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Home » प्रकाश मनु : सदाशय पारदर्शिता: गिरधर राठी

प्रकाश मनु : सदाशय पारदर्शिता: गिरधर राठी

देखते-देखते प्रकाश मनु तिहत्तर वर्ष के हो गए. उनकी छवि साहित्य के अनथक योद्धा की है. संपादन, बाल साहित्य, उपन्यास, कहानियाँ, जीवनी, आत्मकथा, साक्षात्कार, आलेख, आलोचना आदि क्षेत्रों में वह सक्रिय रहें हैं. बीच-बीच में कविताएँ भी लिखते रहें हैं. उनका नवीनतम कविता संग्रह 'ऐसा ही जीवन मैंने स्वीकार किया है’ शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है. साहित्य के मूल में कविता है. लेखक कुछ भी लिख ले जब तक कविताएँ नहीं लिख लेता ऐसा लगता है वह पूर्ण नहीं हुआ. उनके व्यक्तित्व पर संपादक- लेखक गिरधर राठी ने यह आत्मीय आलेख लिखा है. प्रकाश मनु की कुछ कविताएँ भी दी जा रहीं हैं. वे शतायु हों यही कामना है. प्रस्तुत है.

by arun dev
May 23, 2023
in आलेख, कविता
A A
प्रकाश मनु : सदाशय पारदर्शिता: गिरधर राठी
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प्रकाश मनु
सदाशय पारदर्शिता
गिरधर राठी

 

‘मैं और मेरी कविता : अर्ध सदी का सफर’ शीर्षक से अपने एक आगामी संग्रह की भूमिका में लिखित ‘कुछ सतरें मेरी भी’ की ये पंक्तियाँ प्रकाश मनु के मन को, उनके स्वभाव को और ‘व्यसन’ को- जो कि साहित्य-मात्र का और कविता का व्यसन है- बखूबी परिभाषित कर देती हैं :

“कविता का और मेरा पुराना साथ है, कभी-कभी तो लगता है, जन्म-जन्मांतरों का.”

एक भावाविष्ट भारतीय के मुँह से जन्म-जन्मांतर का मुहावरा बड़ी सहजता से निकल सकता है—भले ही विज्ञान के छात्र और वैज्ञानिक दृष्टि के हामी प्रकाश मनु इसे बौद्धिक स्तर पर स्वीकार नहीं करते हों. शायद! आखिर है तो यह एक दिलासा ही, जो अकाट्य मृत्यु की आशंका से भयभीत मनुष्य को, धर्म की ओर से दिए जाने वाले ‘सनातन प्रश्नों’ का एक संदिग्ध मगर आस्था पोषित उत्तर है : ऐसा उतर जो विज्ञान, तर्क, भौतिक यथार्थ कभी नहीं दे पाता. पुनर्जन्म!

लेकिन मनुष्य रचित सृजन में पुनर्जन्म और जन्म-जन्मांतर बड़े रहस्यमय ढंग से चरितार्थ होता रहता है. आम तौर पर यह जानते हुए भी, खास तौर पर इस नुक्ते पर मेरा ध्यान तब गया, जब मैंने कृष्णा सोबती की जीवनी ‘दूसरा जीवन’ लिखते हुए यह पढ़ा,

“किसी भी लेखक की नई जिंदगी उसके पूरे हो जाने के बाद फिर शुरू होती है.”

अवांतर होते हुए भी इस प्रसंग पर कुछ वाक्य लिखना जरूरी लग रहा है. एक तो यह एक अजीब सा ही दुःखांत-सुखांतक है : जीते-जी होने वाला मूल्यांकन कुछ इतर कारणों से दूषित-अतिप्रभावित हुआ हो, यह संभव है. निष्काम वस्तुपरक मूल्यांकन ‘पूरे’ हो जाने के बाद ही, मरणोपरांत ही होता है. अंतर्ध्वनि यह भी है-
“जियत बाप से दंगम दंगा, मरत हाड़ पहुँचाए गंगा.”

कबीर के जमाने से ही- कुछ उसी तर्ज पर- कि
“घर का जोगी जोगड़ा, आन गाँव का सिद्ध.”

हिंदी में खासकर, लेकिन तमाम दुनिया की भाषाओँ में यह होता रहा है. छोटे या बड़े, अनेक लेखक अपने जन्म में अनाम या अल्पनाम खो गए. मरणोपरांत उनमें से कुछ पुनः जी उठे और विराट् हो गए.

उदाहरणों की जरूरत शायद नहीं है. लेकिन सबसे अधिक कुतूहल कभी-कभी इस पर जरूर होता है : मनुष्य स्वयं म्रियमाण है, मर्त्य है. लेकिन उसके रचे हुए में कविता-कला-साहित्य का कितना कुछ है जो बार-बार जी उठता है- जी उठ सकता है. जन्म-जन्मांतर अगर है तो कवि का नहीं, कविता या अन्य ललित सर्जनाओं का है—कवि उनके निमित्त याद कर लिया जाता है, सो उसका ‘दूसरा जीवन’ शुरू हो जाता है. कविता-कला आदि मानो ‘प्राकृतिक जगत’ की जीवंत वस्तुओं जैसी हैं : वनस्पतियों की तरह, कीट-पतंग-पशु-पक्षी-मनुष्यों की तरह, जो ऐन मूल रूप में नहीं, बल्कि परिवर्तित, परिशोधित वंशानुवंश जनमते-मरते बीजों से, भिन्न-भिन्न अवतारों में जन्मांतरित होती रहती हैं.

इसी तरह कविता (या कोई अन्य कला) अपने मूल शऱीर में रहते हुए भी, हर युग में और हर ग्रहणशील मन-मस्तिष्क में कुछ नए ही ‘रूप’ (अर्थ, संकेत, आशय) में जन्म लेती रहती है. कोई आश्चर्य नहीं कि अपने गर्वोन्नत श्रणों में द्रष्टा-ऋषि कहलाने वाला कवि कभी-कभी खुद को ईश्वर से होड़ करता हुआ महसूस करने लगता है!

मेरे अभिन्न मित्र प्रकाश मनु पर्याप्त विख्यात हैं. लेकिन बाल साहित्य, कहानी, उपन्यास के विस्तीर्ण जीवन वृत्तों का जैसा जो काम उन्होंने किया है; और कुछ अनोखे रचनाकारों को जिस समग्रता से प्रस्तुत किया है, उस काम का ऐतिहासिक महत्त्व है : भविष्य का इतिहास उसकी गुरुता और महत्त्व को उत्तरोतर पहचानेगा, यह विश्वास शायद अकारण नहीं है. अतः यहाँ आरंभिक विषयांतर को बृहत्तर संदर्भों में ही रखा माना जाए : इस जीवन के अलावा दूसरे जीवन (जीवनों) के लिए सदाशय शुभाशंसा की तरह.

प्रकाश मनु की सदाशयता पारदर्शी है. कहें कि पारदर्शिता और सदाशयता उनके मन, वचन और कर्म—तीनों की पहचान है. आप उन्हें बोलते हुए सुनें या उनका लिखा हुआ, पढ़ते हुए गुनें, उनकी यह पहचान अनजाने ही अपनी छाप छोड़ जाती है. ‘चुनी हुई कविताएँ’ की उक्त भूमिका आपको उनके व्यक्तिगत जीवन के उतार-चढ़ाव के अलावा उनके कवि-रूप की, काव्यगत अभिरुचियों के विस्तृत आकाश की भी सारभूत झलक दे देगी. प्रकाश मनु ने इनमें से कई बातें और जगहों पर भी कही हैं, लेकिन यहाँ अधिक सघनता और संपूर्णता के साथ और ‘संक्षेप’ में समझा जा सकता है.

यहाँ ‘संक्षेप’ शब्द कुछ गुदगुदी के साथ आ रहा है. प्रकाश मनु से कोई भी बात संक्षेप में कैसे हो सकती है, यह मैं नहीं जान पाया. क्योंकि जो स्वभाव उनकी कविता का है, कवि का व्यक्तिशः भी वही स्वभाव है. देवेंद्र कुमार के साथ पहला कविता संग्रह ‘कविता और कविता के बीच’ निकालते समय उन्होंने सच कहा है :

“मेरी कविताएँ ज्यादा बोलती और उबलती हुई कविताएँ” थीं-हैं. बोलते हुए प्रकाश मनु एक तीखी धार पर चलते हुए जान पड़ते हैं. श्रोता कभी-कभी उनके उस भावाविष्ट और लगभग रुँधते हुए गले से, थरथराते निकलने वाले शब्द-प्रवाह से घबरा सा जाता है. मानो उस खिंची हुई लंबी डोर से वे कभी भी लुढ़क सकते हैं- और श्रोता को भी अपने साथ बहा या ढुलकाकर ले जा सकते हैं. प्रकाश मनु का बोलना-और लिखना- उनके समूचे अस्तित्व के भीतर से निकलता है, पोर-पोर से, रग-रग से. भुवनेश्वर और निराला को साक्षात् सामने बर्दाश्त करना, बताया जाता है, काफी कठिन होता था. मैंने अपने कुछ मित्रों से सुना है कि वे भावाविष्ट प्रकाश मनु को अधिक देर नहीं सह पाते थे. यहाँ तुलना या आलोचना नहीं, केवल एक खास खूबी का बयान किया जा रहा है.

कुछ-कुछ उसी तरह, जैसे मैं इस भूमिका के एक पक्ष को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाता- अपना खुद ही आकलन. उनकी अपनी कविता पर उद्धृत दो विशेषणात्मक शब्द अपने भीतर कुछ अपनी ही चिकोटी काटने वाला उत्फुल्ल उपहास भी समेटे हुए हैं. पर आगे अपने कविता-पाठ और संग्रह और उपन्यासों आदि पर उनकी अपनी टिप्पणी कुछ अनावश्यक जान पड़ती है. जो वर्णन और मूल्यांकन गोष्ठियों, किताबों आदि का वे कर रहे हैं, वह उनकी कलम से नहीं, मेरी या किसी तीसरे पाठक-श्रोता-समालोचक की कलम से लिखा जाता, तो एक धनात्मक प्रभाव छोड़ता. घनघोर आत्मविश्वास साहित्य के प्रति उनके संपूर्ण समर्पण की देन है और गहरा आत्म-संदेह हमारे साहित्यिक वातावरण की. हम सभी शायद इस तरह की दुविधा के शिकार हैं, लेकिन सभी इतने ‘पारदर्शी’ नहीं दिखते.

‘ऐसा ही जीवन मैंने स्वीकार किया है’ प्रकाश मनु का नवीनतम संग्रह इक्कीस साल के अंतराल से अब छप रहा है. इससे पहले ‘छूटता हुआ घर’ तथा ‘एक और प्रार्थना’ नाम से उनके दो स्वतंत्र संग्रह आ चुके हैं. उनमें से ‘चुनी हुई कविताओं’ पर एक बार फिर से नजर डाली जाए.

शायद मेरे ही अनुरोध पर उन्होंने दो संग्रहों से 44 कविताएँ चुनी हैं और मुझे भेजी हैं. इनमें से अंतिम कविता है, ‘अभी मैं नहीं मरूँगा’. ‘अभी न होगा मेरा अंत’ (निराला) की और ‘अभी तो मैं जवान हूँ’ (हफीज जालंधरी) की याद तुरंत दिलाने वाली इस कविता में प्रकाश मनु ने वे सब काम गिनाए हैं, जो अभी करना शेष हैं. उनकी सुदीर्घ आयु हो, यह कामना करते हुए हम गौर करें कि जो अभी बहुत सारे काम करने हैं, उनमें सबसे पहले है,

“अभी लिखनी हैं कविताएँ
और उनमें उगाने हैं हरे-भरे खुशमिजाज पेड़
झील, दरिया और गुनगुनाता हुआ जंगल.”

बहुत लंबा-चौड़ा एजेंडा है, निजी जीवन से लेकर देश-दुनिया के तमाम मसलों तक फैला हुआ. अलबत्ता यह सवाल मन में उठ सकता है कि क्या इतना बड़ा करोबार कविता के भीतर और कविता के माध्यम से- शब्द के माध्यम से- करना है, या उससे बाहर निकलकर ‘संसद से सड़क तक’? कविता (या शब्द) ने दुनिया में बड़े-बड़े करतब कर दिखाए हैं, मगर साथ ही, कविता (और शब्द मात्र) इतना बड़ा बोझ उठा पाएगी क्या? हम जिस दौर में हैं, उसमें भी एक तरह के ‘शब्द’ तो निश्चय ही, जघन्यतम उत्पात मचाने में सफल हो रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर, दूसरे, दूसरी तरह के शब्द निर्बल, निवीर्य और निष्प्रभाव मालूम हो रहे हैं!! हमारे और प्रकाश मनु के शब्द!

कविता के भीतर कवि ने निश्चय ही बहुत कुछ किया हुआ है. अव्वल तो उनकी अनोखी स्मरणशक्ति, जो के. सचिदानंदन की मलयालम कविता के संग्रह के शीर्षक की याद दिलाती है : ‘वह जिसे सब याद था’. यह बहुमूल्य उपकरण ऐसा है, चैन नहीं लेने देता. भूलना भी जरूरी है. लेकिन प्रकाश मनु का संवेदनशील हृदय न तो अपने विरुद्ध हुए अन्यायों का और भोगे हुए कष्टों का विस्मरण कर पाता है, न ही अपने पास दिन-रात चलते अत्याचारों, शोषण, दमन, अन्यायों का. अध्यापक अकसर याददाश्त के धनी होते हैं और शायद यही उन्हें वाचाल भी बनाता है. किस्सागोई का गुण हर अच्छे अध्यापक में होता है और अकसर यह किस्सागोई तवील, लंबी-चौड़ी होती है. बारीक से बारीक तफसील, महीन से महीन परतें खुलती-जुड़ती, उघड़ती चली जाती हैं.

प्रकाश मनु का कवि मुख्यत- या मूलतः- किस्सागो कवि है. यह ऐसा गुण है जो महाकाव्यों के युग से ही श्रोता को अपनी गिरफ्त में लेता आया है. लय कहीं विशुद्ध गद्य की है. यह लय हिंदी में बहुत प्रतिष्ठित हो चुकी है, अपनी अनेकशः, विविध, ध्वनि-संरचनाओं के साथ. रघुवीर सहाय, विष्णु खरे दो भिन्न उदाहरण हैं. लेकिन भावावेग की लय वाली भी अनेक कविताएँ हैं. गदय-लय वाली कविता भी, यों तो, भावावेग से मुक्त नहीं है.

प्रकाश मनु की अनेक कविताएँ हममें अगले-पिछले अनेक कवियों की रचनाएँ जगा जाती हैं. जैसे ‘छूटता हुआ घर’ में “खून जलाकर रची थीं कविताएँ” सहज ही गालिब की याद दिला जाती है, “जो आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.” या फिर जब प्रकाश मनु दो कविताओं में पूछते या बताते हैं कि ‘कौन है प्रकाश मनु’. याद आ जाते हैं दिल्ली से हताश होकर लखनऊ पहुँचे मीर तकी मीर, जहाँ वे नफीस लखनवियों के उपहास का निशाना बनते हैं, “क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो पूरब के साकिनो! हम को गरीब जान के, हँस-हँस पुकार के…!” या वही क्यों, गालिब को भी इस हतक से दो-चार होना पड़ा होगा, “पूछते हैं वो कि गालिब कौन है, कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या?” प्रकाश मनु लेकिन श्रोता मंडली का नक्शा भी खींच देते हैं, सिर्फ संकेत करके चुप नहीं रह जाते.

शायद आत्मसम्मान खुद्दारी का सवाल यहाँ महज साधारण नागरिक या व्यक्ति का नहीं है, और अपनी निजी व्यथाओं, तकलीफों के लिए महज आत्मदया का भी नहीं है. आत्मगस्त और आत्मकेंदित उनकी कविता शायद खुद अपना ‘साधारणीकरण’ करके सहभोक्ताओं के व्यापक संसार की कथा कह रही है. पिता, मित्र, सहयोगी, जननायकों के साथ अपने निजी संबंधों के उलटने, आशा-आदर्श के बिखरने का दर्द कहीं-कहीं जरूर केवल आत्मकथात्मक लगने लगता है. कविता के माध्यम से उन लोगों पर प्रहार करने की परंपरा पुरानी है, जिनसे मोहभंग हुआ हो, या जिनके काया-पलट ने गहरी चोट पहुँचाई हो. ‘पुरस्कार पाने वाले कवि’ पर या ‘बहादुरलाल’ पर शायद इसीलिए कविता-प्रहार हुआ हो.

लेकिन प्रकाश मनु की कविता-गैलरी में अनेक प्राकृतिक शहरी सैरे (लैंडस्केप) तो हैं ही, शबीहें (पोर्टेट) भी कम नहीं हैं. देवेंद सत्यार्थी, अमृता प्रीतम. और खूबसूरत बुजुर्ग अमृता जी के चेहरे में अचानक देवेंद्र सत्यार्थी का चेहरा झिलमला उठना सचमुच कवि के चिंता-जगत की मार्मिक बानगी है. त्रिलोचन, स्वामीनाथन, हरिपाल त्यागी, मुक्तिबोध, फतेहपुर सीकरी का गाइड और कवि मानबाहादुर सिंह (की नृशंस हत्या) पर उनकी कविताएँ उन व्यक्तित्वों के अनोखे पहलुओं तथा उनके प्रति प्रकाश मनु के लगाव को रेखांकित करती हैं. उसके अलावा यह भी कि ऐसे व्यक्तित्वों को विस्मरण की आँधी से बचाने का काम भी ऐसी कविता करती है.

प्रकाश मनु के मन में वसंत और बच्चों का, दृश्यों आदि का उल्लास भी बहुत है, केवल हालात पर मातम नहीं. उनकी कविता हमें ‘परिचित’ से नया ‘परिचय’ कराने में समर्थ है- कहीं-कहीं अपरिचय के विंध्याचलों को उलाँघती भी है. गाहे-ब-गाहे जो लोग, मेरी ही तरह, उनके गद्य से अधिक और उनकी कविता से कुछ कम मिलते रहे हैं, उन्हें एक साथ चुनिंदा कविताएँ पढ़ने के बाद लगेगा कि कविता का एक और सहयात्री उन्हें मिल गया है. नए संग्रह के साथ, आगे कभी संभव हुआ तो भेंट होगी.

प्रकाश मनु की कविताएँ

राम-सीता

पड़े थे राम भूमि पर
निद्रालीन…
सोई थीं बगल में सीता कृशकाय.

एक चादर मैली सी जिस पर दोनों
सिकुड़े से पड़े थे
इस प्रतिज्ञा में मानो कि कम से कम जमीन वे घेरेंगे,
एक सिरे पर राम दूसरे पर सीता,
बीच में संयम की लंबी पगडंडी…

राम छोटा सा बेडौल तकिया लगाए
जिसकी रुई जगह-जगह से निकली हुई,
सीता सिर के नीचे धोती का छोर मोड़कर रखे
उसी को मिट्टी के महलों का सुख मानकर लेटी थीं.

पास में एक परात एल्यूमिनियम की
एक पतीला बहुत छोटा
एक करछुल एक लोटा
फावड़ा…गेंती…
एक छोटा ट्रांजिस्टर भी!

और हाँ, सोती हुई सीता की कलाई पर
चमक रही थी एक बड़ी सी
मर्दाना घड़ी,
जरूर राम की होगी.

यों बहुत सुख था
ढेर-ढेर सा सुख
जो शहर में साथ-साथ मजूरी करते-खटते
उन्होंने पाया था
और जो उनके साँवले चेहरों पर
दीयों की-सी जोत बनकर झलकता था.

शहर फरीदाबाद का यह स्टेशन
नहीं-नहीं स्टेशन का
यह सर्वथा उपेक्षित, धूलभरा प्लेटफार्म नंबर चार,
लेटे थे जहाँ राम और सीता दिन भर के श्रम के बाद बेसुध
निद्रालीन…
अयोध्या के राजभवनों का-सा आलोकित
नजर आता था!

कल वे फिर खटेंगे वन में
साथ-साथ मजूरी…
कल वे फिर आएँगे इसी अधकच्चे मटियारे
प्लेटफार्म नंबर चार पर
आश्रय पाने
और यों जीवन भर खत्म न होने वाले कठिन बनवास का
एक और दिन काटेंगे.

 

एक कवि की दुनिया

तुम्हारी दुनिया में एक छोटा आदमी हूँ मैं
पर छोटे आदमी की भी एक दुनिया होती है
एक दुनिया बसाई है मैंने
भले ही तुम्हारी दुनिया के भीतर
एक दुनिया है मेरी जागती दिन-रात.

उस दुनिया में बड़े-बड़े विकराल मगरों जैसे
धन-पशुओं का आना मना है,
उस दुनिया में कलफदार घमंडी लोग सिर झुकाकर आते हैं
और चलती है ऐसी हवा
कि सीधे-सादे सरल लोगों के दिल की कली खिल जाती है.

उस दुनिया में किसी तख्तनशीं का राज नहीं चलता
उस दुनिया में कोई ऊपर कोई नीचे
कोई अधीनस्थ नहीं
उस दुनिया में धाराओं-उपधाराओं उप-उपधाराओं
वाला सरकारी कानून नहीं
वहाँ दिल की बातें और दिल से दिल के रस्ते और पगडंडियाँ हैं.

इसलिए तुम्हारी दुनिया के थके-हारे आजिज आ चुके लोग
वहाँ सुकून पाते हैं
पिटे हुए लोग अकसर हो जाते है ताकतवर
और ताकतवर लोग अकसर बिना बात पीपर पात सरिस
काँपते देखे गए हैं.

उस दुनिया में चलतीं हैं बहसें
निरंतर बहसें
जो हजारों वर्ष पहले से लेकर हजारों वर्ष बाद तक के
समय में आती-जाती हैं
उस दुनिया में सभी को है अपनी बात जोर-शोर
और बुलंदी से कहने का हक
और एक बच्चा भी काट सकता है
अपनी किलकारी से
पड़-पुरखों और जड़ विद्वानों की राय!

उस दुनिया में नहीं कंकरीट न कोई
ईंट-पत्थर
उस दुनिया में नहीं कोई मजबूत सीमेंट मसाला टीवी पर विज्ञापित
फूल से भी हलकी है वह दुनिया
मगर फौलाद से भी सख्त.

कला और साहित्य की दुनिया के ताकतवर बाहुबलियो
और परम आचार्यो!
मेरी वह सीधी-सरल फूलों से महकती दुनिया कमजोर है
मगर इतनी कमजोर भी नहीं
कि तुम्हारे जैसे महाबलियों के घमंडी गुस्से फूत्कार और षड्यंत्र से
तड़क जाए!

कल तुमने अपने पैरों से रौंदा था जो घोंसला
नन्ही चिड़िया का
सुनो, जरा सुनो—
कि आज फिर उसकी गुंजार सुनाई देती है
सुनाई देती रहेगी
कल-परसों…युगांतर बाद भी!

 

बारिशों की हवा में पेड़

अभी-अभी तो शांत खड़ा था
यह सामने का गुलमोहर
पुरानी यादों की जुगाली करता
खुद में खोया-सा, गुमसुम

पर चलीं जिद्दी हवाएँ बारिश की
झकझोरती देह की डाली-डाली, अंग-अंग
आईं मीठी फुहारें
तो देखते ही देखते दीवानावार नाचने लगा वह
एक नहीं, सौ-सौ हाथ-पैरों से
नचाता एक साथ सैकड़ों सिर हवा में
जो अभी-अभी प्रकटे हैं पावसी हवाओं में

एक साथ सौ सिर झूमते-नाचते हवाओं में
ता-थैया, ता-ता थैया
नाच, नाच मयूरा नाच…!
पेड़ नाच रहा है मोर-नाच
हवाओं में एक सुर एक राग—
नाच…!
पोर-पोर में भर के बाँसुरी का उन्माद,
चाँदनी रात का नशा
नाच!
हाँ-हाँ नाच, बस, नाच.

और अब नाच रहा है पेड़
ऐसी गजब उत्तान लय में
कि एक साथ सौ-सौ झूमते-झामते सिरों से
सौ-सौ हाथ-पैरों में बनाए लय
और एक मस्ती का सुरूर
एक साथ…एक साथ…एक साथ!

यों ही नाचा पेड़
झूमता-झुमाता धरती-आसमान
नाचता रहा न जाने कब तलक.

साथ-साथ शायद नाचा किया मैं भी
खोकर होश
खोकर समय और बोध और दिशाएँ सारी
दिगंतों के पार

आया होश जब थम गई थीं आँधियाँ,
थमी बरखा
और पेड़ देख रहा था मेरी ओर
आँखों में शांत बिजलियाँ लिए
प्यार भरी दोस्ताना नजरों से.

क्या कहूँ, मुझे वह कितना दिलकश
और प्यारा लगा,
जैसे सारी कायनात उसमें समा गई हो!

 

पेड़ हरा हो रहा है

हौले-हौले बरस रही हैं रस-बूँदें
हौले-हौले
पेड़ हरा हो रहा है.

हरा और गोल-छतनार और भीतर तक रस से भरा
हरा और आह्लादित
डालें थिरकतीं पत्ते नाचते अंग-अंग थिरकता
चहकती चिड़ियाँ
गूँजती हवाएँ—
पेड़ हरा हो रहा है, पेड़ हरा हो रहा हैं…!!

सुनो-सुनो…गूँजती दिशाओं का शोर
पेड़ हरा हो रहा है, पेड़ हरा हो रहा हैं…
पेड़ हरा…!!

बहुत दिनों की इकट्ठी हुई थकान
जिस्म और रूह की
बह रही है
बह रहा है ताप
बह रही है ढेर सारी गर्द स्मृतियों पर पड़ी
दुख-अवसाद की छाया मटमैली
दाह-तपन मन की
सब बह रही है और पेड़ हरा हो रहा है
हरा और रस से भरा
नया-नया सुकुमार, आह्लादित.

अभी-अभी मैंने उसकी खटमिट्ठी बेरियों-सी
हँसी सुनी
अभी-अभी मैंने उसे बाँह उठाए
कहीं कुछ गुपचुप इशारा-सा करते देखा
और मैं जानता हूँ पेड़ अब रुका नहीं रहेगा
वह चलेगा और तेज-तेज कदमों से
सारी दुनिया में टहलकर आएगा
ताकि दुनिया कुछ और सुंदर हो
कुछ और हरी-भरी, प्यार से लबालब और आत्मीय

और जब लंबी यात्रा से लौटकर वह आएगा
उसके माथे से, बालों की लटों और अंग-अंग से
झर रही होंगी बूँदें

सुख की भीतरी उजास और थरथराहट लिए
रजत बूँदें गीली चमकीली
और उन्मुक्त हरा-भरा उल्लास
हमारे भीतर उतर जाएगा कहीं दूर जड़ों तक…
अँधेरों और अँधेरों और अँधेरों के सात खरब तहखानों के पार.

फिर-फिर होगी बरखा
फिर-फिर होगा पेड़ हरा
स्नेह से झुका-झुका
तरल और छतनार…
फिर-फिर हमारे भीतर से निकलेगा
किसी नशीले जादू की तरह
ठुमरी का-सा उनींदा स्वर
कि भैरवी की-सी लय-ताल…
कि पेड़ हरा हो रहा है
पेड़ सचमुच हरा हो रहा है.

 

ART WORK – Rasheed Araeen, Flowers

मोगरे के फूल

मैंने उगाए कुछ मोगरे के फूल
आए उमगकर मेरे गमलों में
पूरे घर भर को महमहाते
दूधिया उम्मीदों के
ढेर-ढेर मोगरे के फूल

हम हैं खिल-खिल
खिलर-खिलर फूल
खिलखिलाहटों से भर देंगे घर-आँगन
बिलकुल नटखट बच्चों की तरह…
बोले नन्ही-नन्ही दँतुलियों से हँसते
मोगरे के फूल

आज सुबह
दो दँतियाँ दिखाई पड़ गईं
एक नन्हे नटखट शिशु मोगरे की
कि जो था ढेर सारे पौधों के पीछे छिपा
जैसे कोई चुलबुला शरीर बच्चा
लुका-छिपी खेल रहा हो

और खेलते-खेलते अचानक भीड़ के पीछे से
पुकार उठे
कि यह मैं हूँ—मैं यहाँ हूँ पापा,
और मार तमाम लोगों की अपरंपार भीड़ के बीच
जिसकी दंतुल हँसी
दूर से नजर आती हो!

और उस नन्हे मोगरे की दंतुल हँसी
के चमकते ही
हँसे सारे मोगरे के फूल
एक साथ…एक साथ,
जैसे यों ही वे पूर्ण होते हों.

नदी सपने में रो रही थी माँ

रात नदी सपने में रो रही थी माँ
फटा-पुराना पैरहन पहने
चिंदी और तार-तार
उदास थी नदी, मैली और बदरंग
अपनी छाया से भी डरी-डरी सी
रो रही थी बेआवाज…

पता नहीं किसे वह पुकारती थी
किसे सुना रही थी अपना दुख
कल रात नदी सपने में रो रही थी.

पास ही मरी पड़ी थीं असंख्य मछलियाँ दुर्गंधाती
कातर बतखें,
निरीह कच्छप और घड़ियाल
उलट गई थीं उनकी आँखें

रात नदी सपने में रो रही थी माँ
रो रही थी बेआवाज…
उससे भीग रहा था हवा का आँचल
मौन आँखों से चुप-चुप बिसूरता था आकाश
बज रहा था एक खाली-खाली सा सन्नाटा
धरती के इस छोर से उस छोर तक…

बंजर थे मैदान
बंजर खेत
बंजर आदमी
बंजर सृष्टि की सब नियामतें…
रात नदी सपने में रो रही थी माँ!

 

मैंने किताबों से एक घर बनाया है

मैंने एक घर बनाया है
किताबों से,
किताबों से एक घर बनाया है मैंने
जिसके दरवाजे किताबों के हैं,
खिड़कियाँ किताबों की
किताबें हैं जो एक कमरे से दूसरे
कमरे तक ले जाती हैं
और फिर दरवाजों में दरवाजे
कमरों में से तमाम-तमाम कमरे खुलते हैं

और यह कोई तिलिस्म नहीं, हकीकत की है दुनिया
जिसमें हर कमरे की है अलग रंगत, अलग ऊष्मा
हर कमरे की है एक दुनिया
जिसमें कोई अजब दीवाना सत्यखोजी अपनी खोज में जुटा है.

हवा चलती है,
धूप आती है
किताबों के पन्ने फड़फड़ाते हैं
और चिड़ियाँ उड़ती हैं…
उड़ती हैं चिड़ियाँ और आसमान पर-पर हो जाता है

जो घर बनाया है मैंने किताबों से
उसका आसमान जरा अलग है
उसके नियम-कायदे थोड़े अलग
अगर आप जरा घमंडी हैं अफलातून
तो दोनों हाथ बढ़ाकर दाखिल होने से रोक देंगी किताबें
दरवाजे पर लग जाएगी अर्गला
मगर गरीब रफूगर या आत्मा का दरवेश कोई नजर आए
तो उसे प्यार और आँसुओं से नहलाकर
दिल के आसन पर बैठाती हैं किताबें.

वह घर जो किताबों से बनाया है मैंने
उसका आसमान जरा अलग है
उसमें एक नहीं, कई ध्रुव तारे हैं ज्योतित
उसमें एक गोर्की है एक प्रेमचंद एक निराला एक टैगोर
टॉलस्टाय दोस्तोवस्की चेखव पुश्किन सार्त्र और शेक्सपियर
और और भी तमाम ग्रह-उपग्रह सूरज-चाँद नहलाते रोशनियों से
धरती-आकाश…!

एक घर बनाया है किताबों से मैंने
उसका ईश्वर कभी उदास तो कभी तन्नाया सा रहता है
उसने जीतीं कई लड़ाइयाँ तो हारे हैं कई दाँव
उसके नियम-कायदे हैं जरा अलग जीने और मरने
और हार और जीत के
उस घर में जब कोई अलमस्त फकीर आता है
आत्मा की आँखों से देखता
और दिल के सिंहासन पर बैठकर
कोई अनहद राग गाने लगता है
तो मेरा खुदा हो जाता है

कोई फटा कुरता पहने बाँसुरी वाला
आता है
भीतर आँगन में बैठ दिलकश धुनें निकालता है
और मेरा तानसेन हो जाता है

एक रिक्शे वाला, एक ढोल वाला
एक पुरानी ढपली और खिलौने वाला वहाँ आता है
अपनी छोटी सी अललटप दुनिया का साज सजाए
अपनी मस्ती में बतियाता
तो मेरा सिर झुकता है खुद-ब-खुद
चेहरे पर आ जाता कुछ सुकून
मगर किसी राजे के लिए उस घर
की देहरी पार करना मुश्किल, बहुत मुश्किल…!

उसकी अगर कोई जगह है तो वहाँ रखे
पाँवपोश के पास ही कहीं
और बहुत बड़ा मुँह खोलने वाला आला अफसर
अकसर वहाँ बोलना और बात करना भूल जाता है.

अजीब है वह घर
आदमी की सदियों लंबी लड़ाइयाँ, द्वंद्व
और बहसों के अंतहीन सिलसिले
छाए हैं जहाँ आसमान में
हवा में कँपकँपाती लौ मोमबत्ती की
अचानक छेड़ देती है कोई पुरानी कथा…!

जो यहाँ एक बार आता है
साथ लेकर जाता है
थोड़ी सी आँच, थोड़ी नमी थोड़ा उजाला और बेचैनियाँ
और…
और शायद एक मुट्ठी चकमक चिनगारियाँ भी.

अगर वे फिर कहीं और दहकने और धधकने लगीं तो
फिर एक और घर किताबों का
फिर एक और…एक और…!

एक घर किताबों से बनाया है मैंने
जिसमें दस-बीस पचास या कि सौ घर
और भी बने हैं और बनेंगे
बनेंगे हजारों हजार, लाख और करोड़ भी…!

बनते रहेंगे तब तलक
जब तक कि दुनिया में नफरत और वहशियाना सल्तनतें
खत्म नहीं होतीं
धरती का हरापन नहीं लौटता
और फिर से आदमी आदमी
और यह हरा-भरा जंगल नहीं होता
धरती का सबसे खूबसूरत गहना

हाँ, बनते रहेंगे पीढ़ी-दर-पीढ़ी घर किताबों के
और उनमें उगती रहेगी आग…
जब तक कि बेशुमार घरों का सुख-चैन चुराकर भागा
दुःशासन
मारा नहीं जाता.

मैंने जो घर बनाया है…
अकसर उसके अक्षर कबिरा की तान में तान मिलाकर
अजीब उलटबाँसियाँ सुनाने लगते हैं
नजरुल इस्लाम के विद्रोही गीत वहाँ सुलगते हैं
दिलों में तूफान उठाते
और मैं चौंक पड़ता हूँ…
एक साथ कितने युग और इतिहास गले मिलते हैं
मेरे इस छोटे से किताबों के घर में…!

रोज-रोज बहुत सारे लोग आते हैं जाते हैं
मेरे इस छोटे से किताबों के घर में
और यह सिलसिला कभी टूटता नहीं
मुझे खुशी है कि वे मिट्टी की आँच से तपे हुए बेटे हैं
और इस दुनिया को सुंदर बनाएँगे.

लगता है, मेरी उम्र साठ नहीं
कोई साठ हजार साल है
और इस घर में रहते-रहते सदियाँ बीतीं
मेरे सामने ही सभ्यताएँ जनमीं चमकीं और बुझीं
रची गईं गीताएँ रामायण और बाइबिल
अनगिनत बार
आए बड़े सिद्धांत नारे पंथ भाँति-भाँति के
कुछ उगे थे पूरी आब से, फिर मैले हुए…

मगर आदम के बेटे की यात्रा अभी तक थमी नहीं है
आँधियों को चीरकर
बढ़ रहे हैं उसके कदम
नए वक्तों की छाती पर आल्हा गाते
बढ़ा जा रहा है आदमी
और उसका कद और छयाएँ और-और लंबी होती जाती हैं.

एक घर बनाया है किताबों से मैंने
उसी में से निकला है लंगे डग भरता यह आदमी
आदमियों का पूरा एक काफिला
अंतहीन
जिसके कदमों की रफ्तार कभी थमेगी नहीं.

युग आएँगे, युग जाएँगे
और हर बार फिर नई धज से खड़ा होगा
किताबों का मेरा घर…!

गिरधर राठी
फ्लैट नं. 503, टावर 9, लोटस पलाश अपार्टमेंट्स, सेक्टर-110, नोएडा-201304 (उ.प्र.),
मो. 09891011561
प्रकाश मनु
545 सेक्टर-29, फरीदाबाद (हरियाणा), पिन-121008,
prakashmanu333@gmail.com
मो. 09810602327
Tags: 20232023 आलेखगिरधर राठीप्रकाश मनु
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Comments 15

  1. Dr Om Nishchal says:
    2 years ago

    प्रकाश मनु को लंबे अरसे से जानता रहा हूं ।उनका स्नेह और दुलार पाया है। उनके भीतर के आवेग और उबाल से परिचित हूं जो कविताओं कहानियों और उपन्यासों में समय-समय पर दृष्टिगत होता रहा है। उनके उपन्यास पढ़े हैं, उनकी कुछ कहानियां भी ; उनकी बाल कविताएं तो उम्दा होती हैं और बाल कहानियां भी यह सच है कि उनकी कविताएं बहुधा अधिक बोलती हैं । लेकिन यह शायद अधिक बोलने वाला समय ही है । यहां बुद बुद करती प्रार्थनाओं की तरह बुद्ध वचन में स्थगित होती अभिव्यक्तियों की शायद कोई सुनवाई नहीं । सुपरिचित लेखक गिरधर राठी ने बहुत ही सलीके से उनके संबंध में अपने अनुभव और सानिध्य को उकेरा है। दोनों कृती लेखकों को बहुत बधाई और साधुवाद।

    समालोचन के चयन को भी साधुवाद।

    Reply
    • प्रकाश मनु says:
      2 years ago

      आभार भाई ओम जी।‌‌ आप तो बहुत लंबे अरसे से साक्षी रहे हैं, सिर्फ उबाल ही नहीं, मेरे भीतर के एकांत और उन अव्यक्त तकलीफों के भी, जो कभी-कभी कुछ बहुत निकटस्थ मित्रों के साथ और सान्निध्य में ही खुलती रहीं। इसलिए आपको केवल साक्षी ही नहीं, सहयात्री भी मानता हूं। इसीलिए ये कविताएं भी आपके निकट आकर खुद सकीं।

      नया कविता संकलन ‘ऐसा ही जीवन मैंने स्वीकार किया है’ कोई बीस बरसों बाद आ रहा है।‌‌ उसमें संकलित कविताओं की एक बानगी भाई अरुण जी ने बड़े मन और लगन से यहां प्रस्तुत की है। आपको वह भा गई, इसके लिए आपका और भाई अरुण जी का आभार!

      स्नेह,
      प्रकाश मनु

      Reply
  2. कुमार अम्बुज says:
    2 years ago

    प्रकाश मनु जी को बधाई। गिरधर राठी जी ने अपने ढंग का एक आत्मीय आलेख संभव किया है। कविताएँ भी कवि की रचनाशीलता का बेहतर परिचय दे रही हैं। मुझे विष्णु खरे पल लिखी, संपादित पुस्तक ‘एक दुर्जेय मेधा’ याद आ रही है। विष्णु जी के साथ प्रकाश मनु जी के असाधारण साक्षात्कारों के लिए भी यह पुस्तक स्मरणीय है।
    🌺☘️

    Reply
    • प्रकाश मनु says:
      2 years ago

      आभार भाई कुमार अंबुज जी। आपने इतने मन से पढ़ा और कविताओं को पसंद किया, मेरे लिए यह बहुत सुखद है। आपने ठीक कहा, भाई गिरधर राठी जी ने वाकई अपने खास अंदाज में लिखा, जैसा सिर्फ राठी जी ही लिख सकते थे। पढ़कर मैं स्वयं एकबारगी अवाक सा रह गया।‌‌ उनकी इस विलक्षण और अद्वितीय टीप को बहुत सारे मित्रों ने भी पसंद किया। मुझे या मेरी कविताओं को उन्होंने इस योग्य माना, मेरे लिए तो यही बड़ा सुख है।

      विष्णु खरे जी को जिन मित्र लेखकों ने खूब मन से पढ़ा, और एक व्यक्ति और लेखक के रूप में भरपूर चाहा और प्यार किया, उनमें आप भी हैं।‌‌ इस नाते आपसे अलग, और बहुत अलग सा जो रागात्मक रिश्ता है, उसकी सुवास मैं हर क्षण महसूस करता हूं, और यह जीवन भर चलने वाला एक विरल संबंध है।

      मेरा फिर से आभार!

      स्नेह,
      प्रकाश मनु

      Reply
  3. वंशी माहेश्वरी says:
    2 years ago

    वंशी माहेश्वरी.

    प्रकाश जी ( वे मनु नहीं ये मनु ) को आरोग्यमय दीर्घायु की शुभेच्छा.
    राठी जी की ये अनुपम अभिव्यक्ति हम जैसे आधे-अधूरे पाठकों का हाथ पकड़कर मनुजी की रचना -दुनिया को और गहराई में ले जाकर
    जहां स्मृति,संवेदना, आस्था, जन्म-जन्मांतर सहित कई-कई प्रसंगों से भरे ख़ज़ाने के पास खड़ा कर देते हैं .
    एक ऐसी अदृश्य संदूक जिसमें पुरखों से लेकर आज की ताजगी का कोमल, खुरदरा, कठोर अहसासों की साँसों से लेकर पूर्व और आगामी वर्षों का कालचक्र चलता , रुकता, लड़खड़ाता, हाँफता
    सुस्ताता मिलता है—
    “ उस दुनिया में चलतीं हैं बहसें
    निरंतर बहसें
    जो हजारों वर्ष पहले से लेकर हजारों वर्ष बाद तक के
    समय में आती-जाती हैं”

    मनु जी की कविता गैलरी में सब कुछ है शबीह से लेकर रेखाचित्र तक.
    राठीजी की सूक्ष्म-महीन पड़ताल और विश्लेषण का कैनवास विस्तीर्ण है- जैसे मनुजी का साहित्य विशेषकर कविताएँ.
    जो बारीक से बारीक तफ़सील है.
    ‘पेड़ हरा हो रहा है, पेड़ हरा हो रहा हैं…
    पेड़ हरा…!!’

    सूखे पत्तों के संगीत में हरीतिमा का गान और राग-लहरी में हमारे समय की लय में कविता का मन अनंत सदियों तक गूँजता रहे -ये मात्र कवि की इकलौती इच्छा नहीं
    कहीं न कहीं हम पाठकों की ( सुर में नहीं तो बेसुरे भी नहीं ) इच्छा भी घुली-मिली है.

    प्रकाश जी से कभी रू-ब-रू नहीं हुआ लेकिन फिर भी हुआ हूँ.
    कई बार उनके लिखे को लेकर यत्किंचित नोट्स का आदान-प्रदान होता रहा है, होता रहता है भले ही वह उबाऊँ रहा हो वैसे भी उबाऊँपन की आदत अगर नहीं है तो डाल लीजिएगा- ये समय प्रचण्ड रूप से आपके नितांत वैयक्तिक आज़ादी को उधेड़ता हुआ उसके रेशों-रेशों को धृष्ट हवाओं के अधीन कर रहा है.

    “हवा चलती है,
    धूप आती है
    किताबों के पन्ने फड़फड़ाते हैं
    और चिड़ियाँ उड़ती हैं…
    उड़ती हैं चिड़ियाँ और आसमान पर-पर हो जाता है.”

    गिरधर राठी का ये लेख उनके असंख्य लेखों की तरह विराट है. प्रकाश मनु जी व अरुणोदय जी के प्रति कृतज्ञता.

    .

    Reply
    • प्रकाश मनु says:
      2 years ago

      आभार भाई वंशी जी, बहुत-बहुत आभार। कविताएं जितने मुक्त मन, मुक्त हृदय से लिखी गईं, आपकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही खुली, मुक्त और भावपरक है। मुझे इसमें आपके साफ मन और हृदय की झांकी दीख पड़ती है, जिसमें कोई पूर्वाग्रह नहीं है। हम लोग मिले चाहे नहीं हैं, पर ‘परिचित से जाने कब के, तुम लगे उसी क्षण हमको!’ यह तो प्रसाद जी के शब्दों में कह ही सकता हूं।

      आपने ठीक कहा भाई वंशी जी, राठी जी की टिप्पणी एकदम अलग सी, गहन और बहुआयामी है। हम सरीखे बहुतों को राह दिखाने वाली। और मैंने तो उससे बहुत कुछ सीखा है।

      मेरा स्नेह,
      प्रकाश मनु

      Reply
  4. चंद्रकांत पाटिल says:
    2 years ago

    बहुत बहुत बधाई…आप को, राठी जी को और समालोचन की पैनी निगाहों वाले अरुण देव को भी

    Reply
  5. सविता मिश्र says:
    2 years ago

    बहुत सुंदर सार्थक आलेख व कविताएं

    Reply
  6. कैलाश मनहर says:
    2 years ago

    प्रकाश मनु की इन कविताओं में हमारे समय और समाज का मार्मिक सत्य अभिव्यक्त होता है | मिथकों और प्राकृतिक बिम्बों का जन सामान्य के जीवन से जुड़ाव इन कविताओं की सार्थकता है | गिरधर राठी ने गहन व्याख्यापूर्ण टिप्पणी की है प्रकाश मनु की कविताओं पर | समालोचन को ये कवितायें और टिप्पणी प्रकाशित करने हेतु साधुवाद |

    Reply
  7. डॉ. सुमीता says:
    2 years ago

    प्रकाश मनु जी की संपादित कई पुस्तकें निजी संग्रह में हैं लेकिन इनकी कविताओं से इस तरह परिचित होने का यह पहला अवसर है। गिरिधर जी ने बहुत आत्मीयता से प्रकाश जी व उनकी कविताओं की ख़ूबियों को जाहिर किया है। उन्हें बहुत धन्यवाद। प्रकाश जी की कविताएँ जीवन-जगत के साथ एक संवेदनशील मन की सहज-सुन्दर अंतःक्रिया से सम्भव हुई हैं। हरी-भरी धरती, नदी, पेड़, चिड़िया, आत्मीयता और विवेक की संरक्षा की चिंता आधारभूत है। ‘राम-सीता’ कविता तो संजो कर रखने की है। मेरी शुभकामना है कि प्रकाश मनु जी शतायु हों और उनकी सृजनात्मक यात्रा अबाधित चलती रहे। अन्त में अरुण जी को बहुत धन्यवाद।

    Reply
  8. Vinod Padraj says:
    2 years ago

    बेहतरीन, आपने बहुत अच्छा उपक्रम किया यह
    मैं उनको गौर से पढ़ता रहा हूं दिल्ली पर उनका एक उपन्यास भी पढ़ा था बहुत अच्छा
    और बच्चों के लिए उनका काम और देवेंद्र सत्यार्थी जी पर

    Reply
  9. श्याम सुशील says:
    2 years ago

    गिरधर राठी जी ने बहुत सही लिखा है : प्रकाश मनु जी का बोलना और लिखना– उनके समूचे अस्तित्व के भीतर से निकलता है, पोर-पोर से, रग-रग से…। आपकी कविता और व्यक्तित्व के संदर्भ में निराला, रघुवीर सहाय, विष्णु खरे, गालिब, मीर, मुक्तिबोध आदि को याद करना बड़ी बात है। गिरधर राठी जी बहुत सुंदर बात हैं कि केवल हालात पर मातम नहीं, मनु जी की कविता हमें ‘परिचित’ से नया ‘परिचय’ कराने में समर्थ है।… कविताओं का चयन बहुत अच्छा है।… इतनी सुंदर प्रस्तुति के लिए समालोचन, गिरधर राठी जी और आपको बहुत बधाई।

    Reply
  10. दिलीप दर्श says:
    2 years ago

    वाकई अद्भुत कविता है. मार्मिक और सामयिक संदर्भ समेटे.

    Reply
  11. धनंजय वर्मा says:
    2 years ago

    गिरधर राठी जिस पर आत्मीय लेख लिखें, वह साधारण ‘ व्यक्ति- लेखक- कवि’ नहीं हो सकता, वह प्रकाश मनु ही हो सकता है, जिसकी एक बेहद गहरी और कभी न भुलाई जा सकने वाली छाप, उनकी इन कविताओं से दिलो दिमाग पर पड़ जाती है. रही उम्र की बात , तो, वह महज एक संख्या है , जैसे कि मैं 88 पूरे कर रहा हूँ.मुझे लगता है कि कवि -लेखक अपनी कविता या लेखन में ही जीता है.उसके बाद उसके बारे में कोई क्या कहता लिखता है, उसके लिये तो बेमानी है….
    गिरधर राठी का आभार, प्रकाश मनु को बधाई और आपको धन्यवाद

    Reply
  12. पूनम मनु says:
    2 years ago

    गिरधर राठी जी ने जो प्रकाश मनु जी पर लिखा है, वह ऐसा है जैसे कोई किसी के अंतर्मन को पढ़ते रहा हो।जितनी सहजता से उन्होंने उनके स्वयं के आंकलन पर लिख दिया है वह साहस तभी आता है जब हम किसी पर इतना अधिकार रखते हैं कि उनके कहे को उतनी ही सहजता और सहृदयता से स्वीकार किया जाएगा।इतनी बेहतरीन समीक्षा है कि इस लेख से ही आप प्रकाश जी के लेखन और उनके व्यक्तित्व को समझ सकते है ।प्रकाश जी को पढ़ती रही हूं मैं।कविताएं उनकी मुझको कई याद है जैसे नदी, बिटिया पर उनकी कविता अभी कुछ दिनों पहले पढ़ी थी।उनकी कविताओं में एक तड़प है, आज के परिवेश से भय है।ये सच है उनकी कविताओं में आग है। अपने समय से जूझता एक कवि हैं,लेखक है।उनकी कहानियां , लेख भी मैने पढ़े हैं। जैसा ऊपर लिखा गया है, ओम निश्चल जी ने लिखा है। वंशी माहेश्वरी जी ने लिखा है।बहुत सही लिखा है। मैं मानती हूं प्रकाश मनु जी बहुत अच्छे लेखक कवि हैं।उनके आने वाले कविता संग्रह के लिए बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं।गिरधर राठी जी को समीक्षा के लिए हार्दिक बधाई।अरुण जी आपको धन्यवाद

    Reply

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