• मुखपृष्ठ
  • समालोचन
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • वैधानिक
  • संपर्क और सहयोग
No Result
View All Result
समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • अनुवाद
    • आलोचना
    • आलेख
    • समीक्षा
    • मीमांसा
    • बातचीत
    • संस्मरण
    • आत्म
    • बहसतलब
  • कला
    • पेंटिंग
    • शिल्प
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • नृत्य
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
No Result
View All Result
समालोचन

Home » सौभाग्यनूपुर: बजरंग बिहारी तिवारी

सौभाग्यनूपुर: बजरंग बिहारी तिवारी

तमिल साहित्य के पांच महान महाकाव्यों में से एक ‘सीलप्पदिकारम्’ के रचनाकार इलंगो अडिहल चोल साम्राज्य से जुड़े समझे जाते हैं. इधर चर्चित सेंगोल का सम्बन्ध भी चोल साम्राज्य से है. सेंगोल राजदण्ड है और न्याय का प्रतीक है. सीलप्पदिकारम् पर आधारित राधावल्लभ त्रिपाठी की पुस्तक ‘सौभाग्यनूपुरम्’ की चर्चा करते हुए उसकी शूद्रक के मृच्छकटिकम् से यहाँ तुलना की गयी है. शासन में न्याय की अवधारणा और उसकी अनिवार्यता पर आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने यह सुंदर आलेख लिखा है. प्रस्तुत है.

by arun dev
May 30, 2023
in आलेख
A A
सौभाग्यनूपुर: बजरंग बिहारी तिवारी
फेसबुक पर शेयर करेंट्वीटर पर शेयर करेंव्हाट्सएप्प पर भेजें

सौभाग्यनूपुर
दण्डवत करते राजा पर राजदण्ड
बजरंग बिहारी तिवारी

काव्यमीमांसाकार राजशेखर के नाटक ‘बालरामायण’ के आरंभ में पारिपार्श्विक सूत्रधार से पूछता है कि राम के जिस चरित्र को मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकि ने देखकर लिखा उसमें यह कवि नया क्या जोड़ेगा? सूत्रधार का उत्तर है-

“मारिष! क्वचित्कश्चित्प्रगल्भते नहि सर्वः सर्वं जानतिl”

अपनी रुचि, गति, देश और काल के अनुरूप कवियों की दृष्टि बनती या पड़ती है. कोई कुछ देखता है, कोई कुछ. एक कवि सब कुछ नहीं देख सकता. इस तरह, अगले कवि के लिए अवकाश बना रहता है.

राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा लिखित ‘सौभाग्यनूपुर’ की कथा पहले कही जा चुकी है. दो हजार साल हुए होंगे, तमिल के महाकवि इलंगो अडिहल ने ‘सीलप्पदिकारम्’ में कोवलन और कण्णही/कन्नगी की कहानी रची थी. उसके बाद इस कहानी को आधार बनाकर भारत की कई भाषाओं में रचनाकारों ने लिखा. हिंदी में अमृतलाल नागर ने ‘सुहाग के नूपुर’ उपन्यास की रचना की. इस तरह तमिल का यह प्रथम महाकाव्य ‘सीलप्पदिकारम्’ उपजीव्य काव्य की कोटि में माना गया.

जिसे ‘भारतीयता’ या भारत-बोध कहा जाता है उसके निर्माण में उपजीव्य काव्यों की केंद्रीय भूमिका है. तेलुगु में प्रथम रामायण लिखने वाली मोल्ल कुम्हरि मात्र काव्य नहीं रच रही थीं. वे तेलुगु जातीयता का निर्माण कर रही थीं. वे इस राष्ट्रीयता को भारतीयता में रूपांतरित कर रही थीं. ऐसा रूपांतरण हर भाषा, हर प्रदेश में घटित हुआ, घटित होता रहा. भारतीयता ऐसे ही बनी. बार-बार पुनर्नवा होती रही. राधावल्लभ का यह महाकाव्य भी भारत-बोध को रचते रहने वाले इसी महत्प्रयास का, पुनर्नवता की परंपरा का हिस्सा है.

जैसे उपजीव्य काव्यों का उल्था या अनुवाद नहीं किया जाता वैसे ‘सौभाग्यनूपुर’ ‘सीलप्पदिकारम्’ का अनुवाद नहीं है. यह अनुसृजन है. स्रोत-काव्य का नवसृजन है. इस अर्थ में मौलिक है. कवि प्रतिभा का परिचायक है. कंबन कृत ‘रामायण’ या सरलादास रचित ‘महाभारत’ की तरह.

‘सौभाग्यनूपुर’ कुल चालीस सर्गों में निबद्ध वृहदाकार महाकाव्य है. प्राचीन दक्षिणापथ के तीनों प्रदेशों चेर, चोल और पांड्य में घूमती यह कथा धर्म, सत्य और राजनय की काव्य, नाटक व संगीत तत्त्व समाहित किए हुए चिर-नूतन गाथा है. कावेरीपत्तन या पुहार नगरी में एक गुणी व संपन्न श्रेष्ठी परिवार में जन्मा कोवल कथानायक है. उसका प्रेम संबंध नर्तकी माधवी से है. माधवी एक श्रेष्ठी पिता और गणिका माँ की पालिता (पुत्री) है. कोवल का विवाह कन्नगी से हुआ. भग्नहृदया माधवी ने पुहार नरेश से आदेश करवाया कि उसे कोवल का सामीप्य मिलता रहे. उसके जीवन निर्वाह की व्यवस्था कोवल द्वारा की जाए. पथ-विचलित नायक दरिद्र होता गया. कन्नगी के नूपुर पर दृष्टि गड़ाए माधवी की इच्छा जब पूरी होती न दिखी तो उसने कोवल को अपने निवास-स्थल से निष्कासित कर दिया. कन्नगी के आश्रय में आया कोवल अंततः अपनी भार्या को लेकर मदुरा नगरी (मदुरै) चला गया. यह मात्स्य-न्याय वाली ‘अंधेर नगरी’ थी.

एक षड्यंत्र के तहत कोवल पर शाही पायल (रानी के नूपुर) की चोरी का आरोप लगाकर कारागार में डाल दिया गया. यह षड्यंत्र शाही स्वर्णकार हेमदास, सैनिक लिंगप्प, आनंद और कालिय द्वारा रचा हुआ था. दूषित न्याय व्यवस्था में उस पर मुकदमा चला और पाँच प्राड्विवाकों (न्यायाधीशों) की समिति ने कोवल को मृत्युदंड सुनाया.

कोवल की न्यायिक हत्या के बाद राजा को सच का पता चला. राजा ने दोष परिमार्जन करना चाहा लेकिन इस परिमार्जन में राजा-रानी दोनों को अपने प्राण उत्सर्ग करने पड़े.

मूल ‘सीलप्पदिकारम्’ (के हिंदी अनुवाद) में तीन काण्ड हैं-
पुहार काण्ड,
मदुरइ काण्ड और
वंजी काण्ड.

हर काण्ड गाथाओं में विभक्त है. पहले काण्ड में 10, दूसरे में 13 और तीसरे में 7 गाथाएं हैं. इस तरह यह प्रबंध कुल 30 गाथाओं में पूर्ण हुआ है. कोवलन को शूली पर चढ़ाए जाने के बाद मदुरै के राजा-रानी की मौत यहाँ भी होती है. दोनों कथानकों में कई अंतर हैं. मूल कृति में कन्नगी क्रोध और प्रतिशोध में अपना स्तन नोचकर मदुरै पर उछाल देती है. पूरा नगर जलने लगता है. नगरदेवी मदुरावती प्रकट होकर कन्नगी को आश्वस्त करती हैं और मदुरै को पूरी तरह भस्म होने से बचाती हैं.

‘सौभाग्यनूपुर’ में यह प्रसंग किंचित बदला हुआ है. वृंदग्राम से ग्रामजनों के साथ कन्नगी मदुरानगरी पहुंचकर राजा को धिक्कारती है. वह दाहिने हाथ से अपना वक्ष-स्थल उखाड़कर फेंक देती है. इससे राजभवन में आग लग जाती है. मदुरा के नागरिकों और राजा के मनाने पर कन्नगी का क्रोध शांत होता है. देवी प्राकट्य का प्रसंग इसमें नहीं है.

इस महाकाव्य के प्रयोजन पर प्रकाश डालते हुए प्रस्तावना भाग (श्लोक 3) में राधावल्लभ ने शार्दूलविक्रीडित छंद में लिखा है कि यह पुरातन आख्यान रुचिर और प्रत्यग्र (अभिनव, ताज़ा) लगे, उसमें साम्प्रतिक दृष्टि जुड़ जाए, भारत की समूची संस्कृति झलके, संभावित समय भी आभासित हो, ज्ञानीजन इसके अनुशीलन में संलग्न हों; मैंने ऐसा प्रयास किया है-

आख्यानं रुचिरं पुरातनमपि प्रत्यग्रतां प्राप्नुयात्
दृष्टिः साम्प्रतिकीतथाऽद्यतनधीः साचापिसंगच्छताम् l
उन्मीलेन्ननु भारतस्य निखिला सा संस्कृतिश्चायतिः
संरम्भः खलु तादृशोऽत्र विहितो विज्ञैरसौ शील्यताम् II

कवि ने रचना की प्रत्यग्रता (नवता, प्रासंगिकता) का उल्लेख दूसरे श्लोक में भी किया है-

“प्रत्याग्रा च तथा विभाति करुणागाथाऽधुनाप्येव या”.

अपने अंतर्वस्तु के कारण कोई कृति प्रासंगिक होती है. ‘सीलप्पदिकारम्’ की सदाबहार नवता उसके अंतर्वस्तु में निहित है. ‘सौभाग्यनूपुर’ उसे और समयानुकूल, सांद्र व सार्थक बनाता है. समयानुकूल बनाने के लिए कवि उपजीव्य कथानक की कुछ शाखाओं-प्रशाखाओं में काट छांट करता है.

अतिप्राकृत, पारलौकिक या दैवीय अंश हटाए अथवा कम किए गए हैं. आर्यावर्त के राजाओं से चेर-चोल राजाओं के साथ संघर्ष के जो उल्लेख मूल रचना में हैं उन्हें भी संपादित कर दिया गया है. उन प्रसंगों को गाढ़ा किया गया है जो प्रेम, त्याग, मत्सर आदि भावों से जुड़े हैं और कतिपय चरित्रों के वैशिष्ट्य का निर्माण करते हैं. महाकाव्य के मूल सरोकार को गहरा, व्यापक, तीखा व सामयिक बनाकर उसकी सार्थकता में अभिवृद्धि करने की कोशिश की गई है.

‘सीलप्पदिकारम्’ पर विचार करते हुए हमारा ध्यान अनायास ही ‘मृच्छकटिकम्’ पर जाता है. दोनों कृतियाँ एक ही कालखण्ड दूसरी शताब्दी ईस्वी की हैं. दोनों रचनाकारों का संबंध दक्षिण भारत से है. पहले तमिल प्रदेश के हैं तो दूसरे कर्नाटक के. पहली कहानी कावेरी तट से संबधित है तो दूसरी गोदावरी के किनारे से. दोनों के नायक- कोवल और चारुदत्त श्रेष्ठी (व्यापारी) वर्ग से हैं. दोनों नायक दो-दो स्त्रियों के अनुरागी हैं. इनमें एक ब्याहता है तो दूसरी गणिका. दोनों नायकों की नृत्य-संगीत में रुचि है. दोनों परिष्कृत रुचि वाले हैं. दोनों कथानकों में ग्वालों की बस्ती है. कथानक में आने वाले में निर्णायक मोड़ का एक सिरा इस बस्ती से जुड़ता है. दोनों नायकों में भरपूर उदारता या दाक्षिण्य है. वे तेजी से विपन्न होते हैं.

‘मृच्छकटिकम्’ रूपक है जबकि ‘सीलप्पदिकारम्’ महाकाव्य. दोनों महाकवियों की शैव मत में आस्था है और अन्य धर्म-मतों के प्रति सम्मान है. दोनों राज परिवार के हैं. दोनों क्रांतदर्शी हैं. इलंगो अडिहल वीतरागी युवराज हैं जबकि महाकवि शूद्रक स्वयं राजा हैं. दोनों समस्यामूलक कृतियाँ हैं. दोनों कृतियों के सरोकार एक-से हैं. दोनों में समस्या का समाधान भी लगभग समान दिया गया है.

जैसे धर्मविद्या में सृष्टि से जुड़े प्रश्न केंद्रीय होते हैं और दर्शनविद्या में सत्य से जुड़े प्रश्न वैसे साहित्य में न्याय से जुड़े प्रश्न केंद्रीय हुआ करते हैं. न्याय का प्रश्न साहित्य में कभी प्रत्यक्ष रूप में आता है और कभी परोक्ष रूप में. अक्सर वह प्रबल मानवीय भावों- रति, उत्साह, भक्ति, सौंदर्य आदि से इस तरह आवेष्टित होता है कि उसे चिह्नित कर पाना आसान नहीं रहता. साहित्य को ‘कांतासम्मित उपदेश’ कहे जाने का आशय भी यही है.

न्याय के प्रश्न नीरस, निर्मम, परुष, रुक्ष या खुरदुरे हुआ करते हैं. लोक (श्रोता, पाठक, रसिक, भावक) उनका सामना करने से बचता है, अन्यमनस्क-सा रहता है. काव्य अपने मधु-लेपन से उस तिक्तता का गोपन कर उसे आकर्षक, ग्राह्य, काम्य, मसृण बना देता है. महाकवि अश्वघोष की कृतियों ‘वज्रसूची’ और ‘सौंदरनंद’ के उदाहरण से इसे सुगमतापूर्वक समझा जा सकता है. पहली कृति में प्रश्न सीधे आए हैं जबकि दूसरी कृति के बारे में अश्वघोष लिखते हैं-

इत्येषा व्यपुशान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भा कृतिः
श्रोतृणां ग्रहणार्थमन्यमनसां काव्योपचारात्कृता l
यन्मोक्षात्कृतमन्यदत्र हि मया तत्काव्यधर्माकृतम्
पातुं तिक्तमिवौषधं मधुयुतं हृदयं कथं स्यादिति II

(सौंदरनंद, 1/8/63)

न्याय का संबंध शांति से है जबकि अन्याय का परिणाम अशांति में व्यक्त होता है. विचार-भिन्नता से न्याय की अनेक अवधारणाएं हो सकती हैं, होती हैं. इस भिन्नता के बावजूद न्याय की एक सार्वभौम धारणा का अंतःप्रवाह परिलक्षित किया जा सकता है. जिस न्याय-बोध से आदिकवि ने क्रौंच पक्षी के मारे जाने पर अपना क्षोभ (‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः’) व्यक्त किया है कुछ उसी न्याय-संकल्पना से कोवल की न्यायिक हत्या पर ‘सौभाग्यनूपुर’ के कवि की आक्रोशित प्रतिक्रिया जाहिर हुई है-

हे राजन्नाततायी त्वं त्वया संत्रसिताः प्रजाः I
पारं नैव विदन्तीमाः दुःखसागरमज्जिताः ll
भस्मीभूतं  भवेत्  सर्वं  भवनं  निखिलं  तव l
अन्यायस्य च पापस्य भूमौ यत्खलु संस्थितम् II

(40/106-7)

हे राजा! तू आततायी है. तूने प्रजाजनों को संत्रस्त कर रखा है. दुःख के सागर में डूबी प्रजा पार नहीं पा रही. अन्याय और पाप की भूमि पर स्थित तेरा यह सारा राजप्रासाद जलकर राख हो जाएगा.

‘मृच्छकटिकम्’ और ‘सौभाग्यनूपुर’ (‘सीलप्पदिकारम्’) दोनों महाकाव्य न्याय के प्रश्न से सीधे प्रतिश्रुत हैं. प्रस्तावना भाग में शूद्रक ने लिखा है कि उन्होंने यह रूपक नय (जनता या समाज के लिए निश्चित आचार-व्यवहार) के प्रचार और मुक़दमे में की जाने वाली बदमाशियों से परिचित कराने के लिए रचा है. नाटक (सट्टक) में यह सरोकार सीधे व्यक्त न होकर चारुदत्त व वसंतसेना के उदात्त प्रेमोत्सव के आश्रय (रत्युत्सव की आड़) में व्यंजित हुआ है-

“तयोरिदं सत्सुरतोत्सवाश्रयं नयप्रचारं व्यवहारदुष्टताम् l
खलस्वभावं भवितव्यतां तथा चकार सर्वं किल शूद्रको नृपः ll” (1/7).

न्याय का प्रश्न राज्य की दण्डनीति से उपजता है. कवियों से इसीलिए राजनय की बारीकियों को आयत्त करने की अपेक्षा की जाती है. न्याय के सवाल को कवि जितनी समझदारी, शिद्दत और स्पष्टता से उठाएंगे; काल-प्रवाह और लोक-स्मृति में उनकी जगह उतनी सुरक्षित होगी. कवि की यह क्षमता उनके सृजन की प्रत्याग्रता के निर्धारण में निर्णायक भूमिका निभाती है. यह क्षमता ही उन्हें ‘उत्पादक कवि’ बनाती है. उत्पादक कवि विरल होते हैं. ऐसे तो श्वानों की तरह असंख्य कवि गली-मुहल्लों में भरे पड़े हैं. बकौल बाणभट्ट,

“सन्ति श्वान इवासंख्या जातिभाजो गृहे गृहे l
उत्पादका न बहवः कवयः शरभा इव ll”
(‘हर्षचरित’, 1/15).

आचार्य मम्मट ने काव्य प्रयोजनों पर विचार के क्रम में न्याय-बोध को केन्द्रीय मानते हुए ‘व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये’ का परिगणन किया है. न्यायिक प्रक्रिया का ज्ञान होना व्यवहारविद होना है और अन्याय का प्रतिकार ही ‘शिवेतरक्षतये’ है. ‘सौभाग्यनूपुर’ में राजा से कोवल का यह कथन ‘शिवेतरक्षतये’ की ही अभिव्यक्ति है-

दण्डनीयास्त्विमे सन्ति प्रमत्ताः स्वार्थपोषकाः l
रक्षणीयाः प्रजा राजन्नेतेभ्यस्त्रासिताः प्रजाः Il
अदण्ड्यान् दण्डयन् राजा दण्ड्यान्नैव च दण्डयन् l
पापभाक्  जायते  नूनं  राज्यं  तस्य  विनश्यति Il

(38/136-7)

‘हे राजा! दण्डनीय हैं शक्ति-मद में चूर और स्वार्थी अधिकारी. उनके द्वारा त्रस्त प्रजा (तो सर्वथा) रक्षणीय है. बेगुनाहों को दण्डित करता तथा गुनहगारों को दण्ड न देता हुआ राजा पाप का भागी होता है और निश्चय ही उसका राज्य विनष्ट हो जाता है.’

न्याय व्यवस्था के ध्वस्त होने पर अवंतिपुरी में राज्यविप्लव होता है और पांड्यों की राजधानी मदुरानगरी में उलटफेर हो जाता है. इलंगो अडिहल वंजी की स्त्रियों से कहलवाते हैं-

“राजदंड वक्र हो जाए तो
पांडियन नृप जीवित नहीं रहेंगे.”
(3/29/अभिनंदन गाथा).

‘मृच्छकटिक’ के भरतवाक्य (10/61) में ‘धर्मनिष्ठाश्च भूपाः’ (राजा धर्मनिष्ठ रहें) की कामना की गई है. धर्मनिष्ठ होने का अर्थ न्यायनिष्ठ होना है.

अवंतिपुरी नरेश पालक धर्मनिष्ठ (न्यायी) नहीं है तो प्रजा क्षुब्ध है और राजा मारा जाता है. धर्म का प्रचलित अर्थ लगाएं तो राजा पालक खूब धार्मिक है. चारुदत्त को फाँसी की सजा सुनाकर वह सीधे यज्ञमंडप में ही जाता है. स्पष्ट है कि धर्मनिष्ठ का यह अर्थ कवि को अभीष्ट नहीं है. धर्म उसका परिधान है जिसे वह सहूलियत के अनुसार पहनता-बदलता रहता है. भीतर से वह कुटिल-कपटी-अन्यायी है. उसके अंत पर प्रजा चैन की सांस लेती है.

आर्यक नया राजा है. अपने सहयोगी शर्विलक सहित वह न्यायनिष्ठ प्रतीत होता है. ‘सौभाग्यनूपुर’ का पांड्य राजा कपटी या प्रजाद्वेषी नहीं है. वह अपनी नासमझी या मासूमियत में अन्याय होने देता है. परिणामतः उसे ग्लानिवश प्राणोत्सर्ग करना पड़ता है. राजा की पत्नी कनुप्रिया भी उसी चिता पर जा बैठती है. दोनों साथ-साथ भस्मीभूत होते हैं. उनके बाद गद्दी उनके पुत्र लक्ष्मण को मिलती है. अन्याय पर प्रजा का आक्रोश तीनों महाकवियों ने चित्रित किया है.

‘सौभाग्यनूपुर’ में जनाक्रोश का नेतृत्व कन्नगी करती है. हजारों लोग उसके साथ हैं. उनके चरणों के समवेत आघात से मदुरा नगरी काँपती है-

“जनानां च पदाघातैः वृन्दग्रामस्य धावताम् l
मदुरा नगरी क्रांता कम्पते स्म भयान्विता ll”
(40/73)

इसके बाद कवि ने राजा की निगाह से इस उद्वेलित जनसमूह का जैसा चित्र खींचा है वह लोकचित्त में संरक्षित, इतिहासग्रंथों में ‘डॉक्यूमेंटेड’ जनक्रान्तियों से मेल खाता है. यही इस चिरपुरातन, चिरनवीन कथा की प्रत्यग्रता है. सांग-रूपक की रचना करते ‘सौभाग्यनूपुर’ के ये श्लोक ‘मृच्छकटिक’ के प्रसिद्ध सांगरूपक

“नीतिक्षुण्णतटं च राजकरणं हिंस्रैः समुद्रायते.”  (9/14) का स्मरण कराते हैं-

विषादलहरीजीर्णं कीर्णं मन्युतिमिंगिलैःl
वैरनक्रसमालीढ़ं दुःखवीचिसमाकुलम् ll
मथितं क्लेशसंतानैः करुणाजलपूरितम् l
अपारं च तथोदग्रं जनतासागरं ततम् ll
(40/87-88)

अपार और उदग्र जनता का सागर उस (राजा) के सामने था. वह विषाद की लहरों से जीर्ण, मन्यु (विद्रोह) भावना के तिमिंगलों से भरा हुआ था. क्रोध के मगरमच्छों से आलोडित था. चिंता की लहरों से समाकुल था. क्लेश के समूहों से मथा जा रहा था. करुणा के जल से भरा हुआ था.


संदर्भ सूची

1.राधावल्लभ त्रिपाठी, ‘सौभाग्यनूपुरं महाकाव्यम्’ (प्रथम संस्करण, 2020), न्यू भारतीय बुक कारपोरेशन, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली.
२.राधावल्लभ त्रिपाठी, ‘संस्कृत साहित्य का अभिनव इतिहास’ विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, चौथा संस्करण, 2013.
3.इलंगो अडिहल, ‘चिलप्पदिहारम’, आदि तमिल महाकाव्य, अनुवाद- डॉ. सु. शंकर राजू नायुडू व डॉ. एस.एन. गणेशन, मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास, संस्करण 1979.
4.राजशेखर, ‘काव्यमीमांसा’, अनुवादक- पंडित केदारनाथ शर्मा सारस्वत, बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना, प्र.सं. 1954.
5.‘राजशेखर रूपकावाली’, प्रथम एवं द्वितीय भाग, अनुवाद एवं संपादन- प्रो. रमेशकुमार पाण्डेय, अमरग्रंथ पब्लिकेशंस, दिल्ली-9, प्रथम संस्करण 2004.
6.अश्वघोष, ‘वज्रसूची’ चौखम्भा अमरभारती प्रकाशन, वाराणसी, संस्करण 1985.
7.आचार्य मम्मट, ‘काव्यप्रकाश’ प्रथम खण्ड, व्याख्याकार- डॉ. रामसागर त्रिपाठी, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली-07, प्र.सं. 1982.
8.शूद्रक, ‘मृच्छकटिकम्’, (चन्द्रिकाविभूषितम्), सं. डॉ. शिवबालक द्विवेदी, हंसा प्रकाशन, जयपुर, संस्करण 2017
9.डॉ. सुखवीर सिंह, ‘सौन्दरानंद महाकाव्य : एक समीक्षात्मक अध्ययन’, निर्मल पब्लिकेशंस, दिल्ली-94.
10.डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, ‘हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन’ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, प्र. सं. 1953.
11.बजरंगबिहारी तिवारी, ‘साहित्य और न्यायतंत्र’ (लेख), ‘आलोचना’ अक्टूबर-दिसंबर 2019, राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली.

बजरंग बिहारी तिवारी

जाति और जनतंत्र : दलित उत्पीड़न पर केंद्रित (2015), दलित साहित्य: एक अंतर्यात्रा (2015), भारतीय दलित साहित्य: आंदोलन और चिंतन (2015) बांग्ला दलित साहित्य: सम्यक अनुशीलन (2016), केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित साहित्य (2020), भक्ति कविता, किसानी और किसान आंदोलन (पुस्तिका, 2021) आदि पुस्तकें प्रकाशित. भारतीय साहित्य: एक परिचय (2005), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री से जुड़ी कहानियां (2012), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं (2013), यथास्थिति से टकराते हुए: दलित स्त्री जीवन से जुड़ी आलोचना (2015) आदि का संपादन 
bajrangbihari@gmail.com
Tags: 20232023 आलेखइलंगो अडिहलतमिलबजरंग बिहारी तिवारीराधावल्लभ त्रिपाठीसीलप्पदिकारम्सेंगोलसौभाग्यनूपुर
ShareTweetSend
Previous Post

बौद्ध संस्कृति और वर्णाश्रम धर्म: चंद्रभूषण

Next Post

सेनुर: सुनीता मंजू

Related Posts

अवधूत कापालिकों का मार्ग और अन्य कविताएँ : बजरंग बिहारी तिवारी
समीक्षा

अवधूत कापालिकों का मार्ग और अन्य कविताएँ : बजरंग बिहारी तिवारी

पंजाबी दलित कहानी :  बजरंग बिहारी तिवारी
आलेख

पंजाबी दलित कहानी : बजरंग बिहारी तिवारी

क्या गोलाबारी ख़त्म हो गई है!: फ़िलिस्तीनी कविताएँ
अनुवाद

क्या गोलाबारी ख़त्म हो गई है!: फ़िलिस्तीनी कविताएँ

Comments 9

  1. Rishikesh sulabh says:
    2 years ago

    सिलप्पदिकारम और मृच्छकटिकम वाला आलेख अच्छा है। हालाँकि यह ग्रंथ इस कारण से भी महत्त्वपूर्ण है कि इसकी वर्णात्मकता इतनी सघन और वैविध्यपूर्ण है कि यह लक्षणग्रन्थ की कमी को भी पूरा करता है।

    Reply
  2. श्रीविलास सिंह says:
    2 years ago

    अत्यंत सार्थक और समीचीन आलेख। हमारे महान ग्रंथों की जानकारी तो देता ही है, न्याय करने वाले और न्याय का नाटक करने वाले राजा का अंतर भी स्पष्ट कर देता है। प्रस्तुत करने हेतु समालोचन का आभार ।

    Reply
  3. Dalpat Rajpurohit says:
    2 years ago

    यह आलेख हमें समृद्ध करता है। ‘सीलप्पदिकारम’ की कन्नगी के अपने वक्ष को उखाड़कर मदुरै नगर पर फेंकने जैसा प्रसंग आळवार संत आण्डाल के काव्य ‘नाचियार तिरुमोळी’ में भी आता है। यह संगम काव्य का आळवार भक्ति कविता पर प्रभाव दर्शाता है।

    Reply
  4. धनजंय वर्मा says:
    2 years ago

    बजरंग बिहारी तिवारी के लेख में चर्चित राधा वल्लभ त्रिपाठी जी की कृति मैंने नहीं पढ़ी लेकिन उसका महत्व इस लेख से उजागर हो गया. इसका शीर्षक ही कितना प्रासंगिक और तात कालिक है त्रिपाठी जी को बधाई, तिवारी जी को धन्यवाद, आपका आभार

    Reply
  5. प्रो. निशा शर्मा, हरिद्वार says:
    2 years ago

    ऐसा ऐतिहासिक मर्म जो दंडवत करते राजा के कर्म से उत्पन्न होते रहे, जिसे धर्माचरण वाले कवियों ने कभी विस्मृत नहीं किया जिससे लोक! मर्यादित रक्षक धर्म की तरफ बढ़ते हुए न्याय सम्मत विवेचक का अधिकारी बनता है, इसे कवि श्रेष्ठ अपनी दृष्टि देते रहे हैं।
    तीनों महाकाव्यों से न्याय के तुलनात्मक आसन की खोज आप भली-भांति कर सके!
    हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएंँ आपको आदरणीय 🙏🌷

    Reply
  6. जयप्रकाश विलक्षण, says:
    2 years ago

    बहुत सुंदर लेख है!
    आश्चर्य कहूँ या संयोग कि दक्षिण भारत में एक फिल्म आई है-पोन्विन सेल्वन, जिसमें चोल साम्राज्य और समकालीन राज्यों आपसी राजनीतिक स्पर्धा फिल्माई गई है। अभी एक राजदंड भी राजनीति में गर्माया हुआ है और आपके लेख में उसी का न्याय दंड के रूप में जिक्र है।

    एक विरोधाभास भी दो ध्रुवों के साहित्य में दिखाई दिया। जहाँ दक्षिण भारतीय साहित्य में आपने बताया कि परलौकिक अंश हटाए गए हैं, वहीं उत्तर भारत में सबसे पवित्र माने जाने वाले ग्रंथ श्री रामचरितमानस् में महर्षि वाल्मीकि द्वारा कही गई एक सामान्य कथा को तुलसी ने पूरी तरह दैवीय रूप दे दिया है। जिसके दुष्परिणाम वर्तमान में हमें दिखाई दे ही रहे हैं।

    न्याय की अवधारणा को आपने संक्षेप में उदाहरण सहित समझाया है, जिसकी वर्तमान में अधिक आवश्यकता है। केवल राजदंड हाथ में आने से न्याय नहीं होता, उसके लिए तो विवेक का दंड मस्तिष्क में होना आवश्यक है।
    🙏💐🙏

    Reply
  7. डॉ. उमाकांत चौबे says:
    2 years ago

    बजरंग जी के साहित्यिक लेखों को पढ़ना अपने को सर्वथा परिमार्जित करना होता है । एक नए साहित्यिक संस्कार को पकड़ने में कभी कभी पसीना छूट जाता है । बस संतोष यह होता है कि पढ़ने के बाद मुझमें कई नई जानकारियां जुड़ी । सत्य और न्याय की अवधारणाओं पर मुझे आपसे पहले भी काफी कुछ सीखने को मिला है । अब तो कुछ ऐसा लगता है कि मदुरा नगर के अन्यायी राजा के राज्य में राज्यविप्लव हो जाता है जिसका नेतृत्व एक महिला नायिका करती है , लेकिन वहां राज्यविप्लव कब होगा जहां अन्याय की शिकार कई नायिकाएं अपनी अस्मिता को विसर्जित करने के लिए तैयार हैं । वहां न्याय कब मिलेगा ? क्या शेंगोल अन्याय का राजदंड है ?

    बजरंग जी के लेख को सुचित्त होकर पढ़ने में और इसका स्वागत करने में विलंब हुआ इसके लिए खेद है ।

    Reply
  8. Kamlnand Jhआ says:
    2 years ago

    साहित्य विशेषकर संस्कृत साहित्य में विन्यस्त न्याय-बोध के प्रश्न पर लगातार बजरंग बिहारी तिवारी जूझ रहे हैं। कुछ दिन पहले आलोचना में उनकी न्याय-चिंता विलक्षण रूप में प्रकट हुई थी। बजरंग जी की विशेषता है कि वे भारतीय क्लासिक परंपरा में प्रगतिशील तत्वों ओ निकलकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। राधाबल्लभ त्रिपाठी संस्कृत के विरल रचनाकार हैं और बजरंग जी के प्रिय लेखक। राधाबल्लभ जी के ‘सौभाग्यनूपुरं’ पर और विस्तार से बजरंग जी लिखे। बहुत बहुत बधाई।

    Reply
  9. Ajay Kumar says:
    2 years ago

    आचार्य ने इस लेख में यह बताते हुवे कि एक ही विषय पर जब दूसरा कवि लिखता है तो उसमें नया कैसे और क्या जोड़ता है (मारिष! क्वचितकश्चितप्रगलभते नहि सर्वं जानति।), इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित किये हैं कि कवि को कौन सी बातें उसे काल-प्रवाह और लोक स्मृति में अजेय बना देती हैं।
    “सन्ति श्वान इवासंख्या जातिभाजो गृहे गृहे l
    उत्पादका न बहवः कवयः शरभा इव ll”
    (‘हर्षचरित’, 1/15).

    अगला और सबसे महत्वपूर्ण बिंदु जिसको कहने के लिए राधावल्लभ त्रिपाठी की सौभाग्यनूपुर को आधार बनाया गया है वह है न्याय। इन्होंने इसमें बताया है,”साहित्य में न्याय से जुड़े प्रश्न केंद्रीय हुआ करते हैं।” इस लेख में न्याय-बोध और न्यायिक प्रक्रिया के ज्ञान को समालोचक जी ने अनेक उद्धरणों से बताने का सार्थक प्रयास किया है। न्याय पर ऐसी समालोचना जिसमें आदिकालीन से समकालीन कवियों को आधार बनाया गया हो अन्यत्र दुर्लभ है।

    Reply

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

समालोचन

समालोचन साहित्य, विचार और कलाओं की हिंदी की प्रतिनिधि वेब पत्रिका है. डिजिटल माध्यम में स्तरीय, विश्वसनीय, सुरुचिपूर्ण और नवोन्मेषी साहित्यिक पत्रिका की जरूरत को ध्यान में रखते हुए 'समालोचन' का प्रकाशन २०१० से प्रारम्भ हुआ, तब से यह नियमित और अनवरत है. विषयों की विविधता और दृष्टियों की बहुलता ने इसे हमारे समय की सांस्कृतिक परिघटना में बदल दिया है.

  • Privacy Policy
  • Disclaimer

सर्वाधिकार सुरक्षित © 2010-2023 समालोचन | powered by zwantum

No Result
View All Result
  • समालोचन
  • साहित्य
    • कविता
    • कथा
    • आलोचना
    • आलेख
    • अनुवाद
    • समीक्षा
    • आत्म
  • कला
    • पेंटिंग
    • फ़िल्म
    • नाटक
    • संगीत
    • शिल्प
  • वैचारिकी
    • दर्शन
    • समाज
    • इतिहास
    • विज्ञान
  • लेखक
  • गतिविधियाँ
  • विशेष
  • रचनाएँ आमंत्रित हैं
  • संपर्क और सहयोग
  • वैधानिक