व्यवस्था और न्याय की कश्मकश चंद्रभूषण |
वाल्मीकि विरचित महाकाव्य रामायण का अपना एक खास माहौल है. राजन्यवर्ग और ऋषिवर्ग इसकी मुख्यधारा बनाते हैं. महल, दरबार, रनिवास, मंत्रिगण, राजपुरोहित, दास-दासियाँ. या फिर जंगल, जानवर, राक्षस, ऋषि, उनकी पत्नियाँ, ऋषिकुमार और शिष्यगण. राजसी ऐश्वर्य, षड्यंत्र, रिश्तों का टूटना और किस्सा पूरा होते-होते दोबारा उनका जुड़ते हुए दिखना. जहाँ यह सब नहीं है वहाँ उपदेश हैं, विमर्श हैं, सलाहें हैं और कहीं-कहीं कुछ दार्शनिक सवाल-जवाब भी हैं. कहानी यहाँ से हटती है तो कुछेक मनुष्येतर जातियों के विरोधी या सहयोगी राजा भी दिखते हैं. उनसे दोस्ती और लड़ाइयाँ. पराक्रम की दास्तानें. जहाँ-तहाँ जीत-हार से जुड़े छल-प्रपंच. प्रेम, वियोग, और फिर परित्याग. एक ऐसी जुदाई, जिसमें मनुष्य की गरिमा नहीं है और ‘द हैपी एंड’ जैसी कोई संभावना भी नहीं है.
विचित्र बात है कि कहानी का यह उपसंहार, जो सतत जीवन संघर्षों और अनेक युद्धों से भरी राम-सीता के प्रेम और दांपत्य की कथा को संसार के सभी महाकाव्यात्मक स्त्री-पुरुष वृत्तांतों में अद्वितीय बनाता है, हजारों साल की उपस्थिति के बाद अभी विलोप के कगार पर खड़ा है. इंटरनेट पर वाल्मीकि रामायण के ढेरों संस्करण मिल जाते हैं, लेकिन उनमें इक्का-दुक्का ही ऐसे हैं जिनमें इसका आखिरी हिस्सा, उत्तरकांड भी मिलता है. संपादन की तलवार भांजते इन नए ‘वाल्मीकियों’ ने अपनी करामात का परिचय कुछ यूं दे रखा है कि ‘ग्रंथ के अश्लील, अनावश्यक और प्रक्षिप्त हिस्से यहाँ हटा दिए गए हैं’! अंग्रेजी वाले जो वेब संस्करण पूरे हैं, उनमें भी मूल संस्कृत रूप नदारद है. हिंदी अनुवादों में किताब को ‘भक्ति रचना’ ही बना दिया गया है, जबकि अंग्रेजी में मूल छोड़कर नैतिकता बचा ली गई है.
इस ग्रंथ के लेखक और इसके रचना समय को लेकर बहुत सारे किस्से कहे जाते रहे हैं. वाल्मीकि को राम का समकालीन मानकर उनके समय को लाखों-करोड़ों साल पीछे खींच ले जाने वालों को फिलहाल प्रणाम करके आगे बढ़ना ही उचित होगा. कारण यह कि हमारी बुद्धि हमें उस दिशा में नहीं ले जाती. इसकी प्रतिक्रिया में समाज का एक हिस्सा अभी रामायण को बीती चंद सदियों की गप्पबाजी कहने लगा है, और ऐसा मानने की ठोस वजहें भी हैं.
रामायण की तुलना में बहुत बाद के बताए जाने वाले प्राचीन ग्रंथों की हस्तलिखित प्रतियाँ पिछले सौ-दो सौ वर्षों में खोज ली गई हैं. बुद्ध वचनों के संग्रह ‘त्रिपिटक’ के नाम पर दो सौ साल पहले तक भारत में एक पन्ना भी नहीं बचा था, लेकिन ईसापूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक के कार्यकाल में लिपिबद्ध किए गए इस ग्रंथ-समुच्चय की पुरानी प्रतियाँ श्रीलंका और बर्मा में अपने मूल रूप में और पूर्वी एशियाई देशों में चीनी और तिब्बती भाषाओं में अनुवाद के जरिये सुरक्षित रहीं. अब इस पेच का क्या किया जाए कि रामायण की एक भी प्राचीन प्रति नहीं खोजी जा सकी है.
इसकी सबसे पुरानी प्रति नेपाल में मिली है. नेवार लिपि में ताड़पत्र पर लिखी एक किताब, जिसका समय 11वीं सदी ईसवी से पीछे हरगिज नहीं जाता. अभी सन 2015 में कोलकाता में छठी ईस्वी सदी की पांच कांडों वाली एक रामायण मिलने की खबर आई, जिससे एक शून्य भरता-सा लगा, लेकिन विशेषज्ञों ने इसपर सन्नाटा खींच लिया.
बौद्ध हलकों में रामायण की प्राचीनता को लेकर इससे भी बड़ा एतराज संस्कृत भाषा से जुड़ा रहा है. रामायण एक संस्कृत रचना है लेकिन संस्कृत को पालि और प्राकृत भाषाओं से ज्यादा पुरानी मानने के पर्याप्त साक्ष्य नहीं मिलते. ईसापूर्व की लिखावट वाली पालि और प्राकृत सामग्री से पुरातत्व के भंडार भरे हैं लेकिन उस दौर का कोई भी संस्कृत शिलालेख, या ताड़पत्र-भूर्जपत्र पर लिखे किसी संस्कृत ग्रंथ की पांडुलिपि अबतक नहीं खोजी जा सकी है.
रामायण के लाखों-करोड़ों साल पुराना ग्रंथ होने की तरह ही इसके नायक राम के ग्यारह हजार साल अयोध्या पर राज करने वाली बात को भी थोड़ी देर के लिए किनारे रखा जा सकता है. यह किस्सा भी उत्तरकांड में ही लिखा है. यह, और साथ में कई अयोध्यावासियों को लेकर राम के सशरीर स्वर्ग जाने वाली बात भी. ग्रंथ में यह सब सुरक्षित रहे, जीवन में या विश्लेषण में इसका कोई मतलब नहीं है. घर में अस्सी-नब्बे साल के बुजुर्ग तो लोगों से झेले नहीं जाते, कई सौ पीढ़ियों पर पांव रखकर 11,000 साल राज करने वाले राजा में किसी की कितनी दिलचस्पी होगी?
यूं भी, राम का किस्सा उनके पचास के लपेटे में पहुंचने के साथ खत्म हो गया. बीस से पचीस की वय में जाने पर चौदह साल का वनवास. चालीस के आसपास उम्र में राजा बनना और सीता का परित्याग. फिर वन में जन्मे जुड़वां बच्चों के बारह-पंद्रह का होने पर उनसे मुलाकात और इसके थोड़े ही समय बाद सीता का भूमि प्रवेश. इस तरह वाल्मीकि रामायण में राम की पूरी कहानी उनके पचास-पचपन का होने तक निपट जाती है. उसके बाद वे कुछ भी करें, कहती-सुनती को उससे क्या लेना? वाल्मीकि और राम को आम हिंदुस्तानी सदियों से श्रेष्ठ किंतु स्वयं जैसा ही मनुष्य मानता आया है. यह रेखा हम पार नहीं करेंगे. वाल्मीकि का देश-काल खोजने का अकेला साधन हमारे लिए रामायण की लय, भाषा और उसमें आए ब्यौरे हैं. हालांकि इनकी भी कुछ सीमाएं हैं, जिनपर आगे चर्चा होगी.
१.
एक नए छंद की तरंग
रामायण के रचना-समय की खोजबीन कई रास्तों से आगे बढ़ेगी, लेकिन पहले थोड़ी बातचीत इसके छंदों पर. वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के बीच इसकी अवस्थिति के रूप में इसके समय का एक सूत्र यहाँ मौजूद है. रामायण पूरी तरह श्लोक-आधारित रचना है. श्लोक, यानी दो पंक्तियों का लेकिन दोहे-सोरठे से छोटा, कुल 32 मात्राओं का एक सीधा-सादा छंद, जिसे संस्कृत छंदशास्त्र में ‘अनुष्टुप’ नाम दिया गया है. जुबान पर चढ़ा हुआ एक उदाहरण देना हो तो रावण के दरबार में दिए गए हनुमान के आत्म-परिचय को याद किया जा सकता है, जिसे 1990 के आसपास पहली बार मैंने पटना रेलवे स्टेशन के सामने वाले हनुमान मंदिर के आसपास ही कहीं लिखा देखा था –
दासोऽहम् कोसलेंद्रस्य, रामस्याक्लिष्टकर्मणि I
हनूमान् शत्रुसैन्यानाम् निहंता मारुतात्मजःII
सुंदरकांड के इस श्लोक में हनुमान खुद को राम का दास और उनके कामों को अ-कठिन बनाने वाला बताने के बाद बाकी ब्यौरा दे रहे हैं कि वे मारुत के बेटे हैं और शत्रु-सेनाओं को तहस-नहस कर देना उनका काम है. आठ-आठ स्वरों की चार चौथाइयों से बना, रेलगाड़ी की तरह खटाखट चलता जाने वाला अनुष्टुप वाल्मीकि के जेहन में आया पहला छंद है, जो बाद में संस्कृत की जान बन गया. इसके अलावा एकरसता तोड़ने और भावुक क्षणों को थामने के लिए रामायण में दो और छंद आते हैं- त्रिष्टुप और जयती, लेकिन काफी इंतजार कराने के बाद.
औसतन सौ अनुष्टुप पर दो या तीन त्रिष्टुप और एक या उससे भी कम जयती आते हैं, जो दोनों ही जाने-पहचाने वैदिक छंद हैं. जाहिर है, वाल्मीकि के काव्य की पहचान अनुष्टुप से बनती है, बाकी दोनों से नहीं. त्रिष्टुप वैदिक संस्कृत का पहिया है तो लौकिक संस्कृत की गाड़ी रामायण से गीता तक अनुष्टुप पर ही चलती है. त्रिष्टुप देखें-
इमौ मुनी पार्थिव लक्षणान्वितौ, कुशीलवौ चैव महातपस्विनौ I
ममापि तद् भूतिकरं प्रचक्षते, महानुभावं चरितं निबोधतII 1-4-35
बालकांड के चौथे सर्ग में लव-कुश को देखकर, उनका गायन सुनकर राम कहते हैं कि
‘राजसी लक्षणों वाले ये दोनों महातपस्वी मुनि कुश और लव जो कथा सुनाते हैं वह मेरे लिए भी सौभाग्यप्रद है. मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली इस कथा को आप लोग सुनें.’
दोनों उद्धरण यहाँ सिर्फ अनुष्टुप और त्रिष्टुप की लय बताने और दोनों का फर्क समझाने के लिए दिए गए हैं. त्रिष्टुप अनुष्टुप से बड़ा, 44 मात्राओं का छंद है और इसमें मुखसुख ज्यादा है. यहाँ ऊपर दिए हुए छंद के अंत में जो तीन संख्याएं दी हुई हैं, उनमें पहली कांड का क्रम बताती है, दूसरी यह कि कांड में सर्ग कौन सा है, जबकि तीसरी से उस सर्ग में आए छंद का पता चलता है. जैसे, यह बालकांड में चौथे सर्ग का 35वां छंद है.
बहरहाल, वाल्मीकि के पहली बार अनुष्टुप तक पहुंचने का जो किस्सा बालकांड के दूसरे सर्ग में बयान किया गया है, उसका स्वरूप किसी रोजमर्रा की घटना जैसा है. हालांकि उसके इर्दगिर्द एक मिथकीय ब्रैकेटिंग भी की गई है.
पहले सर्ग में देवर्षि नारद वाल्मीकि से देवोपम राजपुरुष राम की कहानी लिखने का आग्रह करके आकाशगामी होते हैं. उसके अगले ही दिन वाल्मीकि तमसा नदी पर नहाने जाते हैं, जो गंगा से ज्यादा दूर नहीं है. आजमगढ़ शहर को तीन तरफ से घेरे हुए टौंस नदी ही यदि दावे के अनुसार तमसा हुई तो क्या पता, यह घटना मेरे ही जिले में घटी हो.
वहाँ वन में सबेरे-सबेरे नदी के किनारे वाल्मीकि चकवा-चकवी के एक जोड़े को किलोल करते देखते हैं. लाल कलंगी वाला सुंदर नर मादा को रिझाने की कोशिश में है. तभी एक बहेलिया चकवे को तीर मार देता है और वह लहूलुहान होकर लत्ते सा जमीन पर आ पड़ता है. चकवी उसे पुकारती हुई उसके पास आती है, उसके इर्दगिर्द चक्कर काटती है और नहाने के लिए पानी में घुसे वाल्मीकि के मुँह से एक छंद फूट पड़ता है. बिना कोशिश के ही मुँह से कविता निकल आना ऋषि के लिए इतनी विचित्र घटना है कि वे देर तक इसके असर से उबर नहीं पाते.
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम् अगमः शाश्वतीः समाःI
यत् क्रौञ्चमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्II 1-2-15
संस्कृत की सबसे ज्यादा रट्टा मारी हुई चीजों में एक यह श्लोक न तो अपने नाद सौंदर्य में, न ही अर्थगौरव में असाधारण कहा जा सकता है. इसका पहला शब्द ‘मा’ भटकाने वाला है और अर्थ किसी शाप जैसा है.
‘अरे निषाद, चकवों के काममोहित जोड़े में से एक को तुमने मार दिया, इसके लिए अनंत काल तक तुम्हें प्रतिष्ठा (स्थिरता) नहीं मिलेगी.’
इस सर्ग में और आगे तीसरे सर्ग में भी इस बात का वर्णन है कि वाल्मीकि न तो चकवी की वेधक पुकार से अपना पीछा छुड़ा पा रहे हैं, न ही इस बात से कि झटके में उनके मुँह से नई बनावट का यह छंद कैसे निकल गया.
अपने शिष्यों को वे सुनाते हैं तो वे इसको गाने लगते हैं. वाल्मीकि इस नए छंद में अपनी सहज गति जानकर कहते हैं कि इसका नाम ‘श्लोक’ यानी पुकार होना चाहिए. राम जैसे लौकिक चरित्र को केंद्र में रखकर काव्य लिखना फिर भी एक समस्या है, जिसे निपटाने के लिए अगले सर्ग में ब्रह्मा स्वयं आते हैं. इस घटना को अपनी योजना का हिस्सा बताते हुए वे कहते हैं कि श्लोकों का ही सहारा लेते हुए देवर्षि नारद के कहे मुताबिक आप रामायण की रचना करें.
न ते वागनृता काव्ये काचिदत्र भविष्यति I
कुरु रामकथां पुण्यां श्लोकबद्धां मनोरमाम् II 1-2-35
यावत्स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले I
तावद्रामायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति II 1-2-36
यावद्रामायणकथा त्वत्कृता प्रचरिष्यति I
तावदूर्ध्वमधश्च त्वं मल्लोकेषु निवत्स्यसि II 1-2-37
‘पुण्यप्रद और मनोरम रामकथा को तुम श्लोकों में बांध दो. तुम्हारा कहा हुआ एक भी शब्द इसमें झूठा नहीं होगा. जबतक धरती पर पहाड़ और नदियाँ हैं तबतक दुनिया में रामकथा का प्रचार होता रहेगा. और जबतक यह प्रचार होता रहेगा, तबतक आकाश, पाताल और मेरे अपने लोक, ब्रह्मलोक में भी तुम निवास करते रहोगे.’
ये तीनों श्लोक रामायण के किस्से का ही एक छोटा हिस्सा हैं तो वरदान की तरह इन्हें अलग से पढ़ने का कोई औचित्य नहीं है. वैसे भी, इस ग्रंथ में ब्रह्मा की महत्ता बहुत ज्यादा है. विष्णु के बराबर या शायद उनसे भी ज्यादा. ब्रह्मा के वरदान से रावण परम शक्तिशाली हुआ. ब्रह्मा ने ही रामजन्म की व्यवस्था की और रामायण भी उन्होंने ही लिखवाई. लेकिन समय के साथ ब्रह्मा इतने अपूज्य हो गए कि पुष्कर के सिवा और कहीं अब उनका मंदिर भी नहीं दिखता. जाहिर है, इस महाकवि के निवास के लिए ब्रह्मलोक भी पहले जितनी वांछनीय जगह नहीं रह गया होगा.
लेकिन प्रचार पर आएं तो 1950 के आसपास फादर कामिल बुल्के ने दक्षिण और पूर्वी एशिया में लिखी गई तीन सौ रामायणों की गिनती की थी और बाद में एके रामानुजन ने ‘थ्री हंड्रेड रामायणास’ करके एक लंबा निबंध भी लिखा. कमाल की बात है कि विविध भाषाओं की ये स्वतंत्र रचनाएं वाल्मीकि की वंदना जरूर करती हैं लेकिन रामायण का अनुवाद होने या उसका अनुकरण करने का दम नहीं भरतीं. यह सौभाग्य संसार के किसी और ग्रंथ को प्राप्त हुआ हो तो मुझे जानकारी नहीं है. महाभारत की किस्सागोई अद्वितीय है, लेकिन ऐसा कुछ उसके साथ भी नहीं हुआ.
2.
भाषा जो कहती है
हाल में वाल्मीकि रामायण पढ़ते हुए कुछ बहुत परिचित संज्ञाओं के लिए इसमें आए शब्दों ने मुझे चकित किया. जैसे बंदर के लिए आने वाला शब्द ‘प्लवग’. अरण्यकांड में यह ‘कपि’ और ‘वानर’ से कहीं ज्यादा देखने को मिलता है. फिर सुंदरकांड और लंकाकांड में भी प्लवग-प्लवग छाया है. प्लवन यानी उछाल, या ऊपर आने जैसी क्रिया. बाढ़ के लिए ‘जलप्लावन’ आज भी कहीं-कहीं दिख जाता है. विप्लव जैसे शब्द भी यहीं से निकलते हैं. प्लवग यानी उछल-उछलकर चलने वाला. कोई समय रहा होगा जब बंदर के लिए इसका इस्तेमाल आम रहा होगा. फिर कपि और वानर जैसे शब्दों ने इसे चलन से बाहर कर दिया. पालि भाषा में भी ‘कपि’ का ही व्यवहार ज्यादा मिलता है.
डॉ. सत्यव्रत शास्त्री की 1964 में आई किताब ‘द रामायण : अ लिंग्विस्टिक स्टडी’ को इस ग्रंथ की भाषा के अध्ययन को लेकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त है. इसमें उन्होंने शब्दों के कुछ बहुत पुराने प्रयोग खोजे हैं. मसलन, ‘वैद्य’ का अर्थ इस ग्रंथ में आम तौर पर चिकित्सक है लेकिन कुछेक जगहों पर विद्यावान, यानी ज्ञानी व्यक्ति भी है. विचित्र बात यह कि अरबी भाषा में भी यह बात ज्यों की त्यों है. हक़ीम का अर्थ वहाँ विद्वान हुआ करता था, अभी चिकित्सक है.
हेम और हिरण्य दोनों शब्दों को हम न जाने कब से सोने के पर्यायवाची मानते आ रहे हैं लेकिन रामायण में ‘हेम’ का इस्तेमाल अनगढ़ सोने के लिए जबकि हिरण्य का गढ़े हुए सोने के लिए हुआ है. इसी तरह विहग और पक्षी रामायण में कुछ जगहों पर एक साथ आ जाते हैं- ‘डाल पर बैठा पक्षी विहग हो गया.’ विहग यानी आकाशचारी. मुर्गी जैसे कुछ पक्षी सिर्फ नाम को उड़ते हैं. छोटा बच्चा चाहे चील का ही क्यों न हो, उड़ना उसके वश की बात नहीं. ऐसे जीव पक्षी तो हैं पर उन्हें विहग नहीं कहा जा सकता. हजारों साल के समानार्थी प्रयोग में ‘विहग’ विशेषण से उठकर संज्ञा बन गया. लेकिन वाल्मीकि की रचना में हेम और हिरण्य का, विहग और पक्षी का अर्थ एक ही नहीं है. ध्यान रहे, पर्यायवाची शब्द भाषाशास्त्रियों के हाथ में भाषिक इतिहास के अध्ययन का शक्तिशाली औजार बन जाते हैं.
सत्यव्रत शास्त्री (1930-2019) की गिनती भारत के उन चुनिंदा संस्कृत विद्वानों में होती है, जिनकी प्राचीन भारतीय संस्कृति की बौद्ध और अबौद्ध, दोनों ही धाराओं में बराबर की गति थी. इसकी एक वजह थाईलैंड और कुछ अन्य पूर्वी एशियाई देशों में उनके लंबे अध्यापन कार्य में खोजी जा सकती है. यहाँ यह बताना जरूरी लगता है कि 2009 में थाईलैंड की राजकुमारी द्वारा शास्त्रीजी को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की रिपोर्टिंग अपने अखबार के लिए मैंने ही की थी. उनके काम से थोड़ा परिचय मेरा तब भी था, लेकिन मेरा दुर्भाग्य कि रामायण को लेकर अभी जैसी कोई लंबी लिखाई तबतक कहीं दिमाग में ही नहीं थी. होती तो साथ बैठकर कुछ चीजों को समझने का जुगाड़ बिठाता.
वाल्मीकि रामायण लौकिक संस्कृति की रचना है और आम तौर पर पाणिनीय व्याकरण का अनुसरण करती है. लेकिन शब्द निर्माण और वाक्य रचना संबंधी पाणिनि के नियमों के उल्लंघन के, या यूं कहें कि उसका कोई ख्याल ही नहीं होने के बहुत सारे उदाहरण इसमें खोजे गए हैं. शास्त्रीजी बताते हैं कि इसमें सवर्ण संधि, गुण संधि, वृद्धि संधि, यण संधि और कुछ अन्य स्वर संधियाँ नदारद हैं. काल, पुरुष, लिंग संबंधी ढेरों गैर-पाणिनीय मिसालें इस ग्रंथ में काफी पहले से खोजी जा चुकी हैं, जिसके आधार पर कुछ विद्वान वाल्मीकि की संस्कृत को अशुद्ध बताते रहे हैं.
हकीकत में यह भाषा का अधिक पुराना प्रयोग दर्शाता है. वैसे भी, एक स्मृति ग्रंथ की भाषा पीढ़ी-दर-पीढ़ी अनजाने में भी बदलती जाती है. ऐसे में भाषिक पुरातत्व के औजार उसपर ठीक-ठीक लिखित ग्रंथ की तरह नहीं आजमाए जा सकते. ईसा पूर्व की भाषा निश्चित रूप से भारत के लिए एक बहुत बड़ी उलझन है. अव्वल तो अपने यहाँ पुरानी लिखित चीजों की बरामदगी ही उन्नीसवीं सदी की बात है. इन्हें पढ़ने की शुरुआत सन 1840 के आसपास जेम्स प्रिंसेप द्वारा शुरुआती भारतीय लिपियों ब्राह्मी-खरोष्ठी को पढ़ने का तरीका खोज लेने के बाद हो पाई. भारत की सबसे पुरानी लिपि धम्मलिपि या ब्राह्मी है, जिसमें प्रारंभिक शिलालेखों का समय ईसापूर्व छठीं सदी का पाया गया है.
लगभग सारी प्राचीन लिखावटों की भाषा पालि या प्राकृत है, संस्कृत बिल्कुल नहीं. संस्कृत की लिखाइयों वाले ताड़पत्र-भोजपत्र बहुत बाद के हैं और उनकी लिपियाँ भी बहुविध हैं. ज्यादातर ब्राह्मी और नागरी के बीच की. ईस्ट इंडिया कंपनी की खोजों के बाद ओरिएंटलिस्ट अफसरों की मेहरबानी से भारत के बहुत पुरानी सभ्यता होने का हल्ला उठा और वेदों-उपनिषदों-महाकाव्यों की ज्यादा पुरानी प्रतियाँ न मिलने की समस्या सामने आई तो सनातनी विद्वानों ने रेखांकित किया कि उनके सारे पुराने ग्रंथ श्रुति या स्मृति कहलाते हैं. बहुत प्राचीन लिखित रूप में तो वे मिल ही नहीं सकते. यूं भी, इनकी निरंतरता सुनिश्चित होने के चलते पुरानी प्रतियों का न मिलना कोई मुद्दा नहीं था.
गौर करें तो यह भारत का खास अपना मसला है. खुद में अकेला. त्रिपिटक की सामग्री भी लिखित रूप लेने से पहले कम से कम दस पीढ़ियों तक श्रुति-स्मृति की तरह ही सुरक्षित रही. हाल-फिलहाल देखें तो आल्हा का लिखित रूप मौजूद होते हुए भी शायद ही कोई अल्हैत ऐसा हो जो किताब से याद करके आल्हा गाता हो. अच्छा होता, भारत के सभी पुराने ग्रंथों, भाषाओं, लिपियों को पढ़ने-समझने और उन्हें इतिहास-विन्यस्त करने में एक साझा दृष्टि अपनाई जाती. समय बीतने के साथ बौद्ध-सनातनी दुराग्रह इसको पहले से भी ज्यादा मुश्किल बनाते जा रहे हैं.
आगे के लिए एक छोटी सी सफाई कि रामायण वाल्मीकि की रचना है और उसे ‘रामायण’ कहना ही पर्याप्त है, लेकिन कुछ और रामकथाओं का जिक्र भी आता रहेगा, सो बीच-बीच में इसे ‘वाल्मीकि रामायण’ कहना जरूरी है.
3.
क्षेपकों का किस्सा
लगभग दो हजार वर्षों से रामायण जिस रूप में हमें उपलब्ध है, यानी जिस रूप में इसकी चर्चा अब से बारह सौ साल पहले भवभूति के यहाँ और सोलह सौ साल पहले कालिदास के यहाँ आती है, उसमें सात हिस्से हैं. ग्रंथ में इन हिस्सों को ‘कांड’ कहा गया है. इनमें छह कांडों का जिक्र निरंतरता में आता है- बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किंधाकांड, सुंदरकांड और युद्धकांड. सातवें यानी उत्तरकांड का जिक्र ग्रंथ में कम से कम दो जगह- पहले बालकांड में फिर उत्तरकांड में- ‘छह कांड और बाद वाला एक’ की धज में किया गया है. परंपरा से इसका अर्थ यह लगाया जाता रहा है कि वाल्मीकि विरचित रामायण के छह कांड ही लव-कुश ने राम-सभा में सुनाए थे. वहाँ से आगे बढ़ी कहानी बाद में ढेरों वृत्तांतों से सजे उत्तरकांड की बहुविध सामग्री का हिस्सा बन गई थी.
लंबे समय तक इसपर कोई एतराज देखने में नहीं आया, लेकिन बीसवीं सदी के तीसरे दशक से भारतीय समाज में शुरू हुई असाधारण हलचल ने कुछ ऐसी स्थितियाँ पैदा कीं कि समूचे उत्तरकांड को और कई बार बालकांड को भी पूरा का पूरा क्षेपक, यानी अन्य कवियों द्वारा बाद में जोड़े गए अंश कहने का दबाव बढ़ गया. कुछ समस्याएं बौद्ध संस्कृति में नई जान पड़ने से पैदा हुईं. राहुल सांकृत्यायन ने रामायण में बौद्धविरोधी तत्व खोजे और राम के चरित्र में मौर्यवंश के विनाशक राजा पुष्यमित्र शुंग की प्रशंसा देखी. शूद्र जागरण ने शंबूक को अपना प्रतीक बना लिया. ब्यौरे में जाएं तो बालकांड में अश्वमेध यज्ञ का वर्णन और उत्तरकांड में शंबूक वध, सीता परित्याग तथा सीता, लक्ष्मण और राम का दुखद अंत उच्चजातीय आधुनिक हिंदू मन में उसकी प्राचीन आत्मछवि को लेकर वितृष्णा पैदा करने लगा.
भक्तिकाल में रामचरितमानस जैसे वैष्णव काव्यों के जरिये इस समस्या का समाधान खोजा जा चुका था, फिर भी पढ़े-लिखे लोगों का वाल्मीकि रामायण तक पहुंचना लाजमी था. ऐसे में असाधारण संस्कृतिविद् वासुदेव शरण अग्रवाल (1904-1967 ई.) ने अनेक प्रमाणों के साथ रामायण के अटपटेपन का यह शाब्दिक उपचार भी प्रस्तुत किया कि
‘रामायण यानी राम+अयन=राम की यात्रा. यह यात्रा अयोध्याकांड से शुरू होकर युद्धकांड पर समाप्त हो जाती है, सो पहला और आखिरी कांड भरती के हैं.’
एक सभ्यतामूलक महाकाव्य को एक चौथाई खारिज कर देने का यह मामला अनोखा है, हालांकि पंच-कांडीय रामायण भी आधुनिक वैष्णव मन के मुताबिक शायद ही ढल सके!
रही बात सनातन परंपरा में आने वाली बाकी पुरानी रामकथाओं की तो महाभारत में आया ‘रामोपाख्यान’ वासुदेव शरण अग्रवाल की व्याख्या के करीब है. रामायण के उत्तरकांड में आई घटनाओं का इसमें कोई जिक्र नहीं है. लेकिन कालिदास और भवभूति, दोनों के यहाँ उत्तरकांड भी रामकथा का अभिन्न अंग है. कालिदास के ‘रघुवंशम’ में न केवल इसकी घटनाओं का वर्णन है बल्कि इनकी स्वाभाविक परिणतियों में जाते हुए इन्हें बहुत आगे तक ले जाया गया है. रामायण में जिस राजवंश की तीन पीढ़ियों का किस्सा बयान किया गया है, ‘रघुवंशम’ में उसकी बीस से ज्यादा पुश्तों की कहानी है. आगे चलें तो भवभूति का ‘उत्तर रामचरितम’ सीता परित्याग के ही इर्दगिर्द रचा गया है.
कुछ सवाल रामायण के लेखक को लेकर भी हैं. एक यह कि वाल्मीकि की जाति क्या है? बहुत अच्छी बात है कि उत्तर भारत में एक जाति खुद को उनके साथ जोड़ने लगी है. अगल-बगल मौजूद दो दलित बस्तियों में एक के बाहर डॉ. भीमराव आंबेडकर की और दूसरी के आगे महर्षि वाल्मीकि की अनगढ़ मूर्तियाँ दिखाई देती हैं. जब-तब मूर्तियों के लिए एक ही जगह की दावेदारी झगड़े का सबब भी बन जाती है. इसके जवाब में उच्चवर्ग रामायण के वे श्लोक दिखाता है, जिनसे वाल्मीकि का ब्राह्मण होना साबित होता है. अगला सवाल यह उठता है कि रामायण एक ही व्यक्ति ने लिखी, या स्मृति आधारित एक लंबी रचना को कई बेनाम लोग सैकड़ों वर्षों में थोड़ा-थोड़ा खींचते गए?
अभी एक बात तय लगती है कि महाकाव्य रामायण ने अपने जीवनकाल का ठीकठाक हिस्सा अलिखित ग्रंथ की तरह ही बिताया. भाषाशास्त्रियों और इतिहासकारों ने रामायण की भाषा और कथासूत्र पर काम करके इसके रचनाकाल को बुद्ध के एक-दो सदी पहले से लेकर उनके चार-पांच सौ साल बाद तक विस्तारित माना है. रही बात बौद्ध, जैन, लोकायत, आजीवक आदि श्रमण संस्कृतियों से इसके संबंध की तो इस ग्रंथ के अवगाहन से आम समझ यही बनती है कि श्रमण संस्कृति से विरोध और खुले तौर पर उसके निषेध के बावजूद यह ग्रंथ का मूल स्वर नहीं है.
रामायण की मूल चिंता वैदिक व्यवस्था में ढिलाई और राजवंशों का कमजोर पड़ना है. दोनों को कृतयुग की तरह मजबूत बनाने की अपेक्षा ग्रंथ की शुरुआत में ही इसके नायक से की गई है. बालकांड के पहले सर्ग में देवर्षि नारद मुनिपुंगव वाल्मीकि के लिए रामायण की एक संक्षिप्त रूपरेखा खींचते हैं, जिसके अनुसार
‘राघव सौगुने राजवंश स्थापित करेंगे और इस लोक में चातुर्वर्ण्य (चार वर्णों की व्यवस्था) के तहत सबको अपने-अपने धर्म में लगाएंगे.’
राजवंशान् शतगुणान् स्थापयिष्यति राघवःI
चातुर्वर्ण्यं च लोकेऽस्मिन् स्वे स्वे धर्मे नियोक्ष्यतिII 1-1-96
4.
अलग रामकथाओं वाले राम
आगे चलें तो बालकांड के सर्ग 15 में राम और विलक्षण वानरों के जन्म को लेकर बनी दैवी योजना दुनिया-जहान के भीषण दुख झेलने वाले, उनके आघात से अक्सर कराह उठने वाले ग्रंथ नायक के जीवन व्यवहार को देखते हुए अटपटी जान पड़ती है. अयोध्याकांड में गंगापार, वनवास की पहली रात घने जंगल में बिताने से पहले लक्ष्मण को अगली सुबह होते ही अयोध्या लौट जाने के लिए कहते हुए वे भरत, कैकेयी और दशरथ को कोसते ही चले जाते हैं-
अनाथः चैव वृद्धः च मया चैव विनाकृतः I
किम् करिष्यति कामात्मा कैकेय्या वशमागतःII 2-53-8
इदम् व्यसनम् आलोक्य राज्ञः च मति विभ्रमम् I
कामएव अर्थ धर्माभ्याम् गरीयान् इति मे मतिःII 2-53-9
सुखी बत सभार्यः च भरतः केकयी सुतः कI
मुदितान् कोसलान् एको यो भोक्ष्यति अधिराजवत्II 2-53-11
अपि इदानीम् न कैकेयी सौभाग्य मद मोहिता I
कौसल्याम् च सुमित्राम् च सम्प्रबाधेत मत् कृतेII 2-53-15
अहम् एको गमिष्यामि सीतया सह दण्डकान् I
अनाथाया हि नाथः त्वम् कौसल्याया भविष्यसिII 2-53-17
‘अनाथ, वृद्ध और मुझसे अलगाए हुए कामात्मा (दशरथ) कैकेयी के वश में आकर न जाने क्या कर डालेंगे. राजा का यह दुर्भाग्य और उनका मतिभ्रम देखकर मुझे लगता है कि अर्थ और धर्म की तुलना में काम कहीं ज्यादा बड़ी चीज है. …
कैकेयीपुत्र भरत अब राजा की तरह खुशी-खुशी कोसल का अकेले ही भोग करेंगे. …
सौभाग्य के मद से मोहित कैकेयी मेरे साथ संबंध होने के कारण कौसल्या और सुमित्रा को प्रताड़ित करेंगी. …
सीता के साथ मैं अकेला दंडकवन में जाऊंगा, अनाथ कौशल्या की देख-रेख तुम कर लेना.’
कमाल की बात है कि यह कचोट, यह कराह वाल्मीकि विरचित रामायण के प्रभाव में या उसके समानांतर रची गई सारी ही रामकथाओं में नदारद है. मूल को छोड़कर हर कथा में राम को दूसरा पहलू भी देख सकने वाले एक स्थितिप्रज्ञ नायक की तरह दर्शाया गया है.
ईसा की बारहवीं सदी में आई कंबन की तमिल रचना ‘रामावतारम’ में राज्याभिषेक की तैयारी और वनवास के आदेश, दोनों ही मौकों पर राम के मुख को कमल के समान खिला हुआ बताया गया है. दुख-सुख में एक समान रहने की राम की यह क्षमता सबसे पहले त्रिपिटक में संकलित ‘दशरथ जातक’ में दिखी, जहाँ बुद्ध पितृशोक में डूबे एक सेठ को यह कथा सुनाकर उसका दुख बांटने और उसे बोध के उच्चतर स्तर पर ले जाने का प्रयास कर रहे हैं. जातक के अंत में बुद्ध वचन कुछ इस प्रकार है-
‘यशोधरा सीता थीं, आनंद लक्ष्मण, और वह राम पंडित मैं ही था.’
इस जातक में दशरथ काशी के राजा हैं और पहली पत्नी कौशल्या की मृत्यु के बाद उन्होंने कैकेयी से दूसरा विवाह किया है. कौशल्या के बेटे राम सुरक्षा की चिंता से कही गई अपने पिता की बात मानकर भाई लक्ष्मण और बहन सीता के साथ हिमालय चले जाते हैं. वहाँ लंबा वक्त बिताकर सौतेले भाई भरत द्वारा लाई गई पिता की मृत्यु की सूचना सहज ही झेल जाने के कारण कथा में उन्हें ‘राम पंडित’ कहा गया है. लेकिन वाल्मीकि रामायण में ‘विरुद्धों के सामंजस्य’ वाले अपने असाधारण गुण के बावजूद राम एक या दो बार हर कांड में विह्वल होते दिखाई पड़ते हैं.
रामायण में कितना वाल्मीकि का है और कितना प्रक्षिप्त, इस बहस में घुसना इसलिए भी ज्यादा मायने नहीं रखता कि लगभग दो हजार साल से इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है. महाकवि कालिदास के दो-ढाई सौ साल पहले हुए संस्कृत के बौद्ध महाकवि अश्वघोष के जो ग्रंथ अभी तक किसी भी रूप में उपलब्ध हो सके हैं उनमें वाल्मीकि का कोई जिक्र नहीं है. लेकिन स्वयं कालिदास ने कई जगह वाल्मीकि को आदिकवि कहा है. जाहिर है, उनके समय तक, यानी ईसा की चौथी-पांचवीं सदी में गुप्तकाल के चरमोत्कर्ष तक रामायण की प्रतिष्ठा एक स्थिर कालजयी कृति के रूप में स्थापित हो चुकी थी. कथानक के स्तर पर इसमें कुछ भी जोड़ना-घटाना संभव नहीं था.
हाँ, रामायण के समानांतर कथानक वाली रामकथाएं कालिदास के समय में भी कही-सुनी जाती थीं. ऊपर बौद्ध दायरे में मौजूद रामकथा को लेकर थोड़ी चर्चा हम कर चुके हैं. जैन रामकथाओं में रामायण के कई किस्से बदले हुए रूप में आते हैं. रावण का वध यहाँ लक्ष्मण के हाथों हुआ है और भविष्य में रावण के तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित होने की बात मौजूद है. ‘योगवाशिष्ठ’ और ‘अध्यात्म रामायण’ के दार्शनिक राजा राम भी पुराने हैं. लेकिन ये कथाएं तब धर्म-प्रेरित दायरों में ही चलती थीं, जबकि रामायण और महाभारत की कहन-सुनन बड़े नागरिक दायरे में थी.
कालिदास का समय रामकथा की लोकप्रियता में तेज फैलाव का था. इसका कुछ अंदाजा उनकी अपनी रचना ‘रघुवंशम’ से होता है, जिसे आज की जुबान में रामायण का एक ‘ऑफशूट’ या ‘फैन-फिक्शन’ माना जा सकता है. उनके थोड़े ही समय बाद हुए प्राकृत भाषा के जैन कवि विमलसूरि की ‘पउमचरियम’ और सातवीं सदी में इसी परंपरा के रविसेन की संस्कृत रचना ‘पद्मपुराण’ से श्रमण संस्कृति के दायरे में कई उपकथाओं समेत रामायण जैसी ही रामकथा के फैलाव का पता चलता है. सिर्फ पात्रों के संसर्ग की कुछ शर्तें बदल जाती हैं. पद्मपुराण के लगभग पचास साल बाद आया संस्कृत का अंतिम महाकाव्य, भवभूति का ‘उत्तर रामचरित’ ज्यादातर मामलों में वाल्मीकि रामायण की मूल्य प्रणाली का निषेध करता है, लेकिन रामायण में कोई क्षेपक अंश होने की बात वहाँ भी नहीं है.
कालिदास के समय को लेकर थोड़ी धुंध आज भी मौजूद है लेकिन भवभूति का देश-काल तो हमें बिल्कुल सटीक पता है. ईसा की आठवीं सदी के पूर्वार्ध का कन्नौज. वहाँ के राजा यशोवर्मन के राजकवि, अपभ्रंश काव्य ‘गौड़वाहो’ के रचनाकार वाक्पति ने भवभूति का जिक्र राजसभा में अपने वरिष्ठ कवि के रूप में कई जगह बड़े सम्मान के साथ किया है. इसके कोई चार सौ साल बाद कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ में भवभूति को यशोवर्मन और कश्मीर के राजा ललितादित्य मुक्तापीड, दोनों का राजकवि बताया गया है. कुछ इस तरह कि ललितादित्य द्वारा कन्नौज जीत लिए जाने के बाद भवभूति स्वभावतः उनके हिस्से आ गए. तात्पर्य यह कि बतौर कवि वाल्मीकि और बतौर ग्रंथ रामायण को लेकर जो भी संशय हमारे मन में हों, बीते दो हजार सालों में कवि और काव्य की जगह ज्यादा नहीं बदली है.
5.
अयोध्या और साकेत की गुत्थी
रामायण के इतिहास-सम्मत अध्ययन के साथ एक बड़ी समस्या अयोध्या की जुड़ी हुई है. बालकांड के पांचवें सर्ग में इसका वर्णन कोसल साम्राज्य की राजधानी के रूप में किया गया है.
‘सरयू के किनारे कोसल नाम का एक खुशहाल जनपद हुआ करता था, उसी में स्वयं राजा मनु द्वारा निर्मित अयोध्या नाम की नगरी पूरी दुनिया में मशहूर थी.’
कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान् I
निविष्टः सरयूतीरे प्रभूतधनधान्यवान् II 1-5-5
अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता I
मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयम् II 1-5-6
मुश्किल यह है कि इतिहास के सबसे पुराने स्रोतों में कोसल जनपद की राजधानी के रूप में श्रावस्ती का ही जिक्र आता है, जिसकी खुदाई अभी सौ साल पहले अयोध्या से सौ किलोमीटर उत्तर, बलरामपुर जिले में की गई. त्रिपिटक में बुद्ध के समकालीन व्यक्ति के रूप में यहाँ के राजा पसेनदि का जिक्र आता है, जिसकी पहचान पौराणिक चरित्र प्रसेनजित के रूप में हुई है. स्वयं गौतम बुद्ध ने अपने जीवन के अंतिम 25 वर्षावास श्रावस्ती में ही बिताए. इस दौर में साकेत का जिक्र उनके जीवन प्रसंगों में एक शहर या जिले के रूप में बार-बार आता है, अयोध्या का एक बार भी नहीं. बाद में यूनानी और चीनी यात्रियों की किताबों में यह नाम ‘जागेद’ जैसे बदले हुए उच्चारणों के साथ मिलता है, लेकिन ‘अयोध्या’ नाम का शहर ऐतिहासिक स्रोतों में कम, धार्मिक-साहित्यिक स्रोतों में ही ज्यादा नजर आता है.
अभी एक चलन साकेत और अयोध्या को एक-दूसरे का पर्याय मानने का चल पड़ा है. कालिदास ने अयोध्या को मनुपुत्र इक्ष्वाकु द्वारा बसाई गई नगरी कहा है जबकि पालि-बौद्ध सूत्रों में साकेत को राजा ओक्काक द्वारा बसाया गया शहर बताया जाता है. जैन धर्म के कुल 24 तीर्थंकरों में 22 इक्ष्वाकु वंश से आते हैं और यह पहले तीर्थंकर ऋषभदेव का दूसरा नाम है. इक्ष्वाकु और ओक्काक एक ही नाम के संस्कृत और पालि रूप हैं, इसकी पुष्टि हो चुकी है. लेकिन क्या अयोध्या और साकेत को एक ही शहर के दो नाम मान लेने के लिए इतना काफी होगा? ‘रघुवंशम’ में राजा कुश काफी समय बाद अयोध्या पहुंचते हैं तो उसे अव्यवस्था के करीब पहुंचा हुआ एक नगर ही पाते हैं. ऐसे में क्या इस संभावना पर भी विचार करना चाहिए कि दोनों नाम एक शहर के हों तो भी दोनों का समय अलग है?
‘साकेत’ बीच में शुंगवंश की छोटी-सी अवधि को छोड़कर बुद्धकाल लेकर गुप्तवंश के उदय तक, यानी लगभग सात सौ साल एक बौद्ध नगरी की तरह ही प्रतिष्ठित रहा. कनिष्क के राजकवि, महायानी संस्कृत महाकवि अश्वघोष साकेत में निवास करते थे और पुरुषपुर (पेशावर) आते-जाते रहते थे. उनके शास्त्रार्थों के किस्से साकेत से जुड़े हैं.
रही बात अयोध्या की तो एक सत्ताकेंद्र के रूप में इसका जिक्र गुप्तवंश के उदय के साथ शुरू होता है और लगभग तीन सौ साल चलता है. गुप्तवंश निश्चित रूप से प्राचीन भारत के दो सबसे प्रतापी राजवंशों में एक है. लिहाजा कुछ इतिहासकारों ने समुद्रगुप्त द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञ और अयोध्या को साझा सूत्र बनाकर वाल्मीकि और रामायण को इससे जोड़ने की कोशिश भी की है. संभव है, स्मृति रूप से रामायण की लिखित रूप में पहली प्रस्तुति इसी समय में हुई हो. यह खर्चीला काम यकीनन राज्याश्रय में ही संभव हुआ होगा. लेकिन इससे आगे जाना मुश्किल है.
भारत में प्राचीन इतिहास का कोई भी अध्ययन मगध से शुरू होता है क्योंकि किसी लिखित सामग्री से जोड़े जा सकने वाले पुरातात्विक स्रोत हमें छठीं सदी ईसापूर्व में राजगृह के राजा बिंबिसार तक ही पहुंचा पाते हैं. त्रिपिटक में इस दौर के बहुत सारे किस्से या उनके सुराग मिलते हैं. अगले छह-सात सौ वर्षों में मगध राजनीति से लेकर संस्कृति तक भारत की धुरी बना रहता है और पुरातात्विक खोजों के जरिये घटनाओं की कड़ी जुड़ती जाती है. लेकिन रामायण में मगध का कोई जिक्र ही नहीं है. पूरब में मिथिला इस कहानी का अहम हिस्सा जरूर है, जो ऐतिहासिक काल की शुरुआत से ही वैशाली के गणराज्य का एक गौण सहयोगी भर दिखता है. बुद्ध-तथागत और श्रमणी जैसे शब्द रामायण में आते हैं, लेकिन मगध सत्ता की गंध भी इसमें न होना इन्हें हाशिये की चीज बना देता है. ले-देकर बात वहीं पहुंचती है कि किस्सा बुद्ध से पहले का है लेकिन छोटी-मोटी चीजें इसमें छह-सात सौ साल जुड़ती गईं.
क्षेत्र वाले मामले पर वापस लौटें तो डॉ. राममनोहर लोहिया महाभारत को पूरब-पश्चिम का और रामायण को उत्तर-दक्षिण का महाकाव्य बताते हैं, लेकिन ऐसा नतीजा सुनी-सुनाई बातों के आधार पर या सरसरी पढ़ाई से ही निकाला जा सकता है. रामायण की कहानी जरूर अयोध्या-मिथिला से किष्किंधा और श्रीलंका तक चलती है, लेकिन इसकी उपकथाएं पूरब में बंगाल से लेकर पश्चिम में हिंदूकुश पर्वत श्रृंखला को पार करती हुई पामीर की तलहटी तक चली जाती हैं. अयोध्याकांड में दशरथ की मृत्यु की सूचना मिलने पर भरत अपने ननिहाल कैकय से अयोध्या लौटते हैं तो सिंधु नदी कई सारी नदियाँ पार कर लेने के बाद लगभग आधे रास्ते में आती है. उत्तरकांड में वही भरत गंधर्वों का देश गांधार जीतकर अपने बड़े बेटे तक्ष के लिए तक्षशिला और छोटे पुष्कल के लिए पुष्कलावत नगर बसाते हैं.
तक्षं तक्षशिलायाँ तु पुष्कलं पुष्कलावते I
गंधर्वदेशे रुचिरे गांधारविषये च सःII 7-101-11
इसके अलावा कुछ शहरों के अलग नाम हमें उत्तरकांड से ही पता चलते हैं. मसलन, मथुरा के लिए आया नाम मधुरा, जिसे यहाँ कृतयुग में प्रतापी असुर मधु द्वारा बसाया हुआ बताया गया है. कहानी में रावण का संबंधी, लवण नाम वाला एक असुर इस शहर से काफी बड़े इलाके पर राज करता है और राम की ओर से उसे निपटाने का जिम्मा शत्रुघ्न को दिया गया है. जाहिर है, रामायण में रावण का प्रभाव दक्षिण तक सीमित नहीं है. एक साहित्यिक ग्रंथ को इतिहास मानकर पढ़ना ठीक नहीं है लेकिन एक प्राचीन रचना की तरह उसे पढ़ना तो हमें सीखना ही होगा.
6.
बलि, यज्ञ और आहुति
स्कूली इतिहास में हम पढ़ते आए हैं कि वैदिक कर्मकांडों में होने वाली हिंसा का निषेध बुद्ध और महावीर की लोकप्रियता का एक बड़ा कारण था. फिर भी बालकांड में वैदिक यज्ञों का वर्णन, यज्ञशाला में अश्वमेध के घोड़े समेत विविध जंगली और पालतू पशुओं की बलि देकर उनकी चर्बी और विविध अंगों की आहुति रामायण के आधुनिक पाठक को विचलित करती है. ग्रंथ की शुरुआत में ही तमसा-तट पर क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से एक के शिकार ने जिस व्यक्ति को आशुकवि बना दिया हो, वह इतने तामझाम के साथ हो रहे इस अकारण पशुसंहार का वर्णन इतना रस लेकर क्यों कर रहा है? बालकांड के सर्ग 14 में आए ये नौ निरंतर श्लोक एक अलग ही दृश्य उपस्थित करते हैं.
नियुक्ताः तत्र पशवः तत् तत् उद्दिश्य दैवतम् I
उरगाः पक्षिणः चैव यथा शास्त्रम् प्रचोदिताःII 1-14-30
शामित्रे तु हयः तत्र तथा जलचराः च य I
ऋषिभिः सर्वमेवै तन् नियुक्तम् शास्त्रतः तदाII 1-14-31
पशूनाम् त्रिशतम् तत्र यूपेषु नियतम् तदा I
अश्व रत्नः उत्तमम् तस्य राज्ञो दशरथस्य चII 1-14-32
कौसल्या तम् हयम् तत्र परिचर्य समंततः I
कृपाणैः विशशासः एनम् त्रिभिः परमया मुदाII 1-14-33
पतत्रिणा तदा सार्धम् सुस्थितेन च चेतसा I
अवसत् रजनीम् एकाम् कौसल्या धर्म काम्ययाII 1-14-34
होताध्वर्युस्तथोद्गाता हस्तेन समयोजयन् I
महिष्या परिवृत्त्या अथ वावाताम् अपराम् तथाII 1-14-35
पतत्रिणः तस्य वपाम् उद्धृत्य नियतेन्द्रियः I
ऋत्विक् परम संपन्नः श्रपयामास शास्त्रतःII 1-14-36
धूम गन्धम् वपायाः तु जिघ्रति स्म नराधिपः I
यथा कालम् यथा न्यायम् निर्णुदन् पापमात्मनःII 1-14-37
हयस्य यानि च अंगानि तानि सर्वाणि ब्राह्मणाः I
अग्नौ प्रास्यन्ति विधिवत् समस्ताः षोडशर्त्विजःII 1-14-38
कुछेक शब्द अपरिचित हो सकते हैं लेकिन अन्वय के बाद इस हिस्से की संस्कृत बिल्कुल सरल है. इसके पहले यज्ञशाला में अलग-अलग वृक्षों की लकड़ियों वाले 21 यूप खड़े करने की बात कही गई है, जिनमें रत्न जड़े हैं और जिन्हें सुंदर वस्त्रों से ढक दिया गया है. ‘यूप’ का अर्थ बलि के लिए पशु बांधने का खंभा बताया जाता है. हिंदी के लगभग सारे ही अनुवादों में इस अंश को भक्तिभाव के अनुरूप बनाने का प्रयास किया गया है, जो इसे अपाठ्य बना देता है. यहाँ इसका सीधा अर्थ दिया जा रहा है. सविस्तार व्याख्या के लिए अंग्रेजी अनुवादों पर भरोसा करना होगा.
‘अलग-अलग देवताओं के लिए बताए गए पशु, सांप, पक्षी और शास्त्रों में वर्णित अन्य प्राणी उन (यूपों) में बांध दिए गए. बलि का समय आया तो ऋषियों और शास्त्रों के अनुसार घोड़ा और जलचर भी वहाँ उपस्थित थे. ये तीन सौ पशु यूप से अपने नियत स्थानों पर बंधे थे और उनमें राजा दशरथ का उत्तम अश्वरत्न भी शामिल था. कौशल्या ने उस घोड़े की परिक्रमा की और अति प्रसन्नता के साथ तीन कृपाणों से उसे मार दिया. धर्म की कामना रखते हुए रानी कौशल्या ने चिड़िया की तरह उड़ चुके उस घोड़े के साथ स्थिर चित्त से एक रात बिताई.
‘यज्ञ कराने वाले पुजारियों- होता, अध्वर्यु और उद्गाता- को राजमहिषी, ठुकराई हुई पत्नी और रखेल का हाथ पकड़ाया गया. (दशरथ की तीनों अर्धांगिनियों के लिए यहाँ वर्णित विशेषण कुछ अलग ही कहानी कहते हैं.) फिर इंद्रियों पर नियंत्रण रखने वाले उस परम (ज्ञान) संपन्न ऋत्विक (यज्ञप्रमुख) ने घोड़े की चर्बी को शास्त्रोक्त विधि से पकाया और राजा ने निश्चित समय और निश्चित न्याय के साथ इस चर्बी के धुएं की गंध लेकर अपने पापों का शमन किया. उन सभी सोलह ऋत्विज ब्राह्मणों ने इसके बाद घोड़े के अंगों को विधिवत अग्नि को समर्पित किया.’
ये यज्ञप्रमुख ऋष्यश्रृंग अंगराज रोमपाद के दामाद, उनकी बेटी शांता के पति हैं. यज्ञ से पहले अयोध्या के महल में दोनों का स्वागत बेटी-दामाद की तरह होता दिखाया गया है. शायद इसी के त्रुटिपूर्ण पाठ से हुई गलतफहमी में, या किसी और ग्रंथ में आया कोई किस्सा पढ़कर शांता को दशरथ की बेटी यानी राम की बड़ी बहन कहा जाने लगा है.
बहरहाल, इस हिंसक वर्णन का वाल्मीकि के मिजाज से विरोध देखने और इसको किसी और की जोड़ी हुई चीज मानने के बजाय इस प्रसंग को देखने का नजरिया बदलना कहीं बेहतर रहेगा. क्रौंच-निषाद प्रकरण (1-2-15) में वाल्मीकि का विक्षोभ निषाद के चिड़िया मारने को लेकर नहीं, ‘काम-मोहित’ स्थिति में जोड़े की एक चिड़िया को मार डालने को लेकर था. संवेदना उस जीव से नहीं, स्थिति विशेष से जुड़ी थी. महाभारत में ऐसा ही किस्सा राजा पांडु द्वारा कामातुर हिरण को मार देने से जुड़ता है. संतति की निरंतरता सुरक्षित रखने के लिए जरूरी है कि किसी जानवर को जोड़े की हालत में या गर्भवती स्थिति में न मारा जाए. ऐसी नैतिक दृष्टि दुनिया के कुछ शिकारी कबीलों में देखी गई है और मछलियों को प्रजनन के महीनों में न पकड़ने का चलन बंगाल के कुछ मछुआरों में भी मौजूद है.
बालकांड में हुआ यह अश्वमेध यज्ञ राजा दशरथ द्वारा आयोजित पुत्रकामेष्टि यज्ञ का पहला चरण है. आगे उत्तरकांड में राम भी एक अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करते हैं, हालांकि भरत की सलाह पर राजसूय यज्ञ की योजना वे छोड़ देते हैं. यज्ञ के ऐसे ब्यौरे वहाँ नहीं दोहराए जाते और रानी की जगह सोने की सीता होने के कारण वह वैसे भी फीका है.
चंद्रभूषण (जन्म: 18 मई 1964)शुरुआती पढ़ाई आजमगढ़ में, ऊंची पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय में. विशेष रुचि- सभ्यता-संस्कृति और विज्ञान-पर्यावरण. सहज आकर्षण- खेल और गणित. 12 साल पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहकर प्रोफेशनल पत्रकारिता. अंतिम ठिकाना नवभारत टाइम्स. ‘तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत’ (यात्रा-राजनय-इतिहास) और ‘पच्छूं का घर’ (संस्मरणात्मक उपन्यास) से पहले दो कविता संग्रह ‘इतनी रात गए’ और ‘आता रहूँगा तुम्हारे पास’ प्रकाशित. इक्कीसवीं सदी में विज्ञान का ढांचा निर्धारित करने वाली खोजों पर केंद्रित किताब ‘नई सदी में विज्ञान : भविष्य की खिड़कियां’ प्रेस में. पर्यावरण चिंताओं को संबोधित किताब ‘कैसे जाएगा धरती का बुखार’ प्रकाशनाधीन. भारत से बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर पुस्तक ‘भारत से कैसे गया बुद्ध का धर्म’ सेतु से प्रकाशित. patrakarcb@gmail.com |
बेहद महत्त्वपूर्ण आलेख।बहुत तैयारी और संगत दृष्टिकोण से लिखा हुआ। छठी शताब्दी में रामायण के किसी पाठ का जिक्र गुणाकर मुले ने भी किया है। मिथकों और आदि काव्यों को लेकर व्यवस्थित और समेकित लेखन की बहुत अधिक आवश्यकता है। ताकि उनका समकालीन एवं समय – संदर्भ पाठ बन सके।चंद्रभूषण जी का यह लेख इस जरूरत को पूरा करता है। इसके लिए साधुवाद।
बेहद सुचिंतित एवं महत्वपूर्ण आलेख. विश्लेषणपरक तार्किकता और रोचकता से पता चलता है कि विषय पर लेखक की पकड़ मजबूत है. आलेख में सभ्यता समीक्षा की रोमांचक यात्रा का आह्लाद है और वैचारिक रूप से समृद्ध होने की अपेक्षा भी. अगली कड़ी का इंतजार है.
बहुत सुंदर है। रामायण सम्बन्धी हर जरूरी सवाल और संदेह को साफ दृष्टि से देखने के लिए इस आलेख को पढ़ना चाहिए।आभार।
यह भाग पढ़ कर अभी पूरा किया। तार्किक और रोचक ढंग से लिखा है और आम तौर पर हो जाने वाले किसी भी अतिशयता से दूर है। बहुत सही बात है कि यदि रामायण को इतिहास न माने तब भी उसे एक प्राचीन रचना की तरह पढ़ना सीखना होगा।किसी भी रचना के देशकाल को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
चंद्नभूषण सर जी अनुष्टुप और त्रिष्टुप दोनों स्वरों पर आधारित मात्रिक छंद नहीं हैं, बल्कि वर्णों पर आधारित वार्णिक छंद हैं।इन छंदों में तुकांतता भी नहीं मिलती है। इसके उलट दोहा-सोरठा स्वरों पर आधारित मात्रिक छंद हैं। इनमें तुकांतता अनिवार्य रूप से होती है। इन छंदों को हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने आभीर जाति की देन माना है।