बौद्ध संस्कृति और वर्णाश्रम धर्म चंद्रभूषण |
वैदिक संस्कृति को ही ‘भारतीय संस्कृति’ की धुरी मानने की समझ बमुश्किल दो सौ साल पुरानी है. सुदूर अतीत से लेकर हाल-हाल तक देश में कुछ लोग वेदों को ईश्वरीय वाक्य कहते थे जबकि बाकी लोग या तो इन्हें धूर्तों का औजार बताते थे या कोई भाव नहीं देते थे.
कंपनी राज में उभरे ‘ओरिएंटलिज्म’ ने तराजू का पलड़ा बरबस एक तरफ झुका दिया. इससे ईस्ट इंडिया कंपनी के दो प्रयोजन सिद्ध हुए. एक, नेपोलियन के पराभव के बाद ब्रिटिश क्राउन को विश्व सभ्यता का उन्नायक और उदात्त ईसाई मूल्यों का संवाहक बताना. दूसरा, भारत की पुरानी तालपोथियों और यहां के खंडहरों की खुदाई में मिले माल को यूरोप के म्यूजियमों में ऊंचे भाव पर खपा देना.
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में कंपनी राज के ही एक कर्मचारी, जर्मन ओरिएंटलिस्ट मैक्स मूलर ने एक बड़े प्रॉजेक्ट के तहत वेदों का अंग्रेजी अनुवाद संपादित किया. यूरोप में इसको लेकर तरह-तरह की चर्चा शुरू हुई. फिर ‘वैदिक संस्कृति’ की पुनर्स्थापना के नाम पर फैल रहे दयानंद सरस्वती के आर्यसमाज आंदोलन और 1893 ई. में शिकागो की ‘धर्म संसद’ में विवेकानंद के वेदांत आधारित वक्तव्य ने वेदों को भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि ग्रंथ बना दिया. इनमें अंतिम मामले के साथ यह विडंबना जुड़ी है कि विवेकानंद को कायस्थ और पांथिक बताकर उनके द्वारा हिंदू धर्म के प्रतिनिधित्व को धोखाधड़ी बताने वाले विद्वज्जन के तर्क ऋग्वेद के बहुचर्चित ‘पुरुष सूक्त’ पर ही आधारित थे!
बीसवीं सदी की शुरुआत से ही धीरे-धीरे जन आंदोलन का रूप लेने वाले भारत के स्वाधीनता संघर्ष पर निश्चित रूप से वैदिक नवजागरण का गहरा प्रभाव था, जिसका दूसरा छोर तुर्की से शुरू होकर पूरे एशिया में फैल रही पैन-इस्लामिक चेतना का भी था. लेकिन नेतृत्व की मुख्यधारा ब्रिटिश लिबरल सोच वाली थी और धर्म-दर्शन की उसकी समझ पुरानी चीजों में न फंसने, हर धर्म की अच्छी बातें अपनाने और मानवमात्र में आस्था रखने की थी.
इस बात पर कम चर्चा होती है कि सन 1900 से तीन दशक आगे और पीछे का समय भारत में कुछ पुरातात्विक और राजनीतिक संयोगों से शुरू हो गए बौद्ध नवजागरण का भी था. तीसरी सदी ईस्वी की रचना ‘ललितविस्तर’ पर आधारित एडविन आर्नल्ड का काव्यग्रंथ ‘द लाइट ऑफ एशिया’ 1879 में ही प्रकाशित हो गया था, जिसे पढ़कर इंग्लैंड में पढ़ाई करने गए कई संवेदनशील युवा बुद्ध में अपनी आत्मछवि देखने लगे थे. खुदाइयों में लगातार सामने आ रहे बौद्ध पुरावशेषों का भी राजनीतिक और साहित्यिक बुद्धिजीवियों पर गहरा प्रभाव देखा जा रहा था.
जवाहरलाल नेहरू, आचार्य नरेंद्र देव, राहुल सांकृत्यायन, जयशंकर प्रसाद और महादेवी वर्मा के नाम और बुद्ध से संदर्भित उनके काम इस सिलसिले में तत्काल ध्यान में आते हैं. मैथिलीशरण गुप्त की ‘यशोधरा’ भी जेहन में आती है, हालांकि उसकी कथावस्तु से इतना ही पता चलता है कि बुद्ध से जुड़ी सुनी-सुनाई बातें तब ज्यादा चलन में थीं. उसके असर में कई लोग आज भी कहते हैं कि गौतम बीबी-बच्चे को सोता छोड़कर रात में ही घर से भाग गए थे!
इन सारे बौद्धिकों का रिश्ता उत्तर प्रदेश से है तो इसकी एक वजह यह हो सकती है कि उस समय ज्यादातर बौद्ध अवशेष अवध क्षेत्र में ही खोजे गए थे. नेहरू पर यह प्रभाव ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ के इस निष्कर्ष में दिखता है कि बौद्ध और जैन धर्मों की दृष्टि और इनका स्वरूप हिंदू धर्म से बहुत अलग था, इसलिए प्राचीन भारतीय संस्कृति को ‘हिंदू संस्कृति’ न कहा जाए. हालांकि कांग्रेस के लिए यह भी शायद ‘नेहरू के अतिरेकपूर्ण विचारों में एक’ था, क्योंकि राष्ट्रवाद की हिंदूवादी व्याख्या से खुद को अलग रखने को लेकर कोई अतिरिक्त जोर वहां कभी नहीं दिखा.
सिद्धों, नाथों, भक्तों का दौर |
पीछे जाकर कंपनी राज से पहले वाले बड़े सांस्कृतिक दौर ‘भक्तिकाल’ को देखें तो वेदों को लेकर शुरुआती भक्त कवियों की प्रतिनिधि राय पीपा भगत के एक पद की टेक में देखी जा सकती है, जिसे पुरुषोत्तम अग्रवाल ने अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की’ में उद्धृत किया है.
‘जौ कलिनाम कबीर न होते
तौ लोक बेद अरु कलिजुग मिलि करि भगति रसातल देते.’
(कबीर न होते तो लोक, वेद और कलियुग ने मिलकर भक्ति को रसातल ही पहुंचा दिया होता.)
ध्यान रहे, भक्ति आंदोलन में सपत्नीक शामिल होकर जीविका के लिए दर्जी का पेशा अपनाने से पहले प्रताप सिंह ‘पीपा जी’ झालावाड़ की गागरौन रियासत के राजा थे और उनका संबंध शाक्त परंपरा से था.
भक्ति को डुबोने वाली चीजों में लोक, वेद और कलियुग, तीनों को एक साथ रखने वाला यह पद आगे बताता है-
‘अंध लकुटिया अंध गही है परत कूप कत थोरै
अबरन बरन दोऊ रस रंजन आंखि सबनि की फौरै.’
(अवर्ण हों या सवर्ण, दोनों के मन की मौज में सबकी आंखें फूट गई हैं. अंधों ने अंधों की लाठी पकड़ रखी है, कुएं में गिरेंगे ही.)
भक्तिकाल से भी पहले सिद्धों और नाथों के कोई पांच सौ साल लंबे युग में साधना के क्षेत्र में वैदिक मान्यताओं की कोई पूछ नहीं थी. जाति विभाजन, ऊंच-नीच और नियतिवाद के खिलाफ जो सख्ती सरहपा और गोरखनाथ में दिखती है, वह बाद में दुर्लभ हो गई. हजारीप्रसाद द्विवेदी के ग्रंथ ‘नाथ संप्रदाय’ में शैव और शाक्त तंत्रों पर बातचीत दोनों को अवैदिक परंपरा मानकर की गई है. वैष्णव तंत्र जरूर वैदिक धारा का हिस्सा था लेकिन उसकी प्रतिष्ठा बौद्ध, शैव और शाक्त तंत्रों जैसी नहीं थी. यह सही है कि आदि शंकराचार्य के हाथों वैदिक संस्कृति में नई जान भी सिद्ध साहित्य के शुरुआती दौर में ही पड़नी शुरू हुई, लेकिन यह राह उतनी सीधी नहीं थी, जितनी बताई जाती है.
शंकराचार्य ने स्वयं कश्मीर से लेकर उत्तराखंड, नेपाल और असम तक हिमालयी इलाकों में खस और अन्य पहाड़ी गणराज्यों के वैदिक संस्कृति में आने का रास्ता हमवार करके वहां के जमे-जमाए बौद्ध ठिकाने तोड़ दिए, साथ ही चार प्रमुख और कुछ गौण शांकर मठों की स्थापना करके आने वाले समय के लिए अपनी धारा की निरंतरता सुनिश्चित की. मैदानी इलाकों में कुछ चुनिंदा शास्त्रार्थों के जरिये उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि अवैदिक संस्कृतियां अगर कभी बहुत लोकप्रिय हो जाएं तो भी उनकी पहुंच कम से कम प्रभावशाली राजन्य वर्ग तक तो न बनने पाए.
भारत का अंधयुग कहलाने वाले इस हलचलों भरे दौर से पहले गुजरे एक हजार वर्षों में बौद्धों, जैनों, आजीवकों और लोकायतों की श्रमण संस्कृति वैदिक धारा से बराबरी के मुकाबले में रही. कभी एक का पलड़ा भारी हुआ तो कभी दूसरी का. पतंजलि का योग और कपिल का सांख्य-बुद्ध के समय षड्दर्शन की दो व्यापक शाखाएं अभी ‘सनातन’ में ही समेट ली जाती हैं. लेकिन ये स्वतंत्र दर्शन हैं. एक ईश्वरवादी, दूसरा अनीश्वरवादी. बस, ये वेदविरोधी नहीं हैं.
आगे बढ़ने से पहले कुछ बुनियादी प्रस्थापनाओं पर स्पष्ट होना जरूरी है. दुनिया में वेदों की प्रतिष्ठा इनकी कल्पनाशीलता, काव्यात्मकता और कुछ मामलों में इनकी दृष्टि के खुलेपन के लिए रही है. लेकिन भारत की बहुसंख्य आबादी को इन चीजों से नहीं, उस समाज दृष्टि से समस्या रही है, जिसे वेदों से जोड़ा जाता है और जिसपर अक्सर बात ही नहीं होती. यह मामला इस या उस श्लोक का नहीं, शाश्वत बना दी गई वर्णवादी व्यवस्था का है.
मनुष्यों के बीच ऊंच-नीच का बंटवारा करने की प्रवृत्ति दुनिया के ज्यादातर पुराने धर्मग्रंथों में रही है. लेकिन वेदों में इसे स्वयं ईश्वर का स्वरूप बता दिया गया है. इतिहास ऐसे ग्रंथों को या इनके विवादित अंशों को एक तरफ करके आगे बढ़ जाता रहा है, लेकिन भारत में यह आत्यंतिक विभाजनकारी सोच कुछ-कुछ वजहों से कई बार बुझते-बुझते दोबारा भभक पड़ी और जब इसे संवैधानिक रूप से खारिज कर दिया गया तो यह देश की मुख्यधारा बन बैठी.
रही बात भारत की अवैदिक संस्कृतियों की तो इनमें कुछेक का न तो वैदिक संस्कृति से कोई संसर्ग कायम हो पाया, न ही अलग रास्ता पकड़कर इसका सामना करते हुए आगे बढ़ने वाली श्रमण संस्कृति से. उन्हें हम आज आदिवासी समाजों के रूप में जानते हैं. श्रमण संस्कृतियों में सबकी अलग-अलग नियति देखने को मिली. लोकायत और आजीवक संस्कृतियों के केंद्र में कोई धर्म नहीं था, सो वे बहुत पहले लुप्त हो गईं. उनका खाका हम उनके बारे में कही गई बातों से ही बना पाते हैं. बौद्ध और जैन संस्कृतियों ने दार्शनिक और राजनीतिक रूप से अपना विकास किया, कई बार वैदिक संस्कृति से लोहा लिया, इसमें बंटवारा किया और कई बहिष्कृत कबीले भी इनका अंग बने.
निशाने पर क्यों रहे बौद्ध |
बौद्ध संस्कृति और वैदिक संस्कृति के बीच इतने तीखे टकराव के दो कारण समझ में आते हैं. एक तो यह कि लोगों को पराया करती जाने वाली वैदिक समाज व्यवस्था का एक मजबूत विकल्प बौद्धों ने विकसित किया. इस बारे में कुछ बातचीत इसी अध्याय में आगे की गई है. दूसरा इसलिए कि बुधिज्म ने आदिवासियों की तरह अपनी अलग बस्ती बसाकर या जैनों की तरह बीच-बचाव वाला रास्ता निकालकर शांत पड़ जाने का रुख कभी नहीं दिखाया.
बौद्ध दर्शन लगभग डेढ़ हजार साल तक लगातार वैदिक समाज दृष्टि और इसे मजबूती देने वाली प्रस्थापनाओं के खिलाफ सीधी बहस में उतरा रहा. इस क्रम में उसने उन समुदायों के संवेदनशील हिस्से को भी अपने साथ जोड़ लिया, जिन्हें वैदिक समाज-व्यवस्था का सिर, भुजा और छाती कहा जाता था. यही वजह है कि कथित ‘मुख्यधारा’ को मौका मिला तो इसने भारत से बुद्ध का नाम मिटा दिया और उनके धर्म की एक बस्ती भी यहां नहीं रहने दी.
कुछ बड़े आसान से नुस्खे भारत से बौद्ध धर्म की विदाई को लेकर सुझाए जाते रहे हैं, जो लगभग आधी दुनिया में इस धर्म के फैलाव को देखते हुए अटपटे-से लगते हैं. इसका वैचारिक पक्ष देखें तो हिंदी में मध्यकाल के तीन व्याख्याताओं राहुल सांकृत्यायन, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और हजारीप्रसाद द्विवेदी की उस दौर के प्रभावी बौद्ध पंथों वज्रयान/तंत्रयान/सहजयान (ये तीनों एक ही धुंधली चीज के अलग-अलग नाम भी हो सकते हैं) के बारे में कुछ ऐसी साझा राय पढ़ने को मिलती है कि लगता है, ऐसे धर्म का भारत भूमि से विलुप्त हो जाना ही अच्छा था.
बेशक, इस दौर के सिद्ध साहित्य से सीधा संपर्क राहुल सांकृत्यायन का और शेष पुरातात्विक सामग्री से दामोदर धर्मानांद कोसांबी का था. दिनकर जी का अपना खास काम हिंदू धर्मग्रंथों पर और द्विवेदी जी का नाथपंथी सामग्री पर आधारित था. मध्यकालीन बौद्ध धर्म से जुड़े तथ्यों के लिए ये दोनों सांकृत्यायन और कोसांबी पर निर्भर थे, जिनका कद इतना बड़ा था कि उनपर श्रीलंकाई हीनयान के पांथिक प्रभाव किसी के ध्यान में ही नहीं आए. नतीजा यह कि बड़े नतीजे निकालने में कुछ धैर्य और सहृदयता हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने उपन्यासों में ही दिखा पाए.
एक रूढ़ धारणा सी बन गई कि विदाई से पहले बौद्ध ऐसे ही रहे होंगे. सिद्धि के नाम पर मांस, मदिरा, मैथुन में खोए हुए. मंत्र-तंत्र में नाक तक डूबे हुए. यह किताब पांच सौ साल लंबे उस दौर को समझने की एक कोशिश है, जब भारत में बौद्ध धर्म अपने विलोप की ओर बढ़ रहा था. लेकिन इस राह पर पहला कदम रखने से पहले जानना जरूरी था कि अपनी निरंतरता में यह दिखता कैसा था. उस दौर की कोई बानगी क्या आज भी कहीं मौजूद है?
कुछ कदम महायानियों के साथ |
थोड़ा-बहुत संपर्क मेरा महाराष्ट्र के नवबौद्धों से रहा है. लेकिन उनका धर्म इतना नया है कि इससे मेरा मकसद नहीं पूरा हो सकता था. नेपाल और तिब्बत के बौद्धों से मिलना इस लिहाज से काफी अच्छा रहा, लेकिन पुरानी बौद्ध संस्कृति से संपर्क की शुरुआत दिल्ली से ही हुई. यहां निजामुद्दीन के पास स्वर्ण जयंती पार्क में विश्व शांति स्तूप परिसर में ही कुटिया बनाकर रहने वाली कात्सू बेन के साथ उनकी सायं पूजा में दो-तीन बार मैं बैठा. एक ढप-ढप बाजे के साथ बहुत देर तक वे ‘नामु म्योहो रेंगे क्यो’ मंत्र का पाठ करती हैं और अंत में बिस्कुट-टॉफी का प्रसाद भी देती हैं. एक बार प्रसाद में उन्होंने अपनी कुटिया के सामने वाले पेड़ से टूटे कुछ बड़े रसीले नींबू भी डाल दिए थे.
कात्सू बेन अभी तो एक छोटी-सी हंसमुख बुजुर्ग हैं लेकिन पचास के दशक में जब वे फूजी गुरुजी के साथ जापान से भारत आई थीं तब टीनेजर थीं. प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक-कार्यकर्ता काका कालेलकर के साथ उस समय कुछ साल उन्होंने दिल्ली की मलिन बस्तियों में जनजागृति के काम भी किए थे. अपने धर्म के बारे में बताते हुए वे तेरहवीं सदी के जापानी भिक्षु निचिरेन का नाम लेती हैं, जो महायान बुधिज्म के तेंदाई पंथ से जुड़े थे और मछुआरों के साथ अपने आत्मिक जुड़ाव के बल पर अपने क्षेत्र के इस राज्य धर्म का पुनर्संस्कार किया था.
जो मंत्र ‘नामु म्योहो रेंगे क्यो’ कात्सू बेन पढ़ती हैं, वह जापानी भाषा में सद्धर्म पुंडरीक सूत्र (लोटस सूत्र) की स्तुति है. बाद में खोजबीन से पता चला कि तेंदाई पंथ असल में चीन के त्यानताई पंथ का ही जापानी रूप है. ईसा की छठीं सदी में इस पंथ के संस्थापक, चीनी बौद्ध आचार्य श्रमण झीयी ने वहां उपलब्ध बौद्ध ग्रंथों को व्यवस्थित रूप दिया था. धर्म को समझ में आने लायक बनाने और उसकी सहज मानवीय व्याख्या के मामले में श्रमण झीयी की तुलना ईसाइयत में सेंट टॉमस एक्विनास और इस्लाम में इमाम अल ग़ज़ाली से की जाती है.
सन 2015 की अपनी संक्षिप्त चीन यात्रा में त्यानताई पंथ से जुड़े किसी स्थल पर जाने का मौका मुझे नहीं मिला, अलबत्ता पेइचिंग के बिल्कुल खाली से एक बौद्ध मंदिर में अट्ठारह भुजा वाली चंडी की एक पेंटिंग जरूर दिखी, जो किसी जमाने में चीन के किसी अन्य महायान पंथ में एक बोधिसत्व की तरह पूजी जाती थीं. मूर्तिकला (आइकनॉग्रफी) के कई पहलुओं से हिंदू धर्म जैसा दिखने वाला बौद्ध धर्म का यह स्वरूप चीन, जापान और कोरिया में छाया हुआ है. भारत से अधिक दूरी का भूगोल इससे छिटपुट मुलाकात की ही इजाजत देता है.
ध्यान रहे, महायान बौद्ध धर्म के इतिहास में हीनयान के बाद और वज्रयान से पहले आया पंथ है. बुद्ध को कमोबेश ईश्वरीय आभा देने वाले एक अलग पंथ के रूप में इसकी नींव मुख्यतः आचार्य नागार्जुन की पहल पर ईसा की पहली सदी में पड़ी थी. वे बहुत दिलचस्प दार्शनिक थे और अभी के आंध्र प्रदेश में श्रीपर्वत क्षेत्र (फिलहाल नागार्जुनकोंडा जिला) में रहते थे. कुछ ‘बुद्ध सूत्रों’ को उन्होंने इस घोषणा के साथ प्रस्तुत किया था कि नागों ने इन्हें चुराकर अपने लोक में छिपा लिया था, नागलोक से इनका उद्धार करके वे ही वापस इनको पृथ्वीलोक तक ले आए हैं. कुछ लोग उनके इस दावे को धूर्तता का नमूना बताते हैं, जबकि दूसरी राय दार्शनिक अवचेतन को नागलोक मान लेने की है.
शून्यवाद महायान की प्रमुख दार्शनिक स्थापना है और लोगों की मुक्ति के लिए अपना बुद्ध होना टालते जाने वाले कई सारे देवतुल्य ‘बोधिसत्व’ इसकी अलग पहचान हैं. जापान में भिक्षु निचिरेन को सद्धर्म पुंडरीक सूत्र में आए ‘विशिष्टचरित्र’ नाम के बोधिसत्व का पुनर्जन्म माना जाता है. बहरहाल, कात्सू बेन की कुटिया में उनके धर्म का सान्निध्य बिगड़ी बना देने वाले किसी अपार्थिव चरित्र के आवाहन जैसा लगने के बजाय शाक्यमुनि बुद्ध, भिक्षु निचिरेन और फूजी गुरुजी के चित्रों के साथ एक व्यक्तिगत किस्म की आस्था का एहसास कराता है. मुक्ति का एक ऐसा मार्ग, जिसमें जिस किसी का भी दिल करे, कुछ देर शामिल हो जाए, जितना भी चल पाए, चलकर देख ले.
महायान में किसी एक भारतीय चिंतक की गहरी गति थी तो वे थे आचार्य नरेंद्र देव. कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक. छह भाषाओं में लिखने, पढ़ने, सोचने की गति रखने वाले, जनता से जुड़े आंदोलनकारी बुद्धिजीवी. काशी विद्यापीठ, लखनऊ विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर. अभी यह सोचकर मन थर्रा जाता है कि वसुबंधु की रचना ‘अभिधर्मकोश’ को हिंदी में लाने के लिए उन्होंने फ्रेंच से इसका अनुवाद किया. मूल संस्कृत में इसकी कोई प्रति सदियों से उपलब्ध नहीं है. इसका चीनी अनुवाद जरूर मौजूद है लेकिन चीनी भाषा आचार्य जी को आती नहीं थी. इसलिए उन्होंने फ्रेंच में मौजूद इसके अनुवाद के अनुवाद का रास्ता पकड़ा!
और यह चयन भी खुद में बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि वसुबंधु अपनी आधी बौद्धिक आयु पार कर जाने के बाद हीनयान से महायान में आए थे. पांचवीं सदी में किए गए उनके दार्शनिक काम पर बौद्धों में पंथों के आर-पार एक दुर्लभ आम सहमति मौजूद थी. अपने समय में आचार्य नरेंद्र देव ही संभवतः अकेले ऐसे बौद्धिक थे, जिन्हें पता था कि सिर्फ त्रिपिटक पढ़कर आप बौद्ध दर्शन से गहरा परिचय नहीं बना सकते. उसी तरह, जैसे बाइबल पढ़कर ईसाइयत को नहीं समझा जा सकता. उनकी ‘बौद्धधर्म-दर्शन’ हमें उंगली पकड़कर अलग दुनिया में ले जाती है.
थेरवाद और वज्रयान का नजारा |
महायान के उलट थेरवाद हमें आज एक भारतीय धर्म जैसा लगता है तो इसलिए नहीं कि इसकी कोई निरंतरता हमारे यहां बनी हुई है. बात सिर्फ इतनी है कि उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में तीन-चार विस्मृत बौद्ध स्थलों के अवशेषों तक अचके में ईस्ट इंडिया कंपनी के कुछ फौजी अफसरों के हाथ पहुंच जाने के बाद वहां पूजा-पाठ शुरू करने में सबसे ज्यादा सक्रियता श्रीलंका और बर्मा के थेरवादी भिक्षुओं ने ही दिखाई. इसका कारण यह था कि इन देशों की सत्ता का स्वरूप लंबे समय से थेरवादी था और इनके कुलीन तबकों का एक पांव इस धर्म में तो दूसरा अंग्रेजी राज में धंसा था. इससे बौद्ध स्थलों की खोज के बाद इनपर हक जताने आए भिक्षुओं को चंदा भी खूब मिला.
डीडी कोसांबी, राहुल सांकृत्यायन, भदंत आनंद कोसल्यायन और डॉ. आंबेडकर जैसे कद्दावर भारतीय बौद्धिक थेरवाद में ही दीक्षित हुए और इसका ढांचा भी बौद्ध धर्म के बाकी दोनों यानों की तुलना में अधिक तार्किक, नैतिक और मिशनरी बनावट वाला है. बर्मा में जन्मे भारतीय व्यापारी सत्य नारायण गोयनका वहां से थेरवादी ध्यान पद्धति विपस्सना को लेकर भारत आए, जो अभी यहां काफी लोकप्रिय है और यहां से बाहर भी जा रही है. ये बातें थेरवाद को हमारे लिए ज्यादा सहज बनाती हैं. लेकिन इसका एक इतर पक्ष भी है, जिसकी ओर जरा देर में ध्यान जाता है.
दो-तीन श्रीलंकाई भिक्षुओं से मुलाकात मुझे पता नहीं क्यों किसी स्कूल प्रिंसिपल की याद दिलाती रही है. इससे मैं थेरवाद के बारे में कोई नतीजा नहीं निकालना चाहता, क्योंकि काठमांडू में बांह पर टैटू बनवाए जबर्दस्त स्वैग वाले थेरवादी भिक्षु अदिच्च (आदित्य) से एक बहुत ही रोचक बातचीत भी मेरी हो चुकी है. हां, आम सवालों पर भी श्रीलंकाई भिक्षुओं के इस कड़क रूखेपन को व्यक्तिगत अपवाद न समझें तो इसकी दो वजहें सोची जा सकती हैं.
एक तो यह कि थेरवाद बुधिज्म लंबे समय से श्रीलंका का राजकीय धर्म बना हुआ है. दूसरी यह कि पालि त्रिपिटक पर आधारित बौद्ध धर्म का यह सबसे पुराना पंथ, जो खुद को स्थविरों यानी वृद्ध भिक्षुओं की परंपरा में मानता है और आचरण में सभी से ज्यादा संयम और अनुशासन की अपेक्षा रखता है, गृहस्थों को मुक्ति के अयोग्य ही मानता आया है. थेरवादी ऐसा दावा तो नहीं करते कि बुद्ध ने स्वयं कहीं अलग से ऐसा कुछ कहा है, लेकिन इस बात पर जोर देते हैं कि उनके यहां मुक्ति का अकेला रूप ‘अर्हत’ होना है, जो सिर्फ और सिर्फ गृहत्यागी भिक्षु ही हो सकते हैं. अर्हत यानी दान, शील, नैष्क्रम्य, प्रज्ञा, वीर्य, क्षांति, सत्य, अधिष्ठान, मैत्री और उपेक्षा की दस पारमिताएं पार कर लेने वाला.
बौद्ध धर्म के तीसरे प्रमुख रूप वज्रयान के विविध पंथों से मेरा दरस-परस तिब्बत की यात्रा में और फिर तिब्बत को ही लेकर एक किताब पर काम करने के दौरान हुआ. निर्वासित तिब्बती सरकार से जुड़े राजनयिक और इस किताब पर काम के दौरान ही मित्र बने जिग्मे सुलत्रिम से उनके धर्म का कुछ आभास मिला, लेकिन तिब्बती धर्माचार्यों से बातचीत और एकाध गहरी बहसों के बावजूद इसे मैं दूर का दर्शन ही मानता आया हूं. इसके बजाय नेपाल में न्यिंग्मा वज्रयानी पंथ को मानने वाले बोधा स्तूप परिसर के वासी तामाङ बौद्धों, खासकर पूर्व शिक्षक खड्गजित लामा और ललितपुर-पाटन के नेवार बौद्धों से चर्चा बौद्ध धर्म की इस तीसरी शाखा को पास से देखने में ज्यादा सहायक हुई.
इसमें कोई शक नहीं कि नेवार बुधिज्म में वज्रयान के कुछ अ-सार्वजनिक गुह्य पक्ष भी शामिल हैं. बंद कमरे में चर्यापद का गायन सुनने और चर्यानृत्य देखने का मौका वज्राचार्य समुदाय के कुछ गिने-चुने लोगों के अलावा शायद ही संसार के किसी समाजविज्ञानी या अध्येता को मिला हो. इसका परिणाम वहां पहले से मौजूद सामाजिक अलगाव को कुछ और बढ़ाने में ही दिखता है. लेकिन प्राचीन विहारों के संचालक बूढ़े वज्राचार्य भी सामान्य बातचीत में कोई तांत्रिक ऐंठ नहीं दिखाते. आम तौर पर वे लोग सुनारी करने वाले सामान्य गृहस्थ हैं. अध्यात्म का धंधा वे नहीं करते.
बुद्ध की मृत्यु के कोई बारह सौ साल बाद, यानी 700 ईसवी के आसपास वज्रयान अस्तित्व में आया था और भारत में दो सौ साल अपनी चमक दिखाने के बाद यहां यह बड़ी तेजी से धुंधला पड़ता गया. कुछ ज्ञानीजन भारत से बौद्ध धर्म की विदाई में भी वज्रयान या सहजयान की कुछ भूमिका मानते हैं, लेकिन बुद्ध के धर्म की इस तीसरी शाखा के धुंधली पड़ने और भारत से बौद्ध धर्म की जड़ टूटने में कम से कम ढाई सौ साल का फासला है. वज्र की तरह सीधा घुस जाने वाला यह यान एक साधक के लिए ग्राह्य-अग्राह्य, नैतिक-अनैतिक, शुचि-अशुचि के बीच फर्क करना जरूरी नहीं मानता था. फिर पता नहीं क्या हुआ कि बुद्ध से जुड़े रहने पर इसका जोर हट गया और यह बाकी तंत्रों की पांत में आ खड़ा हुआ. हजारीप्रसाद द्विवेदी बताते हैं कि नाथपंथ की कुछ शाखाओं की जड़ें बौद्ध धर्म में भी थीं.
कितने पंथ, कितने त्रिपिटक |
तीन की संख्या पता नहीं कैसे बुद्ध के धर्म में बहुत महत्वपूर्ण होती गई, हालांकि बुद्ध के जीवनकाल में ऐसा कुछ भी नहीं था. इस धर्म के तीन बड़े पंथों की शुरुआती चर्चा हम कर ही चुके हैं. कुछ सरलीकरण के साथ दोहराना हो तो श्रावकयान, हीनयान या थेरवाद नाम से स्थापित पहला पंथ बुद्ध को श्रेष्ठतम व्यक्ति के रूप में देखता है और उनके दिखाए रास्ते का अनुसरण करते हुए जीवनकाल में ही सारे बंधनों से मुक्त होकर अर्हत होने का लक्ष्य साधता है.
बुद्ध का समय गुजरने के कोई पांच सौ साल बाद उपजे महायान ने बुद्ध को साफ शब्दों में ईश्वर भले न घोषित किया हो लेकिन यह उन्हें अनुकरणीय के बजाय उपास्य के रूप में देखता है. बुद्ध होने का बीज हर किसी में है, ऐसी मान्यता महायान में है. जातक कथाओं के हाथी, चिड़िया और बंदर तक जब बुद्ध होने की दिशा में जन्म-जन्मांतर की यात्रा करते रह सकते हैं, तो मुक्ति को केवल भिक्षुओं तक सीमित करके गृहस्थों को इस संभावना से वंचित क्यों किया जाए. जाहिर है, महायान में केवल भिक्षु ही नहीं, गृहस्थ भी मुक्ति की राह के राही समझे जाते हैं.
सबसे ज्यादा ग्रंथ इस बौद्ध पंथ में ही रचे गए. दार्शनिक विमर्श भी सबसे ज्यादा इसी में हुए. नालंदा विश्वविद्यालय इसका गढ़ हुआ करता था. चिंतकों की तो सैकड़ों साल लंबी कतार लगी जान पड़ती थी. लेकिन ऊपरी धज में यह काफी कुछ सनातनी धर्म जैसा ही दिखाई देता था. बहुत सारी देवियां, देवतुल्य बोधिसत्व, यक्ष, गंधर्व वगैरह.
तीसरा पंथ वज्रयान या सहजयान का है, जो चिंतन के बजाय गुह्य साधना पद्धतियों के जरिये तीर की तरह बुद्धत्व तक पहुंचना चाहता है. स्वयं बुद्ध होने का लक्ष्य छोड़कर इसके गुरुजन कब ‘सिद्ध’ होने की राह पर बढ़ गए, यह एक सवाल ही है. राहुल सांकृत्यायन वज्रयान की शुरुआत करने का श्रेय नालंदा विश्वविद्यालय के ड्रॉपआउट छात्र/शिक्षक, सिद्धकवि सरहपा को देते हैं, लेकिन वज्रयान के गढ़ तिब्बत में सरहपा का जिक्र इस भूमिका में होते मैंने नहीं सुना. वहां वे चौरासी सिद्धों में एक गिने जाते हैं. कुछ थंका पेंटिंगों में वे बीच में बैठे दिखते हैं और कई महासिद्ध उनके इर्दगिर्द आसन मारे नजर आते हैं. ‘दोहाकोश’ के लिए सरहपा की प्रतिभा को सराहा जाता है. लेकिन तिब्बती वज्रयान के चारों पंथों में एक भी अपने धर्म के संस्थापक के रूप में उनका उल्लेख नहीं करता.
यही नहीं, महायानी सूत्रों और आचार्यों का सम्मान भी तिब्बत में इस तरह किया जाता है जैसे वज्रयान को वे लोग किसी क्रमभंग की तरह नहीं, महायान की निरंतरता में ही देख रहे हों. गौतम बुद्ध के अलावा और किसी भी इंसान से ज्यादा कद्र वे पद्मसंभव की करते हैं, जिनकी पहचान चिंतक या साधक से ज्यादा दुष्ट आत्माओं को परास्त करने वाले एक चमत्कारी तांत्रिक जैसी थी. अपने जूते का तल्ला सामने किए बैठा, खुली आंखों ध्यान करता तगड़ा योगी.
तीन यानों के अलावा कुछ और ‘तीन’ के रास्ते पर वापस लौटें तो सबसे पहले त्रिपिटक, यानी तीन पिटारे. बुद्ध के समय में उनकी कही बातों का कोई संकलन मौजूद नहीं था. उनके करीबी लोग उनका कहा सुनते थे और याद रखते थे. किसी ने बुद्ध के सामने प्रस्ताव रखा कि यदि वे उचित समझें तो उनकी बातों को ‘छांदस’ रूप देकर आगे के लिए सुरक्षित कर लिया जाए. पाणिनीय व्याकरण पर आधारित संस्कृत भाषा का ढांचा खड़ा होने से पहले इसका प्रचलित नाम छांदस हुआ करता था. शायद इसलिए कि छंद रचने में इसका उपयोग ज्यादा होता था.
‘देववाणी’ या ‘छांदस’ जैसे नामों में जाहिर होने वाला भाषा का ‘ऊपर से उतारा गया रूप’ बुद्ध को ठगी जैसा ही लगता था. वे भाषा को व्यवहार से उपजी हुई, निरंतर बदलती रहने वाली चीज मानते थे. ऐसे में छांदस वाले प्रस्ताव के जवाब में उन्होंने कुछ ऐसा कहा कि उनकी बातों को किसी शुद्ध, शाश्वत रूप में संकलित रखना जरूरी नहीं है. कोई बात जिसे जितनी और जिस रूप में भी समझ में आए, उसको याद रखे और उसी ढंग से उसको आगे ले जाए.
तिब्बती इतिहासकार और धर्मगुरु लामा तारानाथ ने भारत में बौद्ध धर्म के इतिहास को लेकर अपने प्रतिष्ठित ग्रंथ ‘कार्य काम सर्व प्रवृत्ति नाम’ (किताब के तिब्बती से संस्कृत अनुवाद का शीर्षक, अंग्रेजी शीर्षक ‘हिस्ट्री ऑफ बुधिज्म इन इंडिया’) में बुद्ध की मृत्यु के कुछ समय बाद के माहौल का किंचित अतिरेकपूर्ण चित्र कुछ इस तरह खींचा है-
“तथागत और उनके दो शिष्य 1,68,000 अर्हतों के साथ शाश्वत निद्रा में चले गए और महाकाश्यप ने भी निर्वाण प्राप्त कर लिया तो हर कोई महादुःख में डूब गया. उन सभी भिक्षुओं ने, जो महान शिक्षक (गौतम बुद्ध) को व्यक्ति रूप में देख चुके थे, सोचा : ‘अपनी लापरवाही से ही हम बुद्ध के जीवनकाल में अर्हत होने से रह गए’ और उन्होंने स्वयं को पूरी तरह धर्म के लिए समर्पित करने का संकल्प लिया.… युवा भिक्षुओं ने, जो शिक्षक को व्यक्ति रूप में नहीं देख पाए थे, सोचा कि ‘हम धर्म का अभ्यास कर ही नहीं सकते, क्योंकि हमने तो शिक्षक को कभी देखा ही नहीं. अगर हम शासन के प्रति समर्पित नहीं होते तो हमारे राह भटक जाने की संभावना बहुत बढ़ जाएगी.’’
‘शासन’ शब्द यहां धर्म की व्यवस्था के लिए आया है. इस तिब्बती वर्णन में बुद्ध वचनों के संकलन की जरूरत जाहिर होती है लेकिन इस काम के लिए आयोजित प्रथम संगीति का लामा तारानाथ की किताब में कोई जिक्र नहीं आता. इसके विपरीत श्रीलंका में मौजूद थेरवादी विवरणों में मगध के राजा अजातशत्रु की देखरेख में हुई पहली बौद्ध संगीति के बारे में बताया गया है कि इसकी अध्यक्षता भंते महाकाश्यप ने की थी, जबकि भदंत आनंद ने इसमें सूत्रों की और भदंत उपालि ने विनय की आवृत्ति की, यानी बुद्ध की बातों को दोहराया.
बता दें कि आनंद सिद्धार्थ गौतम के चचेरे भाई थे जबकि उपालि एक नाई परिवार के कुलदीपक थे. थेरवाद से महायान-वज्रयान का एक बड़ा फर्क यह है कि महायानी-वज्रयानी दृष्टि से लिखे गए इतिहास में बुद्ध के परिनिर्वाण के तुरंत बाद धर्म के संरक्षण और विस्तार का सारा श्रेय उनकी कुल-परंपरा में आने वाले आनंद को ही दिया जाता है. महाकाश्यप को जिक्र भर से निपटा दिया जाता है, जबकि उपालि की कोई विशेष भूमिका नहीं बताई जाती. इस आधार पर थेरवाद के बाद आए बौद्ध यानों को कुलीनतावादी समझा जा सकता है. लेकिन ठहरकर देखें तो सामाजिक दुर्गुणों में तीनों यान किसी एक पहलू में औरों से पीछे हैं तो किसी और पहलू में बाकियों से आगे भी हैं.
खैर, ऊपर आई बातों का अर्थ समझने की ओर बढ़ें तो सूत्र यानी दार्शनिक कथन, और विनय यानी जीवन व्यवहार (मुख्यतः भिक्षुओं का). इस तरह बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद हुई पहली संगीति से निकले सुत्तपिटक और विनयपिटक नाम के दो पिटारों की बात समझ में आती है. हालांकि ये दोनों पिटारे भी उस समय शायद न बन पाए हों क्योंकि पांच सौ अर्हतों के उस पहले सम्मेलन, प्रथम संगीति में कुछ लिखने या बोलकर लिखाए जाने की कोई बात ही कहीं नहीं आती. आनंद और उपालि ने बुद्ध कथनों की आवृत्ति की, लेकिन इसके लिए उन्होंने पालि भाषा ही इस्तेमाल की थी, इसकी पुष्टि का भी कोई तरीका नहीं है. जाहिर है, यहां तक ‘त्रि-पिटक’ जैसा कुछ भी नहीं था.
लेकिन बुद्ध की मृत्यु के कोई ढाई सौ साल बाद, ईसा पूर्व सन 250 के आसपास सम्राट अशोक की देखरेख में जो दूसरी या तीसरी संगीति हुई उसमें विचार विमर्श के बाद न केवल सुत्त पिटक और विनय पिटक को अशोक की राज्यभाषा, पालि भाषा में लिखित रूप दिया गया, बल्कि ‘अभिधर्म पिटक’ नाम से धार्मिक विमर्श और धर्म से जुड़े आचार-विचार, निर्माण कार्य आदि से संबंधित नियमों और विमर्शों का एक अलग संकलन भी तैयार किया गया. यहां से बौद्ध धर्म के आधिकारिक स्रोत के रूप में त्रिपिटक का नाम सुनाई देने लगा. बौद्ध धर्म के अट्ठारह पंथ उस समय तक औपचारिक रूप से दर्ज किए जा चुके थे. इनमें कितने इस संगीति में शामिल हुए, कुछ पता नहीं. महायानी और वज्रयानी अशोक को थेरवादी बताते हैं और कहते हैं कि अन्य पंथों के वहां जाने का सवाल ही नहीं था.
कुषाण सम्राट कनिष्क की देखरेख में सन 72 ईसवी में कश्मीर में हुई अगली बौद्ध संगीति में कई बड़े बदलावों के साथ संस्कृत त्रिपिटक सामने आया, जो अभी अपने मूल रूप में विलुप्त हो चुका है. इसके बाद हर बौद्ध पंथ ही अपना अलग त्रिपिटक दिखाने लगा, जिसमें सबके विनय कुछ-कुछ अलग थे, लेकिन सबसे ज्यादा बदलाव अभिधर्म पिटक में हो रहे थे. सातवीं सदी ईसवी में चीनी भिक्षु ह्वेनसांग के भारत आने तक कई पंथ विलुप्त हो चुके थे, फिर भी अपनी लंबी भारत यात्रा के बाद वे स्वदेश लौटे तो सात बिल्कुल अलग-अलग त्रिपिटक यहां से लेकर गए.
संशोधन या बदलाव |
ध्यान रहे, त्रिपिटक किसी छोटे-मोटे संकलन का नाम नहीं है. लघुतम आकार वाले पालि त्रिपिटक में भी ठीक-ठाक मोटे 32 ग्रंथ समाहित हैं. अभी दुनिया में तीन त्रिपिटकों की नियमित देख-रेख की जाती है और जरूरी होने पर उनमें संशोधन या बदलाव भी किए जाते हैं. पालि त्रिपिटक के मामले में यह जिम्मेदारी श्रीलंका, म्यांमार और थाईलैंड उठाते हैं और यह थेरवादी मान्यताओं के अनुरूप है. महायानी मान्यताओं के अनुरूप तैयार कराए गए चीनी त्रिपिटक की देखरेख अभी मुख्यतः कोरियाई और जापानी धर्मसंघ प्रायः अपनी-अपनी भाषाओं में हुए अनुवादों के रूप में करते हैं. तीसरे, यानी वज्रयानी मान्यताओं वाले त्रिपिटक का संरक्षण तिब्बती भाषा में तिब्बत के सारे पंथ मिल-जुलकर किया करते हैं, और यह काम अभी संभवतः भारत में ही हो रहा है.
इन त्रिपिटकों में कई चीजें साझा हैं लेकिन कुछ एक-दूसरे से बिल्कुल अलग भी हैं. तिब्बत में भिक्षुओं के लिए विधि-निषेध श्रीलंका के भिक्षुओं से एकदम अलहदा हैं. हालांकि अलग-अलग भूगोल में अवस्थित होने के कारण तीनों पंथों के बीच सांप्रदायिक टकराव जैसी स्थिति कभी नहीं बनती. इसके उलट, वज्रयान और डॉ. आंबेडकर की पहल पर भारत में शुरू हुए नवयान के बीच बहुत दूरी होने के बावजूद उनके बीच कामचलाऊ संवाद है और निर्वासित तिब्बती सरकार यह काम आधिकारिक रूप से भी करती है.
महाबोधि सोसाइटी जैसे आधुनिक संगठन तीनों पंथों के बीच पुल की भूमिका निभाते हैं. जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे की मदद की परंपरा पहले से भी रही है. जैसे, ईसा की पांचवीं सदी में चीन में भिक्षुणियों का संघ स्थापित हुआ तो इसके लिए श्रीलंका से आठ भिक्षुणियां वहां गईं. श्रीलंका और चीन की बौद्ध संस्कृति शुरू से ही एक-दूसरे से बहुत अलग रही है, लेकिन चीन में भिक्षुणियों का संघ बनाने का प्रस्ताव आया तो पता चला कि श्रीलंका के अलावा और कहीं ऐसा कोई संघ था ही नहीं. बुद्ध ने भिक्षुओं का संघ गठित करने के छह साल बाद काफी हिचक के साथ भिक्षुणियों का संघ बनाने की पहल की थी, लेकिन श्रीलंका और अन्य देशों में इसका विकास होता रहा, जबकि भारत में यह परंपरा पांच सौ साल में ही, मोटे तौर पर कहें तो महायान शुरू होने के साथ ही समाप्त हो गई.
एक मामला तीन अलग-अलग कालों का भी है, जिसकी चर्चा सबसे ज्यादा जापान में होती है. ‘महासन्निपात सूत्र’ के अनुसार गौतम बुद्ध के समय के एक हजार साल बाद तक का दौर सद्धर्म का है. यानी इस अवधि में बुद्ध के शिष्य उनके उपदेशों को संभाले रखते हैं. दूसरा एक हजार वर्ष का समय प्रतीक धर्म का है, जिसमें सद्धर्म केवल प्रतीक रूप में मौजूद होता है. इसके बाद के दस हजार वर्ष पतन के हैं, जिसके बाद मैत्रेय बुद्ध आकर धर्म को संभालेंगे.
कैसी-कैसी शक्लों वाला धर्म |
समय के साथ बुद्ध के धर्म में आए इतने सारे बदलावों में कुछ ऐसे भी हैं, जिनसे लड़ने और सिरे से खारिज करने के क्रम में ही इस धर्म की नींव पड़ी थी. बिना सिर-पैर के चमत्कारिक दावे, मंत्र-तंत्र, शराब और दूसरे नशे, चरम भोग, यहां तक कि सांप्रदायिक हिंसा-विद्वेष भी. कुछ बौद्ध इसको अपने धर्म के पतन की तरह देखते हैं तो कुछ इसे उसका स्वाभाविक विकास मानते हैं. दुनियावी रहन-सहन की दृष्टि से हम आगे इन बदलावों को देखेंगे तो पता चलेगा कि इनमें किसी को भी नजदीक से परखे बगैर उसे सिरे से खारिज करने का मतलब होगा, बौद्ध धर्म को इसकी किसी न किसी अहम शाखा से वंचित कर देना. लेकिन गलत-सही का फर्क फिर भी करना होगा.
अपने दौर पर ही नजर डालें तो श्रीलंका में लिट्टे की बगावत का एक धार्मिक पहलू भी था. इसमें कोई शक नहीं कि सिंहली-तमिल टकराव एक दुखद इतिहास की देन है. भारत के कई राजवंशों ने श्रीलंका पर हमले किए और लड़ाई के दौरान वहां के बौद्ध स्थलों को क्षतिग्रस्त कर दिया. फिर अंग्रेजी राज ने भी वहां धार्मिक और जातीय समुदायों को कम या ज्यादा तवज्जोह देकर विद्वेष का माहौल बनाया. लेकिन महायान और वज्रयान को श्रीलंका में जड़ से खत्म कर देने और विशुद्ध थेरवाद को ही वहां का सरकारी धर्म बनाने की पहल तो वहां धार्मिक ढांचे के भीतर से ही शुरू हुई थी. बारहवीं सदी में राजा पराक्रमबाहु प्रथम ने जो खांटी थेरवाद वहां स्थापित किया, उसमें अन्य बौद्ध पंथों से संवाद के लिए ही कोई जगह नहीं थी. ऐसे में अ-बौद्ध जनता के प्रति करुणा और लगाव कहां से आ सकता था?
कमोबेश यही स्थिति म्यांमार (बर्मा) की भी है. थेरवाद का किताबी रूप साधने की फिक्र अब से आठ सौ साल पहले वहां भी थोड़ा आगे या पीछे श्रीलंका के साथ ही देखी गई थी. अभी पिछले दसेक वर्षों में पश्चिमी बर्मा के निवासी रोहिंगिया समुदाय की ओर से किसने, क्या गलती की, यह किस्सा हम फिलहाल छोड़ देते हैं. सन 2002 से अमेरिका का ‘आतंक विरोधी युद्ध’ शुरू होने के बाद से सांप्रदायिक घृणा से बजबजाती कहानियां दुनिया के किस हिस्से में सुनने को नहीं मिलतीं? लेकिन किसी भयभीत जन समुदाय पर हमले के लिए देश की बहुसंख्यक भीड़ को उकसाने, उसकी बस्तियां जलाने में किसी चीवरधारी बौद्ध भिक्षु का नाम आए, इस तरह के आगलगाऊ भाषणों के वीडियो पूरी दुनिया में घूमते फिरें, ऐसी कल्पना बुद्ध के धर्म को लेकर तो किसी ने सपने में भी नहीं की होगी.
इक्कीसवीं सदी में बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा जागरण बर्मा में ही माना जाता रहा है. 1954 से 1956 तक वहां छठवीं (कुछ बौद्ध समुदायों के मुताबिक दसवीं) धर्म संगीति का आयोजन हुआ था, जिसमें डॉ. भीमराव आंबेडकर के अलावा तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी भागीदारी की थी. ढाई हजार साल पुराने इस धर्म के लंबे रास्ते में वह वाकई एक ऐतिहासिक घटना थी. भारत के बौद्ध स्थलों पर उसका असर आज भी दिखाई देता है.
सवाल यह है कि बर्मा के समाज पर और वहां के धर्म पर इसका कैसा प्रभाव देखने को मिला? कोई गर्व से कह सकता है कि म्यांमार के भिक्षुओं ने वहां सैनिक जुंटा के खिलाफ लोकतंत्र की लड़ाई लड़ते हुए सीने पर गोली खाई है. लेकिन पश्चिमी बर्मा की धार्मिक बर्बरता को भी दुनिया उसके बौद्ध जागरण के एक नतीजे की तरह ही देखती है.
यहां एक और बात स्पष्ट कर देना जरूरी है. अभी थेरवाद की जो छवि श्रीलंका और म्यांमार से निकलकर हम तक और पूरी दुनिया में पहुंच रही है, हमेशा यह वैसी ही नहीं रही. बर्मा में ग्यारहवीं सदी में राजा अनव्रहत (अनिरुद्ध) और उनके थोड़े ही समय बाद श्रीलंका में पराक्रमबाहु प्रथम ने थेरवाद का जो स्वरूप निर्मित किया, वह पांचवीं सदी में इस पंथ के सबसे बड़े आचार्य बुद्धघोष के ग्रंथ ‘विसुद्धमग्ग’ (विशुद्धमार्ग) से कुछ मामलों में अलग है, हालांकि त्रिपिटक के बाद पंथ का मुख्य ग्रंथ आज भी वही है.
बुद्धघोष ने अलग-अलग मनःस्थिति वाले लोगों के लिए अलग-अलग ध्यान पद्धतियों की बात की है और इसके लिए बुद्ध का ही हवाला दिया है. मसलन, जो भिक्षु ‘काम’ से जुड़े मनोविकारों को अपने लिए सबसे बड़ी समस्या मानते हैं, उनके लिए फूली हुई, नीली पड़ी, कटी-फटी या सड़ती हुई लाश पर ध्यान केंद्रित करने का नुस्खा बताया गया है. लोगबाग ऐसी युक्तियों को थेरवाद से नहीं, औघड़ साधकों से ही जोड़कर देख पाते हैं.
रही बात मध्यकालीन अतीत की तो उसका जिक्र पहले ही आ चुका है. कई वज्रयानी पटचित्र ऐसे हैं जिन्हें परिवार के साथ क्या, दोस्तों के साथ भी नहीं देखा जा सकता. कोई इसे पारंपरिक गृहस्थ दृष्टि या घरबारू नैतिकता की सीमा मान सकता है. लेकिन बुद्ध के विमर्शों में या उनसे जुड़ी शुरुआती मूर्तिकला में ‘काम’ या ‘मार’ का कोई प्रतीक कहीं भी ऐसी शक्ल में नहीं आया है कि आप सबके सामने उसको देखने से कतराएं और छिपकर उसे देखने के लिए आकर्षित हों. हर जगह ‘मार’ की शक्ल क्रुद्ध और भयावह है. कोई ऐसी शक्ति जिसे बुद्ध या बोधिसत्व अपने संकल्प से परास्त करने में जुटे हैं, या उसकी सारी कूद-फांद के बावजूद उसे अप्रासंगिक बना देना चाहते हैं.
वज्रयान की साधना में दिखने वाले सुपरिचित ‘काम’ को देखकर या तो हम पतन का नतीजा निकाल लें, या मानकर चलें कि वह वाकई साधकों के गुप्त दायरे की चीज है, सामान्य उपासकों की पहुंच से उसे बाहर ही रखा जाता होगा.
बहरहाल, इतने बड़े बदलावों के बीच भी दो सनातनी विशेषताएं संसार में कहीं भी मिलने वाली बौद्ध धर्म की किसी भी शाखा में कभी समाहित नहीं की जा सकीं.
- जन्म के आधार पर किसी को अपने लिए सदा-सर्वदा पराया समझ लेना, पारिभाषिक रूप में कहें तो नस्लवाद, और
- जाति/वर्णवाद, यानी जन्म के ही आधार पर किसी का पूरा जीवन निर्धारित करना, एक को ऊंचा और दूसरे को नीचा समझना.
ये दोनों बातें वैदिक या सनातन धर्म का आधार रही हैं. आधुनिक युग में डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इसे स्पष्ट चिह्नित किया. लेकिन बौद्धों के बीच ऐसी एक समझ उनके समूचे इतिहास में बनी रही और वर्ण-जाति की यह ‘पवित्र बीमारी’ अपने भीतर उन्होंने कभी नहीं पनपने दी.
अंत्यज, म्लेच्छ और ब्रात्य |
एक्सक्लूजन भारत के पारंपरिक धर्म की सबसे बड़ी विशिष्टता है. कुछ लोग इसे यहूदी धर्म के समतुल्य मानते हैं, पर इस प्रस्थापना को आधी ही ठीक समझा जा सकता है. यहूदी खुद को ‘हाम हनिह्वार’ समझते रहे हैं. ‘चोजन पीपल’, ‘चुनी हुई कौम’. दुनिया को वे यहूदी और गैर-यहूदी में बांटकर देखते आए हैं. यहूदी पैदा होता है, किसी गैर-यहूदी को यहूदी बनाया नहीं जा सकता, ऐसी धारणा भी वहां सुनने में आती है. नाजीवाद का शिकार होने के बाद अपनी श्रेष्ठता का बखान वे इस तरह नहीं करते लेकिन सबसे अमीर और अक्लमंद खुद को अब भी जताते हैं.
लेकिन कोई ऊंचा यहूदी है और कोई नीचा; कोई सिर्फ नाम का यहूदी है, फिर भी यहूदी धर्म से बाहर जाने, कोई दूसरा धर्म अपनाने या वहां जीवनसाथी चुनने पर उसे दंडित किया जा सकता है, ऐसी सोच वहां कभी नहीं देखी गई.
भीतर से बाहर तक ऊंच-नीच और परायापन संसार में केवल भारत के वैदिक/ सनातन/ मनुवादी/ ब्राह्मण धर्म की ही खासियत रही है. वैदिक काल की बात करें तो रंग-रूप में बिल्कुल अपने जैसे न दिखने वाले लोग दस्यु, दास, दानव, दैत्य आदि समझे जाते थे. इस श्रेणी में द्रविड़ जातियों के लोग भी थे और वे भी, जिन्हें अभी आदिवासी कहने का चलन है. इनसे जरा अलग श्रेणी यक्ष, गंधर्व, नाग और किरात आदि की थी, जो माने तो अलग ही जाते थे लेकिन दुर्गम वनों और पहाड़ों के निवासी होने के कारण दैत्य-दानव जैसा स्थायी भय या घृणा उनके साथ नहीं जुड़ी थी.
वैदिक सभ्यता का वह शुरुआती दौर खत्म हुआ तो अशुद्ध भाषा बोलने वाले ‘म्लेच्छों’ की एक बहुत बड़ी पांत खड़ी कर दी गई. एक शास्त्रीय भाषा के रूप में संस्कृत का ढांचा पेशावर के निवासी पाणिनि का रचा हुआ है. लेकिन इस शहर से बमुश्किल एक हजार किलोमीटर उत्तर में रहने वाले लोग खराब भाषा के आधार पर म्लेच्छ घोषित कर दिए गए. महाकाव्य महाभारत में तुषार क्षेत्र (अभी अफगानिस्तान, ताजिकिस्तान और कजाखिस्तान में पड़ने वाली पामीर पर्वत श्रृंखला की विशाल घाटी ‘तोखारिस्तान’) के योद्धाओं के बारे में कहा गया है कि मनु के पांचवें बेटे अनु की संतति होने के कारण वे ‘आनव’ कहलाते थे, लेकिन अशुद्ध भाषा बोलने की वजह से म्लेच्छों की श्रेणी में आते थे.
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के राज-ज्योतिषी वराहमिहिर की एक उक्ति के दुनिया भर में बड़े गुन गाए जाते हैं- ‘यवन (यूनानी) लोग म्लेच्छ हैं, पर उनमें इस (ज्योतिष) शास्त्र का ज्ञान है, इस कारण वे ऋषियों की तरह पूजे जाते हैं.’ निश्चित रूप से यह उनकी उदारता है, क्योंकि इतनी इज्जत किसी और म्लेच्छ को कहीं मिलती नहीं दिखाई देती.
इन पराये लोगों को एक तरफ रख दें तो ‘परम पुरुष’ के मुख, छाती, जंघा और पैरों से जन्मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के अलावा अपने भीतर ही एक बहुत बड़ी जमात ‘अंत्यजों’ की चली आ रही है, जिन्हें ‘पंचम वर्ण’ कहना भी एक किस्म की रियायत समझा जाता रहा है. सन 1234 में तीर्थयात्रा के लिए मगध आए बौद्ध भिक्षु धर्मस्वामी अपने शिष्य की लिखी जीवनी में यहां का तजुर्बा बताते हैं कि अगर आप नदी में डूब रहे हों तो नीची जाति वाला कोई व्यक्ति छू जाने के भय से आपको बचाने नहीं आएगा, और खाना खाते वक्त वह दिखाई पड़ जाए तो उसे ‘दूरम् गच्छ’ कहना जरूरी है. अब से आठ सदी पहले का यह लोकाचार वे कुछ कड़वे अनुभवों के बाद ही सीख पाए थे.
आगे बढ़ें तो ‘बाहरी’ और ‘भीतरी’ के बीच अपने यहां एक और श्रेणी ‘ब्रात्यों’ की भी रही है. ऐसे समुदायों की, जो वर्ण और जाति की सनातनी सामाजिक संस्थाओं को या तो बिल्कुल नहीं मानते थे, या किसी मामले में उनके लिए निर्धारित नियमों का उल्लंघन कर चुके होते थे. विशाल आबादी वाले ये जन समुदाय एक समय भारत में बौद्ध धर्म की रीढ़ हुआ करते थे, लेकिन तेरहवीं सदी में यहां इस धर्म का विलोप हो जाने के बाद से वे जाति व्यवस्था में अपनी जगह ढूंढते आ रहे हैं. यह प्रायः नीचे ही रहती है लेकिन कभी किसी जुगाड़ से ऊपर भी हो जाती है. इस किताब में भारत और नेपाल के ऐसे कुछ समुदायों की खोजबीन की गई है, हालांकि अभी वे खुद को पक्का सनातनी मानते हैं.
एक बहुत दिलचस्प उदाहरण असंग और वसुबंधु का है- पचास साल से ज्यादा समय तक एक के बाद एक नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति रहे दो सहोदर भाइयों का. उनका जन्म गांधार क्षेत्र में ईसा की पांचवीं सदी में हुआ था. एक ही मां लेकिन दो पिताओं की संतान. एक के पिता क्षत्रिय, दूसरे के ब्राह्मण. अभी के अमेरिका में यह सामान्य बात समझी जाएगी. जैसी एक पिता और दो मांओं की संतानें, वैसी ही एक मां और दो पिताओं की संतानें. उनका आपसी रिश्ता वहां ‘हाफ सिबलिंग’ का होता है और जब-तब उनमें खूब प्यार भी दिखता है.
भारतीय संस्कृति में एक पिता और दो मांओं की संतानें सामान्य समझी जाती रही हैं. राम-लक्ष्मण की मिसाल हर जगह भ्रातृ प्रेम के लिए दी जाती है. दोनों के पिता दशरथ लेकिन एक की मां कौशल्या, दूसरे की सुमित्रा. बहरहाल, महाभारत में विवाह-पूर्व की एक मिथकीय कहानी से निकले कुंती-माद्री के पांच देवपुत्रों को दैवी कथा मान लें तो एक मां और दो पिताओं की संतानों का सम्मानित उदाहरण मुझे इन दो बौद्ध आचार्यों में ही देखने को मिलता है.
पटिच्च समुप्पाद का खुलापन |
बुद्ध का धर्म जन्म के आधार पर मनुष्यों के बीच किसी तरह के स्थायी श्रेणीकरण और उनके कुछ-कुछ हिस्सों के बहिष्करण में बिल्कुल यकीन नहीं करता था तो इसे सिर्फ ‘गौतम बुद्ध की करुणा’ के खाते में डालकर छोड़ नहीं दिया जाना चाहिए. करुणा अंततः एक व्यक्तिगत गुण है. बुद्ध के अनुयायियों में यह गुण कहीं उनसे कम तो कहीं ज्यादा भी दिखता रहा होगा. आधी दुनिया में करोड़ों की तादाद में फैले एक धार्मिक समुदाय से करुणा के किसी मानक स्तर की अपेक्षा नहीं की जा सकती. हकीकत यही समझ में आती है कि सामाजिक श्रेणीकरण और बहिष्करण के लिए बौद्ध धर्म के बुनियादी दर्शन में ही कहीं कोई जगह नहीं थी.
यह इस धर्म की आंतरिक शक्ति ही है कि श्रीलंका, म्यांमार, थाईलैंड, लाओस से लेकर चीन, तिब्बत, कोरिया, जापान, विएतनाम और कंबोडिया तक सारी उथल-पुथल के बावजूद इस धर्म के ढांचे में कहीं भी जाति या वर्ण जैसी व्यवस्था नहीं बनाई जा सकी. बौद्ध धर्म के बुनियादी दर्शन को हम पालि में ‘पटिच्च समुप्पाद’, संस्कृत में ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ और अंग्रेजी में ‘डिपेंडेंट अराइजिंग’ के नाम से जानते हैं. सुनने में एक कठिन शब्द युग्म लगने के बावजूद यह एक सीधी-सादी अवधारणा है. यह कि हर चीज का उदय अन्य चीजों से होता है.
प्रकट होने या आकाश से उतारी जाने जैसी कोई क्रिया किसी भी चीज के साथ घटित नहीं होती, चाहे वह वर्ण-जाति हो, या देवी-देवता, या भाषा-संगीत या कुछ और. यह भी कि शाश्वत-सनातन जैसा कुछ नहीं होता. हर चीज बाकी चीजों से प्रभावित होती है और उन्हें प्रभावित करती भी है. इस प्रक्रिया में समय बीतने के साथ वह बिल्कुल बदल जाती है. यूं कहें कि पैदा होती है और मर जाती है. इस दर्शन का दूसरा बीज शब्द ‘अनत्त’ या ‘अनात्म’ है, जिसकी व्युत्पत्ति ‘प्रतीत्य समुत्पाद’ से की जा सकती है. यह कि बाकी चीजों की तरह इंसान भी एक बदलती हुई चीज है.
पैदा होते समय भीतर आ जाने वाली और मरते समय बाहर निकल जाने वाली आत्मा जैसी कोई चीज होती ही नहीं. इस एक प्रस्थापना से ‘पिंडदान’ से जुड़ी ‘वर्णसंकर’ जैसी समस्याएं समाप्त हो गईं, जो गीता में इतनी जगह घेरती हैं!
जैसा कि हम जानते हैं, ऋग्वेद के दशम मंडल में आया पुरुष सूक्त सूर्य-चंद्रमा और प्रकृति की बाकी चीजों के अलावा चारों वर्णों को भी अजन्मा-अविनाशी परम पुरुष से उत्पन्न बताता है. वेदों को मानने वाली कोई भी धारा उत्पत्ति की इस बुनियादी धारणा के खिलाफ नहीं जाती. फिर चाहे वह स्वयं ईश्वर के मुंह से निकली श्रीमद्भवद्गीता हो (‘चातुर्वर्णम् मया सृष्टम् गुणकर्मविभागशः’ – विराट रूपधारी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘चारों वर्ण अपने-अपने गुण, कर्म और कार्य-विभाजन के अनुसार मेरे ही द्वारा रचे गए हैं’) या फिर ‘ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या’ कहकर केवल ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या/माया बताने वाला शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत.
चाहें तो कह सकते हैं कि बौद्ध धर्म और सनातन धर्म में पिछले ढाई हजार वर्षों में आए तमाम बदलावों के बावजूद उन्हें परस्पर अलग और विरोधी खेमों में बांटकर रखने वाली यह एक ऐसी साफ, चमकीली रेखा है, जिसका तीखापन समय बीतने के बावजूद ज्यादा नरम नहीं पड़ा है.
बुद्ध के धर्म के शुरुआती तीन सौ वर्षों में उसके खुले नजरिये के चलते ही बड़ी तादाद में यूनानी इसमें शामिल हुए. दर्शनशास्त्र की छोटी सी लेकिन अत्यंत गहरी पुस्तक ‘मिलिंद पह्न’ (मिलिंद प्रश्न) दूसरी सदी ईसा पूर्व में शागल (मौजूद स्यालकोट) पर राज करने वाले ग्रीक राजा मिनांडर (मिलिंद) और भिक्षु नागसेन के बीच दर्शन के कुछ बुनियादी सवालों पर हुई लंबी बातचीत पर आधारित है. फिर चीन से निकली यूची जाति का सम्राट कनिष्क इस धर्म में आया, जिसकी राजधानियां मथुरा और पेशावर में थीं लेकिन जिसका राज पूरब में सीरिया तक और उत्तर में मंगोलिया से सटे चीन के कांसू प्रांत तक जाता था.
अफगानिस्तान, उत्तरी ईरान और चीनी तुर्किस्तान सैकड़ों साल तक इस धर्म के सघन क्षेत्रों के रूप में स्थापित रहे. मौजूदा चीन से कहीं बड़े इलाके पर शासन करने वाला मंगोल सम्राट कुबलाई खां अशोक और कनिष्क के बाद बौद्ध धर्म से जुड़ा तीसरा सबसे प्रतापी राजा बना. प्राचीन भारत की विश्वव्यापी महिमा काफी कुछ इसी धर्म से आई है. फिर भी गजब पहेली है कि भारत से यह इस तरह गायब हुआ कि छह सौ साल लोग इसका नाम ही भूल गए!
चंद्रभूषण (जन्म: 18 मई 1964) शुरुआती पढ़ाई आजमगढ़ में, ऊंची पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में. विशेष रुचि- सभ्यता-संस्कृति और विज्ञान-पर्यावरण. सहज आकर्षण- खेल और गणित. 12 साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहकर प्रोफेशनल पत्रकारिता. अंतिम ठिकाना नवभारत टाइम्स. ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियां’ प्रेस में. पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’ प्रकाशनाधीन. भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर एक मोटी किताब पर चल रहा काम अभी-अभी पूरा हुआ है. |
चंद्रभूषण जी दार्शनिक गुत्थियों को उसके इतिहास और वर्तमान में रखकर एक शानदार विश्लेषण पाठकों के सामने सहज भाषा में रखकर उसे स्वतंत्र रूप से सोचने के लिए आजाद छोड़ते हैं।
बोद्ध धर्म के विस्तार और विकास से लेकर के बारे में बात रखते हुए भारत में उसके बारे में भ्रांत धारणाओं का यह आलेख सहज ही समाधान करता है।
इसे पढ़ते हुए यह भी ध्यान गया इस समय बहुमत का तथाकथित बाह्य दर्शनों/धर्मों से ही नहीं खुद भारतीय मूल के जैन और बोद्ध धर्म से भी बहुत कम संवाद हो रहा है। भले ही शाकाहार जैसी कुछ मान्यताओं में जैन और वैष्णव साथ खड़े दिखते हैं परंतु विमर्श और संवाद नहीं दिखाई देता। यह संवाद और कठिन हो जाता है जब बहुधा जैन अपने को हिन्दू कहने लगते हैं।
अनेक नई जानकारियों देता हुआ अत्यंत महत्वपूर्ण आलेख है. बौद्ध धर्म और जैन धर्म, दोनों अपनी धार खो चुके हैं. केवल कर्म कांड हावी है .
चंद्र भूषण जी के बौद्ध धर्म पर लिखे गए इस लेख को पढ कर अनेक भ्रांत अव धारणाओं का शमन हो जाता है.इतने शोध, अनु संधान के साथ गहन चिंतन मनन से लिखे गए लेख के लिए चंद्र भूषण जी को बधाई, धन्यवाद और सुलभ करवाने के लिए आपका आभार
कितनी ही नयी जानकारियों से भरे इस गहन आलेख के लिए चंद्रभूषण जी को अनेकशः धन्यवाद।
ये लेख नहीं पूरा का पूरा ग्रंथ है। जितना रोचक है, उतना ही इसको पढ़ने में मुझे समय लगा। बार बार पढ़ा। ये लेख मुझे लगता है,मैने पहले किसी पत्रिका में पढ़ा है।पर इतना विस्तार से नहीं। या बीच में छूट गया हो।कुछ जानकारियां मेरे लिए बिल्कुल नई हैं। हालांकि मैं बौद्ध धर्म से संबंधित सामग्री जिज्ञासा के तहत पढ़ती रहती हूं।पर ये जानकर आश्चर्य हुआ कि ये इतनी जल्दी भारत से कैसे लुप्तप्राय सा हो गया। किसी षडयंत्र के कारण तो ऐसा नहीं हुआ? ख़ैर कुछ सवाल हर बार रह जाते हैं।चंद्रभूषण जी का आभार ।उनके लेख से कुछ जिज्ञासाएं मेरी अवश्य तृप्त हुई हैं। बढ़िया विश्लेषण।अरुण जी शुक्रिया🙏
यह सही है कि जैन धर्म ने वैदिकों के साथ बीच बचाव का रास्ता ( मध्य मार्ग) अपनाकर अपने आप को बचा लिया. जैनों ने भीषणतम हिंसा का सामना किया है. जैन धर्मावलम्बियों की संख्या भले ही अब बहुत कम ( 0.48%) रह गई है पर उन्होंने अपने साहित्य और धर्मायतनों को काफ़ी हद तक बचा लिया है. अन्यथा हिंदू विद्वान और अध्येता जैन विद्या की उपेक्षा ही करते हैं. बौद्ध परम्परा का जितना अध्ययन और शोध होता है उसका दशांंश भी जैन परम्परा ( इतिहास, साहित्य ,दर्शन आदि) का नहीं होता. विद्वानों को इस ओर ध्यान देना चाहिए !
नरेश जी, यदि कर्मकांड श्रमण धर्मों का शेष -अवशेष है तो यह
सबसे ज्यादा हिन्दू धर्म (ब्राह्मण धर्म) में है, फिर वह क्यों विस्तारित होता जा रहा है?
नरेश जैन जी, इसमें कोई संदेह नहीं है कि सबसे प्राचीन जैन धर्म
को शैवों-शाक्तों की हिंसा का सर्वाधिक सामना करना पड़ा है।
भारत में धार्मिक हिंसा प्रभावी रही है।
बहुत ही सुन्दर , विस्तृत और सारगर्भित जानकारी। आपके आलेख को पढ़ समझकर ऐसा लगता है, कि एक सभ्य मुनष्य होने के लिए या बनने के लिए स्वतंत्र सोंच के साथ मैत्रीपूर्वक, लोकतांत्रिक तरीके से मनुष्यता के गुणों को बढ़ाना चाहिए और व्यवहारिक समानता ,सम्मान और बंधुत्व को आमजन मानस में स्थापित करना चाहिए, जन्म अथवा पेशा आधारित वर्ण व जाति व्यवस्था एक उत्कृष्ट समाज की संरचना में बहुत बड़ी बाधा है, प्रत्येक धर्म के अच्छे गुणों को समाहित करना चाहिए, अगर हम वसुधैव कुटुंबकम् की बात करते हैं तो भावी पीढ़ी के बेहतर भविष्य के लिए हमें मानवीय मूल्यों, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देना ही होगा।