मैनेजर पाण्डेय : शब्द, साधना और आलोचनासुधि शंकर
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वरिष्ठ और महत्वपूर्ण आलोचक मैनेजर पाण्डेय के नये आलोचनात्मक आलेखों का संग्रह ‘शब्द और साधना’ का प्रकाशन इधर वाणी प्रकाशन से हुआ है. इसमें बाईस आलेख तीन खंडों में विभाजित हैं, जिनमें कामायनी और मुक्तिबोध पर दो आलेख हैं, दो आलेख रामविलास शर्मा पर हैं, वहीं सुब्रह्मण्यम भारती, बल्ली सिंह चीमा, वीरेन डंगवाल, लालन शाह फकीर, मिथिलेश्वर श्रीवास्तव और वरवर राव की कविताओं पर भी आलेख हैं. प्रगतिवाद, दलित साहित्य, उत्तर आधुनिकता, मार्क्सवाद, की चर्चा है. एक आलेख एडवर्ड डब्ल्यू सईद पर भी है. ‘रीतिकाल की कविता और इतिहास बोध’ शीर्षक से चर्चित व्याख्यान भी इसमें शामिल है. कुल मिलाकर यह संग्रह हिंदी आलोचना के विस्तार और उसके सामर्थ्य का परिचायक है, और प्रो. पाण्डेय की आलोचनात्मक यात्रा की पहुंच का भी पता देता है.
प्रो. मैनेजर पाण्डेय मार्क्सवादी विचारधारा और साहित्य के सैद्धांतिक रुझान के आलोचक माने जाते हैं. उन्हें नामवर सिंह आलोचकों का आलोचक कहते थे. लगभग अस्सी वर्ष की अवस्था में भी उनकी मेधा और तीक्ष्णता में कहीं कोई कमी नहीं दिखती है. इधर उनकी कई संपादित और आलोचनात्मक कृतियाँ प्रकाशित हुईं हैं जिनमें से– ‘मुगल बादशाहों की हिंदी कविता’ और ‘लोकगीतों और गीतों में १८५७’ चर्चित और प्रशंसित रहीं हैं.
प्रो. पाण्डेय की ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’ इस विषय पर अबतक की सबसे महत्वपूर्ण किताब मानी जाती है जिसका कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है. बाद में निर्मला जैन ने भी इस विषय पर एक किताब लिखी थी, वहीं हिंदी के प्रसिद्ध आलोचकों पर लिखी गयी ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’आज भी हिंदी के महत्वपूर्ण आलोचकों की इतिहास दृष्टि को समझने का प्रामाणिक उपक्रम बनी हुई है. उनका सूरदास को वात्सल्य और भक्ति से बाहर ले जाकर किसान जीवन से उन्हें जोड़ने का महती कार्य भी रेखांकित करने योग्य है. प्रो. पाण्डेय ने कुछ जरूरी अनुवाद भी किये हैं जो ‘संकट के बावजूद’ में संकलित हैं. राष्ट्रवाद और प्रेमचंद, उपन्यास और लोकतंत्र तथा कविता की सामाजिकता आदि पर लिखे उनके आलेखों ने हिंदी आलोचना को पहचान दी है.
प्रो. मैनेजर पाण्डेय की रुचि का क्षेत्र विस्तृत है जिसके मूल में हिंदी नवजागरण और उसकी प्रगतिशील सामाजिकता है, वे आचार्य शुक्ल से प्रभावित हैं और उनकी खुद की आलोचना प्रविधि में कुछ ऐसे निशान तलाशे जा सकते हैं. ख़ासकर आचार्य शुक्ल की तीक्ष्ण व्यंग्यात्मकता के तो वे एकमात्र उत्तराधिकारी हैं. हालाँकि उन्होंने ‘साहित्य का इतिहास’ जैसी कोई चीज लिखने की गलती नहीं की है, पर उसका विकास जरूर किया है.
मैनेजर पाण्डेय के आलेखों में यत्र-तत्र बिखरे इतिहास बोध की परम्परा आचार्य शुक्ल से अंकुरित जरूर होती है पर उसका विकास उन्होंने रामविलास शर्मा से लड़ते-भिड़ते हुए किया है. ख़ासकर प्रगतिशील चेतना की पहचान और उसका प्रकटीकरण. सूरदास, देशेर कथा (सखाराम गणेश देउस्कर), लोकगीतों और गीतों में १८५७, तथा मुगल बादशाहों की हिंदी कविता जैसे उपक्रम इसी प्रगतिशील चेतना के प्रसार के उद्यम हैं.
रामविलास शर्मा कि तरह मैनेजर पाण्डेय की आलोचना केवल साहित्य के पाठ तक सीमित नहीं है वह साहित्य के देशी-विदेशी स्रोतों से होती हुई साहित्य के इतर पाठों तक भी जाती है. विश्व में राजनीति उसकी विचारधारा और उसकी परिणति पर उनकी गहरी नज़र रहती है. उनकी विश्व दृष्टि अप-टू डेट है. विश्व के साथ-साथ भारत में पसरते धार्मिक फासीवाद और उत्तर-पूंजीवाद के खतरों से भी वे वाकिफ़ हैं और शब्द-कर्म से उसके खिलाफ़ भी. उनका लेखन साहित्य के साथ-साथ विश्व को समझने का आलोचनात्मक विवेक पाठकों में पैदा करता है.
प्रो. मैनेजर पाण्डेय के आलोचनात्मक लेखन की एक विशेषता भाषा के प्रति उनकी संवेदनशीलता है, अगर विचार में स्पष्टता और अध्ययन में गहराई और उसे अपने सन्दर्भों में अच्छी तरह पचा लेने की क्षमता हो तो वह भाषा में भी दिखती है. अक्सर सैद्धांतिक आलोचना में विचार का संश्लेषण उसे दुरूह बना देती है. कई बार ऐसी भाषा अनूदित और अबूझ लगने लगती है. ऐसे में मैनेजर पाण्डेय की भाषा राहत देने वाली है, वह जितना जरूरी है उतने ही शब्द खर्च करती है. उनकी भाषा में सूक्तिपरकता की भी विशेषता है जो भाषा पर उनके अधिकार को स्पष्ट करती है इस लिहाज़ से वे रामविलास शर्मा के नहीं आचार्य शुक्ल के निकट जान पड़ते हैं. इसी पुस्तक में वह एक जगह लिखते हैं –
“युगस्रष्टा वह व्यक्ति होता है जो ज्ञान और सृजन के क्षेत्र में नयी दृष्टियों और प्रवृत्तियों का निर्माता, प्रेरक और मार्गदर्शक हो.”
(आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का महत्व)
उनकी भाषा-चेतना का एक उदाहरण मुक्तिबोध और कामायनी (एक अध्ययन) में मिलता है. वह लिखते हैं-
“आचार्य शुक्ल के बाद मुक्तिबोध ने ही हिंदी आलोचना को सर्वाधिक धारणात्मक शब्द, पद और पदावलियाँ दी हैं. उनके आलोचनात्मक लेखन और कविताओं में मौज़ूद धारणात्मक शब्द, पद और पदावलियाँ ये हैं– फैंटेसी, ज्ञानात्मक संवेदना-संवेदनात्मक ज्ञान, आत्मपरक ईमानदारी और वस्तुपरक सत्यपरायणता, सत्-चित्-वेदना, बाह्य का आभ्यन्तरिकरण-आत्म का बाह्यीकरण, आत्मचेतस- विश्वचेतस, विश्व-दृष्टि आदि. सावधानी से खोजने पर ऐसे और भी शब्द और पद मिल सकते हैं.”
महत्वपूर्ण कथाकार कृष्णा सोबती के यात्रा-वृतांत ‘बुद्ध का कमंडल लद्दाख’ की चर्चा करते हुए सबसे पहले मैनेजर पाण्डेय की ध्यान उनकी ‘जानदार’ और इसीलिए ‘असरदार’ भाषा पर जाता है. उनके लिए यह तय करना मुश्किल है कि कृष्णा सोबती कलम की जादूगर हैं कि कलम की चित्रकार. भाषा से होते हुए वह लेखिका के मूल तक पहुंचते हैं –
“विस्थापन और देशांतरण के दर्द को कृष्णा जी से अधिक कौन जानता है और उन दोनों के बारे में उनसे अधिक मार्मिक रूप में किसने लिखा है.”
हिंदी में नवजागरण की तलाश और हिंदी के लेखकों में उसकी उपस्थिति का रेखांकन और उसपर विमर्श का एक बड़ा हिस्सा रामविलास शर्मा छेंकते हैं. बिना उनसे वाद-विवाद के आप नवजागरण से संवाद नहीं कर सकते. यह उनकी बड़ी देन है. भारतेंदु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, निराला और प्रेमचंद आदि को उन्होंने इस लिहाज़ से देखा-परखा है और हिंदी जाति की एक अवधारणा भी विकसित की है जो हालाँकि विवादास्पद अधिक है. ‘रामविलास शर्मा और हिंदी नवजागरण’ लेख में प्रो. पाण्डेय उनकी नवजागरण सम्बन्धी अध्ययन में पांच समस्याओं की तलाश करते हैं’
रामविलास शर्मा ने हिंदी नवजागरण की विशिष्टता पर इतना ज़ोर दिया है कि देश के दूसरे क्षेत्रों के नवजागरण से हिंदी नवजागरण के सम्बन्ध का बोध उपेक्षित हो गया है.
हिंदी नवजागरण की दो धराएँ हैं- एक मूलगामी धारा और दूसरी मध्यमार्गी. मूलगामी धारा के प्रतिनिधि समाज में मूलगामी परिवर्तन चाहते थे, केवल अंग्रेजी राज से मुक्ति ही नहीं बल्कि तरह-तरह की पराधीनताओं से भारतीय जनता की मुक्ति. हिंदी नवजागरण की मूलगामी धारा के प्रतिनिधि थे- राधामोहन गोकुलजी, सत्यभक्त, प्रेमचंद और राहुल सांकृत्यायन. ये सभी साम्राज्यवाद से भारत की मुक्ति के साथ ही देशी सामन्तवाद से स्त्रियों और दलितों की मुक्ति के भी पक्षधर थे. यही नहीं, ये किसानों तथा मजदूरों के संघर्षों के साथ थे. रामविलास शर्मा ने – राधामोहन गोकुलजी, सत्यभक्त और प्रेमचंद पर लिखा तो है पर उन्हें वह हिंदी के नवजागरण के प्रतिनिधि के रूप में नहीं स्वीकार करते.
रामविलास जी ने हिंदी नवजागरण की विचारधारा का तो विस्तृत विवेचन किया है, लेकिन टेक्नोलॉजी से हिंदी नवजागरण के सम्बन्ध का विवेचन नहीं किया है. टेक्नोलॉजी से मेरा अभिप्राय प्रेस और प्रकाशन की प्रक्रिया से है.
नवजागरण के निर्माताओं का किसानों और मजदूरों के आंदोलनों से क्या और कितना सम्बन्ध था पता नहीं चलता. राधामोहन गोकुल जी, सत्यभक्त और राहुल जी का किसानों और मजदूरों से सम्बन्ध तो था पर रामविलास शर्मा के अनुसार हिंदी नवजागरण के निर्माताओं- भारतेंदु, महावीर प्रसाद और निराला का किसानों और मजदूरों के आंदोलनों से विशेष सम्बन्ध नहीं था.
रामविलास जी ने हिंदी नवजागरण की चौथी मंजिल के प्रतिनिधि के में निराला को रखा, प्रेमचंद को क्यों नहीं? प्रेमचंद का लेखन एक तो हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्ध, दूसरे भारतीय जाति व्यवस्था, तीसरे हिंदू धर्म के अन्तर विरोध और चौथे भारतीय स्त्री की पराधीनता और स्वाधीनता के प्रश्नों से जुड़ा हुआ है. इन सभी समस्याओं और सवालों पर प्रेमचंद के लेखन के माध्यम से सोच-विचार करना संभव होता और समाधान खोजना भी. प्रेमचंद हिंदी नवजागरण की चिंताओं के विकास की लगभग चरम परिणति हैं .
कहना न होगा कि ये पाँचों प्रश्न हिंदी नवजागरण का एक प्रतिपक्ष तैयार करते हैं. जिनसे और कई प्रश्नों की गुंजाइश पैदा होती है. एक अच्छा आलोचक यही करता है वह समाधान से अधिक प्रश्न पैदा करता है.
प्रो. मैनेजर पाण्डेय की रुचि केवल मध्यकालीन साहित्य ही नहीं उसके इतिहास में भी रही है. ‘मुगल बादशाहों की हिंदी कविता’ और दारा शिकोह पर बराबर बनी हुई उनकी उत्सुकता इसका प्रमाण है. इस क़िताब में एक आलेख भीष्म साहनी के नाटक ‘आलमगीर’पर है जो दारा से औरंगजेब के संघर्ष और दारा के कत्ल पर आधारित है. मुगल बादशाहों के भडकीले नामों से वह भारतीय सामन्तवाद की अतिरंजना की विशेषता को रेखांकित करते हैं. यह मेरे ख्याल से वैश्विक बीमारी है. छोटे से छोटे सामंत भी अपने लिए अतिरंजना-युक्त संज्ञा और विशेषण का इस्तेमाल करते रहें हैं. इस नाटक के सिलसिले में वह प्रेमचंद की कहानी ‘दाराशिकोह का दरबार’ तथा तमिल में लिखे इंदिरा पार्थसारथी के नाटक ‘औरंगज़ेब’ का भी ज़िक्र करते हैं. इंदिरा के हवाले से वह कहते हैं –
“वह (औरंगज़ेब) एक देश, एक भाषा और एक धर्म का स्वप्न देखता था.”
मध्यकाल का यह कट्टर स्वप्न क्या आज के वर्तमान भारत में फिर से देखा नहीं जा रहा ? प्रो. पाण्डेय यह समझ पैदा करते चलते हैं. ‘रुबाइयाते सरमद’ की मौलाना अबुल कलाम आज़ाद द्वारा लिखी भूमिका से वह एक वाक्य लिखते हैं-
“एशिया में हमेशा से मज़हब की आड़ में राजनीति रही है और हज़ारों खूरेजियां जो राजनीतिक कारणों से हुई उन्हें मज़हब की चादर से ढंककर छिपाया गया है.”
प्रो. मैनेजर पाण्डेय कविता को मनुष्यता की भाषा और मुक्ति की पुकार मानते हैं इसलिए उनकी पसंद के कवियों में अधिकतर वे ही कवि शामिल हैं जो किसी न किसी रूप में जन और उसकी वास्तविकता, समस्या और आकांक्षा से जुड़े हुए हैं. आधुनिक कवियों में मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, धूमिल, कुमार विकल, शैलेन्द्र, अदम गोंडवी पर उन्होंने विस्तार से लिखा है, इस जनधर्मी-परिसर में कुछ और कवि इस संग्रह से जुड़ते हैं.
वीरेन डंगवाल पर लिखते हुए वह उनमें निराला,मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय आदि का प्रभाव देखते हैं और कविता- उद्धरणों द्वारा स्थापित भी करते चलते हैं. वीरेन के लिए वह लिखते हैं-
“सार्थक कवि वही होता है जो संकट के समय याद आये और काम आये. ऐसी ही कविता वीरेन डंगवाल की भी है.”
इसी तरह बल्ली सिंह चीमा की तुलना वह अदम गोंडवी से करते हुए साम्य की तलाश करते हैं और उनकी गज़लों पर याद रह जाने लायक यह टिप्पणी करते हैं –
“बल्ली सिंह की कविता उम्मीद के साथ-साथ यकीन की भी कविता ह. यकीन अनुभव से पैदा होता है. बल्ली सिंह चीमा में वह जन-आंदोलनों में हिस्सेदारी के अनुभव से पैदा हुआ है.“
‘वह कलम की नोक से डर रहा है’ आलेख में कलम कवियों-लेखकों की है जिनमें वरवर राव भी शामिल हैं और डर विश्व के साथ-साथ भारत का शासक वर्ग भी रहा है. जन पक्षधर लेखकों के दमन में सभी पार्टियों में अद्भुत एकता रही है. यह लेख भारत ही नहीं विश्व के तमाम जगहों पर सत्ता और साहित्य के संघर्ष को प्रत्यक्ष करता है. प्रो. मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में वरवर राव बौद्धिक ऊहापोह के कवि नहीं हैं. वे राजनीतिक परिवेश में रहकर कविता लिखते हैं जिसकी वास्तविकता इतनी विलक्षण और भयावह है कि सौन्दर्य की दुनिया में विचरण करने वाली कल्पना वहां जाने से सहमेगी. वह मिथिलेश श्रीवास्तव को कविता में व्यंग्य और विनोद के रचाव के लिए याद करते हैं.
सुब्रह्मण्य भारती की काव्य-प्रतिभा पर एक विस्तृत आलेख है जिसमें वह उनकी व्यापक,बहुमुखी,और बहुरंगी काव्य-तत्व के साथ-साथ उनकी सामाजिकता, दार्शनिकता, आध्यात्मिकता, भक्तिपरकता और प्रेमानुभूति की चर्चा करते हुए उनके कालजीवी और कालजयी होने की बात करते हैं. उनके अनुसार उनकी कविता समय को जीने वाली ही नहीं जीतने वाली कविता भी है. बंगाल के बाउल गायकों में सर्वाधिक प्रसिद्ध लालन शाह फकीर पर लेख विस्तार से उनकी परम्परा, संत कवियों से साम्य और बांग्ला नवजागरण के मनीषियों से उनकी कविताओं के सम्बन्धों पर केन्द्रित है. बाउल के केंद्र में मनुष्य है और उनकी साधना प्रेम की साधना ही. प्रो. पाण्डेय लिखते हैं कि आज के समय में भारत में जैसी धार्मिक और सामाजिक संकीर्णता तथा विद्वेष का विस्तार हुआ है उसमें लालन शाह फकीर के उदार और उदात्त प्रेम से भरपूर गीतों को मनोयोग से पढ़ना मुक्तिधर्मी साबित होगा.
व्याख्यान अगर संक्षिप्त, सारगर्भित और विषय केंद्रित हों तो असरदार होते हैं. प्रो. पाण्डेय के व्याख्यानों में इनके अतिरिक्त भी कुछ मिलता है जैसे व्यंग्य विनोद. उनके चार व्याख्यानों के संपादित संस्करण इस पुस्तक में संग्रहीत हैं.
‘समाज, साहित्य और आलोचना’ के सामाजिक उत्तरदायित्व पर बोलते हुए वह आचार्य राजशेखर के ‘काव्य-मीमांसा’ से चार तरह के आलोचकों की चर्चा करते हैं-
अरोचक (सबसे अरुचि प्रकट करने वाले),
सतृणाभ्यवहारी (हर चीज की तारीफ़ करने वाले),
मत्सरी (सबकी निंदा करने वाले) और
तत्त्वाभिनिवेषी (साहित्य में तत्त्व की खोज़ करने वाले). इनमें तत्त्वाभिनिवेषी को वह सच्चा आलोचक मानते हैं.
आगे वह कहते हैं –
“अच्छी आलोचना के लिए रचना के सन्दर्भों को ध्यान में रखना चाहिए. या दो चीजों की व्याख्या आलोचना में करनी चाहिए. एक तो रचना की अर्थवत्ता और दूसरी रचना की सार्थकता. अर्थवत्ता हमेशा रचनानिष्ठ होती है और सार्थकता हमेशा समाजनिष्ठ.”
आलोचना की भाषा पर विचार करने वाले प्रो. पाण्डेय दुर्लभ आलोचक हैं. उनके अनुसार आलोचना की भाषा वस्तुनिष्ठ, तर्कसंगत, तथ्यसम्मत, संवेद्य, विचारप्रधान होनी चाहिए. अगर आलोचना की भाषा इस तरह होगी कि ‘एकांकी काल सुन्दरी के सुंदर कपोलों पर एक मधुर चुम्मन है (रामकुमार वर्मा). तो इस तरह की भाषा नाटक की परिभाषा तक आते-आते काल सुन्दरी के साथ दुराचार कर बैठेगी.
‘रीतिकाल की कविता और इतिहास बोध’ रीतिकाल को नये सिरे से समझने की कोशिश है उनका मानना है कि-
“सारा रीतिकाल अपने समय और अपने समाज की चिंता से लिखा गया है. उसमें कोई परलोकवाद नहीं है. और जो परलोकवादी हैं उनके बारे में रीतिकाल के ही एक कवि ने कहा कि ‘राधा कन्हाई सुमिरन को बहानों है‘, वास्तविक भक्ति नहीं है, बहाना है वह.”
इसी तरह ‘वैश्वीकरण के दौर में प्रगतिवाद’ विश्व में पूंजीवाद और भूमंडलीकरण के खतरों के देशी विदेशी उदाहरणों से होता हुआ रघुवीर सहाय की इस कविता तक जाता है
‘हम एक गरीब देश के रहने वाले हैं
हमारी मुठभेड़
हर वक्त
रहती है
ताकत से.’
व्याख्यान के अंत में वह इस निष्कर्ष तक पहुंचते हैं- आज के लिए प्रगतिवाद का मतलब है – प्रतिरोध, सामना, और संघर्ष.
बजरंग बिहारी तिवारी की प्रकाशित दलित साहित्य की चार पुस्तकों पर आलेख- ‘दलित साहित्य: एक सर्वभारतीय चित्र’ भी रेखांकित करने योग्य है. युवा आलोचना से वरिष्ठ आलोचक का यह संवाद सुखद और अनुकरणीय है.
विश्व के कुछ बड़े विचारकों और सभ्यता समीक्षकों में एडवर्ड सईद का नाम लिया जाता है,उनकी ओरियंटलिज्म (प्रकाशन : १९७७) नाम की किताब ने पश्चिम के पूरब प्रेम की गहरी परख की है. इस प्रेम के पीछे साम्राज्यवादी सोच का उन्होंने ख़ुलासा किया है. इसके तीस से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं. वह बेंजामिन डिसराइली के इस कथन से सहमत थे कि पश्चिम के लिए पूरब एक धंधा था. ‘The East is a career’. १९९४ में प्रकाशित इसके संवर्धित संस्करण के उत्तर-कथ्य (Afterword) में उन्होंने इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि इस किताब को बहुत से विद्वानों द्वारा बहुसंस्कृतिवाद के सन्दर्भ में देखा गया न कि नस्लवाद और आक्रामक पूरबी राष्ट्रवाद के समर्थन में, जैसा कि उनके आलोचक उनपर ये आरोप लगाते थे.
इस पुस्तक में उनपर लम्बा आलेख है जो उनके सम्पूर्ण लेखन पर केन्द्रित है. एडवर्ड पर बात करते हुए प्रो. मैनेजर पाण्डेय बुद्धिजीवी वर्ग की ज़िम्मेदारी को निम्न शब्दों में प्रकट करते हैं-
“जिस समय अधिकांश बुद्धिजीवी सत्ता के साथ सहमति, समर्थन, समर्पण और सामंजस्य के सम्बन्ध बनाने में लगे हों. उस समय सईद समाज और साहित्य में मौजूद असंगतियों, असुविधाओं और असामंजस्यों की खोज़ और व्याख्या में लगे रहे. जो बुद्धिजीवी सत्ता से सुविधा चाहते हैं, वे दुविधा की भाषा में बोलते और लिखते हैं. लेकिन जो सत्ता की ज्यादतियों को सामने लाना और उसकी आलोचना करना जरूरी समझते हैं, उनके लिए सतत सतर्कता और सच कहने का साहस आवश्यक है. ये दोनों गुण सईद के सोच विचार और लेखन में मौजूद हैं.”
जिन्हें साहित्य, समाज और विचारों में रुचि हो उन्हें यह पुस्तक पढ़नी चाहिए.
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सुधि शंकर
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