किताबों की दुनिया और जवाहरलाल नेहरू
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भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की तमाम विशिष्टताओं में से एक बात जो उल्लेखनीय रही है, वह है राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व की अध्ययनशीलता. गहन अध्ययनशीलता और किताबों की दुनिया से गहरे लगाव की यह प्रवृत्ति भारतीय नवजागरण के अग्रदूत राजा राममोहन राय से ही आरम्भ हो जाती है. आगे चलकर तो राष्ट्रवादी नेतृत्व में अध्ययनशीलता की यह प्रवृत्ति इस क़दर परवान चढ़ी कि जेल-यात्राओं के दौरान भी उनके पढ़ने-लिखने का सिलसिला तमाम व्यवधानों के बावजूद जारी रहा. उल्लेखनीय है कि लोकमान्य तिलक कृत ‘गीता रहस्य’, भगत सिंह का प्रसिद्ध लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ और नेहरू की प्रसिद्ध किताब ‘डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ जेल-यात्राओं के दौरान ही लिखी गई थीं. यही नहीं भारत के राष्ट्रवादी नेतृत्व ने पुस्तक-संस्कृति के प्रसार की दिशा में भी हरसंभव प्रयास किए. लाला लाजपत राय सरीखे नेताओं ने लाइब्रेरियाँ तो स्थापित कीं ही, साथ ही लाहौर जैसे शहरों में स्टडी सर्किल भी चलाए. आचार्य नरेंद्र देव जैसे समाजवादी विचारक ने जेल में रहते हुए ‘अभिधर्मकोश’ का अनुवाद और सम्पादन किया था. ऐसे पुस्तक-प्रेमी भारतीय नेताओं में जवाहरलाल नेहरू का नाम अग्रणी है. किताबों की आत्मीयता और प्रकृति के साहचर्य से नेहरू जेल की कोठरी के एकाकीपन को भरते थे. जेलों में बंद रहने के दौरान बेटी इंदिरा को लिखे उनके पत्र इतिहास और विश्व साहित्य के कालजयी ग्रंथ (‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ और ‘विश्व इतिहास की झलक’) बन चुके हैं. जवाहरलाल नेहरू न केवल ख़ुद किताबों की दुनिया में गहरी दिलचस्पी रखते थे, बल्कि बतौर प्रधानमंत्री उन्होंने भारत में पुस्तक-संस्कृति के प्रचार-प्रसार की दिशा में हरसंभव योगदान दिया.
भारतीय पुस्तकालय और नेहरू
स्वाधीन भारत में साक्षरता के प्रसार पर ज़ोर देने के साथ ही नेहरू ने पुस्तकालयों के महत्त्व को भी बख़ूबी समझा था. यही वजह थी कि वे भारत के लाखों गाँवों और शहरों-क़स्बों के लिए छोटे-बड़े पुस्तकालयों के महत्त्व पर ज़ोर देते रहे. उल्लेखनीय है कि मार्च 1959 में मुंबई स्थित मराठी ग्रंथ संग्रहालय के लिए नए भवन की आधारशिला रखते हुए नेहरू ने पुस्तकालयों के महत्त्व को रेखांकित किया था. वर्ष 1898 में स्थापित मुंबई मराठी ग्रंथ संग्रहालय का अपना गौरवशाली अतीत रहा था. जिससे लोकमान्य तिलक, महादेव गोविंद रानाडे और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे राष्ट्रवादी नेता सम्बद्ध रहे थे. नेहरू ने वहाँ दिए अपने भाषण में शिक्षित भारतीयों की संख्या लगातार बढ़ने का ज़िक्र करते हुए पुस्तकालयों की आवश्यकता पर ज़ोर दिया. ताकि पढ़े-लिखे भारतीयों की पहुँच किताबों और ऐसे पुस्तकालय तक हो, जिनमें किताबों का बढ़िया संग्रह हो. मराठी ग्रंथ संग्रहालय के पुस्तक-संग्रह को सराहने के साथ ही नेहरू ने सुझाव दिया कि इसकी शाखाएँ महानगर के हर इलाक़े में खुलनी चाहिए. इस संदर्भ में, नेहरू ने यूरोप की पुस्तकालय संस्कृति का उदाहरण दिया और ऐसे पुस्तकालय स्थापित करने पर ज़ोर दिया जहाँ पाठक किताबें, पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ सकें.
1959 के आख़िर में जब नेहरू इलाहाबाद में थे, तब इलाहाबाद के कुछ नागरिकों ने उनसे इलाहाबाद पब्लिक लाइब्रेरी की ख़राब हालत की शिकायत की थी. ग़ौरतलब है कि इलाहाबाद पब्लिक लाइब्रेरी की स्थापना वर्ष 1864 में हुई थी और यह उत्तर भारत के सबसे पुराने पुस्तकालयों में से एक है. उस प्रतिनिधिमंडल में प्रोफ़ेसर एस.सी. देव भी शामिल थे, जो इलाहाबाद पब्लिक लाइब्रेरी के मानद सचिव थे. उन्होंने नेहरू को एक योजना का प्रस्ताव भी दिया, जिसमें लाइब्रेरी के पुनरुद्धार का खाका भी शामिल था. नेहरू ने 25 दिसम्बर 1959 को इलाहाबाद से ही शिक्षा राज्य मंत्री के.एल. श्रीमाली को पत्र लिखा और उन्हें इसकी जानकारी दी.[1] नेहरू ने उस ख़त में लिखा कि
ऐसे गौरवशाली अतीत वाले पुस्तकालय का इस तरह नष्ट होना दुखद है. हमें इसका पुनरुद्धार करना ही होगा. और यह सिर्फ़ इमारतों से नहीं होने वाला. इमारतें ज़रूरी हैं, मगर सबसे ज़्यादा ज़रूरी हैं किताबें, उपकरण और लाइब्रेरी के कर्मचारी. नेहरू ने यह भी लिखा कि लाइब्रेरियन और लाइब्रेरी के कर्मचारियों का वेतन भी बहुत कम है, जिस पर विचार करना होगा.
वर्ष 1961 के आख़िरी दिनों में नेहरू इलाहाबाद पब्लिक लाइब्रेरी गए. जहाँ लाइब्रेरी की बुरी स्थिति देखकर नेहरू ने शिक्षा मंत्री के.एल. श्रीमाली और वैज्ञानिक अनुसंधान व सांस्कृतिक मामलों के मंत्री हुमायूँ कबीर को इस संदर्भ में पत्र लिखा. नेहरू ने लिखा कि
‘इस लाइब्रेरी की स्थिति अत्यंत शोचनीय है. किताबों को रखने के लिए न तो वहाँ अलमारियाँ हैं और न ही पुरानी और दुर्लभ किताबों की ज़िल्दबंदी की गई है. इन किताबों का इस तरह नष्ट होना दुखद है. लाइब्रेरी के पास संसाधनों की कमी है और लाइब्रेरी की समिति भी सक्रिय नहीं है. इस लाइब्रेरी को और इसके दुर्लभ संग्रह को बचाना हमारा दायित्व है.’
नेहरू ने अपने नोट में यह भी जोड़ा कि दोनों मंत्रालय इस मुद्दे पर शीघ्रता से विचार कर लाइब्रेरी के जीर्णोद्धार के लिए ज़रूरी क़दम उठाएँ.[2]
मई 1961 में कलकत्ता स्थित नैशनल लाइब्रेरी का उद्घाटन करते हुए भी नेहरू ने छोटे शहरों, क़स्बों और गाँवों में पुस्तकालयों की स्थापना पर ज़ोर दिया था. नेहरू ने कहा कि पुस्तकालय किसी देश की सांस्कृतिक उन्नति के स्तर को दर्शाते हैं. उन्होंने राष्ट्रीय पुस्तकालय जैसे विशाल पुस्तकालयों के साथ छोटे पुस्तकालयों की अहमियत को भी बताया और कहा कि पुस्तकालयों में बच्चों के लिए एक खास हिस्सा होना चाहिए, जहाँ बाल-साहित्य उपलब्ध हो. यही नहीं, उन्होंने अलग से बाल पुस्तकालय स्थापित करने पर भी ज़ोर दिया.[3]
यही नहीं नेहरू ने किताबों के अपने निजी संग्रह से भारतीय पुस्तकालयों को समय-समय पर किताबें भी उपहार में दीं. मसलन, भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद (आईसीसीआर) के पुस्तकालय को नेहरू ने अपनी निजी लाइब्रेरी से किताबें भेंट कीं. नवम्बर 1960 में नेहरू ने वैज्ञानिक अनुसंधान एवं सांस्कृतिक मामलों के मंत्री हुमायूँ कबीर को इस संदर्भ में एक पत्र लिखा. उल्लेखनीय है कि हुमायूँ कबीर उस समय भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के भी अध्यक्ष थे. नेहरू ने उन किताबों की सूची भी हुमायूँ कबीर को भेजी, जिन्हें वे भेंट करना चाहते थे.[4] इसी क्रम में, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के पुस्तकालय की स्थापना में भी नेहरू की प्रमुख भूमिका रही. यह पुस्तकालय रॉकफ़ेलर फ़ाउंडेशन के अनुदान से बनाया गया था.
इसी प्रकार जब अप्रैल 1961 में बंगाल के बर्धमान ज़िले में स्थित बांग्ला के प्रसिद्ध कवि काशीराम दास के पैतृक गाँव सिंघी में इस महान कवि की स्मृति में एक पुस्तकालय स्थापित हुआ. तो नेहरू ने सहर्ष अपना संदेश भेजा और लिखा कि ‘यह पुस्तकालय उस महान कवि का सच्चा स्मारक होगा. जिनका महाभारत का बांग्ला संस्करण इतना लोकप्रिय है. मुझे इस बात की विशेष प्रसन्नता है कि पुस्तकालय के पास अपना एक मुक्ताकाशी मंच भी होगा.’[5]
विदेशों में भारतीय पुस्तकालय
वर्ष 1952 के आरम्भ में जवाहरलाल नेहरू के पास एक प्रस्ताव आया, जिसमें उन देशों में पुस्तकालय खोलने का सुझाव दिया गया था, जहाँ बड़ी संख्या में भारतीय रह रहे थे. नेहरू ने इस प्रस्ताव का सहर्ष स्वागत किया. राष्ट्रमंडल मामलों के सचिव को भेजे गए अपने नोट में नेहरू ने लिखा कि वे पोर्ट ऑफ़ स्पेन, सुवा, पोर्ट लुई, नैरोबी जैसी जगहों पर भारतीयों के लिए पुस्तकालय खोलने के विचार का समर्थन करते हैं. इसके साथ ही यह सवाल भी उठा कि इन पुस्तकालयों के देखभाल का ज़िम्मा किस संस्था के अधीन होगा. नेहरू का कहना था कि सरकार के लिए यह अनुचित होगा कि वह पुस्तकालयों के निर्माण के बाद उनका प्रभार देखे. साथ ही, उन्होंने रंगून, कोलम्बो और सिंगापुर में पुस्तकालय खोलने के संदर्भ में यह राय दी कि वहाँ भारतीय इतनी संख्या में पहले से हैं और इतने सक्षम हैं कि अगर वे चाहें तो ख़ुद ही समूह बनाकर ऐसा पुस्तकालय खोल सकते हैं.[6]
रेल यात्रा में पढ़ने का आनंद और नेहरू
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक आते-आते रेलवे ने आम भारतीयों के जीवन में अभिन्न जगह बना ली थी. क़स्बों से महानगरों को जोड़ती भारतीय रेल ने भारतीयों के रोज़मर्रा के जीवन में भी अभूतपूर्व बदलाव लाया. रेल-यात्रा का एक ऐसा ही सुंदर वर्णन जवाहरलाल नेहरू ने अपने लेख ‘रेल में छुट्टी’ में किया है.[7] यह लेख फरवरी 1940 में लिखा गया था. रेल-यात्राओं का बेसब्री से इंतज़ार करने वाले नेहरू ने लिखा कि
‘लंबी रेल यात्राएं मेरे लिए बड़ी लाभदायक हैं और मुझे उनसे आराम मिलता है. हालांकि मैं शरीर से बहुत मोटा-तगड़ा नहीं हूँ, फिर भी मैं मजबूत हूँ और बिना किसी तकलीफ़ के, अगर ज़्यादा भीड़-भाड़ न हो तो, तीसरे दर्जे में मजे में जा सकता हूँ.’
जिस रेल-यात्रा का विवरण नेहरू ने उक्त लेख में दिया है, वह थी बंबई से लखनऊ के बीच छत्तीस घंटों की यात्रा. नेहरू रात में विक्टोरिया टर्मिनस से साढ़े दस बजे चलने वाली गाड़ी के दूसरे दर्जे में सवार हुए. यात्रा में पढ़ने के लिए कई किताबें भी उन्होंने अपने साथ रख ली थीं.
सीट पर लेटे-लेटे अपनी आदत के अनुसार नेहरू ने पढ़ना शुरू किया. जो पहली किताब उन्होंने उठाई, वह थी स्टीफ़न ज़्विग की ‘लेटर फ्राम एन अननोन वुमन’. इस किताब की प्रभावशाली कथा ने उन्हें आधी रात तक जगाकर रखा. अगली सुबह भी दैनंदिन कार्यों से निवृत्त होकर नेहरू कुछ किताबें लेकर पढ़ने बैठ गए. पहले उन्होंने सरसरी तौर पर डबल्यू.बी. करी की किताब ‘द केस फॉर फेडरल यूनियन’ के कुछ अध्याय पढ़े. इसे दिलचस्प और सामयिक किताब बताते हुए नेहरू ने लिखा कि यह किताब स्ट्रीट की ‘यूनियन नाउ’ की बनिस्बत, जिसमें भारत, चीन तथा सोवियत यूनियन को छोड़कर एक संघीय यूनियन बनाने पर विचार किया गया था, काफी अच्छी थी.
सरसरी तौर पर उक्त किताब देखने के बाद नेहरू ने डी.एन. प्रिट की किताब ‘लाइट ऑन मॉस्को’ और एच.जी. वेल्स के निबंध संग्रह को पढ़ना शुरू किया. प्रिट की किताब सिलसिलेवार ढंग से ‘हेराल्ड’ में भी छप चुकी थी. वेल्स के निबंधों के बारे में नेहरू का मत था कि ‘वेल्स की अन्य कृतियों की तरह ही यह किताब दिलचस्प और विचारोत्तेजक है, किन्तु फिर भी इसमें आज की वास्तविकता का स्पर्श नहीं है.’
इसके बाद नेहरू ने जर्मन नाटककार कार्ल बुचनर के नाटक ‘दांतेज डेथ’ पढ़ा. फ्रांसीसी क्रांति पर आधारित उक्त नाटक को पढ़ते हुए नेहरू के दिमाग में मौजूदा हिंदुस्तान की छवियाँ घूमती रहीं. वे लिखते हैं,
‘फ्रांस की क्रांति से हटकर हम फिर लौटते हैं बीसवीं सदी पर जिससे हम गुजर चुके हैं उस बीते कल पर. हिंदुस्तान में हमारे लिए सफलता से पूर्ण और यूरोप के लिए मूर्खता से भरी बीसी पर, आगे आने वाले संकट की बढ़ती हुई चेतना और भय की तीसी पर, और अब फिर गहरे गड्ढे की ओर हमारे क़दम बढ़ रहे हैं.’
बुचनर की किताब के बाद नेहरू ने पत्रकार पिएर फान पैसन की आत्मकथा ‘डेज़ ऑफ अवर इयर्स’ पढ़नी शुरू की. यह किताब पढ़ते-पढ़ते रेलगाड़ी झाँसी आ पहुँची. जहाँ नेहरू ने पढ़ाई को विराम देकर सोना पसंद किया. ताकि सुबह लखनऊ पहुँचने पर वे तैयार रहें. इसी के साथ नेहरू द्वारा रेल-यात्रा के बारे में लिखा यह दिलचस्प लेख ख़त्म होता है.
रेलवे के बुक-स्टॉल
नेहरू न सिर्फ़ रेल-यात्रा के दौरान पढ़ाई के मुरीद थे, बल्कि रेलवे स्टेशनों के बुक-स्टॉल में भी उनकी दिलचस्पी रही. रेलवे स्टेशनों के बुक-स्टॉल, जो आज प्रायः बंद हो चले हैं, को लेकर भी नेहरू ने अपने समय में हस्तक्षेप किया था. हुआ यूँ था कि रेलवे बोर्ड ने अपने एक अजीबोग़रीब आदेश में कहा था कि रेलवे के बुक-स्टॉल यात्रियों के लिए यात्रा के दौरान पढ़ने के लिए पुस्तकें बेचने के लिए हैं, उन्हें आम किताबों की दुकानों की तरह वैज्ञानिक या तकनीकी किताबें नहीं बेचना चाहिए. यही नहीं रेलवे बोर्ड ने परिवार नियोजन से जुड़ी किताबों पर भी रोक लगा दी थी. इसकी जानकारी श्रम, आवास और आपूर्ति मंत्रालय के उप-मंत्री अनिल के. चंदा ने 26 मार्च, 1958 को लिखे अपने एक ख़त में नेहरू को दी थी. उन्होंने रेलवे बोर्ड के इस फ़ैसले से ए.एच. व्हीलर जैसे पुस्तक-विक्रेताओं को होने वाले नुकसान का मुद्दा भी उठाया था. इस मुद्दे की जानकारी मिलने पर 28 मार्च को नेहरू ने रेलवे मंत्री को एक पत्र लिखा और रेलवे बोर्ड द्वारा स्टेशनों पर किताबों की बिक्री के सम्बन्ध में दिए गए इस आदेश पर सवाल उठाया.
नेहरू ने लिखा कि
‘मैं नहीं जानता कि किसी देश में किताबों की दुकानों को लेकर ऐसा क़ानून बनाया गया हो. रेलवे स्टेशन के बुक स्टॉल किसी अन्य किताब की दुकान की तरह ही हैं, फिर उन पर ऐसी पाबंदी लगाने का क्या औचित्य बनता है? अश्लील किताबों की बिक्री पर पाबंदी की बात ज़रूर सोची जा सकती है. लेकिन परिवार नियोजन से जुड़ी किताबों पर रोक क़तई उचित नहीं है. रेलवे बुक स्टॉल आम तौर पर हल्की फुल्की किताबें और पत्रिकाएँ बेचते हैं लेकिन उन्हें गम्भीर साहित्य या वैज्ञानिक और तकनीकी किताबें बेचने से क्यों रोका जाना चाहिए. बल्कि हमें तो इसे प्रोत्साहित ही करना चाहिए. रेलवे बोर्ड के ये नियम सरासर ग़लत हैं. मैं जानना चाहूँगा कि बोर्ड ने किस आधार पर निर्णय लिए हैं.’[8]
पढ़ने की संस्कृति और सस्ती किताबें
अक्टूबर 1955 में दक्षिण भारतीय भाषाओं की किताबों के प्रकाशन के लिए एक ट्रस्ट बना (‘सदर्न लैंग्वेजेज बुक ट्रस्ट), जिसका उद्घाटन जवाहरलाल नेहरू ने किया था. इस ट्रस्ट की स्थापना दक्षिण भारतीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के सम्मिलित प्रयास से हुई थी. जिसका उद्देश्य तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ भाषा में उच्च गुणवत्ता वाली और सस्ती किताबें प्रकाशित करना था. अपने उद्घाटन भाषण में नेहरू ने चिंतन और बौद्धिक क्षमता के विकास के लिए पढ़ने की संस्कृति पर ज़ोर दिया था. उन्होंने लोकतंत्र में सोचने-विचार करने वाली जनता के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा कि यह लोकतंत्र के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है. वहीं नेहरू ने स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राओं में भी पढ़ने की संस्कृति के अभाव पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि उनमें से अधिकांश अपने कोर्स की किताबों से ही इतने थक जाते हैं कि वे कोर्स से इतर किताबें पढ़ने की इच्छा ही नहीं रखते. यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है.[9]
पढ़ने की संस्कृति के संदर्भ में ही नेहरू ने अपने उस वक्तव्य में सस्ती किताबों की उपलब्धता को ज़रूरी बताते हुए कहा कि
‘आप किसी पर पढ़ने के लिए दबाव नहीं बना सकते. लेकिन पढ़ने का माहौल ज़रूर दे सकते हैं. और ऐसा अवसर देने का पहला तरीक़ा हो सकता है सस्ती किताबें उपलब्ध कराना, जो अमूमन हिंदुस्तान में नहीं मिलतीं.’
नेहरू पढ़ने और सोचने को एक क्रांतिकारी क़दम मानते थे. नेहरू ने यह भी कहा कि सरकार भी इस दिशा में कार्यरत है और सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में किताबों के प्रकाशन को प्राथमिकता देगी.
उसी वर्ष नेहरू ने नई दिल्ली में आयोजित भारतीय प्रकाशकों और पुस्तक-विक्रेताओं के संघ की दूसरी वार्षिक बैठक का उद्घाटन करते हुए प्रकाशकों को सस्ती किताबें छापने का सुझाव दिया. इस संदर्भ में नेहरू ने इंग्लैंड के पेंग्विन बुक्स के सफल प्रयोग का उदाहरण दिया. जिसने वर्ष 1935 से सस्ते दामों पर बेहतरीन किताबें प्रकाशित कर किताबों की दुनिया में क्रांति ला दी थी. साथ ही, नेहरू ने हिंदी के कुछ प्रकाशकों द्वारा लेखकों को रॉयल्टी न दिए जाने का मसला उठाते हुए कहा कि लेखक अपने खून-पसीने से किताब लिखता है, जिससे प्रकाशक मुनाफ़ा कमाते हैं. इसलिए उन्हें लेखकों को सम्मान देना चाहिए और उन्हें उचित रॉयल्टी भी नियमित अदा करनी चाहिए.[10]
यही नहीं नेहरू भारत के गाँवों और शहरों में पुस्तकालयों की आवश्यकता पर ज़ोर दिया. विशेषकर हिंदीभाषी इलाक़े को इस संदर्भ में नेहरू ने संभावना से भरे क्षेत्र के रूप में देखा, जहाँ पुस्तक-संस्कृति का विस्तार की ज़रूरत और संभावना सर्वाधिक थी.
मुंबई मराठी ग्रंथ संग्रहालय में दिए अपने भाषण में नेहरू ने सस्ती किताबों के महत्त्व पर अपनी बात रखते हुए कहा था कि:
“अगर कोई किताब अधिक बिकती नहीं है, छोटा एडिशन निकलता है तो उसके दाम अधिक होते हैं. दाम अधिक होते हैं तो लोग उसको फिर ख़रीद नहीं सकते तो और भी कठिन हो जाता है उसका बिकना. इसलिए अगर अधिक पढ़ने वाले हों और काफ़ी गिनती में वो छपे, दाम कम हों और पढ़ें लोग. और अब आप देखें यूरोप में, इंग्लैंड में, एक क्रांति हो गई थी किताबें छपने में जब सस्ती किताबें छपने लगीं. मुझे याद है जब मैं वहाँ यूरोप में पढ़ता था, स्कूल-कॉलेज में तो वही समय था सस्ती किताबें वहाँ निकलने लगी थीं, अच्छी किताबें और उससे बहुत लोगों ने जिन्होंने किताबें कभी ख़रीदी नहीं थीं वे पुस्तकें ख़रीदने लगे, सस्ती थीं, अच्छी थीं, हल्के-हल्के उनकी लाइब्रेरी बन गई घर में.”[11]
इसी संदर्भ में उल्लेखनीय है कि जब साहित्य अकादेमी ने वर्ष 1957 में अपना निःशुल्क वाचनालय (रीडिंग रूम) पाठकों के लिए खोला, तब नेहरू ने इस पर अपनी ख़ुशी जाहिर की. साथ ही, नेहरू ने वाचनालय के समय को बढ़ाने और रविवार की सुबह में भी उसे खोलने का सुझाव दिया. नेहरू के सुझाव के अनुरूप न सिर्फ़ वाचनालय के खुले रहने का समय बढ़ा दिया गया, बल्कि अवकाश के दिन भी उसे खोलने का फ़ैसला लिया गया.[12]
जनवरी 1963 में नेहरू ने वैज्ञानिक अनुसंधान एवं सांस्कृतिक मामलों के मंत्री हुमायूँ कबीर को लिखे अपने पत्र में सस्ता साहित्य मंडल द्वारा छापी गई किताबों की प्रशंसा की थी. नेहरू ने लिखा कि ‘सस्ता साहित्य मंडल ने हिंदी में विविध विषयों पर कम क़ीमत में किताबें छापी हैं. ऐसा इसलिए संभव हो सका है क्योंकि सस्ता साहित्य मंडल एक ट्रस्ट है, जिसका उद्देश्य मुनाफ़ा कमाना नहीं है. ऐसे प्रकाशकों को अवश्य प्रोत्साहित किया जाना चाहिए.’[13]
बच्चों के लिए किताबें
नवम्बर 1959 में हिंदी प्रकाशक संघ द्वारा ‘बाल पुस्तक सप्ताह’ मनाए जाने के अवसर पर भेजे गए अपने संदेश में नेहरू ने बच्चों के लिए किताबों के महत्त्व को रेखांकित किया. उन्होंने लिखा था कि
‘किताबें पढ़ने की आदत विकसित करने का सही समय बचपन ही होता है. इसलिए बच्चों को किताबें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना निहायत ज़रूरी हो जाता है. बच्चे तभी पढ़ेंगे जब दिलचस्प और बढ़िया किताबें उन्हें मिलेंगी. बच्चों का दिमाग़ एक विस्तृत होता हुआ जिज्ञासु दिमाग़ होता है. अगर कोई किताब उनकी जिज्ञासा के मुताबिक़ होती है तो वे उसे ज़रूर पढ़ेंगे.’[14]
इसी तरह फ़रवरी 1960 में नेहरू सदर्न लैंग्वेजेज बुक ट्रस्ट द्वारा आयोजित एक पुस्तक-विमोचन समारोह में शामिल हुए. जिसमें डॉक्टर राधाकृष्णन की किताब ‘द रिकवरी ऑफ़ फ़ेथ’ का तमिल अनुवाद का लोकार्पण किया गया.[15] उस अवसर पर दिए अपने भाषण में भी नेहरू ने बच्चों के लिए किताबों के महत्त्व को ख़ास तौर पर रेखांकित किया. उन्होंने बच्चों में जिज्ञासा और खोज की प्रवृत्ति को बढ़ावा देने के लिए बच्चों की किताबों के प्रकाशन पर ज़ोर दिया. अगस्त 1960 में शिक्षा मंत्री के.एल. श्रीमाली को लिखे अपने एक पत्र में नेहरू ने सोवियत रूस द्वारा हिंदी, उर्दू और दूसरी भारतीय भाषाओं में प्रकाशित बाल-साहित्य का उदाहरण दिया और उन पुस्तकों की गुणवत्ता को सराहा. नेहरू जी ने उस पत्र के साथ उन पुस्तकों की कुछ प्रतियाँ भी श्रीमाली को भेजीं. यह लिखते हुए कि हमें इन किताबों के कुछ और सेट मंगाकर देखने चाहिए और उनसे बच्चों के लिए पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए प्रेरणा लेनी चाहिए.[16]
स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री के रूप में न केवल भारत में शिक्षा के प्रसार को दिशा दी, बल्कि साक्षरता के साथ-साथ पुस्तक संस्कृति के विकास में भी उल्लेखनीय भूमिका निभाई. पुस्तकालयों की स्थापना, पुराने पुस्तकालयों का जीर्णोद्धार और उनका विस्तार, बच्चों के लिए पुस्तकालय और बाल-साहित्य की योजनाएँ, सस्ती मगर उत्कृष्ट किताबों का प्रकाशन नेहरू की उसी स्वप्नदर्शी योजना के अंग थे, जिसके अंतर्गत नेहरू ने भारतीयों में किताबों के प्रति गहरा लगाव पैदा करने और पुस्तक-संस्कृति के प्रसार की उम्मीद की थी.
सन्दर्भ
[1] सेलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू (यहाँ के बाद सेलेक्टेड वर्क्स), द्वितीय सीरीज़, खंड 55 (नई दिल्ली : जवाहरलाल नेहरू मेमोरियल फंड, 2014), पृ. 244-45.
[2] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 74, पृ. 575-76.
[3] द हिंदू, 9 मई 1961.
[4] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 64, पृ. 299.
[5] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 68, पृ. 497.
[6] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 17, पृ. 579.
[7] जवाहरलाल नेहरू, राजनीति से दूर (नई दिल्ली : सस्ता साहित्य मंडल, 1950), पृ. 41-47.
[8] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 41, पृ. 271-72.
[9] द हिंदू, 6 अक्टूबर 1955.
[10] द हिंदू, 8 दिसम्बर 1955.
[11] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 47, पृ. 270.
[12] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 40, पृ. 216.
[13] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 80, पृ. 203.
[14] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 54, पृ. 398.
[15] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 57, पृ. 256-61.
[16] सेलेक्टेड वर्क्स, द्वितीय सीरीज़, खंड 62, पृ. 375-76.
शुभनीत कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास पढ़ाते हैं. |
शानदार आलेख
बहुत अच्छा लिखा है। आज भी पुस्तकों को पढ़ने के लिए महत्त्वपूर्ण लोगों को सामान्य जनों को उत्साहित करना चाहिए। अमिताभ बच्चन के बाद कम ही कलाकार और सुनील गावस्कर और संदीप पाटिल के बाद कम ही खिलाड़ी पुस्तकों में रुचि रखते हैं। इन दिनों कुछ आत्मकथाएं लिख रहे हैं लोग लेकिन वे पुस्तक पठन पाठन की संस्कृति को बढ़ा नहीं पा रहीं। जैसा कि नेहरु जी ने कहा है बड़े पुस्तकालयों के साथ ही छोटे छोटे पुस्तकालयों की भी महत्ता है। ट्रेन में अब भी लोग पढ़ते हैं, लेकिन अधिकांश लोग मोबाइल पर ही लगे रहते हैं। मोबाइल पुस्तकों का विकल्प नहीं हो सकती हैं यह समझ बनाना जरूरी है। स्टेशन पर पुस्तकों की दुकानें नहीं चलती। इसका एक कारण पुस्तकों में छूट न देना है। पुस्तक केंद्रों को इस ओर ध्यान देना चाहिए। Shubhneet Kaushik को इस आलेख के लिए धन्यवाद।
श्रद्धांजलि को कर्मकांड बना देने वाले लेखों से अलग एक सुचिंतित स्मरण! नेहरू को राजनेता- राष्टृ-निर्माता की पिक्चर पोस्टकार्ड छवि से अलग करके एक सजग और प्रतिबद्ध नागरिक के रूप में चिह्नित करना इस लेख का ख़ास हासिल है. बहुत बढ़िया!
बहुत अच्छा लेख। नेहरू अजूबे इन्सान थे। उनके व्यक्तित्व में जादुई आकर्षण था। शुभनीत कौशिक ने उन्हें जिस तरह देखा है, उसके वह अधिकारी थे। लेखक को बधाई।
पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के समय मैं चौथी जमात में पढ़ता था । देश के बँटवारे के बाद काफ़ी अर्स: तक उर्दू लफ़्ज़ों का चलन हमारे पूर्वजों में था । हमारे कुनबे में एक चाचा जी हमारी प्राथमिक पाठशाला में पढ़ाते थे ।
मेरे पिता जी और भाई साहब को पुस्तकें पढ़ने की रुचि थी । वे घर में किताबें ख़रीद लाते । मैंने पहली पुस्तक आचार्य चतुरसेन शास्त्री की वयं रक्षाम: पढ़ी थी और बाद में सोमनाथ पढ़ी थी । पढ़ने की लालसा ने मुझसे गोदान, निर्मला, ग़बन और सेवासदन पढ़ा लिया । यह प्रेमचंद की जादुई लेखनी का कमाल था ।
अब लेख पर । इससे मिलते-जुलते लेख पढ़े थे । परंतु संदर्भों सहित तथा व्यापकता लिये लेख पहली बार पढ़ा । सर्वेपल्ली राधाकृष्णन की पुस्तक पर कुछ विस्तार से लिखना चाहिये था । आलेख में चाचा नेहरू की तस्वीरें आकर्षक हैं । जवाहरलाल नेहरू सुंदर थे ।
शुभ नीति का आलेख नेहरू जी को एक समुचित श्रद्धांजलि है.अधीत और चिंतक लेखक राज नेताओं की वह पीढी और उनका युग ही समाप्त हो गया.अब तो कुंद ज़ेहन जहालत का ज़माना है . इसमें नेहरू जी के समान बुद्धि जीवी का स्मरण भी एक ज़रूरी और प्रासंगिक काम है.कौशिक और आपको धन्यवाद
बहुत ज़रूरी आलेख,
पुस्तकों के प्रति रुचि जागृत करना बहुत आवश्यक है और पुस्तक संस्कृति को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है। साथ ही पुस्तकों की क्रय शक्ति को बढ़ावा देने हेतु पुस्तकें सस्ती करने के बारे में नियोजित तरीक़े से विचार करना चाहिए।
आलेख शुभ उद्देश्य से प्रेरित और गंभीर श्रम से निर्मित है, लेखक बधाई के सर्वथा पात्र हैं। क्या नेहरू जी हिन्दी में ही लिखते थे या उनके कहे का हिन्दी अनुवाद होता था।
शुभनीत के पास एक इतिहासकार की तीक्ष्ण दृष्टि तो है ही, उनके पास कथा कहने की एक विश्वसनीय भाषा भी है। वे स्पष्टता और सरलता के साथ इतिहास के किसी कालखंड के पास जाते हैं, और उसे अपने पाठकों के लिए सुलभ एवं पारदर्शी बना देते हैं।
इस अनूठे लेख के लिए उन्हें बधाई