अवसाद का आनंद प्रसाद जी की बहु-प्रतीक्षित जीवनी बोधिसत्व |
हिंदी में जीवनी साहित्य का लगभग अकाल है. चाहे कवि हों या कहानीकार या आलोचक जीवनी पक्ष में तथ्य सत्य की जगह अफवाहों और फुसफुसाहटों से काम चलता रहता है. पुराने संस्कृत के कवियों के साथ मध्यकाल के कवियों के जन्म स्थान अब तक तय नहीं हैं. तुलसी हों या कालिदास सब का जीवन और जन्म स्थान विवादित है. यदि यह देखना हो कि क्या किसी कवि लेखक की जीवनी प्रमाणिक ढंग से लिखी हुई उपलब्ध है तो इसमें महाप्राण निराला और प्रेमचंद सबसे भाग्यवान कवि लेखकों में मिलेंगे. एक को जीवनीकार मिले राम विलास शर्मा जी और दूसरे को उनके पुत्र अमृतराय जी. इक्का दुक्का नाम और लिये जा सकते हैं जैसे भारतेन्दु हरिश्चंद्र. उन पर ब्रजरत्नदास जी जैसे लेखक जो कि बेहतर शोधकर्ता और परिवार के ही सदस्य थे ने एक जीवन को समझने लायक जीवनी लिखी है.
बात करते हैं जयशंकर प्रसाद जी की. उनका देहांत 1937 में हुआ. लेकिन हिंदी का लेखक समाज अपने लगभग अंतिम महाकवि की एक जीवनी नहीं तैयार करवा पाया. 2022 में यदि उनकी जीवनी आई है तो इसे आने में लगभग 85 वर्ष. यह केवल उदासीनता नहीं अपने पूर्वजों के प्रति की गई क्रूरता और दारुण उपेक्षा भी है. इस 85 वर्ष के अकाल को एक ऐसी किताब ने पूर्ण किया जिसे हम पहले ही कह रहे हैं कि यह एक जरूरी और सफल जीवनी है प्रसाद जी की.
मुझे जिस बात ने सबसे अधिक आकर्षित किया वह है प्रसाद के साहित्य से सूत्रों से प्रसाद के जीवन के तार बुनने का काव्यात्मक यत्न. जीवन को वर्ष क्रम में देखने की जगह लेखक सत्यदेव त्रिपाठी जी ने उसे साहित्य-सृजन क्रम में रचा है और यही बात इस जीवनी को पीछे के जीवनी साहित्य से अलग भी करती है और उच्चता भी प्रदान करती है. साहित्य-सृजन क्रम कहने का यह अर्थ न निकाल लिया जाए कि किताब प्रसाद के साहित्यकार होने के समय से उनका जीवन दिखाती है. ऐसा नहीं है. जितनी सूचना कुल-खानदान, पिता पूर्वजों के बारे में और उनकी सामाजिकता के बारे में जरूरी है वह इस किताब में यथा स्थान दर्ज है. इसके लिए जीवनीकार ने यथावश्यक श्रम और यत्न दोनों किये हैं.
प्रसाद जी पर इसके पहले यदि कोई काम हुआ था तो वह था ज्ञानचंद जैन जी द्वारा संकलित संस्मरणों में प्रसाद और इलाहाबाद के आलोचक विद्याधर शुक्ल जी द्वारा लेखन पत्रिका का प्रसाद संस्मरण अंक. जैसा कि इन किताबों के शीर्षक ही बता रहे हैं कि ये प्रसाद जी के समकालीनों द्वारा उनके बारे में लिखे गय़े संस्मरणों के संचयन मात्र हैं और संस्मरण एक याद भर होते हैं. जीवन की झलक होती है उनमें, जीवन नहीं होता, जीवनी नहीं होती.
यह किताब पाँच बड़े अध्यायों में विभक्त है या कहें कि प्रसाद जी के जीवन को गूंथे हुए वे पाँच दिव्य पर्व हैं. उनका विस्तार प्रसाद जी के कुल का नाम सुँघनी साहु का खानदान होने से लेकर प्रसाद जी के चितारोहण तक कालखण्ड में फैला है. इसके बीच में खानदान से जुड़ी पहलवानी की बातों से लेकर कामायनी के आंतरिक आलोक का उजास तो है ही. साहु के कुल में साहित्यकार का आवन-जावन ऐसे है जैसे तंबाकू की सुगंध में साहित्य का सौंदर्य रच-बस गया हो.
किताब पढ़ते समय कई बार निराला जी साहित्य साधना के तीनों खण्ड स्मरण में आते जाते रहते हैं लेकिन यहाँ प्रसाद जी की साहित्य साधना भी शामिल है जीवनी के खण्ड में ही. कब प्रसाद जी की जीवनी के आलोक से साहित्य का सोता फूट जाए और कब साहित्य का निर्झर जीवन के अंधेरे उजाले के अध्याय पर खुल जाए कहना कठिन होता है. यह एस जीवनी की एक और खूबी है जो किताब को निरंतर पढ़ने के लिए प्रेरित करती है.
उनके समकालीनों से सम्पर्क के साथ ही परवर्ती लोगों की प्रसाद जी को लेकर सहृदय विकलता भी इस अवसाद के आनन्द को और रसपूर्ण बनाती है. किताब इस बात से भी अवगत कराती है कि सत्यदेव जी ने कितने लोगों की उस आकांक्षा को पूरा किया है जो यह चाहते थे कि प्रसाद जी की जीवनी लिखी जाए.
जैसे प्रसाद जी का साहित्यिक जीवन कामायनी से अपने शिखर पह पहुँचता है उसी तरह यह किताब भी अपने अंतिम अध्याय तक जीवन के भीतर अवसाद की बारीक रेखाओं में पैठे आनन्द को अंकित करने में सफल हो जाती है. किताब उनकी रचना प्रक्रिया का भी संकेत करती चलती है. प्रसाद जी की कविताओं में संस्करणों के अंतराल में आए परिवर्तनों पर भी बारीक निगाह रखी है सत्यदेव जी ने.
पुस्तक में लेखक ने रोचकता भर दी है कि हम एकबारगी यह भूल जाते हैं कि यह किताब रजा फाउंडेशन की जीवनी सीरिजी में एक प्रोजेक्ट के रूप में लिखी-लिखाई गई है. इस जीवनी की आवश्यकता बताते हुए कवि और रजा फाउण्डेशन के न्यासी श्री अशोक वाजपेयी जी ने लिखा है,
‘जयशंकर प्रसाद जी की यह जीवनी प्रकाशित करते हुए हमें प्रसन्नता है, एक मूर्धन्य कवि, उसके निजी और सर्जनात्मक- बौद्धिक संघर्ष, उनकी जिजीविषा और दुःखों आदि के बारे में जानकर हम प्रसाद की महिमा और अवदान को बेहतर समझ-सराह पाएंगे, ऐसी आशा हम करते हैं.’
यह जीवनी भले ही एक योजना से लिखाई गई हो और अशोक वाजपेयी जी की आशा को पूरी करती हो लेकिन यह हिंदी के लाखों-करोड़ों पाठकों और हिंदी समाज की भी आकांक्षा को पूर्ण करती है.
किताब की भूमिका में सत्यदेव जी जीवनी के लिए समुचित सामग्री संकलित करने में आई हुई परेशानियों और निजी व्यथा को भी प्रकट किया है लेकिन किताब के पूरे हो जाने वह व्यथा भी अवसाद से एक आनन्द की यात्रा का रूप ले लेती है. लेकिन यह जानना रोचक रहेगा कि किताब को पूरा करने के लिए प्रसाद जी के समकालीनों के लेखन को गहराई से खंगाला है. ऐसे लोगों में वाराणसी के उन लेखकों के लिखे को भी प्रयोग किया गया है जो प्रसाद जी के नित्य प्रति के संगी थे. ऐसे लेखकों में प्रसाद जी के घनिष्ठ मित्र और उग्र जी के शब्दों में इमारतवादी विनोद शंकर व्यास जी, राय कृष्णदास, प्रसाद जी के लगभग प्रथम आलोचक आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी जैसे मान्य लोगों के साथ ही कुछ पीछे के लेखक अमृतलाल नागर जैसे नाम शामिल हैं. वाराणसी के बाहर के लोगों में महान कवि माखनलाल चतुर्वेदी के साथ ही रामवृक्ष बेनीपुरी जी, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जी, प्रफुल्ल चंद्र ओझा मुक्त जी, ज्ञानचंद जैन जी, शिवपूजन सहाय जी, कुंवर चंद्रप्रकाश जी के साथ ही जयशंकर प्रसाद जी के पुत्र रत्नशंकर प्रसाद जी का भी लिखा-कहा और इनके पत्रादि के गहरे अन्वीक्षण से यह जीवनी एक गंभीर जीवन-गाथा बन पाई है.
प्रसाद जी के बहाने उस युग के भी अनेक अनछुए पहलू उद्घाटित करती है यह जीवनी. केवल उन प्रसंगों को गिनाना समीक्षा का उद्देश्य नहीं है. लेकिन महादेवी वर्मा की प्रसाद-दर्शन आकांक्षा के साथ प्रसाद जी का विश्वगुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर से मिलन का प्रसंग देखने योग्य है. बीती बातें कुछ मर्म कथा खण्ड में टैगोर प्रसाद की भेंट उप अध्याय में इसको लिखा है. वह संक्षिप्त जी मुलाकात भी भारत के दो विश्व कवियों का संगम जैसा दिखता है और इसकी त्रिवेणी रूप में बाबू रायकृष्णदास जी भी उपस्थित हैं. लेकिन उस मुलाकात में रवि बाबू की हिंदी और बांग्ला के अन्तर्संबंधों पर समझ भी सामने आती है.
जीवनी लेखक ने अपनी आलोचनात्मक दृष्टि के लिए भी पर्याप्त जगह बनाई है. यह एक दृष्टि-संपन्न जीवनी है. किसी रचनाकार की जीवनी लिखने के लिए दृष्टि-संपन्नता एक अनिवार्य तत्व है.
जैसा कि मैंने ऊपर में लिखा है कि यह जीवनी प्रसाद जी के निधन के 84 वर्षों के बाद आई है. इस अवधि में प्रसाद जी की रचनाओं पर हुई आलोचनाओं से परे हट कर यहाँ भी प्रसाद जी की रचना प्रक्रिया की आलोचना को संभव किया गया है. बीती बातें कुछ मर्म कथा वाले खण्ड में ही आँसू के दूसरे संस्करण में किये गये बदलावों का उदाहरण देकर प्रसाद जी की सजग रचना प्रक्रिया को गहराई से समझाया है. कैसे प्रसाद जी ने छोटे-छोटे परिवर्तनों से अपनी कविता को और अर्थवान बनाया है यह बात रेखांकित हुई है. न केवल रचना प्रक्रिया बल्कि प्रसाद जी के जीवन अनुभव से किताब भरी हुई है. ये जीवन अनुभव ही एक कक्षा सात तक ही पढ़े बालक को कलाधर से प्रसाद बनाते हैं. उनके पुत्र रत्न शंकर के ही शब्दों में कलाधर की अन्त्येष्ठि से प्रसाद का जन्म हुआ.
कैसे प्रसाद जी कटु आलोचनाओं और विवादों को सहन करते हुए अपने नाम जयशंकर को सार्थक बनाते हैं किताब ने इस बात को भी उजागर किया है. जिसमें प्रसिद्ध नाटककार लक्ष्मीनारायण मिश्र द्वारा घर आकर चंद्रगुप्त और अजातशत्रु जैसे नाटकों पर जली कटी सुनाने को भी प्रसाद जी ने सहज स्नेह से स्वीकार किया साथ ही कंकाल की समीक्षा में गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसी आलोचना को न केवल सहन किया बल्कि इस आलोचना के बाद वे प्रेमचंद को और स्नेह देने लगे और महान लेखों की मित्रता और प्रगाढ़ हुई. जबकि प्रसाद जी के समकालीनों में प्रेमचंद ही उनके सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी थे. प्रसाद जी चाहते तो प्रेमचंद की इस आलोचना को अपने संहार की भूमिका या प्रस्तावना मान कर उन पर प्रति आक्रमण कर सकते थे.
इस किताब के पहले खण्ड में प्रसाद जी के कुल-खानदान और पिता पूर्वजों की गाथा के साथ ही उन सबके व्यापार करने के गहरे विवरणों के साथ ही विस्थापन और काशी आकर स्थापन की कथा है. कथा की सरसता ऐसी है कि हम उस वातावरण में प्रसाद का संभव होना देख पाते हैं. यह जानना रोचक रहेगा कि जब तक प्रेमचंद और प्रसाद थे काशी कथा और साहित्य के केंद्र में बनी रही.
निजी व्यापार के साथ ही प्रसाद का अपने समाज से बाहर किया जाना और उसका प्रसाद जी द्वारा अपने ही ढंग से सामना करना प्रसाद के सहनशील और उद्यमशील दोनों का ही प्रमाण बनता है.
कानपुर के करीब गंगा में चीनी से भरी सात नावों के डूबने की कौटुंबिक त्रासदी भी प्रसाद के पूर्वजों की व्यथा से पाठक को जोड़ता है. प्रसाद के पूर्वजों के विस्थापन की कथा में हम उपन्यास का सा लालित्य देख पाते हैं और यह सत्यदेव जी की सफलता है या कहें कि नाटक के मर्मज्ञ होने के नाते वे जीवनी में नाटकीय पक्षों को सजग ढंग से उजागर कर पाए हैं.
प्रसाद जी के ज्ञात आदि पूर्वज मनोहर उर्फ सुँघनी साहु से जगन साहु और गुरु सहाय साहु से लगाकर शिव रत्न साहु से होते हुए प्रसाद जी के पिता देवी प्रसाद और फिर जयशंकर प्रसाद कर आने में करीब ढाई तीन सौ साल के खानदान का इतिहास भी इस किताब को समृद्ध करता है. किताब एक तरह से आने वाले समय में जीवनी लिखने वालों के लिए एक उदाहरण का काम करने वाली है.
छायावाद के कवियों ने पत्नियों को बहुत महत्व और मान दिया. निराला को उनकी पत्नी मनोहरादेवी ने हिंदी साहित्य और विशेषरूप से कविता की ओर मोड़ा तो प्रसाद जी को उनका प्रसाद नाम उनकी पहली पत्नी का दिया हुआ है. यह पहली पत्नी के प्रति उनका प्रेम ही था कि उन्होंने कालक्रम में उसे अपने हृदय से लगाए रखा है. प्रसाद जी जयशंकर के साथ पहले ‘कलाधर’ उपनाम लगाया करते थे कलाधर को विस्थापित करके प्रसाद होने की यात्रा का विवरण इस किताब में देखा जा सकता है. दो पत्नियों और एक पुत्र के निधन ने प्रसाद को कैसे करुणालय बना दिया. वे कैसे स्वयं अपनी एक रचना बन गए ऐसे अनेक कारुणिक अध्याय प्रसाद जी को समझने और उनके साहित्य के अंतरंग पर प्रकाश डालते हैं.
प्रसाद जी स्वयं में आस्तिक और शिव भक्त थे. उनके वंश में महादेव शिव के प्रति श्रद्धा उन्हें धरोहर में प्राप्त हुआ था. एक बड़े महत्व का पर्व आता है जब प्रसाद जी बिना किसी ज्योतिष से मुहुर्त विचार करवाए शिवरात्रि के दिन अपने नये भवन का निर्माण आरम्भ कर देते हैं. हर शिवरात्रि वे शिव आराधना में लीन रहते थे. शिव जैसा स्वरूप धारण कर जयशंकर जी लगभग महादेव बन जाते थे.
सुँघनी साहु के वंश में पहलवानी केंद्र में थी. प्रसाद जी के पिता देवी प्रसाद जी अच्छे मल्ल योद्धा थे. उन्होंने भी अपने पिता शिवरतन साहु जी से पहलवानी के दाँव-पेंच सीखे थे. शिवरतन जी भी पहलवान थे. देवी प्रसाद जी पहलवानी की यह विरासत अपने सुपुत्र जयशंकर को देकर स्वंय से भी बेहतर पहलवान बनाना चाहते थे. अपने किशोर वय तक प्रसाद जी एक दक्ष पहलवान हो गये थे. सुँघनी साहु के वंश में एक पारंगत मल्ल योद्धा कैसे कवि हो गया. इस बात को समझने के लिए पाठकों को भी जीवनी पढ़नी पड़ेगी.
यहाँ इतना बताना उचित होगा कि केवल पहलवानी के गुर ही नहीं प्रसाद जी को कविता के प्रति रागात्मक लगाव भी उनके पिता देवी प्रसाद जी से ही प्राप्त हुआ. जीवनी बताती है कि प्रसाद जी के पिता जी गुणवंतों का मान रखते थे. पितामह शिवरत्न साहु और पिता के समय से ही घर पर समस्या-पूर्ति करने वाले कवियों का दरबार लगता था. इसी घरेलू जमावड़े का परिणाम प्रसाद जी आरम्भिक ब्रजभाषा की कविताएँ रहीं.
इस जीवनी में प्रसाद जी के जीवन-चर्या के कुछ ऐसे बारीक विवरण हैं जो लेखक के निजी जीवन शैली को सामने लाते हैं. कोई लेखक कैसे रहता है. क्या खाता पीता है. प्रसाद जी के भोजन का विवरण विनोद शंकर व्यास जी के अनुसार प्रसाद जी भोजन पकाने में निपुण थे. तरुण तपस्वी सा वह बैठ साधन करता सुर-श्मशान नामक प्रकरण में लिखा है-
“एक बारह बगीचे की सैर की. मण्डली में 20-25 आदमी थे. भोजन और ठण्डई का पूरा प्रबंध था. दाल-चावल अलग हाँडियों में चढ़ गया. प्रसाद जी गोभी-आलू-मटर की तरकारी और चूरमें का लड्डू बनाने में व्यस्त थे. उनके बनाये पदार्थ इतने स्वादिष्ट थे कि आज तक भूले नहीं हैं.”
व्यास जी आगे लिखते हैं कि प्रसाद जी का वास्तविक जीवन बहुत स्पष्ट था. पान को छोड़ कर उनको और कोई व्यसन नहीं था. जीवनीकार ने वाया राजेन्द्र नारायण शर्मा जी के प्रसाद के के बारे में कुछ ऐसी सूचनाएँ दी हैं जो प्रसाद को समझने में बहुत सहायक हैं. हम इस जीवनी को न पढ़ते तो ऐसे विवरण सहज उपलब्ध नहीं हैं. प्रसाद जी सम्पूर्ण गीता का पाठ करने के बाद ही कुछ ग्रहण करते थे.
किताब के लगभग सभी अध्याय प्रसाद के जीवन के नये और अछूते पहलू उजागर करते हैं. प्रसाद जी के फोटो कम मिलते हैं लेकिन इस जीवनी में उनके परिधान के ऐसे विवरण हैं जिनसे उनके वस्त्र विन्यास की परिकल्पना सहज ही की जा सकती है. सुँघनी रंग के कपड़े प्रसाद जी को बहुत प्रिय थे और वे शतरंज भी खेलते थे. खस के अतर से मुअत्तर ढाके की बारीक जामदानी वाले अँगरखे के नीचे से झलकती हुई हरी मिर्जई पहन कर वे भारतेन्दु जयन्ती पर कविता पढ़ने जाते थे. उस समय रंगीन फोटो ग्राफी नहीं थी, किंतु इस विवरण से प्रसाद जी का रंगीन चित्र उभर कर आता है. यह जीवनी इस मामले में भी सफल है कि इसमें हर संभव सूक्ष्म विवरण जुटा कर प्रसाद जी के भव्य जीवन के विषाद को भी आलोकित किया गया है.
प्रसाद जी को रेडियो का बहुत आकर्षण था और रेडियो का सेट खरीदने की उनकी बहुत इच्छा रहती थी. बीमारी के दिनों में एक रेडियो उन्होंने खरीदा भी और रेडियों लगाकर सुनते थे. यह जीवनी प्रसाद जी के काशीवासी होने और वहाँ की रईसी परम्परा में गहरे तक उनके धंसे होने के अनेक विवरण भी उपलब्ध कराती है. जिससे प्रसाद जी को समझने के लिए नये गवाक्ष खुलते हैं.
एक जीवनी को सम्पूर्ण करने वाले सभी पहलू इस किताब में आ गये हैं. प्रसाद जी के समकालीनों के विवरणों का भरपूर सदुपयोग किया है सत्यदेव जी ने. इस समीक्षा को कितना ही विस्तार से लिखा जाएगा तो भी सबका उल्लेख संभव नहीं है. किताब के सभी पहलुओं को समझने के लिए इस किताब को पढ़ना ही पड़ेगा. यदि छायावाद के सर्वोत्तम दार्शनिक कवि को समझना हो तो यह जीवनी एक अनिवार्य पुस्तक है.
इस किताब को और समृद्ध करने वाले कई प्रसंग और अध्याय हैं. जिनमें कवि की अमरता का काव्य आंसू और उसकी नायिका के संधान के प्रसंग वाला इस किताब का चौथा लघु अध्याय विशेष है. इसी के साथ में मृत्यु पर लिखे पाँचवें अध्याय पर यहाँ टिप्पणी न करके केवल उस अध्याय में महाकवि के मरण के महादारुण विवरण को पढ़ने का निवेदन करूँगा. वह करुणा से विगलित अध्याय कवित्वपूर्ण ही नहीं शोध-संधान पूर्ण भी है.
प्रसाद के जीवन में लरिकाई का प्रेम और उसका प्रभाव उनको जीवन भर आंदोलित किये रहा. बचपन की प्रेमिका से लेकर पत्नी व श्यामा के साथ वेश्याओं के मुहल्ले में दुकान होने के बावजूद कवि का जलकमलवत (पद्मपत्रमिवाम्भसा) रह पाना उनके जीवन की सम्पूर्णता के अध्याय हैं. अपने लेखन में भी मृत्यु के मीमांसक हैं प्रसाद जी. उनका जीवन मृत्यु झंकृति से आबद्ध रहा है. इस बात को सत्यदेव जी ने अनेक प्रकार से रेखांकित किया है.
इस जीवनी को और परिपूर्ण करता है इसका परिशिष्ट भाग. जिसमें प्रसाद जी के जीवन के कुछ अन्य पहलुओं को उनके पत्रों और उनको लिखे पत्रों के साथ प्रसाद जी पर लिखी गई कुछ कविताओं के माध्यम से उकेरा गया है. उकेरना मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वे पत्र और कविताएँ प्रसाज जी की जीवनी में मास्टर स्ट्रोक की तरह काम कर गये हैं.
दस बारह फोटो भी किताब में शामिल हैं जिनमें प्रेमचंद के साथ की विख्यात छवि तो है ही पंडित जवाहरलाल नेहरू के स्वागत में रसिक मण्डल का वह फोटो भी यहाँ प्रकाशित है जिसमें 1934 में नेहरू जी वाराणसी आए थे. प्रसाद जी के अखाड़े का जीवंत इतिहास प्रकट करने वाले उनके खानदानी मुगदर भी किताब को गौरव प्रदान करते हैं.
अंत में किताब की अध्याय सूची यहाँ लिख देना उचित समझता हूँ क्योकि किताब को सम्पूर्णता में एक समीक्षा में नहीं समझाया जा सकता है. अध्याय एक- तुम्हारा मुक्तामय उपहार, अध्याय दो- बीती बातें कुछ मर्म कथा, अध्याय तीन- तरुण तपस्वी-सा वह बैठा साधन करता सुर-श्मशान, अध्याय चार- उसकी समृति पाथेय बनी, अध्याय पाँच- मृत्यु, अरी चिरनिद्रे, तेरा अंक हिमानी सा शीतल.
ये पाँच अध्याय प्रसाद जी के जीवन के पाँच सारभूत तत्व जैसे हैं. इन्हीं तत्वों से प्रसाद जी की गाथात्मक जीवनी का निर्माण हुआ है. इन्हीं तत्वों से प्रसाद जी का जीवन संभव था. किताब की भाषा में आलोचक की दृष्टि और मार्मिक पक्षों के चुनाव में नाट्य विशेषज्ञ की मेधा ने बहुत काम किया है लेकिन सबसे अधिक प्रभावित किया है भाषा की प्रांजलता ने. सत्यदेव जी को और कुछ जीवनियाँ लिखनी चाहिए. देर से ही सही प्रसाद जी की एक परिपूर्ण जीवनी संभव हुई. पीढ़ियों की प्रतीक्षा पूर्ण हुई.
बोधिसत्व 11 दिसम्बर 1968 को उत्तर प्रदेश के भदोही जिले के सुरियावाँ थाने के एक गाँव भिखारी रामपुर में जन्म. प्रकाशन- सिर्फ कवि नहीं (1991), हम जो नदियों का संगम हैं (2000), दुख तंत्र ( 2004), खत्म नहीं होती बात(2010) ये चार कविता संग्रह प्रकाशित हैं. लंबी कहानी वृषोत्सर्ग (2005) तारसप्तक कवियों के काव्य सिद्धांत ( शोध प्रबंध) ( 2016) महाभारत यथार्थ कथा नाम से महाभारत के आख्यानों का अध्ययन (2023)संपादन- गुरवै नम: (2002), भारत में अपहरण का इतिहास (2005) रचना समय के शमशेर जन्म शती विशेषांक का संपादन(2010).सम्मान- कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल सम्मान(1999), गिरिजा कुमार माथुर सम्मान (2001), संस्कृति सम्मान (2001), हेमंत स्मृति सम्मान (2002), फिराक गोरखपुरी सम्मान (2013) और शमशेर सम्मान (2014) प्राप्त है जिसे वापस कर दिया.ईमेल पता- abodham@gmail.com |
काशी हिन्दू वि वि में प्रसाद जी को लेकर जो संगोष्ठी हुई थी,उसमें एक सत्र जिसमें मैं भी था आलोक श्रीवास्तव को छोड़ हम तीनों-यानी जीवनीलेखक श्री त्रिपाठी, औपन्यासिक जीवनीकार श्यामल सब उपस्थित थे।
प्रसाद जी के प्रपौत्र विजय शंकर भी थे।वहाँ जब श्री त्रिपाठी ने यह कहा कि –उनके परिवार ने सहयोग नहीं किया तब विजयशंकर प्रसाद ने कहा कि उसमें जो भी प्रामाणिक मैटर है वह तो हमारे परिवार द्वारा ही दिया गया है,तब श्री त्रिपाठी यह कैसे कह रहे कि हमने कोई सहयोग नहीं किया?
जीवनी छपते ही श्री त्रिपाठी ने मुझे भेज दी थी ।इसके पहले मेरे अंतरंग मित्र आलोक श्रीवास्तव के प्रसाद परअत्यन्त गहन जाँच परख के साथ लिखे दोनों खंड मैं पढ़ चुका था।
कवि की प्रेमिका वाला प्रसंग सबसे पहले डा. प्रभाकर श्रोत्रिय ने अपनी थीसिस में उठाई।नाम की खोज भी उन्होंने की।इन दोनों ने इसे अपने ढंग से दुहराया है।
प्रसाद के इस जीवन प्रसंग को एरिक फ्राम वाली दृष्टि से आलोक के आलोचनात्मक व्यवहार से सहमत नहीं होकर भी मुझे लगाआलोक का काम कवि( उनकेकथाकार/नाटककार को छोड़कर भी)प्रसाद के व्यक्तित्व को समझने में अत्यंत महत्वपूर्ण है यद्यपि कुछ अतिरेकता भी है।आलोक वैसे भी कोई पेशेवर
आलोचक नहीं हैं।उन्होंने पूरी किताब एक प्रसाद-विदग्ध और प्रेमी के रूप में लिखी है।फिर वह जीवनी तो है नहीं।तब भी
महत्वपूर्ण है।
बोधिसत्व जी ने त्रिपाठी जी की किताब तो देखी पर प्रसाद के जीवन से जुड़े अनेक संघर्षों और साहित्यिक चिंताओं के बीच प्रसाद की सक्रिय भूमिका और योगदान को शायद नहीं देखा ।इसलिए त्रिपाठी जी का काम उन्हें भाव विमुग्ध कर गया।
प्रसाद का भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में क्या भूमिका थी,क्यों वे क्रांतिकारियों से गहरे जुड़े थे,क्यों फिर भी पं. नेहरू की सभा में भी थे,क्यों निराला और नंददुलारे वाजपेयी के साथ बैठ ,शुक्ल के छायावाद संबंधी दृष्टिकोण की हँसी उड़ाते थे,क्यों शुक्ल जी यह टिप्पणी करते थे कि उन्हें जातीय स्वरूप की स्मृति ही नहीं है–आदि आदि।
प्रेमचन्द और प्रसाद के रिश्ते परिचय और प्रेम के बाद कितने प्रगाढ़ हुए,
मैथिली शरण गुप्त प्रसाद के प्रति कैसा मनोभाव रखते थे,गाँधी को लेकर क्या दृष्टि रखते थेऔर क्यों,ये ऐसे सवाल हैं जिनका गहरा रिश्ता प्रसाद के लेखक से है।ये सब और भी अनेक बातें हैं जो बंधुवर त्रिपाठी की हड़बड़ी के चलते उनकी जीवनी से बाहर ही रह गई हैं और अभी भी इंतजार में हैंं।
शायद वे दुबारा थोड़ा और समय देकर इसे न्याय देना चाहें।
सर
आलोक वाली किताब मैंने देखी नहीं। अब देखूंगा। मैं इस किताब से मुग्ध हुआ या नहीं लेकिन यह मुझे अच्छी लगी।
इस किताब में आई सूचनाएं ही मेरी समीक्षा का आधार है। मैं प्रसाद पौत्र की बातों को दरियाफ्त करने की दिशा में कैसे जा सकता हूं जब कि मैं वहां उपस्थित नहीं था। किताब प्रकाशित है और इसमें लिखी गई बातों का उत्तर वे या कोई भी दे सकता है। चाहें तो सत्यदेव जी भी दे सकते हैं।
वैसे तो नंद दुलारे जी की किताब के साथ ही डॉ.राम रतन भटनागर जी की किताब भी प्रसाद के संदर्भ में देखी जानी चाहिए। आपने तो राम रतन भटनागर जी वाली किताब और उसकी स्थापनाएं देखी होंगी!
मैं समीक्षा कर रहा हूं लेकिन मेरी दृष्टि में आप द्वारा उठाए गए सभी बिंदु भी होने चाहिएं। आप की इस उम्मीद का आदर करता हूं!
लेकिन फिर यह समीक्षा अगले दो तीन साल बाद कर पाता! या आगे कई और साल लगते!
सादर
बोधिसत्व
आदरणीय विजय बहादुर जी से प्रसाद-प्रपौत्र ने कहा, पर कभी मुझसे नहीं कहा…मैंने यह बात किताब में भी कही है – सोदाहरण भी कही है। वे लिख कर भी कह सकते थे,. और सिंह साहब ने किताब पढ़ी है। वे भी उसके हवाले से जवाब दे सकते थे! पर् लगता है कि किताब में क्या नहीं है, को याद रखने की फ़िराक़ में सिंह साहब भूल गए है कि उसमें क्या है..!! कोई भी कैसी भी किताब लिख दे – दूसरा तीसरा व्यक्ति कह सकता कि क्या क्या रह गया – रह जाता ही है…मैंने सब कुछ कह देने का कोई दावा नहीं किया…। और जो रह गया, उसे मैं ही कहूँ, की अपेक्षा क्यों? आप- आप कोई भी कह सकता है…
एक बात मैं कहना चाहता हूं। मित्र किसी ऐसी जीवनी का नाम बताएं जो एक ही जिल्द में और सम्पूर्ण हो।
राम विलास जी को आखिर तीन खंड क्यों लिखने पड़े होंगे?
फिर भी उसका जीवनी भाग अपर्याप्त है। यदि ऐसा न होता तो आगे निराला जी की अनेक जीवनियां लिखने की आवश्यकता क्यों आती?
अपनी इस सीमित समीक्षा में मैंने अवसाद का आनंद के उन पक्षों को छुआ है जो मुझे अच्छे लगे। यह किताब न सिर्फ रोचक है बल्कि शिल्प गत नयापन भी है। जीवन और सृजन को मिला कर रचनाकार को गढ़ने का एक कठिन प्रयत्न है जिसमें सत्यदेव जी कामयाब भी हैं।
जब इस समीक्षा को अपनी आलोचना की किताब में संकलित करूंगा तो सुझाए गए पक्षों को भी शामिल कर लूंगा!
मैं सत्यदेव जी को एक अच्छी और उत्सुकता जगाने वाली जीवनी लिखने के लिए फिर से शुभ कामनाएं देता हूं!
सबका आभार और सबको आदर!
यह सही है कि सर्वांग-सम्पूर्ण जीवनी लगभग असंभव है, किंतु बोधिसत्व की समीक्षा इसे पढ़ने को प्रेरित करती है।समीक्षा के लिए बोधि को धन्यवाद और जीवनी के लिए त्रिपाठी जी को साधुवाद
भाई वाचस्पति जी ने बोधिसत्वजी की समीक्षा पढ़कर यह मेसेज मेरे ह्वाट्सऐप पर भेजा, जिसे मैं उनकी अनुमति से यहाँ साझा कर रहा हूँ…
एक ही पुस्तक में सभी कुछ को समेटना असंभव अनावश्यक है। निराला की त्रिखंडी साहित्य-साधना में भी संपूर्णता का निर्वाह संभव नहीं। फिर अरुण देव और जीवनियों की बात कर रहे हैं।तो जो चाहें आगे बढ़कर लिखें। कोई भी रचनात्मक कार्य कभी अंतिम न होता है,न विवेकशील लेखक ऐसा दावा करते हैं!
बोधिसत्व समकाल के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। वे अपने पुरखे कवियों के प्रति आदर-अनुराग रखते हैं। यह आदर-अनुराग उन्हें अनालोचनात्मक नहीं बनाता। इसी भाव की अभिव्यक्ति यह समीक्षा है।
यह जीवनी मुझे भी अच्छी लगी। मैं एक ‘पेशेवर आलोचक’ नहीं हूँ, स्वयं को एक्टिविस्ट-आलोचक मानता हूँ। मेरी समीक्षा इसी दृष्टि से उपजी है।
बोधिसत्व की समीक्षा कवि-दृष्टि संचालित है।
लेखन एक सतत प्रक्रिया है। कुछ न कुछ छूटता ही है। जब चैट-जीपीटी के सहारे लिखा जाने लगेगा तब भी कुछ न कुछ छूटेगा।
मैं रचनात्मक समीक्षा के लिए बोधिसत्व का और तथ्यान्वेषी किंतु भाव-संवलित जीवनी ‘अवसाद का आनंद’ के लिए सत्यदेव त्रिपाठी का आभार मानता हूँ।