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समालोचन

Home » सेनुर: सुनीता मंजू

सेनुर: सुनीता मंजू

लोक देवताओं पर शोध करने वाली एक छात्रा जब अपने घर की एक अनूठी प्रथा की जड़ों की तलाश करने निकलती है तो उसे एक ऐसी कथा मिलती है जिसमें दो अभिशप्त हत्याएँ हैं और एक बीमार समाज. युवा लेखिका सुनीता मंजू की कहानी ‘सेनुर’ प्रस्तुत है.

by arun dev
June 1, 2023
in कथा
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सेनुर: सुनीता मंजू
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सेनुर
सुनीता मंजू

ट्रेन ने जैसे ही सीटी दी, ओनुराग मायूस होकर बोला  ‘जल्दी आना रिचा’. ‘अरे हां बाबा! शादी के बाद चली आऊंगी. तुम तो ऐसे निराश हो रहे हो, जैसे मेरी डोली विदा कर रहे हो.’ हंसते हुए रिचा ने कहा. ओनुराग भी मुसकुरा दिया. हाथ हिलाते हुए देर तक ट्रेन को जाते हुए देखता रहा. जब तक वह पूरी तरह से ओझल नहीं हो गई. रिचा ने अपनी सीट के आसपास नजर डाली. सामान तो ओनुराग ने ही रखवा दिया था. उसने खाना निकाल कर खाया. अपनी चादर, तकिया, कंबल लेकर ऊपर वाली सीट पर जाकर सेट हो गई. इत्मीनान हुआ कि, रेलवे ने चादर-कंबल की सुविधा पुनः जारी कर दी थी. वरना तो कोरोना के नाम पर दो ढाई साल तक बंद ही थी. सुविधाएं कम कर दी किराया कम  किया नहीं. अच्छा है कि ऊपर वाली सीट मिली. ऊपर आराम से लेट कर या बैठकर नीचे की हलचलों का आनंद लेते रहो. जब दाखिल होने का मन करे,  नीचे आकर बैठ जाओ. नीचे की सीट पर तो कचर पचर हमेशा लगी रहती है. अब थर्ड एसी में भी लोकल हॉकर घुस जाते हैं. फेसबुक देखते ओनुराग से चैट करते रिचा सो गई.

सुबह उठी तो लहलहाते खेत उसका स्वागत कर रहे थे. वैशाली सुपरफास्ट का टाइम बहुत अच्छा है, उसने सोचा. रात में आठ बजे लगभग नई दिल्ली से चलती है, शहर व भीड़भाड़ रात में ही गुजर जाते हैं. सुबह होते-होते पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रवेश कर जाती है. खुली ताजा हवा, लहलहाते खेत,  तालाब, पोखर मन मोह लेते हैं. मुंह-हाथ धोते, नाश्ता करते ही सीवान आ जाता है. उसके बाद फटाफट सामान समेटो तुरंत छपरा. दिल्ली से जितनी बार भी आना जाना हुआ था, अधिकांशतः वैशाली से ही हुआ. रिचा फ्रेश होकर मुंह-हाथ धो कर आ गई. नाश्ता किया उसके बाद अपने शोध की सिनोप्सिस लेकर पढ़ने लगी.

जेएनयू में जाने के बाद उसके जीवन की दिशा बदल गई थी. कोर्स वर्क के दौरान ही उसने तय कर लिया था, कि उच्च शिक्षा को केवल नौकरी पाने का साधन नहीं बनाएगी. वह वास्तव में ज्ञान प्राप्त करना चाहती थी. भारतीय समाज को समझना चाहती थी. शोध के लिए उसने शीर्षक चुना “ग्रामीण समाज के लोक देवता”. अपने गांव और आसपास के गांवों के अतिरिक्त अपने रिश्तेदारों के गांवों में भी उसने देखा था कि सामान्य देवताओं (विष्णु, शिव, राम, कृष्ण, दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश) के अतिरिक्त भी कुछ खास गांव के या घर के देवता होते थे. उनके विषय में जानना चाहती, पर कभी कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला.

व्हाट्सएप मैसेज की घंटी बजी. देखा तो ओनुराग था ‘गुड मॉर्निंग’ के साथ. वह दो वर्षों से ओनुराग मुखर्जी को जानती है. कोई दिन ऐसा नहीं गुजरा कि उसका गुड मॉर्निंग का मैसेज ना आया हो. उसके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई. उठ गए महाशय नौ बजे. उसने रिप्लाई किया ‘गुड मॉर्निंग रोशोगुल्ला’. ओनुराग पर अत्याधिक प्यार आता तो वे उसे रोशोगुल्ला कह कर बुलाती. चैटिंग शुरू हुई तो समय का पता ही नहीं लगा. झालमुढ़ी, झालमुढ़ी, की आवाज़ सुनकर वह चौंक गई. अरे सीवान आ गया क्या? ओनुराग को बाय बोल कर नीचे आ गई. धीरे-धीरे सामान समेटने लगी. बाहर पोखर, गाय, बकरियां, बाग- बगीचे, धान के खेत उससे बातें करते प्रतीत होते थे. मानो वे पूछ रहे हों कैसी हो तुम? शहर जाकर हमें भूल तो नहीं गई ?

‘छपरा उतरे के बा बेटी?’ बगल की सीट वाली आंटी की आवाज़ सुनकर वह चौंकी. जी आंटी. ‘अच्छा, हम भी छपरे उतरब. गए रहे थे दिल्ली. बेटा पतोह लगे. मन नाहीं लागल. अब आपन देस, खेत खलिहान देखके हियरा जुरा गया. ‘जी’  रिचा बस इतना ही बोली. यह आंटी बातूनी  लग रही थी, और वह बात करने के मूड में बिल्कुल भी नहीं थी. आंटी को इग्नोर करते हुए वह बाहर का दृश्य देखने लगी.

छोटे-छोटे स्टेशनों को छोड़ते हुए धड़धड़ाती हुई ट्रेन छपरा जंक्शन पर जाकर खड़ी हो गई.  रिचा अपने ट्रॉली बैग को खींच कर ले जा रही थी, तभी मोंटू भैया, पप्पू चाचा, चंकी, शिवम सभी डिब्बे में घुस गये. फटाफट सामान उतारा. पिताजी (बड़े पापा) प्लेटफार्म पर शांत खड़े आदेश दे रहे थे. घबराओ मत. आराम से उतारो सामान. यहां देर तक रुकेगी ट्रेन. झक-झक सफेद कड़क कुर्ते पायजामे में जँच रहे थे पिताजी. रिचा ने जाकर पैर छुए. उन्होंने आशीर्वाद दिया ‘खुस रहो बूच्ची’.

सब चलकर गाड़ी में बैठ गए. गाड़ी सड़क पर दौड़ने लगी,  और रिचा के मस्तिष्क में गांव की यादें दौड़ने लगीं. पिताजी हमेशा उसे प्यार से बूच्ची कहते हैं.  बहुत प्यार करते हैं. पापा से भी ज्यादा. उन्होंने मैत्रेयी दी और मुझ में कभी कोई फर्क नहीं समझा. पापा भी मैत्रेयी दी को बहुत प्यार करते हैं. दोनों भाइयों की हम दो बेटियाँ. दादी हमेशा पिताजी और पापा को समझाती ‘तोहार लोग का वंश कैसे चलेगा?’  बड़ी मां और मम्मी को हमेशा ताने मारती. दादी कहती

‘लिंटर (इंटरमीडिएट) के पढ़ाई बड़का के और बेचू (बीएचयू) के पढ़ाई छोटका के मति भरभट (भ्रष्ट) कर दिया. एकहके ठो बेटी के बाद दोनों पतोह के ऑपरेसन करवा दिए लोग. हमारा कौन सुनेगा.’

दादी की शिकायत लाज़मी थी. मेरे परदादा पांच भाई थे. फिर मेरे दादाजी चार भाई. जिनमें मेरे दादा सबसे छोटे. उनके सिर्फ दो बेटे और दो बेटियां. आगे चलकर पिताजी और पापा की सिर्फ एक-एक बेटी. बेटे नदारद. अन्य सभी पट्टीदारों के यहां बेटे बेटियों, नाती पोतों,भाई भतीजों से घर भर गया था. हमारे ही खानदान से पूरा मोहल्ला बस गया था. वह ज्यादा पढ़े लिखे नहीं तो क्या सवांग तो ज्यादा हैं. विधायक, सांसद, मनतरी,  सनतरी, गुंडा, बदमास, सबसे उनका परिचय है. जिला में दबदबा है. दादी मन मसोसकर रह जाती. उनके घर के सवांग पढ़ने लिखने में ही लगे रहे.

किसी काम के आदमी से मेलजोल नहीं रखा. बस लेखक, त फरफेसर,  त  सहितकार, त बुद्धुजीभी, त अलान,  त फलान.  बेटी को दिल्ली भेज दिया पढ़ने. बिआह के कवनो फिकिर ना है. दादी हमेशा बड़बड़ाती रहती.

रिचा ख्यालों में खोई थी कि घर आ गया. सभी पट्टीदारों का घर एक के बाद एक. साफ सुथरा मोहल्ला. सजावट का काम चल ही रहा था. आपस में बेशक मनमुटाव हो. छोटे-मोटे झगड़े हों. लेकिन तीज त्यौहार शादी विवाह के अवसर पर सभी पट्टीदार एकदम एकजुट हो जाते हैं.   मजाल है कि बाहर का कोई, कुछ बोल कर निकल जाए. सभी शादी की तैयारियों में लगे थे. रिचा ने दादी के पैर छुए. ‘खुस रहो बाबू. केतना दुबरा गई हो?’ दादी ने कहा.  सभी को प्रणाम करके रिचा भीतर आंगन में गई, तो मम्मी ने गले से लगा लिया ‘मेरा बच्चा आ गया’. दीदी, बड़ी माँ, बुआ, सभी से मिलने के बाद ऊपर अपने कमरे में आ गई. ‘मम्मी, मैं नहा धोकर थोड़ा आराम करूंगी. प्लीज जगाना मत.’  खाना खाकर रिचा  गहरी नींद में सो गई. शाम को जब सगुन के गीत होने लगे, तब रिचा की नींद खुली. आंगन में आई तो मन प्रसन्न हो गया. टोले मोहल्ले के औरतें एकत्रित थीं. थोड़ी दूरी पर नान्ह जतिया औरतें बैठी थीं. रिचा की जीभ तुरंत दांतों के नीचे आ गई. अरे यह क्या सोच रही हूं मैं?  निर्धन वर्ग की औरतें कहना चाहिए या फिर तथाकथित दलित स्त्रियाँ.

रिचा ने स्वयं से कहा. वह अपने भीतर के सामंत को काबू करना चाह रही थी, पर माहौल के साथ जब तब वह सामंत बाहर आ जाता था. दलित महिलाओं के साथ बच्चे भी थे, जो सगुन गीतों के बाद विदाई में मिलने वाले लाइ बताशे के लालच में आ गए थे. रिचा ऊपर गई और अपने साथ लाई चॉकलेट सभी बच्चों को बांट दी. इतना बड़का बिस्कुट बराबर चॉकलेट पाकर बच्चे निहाल हो गए. रिचा को इत्मीनान हुआ. संगीत से निपट कर खा-पीकर कमरे में गई. मोबाइल देखा तो चार मिस्डकॉल ओनुराग के. व्हाट्सएप मैसेज से भरा था. ओनुराग की उदास इमोजी, शिकायत भरी शेर-ओ-शायरी. रिचा ने तुरंत कॉल किया

‘तुम भी एकदम बच्चे हो ओनुराग. अरे, शादी का घर है. सौ व्यस्तताएँ हैं. कुछ दिन सब्र करो. मेहमानों से भरे घर में मैं तुमसे बातें नहीं कर सकती. केवल मैसेज कर सकती हूं.’

‘तुम मुझे वहां की अपनी पिक तो सेंड कर सकती हो ना?’ अनुराग बोला.

‘हां बाबा करूंगी स्टेटस लगा दूंगी देख लेना अब रखती हूं बाय.’ तभी बुआ कमरे में आ गई.

‘ए बन्नी ई मच्छरदानी दे आओ तो अपने फूफा जी को. बिना मच्छरदानी के एक दिन नहीं सोते हैं.’

‘ठीक है बुआ’ कहकर रिचा दालान की तरफ चली गई. सबको पानी वानी देते, व्यवस्थित करते, सोते-सोते रात के एक बज गए. कल बारात है तो जल्दी उठना भी पड़ेगा. रिचा तो अपनी पूरी तैयारी दिल्ली से ही करके आई थी.

अगला दिन व्यस्तता में ही बीता. शाम को हल्ला होने लगा ‘बरात आ गई’,  ‘बारात आ गई’. भोला बहू आंगन में आकर सब से कहने लगी ‘बड़की मलकिनी बड़ी  सुंदर दुलहा है.  बाप रे बाप पाँच गिरोह नाच बा. पच्चीस ठो गाड़ी बा. ऐतना साज बाज से बारात आइल बा कि बस पूछिए मत.’

बड़ी मम्मी हुलसकर गई मैत्रेयी दीदी के पास देवता घर में. बोली

‘लो बेटा, इस सेनुर को धीरे-धीरे करिया बाबा के पिण्ड पर गिराते रहना. जब तक द्वार पूजा होगी,  हम आकर बता देंगे.’

तभी रिचा देवता घर में पहुंची. ‘मैत्रेयी दीदी जीजू तो बहुत स्मार्ट हैं. बहुत चालाक हैं आप. कहीं वह मुझे पसंद ना कर लें, इसलिए मुझे दिखउकी में नहीं बुलाया ना.’ वह बड़ी बहन से चुहल करने लगी. मैत्रेयी बोली ‘चुप कर’ और ध्यान से सेनुर गिराने लगी.

रिचा को बहुत अजीब लगा. बचपन से ही उसे यह रस्म अजीब लगती थी. होने वाली दुल्हन बैठकर एक घंटे तक धीरे-धीरे काली पिण्डी पर सिंदूर गिराए! यह कैसी रस्म है. सिर्फ हमारे ही खानदान में ऐसी काली पिण्डी के देवता हैं. ऐसा क्यों? जब भी पूछो कोई जवाब ही नहीं देता. बात को इधर उधर घुमा कर बहला देते हैं. उसकी दृष्टि तो बचपन से ही शोधोन्मुख थी. जेएनयू में जाकर और परिपक्व हो गई थी. क्यों? कैसे? कब? यह तीन प्रश्न हमेशा उसकी दृष्टि में घूमते रहते. उसने मन में सोचा, चलो अभी शादी का मजा ले लेते हैं. इस प्रश्न को बाद में हल करेंगे. और वह  सहेलियों के साथ डांस में मगन हो गई.

अगले दिन रो रुला कर मैत्रेयी दी विदा हो गई.  बारात विदा करके सब ने जलपान किया और घोड़े बेचकर सो गये. सीधे शाम को नींद खुली. मछली बनाने की तैयारी हो रही थी. रिचा ने सोचा, चलो थोड़ा गांव में घूमकर आया जाए. पिताजी ने कहा ‘ज्यादा दूर मत जाना बुच्ची. अंधेरा घिरने वाला है.’ वह शिवाला चली गई. वहाँ का बगीचा, मीठे पानी का हैंडपंप, बूढ़ा बरगद, फूलों की क्यारियां, गजब की शांति मिलती है मन को. रिचा मंदिर की मूर्तियों को देखने लगी. यह मूर्तियों की बनावट देखकर लगता है, यह मंदिर गुप्त काल का है. शायद सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में होने के कारण यह मुगल शासकों के प्रकोप से बच गया. ओनुराग यहां होता तो अच्छी चर्चा होती. उसने कॉल करने की सोची तभी भोला बहू मंदिर आ गई. उसने प्रणाम किया. ईया ने आशीर्वाद दिया ‘जियत रहो मोर बाबू.’  ईया ने नाक से लेकर मांग भर पीला सिंदूर लगाया था. लगता था किसी मटकोर से सीधी यहीं चली आ रही हैं. सिंदूर देखकर रिचा को याद आया, क्यों ना सिंदूर गिराने की रस्म के बारे में ईया से पूछा जाए. इनको भी तो यहां रहते पचास वर्ष हो गए होंगे. पिताजी बताते हैं कि उनके छठीयार के दिन भोला बहू का गवना हुआ था.

‘एक बात पूछें ईया’ रिचा ने कहा.

‘हां बाबू पूछो.’

यह हमारे खानदान के ब्याह में होने वाले दुल्हन से काला पिण्डी पर सेनूर काहे गिरवाया जाता है?  और किसी के यहां तो यह रस्म नहीं है. वैसा काला पिण्डी भी कहीं हम नही देखे हैं.

ईया बोली ‘अरे अब ई सब छोड़ो. तोहरा घर के रिवाज है.’

पर हमारे ममहर, फूफहर, कहीं ऐसा रिवाज नहीं है. ‘आप बताओ ना ऐसा अजीब सा रिवाज क्यों रखा गया है?’

अब हम का बताएं ‘बड़की मालकिन से पूछ लिहा’.

अरे दादी से तो पूछ-पूछ कर हार गई. वह कुछ बताती ही नहीं.

‘चलो बन्नी अन्हार हो गया. घर चलो.’ भोला बहू बोली.

‘ईया बहाने मत बनाओ. हम जानते हैं, तुम हमारे पिताजी को अपने बेटे की तरह ही प्यार करती हो. हमें अपनी पोती मानती हो. ईया तोहके हमार किरिया. तोहके बतावे के पड़ी.’

‘अरेरे रे ई का कईलू बाबू!!’

बाबू साबू कुछ ना . अब बताओ.

भोला बहु सोच में पड़ गई. ठंडी आह लेकर चबूतरे पर बैठ गई. बड़ी दर्दनाक कहानी बा बाबू. तोहार पुरखा पुरनिया के. हम अपने अजियासास से सुने थे.  बरसों पहले के बात होई. तोहार पुरानिया लोग एक ठो अनाथ डोम को रखे थे. बड़ा मजबूत जवान था. दिन भर हरवाही करता था. गाय गोरू के गोबर उठाता था.  आषाढ़ के दिन थे. धान के बिया डालना था. तुम तो जानबे करती हो,  बिया डाले के दिने केतना तामझाम होता है. घर के मलकिनी को जायके पड़ गया नईहर. एक बियहल बेटी थी. गवना नहीं हुआ था. बेटी (बड़की) पर घर द्वार सब छोड़ कर चली गई. बड़की बेचारी सब तैयार कर करा के खेत में भेजवा दी.  सारा बाल-बच्चा, लईका-सेयान, कूदत- फानत खेत में चला गया. घर रह गई बड़की. जब बिया छिटाने लगा,  तब कुछ कम पड़ गया. तुरंते डोमा को भेजा गया. बोले कि  कोठरी में बीया के टोकरी रखल है, लेकर आओ. डोमा घरे गया. घर में कोई ना. केवल बड़की. दुआर पर आकर देखे लगा कि कोई भेटाए त टोकरी हमरा माथा पर रखवा दे. बड़ी देर तक कोई दिखाई ना दिया. बड़की बोली ‘का बात है चाचा? काहे खड़ा हैं?’  ‘अरे बुच्ची, ई टोकरी माथा पर धरे के बा. एक घंटा से देख रहे हैं. कोई आदमी जन दिखाईए नहीं दे रहा.’

‘अरे चाचा, ई आषाढ़ के भीड़ में के घर में रहेगा. सारा गांव त खेत बधार में होगा. चलिए हम उठा देते हैं.’

बड़की ने टोकरी हाथ लगाकर उठा दी. भारी टोकरी थी. माथे पर रखते समय दोनों के सिर टकरा गए, और बड़की की मांग का सेनुर झड़ कर डोमा के गंजी  पर गिर गया. देर तो पहले ही हो गया था. डोमा हड़बड़ाहट में धेयान नहीं दिया. टोकरी लेकर सरपट भागा. आधे रास्ते गया कि मालिक भेंटा गए. बोले  ‘ऐ डोमा! छनभर के रास्ता में दू घंटा लग गया.’  तभी मालिक की नजर गंजी पर झड़े सेनुर पर गई. डोमा को भेजकर घर गए. बड़की गीत गुनगुना रही थी. मालिक का खून उबाल मारने लगा. सांझ को डोमा को आंगन में बुलाए. बड़की को बुलाए. घर के सभी सदस्य अचरज से देख रहे थे. मालिक ने पूछा ‘ई गंजी पर सेनुर कैसे लगा डोमा? तुम्हारा तो बिआह नहीं हुआ है.’ डोमा ने सब सच बता दिया. बड़की ने भी वही बताया. मालिक गरजने लगे ‘हम को मूर्ख समझता है तुम लोग! बोल कब से ई रासलीला चल रहा है.’  बड़की रोने लगी. ‘अरे बाबूजी, डोमा चाचा कुछ नहीं किए हैं. हम भी बेकसूर हैं.’ लाल-लाल आंखें किए बाबूजी गरजे ‘चुप बेसरम! हम अभी तुम दोनों को मुक्त कर देते हैं. तुम्हारे ससुराल वालों को कह देंगे कि नदी में बाढ़ आई थी. बह गई बड़की.’ गंडासे से छप- छप दोनों का गला काट दिये मालिक. वहीं आंगन में गड्ढा खोदवाकर दोनों को गाड़ दिया. पूरा घर, पूरा गांव, तमाशा देखता रहा. कोई कुछ नहीं कर सका. पुलिस, दरोगा सब मालिक के जेब में था. सब पचा गया.

उ तो बाद में जब घर के लोग जवाने मरने लगा. कोढ़ फूटने लगा. हैजा फैलने लगा. सब पगलाने लगा. तब जाकर ओझा गुनी को बुलाया गया. उन दोनों को बंधवा कर करिया पिण्डी का अस्थापना हुआ. उ डोमा ओझा के देह पर आकर बोलने लगा, ‘सबसे पहले हमको पूजना होगा. बिआह से पहिले, लड़की हमारे ऊपर सेनुर गिराएगी.’

तभी से यह रेवाज तुम्हारे खानदान में है. जैसे-जैसे पट्टी- पट्टीदार बंटते गए, उसी पिण्डी में से लेकर अपने नए घर में अस्थापना कर लिए. अब तो पूरा टोला तुम्हारे ही खानदान का है.

रिचा तो पाषाण हो गई. ओह! इतनी क्रूरता! उसे हाथ जोड़ते, गिड़गिड़ाते डोमा नजर आया. मन भर आया. ‘तब तो यह निमिया माई, इनारवा बाबा, अमवा के देवी, सब के पीछे कोई अन्याय की कहानी होगी?’

‘क्या जाने बचवा. हम तो जो जानते थे सो बता दिया. चलो बहुत देर हो गया.’

कई सारे लोक देवता के स्थान रिचा के आस-पास के गांव में थे. अंग्रेजों के जमाने में यह इलाका जमींदारों का बसेरा था. उसके निशान आज भी पुरानी हवेलियों के खंडहरों में मिल जाते हैं. रिचा घर आ गई. उसे अपने शोध की दिशा मिल गई थी. वह शीघ्र ही सभी लोकल देवस्थानों का सर्वे करेगी. लोगों से बातचीत करेगी. ग्रामीण समाज के ‘लोक देवताओं’ का सच पूरी दुनिया के सामने लाएगी. उसे अनुराग से बहुत सारी बातें करनी है. वह अनुराग को भी अपने गांव बुलाएगी. सर से भी बात करनी होगी. अभी यहां महीना दो महीना समय लग जाएगा. वह मोबाइल लेकर छत पर जाने के लिए खटाखट सीढ़ियां चढ़ने लगी.

सुनीता मंजू
छपरा, बिहार

विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएं आदि प्रकाशित

सम्पर्क
हिन्दी विभाग
राजा सिंह महाविद्यालय सीवान  बिहार
pranay1992015@gmail.

Tags: 2023२०२३ कहानीलोकदेवतासुनीता मंजू
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Comments 12

  1. M P Haridev says:
    2 years ago

    कहानी सही रास्ते पर चलने की राह बताती है । मुझे छपरा की बोली पढ़कर मज़ा आया । साक्षरता बढ़नी चाहिये । व्यक्ति प्रोफ़ेसर, वैज्ञानिक, डॉक्टर, नृत्यकार, शास्त्रीय गायक और वादक बनें । कविताओं, कहानियों और जिस विधा में हो सके लिखें ।
    मेरी प्रार्थना है कि अपनी बोली बोलना न छोड़ें । आधुनिक जीवन जीते हुए अंधे न हो जायें । क्या जड़ों को काटने से वृक्षों के बचे रहने की कल्पना कर सकते हैं ।

    Reply
  2. Gyan Chand Bagri says:
    2 years ago

    वाह! क्या कहानी है. एकदम ताजी बयार. बहुत ही सुंदर कहानी. लेखिका को बधाई.

    Reply
  3. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    2 years ago

    ऐसे बहुत से पारिवारिक देवता और रिवाज है जिनकी कहानियाँ है। यह कहानी अपने मकसद में कामयाब है।

    Reply
  4. ललन चतुर्वेदी says:
    2 years ago

    सुनीता की कहानी जमीनी सच्चाई का बयान कर रही है। मैं भी उसी इलाके से हूँ,इसलिए आसानी से महसूस कर रहा हूँ। केवल बिहार में ही नहीं विश्व के कोने-कोने के समाजों में लोकदेवता,ग्रामदेवता ,घर के देवता और देवियाँ भी सृजित किए गए हैं। स्वयं मेरे गाँव में भी कई देवी-देवताओं के स्थान हैं। मैं यह सब देख कर मौन हो जाता हूँ। बहरहाल,सुनीता इस तरह की कहानी लिखती रहें। शुभकामनायें।

    Reply
  5. Chandrakala Tripathi says:
    2 years ago

    बहुत अच्छी कहानी। सादे कथन की राह चली है। कुछ अतिरिक्त जुटाने के फेर में नहीं पड़ी।कथ्य मजबूत और वर्णन भी। बढ़िया।

    Reply
  6. Mamta Kalia says:
    2 years ago

    बहुत असर छोड़ती है ऐसी कहानी और उसकी रवानी

    Reply
  7. Anonymous says:
    2 years ago

    बेहतरीन कहानी के लिए लेखिका को बधाई

    Reply
  8. Dr. O.p. singh says:
    2 years ago

    बेहतरीन कहानी।

    किसी घटना का रूढ़ि के रूप में तब्दील होकर, आध्यात्मिकता की शक्ल ले लेना, अपने आप में कितना कुछ कह रहा है। यह कथा हमारी आस्था के उन ऊबड़-खाबड़ कोणों का पुनर्पाठ करने की प्रेरणा देता है।

    इस कहानी के माध्यम से कहानीकार ने जो प्रश्न खड़ा किया है, वह हमारे जीवन में कभी न कभी हमें जरूर उद्वेलित करता है। पर हम आस्था के आवेग में उसे किनारे कर, आगे बढ़ जाते हैं। कहानीकार ने अन्याय और आस्था के घाल-मेल को बखूबी उकेरा है, “तब तो यह निमिया माई, इनारवा बाबा, अमवा के देवी, सब के पीछे कोई अन्याय की कहानी होगी?”

    गाँव से जुड़ी इसी प्रकार की एक घटना मुझे याद आ रही है। उस समय मैं शायद 12 वर्ष का रहा होऊँगा। पड़ोस के गाँव का एक खेतिहर-मजदूर किसी की भैंस चराने नहर की तरफ ले गया था। उस समय बारिश और बिजली चमक रही थी। और वह छतरी थामे अपने काम में निमग्न था। तभी आकाशीय बिजली की चपेट में आकर उसकी मृत्यु हो गयी। कुछ दिनों बाद उसकी जहाँ मृत्यु हुई थी, वहीं एक मिट्टी का ढूहा (पिण्ड) बना कर फूल-माला चढ़ा दिया गया। और नाम रखा गया ‘बिजुरिया बाबा’। हम बच्चे जब भी उधर से गुजरते, तो डरते हुए ‘जय हो बिजुरिया बाबा’ का जय घोष करते निकलते।
    ऐसे ही ‘तड़वा बाबा’, ‘गड़ही माई’, ‘शहीद बाबा’, ‘बरियार बाबा’ आदि न जाने कितने लोक देवता गाँवों के मोहक रास्तों पर बिखरे पड़े हैं।

    Reply
    • समालोचन says:
      2 years ago

      कथा का विस्तार करती हुई टिप्पणी।

      Reply
  9. Khudeja Khan says:
    2 years ago

    पहले तो किसी अबोध की, परिवार की इज़्ज़त के नाम पर हत्या कर देना फिर उसके प्रकोप से बचने के लिए प्रायश्चित स्वरूप उसे देवता बनाकर एक परम्परानुसार विधान तय कर देना कि ऐसा न किया तो अनर्थ होगा।

    बहु प्रतिष्ठित समाज में आज भी कुरीतियां प्रचलित हैं जिसके पीछे कोई न कोई अपराध बोध, अन्याय या पश्चाताप छुपा होता है।

    कहानी साधारण ढंग से आंचलिक परिवेश को उद्घाटित करती है।

    Reply
  10. पूनम मनु says:
    2 years ago

    सुनीता बहुत बढ़िया कहानी है।कहानी क्या सच्चाई है।अपनी रवानगी मे बहती हुई। अंत मे जो कहा कि हर घर, ग्राम के देवता, देवी की ऐसी ही कोई कहानियां रही होंगी।बहुत सही कहा है।किसी के गलत किए पर पश्चाताप का दंड पूरी पीढ़ी भुगते और भुगतती रहे क्यों? ये सेनुर गिराना तक तो ठीक था।यदि कही, ऐसी ही किसी के गलत फैसले के पश्चाताप का दंड कोई घर कोई ग्राम पीढ़ी दर पीढ़ी भुगतता हो अपने को अनेकानेक शारीरिक कष्टदायी तरीको को परंपरा के नाम पर मानकर , तब! तब इनका मानना कितना जायज़? आप शोध कीजिए।शोधों से ही सच्चाई सामने आएंगी।आपको बधाई।अरुण जी शुक्रिया

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  11. सुनीता मंजू says:
    2 years ago

    आप सभी का धन्यवाद

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समालोचन

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