरेजी उपन्यास पत्रिकाओं में धारावाहिक छपा करते थे. हर महान साहित्य परंपरा की जड़ें कहीं न कहीं ‘लोक’ या ‘लोकप्रिय’ में होती हैं. इस दृष्टि से उपन्यास की जड़ें लोकप्रिय साहित्य में बहुत गहरी हैं. इतने बरस बीत जाने के बावजूद अंगरेजी का पहला आधुनिक उपन्यास कहलाने वाले ‘डॉन क्विकज़ोट'(1605) या ‘रॉबिन्सन क्रूसो’ (1719 )की लोकप्रियता असंदिग्ध है और दोनों ही परंपरागत अर्थों में ‘गंभीर’ साहित्य नहीं है.
मिलान कुंदेरा जैसे आधुनिक उपन्यासकार ‘डॉन क्विक्ज़ोट’ की प्रशंसा में कहते हैं,
“जब डॉन क्विक्ज़ोट हमारी दुनिया में दाखिला होता है, तो सारी दुनिया उसकी आँखों के आगे एक अचरज में बदल जाती है. यूरोप का यह पहला उपन्यास हमारे उपन्यास के इतिहास की विरासत है. यह उपन्यास हमें दुनिया को एक प्रश्न के रूप में समझना सिखाता है. इस कहन में बुद्धि और सहनशीलता है.”
यदि हम साहित्य के इतिहास का सचेत आंकलन करेंगे तो पाएंगे कि जगह-जगह लोकप्रिय और साहित्यिक के बीच की विभाजन रेखा बहुत बारीक हो जाती है और बहुत सी रचनाओं की लोकप्रिय और साहित्यिक क्षेत्रों में न सिर्फ आवाजाही है बल्कि कई बार कुछ रचनाएं अपनी विशिष्ट उपस्थिति से उन मानकों को चुनौती देती हैं, जिनके आधार पर किसी रचना को पॉपुलर या साहित्यिक के खांचे में डाला जाता है.
पश्चिम में मेरी शैली की ‘फ्रैंकेंस्टीन’ को लोकप्रिय साहित्य की श्रेणी में रखा गया था मगर आज वह एक विश्व क्लासिक का दर्जा पा चुका है. ‘ड्रैकुला’ भी एक डरावना उपन्यास था मगर अब साहित्यिक खांचे में रखकर उस पर बात की जाती है, हालांकि बिकता वह आज भी पल्प फ़िक्शन की तरह है और लोकप्रियता में कई समकालीन ‘बेस्ट सेलर्स’ को टक्कर देता है.
‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ को एक अपराध कथा की श्रेणी में रखा जाता है जबकि वह एक उच्च स्तर का दार्शनिक आध्यात्मिक मूल्यों वाला उपन्यास है. काफ़्का के भय और अजनबियत से भरे वातावरण वाली कहानियां पल्प की अवधारणा के बहुत करीब हैं. एडगर एलन पो ने बहुत सारी डरावनी कहानियां लिखी हैं. चार्ल्स डिकेंस ने भी ‘अ क्रिसमस कैरोल’ के नाम से डरावना लघु उपन्यास लिखा. स्कॉटिश लेखक आर. एल. स्टीवेंसन ने कभी समुद्री डाकुओं की रोमांचक कहानियां लिखीं तो ‘डॉ जैकिल एंड मि. हाइड’ के नाम से डरावना उपन्यास लिखा.
आधुनिक उपन्यासकार ग्राहम ग्रीन ने तो बाकायदा तय करके लोकप्रिय शैली में उपन्यास लिखे. भारत में राही मासूम रज़ा ने उर्दू पत्रिका ‘रूमानी दुनिया’ के लिए शाहिद अख्तर के नाम से लोकप्रिय उपन्यास लिखे. कृश्न चंदर ने एक बहुत रोचक जासूसी प्रेमकथा ‘हांगकांग की हसीना’ लिखी थी. श्रीलाल शुक्ल ने एक उपन्यास ‘आदमी का ज़हर’ लिखा और तो और प्रेमचंद ने भी एक अपराध कथा लिखी है.
दो |
सत्रहवीं शताब्दी में गॉथिक नॉवेल ने आधुनिक पल्प फिक्शन की नींव तैयार करने का काम होरेस वालपोल के गॉथिक शैली के आरंभिक और सबसे चर्चित उपन्यासकार रहे. गॉथिक एक स्थापत्य शैली थी, जिसका इस्तेमाल मध्यकालीन इमारतों, चर्च और महलों को बनाने में किया जाता था. गॉथिक नॉवेल में भी आमतौर पर इसी से मिलती-जुलती सेटिंग का इस्तेमाल किया जाता था. इन उपन्यासों के कथानक महल, मठ, जमीन के भीतर बने रास्तों, गुप्त दरवाजों और तहखानों की भूल-भुलैया में चक्कर लगाया करते थे. (दिलचस्प यह है कि जब हिंदी में देवकीनंदन खत्री आम जन को सुहाने वाली कहानियां लिखते हैं तो वे भी तहखानों, चोर दरवाजों और सुरंगों का तिलिस्म रचते हैं.)
इन काल्पनिक कहानियों को लेखक अक्सर किसी पुरानी पांडुलिपि की खोज के रूप में प्रस्तुत करते थे. सन् 1897 में प्रकाशित ब्रैम स्टोकर के ‘ड्रैकुला’ पर भी गॉथिक शैली का असर है और इसे डायरी, नोट्स और दस्तावेजों की शक्ल में लिखा गया है जो भय को और ज्यादा विश्वसनीय बनाता है. ड्रैकुला की लोकप्रियता को दमित यौन इच्छाओं तथा विक्टोरियन काल की पितृसत्तात्मकता की प्रवृति को संरक्षित करने वाले उपन्यास के रूप में भी देखा जाता है, जहां पिशाच सुंदर महिलाओं को अपना शिकार बनाता है और इससे बचने के लिए हमेशा उनके आसपास पुरुषों की मौजूदगी होना जरूरी है.
लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इस उपन्यास में विरोधाभासी व्याख्याओं की गुंजाइश है. इस उपन्यास को आज हम मध्यकालीन मान्यताओं और यूरोप में आई आधुनिकता के द्वंद्व के रूप में भी देख सकते हैं. सन् 1871 से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध तक पश्चिमी मानस को अज्ञात धरती की खोज भी उद्वेलित करती रही. विक्टोरियन काल की साहसिक रूमानी कहानियों के बीच लोकप्रिय साहित्य में एडगर राइस बरोज और हेनरी राइडर हैगार्ड जैसे लेखक सामने आए, जिन्होंने अज्ञात देशों की तलाश में निकले नायकों की रोमांचकारी कहानियां लिखीं.
इस तरह से सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के लोकप्रिय साहित्य को हम मध्यकाल और पुनर्जागरण काल की आधुनिकता के बीच एक सतत बहस के रूप में देख सकते हैं, जिसकी परिणति रोचक किस्सों के रूप में नज़र आती है. इसी का अगला चरण हम 19वीं शताब्दी में देखते हैं.
आज की परिभाषा में जिसे हम ‘पल्प फ़िक्शन’ कहते हैं, पश्चिम में उसकी बुनियाद 19वीं शताब्दी में ही पड़ी थी. सन् 1900 से 1950 के बीच अमेरिका में सस्ते कागज़ में छपने वाली इल कहानियों ने ‘पल्प फिक्शन’ या ‘लुगदी साहित्य’ अस्तित्व में आया. यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि इन उपन्यासों को लकड़ी की पल्प (गूदे) से बने सस्ते, खुरदरे-किनारे वाले कागज का उपयोग करके छापा जाता था. लेकिन इस ‘पल्प’ के योगदान को शायद ही भुलाया जा सके. इसने नई और रोमांचक शैली में लिखी गई कहानियों के लिए एक ज़मीन तैयार की. इसकी शुरुआत एक ऐसे दौर में हुई जब आम जन में साक्षरता बढ़ रही थी और छपाई की तकनीकी के सस्ते होते जाने से किताबों की पहुँच समाज के मध्य और निम्न वर्ग के पाठकों तक होने लगी थी. देखें तो लोकप्रिय साहित्य हमेशा से जन का साहित्य रहा है. यह लोक कथाओं, जनश्रुतियों, किस्सों और शहरी अफवाहों में जीने वाले मेहनतकश समाज के लिए सुनियोजित मनोरंजन और किस्सागोई से पहली मुठभेड़ थी. उदाहरण के लिए टार्जन पश्चिम में 20वीं सदी के पल्प फिक्शन एक लोकप्रिय नायक था मगर उस किरदार की जड़ें जंगल में रहने वाले असभ्य मनुष्य की पहले से प्रचलित कहानियों में देखी जा सकती हैं. लोग रूमानी खयालों, भयभीत करने वाली कहानियों और रहस्यमय किस्सों में जीना पसंद करते हैं. जब लोकप्रिय साहित्य आया तो कमोवेश इन्हीं विषयों ने यहां भी जगह पाई. हालांकि किताबों में कई दूसरे तरह के किस्सों और कहानियों को भी जगह मिली.
पश्चिम औद्योगीकरण के बाद विकसित हुए शहरी जीवन ने लोगों की अपराध से जुड़ी सनसनीखेज कहानियों में रुचि जगाई. इन कहानियों के पात्र हत्या की गुत्थियां सुझाने वाले जासूस, देश के लिये छुपकर काम करने वाले जासूस, रहस्यमयी सुंदरियां और निमर्म या बेहद शातिर खलनायक हुआ करते थे. मार्क्सवादी अर्थशास्त्री अर्नेस्ट मैंडल के मुताबिक, ‘पूंजीवादी व्यवस्था, उसके शासन तंत्र और पुलिस तंत्र की निर्ममता और रहस्यमयता जासूसी उपन्यासों में व्यक्त होती है. इसीलिए पाठक उसकी ओर आकर्षित होते हैं’. लुगदी पर छपी ये पत्रिकाएं अमेरिका के श्रमिक वर्ग जेब पर भारी नहीं पड़ती थीं और अक्सर न्यूज़ स्टैंड पर बेची जाती थीं. इस तरह की पल्प मैगज़ीन के शीर्षक कुछ इस तरह हुआ करते थे- ‘अमेजिंग स्टोरीज़’, ‘टेरर टेल्स’ या फिर ‘स्पाइसी डिटेक्टिव’.
गौर करें तो भारत में भी कुछ इसी तरह से लोकप्रिय साहित्य की शुरुआत हुई थी, जिन पर आगे चर्चा करेंगे. इन पत्रिकाओं के हर अंक में कोई एक प्रमुख कहानी होती थी और साथ में कुछ और छोटे-बड़े किस्सों को प्रस्तुत किया जाता था.
इस ‘लुगदी साहित्य’ के बिकने की बड़ी वजह थी उनका कवर. जिनका मूल कहानी से बहुत कम लेना देना होता था. कवर पर अक्सर बहुत ही आकर्षक वेशभूषा या कम कपड़ों में किसी महिला की तस्वीर होती थी. इन किताबों के कवर को बनाने वाले कई आर्टिस्ट बहुत लोकप्रिय हुए और आज उनके बहुत से काम का कलेक्शन देखा जा सकता है. उस दौर में पश्चिम के परंपरागत प्रकाशकों ने पल्प फिक्शन को हेय दृष्टि से ही देखा. उनकी निगाह में ये बेरोजगार लेखकों को थोड़े से पैसे देकर छद्म नाम से लिखवाई गई सस्ती कहानियां थीं, जिन्हें रद्दी कागज़ पर छापकर बेचा जा रहा था.
जो भी हो जनता को यह पसंद आया और इन पत्रिकाओं के एक-एक अंक की लाखों प्रतियां बिकने लगीं. ओ. हेनरी और रे ब्रैडबरी जैसे कई प्रसिद्ध लेखकों ने तत्कालीन लोकप्रिय साहित्य की धारा में लिखना शुरू कर दिया. 1929 से 1939 के बीच ‘द ग्रेट डिप्रेशन’ के दौर में इन्हीं पत्रिकाओं ने लोगों को संभाले रखा.
सन् 1950 के दशक के बाद पश्चिम के पल्प फिक्शन की लोकप्रियता फीकी पड़ने लगी. इसकी एक वजह तो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कागज़ का महंगा होना था, मगर सबसे बड़ी वजह बनी टेलीविजन की बढ़ती लोकप्रियता. देखते-देखते 10 लाख तक का आंकड़ा पार करने वाली इन लोकप्रिय पत्रिकाओं का सर्कुलेशन गिरने लगा और वे एक-एक करके बंद होने लगीं.
तीन |
अंगरेजी के बरक्स हिंदी में ‘लोकप्रिय’, ‘लोकरुचि’, ‘जनप्रिय’ ‘लुगदी’ और ‘पॉपुलर’ शब्दों पर बहुत मतभेद है, मगर हिंदी पठन-पाठन की कहानी भी अंगरेजी से बहुत अलग नहीं है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बहुत से समान तत्व दोनों जगह काम करते हैं. भारत और पश्चिम दोनों ही जगहों पर लोकप्रिय साहित्य औद्योगिक समाज से निकला है. दोनों ही जगहों पर छापाखाना का विस्तार और छपी हुई कहानियों में आम जनता की रुचि केंद्रीय तत्व है. इसीलिए भारतीय परंपरा में भी आलोचक उपन्यास को आधुनिक और औद्योगिक समाज की विधा मानते रहे हैं. लंबे-लंबे आख्यान पहले भी लिखे जाते रहे, मगर वे उपन्यास न थे. जब हम आधुनिक समाज की रचनात्मकता और पठन की अभिरुचियों पर बात करेंगे तो लोकप्रिय साहित्य को विमर्श के दायरे में लाए बिना बात आधी-अधूरी ही रह जाएगी.
हिंदी और उर्दू दोनों में लोकप्रिय साहित्य की शुरुआत किताब के रूप में नहीं बल्कि पत्रिकाओं के रूप में हुई. गोपाल राम गहमरी ने ‘जासूस’ नाम से एक पत्रिका निकाली जिसका प्रकाशन लगातार 38 सालों तक चला. इसी तर्ज़ पर आगे ‘जासूसी दुनिया’, ‘रूमानी दुनिया’, ‘जासूसी पंजा’, ‘नीलम जासूस’ तथा ‘रोमांच’ जैसी बहुत सी पत्रिकाएं निकलीं.
हिंदी में यथार्थवादी लेखन की नींव डालने वाले प्रेमचंद अपने पढ़ने की शुरुआत 13 साल की उम्र में ही ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ से करते हैं. तो हिंदी-उर्दू की बात भी ‘तिलिस्म-ए-होशरुबा’ से ही करते हैं.
यह 14वीं शताब्दी की एक दास्तान थी, जिसमें जाँबाज़ नायक, खूबसूरत राजकुमारियां, शक्तिशाली राक्षस और तिलिस्मी लोक का ताना बाना था. इसके समानांतर बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी और किस्सा तोता मैना भी मौजूद हैं. बैताल पचीसी की कहानियां भारत की सबसे लोकप्रिय कथाओं में से हैं. बैताल पचीसी का स्रोत राजा सातवाहन के मन्त्री की लिखी रचना ‘बृहत्कथा‘ थी, जिसे 495 ईसा पूर्व में लिखा गया था. दिलचस्प यह है कि पहले यह संस्कृत में भी नहीं लिखा गया था बल्कि इसकी रचना प्राकृत में हुई थी. कश्मीर के महाकवि सोमदेव भट्ट राव ने इसको फिर से संस्कृत में लिखा और ‘कथासरित्सागर’ नाम दिया. ‘कथासरित्सागर’ भारतीय साहित्य की अनमोल धरोहर है. इसमें विक्रमादित्य, बैताल पचीसी, सिंहासन बत्तीसी, किस्सा तोता मैना आदि कई किस्सों को शामिल किया गया था.
इसमें शामिल सिंहासन बत्तीसी भी दरअसल मूलतः संस्कृत की रचना ‘सिंहासन द्वात्रिंशिका हिन्दी रूपांतरण है, जिसे ‘द्वात्रींशत्पुत्तलिका’ के नाम से भी जाना जाता है. इसकी कहानियां भी जन-जन में लोकप्रिय थीं. इन किस्सों का ज़िक्र इसलिए ज़रूरी है क्योंकि आगे हम देखेंगे कि इनका असर भारतीय गल्प साहित्य पर बहुत गहरा रहा है. इन किस्सों का रूपांतरण होता गया और धीरे-धीरे ये यूरोप अनूदित उपन्यासों के प्रभाव में लिखी जा रही किताबों में बदलते गए.
जिस तरह खड़ी बोली का इतिहास अमीर खुसरो से शुरू होता है उसी तरह से लोकप्रिय साहित्य का इतिहास भी अमीर खुसरो से क्यों नहीं शुरू किया जाना चाहिए. फारसी का ‘किस्सा-ए-चाहर दरवेश’, जिसे उर्दू में ‘बाग-ओ-बहार’ के नाम से जाना जाता है, फ़ारसी में लिखी गई अमीर खुसरो की कहानियों का एक संकलन है. इस बारे में एक किस्सा है कि अमीर खुसरो के गुरु और सूफी संत निजामुद्दीन औलिया एक बार बीमार पड़ गए थे. अमीर खुसरो उनका हालचाल जानने और सेवा-टहल के लिए पास में रहते थे. औलिया का मन लगा रहे इसके लिए उन्होंने औलिया को ‘अरेबियन नाइट्स’ की शैली में किस्सों का एक सिलसिला सुनाना शुरू किया, जो इतने लोकप्रिय हुए कि बाद में उनको लिपिबद्ध किया गया.
ब्रिटिश टाइम में फोर्ट विलियम कॉलेज के प्रोफेसर जॉन गिलक्रिस्ट के कहने पर मीर अमन देहलवी ने इसी ‘चहार दरवेश’ का उर्दू-हिन्दी रूपांतरण किया और ‘किस्सा चार दरवेश’ (1801) अस्तित्व में आई, जिसे उर्दू-हिंदी के आरंभिक मानक गद्य में गिना जाता है.
गद्य और किस्सागोई की परंपरा बढ़ती गई और सन् 1888 में देवकीनंदन खत्री ने दो दुश्मन राजघरानों, नौगढ़ और विजयगढ़ के बीच प्रेम, तिलिस्म और ऐयारी की में रची-बसी कहानी बुनकर लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया. यह किताब आज भी हिंदी साहित्य की ‘ऑल-टाइम बेस्टसेलर’ मानी जाती है. वह आज के किसी पॉपुलर वेब सिरीज़ की तरह इस किस्से को आगे की कड़ियों में बुनते गए. चंद्रकांता से आगे की कहानी चंद्रकांता संतति और उसके आगे की कहानी भूतनाथ और रोहतास मठ के माध्यम से कही गई.
19वीं शताब्दी की शुरुआत में ही गोपालराम गहमरी ने भी हिंदी में रहस्य-रोमांच पर आधारित लेखन की शुरुआत कर दी थी. हिंदी को जासूसी उपन्यास शब्द से परिचित कराने का श्रेय संभवतः उन्हीं को जाता है.
‘भारत मित्र’ अखबार में गहमरी की मासिक पत्रिका ‘जासूस’ का विज्ञापन कुछ इस तरह छपा था,
‘डरिये मत, यह कोई भकौआ नहीं है, धोती सरियाकर भागिए मत, यह कोई सरकारी सीआईडी नहीं है. है क्या? क्या है? है यह पचास पन्ने की सुंदर सजी-सजायी मासिक पुस्तक, माहवारी किताब जो हर पहले सप्ताह सब ग्राहकों के पास पहुंचती है. हर एक में बड़े चुटीले, बड़े चटकीले, बड़े रसीले, बड़े गरबीले, बड़े नशीले मामले छपते हैं. हर महीने बड़ी पेंचीली, बड़ी चक्करदार, बड़ी दिलचस्प घटनाओं से बड़े फड़कते हुए, अच्छी शिक्षा और उपदेश देने वाले उपन्यास निकलते हैं..कहानी की नदी ऐसी हहराती है, किस्से का झरना ऐसे झरझराता है कि पढ़ने वाले आनंद के भंवर में डूबने-उतराने लगते हैं.’
कविता ‘सत्याग्रह’ में लिखती हैं,
“इसने उस वक्त के हिसाब से बाजार में हलचल पैदा कर दी थी. नतीजा यह हुआ था कि प्रकाशित होने से पहले ही सैकड़ों पाठक इसकी वार्षिक सदस्यता ले चुके थे. किसी पत्रिका के इतिहास में शायद ऐसा पहली बार घटित हुआ था. यह 1900 की बात है. उस जमाने में भी इस प्री बुकिंग से मिलने वाली राशि 175 रु थी.”
इसी तरह की हलचल उर्दू अदब की दुनिया में भी चल रही थी. उर्दू में किस्सागोई की एक अलग परंपरा थी. उस दौर में घरों में बहराम डाकू, अनार परी, बारह बुर्ज़, दास्तान-ए-अमीर हमज़ा, किस्सा-ए-गुलबकावली, किस्सा सात शहजादियों का, हातिमताई, पंचफुल्ला रानी की कहानियां सुनी-सुनाई जाती थीं. उर्दू नावेलिस्ट और आलोचक शमशुर्रहमान फ़ारुक़ी एक इंटरव्यू में कहते हैं,
“मैं बचपन से ही जु़र्म के किस्सों, थ्रिलर और जासूसी कहानियों का शौकीन रहा हूं. उस समय, उर्दू में इकलौते मुंशी तीरथ राम फिरोजपुरी के 1930 और 1940 के दशक वाले अंग्रेजी जासूसी और अपराध उपन्यासकारों के बढ़िया तर्ज़ुमे मौजूद थे. मुंशी तीरम राम उर्दू अदब के बड़े ख़ैरख़ाह थे और उर्दू तर्ज़ुमे के कारोबार पर उनका बड़ा कर्ज़ है.”
इस वक़्त की एक झलक गुलज़ार के इस वक्तव्य में भी दिखती है, जब वे बताते हैं,
“बंटवारे से ठीक पहले हमारा परिवार दिल्ली आ गया था. रोशनआरा रोड पर एक दुकान थी, जहां हमें सोना पड़ता था. घंटों बिताने के लिए, मैं एक तेल के दीये की हल्की पीली रोशनी, ‘बहराम का छुरा’ जैसे शीर्षक या तीरथराम फिरोजपुरी की किताबों से उधार पुस्तकालय से उधार ली गई किताबें पढ़ता था.”
ये जो बहराम का ज़िक्र आया है उसकी एक अलग दिलचस्प कहानी थी. बहराम के रचयिता थे ज़फ़र उमर, जो उर्दू में रहस्य-रोमांच पर लिखने वाले कुछ लोकप्रिय लेखकों में एक थे. ज़फ़र का लिखा उपन्यास नीली छतरी (1916) अपने जमाने का बेस्टसेलर था. उन्होंने बहराम नाम के एक असाधारण चरित्र को पेश किया था. यह इतना लोकप्रिय हुआ कि लोगों के बीच यह चर्चा होने लगी कि सुल्ताना डाकू की तरह बहराम कोई असल किरदार है.
छापाखाना आने के बाद किस्सागोई की परंपरा से पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला शुरू हुआ. ‘दास्तान-ए अमीर हमज़ा’ के इतिहास में जाने पर इस बात को और गहराई से समझा जा सकता है. मध्यकाल अमरी हमज़ा के किस्से जौनपुर और आसपास के इलाकों में बहुत लोकप्रिय थे. कहते हैं अमीर हमजा के कारनामे वहां रहने वाले हर बच्चे की ज़बान पर थे. पांडुलिपी के ज़माने में ‘हमज़ानामा’ में 48,000 पन्नों वाले 48 खंड थे. अकबर के ज़माने में इसकी सचित्र पांडुलिपि बनवाई गई. आगे नवाब मिर्ज़ा अमान अली खान ग़ालिब लखनवी ने 1855 में इसे हकीम साहिब प्रेस, कलकत्ता से प्रकाशित कराया. इसके बाद ये दास्तानें 1871 में नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित हुईं. आगे चलकर कोलंबिया विश्वविद्यालय के फ्रांसेस प्रिचेट और पाकिस्तानी-कनाडाई लेखक मुशर्रफ अली फ़ारूक़ी ने इसके अंगरेजी संस्करण भी छापे. पाकिस्तानी लेखक मकबूल जहाँगीर ने उर्दू भाषा में बच्चों के लिए ‘दास्तान-ए-अमीर हमज़ा’ लिखा. अनुवादों के इस सिलसिले ने भी लोकप्रिय साहित्य की बुनियाद डाली. सबसे लंबे समय तक चलने वाली बिट्रिश पत्रिका ‘लंदन मिस्ट्री मैगजीन’ की शुरुआत जब 1949 में हुई तो भारत में भी उसका अनुवाद ‘लंदन रहस्य’ के नाम से प्रकाशित हुआ. अनुवाद बहुत रोचक और प्रवाहपूर्ण ढंग से हुआ था. ‘गुरु घंटाल’ नाम की पत्रिका में अंगरेजी उपन्यासों के उर्दू रूपांतरण छपा करते थे. ‘अंकल टॉम्स केबिन’ का अनुवाद ‘टॉम काका की कुटिया’ बहुत चर्चित रहा. अनूदित उपन्यासों की इस बहती गंगा में हाथ धोने के लिए देवकीनंदन खत्री के दूसरे बेटे परमानंद खत्री ने धड़ाधड़ कई विदेशी जासूसी उपन्यासों का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद कर कर डाला. उस दौर में जॉर्ज डब्ल्यू. एम. रेनॉल्ड्स और कॉनन डॉयल के साथ अंग्रेजी कई और लोकप्रिय लेखकों के भी उर्दू में अनुवाद हुए.
भारत में जासूसी और रूमानी पत्रिकाओं का असली दौर शुरू हुआ सन् 1950 से लेकर 1970 तक. भारत-चीन युद्ध शुरू होने के बाद जासूसी कहानियों में लोगों की दिलचस्पी बढ़ने लगी. इन उपन्यासों में चीन एक अहम भूमिका निभाता था. अकसर खलनायक चीनी हुआ करते थे. एक खूबसूरत चीनी जासूस भी होती थी जो अक्सर हमारे धीरोद्धत नायक को दिल दे बैठती थी. इस किस्म के उपन्यासों में कृष्ण चंदर का लिखा ‘हांगकांग की हसीना’ लगभग कालजयी है. हांगकांग में फैले ड्रग्स के कारोबार (जिसका इतने तफसील के साथ जिक्र है कि हैरानी होती है), एक भारतीय जासूस और हांगकांग की लड़की के बीच प्रेम के बीच इसका कथानक बुना गया था.
भारत और चीन तथा दुश्मन और दोस्त मुल्कों के बीच की इसी कश्मकश में हिंदी और उर्दू के लोकप्रिय साहित्य का सबसे बड़ा नाम उभरा असरार अहमद उर्फ इब्न-ए-सफ़ी का. उन्होंने 1952 में अपने पहले जासूसी नॉवेल से शुरुआत की और भारत के पॉपुलर फ़िक्शन को कर्नल फरीदी (हिंदी में कर्नल विनोद), कैप्टन हमीद और इमरान (राजेश) जैसे न भूलने वाले किरदार दिए. उनके खलनायकों का भी जवाब नहीं, सिनेमा के शाकाल और मोगेंबो जैसे विलेन की अपार स्वीकार्यता के पीछे कहीं न कहीं जनमानस में बसी लोकप्रिय संस्कृति में इब्ने सफ़ी के खलनायकों का असर था. सफ़ी की कहानियों का कैनवस सिर्फ भारत और पाकिस्तान तक नहीं सिमटा था बल्कि वह अपने उपन्यासों में अनजान टापुओं से लेकर अफ्रीका, अमेरिका, इटली और फ्रांस तक की सैर करा देते थे.
टिनटिन के रचयिता हर्ज की तरह वे घर बैठे-बैठे उन देशों के बिल्कुल विश्वसनीय विवरण प्रस्तुत कर देते थे. जासूस जोड़ियों का चलन भी उनकी देखा-देखी शुरू हुआ. शायद यही वज़ह रही कि इब्ने सफ़ी ने उर्दू के गंभीर अफ़साना-निगार और तनक़ीद-निगार पर गहरा असर डाला. शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी से लेकर शमीम हनफी और खालिद जावेद तक के पास सफ़ी के लेखन पर बहुत कुछ कहने को रहा है.
उर्दू के कथाकार खालिद जावेद बताते हैं,
“उस ज़माने में रेडियो तो आ गया था लेकिन टीवी अभी नहीं था. घर में पापुलर लिटरेचर बहुत ज़्यादा लिखा पढ़ा जाता था. एआर ख़ातून के नावेल पढ़े जाते थे और इब्ने सफ़ी की तो बाक़ायदा इज्तेमाई क़िरत होती थी. इसको हिंदी में कहें तो उसका सामूहिक पाठ होता था और सब लोग सुना करते थे. तो वहां से मेरे जेहन में यह सारी बातें आईं और मैंने भी सोचा कि मैं भी कुछ उल्टा सीधा लिखूँ.”
इस दौर एक और चर्चित जासूसी लेखक अकरम इलाहाबादी को भी आज लोग भूल चुके हैं. उन्होंने 1953 में जासूसी उपन्यास लिखना शुरू किया था. उनके उपन्यास भी अपने दौर के बेस्टसेलर थे और उनकी पहचान 70 के दशक के अंत तक एक लोकप्रिय लेखक के रूप में बनी रही. उनके जासूसी उपन्यासों में प्रमुख पात्र सुपरिंटेंडेंट हुजूर अहमद खान (खान) और सार्जेंट इकबाल अहमद (बाले) थे. उन्होंने कुछ और यादगार किरदार जैसे इंस्पेक्टर मधुलकर, उनका असिस्टेंट राजी, इंस्पेक्टर सादिक और जैकब हैं. इन दिनों शीत युद्ध अपने चरम और वियतनाम युद्ध अपने अंतिम दौर में था, आजाद भारत दो युद्धों को देख चुका था और बांग्लादेश की आजादी में उसकी अहम भूमिका थी. लिहाजा फ़िक्शन में भी जासूसी कारनामों की भरमार होने लगी थी.
सत्तर तक आते-आते कर्नल रंजीत और चंदर के लोकप्रिय उपन्यास भी सामने आने लगे. ये दोनों ही अपने समय के बेहतरीन साहित्यकार थे और छद्म नाम से लिखते थे. कर्नल रंजीत के नाम छपने वाले उपन्यास गुरुबख्श सिंह उर्फ मख़मूर जालंधरी लिखा करते थे जो अपने दौर के जाने-माने शायर थे तथा प्रगतिशील लेखक संघ और कम्यूनिस्ट पार्टी से भी जुड़े हुए थे. कर्नल रंजीत ने एक किरदार रचा मेजर बलवंत. मेजर के साथ सीआईडी की तरह पूरी फौज थी, सुनील, सोनिया, मालती आदि. कर्नल रंजीत के उपन्यासों के कथानक बहुत रोचक नहीं होते थे मगर घटनाओं का सिलसिला उनको रोचक बना देता था.
इब्न-ए-सफ़ी की तरह उनके यहां भी सेक्स का चित्रण नहीं होता था मगर उसके हल्के से तड़के से परहेज भी नहीं था. इन उपन्यासों को अगाथा क्रिस्टी स्टाइल में उप-शीर्षकों को साथ लिखा जाता था, जो कहानी को रोचक बना देते थे. ये उप-शीर्षक बहुत सहज होते थे मगर उत्सुकता जगाते थे. यही शैली हिन्दी जासूसी उपन्यासों के पितामह गोपाल राम गहमरी की भी थी. कर्नल रंजीत के कुछ रुझान भी उनकी लेखनी को खासा दिलचस्प बना देते थे. जैसे सांवले रंग और बड़ी उम्र की स्त्रियों के प्रति उनका आकर्षण, एक साथ दो-तीन प्लॉट लेकर चलना और टुकड़ों–टुकड़ें में सुनाते चलना, किसी राज का पर्दाफाश होने पर मेजर बलवंत का होठ गोलकर करके सीटी बजाना और हर उपन्यास के अंत में एक मीटिंग जैसी बुलाकर राज का पर्दाफाश करना. कई बार तो खुद मुज़रिम भी उसी मीटिंग में होता था.
एक और साहित्यिक लेखक आनंद प्रकाश जैन ने भी चंदर के नाम से जासूसी उपन्यास लिखने शुरू किए. इनके उपन्यासों पर भले ही कम चर्चा हुई हो मगर इनका जिक्र किए बिना उस दौर के जासूसी उपन्यासों को समझना मुश्किल है. आनंद प्रकाश जैन हिंदी के साहित्यकार थे. उन्होंने ‘चन्दर’ के लेखकीय नाम से हिंदी जासूसी साहित्य को अद्भुत रचनाएं दीं. जैन ने जेम्स बांड की तर्ज़ पर एक देसी स्पाई भोलाशंकर को रचा जो भारत की एक जासूसी संस्था ‘स्वीप’ का हिस्सा था. उसके पिता पंडित गोपालशंकर उसी सीक्रेट सर्विस के मुखिया होते थे. गौर करें तो यह काफी हद तक इब्ने सफी की इमरान सिरीज से प्रेरित नजर आता है. इब्ने सफी की तरह ही चंदर के उपन्यासों में थ्रिल के साथ हास्य का पुट बिखरा होता था. मगर इब्ने सफी से प्रेरित होते हुए भी चंदर ने अपनी एक अलग शैली विकसित की थी. उनके प्रेरणा के कई श्रोत थे और इसके बावजूद वे पूरी तरह से मौलिक थे.
अब गोपालशंकर के नाम को ही लें, दुर्गा प्रसाद खत्री के उपन्यासों ‘रक्त मंडल’, ‘सफ़ेद पिशाच’ इत्यादि के नायक का नाम गोपालशंकर था. भारतीय साहित्य परंपरा में रचनाओं से प्रेरित होकर लिखने या उन्हें आदर देने की परंपरा बहुत कम दिखती है. चंदर की शैली भी अनूठी थी. चंदर के उपन्यासों में जो विवरण मिलते हैं, उनका जवाब नहीं. अगर चाकू का जिक्र आएगा तो उसके साइज, धार और उसमें लगी स्प्रिंग का इतना सूक्ष्म विवरण होगा कि लगेगा चाकू आपके हाथ में है. इतना ही नहीं छूरेबाजी के दांव-पेंच और पैंतरों का भी जिक्र आ जाएगा और ऐसा लगेगा जैसे कि उत्तर प्रदेश की किसी बदनाम गली का कोई पेशेवर छूरेबाज तफसील से अपना किस्सा सुना रहा हो.
चंदर की दूसरी खूबी थी किरदारों को बेहद विश्वसनीय ढंग से पेश करने की. एक उपन्यास में भोलाशंकर की मुठभेड़ एक चीनी लड़की से हो जाती है. कुछ ही पैराग्राफ के बाद वह लड़की अपने रंगरूप और कुछ दिलकश से अंदाज के साथ सामने खड़ी हो जती है.
इन सबके समानांतर लुगदी साहित्य में रूमानी दुनिया का कारोबार भी चलता रहा, जिसमें कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा और रानू जैसे लेखक सामने आए. गुलशन नंदा के सिनेमा से प्रभावित भावुक उपन्यासों में अक्सर प्रेम, विरह, धोखा और नायक-नायिका की मजबूरियों का चित्रण होता था. पारिवारिक रिश्ते, अमीरी-गरीबी का मायाजाल, न्याय-अन्याय की जंग इनके इर्द-गिर्द ही कथानक रहता था. शायराना ढंग से लिखे गए लंबे-लंबे संवाद इन उपन्यासों की विशेषता हुआ करती थी. यह सिनेमा से प्रभावित था.
सलीम-जावेद के आने से पहले तक हिंदी सिनेमा में गुलशन नंदा का ही अंदाज़ चलता था. गुदगुदाने वाले, हल्के-फुल्के रोमांटिक प्रसंगों से भरे गुलशन नंदा के उपन्यास हिंदी पाठकों को खूब भाए. कुशवाहा कांत तो अपनी लोकप्रियता के चलते जीते जी एक किंवदंति बन गए थे. उनका उपन्यास ‘लाल रेखा’ हिन्दी के लोकप्रिय उपन्यासों में आज भी मील का पत्थर माना जाता है. उनके भतीजे सजल कुशवाहा बताते हैं,
“वो रुमानी साहित्य के ब्रांड एंबेसडर बन गए थे. फ़कत पच्चीस साल की उम्र में वह हिंदी उपन्यासों के ऐसे सितारे बन गए थे जिनकी किताबें खरीदने के लिए चिंगारी प्रकाशन के सामने लगने वाली भीड़ को पुलिस नियंत्रित किया करती थी. उनके उपन्यास अपने दौर के बेस्टसेलर हुआ करते थे. स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारी पात्रों पर बुने गए इनके चर्चित उपन्यास ‘लाल रेखा’ को पढ़ने के लिए बड़ी संख्या में गैर-हिन्दी भाषियों ने हिंदी सीखी थी.”
उर्दू पाठकों के बीच ‘शमा’, ‘बानो’, और ‘पाकीज़ा आँचल’ में छपने वाली रूमानी और सामाजिक कहानियां घर-घर पढ़ी जाती थीं.
चार |
जो फ़र्क़ साठ के दशक में पश्चिम में आया, वह भारत में अस्सी के दशक में देखा जा सकता है. जब टेलीविजन का तेजी से विस्तार हुआ. सन् 1982 में एशियाई खेलों के आयोजन के साथ टेलीविजन का राष्ट्रीय प्रसारण शुरु हुआ और वह रंगीन हो गया. सन् 1984 में देश में लगभग हर दिन एक ट्रांसमीटर लगा. टीवी पर ‘हम लोग’, ‘रजनी’, ‘रामायण’, ‘बुनियाद’, ‘चंद्रकांता’ और ‘मालगुड़ी डेज़’ जैसे सीरियल आने लगे. बदलते वक्त के साथ लोगों की रुचियां भी बदलने लगीं. लोकप्रिय साहित्य धीरे-धीरे मध्यवर्गीय परिवारों की फुरसत भरी दोपहरियों से खिसकता हुआ तकिए के नीचे छिपाकर पढ़ी जाने वाली किताबों में बदल गया.
अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में छपने वाले उपन्यास धीरे-धीरे सतही और अश्लील होने लगे. हालांकि इनके पाठक भी बड़ी संख्या में थे. फोमांचू, विक्रांत जैसी सिरीज़ रेलवे स्टेशनों में छा गई जिसमें नायकों और खलनायकों की भरमार होती थी. ये उसी किस्म के खराब उपन्यास थे, जिनकी वजह से जासूसी उपन्यासों को और हिक़ारत की नजर देखा जाने लगा था. इन्हें घोस्ट राइटर लिखते होंगे, यह पढ़कर ही पता लग जाता था.
यही दौर था जब ओम प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश शर्मा और सुरेंद्र मोहन पाठक ने जमकर उपन्यास लिखे और ‘वर्दी वाला गुंडा‘ जैसे उपन्यास ने लोकप्रियता का चरम छू लिया. ‘तहलका’ ने 90 के दशक के जासूसी उपन्यासों का लेखा जोखा प्रस्तुत करते हुए लिखा है,
“90 के दशक में जेम्स हेडली चेज़ की लोकप्रियता को देखते हुए कुछ दूसरे भारतीय लेखकों ने भी छद्म नामों से बाजार में उपन्यास उतारे. इनमें जासूसी और रोमांस के साथ सेक्स को भी खूब जगह मिलती थी. ऐसा ही एक छद्म नाम रीमा भारती का है. जिनके उपन्यास का कंटेंट पूरी तरह से फिल्मी होता है. शायद ये एक तरह का चलन है. छद्म नाम होने की वजह से आप किसी भी हद तक इरोटिक (कामुक) कंटेंट पाठकों को परोस सकते हैं. इससे वास्तविक लेखक की पहचान और प्रसिद्धी भी प्रभावित नहीं होते.”
नब्बे का दशक ख़त्म होते-होते लोकप्रिय से लुगदी में बदलने वाला साहित्य धीरे-धीरे हाशिये पर आता गया. जो वर्ग इन किताबों को पढ़ता था उसके लिए किराए पर एक्शन, हॉरर और थ्रिलर फ़िल्मों की डीवीडी उपलब्ध थी. नई शताब्दी के आरंभिक दस सालों तक तो डीवीडी छाया रहा फिर धीरे-धीरे इंटरनेट लोगों की दुनिया में दाखिल होता गया. ऐसा नहीं है कि इसने पॉपुलर फ़िक्शन को खत्म कर दिया. कहानियां सुनने-सुनाने-पढ़ने की उत्सुकता लोगों में बरकरार रही.
बीते दस सालों में एक नए किस्म का लोकप्रिय साहित्य उभरकर आया है. इसे ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक संदर्भों की पड़ताल करने के लिए एक अलग आलेख की जरूरत होगी. इंटरनेट के प्रसार ने कम्युनिटी के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाई, जिससे एक जैसी रुचि के लोग भौगोलिक और सामाजिक सीमाओं से परे एक-दूसरे के संपर्क में आने लगे. ब्लॉगिंग और सोशल मीडिया ने बिना किसी मध्यस्थ के अपनी बात कहने का प्लेटफॉर्म दिया. सेल्फ पब्लिशिंग, डिजिटल प्रकाशन और ‘प्रतिलिपि’ जैसे ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म ने कहानी और पाठकों के बीच एक नया रिश्ता कायम किया. बीते दस सालों में हिंदी में लोकप्रिय और साहित्यिक के बीच की सीमा रेखा मिटती दिख रही है. अब लुगदी और साहित्यिक लेखन का विभाजन पाठकों के बीच भी ख़त्म हुआ है और प्रकाशकों के बीच भी.
मेरठ- जो कभी इस तरह के उपन्यासों के प्रकाशन का केंद्र हुआ करता था- उसके ख़त्म होने के बाद से होने वाला विकेंद्रीकरण कई मामलों बेहतर साबित हुआ.
छोटे शहरों में बढ़ती साक्षरता और सोशल मीडिया के जरिए रचनाकारों से सीधे संपर्क के बीच एक नए पाठक वर्ग का उदय हुआ है, जिसे आकर्षित करने में छोटे, मंझोले, बड़े सभी प्रकाशक लगे हुए हैं. रवींद्र कालिया ने बतौर संपादक हिंदी समाज के इस बदलते रुझान को नई शताब्दी के पहले दशक में ही पहचान लिया था और उनके संपादक में नया ज्ञानोदय के जुलाई तथा अगस्त 2010 के अंक ‘बेवफाई सुपर विशेषांक‘ के नाम से आए.
युवा लेखकों की एक नई पीढ़ी सामने आई जो अपने कथ्य में बोल्ड और भाषा में खिलंदड़ापन लिए थी. कुणाल सिंह, गीत चतुर्वेदी, अनिल यादव और गौरव सोलंकी जैसे कई संज़ीदा युवा लेखकों ने अपने अलग मुहावरे और कथ्य से हिंदी गल्प के तौर-तरीकों में बड़ा बदलाव लाया. हिंदी कहानी बीते कई सालों से जिस जड़ता का शिकार थी, उससे बाहर आने लगी. इसी बीच पेंगुइन इंडिया के हिंदी संस्करण और हार्पर हिंदी की शुरुआत हुई, बहुत सारे अनुवादों के बीच इन प्रकाशनों लोकप्रिय साहित्य के पुनर्प्रकाशन में अहम भूमिका निभाई. हार्पर हिंदी ने अगाथा क्रिस्टी के हिंदी अनुवाद के साथ-साथ नीलाभ की देख-रेख में इब्ने सफी का पुनर्प्रकाशन किया और सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यास भी छापे.
अन्ना आंदोलन के आसपास करवट लेती नई राजनीति के बीच नए किस्म का लेखन सामने आने लगा. पेंग्विन से प्रकाशित पंकज दुबे की किताब ‘लूज़र कहीं का’ की दस हजार प्रतियां बिकीं. आईटी कंपनी की नौकरी छोड़कर आंदोलन मे उतरे दिलीप पाण्डेय ने चंचल शर्मा के साथ ‘दहलीज पर दिल’ और ‘खुलती गिरहें’ उपन्यास लिखे.
उत्तर वैश्विक भारत की युवा पीढ़ी छोटे शहरों से मल्टीनेशनल कंपनियों में जा रही थी. उसकी दुनिया अब हाइब्रिड थी. एक तरफ गली-मुहल्लों, पतंग-कंचों और कसबों-शहरों की यादें थीं तो दूसरी तरफ मल्टीनेशनल कंपनियों की चकाचौंध भी थी. पंकज दुबे, निखिल सचान, दिव्य प्रकाश दुबे, नीलोत्पल मृणाल, सत्य व्यास, अनुसिंह चौधरी ने अपनी लेखनी के जरिए इस नए युवा के संसार में हस्तक्षेप किया और लोकप्रिय व साहित्यिक के बीच की विभाजन रेखा को खत्म भी किया है.
हिंद युग्म इस नए लेखन को ‘नई वाली हिंदी’ के नाम से एक नया मुहावरा ही दे दिया. हिंद युग्म की सफलता और पुस्तकालयों की खरीद में सरकारी काट छांट के बीच कई बड़े प्रकाशकों ने भी बाज़ार की तरफ रुख किया और युवा पाठकों पर ध्यान केंद्रित किया. साहित्य की दुनिया में अजनबी सी लड़की अनुराधा बेनीवाल ने अपनी अकेली यात्राओं को जब ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ के शीर्षक से प्रस्तुत किया तो देखते-देखते छोटे शहर से महानगर में आई युवा लड़कियों का आइकन बन गई. कुछ लोग सोशल मीडिया से लेखक बने तो कुछ लेखक सोशल मीडिया की शरण में भागे.
हिंदी गल्प का यह नया समय पहले से ज्यादा जटिल, ज्यादा उत्साह और ऊर्जा से भरा और ज्यादा संभावनाशील है. लोकप्रिय संस्कृति के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को समझे बिना इस नए समय को भी नहीं समझा जा सकता.
बीते दो दशक से भी ज्यादा समय से दिनेश श्रीनेत स्वतंत्र रूप से सिनेमा, दृश्य माध्यमों तथा लोकप्रिय संस्कृति पर लिखते रहे हैं. वाणी प्रकाशन से उनकी पुस्तक ‘पश्चिम और सिनेमा’ कई विश्वविद्यालयों में सहायक अध्ययन सामग्री के रूप में अनुमोदित है. दिल्ली विश्वविद्यालय, बीएचयू, एमिटी यूनिवर्सिटी, अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा समेत कई प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में सिनेमा और दृश्य विधाओं पर व्याख्यान. पेशे से पत्रकार दिनेश कथाकार भी हैं और उनकी कहानी ‘विज्ञापन वाली लड़की’ उर्दू समेत विभिन्न भाषाओं में अनुदित होकर भारत व पाकिस्तान में चर्चित हो चुकी है। सिनेमा गीतों पर संस्मरणात्मक पुस्तक ‘नींद कम ख़्वाब ज़्यादा’ तथा कथेतर गद्य का संचयन ‘शेल्फ में फ़रिश्ते’ 2023 में प्रकाशित. वे इस समय इकनॉमिक टाइम्स ऑनलाइन के भारतीय भाषा संस्करणों के प्रभारी हैं. dinesh.shrinet@gmail.com |
सन्दर्भों की दृष्टि से समृध्द आलेख। लोकप्रिय साहित्य के अध्येताओं के लिए सहेजने योग्य।
शोधपरक विवरण आलेख का हासिल है।
आलेख में जानकारियां में भरपूर है। बहुत सारी नई चीजें जानने को मिलीं।
तथ्य भी , विश्लेषण और आलोचना भी ! लोकप्रिय साहित्य का एक बड़ा दृश्यालेख बनता है इसमें । इस साहित्य के कई रूप और संस्तर हैं —- यह एक महत्वपूर्ण बात है । पक्ष और विपक्ष , दोनों को किसी सरलीकरण के खतरे से सावधान करता है यह ।
बहुत अच्छा लिखा है दिनेश जी ने । इस अच्छे आलेख के लिए उन्हें बधाई !
ज़रूर आलेख। नयी जानकारी और दृष्टिकोण देती। साझा करने के लिए शुक्रिया
सूचनाओं से भरपूर आलेख….
कितना बेहतरीन लिखा गया है और कितना comprehensive आलेख है।
बस इतना कहना चाहूंगा लोकप्रिय साहित्य को यदि शामिल करना है तो ढंग से चुनाव करके उसको स्कूली स्तर पर लागू किया जाए जिससे बच्चों में साहित्य के प्रति रुचि बढ़े और पढ़ने की आदत पड़े।
विश्वविद्यालय स्तर पर इसके पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने का मैं कतई पक्षधर नहीं। विश्वविद्यालय स्तर पर अभिरुचि पैदा करने की बात नहीं आती ,वो तो स्पष्ट है कि आपकी रुचि है तभी आपने हिंदी साहित्य चुना। और इस स्तर पर आपको गूढ़ ,रोचक, उच्च स्तरीय साहित्य सभी को पढ़ना है ,आप स्वतः ही पढ़ेंगे यदि आपने मन से हिंदी साहित्य विषय का चुनाव किया है तो।
बहुत ही अच्छे, शोधपूर्ण और रोचक लेख के लिये दिनेश जी को बहुत बधाई। आभार।
विश्व के लोकप्रिय उपन्यासों की पृष्ठभूमि में हिंदी के लगभग सभी लोकप्रिय उपन्यासों का विवरण प्रस्तुत करने के लिए प्रिय दिनेश जी को साधुवाद. इसमें गुनाहों का देवता उपन्यास को भी जोड़ना ज़रूरी है.
सचाई का एक पहलू यह भी है कि हिंदी समाज में संभवत: आज भी सबसे लोकप्रिय कृति रामचरितमानस है. कबीर के पद भी.
ये रचनाएं गंभीर और लोकप्रिय,दोनों हैं. जाहिर है कि इनकी लोकप्रियता की पृष्ठभूमि में धर्म की महती भूमिका है. ये रचनाएं कला की दृष्टि से भी बहुत समृद्ध हैं. भारत के कुछ शास्त्रीय संगीत से जुड़े महान गायकों के कंठस्वर संयोजन के कारण कबीर और तुलसी की रचनाएं और अधिक लोकप्रिय हुई हैं. इन रचनाओं से गुजरते हर महसूस होता है कि लोकप्रियता महान कला का अनिवार्य गुण है.
याद रहे कि इक़बाल के क़लामों की अपार लोकप्रियता की एक बड़ी वजह उनकी धार्मिकता है.
जायसी का ‘पदमावत’ मानस के टक्कर की कृति है पर उतनी लोकप्रिय नहीं हुई. इसके भी धार्मिक-संस्कृतिक और भाषाई कारण हैं.
विदित है कि आधुनिक काल में स्वाधीनता संग्राम के दौरान राष्ट्रीयता, देशप्रेम आदि के कारण भारत भारती, माखनलाल चतुर्वेदी,दिनकर आदि की कई कविताएं बेहद लोकप्रिय हुईं.
बड़ी संख्या में रचित लोकप्रिय उपन्यासों के बावजूद मुझे लगता रहा है कि कविता साहित्य की तमाम विधाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय विधा रही है.
जहाँ तक शिक्षण का प्रश्न है,विद्यार्थियों को केवल और केवल क्लासिक साहित्य पढ़ाया जाना चाहिए.
यह आलेख अपने आप में विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाने योग्य है। लोकप्रिय साहित्य पढ़ाने की जरूरत ही नहीं । यह आलेख बता देता है कि लोकप्रिय साहित्य क्या है और यह पढ़ने के काबिल क्यों नहीं गोपाल राम गहमरी और खत्री द्वय का नाम हिन्दी साहित्य में आदर के साथ लिया जाता है। लेकिन उनके उपन्यास विश्वविद्यालयों में पढ़ाए नहीं जाते। इनको पढ़ाने की जरूरत ही क्या। विश्वविद्यालयों में वैसे प्रेम कहानियां विकसित होने लगती। रहस्य-रोमांच के किस्से वैसे भी कालेज परिसरों में गूंजते रहते हैं। राजनीतिक हलचलें वातावरण को गर्म रखती हैं। कुछ छिछोरे लोग जो विश्वविद्यालयों में पढ़ने का ढोंग करते हैं-सेक्स स्कैंडलों की पटकथाएं लिखने की कोशिश में लगे रहते हैं। वहां पर रहस्य, रोमांच, जासूसी हत्याकांड और देह-सौंन्दर्य की कथाएं पढ़ाने की क्या जरूरत। दिनेश श्रीनेत ने जिस तैयारी के साथ इस आलेख को समालोचन में छपने को दिया, उसकी तारीफ करता हूं। बधाई।
सिलसिलेवार शोधात्मक आलेख बहुत खूब..
शोधपरक, गम्भीर और रोचक आलेख। बहुत कुछ नया जानने-समझने को मिला। साझा करने के लिए दिनेश जी और समालोचन को हार्दिक धन्यवाद।
इसमें जासूसी उपन्यासकार परशुराम शर्मा का उल्लेख नहीं है। उन्होंने चरित्र- प्रधान सौ उपन्यास लिखने के बाद क्राइम थ्रिलर लिखे, जो सुरेन्द्र मोहन पाठक की प्रतिस्पर्धा में थे। उन्होंने फोमांचू और टैंजा जैसे चरित्र दिये। लोकप्रिय सामाजिक उपन्यासकार प्रेम वाजपेयी गुलशन नंदा के साथ लिख रहे थे। जबकि कुशवाहा कान्त का दौर तब तक खत्म हो चुका था।
यह तरह का साहित्य समय और समाज के सामाजिक और सांस्कृतिक अध्ययन के लिए एक प्रमुख स्त्रोत हैं।
मारियो पूजो का गाड फादर भी ड्रेक्यूला की तरह ही मील का पत्थर रहा है।
बहरहाल, दिनेश श्रीनेत ने एक बडा परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत किया है।
Bahut badhiya. Itane sandarbh aur jaankariyan hain ki iske sahare kai kai lekh likhe ja sakte hain.
सार्थक आलेख है।
किंतु हमारे समय के साहित्य को लोकप्रिय बनाते कई लेखकों का ज़िक्र नहीं किया आपने, जैसे मालती जोशी, गौरा पंत, शरद जोशी, एवं धर्मयुग जैसी पत्रिका जिसने साहित्य को सही अर्थों मे लोकप्रिय बनाया।
सार्थक आलेख है।
किंतु हमारे समय के साहित्य को लोकप्रिय बनाते कई लेखकों का ज़िक्र नहीं किया आपने, जैसे मालती जोशी, गौरा पंत, शरद जोशी, एवं धर्मयुग जैसी पत्रिका जिसने साहित्य को सही अर्थों मे लोकप्रिय बनाया।
उपन्यास विधा के विकास का अच्छा अध्ययन पेश किया है दिनेश जी ने। रानू का एक उपन्यास हमने पढ़ा था अधूरे सपने तब यह सवाल मेरे मन में बहुत गंभीरता से उठा कि इसे साहित्यिक उपन्यास की श्रेणी में क्यों नहीं शामिल किया जा सकता है।
जवाब के लिए गोविवि के हिंदी विभाग में दस्तक दी। काफी मशक्कत के बाद यही जवाब मिला कि लोकहित की भावना से ही तय होता है। संतुष्टि न होने के बाद भी हमने इसे जनहित या लोकभावना का मामला ही मान लिया।
आज गुलशन नंदा आदि को कोर्स में शामिल किए जाने के बाद सवाल पुनः सोशल मीडिया के साथ मेरे भी मन में उठ रहा है।
गागर में सागर। किसी शेधपत्र से कम नहीं यह आलेख। विश्व साहित्य, हिंदी ओर उर्दू साहित्य पर विस्तृत और गहन दृष्टि, उसके बाद ही ऐसा लेखन संभव है। सहेजने योग्य। शानदार। बधाई।