विनोद पदरज की कविताएँ |
भादो
घटाटोप मेघ हैं
नीचे झुके हुए
सांवली सांझ घिर रही है गांव में
सांवले चूल्हों से सांवला धुंआ उठ रहा है
सांवली स्त्रियां खाना बना रही हैं
सांवले मोर कोंका रहे हैं
सांवले झुटपुटे में
यहां वहां सांवली चिमनियां टिमक रही हैं
दूर कहीं सांवली झालर बज रही है
बीच बीच में ध्वनि गूंज रही है
सांवले शंख की
जहाँ कहीं सांवला पानी भरा है
वहां सांवले मेंढक टर्रा रहे हैं
एक सांवला आदमी
सांवली लालटेन लिए
नौहरे को जा रहा है
सांवले बैलों को देखने
उसकी सांवली जूतियां
गच गच कर रही हैं
अब सांवला गहरे सांवले में बदल रहा है
जो धीरे धीरे अंधेरे में डूब जायेगा.
आक
सूर्य धधकता था प्रचंड
झकर चलती थी सन्नाती
थपेड़े मारती
सब कहीं सांय सांय सूना था
हलचल विहीन
हरे कच्च पत्ते तक
निर्जली करण से त्रस्त
निचुड़े हुए पस्त थे
कि दिखा यकायक आक मुझे
जिसे
कभी किसी ने नहीं सींचा था
उसके गूंजी जैसे फल
तड़क गए थे
जिनके भीतर से बीज झांकते थे
जो जन्मे थे पंख लिए
मैंने देखा
जितनी तेज झकर चलती थी
वे उड़ते थे ऊंचे ऊंचे
या फिर नंगे पांवों दौड़ लगाते थे
और आग में खड़ा हुआ वह आक
हरी हँसी हँसता था खिल खिल.
माँ
मैंने कभी माँ को सोते नहीं देखा
सुबह हमारे जागने से पहले जागती थी
और हमारे सोने के बाद सोती थी
दिन भर चकरघिन्नी रहती थी
उसके लिए एक के बाद दूसरा काम निकल आता था हमेशा
जिन्हें सलटाते सलटाते थक कर चूर हो जाती थी
पर कमर सीधी नहीं कर पाती थी कभी
दुपहरी में भी
मैं एक बार माँ के साथ ननिहाल गया
तो एक दिन मैंने देखा
दुपहरी में माँ सो रही थी और नानी
पास ही बैठी, गुदड़ी में तागे डाल रही थी
यह एक दुर्लभ दृश्य था कि मैं माँ को सोते हुए देख रहा था
कितनी मासूम अल्हड़ निश्चिंत माँ
यह पहली और आख़िरी बार था
फिर मैं कभी माँ के साथ ननिहाल नहीं गया
फिर मैंने कभी माँ को सोते नहीं देखा.
सत्तर की उम्र में प्रेम
सत्तर की वय है उनकी
और जिनसे प्रेम करते हैं उनकी पैंसठ की
कभी सोचा नहीं था उन्होंने कि ऐसा भी होगा
सोचते थे कि प्रेम की एक उम्र होती है
पर यह अकस्मात हुआ
लगा जैसे हृदय के बंद कपाट चरमराकर खुल गए
सीमी हुई जकड़ी हुई गंध बाहर निकली
वातायान खुले
ठंडी बयार अंदर आई
फिर उन्होंने एक एक कोने को झाड़ा बुहारा फटकारा
साफ किया
रोशनी चमकी कोनो अंतरों में
तब उन्होंने अपना रुमाल बिछाया
और द्वार पर खड़े होकर प्रसन्न मुद्रा में कहा-
आइए बैठिए
फिर बातों का सिलसिला जैसे एक ही वेव लेंथ पर
और अंत सदैव जुड़वां हंसी के अनुनाद पर
वे कितने उत्साहित हो गए जैसे आबे जमजम पी लिया हो
वही छिपकर मिलना
सबके समक्ष अनजान बनना
हृदय का वैसे ही धड़कना
उछलना असंयमित होना
इंतजार इंतजार इंतजार वैसे ही
और आगे देखना सपने देखना
उन्होंने दुछत्ती पर रखे कार्टन से देवदास निकाली फिर से
फिर से पढ़ा उसे
दिलीप साहब वाली फिल्म देखी
युवाओं के प्रति सहिष्णु हुए उनको टोकना बंद किया
वार्धक्य की कर्कशता मिट गई
अब वे नियत समय पर पार्क में जाते हैं
जब वे भी आती हैं
वे सब बातें पूछ लेना चाहते हैं उनसे
कह देना चाहते हैं सब कुछ
जीने की उमंग पैदा हो रही है उनके भीतर
आईने के सामने समय बिताते हैं
सबसे अच्छे वस्त्र पहनते हैं रोजाना
सबसे अच्छे जूते
और लौटते हुए गाना गुनगुनाते हैं
रातें वैसी ही हो गई हैं उनकी- यौवन जैसी
किसी का हाथ थाम कर टहलते हैं सुनसान लंबी सड़क पर
सुबह उठने पर सोचते हैं
प्रेम किसी भी उम्र में हो लज्जा की वस्तु नहीं.
नेरुदा को पढ़ते हुए
मैं तुम्हें प्यार करता हूं मेरी प्यारी
मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं
हर समय तुम्हें आंखों के समक्ष चाहता हूं
कितने संघर्षों के बाद भी तुम्हारा मुख प्रसन्न है
अम्लान
चमकती आंखें
रसीले होंठ फूल सी बातें
फाख्ता के जुड़वां जोड़े सा वक्ष मेरी प्यारी
जिसका उठाव गिराव
मेरी नींदें हर लेता है
ओह मेरी प्यारी मैं तुम्हें प्यार करता हूं
संसार में सबसे ज्यादा
पर और भी प्यार करता मेरी जान और भी और भी
जैसे सारस सारसी से करता है
सूरजमुखी सूर्य से
पपीहा स्वाति बूंद से
चकोर चांद से करता है
पर कोई है
हमारे बीच मेरी जान कोई है
कि प्यार करते वक्त
हमेशा सोचता रहता हूं-
हमारे पास अपना छोटा सा घर क्यों नहीं है
हर दिन का रोजगार क्यों नहीं है
सस्ता ज़माना क्यों नहीं है मेरी जान
हमारे बच्चों का स्कूल कौन सा है
हमारा अस्पताल कौन सा है
हमारे जीवन में इतनी दुत्कारें झिड़कियां और ठोंसे क्यों हैं
चैन क्यों नहीं है मेरी प्यारी
हमारा चूल्हा उठाऊ क्यों है
कि कल कहाँ होंगे हम – किस देस में कौन से ठीए पर
क्या कोई ऐसा दिन आएगा मेरी प्यारी
कि मैं तुम्हें निश्चिंत होकर प्यार कर पाऊंगा.
दांपत्य
मैंने माँ से कहा-
जीवन में हमेशा तुम
पिता के पग चिन्हों पर पांव धरकर चलती रही हो
ऐसा भी क्या जीवन
माँ हँसी पहले
फिर धीमे से कहा
पंद्रह की आई थी मैं
तब तुम्हारे पिता उन्नीस के थे
दसवीं के बाद रेलवाई में हो गए थे
क्या करते
ज़मीन थी नहीं
तुम्हारे बाबा हल्ला मजूरी करते थे
पर पूरी नहीं पड़ती थी
छोटे भाई बहन थे तीन
मजबूरन पढ़ाई छोड़कर नौकर हुए
बावन रुपए मिलते थे उस समय
फिर तुम तीन हुए
अब दस आदमियों का परिवार और तुम्हारे पिता अकेले
उसी छोटी सी तनख्वाह में क्या क्या नहीं किया
पेट काटकर
हारी बीमारी शादी ब्याह सबकी पढ़ाई लिखाई क्रिया कर्म
मुझे साल में खादी की एक धोती मिलती थी
उनके खुद के लिए भी कभी तीसरी जोड़ी नहीं थी
और महीने में एक साबुन नहाने का एक धोने का
चुपड़ी नहीं देखी कभी
तुझे तो याद होगा सातवीं तक तेरे पांवों में चप्पल नहीं थी
यह घर कैसे बना है तुझे तो याद होगा
पर तेरे पिता ने कभी आपा नहीं खोया कभी हिम्मत नहीं हारी
आज तू कहता है मैं उनके पांवों पर पांव धरती चलती रही हूं पीछे पीछे
नहीं ऐसा नहीं है
मैं तो गृहस्थी के जुए के नीचे जुती हुई थी उनके साथ
और ऐसी अकेली नहीं थी मैं
आस पास ज्यादातर लोग ऐसे ही थे
पर दुख ही दुख नहीं था जीवन में उल्लास भी था तुम बच्चों की किलकारियां थीं
हँसी खुशी मिलना जुलना नाचना गाना
भी था जीवन में
हां, अब पूछा ही है तूने तो बताऊं
कि मैं नहीं
तेरे पिता ज़रूर
कुछ पग चिन्हों पर पांव धरकर चलते थे
जो हमारे पुरखों के थे.
काश
बेहद ठ्यारी की रात अंधेरी में
वह युवती
छोड़ गई है सद्यजात को झाड़ों में
और माथे पर हाथ धरे लेटी है- अशक्त लाचार
उसकी आंखों से आंसू झरते हैं
पास ही माँ है उसकी
शीश झुकाए
क्या होगा उस शिशु का
ठिठुरकर मर जायेगा
या कोई ले जाएगा उस लावारिस को
या श्वान फाड़ खायेंगे
गोला सा उठता है भीतर
रोती है वह हपसे भरकर
शिशु का पिता कहाँ है
कहीं और रमण करता है शायद
या इस सबसे गाफिल
सोता है निर्द्वंद्व
युवती सोच रही है-
काश पाल पाती मैं उसको
काश जानवर होती मैं
पाँख पखेरू होती.
पक्षी
मैं एक पक्षी से मिला
बहुत सुंदर था वह पठोरा
रंग बिरंगे पंखों वाला
उसका पिंजरा भी बहुत सुंदर था
मेरे सम्मुख ही मालिक ने उसका पिंजरा खोल दिया
वह बाहर आ गया
बैठा रहा
डगमग चलता रहा
फिर फुदक फुदक कर यहाँ, यहाँ से वहाँ , वहाँ से ताख में कुर्सी पर पलंग पर
मालिक के कंधे पर
मालकिन की रसोई की स्लैब पर
सामने आंगन में ही नीम का पेड़ था
जिस पर और पक्षी चहचहाते थे
फिर उड़ान भरते थे
विस्तृत सुनील आसमान में
जो आंगन के ऊपर तना था
मैंने देखा – उसे नीम से कोई मतलब नहीं था शाखों से पत्तों से हवा से
न उसे आसमान से मतलब था
मैं उसकी बोली सुनना चाहता था
पर वह मालिक के बोलों को दोहराता था
मालकिन के बोलों को हूबहू
बच्चों की बोली की भी नकल करता था
फिर वह पिंजरे में चला गया
जहाँ एक कटोरी में दाना था
एक में पानी
इतनी सी कवायद से वह थक गया था.
झगड़ा
कई दिन से वह बूढ़ा
अपने घर के चौंतरे पर ही बैठा रहता है
पछेवडा ओढ़कर
जहाँ धूप नहीं आती
पहले वह सुबह होते ही
सामने, काका के बेटे भाई के चौतरें पर जा बैठता था
जहाँ धूप आती है
उसे देखते ही उसका भतीजा
टाट लाकर बिछा देता था
हुक्का सुलगाकर दे जाता था
पर जब से अनबन हुई है
वह अपने घर के चौंतरे पर ही
गुड़ी मुड़ी होकर बैठा रहता है ठिठुरता हुआ
या रास्ते में चक्कर काटता रहता है
आज जब ठंड को गलियाता उठा वह
और बाहर आया पौल से लाठी टेकता
उसने देखा, उसे देखकर उसका भतीजा
चौंतरे पर टाट बिछा गया है
हुक्का सुलगाकर धर गया है
और जाते जाते कह गया है -दाज्जी बैठ जा
वह धीरे धीरे उस ओर बढ़ जाता है.
बाबा और बच्चा
ग्यारह बारह साल का बच्चा है वह
बाबा को घुमाने ले जाता है सुबह शाम
उनका हाथ पकड़कर आगे आगे चलता हुआ –
बाबा धीरे चलो नहीं तो गिर जाओगे
हाथ मत छोड़ो मेरा
इधर आ जाओ गाय आ रही है
अब रुक जाओ मोटर साइकिल को निकल जाने दो
थक गए क्या ?बैठ जायें थोड़ी देर
फिर लौटता है इसी तरह बाबा का हाथ थामे
सुबह शाम वही खाना खिलाता है
रोटी मींजता है दूध में ,दाल में ,सब्जी में
गले में नेपकिन टांगता है
और चम्मच से आहिस्ता आहिस्ता खिलाता है
ठसका लगने पर पानी पिलाता है
कहता है बाबा धीरे धीरे खाओ
जब रात गहराती है कहता है- बाबा कहानी सुनाऊँ
और ‘ हां ‘ सुनकर
बाबा को वही कहानियां सुनाता है
जो बचपन में सुनी थी उसने बाबा से
और जब बाबा सो जाते हैं (सो कहाँ जाते हैं )
ग्यारह बारह साल का बच्चा वह
देखता है अच्छी तरह
कि सो गए हैं
उन्हें चद्दर उढाकर
उनकी छाती पर हाथ रखकर सो जाता है.
बढ़िया कविताएं, सीधे जीवन से निकल कर आतीं। वैसे इस चयन की अधिकांश कविताएं ‘एंथ्रोपोसेंट्रिक’ ही हैं।
बहुत अच्छी कविताएँ। विनोद सर को बधाई।
रोजमर्रा के निरीक्षणों को संवेदनशीलता के साथ काव्य कर्म में इस तरह संभव किया है कि ये कविताएँ मार्मिक आत्मीयता से दीप्त हो गईं हैं।
बधाई।
कक्षा ग्यारह तक श्रावण और भाद्रपद में डेढ़ महीने की छुट्टियाँ होती थीं । परंतु सातवीं कक्षा तक हम दोनों छोटे बहन और भाई ननिहाल में जाते । माँ [हमारी बोली में भाभी इसका उच्चारण भा’भी सरीखा है] साथ जाती । ननिहाल के गाँव का नाम लोहारी राघो है । हाँसी से १२ मील दूर । वहाँ के साँवले रंग देखे । सूर्योदय से पहले किसान खेतों में जाते । वह ज़माना [१९६१ से १९६७ तक] दो बैलों से जुते हुए बड़े ठेले को लेकर जाने का साधन था । ऐसे ही सायंकाल की संध्या में । गाँव, दोस्त, पड़ोस के घर और गोबर की खाद के लिये छोड़ी गयी जगह [जिसमें चूल्हे और तंदूर में उपलों और कपास की सूखी लकड़ियों [हरियाणा में बनछटियाँ कहते हैं और हमारी बोली में सौंगड़ाँ] की राख और कुछ गेहूँ का भूसा [भोंह या तूड़ी] डालते थे । यह सब कुछ साँवलापन देखा । यूँ बिजली कम घरों में थी और बिजली के खंबों पर जलने वाले बल्बों पर धुआँ छाया रहता । अर्थात् सब कुछ साँवला ।
मेरी नानी और नाना बूढ़े थे । ननिहाल में मेरी भाभी को काम करने होते थे । इसलिये उसे सोते हुए नहीं देखा ।
आक के पौधे ननिहाल में और हमारे घर के क़रीब के तालाब के किनारे की पत्थरीली जगहों पर देखा करता । जिस प्रकार विनोद जी पदरज ने वर्णन किया है इसी अनुभव से बचपन बीता । एक अर्स: से तालाब का नवीनीकरण कर दिया गया है । और आक उखाड़ फेंके गये । यह त्रासदी है । ऐसी कि जैसे भोपाल के यूनियन कार्बाइड के कारख़ाने से निकली गैस से २५ हज़ार व्यक्तियों [सरकारी आँकड़ा २५ सौ है] । जीवन चाहे मनुष्य का हो, जानवरों का हो या पेड़ों पौधों का सभी की अकाल मृत्यु सालती है ।
सातवीं जमात के बाद ननिहाल में तीन वर्ष पहले गया था । हमारे मामा और दो मौसियों [मासियों-मा सी, माँ जैसी] का मुलतान ज़िले के मख़्दूम पुर में क़त्ल कर दिया गया था । क़त्ले-ओ-ग़ारत भी । मामा की एक पुत्री थी । इसलिये ननिहाल जाना छूट गया । नाना और नानी की मृत्यु इस हमारे पैतृक घर में हुई ।
सत्तर साल के पुरुष और पैंसठ साल की महिला की मोहब्बत पश्चिमी देशों में आम घटना है । क्या पता इधर भारत में इस आयु का प्रेम प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में होता हो । कदाचित विनोद जी ने लिखा कि प्रेम करने की उम्र नहीं होती । समय मिला तो फिर से टिप्पणी लिखूँगा । मुझे सुनने से ज़्यादा पढ़ने में मज़ा आता है । मुझे फ़ेसबुक पर विनोद पदरज का नाम मिल गया तो दोस्ती का पैग़ाम भेज दूँगा । अन्यथा वे भेज दें ।
Arun Dev Ji और विनोद जी का धन्यवाद ।
सहज , सरल व सुंदर कविताएं । जिजीविषा और जीवन के उल्लास से जुड़ी हुईं । निरंतर सृजनात्मक रहना व जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि रखना विनोद जी से सीखने जैसी बात है , कुछ कविताओं से पुनः मिलाने के लिए शुक्रिया समालोचन का
विनोद पदरज जी का ऑब्जर्वेशन बेहद घना है और इसीलिए डिटेल भी पोयटिक एसेंस के साथ सामने आये हैं। आत्मिक साधुवाद।
विनोद पदरज जी की कविताएं सीधे दिल में उतरती हैं। किसी कवि से इससे अधिक उम्मीद और क्या हो सकती है।।
विनोद पदरज जी से एक बार मेरे अपने शहर में मिलना भी हुआ। उनको पढ़ते हुए हमेशा लगता है कि जैसे सब कुछ सामने चल रहा है , दिख रहा है, जीवन कोई प्रतिपल जी रहा है। मां का निश्चित हो कर सोना सचमुच नानी के घर ही संभव है। स्त्री हूं और जानती हूं मायका क्या स्थान रखता है। प्रेम की उम्र वाकई नहीं होती देह से परे यह प्रेम सचमुच तब अधिक खास होता है ।
सारी कविताएं बेहद सरल पर गहन है। बधाई विनोद सर को
अच्छी कविताओं की ख़ूबसूरती और ताक़त यह होती है कि उन पर लिखा गया भी ख़ूबसूरत लगता है. नरेश गोस्वामी जी ने कितना ख़ूबसूरत लिखा है कि ‘विनोद पदरज की कविताओं में मनुष्य सर्वोपरि नहीं है’. इससे बेहतर ढंग से विनोद पदरज की कविताओं और उनके महत्व को रेखांकित नहीं किया जा सकता.
मनुष्यों ने ख़ुद श्रेष्ठ और सर्वोपरि समझने के चक्कर में प्रकृति और मनुष्यता का जो नाश किया है, उसका अनुमान लगाना भी असंभव है. उसी तरह से कवियों ने भी अपनी इसी ग्रंथि के कारण कविता का बेहिसाब नाश किया है. आपकी कविताएं उस विनम्रता को सहजता से जीती हैं जो ज़रूरी और स्वाभाविक है. अनुज कवि के तौर पर इस सहजता को आपकी कविताओं से मैंने सीखने की लगातार कोशिश की है.
कई ऐसी बातें या पंक्तियाँ हैं, जिन्हें मैं लगातार कहता-जीता हूँ. माँ को ज़िन्दगी भर खाना बनाते देखना या जानवरों की तरह होने की इच्छा… यह मैं लगातार अपनी बातचीत में दोहराता रहा हूँ. आपकी यह दृष्टि ही बताती है कि कितना गहरा पैठना पड़ता है एक कवि को..यह दृष्टि मनुष्यता और कविता दोनों का विस्तार है.
दो – तीन बार तो पढ़ ही गया हूँ, सभी कविताएं. जितनी बार पढता हूँ उतना अपनापा महसूस होता है, साथ भी चलती हैं और बेहद प्यार और आहिस्ते से बहुत कुछ कहती – सिखाती भी हैं. आपकी भाषा भी गवाह है कि वह महज इल्म से नहीं पाई जा सकती.
सत्तर के उम्र में प्रेम.. अपने तरह की बिल्कुल अलग कविता है, प्यार ही मनुष्यता को बचाएगा… हमारे होने को बचाएगा. बहुत प्यारी कविता है.
जोहार ☘️☘️