पंकज सिंह का कवि-कर्म श्रीनारायण समीर |
पंकज सिंह के कवि कर्म पर विचार करते समय हमें यह खयाल रखना होगा कि कविता कवि के निजी मानोभावों की स्वच्छंद अभिव्यक्ति नहीं, वरन् संवेदनात्मक अनुभूति की संश्लिष्ट अभिव्यक्ति होती है. कविता में संवेदना एवं अनुभूति की भूमिका सर्वोपरि होती है. हालांकि, उसके अंतस् में करुणा का अजस्र स्रोत प्रवहमान रहता है. भाव का वैभव उसे सुष्ठु और कलात्मक बनाता है. फिर भी कविता विचार-विहीन नहीं होती. सच तो यह है कि कविता का उद्भव ही विचार से हुआ है.“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः”.आदि कवि के इस आदि छंद में निहित विचार से कोई कैसे इनकार कर सकता है.
स्वाभाविक है कि कविता का विचार न्याय का पक्षधर तथा आनंद का अन्वेषी होता है. इसलिए कविता का पक्ष स्थायी प्रतिपक्ष का होता है और उसका नजरिया हमेशा लोक हितकारी. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे ही काव्य का लोकमंगल कहा है.
कविता अपने समय और समाज का प्रतिबिंब होती है. किंतु प्रतिबिंब बनने की प्रक्रिया में वह अपने समय और समाज का हिसाब भी करती है. ऐसा करते हुए वह अपने समय और समाज से प्रभावित होती है और जरूरत के अनुसार उन्हें प्रभावित भी करती है. ऐसे में कविता की शक्ति और सामर्थ्य वहाँ देखने को मिलती हैं, जहाँ वह विचारों में आलोड़न पैदा कर पूरे समाज को आलोड़ित करती है.
निश्चय ही ऐसी कविता मनुष्य को केंद्र में रखकर अपने समय, समाज तथा देश काल का वितान रचती है. भक्ति काल की कविता ऐसी ही है.
विचारों में आलोड़न लाकर जन-जीवन को उत्प्रेरित करने और इस तरह अपनी सामाजिक भूमिका निबाहने में आधुनिक हिंदी कविता भी पीछे नहीं रही है. अंग्रेजों की गुलामी के विरुद्ध भारतीय जन मानस को आंदोलित करने में छायावाद की भूमिका ऐतिहासिक थी. नक्सलबाड़ी के जन विद्रोह से अनुप्राणित आठवें दशक की कविता की भूमिका भी कुछ ऐसी ही रही है.
आजादी के स्वप्नभंग और नेहरूवाद से मोहभंग का असह्य दुःख एवं गुस्सा सन् 1967 में नक्सलबाड़ी (पश्चिम बंगाल) के किसान- विद्रोह में प्रकट हुआ. इस विद्रोह का देश के युवा मानस पर गहरा तथा दीर्घकालिक असर हुआ. आठवें दशक की कविता इसी विद्रोह-चेतना की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति है. इस कविता ने अपने समय में प्रतिरोध की आवाज बनने और उसे बुलंद करने में जिस ऊर्जा और गर्मजोशी का परिचय दिया, उसकी कोई मिसाल नहीं. समकालीन कविता की पहचान और तासीर में इस कविता की भी भूमिका है. नक्सलबाड़ी की विद्रोह-चेतना को कविता में रूपायित करने वाले कवि पंकज सिंह की कविता पर इसी पृष्ठभूमि में विचार किया जा सकता है.
एक |
पंकज सिंह 1970-80 के दशक की कविता के प्रतिनिधि कवि हैं. उनकी कविता मध्यवर्ग की संघर्षशील चेतना तथा विरल संवेदना के वृत्त में सत्ता के दमन, शोषित एवं दमित की यातना, स्त्री की व्यथा और जन-गण के संघर्ष की जय-पराजय-गाथा है. इस गाथा में समाज के यथार्थ का गहरा बोध निहित है और सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार है. इसमें कवि का अपना स्वप्न और संघर्ष भी शामिल है, जो जन-गण के स्वप्न और संघर्ष से जुड़ा हुआ तथा उसी का सगोतिया है.
कवि अपने समय के यथार्थ को संबोधित करते हुए किसी का मुँह नहीं जोहता, बल्कि पक्षधरता की बात करता है और बेलाग पूछता है– ‘तुम किसके साथ हो’ ? यह कवि की एक कविता का शीर्षक भी है. सन् 1974 ई0 की इस कविता का यथार्थ सत्ता की मनमानी और दमन का यथार्थ है और इसकी संवेदना बेधक तथा विचार प्रवण. हालांकि इस कविता के कतिपय शब्द खालिस राजनीति के शब्द हैं, जो अपने खरापन और खुरदरापन से काव्य-प्रभाव को बाधित करते हैं. तथापि यह कविता अपने समय और समाज के जो दृश्य प्रस्तुत करती है तथा जो सवाल खड़े करती है, वे निहायत मानीखेज एवं महत्त्वपूर्ण हैं. सभ्य समाज ऐसे हालात एवं सवाल की अनदेखी नहीं कर सकता.
कविता में पक्षधरता का सवाल उछालते हुए पंकज सिंह सीधे-सीधे अपने पूर्वज कवि मुक्तिबोध से जुड़ते हैं. उनका यह जुड़ाव वक्त की नब्ज पर उंगली रखने के साथ-साथ अपने पुरखे के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव-प्रदर्शन भी है. वैसे भी कविता का आठवाँ दशक घनघोर पक्षधरता का दशक था. कवियों ने पक्षधरता का पाठ “पार्टन तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है” के प्रख्यात प्राश्निक मुक्तिबोध से सीखा. तथापि उस दौर में आजादी से आम आदमी के मोह-भंग, मध्यवर्ग के स्वप्न-भंग, नगरों में बढ़ रहे अजनबीपन और नक्सलबाड़ी आंदोलन के खूनी दमन तथा 1967 के आम चुनावों में दस राज्यों में कॉंग्रेस के पतन जैसे घटनाक्रमों ने भारतीय समाज को इस कदर आंदोलित कर दिया था कि कविता को मुखर एवं पक्षधर होना ही था.
पंकज सिंह की कविता भारत के जन-गण के स्वप्न और संघर्ष की कविता है. यह कविता अपनी अंतर्वस्तु और संवेदना में भारतीय लोक मानस को अभिव्यक्त करती तथा अपने समय का हिसाब करती पक्षधर कविता है. आम जन की सच्चाई और सिधाई का बखान करती पक्षधर कविता.
अकारण नहीं पंकज की एक कविता का शीर्षक है ‘चलो उस तरफ’. हालांकि यह कविता वर्णनात्मक है, मगर संवेदना, करुणा तथा इतिहासबोध से रिक्त नहीं है. कविता में वर्णन के कुछ स्थल बड़े ललित और सधे हुए हैं.
कविता कवि की स्वानुभूति, विचार-दृष्टि, संवेदना एवं कल्पना-शक्ति की अभिव्यक्ति होती है. इतिहास जहाँ सत्ता से प्रभावित और स्पंदित होता है, कविता सत्ता के प्रभाव एवं आतंक से मुक्त होती है और अपने पाठक समाज को भी मुक्त करती है. पंकज सिंह की कविता इस अर्थ में मुक्ति-गाथा है.
कवि विषम-से-विषम स्थिति में भी भय नहीं खाता और न अपने संगी-साथियों को भयभीत होने देता है. सत्ता के भय से भी नहीं. उल्टे सत्ता की विडंबना को उजागर करता है, उसका उपहास उड़ाता है और व्यंग्य का ऐसा सघन वातावरण रचता है, जिससे अवगत होने पर खुद सत्ता भी शर्मसार हो जाए. उदाहरण के लिए उनकी ‘सम्राज्ञी आ रही है’ कविता देखी जा सकती है. अधिनायकवादी सत्ता को आड़े हाथों लेती इस कविता का रचनाकाल 1974 है. यह कविता पहली बार ‘आलोचना’ में छपी थी और काफी चर्चित हुई थी. तब देश के नागरिक जीवन में आपातकाल का कोई अनुभव नहीं था. देश में आपातकाल 25 जून, सन् 1975 की आधी रात में थोपा गया और 1977 के आम चुनाव में कॉंग्रेस पार्टी और खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की पराजय के बाद 21 मार्च,1977 को समाप्त घोषित किया गया था. किन्तु, इंदिरा गाँधी की कार्यशैली में अधिनायक वाली हनक तभी से दिखने लगी थी, जब उन्होंने 26 मार्च,1971 से 16 दिसंबर,1971 तक चले बांग्लादेश-मुक्ति-संग्राम को सहयोग कर पाकिस्तान को दो फाड़ कर दिया.
इंदिरा गाँधी इसके पूर्व (1 से 10) मार्च,1971 के पाँचवें आम चुनाव में तब की 521 सीटों वाली लोकसभा की 518 सीटों पर हुए चुनाव में 352 सीटें जीत कर अपार बहुमत के साथ तीसरी बार प्रधान मंत्री बनी थीं. ऐसे में कोई विदेह ही होगा, जिसमें सत्ता की हनक न आए. ‘नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं, प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं’.तत्कालीन सत्ता की इस हनक को पंकज सिंह के कवि ने समय पर समझ लिया था. तभी उन्होंने लिखा –
नागरिको,
उत्सव मनाओ कि सम्राज्ञी के दर्शन तुम्हें करने हैं
भीतभाव से प्रणाम सँभालते हुए अपने दुखों के कीचड़ में
रुँधे गले से ही स्वागत गीत गाते हुए
उत्सव मनाओ
साठोत्तरी हिंदी कविता स्वाधीनता के स्वप्न भंग से उपजी पीड़ा, हताशा, कुंठा और असंतोष तथा यथार्थ की बेलौस अभिव्यक्ति थी. नक्सलबाड़ी की ‘वसंत गर्जना’ ने अपने समय की कविता के स्वर और मिजाज तथा मुहावरे को सिरे से बदल दिया. इससे सर्वाधिक प्रभावित सत्तरोत्तरी कविता हुई. यह कविता सामाजिक यथार्थ, यथार्थ के जलते सवाल तथा आम आदमी के जीवन संघर्ष को अभिव्यक्त करती क्रांतिकारी चेतना, प्रतिरोध एवं आक्रोश की आवाज बनी. इस कविता का नयी संवेदना तथा नये शिल्प में ढलना स्वाभाविक था और वही हुआ.
नक्सलबाड़ी की विद्रोह-चेतना को कविता में रूपायित करने वाले कवियों में पंकज सिंह अकेले नहीं थे. पाठकों की चेतना में बारूद भरने में आलोकधन्वा, वेणु गोपाल और कुमार विकल आगे थे. इस अभियान में गोरख पांडेय तथा वीरेन डंगवाल की कविताएँ भी शामिल थीं. परंतु कविता में शोषण एवं दमन का प्रतिकार करती खुरदरी काव्य-वस्तु के बरअक्स अभिव्यक्ति में कोमलता तथा शाब्दिक सौष्ठव का वितान रचने में पंकज का कोई जोड़ नहीं. उनका अनुभव संसार भी बाकी कवियों की तुलना में व्यापक और विस्तृत था.
पैतृक गाँव चैता (पूर्वी चंपारण) के खेत-खलिहान, अमराई, नदी के कछार की यादों से लेकर शिक्षा केंद्र मुजफ्फरपुर की धूप-छाँही स्मृतियाँ पंकज के रक्त एवं मज्जा में बसी थीं. दिल्ली एवं जयपुर से लेकर पेरिस तथा लंदन तक की भटकन ने कवि के विद्रोही व्यक्तित्व को तपाया ही नहीं; बल्कि जहीन बनाया और धीरज धारण करना सिखाया. इसे खुद पंकज ने भी माना है.
आठवाँ दशक नक्सल कविता का दशक था. नक्सल कविता नक्सलबाड़ी की विद्रोह चेतना को अभिव्यक्त करने वाली कविताओं को कहा गया. यह कविता राजनीतिक तौर पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद की क्रांतिकारी विचारधारा से प्रभावित है और समाज-व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की आकांक्षी है. इस कविता के उर में बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए क्रांति की आग और आह्वान है.
पंकज सिंह की कविता में ऐसे कई स्थल मिलते हैं, जहाँ क्रांति की चिनगी तथा लावे की लाली सर चढ़कर बोलती है. काव्य-वस्तु में प्रतिकार, ध्वंस और नव निर्माण के स्वप्न एवं आकांक्षा इस कवि के यहाँ भी उस दौर के दूसरे कवियों की तरह ही हैं. वृत्तांत में खुरदरापन और अतिकथन पंकज की कविता में भी हैं. किन्तु जो बात बाकी कवियों से पंकज को अलग करती है, वह है इनकी काव्य भाषा और कथ्य की सिधाई का शिल्प. पंकज की सधी हुई दीप्त काव्य भाषा एवं सहज शैली का जवाब नहीं. वे कविता में झूठे सपने नहीं बोते. कोई मिथ्या आश्वासन नहीं देते.
कवि की रुचि और प्राथमिकता में यथार्थ का वस्तुगत चित्रण है. कवि का यह काव्य गुण पाठकों को प्रिय लगता है और इसलिए उन्हें सम्मोहित करता है. वैसे, कभी-कभी परेशान भी करता है. ललित, चित्ताकर्षक एवं सुसंस्कृत भाषा-संरचना के कारण पंकज की कविता कतिपय स्थलों पर दुर्बोध हो जाती है और अर्थग्रहण में अतिरिक्त श्रम एवं सावधानी की मांग करती है. हालांकि अर्थग्रहण के उपरांत ये काव्य स्थल चमत्कृत करते हैं और रसास्वादन से भावक को विमुग्ध भी. ऐसे काव्य रसिकों को पंकज के शब्द-संयोजन और भाषा-विन्यास रुचते तथा आकर्षित करते हैं.
क्रांति की आग और लावे की लाली नितांत सम्मोहक होती है. इस सम्मोहक किन्तु खतरनाक सच को प्रतिदिन कुआँ खोदकर पानी पीनेवालों से अधिक कौन जान सकता है. परंतु ‘आगि बड़वागि तें बड़ी है आगि पेट की’ के लिए धरती-पाताल एक करने वाले भी इस लाली की जलन और दाह से बचना चाहते हैं. बावजूद इसके, वे अपने जीवन की कड़वी सच्चाइयों से त्राण चाहते हैं.
ऐसे ही हालात में अतीत और भविष्य को गर्म रोटियों की गंध में बदलने वाले सपनों के साथ आने वाले कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों का स्वागत तथा संगत मजदूर बस्तियाँ जी जान से करती हैं. इसके बाद बस्ती के सोच में अचानक से जो बदलाव आता है और बस्तीवालों में जो पुलक देखा जाता है, उस बदलाव तथा पुलक का पंकज ने जैसा चित्रण किया है, वैसा चित्रण यथार्थ की गहरी अनुभूति के बिना तथा करुणा से आप्लावित मन के बगैर असंभव है.
दो |
पंकज सिंह अपार धीरज, प्रशांति, करुणा एवं रात के उर में दिवस की चाह और चेतना के कवि हैं. उनका अनुभव संसार ही नहीं, विचार-क्षितिज भी व्यापक और विस्तीर्ण है. जिस वसंत गर्जना ने आलोकधन्वा को मुक्तिबोध के बाद के दौर का सर्वाधिक चर्चित कवि बनाया, उसी ने पंकज सिंह को तत्कालीन युवा काव्य प्रेमियों के दिलों में स्थापित किया. बिल्कुल सत्तरोत्तरी कविता की आग एवं पानी तथा मांग और रोमान के अनुरूप कोमल, सुघड़ और अभिराम होने की चाहत एवं शर्तों पर. जाहिर है कि पंकज की क्रान्तिकारिता निर्मम और ठूँठ नहीं है.
कवि शोषित, दमित और उत्पीड़ित मनुष्यता के साथ अटूट, अभेद्य तथा एकाकार होना चाहता है. इसलिए वह विचार एवं व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव चाहता है. कवि के लिए संबंधों की ऊष्मा और गरिमा आत्यंतिक रूप से महत्त्वपूर्ण तथा वरेण्य है. इसे वह छिपाता नहीं, जीता है. यही कारण है कि निजी प्रसंगों पर लिखते हुए भी कवि निजी नहीं रह पाता. वह अपने विचार और विश्वास के प्रति इस कदर आबद्ध है कि अपने को ‘अनुपस्थित सुंदरता और जरूरी खयालों का कारीगर’ कहता है.
पंकज सिंह के काव्य विवेक, वैचारिकी तथा विश्वदृष्टि में ऐतिहासिक और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की भूमिका महत्त्वपूर्ण और प्रभावकारी रही. यही वजह रही कि कवि जीवन-संग्राम में किसी संभ्रम का शिकार नहीं हुआ, क्षुद्र कामनाओं के वशीभूत नहीं हुआ तथा किसी प्रकार की खुशफहमी में नहीं जिया.जिया तो अपने दिल की धड़कन सुनते हुए, अपनी शर्तों पर और मरा भी तो दिल की धड़कन से.
पंकज के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हैं -‘आहटें आसपास’, ‘जैसे पवन पानी’ और ‘नहीं’. इन तीनों संग्रह की कविताएँ प्रमाण हैं कि कवि अपने परिवर्तनकामी विचार और चिंतन एवं विश्वदृष्टि के साथ प्रतिबद्ध है तथा अप्रतिहत आबद्ध है. कवि सहमति में गाल बजाने के दौर में भी, असहमत होने के अपने अधिकार के साथ अटूट रूप से जुड़ा हुआ है और इसलिए प्रभुत्ववादी हाँ के विरुद्ध अपने प्रतिरोध को एक पूरी जिल्द में ‘नहीं’ कहता है.
सोवियत संघ के विघटन ( 25 दिसंबर,1991 ) के साथ शीत युद्ध का अंत क्या हुआ, राजनीति के विचार, चिंतन और दर्शन की दुनिया बदल गयी. शुरुआत अमेरिकी राजनीति विज्ञानी फ्रांसिस फुकुयामा की पुस्तक THE END OF HISTORY AND THE LAST MAN (1992 ) से हुई. इसमें फुकुयामा ने एक सुविचारित दर्शन गढ़ा. उन्होंने तर्क दिया कि
“दो ध्रुवीय विश्व के बीच 1945 से 1991 के दौरान जारी शीत युद्ध के समाप्त होने तथा सोवियत संघ के पतन के साथ जिस पश्चिमी उदार लोकतंत्र का उदय हुआ है, उससे मानवता न केवल युद्धोत्तर इतिहास के विशिष्ट दौर के पार आ गयी है; बल्कि इतिहास के अंत के युग में पहुँच गयी है.”
इसके बाद चिंतन की दुनिया में अंत के अनंत का ऐसा शोर मचा कि ‘इतिहास का अंत’, ‘विचार का अंत’, ‘सरहद का अंत’, ‘भाषा का अंत’, ‘क्षेत्र और समाज का अंत’ जैसे अंत का अंतहीन सिलसिला खड़ा किया गया. इससे प्रगतिशील सिद्धांत रक्षात्मक हुआ और परिवर्तनकामी आंदोलन को धक्का लगा. भाषा के स्तर पर भी एक नये किस्म की विपन्नता देखी गयी. यह वह समय था, जब सहमति में ‘हाँ’ कहना युग धर्म बन गया. ऐसे दुस्समय में पंकज ने ‘नहीं’ कहने का साहस किया.
उनके तीसरे कविता संग्रह ‘नहीं’ की कविताएँ इसी साहस की अपराजेय गाथा हैं. प्रभुत्ववादी सहमति एवं हाँ के तुमुल कोलाहल के विरुद्ध ‘नहीं’ की कविताएँ असहमति, प्रतिरोध तथा अपराजेय साहस की दुर्निवार गाथा हैं. ‘नहीं’ का निहितार्थ भी महत्वपूर्ण है. इसमें सिर्फ असहमति नहीं, अस्वीकार भी है और केवल विरोध नहीं, प्रतिरोध की अनुगूँज भी है.
‘नहीं’ भूमंडलीकरण और बाजारवाद से दबाव में आए मेहनतकशों, श्रमिकों और कमजोर वर्ग के लोगों की ओर से अपने समय के सजग कवि का कविता में प्रतिवाद है. ‘नहीं’ में कुल 61 कविताएँ हैं और इनमें कवि अपनी राह पर लौटता, फिर से सक्रिय होता नजर आता है.
निश्चय ही ‘नहीं’ की कविताएँ निरुद्देश्य और भावुकता से भरी अथवा कोई सिद्धांत उपस्थापित करती कविताएँ नहीं हैं. ये कविताएँ अर्थगर्भित, व्यंजनापूर्ण तथा अपने समय को संबोधित एवं उकेरती कविताएँ हैं. इन कविताओं में पंकज ‘बीते हुए दुखों की और सच की हिस्सेदारी’ तथा ‘इन्तजार की ताकत’ के साथ पूर्वज कवि मुक्तिबोध से जुड़ते हैं और कहीं-कहीं उन्हीं के ढब में कविता रचने का प्रयास करते नजर आते हैं.
साहित्य से क्रांति की उम्मीद पालना वस्तुगत सच्चाइयों को नजरअंदाज करना है. समाज में साहित्य और कला की भूमिका निस्संदेह बड़ी एवं सर्जनात्मक होती है. किन्तु ध्यान रहे कि साहित्य मनुष्य जीवन के उत्कर्ष एवं आनंद के निमित्त अपने युग तथा जीवन का चित्रण है, जबकि मनुष्य और समाज की परेशानियों तथा समस्याओं से निजात दिलाने का काम राजनीति करती है. ऐसे में जो लोग कविता से क्रांति की उम्मीद करते हैं, वे कदाचित् राजनीति को उसकी नाकामियों और सामाजिक समस्याओं के लिए जवाबदेह ठहराने के बजाय उसे चिर निर्मल होने का स्वांग रचने तथा राजनीति-राजनीति का कुटिल खेल खेलने की अनुमति देते हैं.
कहने का अभिप्राय यह है कि साहित्य की समस्या अंततः राजनीति की समस्या होती है, जबकि राजनीति की समस्या शुद्ध राजनीति की समस्या होती है. पंकज अपने दूसरे काव्य संग्रह ‘जैसे पवन पानी’ की कविताओं में वैचारिक प्रतिबद्धता और बौद्धिक तेज के बावजूद, किंचित आत्म-केन्द्रित हुए हैं, तो इसका कारण राजनीति में ढूँढ़ना होगा. ‘आहटें आसपास’ का फक्कड़ और यारबास कवि ‘अपना घर ढूँढ़ता’ जीवन में व्यवस्थित हुआ है तो यह कवि का स्वाभाविक और स्वागत योग्य विकास है. अब उसका एक अपना घर है और वह उसमें पत्नी तथा दो पुत्रियों के साथ रहने लगा है. पाठक चाहें तो इसकी पुष्टि के लिए ‘जैसे पवन पानी’ का ‘समर्पण’ देख सकते हैं.
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक के संक्रमण और भूमंडलीकरण के तीव्र शोर की छाया इस संग्रह में साफ देखी जा सकती है. पंकज इस संक्रमण और परिघटना को अपनी कविता में नयी दृष्टि से समझते और संबोधित करते हैं. पंकज उन चंद लोगों में थे, जो भूमंडलीकरण के आते ही न केवल उसे समझ गये थे, बल्कि उसकी अपनी तरह से खबर भी ली. इसलिए उनका आकलन सटीक और व्यंजनापूर्ण है.
तीन |
पंकज पूरे वाक्य और निश्चित अर्थ के संघर्षधर्मा कवि हैं. उनकी कविता उनके विचार और सरोकार का प्रतिफल है. वह लोक से सम्बद्ध कविता है और उसके लिए व्यक्ति तथा समाज का विकास एवं उत्थान प्राथमिक है. कविता जब शब्दों और वाक्य-खंडों में रची जा रही हो, पंकज की पूरे वाक्य की चाहत चौंकाती है और बरबस हमारा ध्यान खींचती है. इस चाहत के पीछे की कवि-दृष्टि साफ और सुविचारित है. कवि, कविता और जीवन में फर्क नहीं मानता और इसलिए अपने विचार तथा विश्वास को अधूरा या अस्पष्ट अथवा असंप्रेष्य नहीं रहने देना चाहता. इसलिए वह कविता में पूरे वाक्य और निश्चित अर्थ की कामना करता है.
इस कामना में यह भाव अंतर्निहित है कि काव्य भाषा में सुघड़ता हो और विचार में स्पष्टता, ताकि कविता एवं जीवन में एकरूपता, सामंजस्य तथा लालित्य उद्भासित हो सके. यह कामना पंकज की कविता को खास बनाती है और उन्हें अपने समकालीनों में विशिष्ट. पंकज लिखते हैं :-
मुझे पूरे-पूरे वाक्य चाहिए
जिनमें निश्चित अर्थ हों
मिट्टियों में हवा में आकाश में जल में जड़ें फूटें
मेरी स्वप्नतरु कविता की
पंकज की कविता में अँधेरे के यथार्थ के बरअक्स धैर्य और इन्तजार का गहरा बोध तथा दीर्घ तैयारी के भाव मिलते हैं. इन्तजार के बोध में न खीझ है, न उदासी. कोई उतावलापन भी नहीं है.कविता में कवि का जाग्रत विवेक है, जो सतह के यथार्थ तथा यथार्थ की वास्तविकताओं को समझता है और इसलिए वह अँधेरे में व्यर्थ की टकराहट से बचने की सीख देता है तथा चोट खाने की आशंका को घटित होने नहीं देता. कवि में जीवन और समाज को खुशनुमा बनाने तथा उसमें प्रेम का प्रकाश फैलाने की चाहत इतनी तीव्र है कि उसके आगे उसका अपना संकट एवं कष्ट मामूली लगता है.
पंकज की कविता अन्याय के विरुद्ध न्याय के संघर्ष में बार-बार पराजय झेलते लोगों के साहस, जीवट और अदम्य आकांक्षा की कविता है.यह प्रगति और सुकून के दिनों के अंतहीन इन्तजार की कविता है. इसलिए इसमें जिंदगी के हजार प्रसंगों में तमतमाए आदमी का गुस्सा है तो जीने की तरकीब का ईजाद भी.
पंकज जितने जग बीती के कवि हैं, उतने ही आप बीती के. उनकी आप बीती, जग बीती की तरह ही पीड़ा, संवेदना और परेशानियों से भरी रही है. वैसे भी सच्चा कवि ‘दुखिया दास कबीर’ होता है, जिसके नसीब में खाना और सोना नहीं; बल्कि जागना और रोना होता है. आपातकाल में पंकज पर सत्ता के खिलाफ षड्यन्त्र का आरोप था. गिरफ़्तारी से बचने के लिए वे फरार रहकर बिहार, बंगाल, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, हिमाचल और पंजाब के शहरों और कस्बों की खाक छानते रहे. इन्हीं दिनों मुजफ्फरपुर में उनकी माँ के घर पर पुलिस ने छापा मारा और तलाशी ली. पुलिस का सामना करती माँ के बारे में पंकज की एक प्यारी कविता है. इस कविता का शीर्षक है ‘तलाशी’. दुःख, दर्द और चुभते अनुभवों को कविता में सुरक्षित तथा संरक्षित करने में सिद्धहस्त कवि शासन की बंदूक को कविता में कैसे निस्तेज करता है तथा उपहास का विषय बना देता है, इसे जानने के लिए यह कविता पढ़नी चाहिए.
वे घर की तलाशी लेते हैं
वे पूछते हैं तुमसे तुम्हारे भगोड़े बेटे का पता ठिकाना
तुम मुसकुराती हो नदियों की चमकती मुस्कान
तुम्हारा चेहरा दिये की एक जिद्दी लौ सा दिखता है
निष्कंप और शुभदा
पंकज की काव्य-साधना में उनकी परिवर्तनकामी चेतना, राजनीतिक प्रतिबद्धता और ऊर्जस्वित मस्तिष्क की तरह उनके अनुरागी मन तथा सहृदय स्वभाव की भी बड़ी भूमिका है. उनकी कविताओं में प्रकट परिवर्तन की आकांक्षा उनके अनुरागी मन और सहृदय स्वभाव से भी शक्ति एवं संबल ग्रहण करता है. इसलिए कवि ने ‘सम्राज्ञी आ रही है’, ‘तुम किसके साथ हो’, ‘चलो उस तरफ’, ‘इच्छाएँ’, ‘मध्यवर्गीय तीनपाँचियों का लालसा गीत’ और ‘अंध काराएँ’ जैसी सशक्त कविताएँ रची हैं तो ‘इंतजार’, ‘तलाशी’, ‘लोग पहचान लेते हैं’, ‘हम घिरे हैं गिरे नहीं’ एवं ‘मैं आऊँगा’ जैसी संसक्ति, अनुराग तथा रिश्ते की गर्माहट को प्रतिध्वनित करती कविताएँ भी. संवेदना का वितान खड़ा करने तथा मार्मिक ताना-बाना रचने में कवि की वे कविताएँ बेजोड़ हैं, जो माता-पिता, परिवार और दोस्तों को संबोधित हैं.
पंकज कविता में विचार, वृत्तांत और विमर्श का एक मुकम्मल परिदृश्य रचते हैं. वह काव्य-परिदृश्य रसात्मक वाक्यों से रचा गया हो, जरूरी नहीं. परंतु यदि आप सहृदय हैं तो उसकी अंतर्वस्तु, संवेदना तथा अनुभूति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते. ऐसे में पंकज की कविता मेहनत की लूट, रोजमर्रा के संघर्ष और जीवन के लंबे एवं उलझे वृत्तांत को विचार की धार देकर विमर्श में ढालने की कविता है. इस विमर्श में मामूली जरूरतों के लिए जद्दोजहद करती और रोज-रोज मरती-खपती जनता की यातना, पीड़ा और दमन का प्रकट यथार्थ है.
इस यथार्थ में वे लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने लोक मंगल के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, मगर जब कभी इस यश का भागी बनने का मौका आया, दृश्य से ओझल रहे. हालांकि ऐसे लोग दृश्य से ओझल रहकर भी सदैव हमारे बीच ही रहते हैं, साथ रहते हैं जैसे पवन पानी. पंकज ने ‘जैसे पवन पानी’ शीर्षक से एक कविता भी लिखी है, जिसमें बड़ी गहरी बात कही है. जीवन में संवेदना और करुणा की भूमिका की बात, अँधेरे में उजाले की आस जगाने वालों के माहात्म्य की बात आदि.
शोषण और उत्पीड़न से बेहाल समाज के इस वृत्तांत और विमर्श के बारे में क्या कहा जाए! दुःख, जहालत और विषमता की अनुभूति ऐसी ही होती है, जितनी यातनादायी उतनी ही मारक. ऐसे में मामूली जरूरतों को पूरा करने में अक्षम, बेहाल और बिखरे समाज के दुःखों के बारे में कोई भी जिरह बेमानी होगा.
कवि भव बाधा से मुक्त, आनंद का अन्वेषी और कविता की दुनिया का नागरिक होता है. वह स्वतंत्रता का पहरुआ और शुद्ध-बुद्ध-मेधा होता है. तभी वह अपने युग के अनिश्चय, द्वंद्व, ऊहापोह तथा नरक को समझ पाता है; चीजों के बेजा तथा बेधड़क इस्तेमाल की खिल्ली उड़ा पाता है और तमाम चालाकियों एवं दुरभिसंधियों को भेद पाता है.
सवाल है कि समाज की इस रीत और यथार्थ से कवि आखिर निपटे तो कैसे निपटे ? बलिहारी है कि ऐसे सवालों से मुठभेड़ करते पंकज अपने खोल में सिमटने के बजाय अपनी जिम्मेदारी का दायरा बढ़ा लेते हैं. पंकज ऐसा क्यों करते हैं ? इसलिए कि पहले वह अपनी छोटी-छोटी जरूरतों के लिए जद्दोजहद करते एक आम आदमी हैं, फिर युग की जिम्मेदार कवि-आवाज हैं. तभी उनकी कविता में ‘चाहिए’ और ‘शायद’ जैसे शब्दों का बोध तथा दुहराव कवि के स्वप्न एवं संघर्ष को स्वर तथा आकार दे पाता है. परंतु ऐसा करते हुए कवि सदिच्छाओं की खबर लेने से नहीं चुकता. ऐसे स्थलों पर कवि का गुस्सा, सात्त्विक होने के बावजूद, देखते बनता है.
पंकज कविता और जीवन में क्रांति के गायक और प्रेम के उन्नायक कवि हैं. क्रांति और प्रेम पंकज के कृतित्व एवं व्यक्तित्व के दो समानुपातिक सत्य और यथार्थ हैं. वे जितने क्रांतिकारी कवि हैं, उतने ही अनुरागी मनुष्य. क्रांति और अनुराग पंकज सिंह के यहाँ एक-दूसरे के पर्याय एवं पूरक हैं. उनकी क्रांतिकारिता उनके अनुराग का प्रतीक और प्रतिफल है तो उनका अनुराग उनके क्रांति-भाव का पूरक. व्यक्ति-जीवन और समाज-जीवन को मुक्त, स्वस्थ तथा सुंदर बनाने के लिए वे जितना क्रांति को अनिवार्य मानते हैं, उतना ही प्रेम को.
चार |
पंकज के लिए प्रेम में संबंधों की गरिमा वरेण्य थी और इसे वे छिपाते नहीं, जीते थे. उनका रागबोध बड़ा सूक्ष्म, संयमित और धीरज वाला था. उसमें कोई जल्दबाजी नहीं, कोई प्रदर्शन नहीं और कोई सयानापन भी नहीं था. इंतजार और संयम एवं सम्मान से भरा रागबोध कवि की खासियत है. कवि निजी और सार्वजनिक की सीमा तथा खूबसूरती को समझता है, इसलिए घालमेल नहीं करता. इससे पंकज की प्रेम कविताओं में एक सात्त्विक वातावरण बनता है, जो संबंधों के महत्त्व को और मर्यादा को बढ़ाता है और मान देता है.
पंकज प्रेम की दैहिक सीमा में सिमटकर गलदश्रु भावुकता में खो जाने वाले कवि नहीं हैं. वे प्रेम के उदात्त रूप तथा सामाजिक भूमिका को सर्वोपरि मानने वाले और साथियों पर प्रेम बरसाने वाले कवि हैं. उनकी वैचारिकी में प्रेम की व्यापक और गहरी सामाजिक भूमिका है. इस प्रेम के बल पर और अनुभव तथा अनुभूति के आधार पर कवि को यह आभास हो गया था कि आनेवाले समय में भारत का समाज-जीवन कैसा होगा.
पंकज का प्रेम रहस्यवादियों की तरह वायवीय नहीं, भौतिक है और स्वभाव से समष्टि मूलक. इस प्रेम का उद्भव और विकास यद्यपि स्त्री के आलंबन में होता है, तथापि यही प्रेम विस्तार पाकर शोषित, दमित और उत्पीड़ित मनुष्यता के त्राण और उत्थान का हेतु बनता है और आगे चलकर समूची प्रकृति के प्रेम में रूपांतरित हो जाता है.
पंकज के तीसरे कविता संग्रह ‘नहीं’ में स्त्री पर आधारित चार कविताएँ एक साथ हैं. पहली कविता में स्त्री के साथ विलास से प्रेमारंभ होता है. दूसरी में देह की विपन्नता से जगत को जानती आर्त रमणिका है और एक बुझा हुआ चंद्रमा है. तीसरी कविता में लालसाओं के पंछी का फिर से फड़फड़ाना है और चौथी में पार्टी की रात्रि पाठशाला में जाने लगी है एक किसान स्त्री. मतलब प्रेम का एक पूरा वृत्तांत और विकास का एक सम्पूर्ण रूपक. जाहिर है कि पंकज का प्रेम महज देह प्रेम तक सीमित नहीं है. कवि का प्रेम स्त्री-पुरुष अनुराग का प्रतीक है और स्त्री को शिक्षित, स्वायत्त तथा स्वतंत्र बनाने का उपक्रम है.
पांच |
पंकज की कविता बच्चों की संगति में संवेदना एवं अनुभूति का विलक्षण संसार रचती है. कविता तब अभिव्यंजन से भर उठती है और उदात्त हो जाती है, जब बच्चों को संबोधित होती है. कवि के काव्य संसार में बच्चे बदलाव के भविष्य, उम्मीद की किरण और संभावनाओं के पुंज हैं. ऐसा लगता है जैसे कविता बच्चों की संगत में आते ही अपना चिर परिचित विचारधारात्मक-विवरणात्मक स्वर त्यागकर कलात्मक आलाप लेने लगती है. स्वयं कवि भी बच्चों पर कविता रचते हुए अतिशय संवेदनशील, कल्पनाशील और भावुक हो उठता है. कदाचित् इसीलिए इन कविताओं में कवि कल्पना, शब्द-वैभव, बिम्ब एवं शिल्प के सहारे संवेदना तथा अनुभूति का एक सर्वथा सुभग और मनोहारी संसार उपस्थापित करता है.
कवि की ऐसी ही एक प्यारी और अनूठी कविता है- ‘बच्चों की हँसी’. इस कविता की अभिव्यंजना यद्यपि बदलाव की आकांक्षी है, किन्तु इसमें कवि ने प्रतीकों के जरिए अंतर्वस्तु का जैसा सृजन किया है, वह अप्रतिम है. कविता की विषय वस्तु भविष्य कालिक है. इसमें निहायत प्रतीकात्मक भाषा और व्यंजना शैली में खुशनुमा दिनों की कवि-कल्पना है.
कविता में धूप खुशहाली की ऊष्मा से लबरेज बदलाव का प्रतीक है तो जंगल व्यापक जन समुदाय का और हवा जमाने का रुख है तथा पहाड़ जड़ व्यवस्था का प्रतीक. कवि उन आकांक्षित दिनों की कल्पना करता है कि जन हितकारी व्यवस्था स्थापित होगी तो कितना सुखद बदलाव होगा कि
एक दिन बच्चे धूप के स्वागत के लिए खड़े होंगे
बच्चे मुस्कुरा रहे होंगे और
धूप बुला रहे होंगे
मगर कवि को पता है कि यह सब निर्विघ्न नहीं होगा. तभी वह लिखता है,
“पहाड़ चीखेंगे– यह क्या हो रहा है!
स्तब्ध चीजों में कौन हरकतें बो रहा है!”
परंतु इस चीखने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. जड़ व्यवस्था अब ज्यादा दिन चलने वाली नहीं है. लोग जाग गए हैं और उन्होंने सपने देखने शुरू कर दिए हैं.
निश्चय ही कवि की बच्चों पर लिखी कविताएँ भाषा के वैभव, बिम्ब के गत्यात्मक सौन्दर्य एवं कल्पना के अकथ रूप के सृजन हैं और इनमें कवि का सर्वथा नया रूप उभर कर सामने आता है, जो जितना कल्पनाशील है, उतना ही मानवीय और संवेदनशील.
छह |
पंकज की कविता में आत्मालोचना की प्रवृत्ति मिलती है. वे अपनी तमाम प्रखरता, तेजस्विता तथा क्रांतिकारिता के बावजूद स्वयं से असंतुष्ट होकर अपनी खबर भी लेते हैं और कविता में खुद की आलोचना भी करते हैं. आत्म आलोचना एक साहसिक तथा असाधारण कार्रवाई है.
यह तटस्थता की राह जानती है. निस्संगता इसकी शर्त होती है और वस्तुगत नजरिया इसका पाथेय. ऐसे में आत्मालोचना के लिए हिम्मत और कलेजे की दरकार होती है. कहने की जरूरत नहीं कि पंकज जब आत्मालोचन करते हैं तो “धन्ये, मैं पिता निरर्थक था / कुछ भी तेरे हित न कर सका !” अथवा “धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध” जैसी कालजयी अभिव्यक्तियों के द्वारा स्वयं को धिक्कारने वाले निराला और ‘अब तक क्या किया जीवन क्या जिया’ कहने वाले मुक्तिबोध की परंपरा से जुड़ते हैं.
उनके लेखे जीवन किसी संग्राम से कम नहीं है. एक ऐसा जीवन-संग्राम, जिसमें सभी अपने हिस्से की लड़ाई लड़ने में जी-जान से लगे हुए हैं. कवि, जीवन को और समाज को अपने मन मुताबिक गढ़ने के लिए यथार्थ के साथ और कविता में दिन-रात लगा रहता है. फिर भी चीजें सँवरने के बजाय गड्डमड्ड हो जाती हैं और कवि-व्यवस्था चरमरा जाती है. ऐसे में परेशानियाँ बढ़ती हैं. तथापि, कवि अपने विचार और विश्वास पर दृढ़ रहता है. कवि की यही दृढ़ता उसे आत्मावलोकन करने तथा अपनी खबर लेने का माद्दा देती है.
जीवन तब संग्राम लगने लगता है, जब मामूली जरूरतों और इच्छाओं को पूरा करना भी आकाश कुसुम बन जाता है. आवश्यकता और अंतहीन इंतजार में उलझे आदमी को तदर्थवाद पर आधारित सपने दिलासा नहीं देते, विवेक एक हद के बाद ठकुआ जाता है और ‘आएँगे अच्छे दिन भी’ कहने में अच्छा तो लगता है, मगर डगमग विश्वास को अडिग नहीं बना पाता. ऐसे ही मुश्किल और अभावग्रस्त समय में छोटी-छोटी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद कितनी मारक और कारुणिक होती है, इसे एक कवि से ज्यादा कौन समझ सकता है.
पंकज आपादमस्तक सजग और गंभीर कवि हैं. उनकी स्फुट कविताएँ भी जीवन के गहरे सरोकार को इंगित करती हैं. यद्यपि फुटकर विषयों, घटनाओं आदि पर कवि ने गिनती की कविताएँ लिखी हैं, तथापि ये कविताएँ विषय-वैविध्य के कोलाज के रूप में पंकज के कविकर्म को समृद्ध करती हैं. साधारण-सी लगने वाली घटनाओं, अनुभवों और विषयों पर आधारित ये कविताएँ फुटकर भावों की अर्थगर्भित अभिव्यक्ति हैं. सहज भाषा और व्यंग्य के शिल्प में बुनी गयी ‘अपनी हिंदी के लिए’, ‘बेतरतीबियाँ’, ‘राम-राम’ आदि कविताएँ समाज के विद्रूप की जिस खूबसूरती से खबर लेती हैं कि नागार्जुन याद आ जाते हैं.
अस्सी के दशक की क्रांतिकारी कविताओं की खूबियाँ सुस्पष्ट थीं तो सीमाएँ भी. परिवर्तनकामी अंतर्वस्तु, संवेदना एवं अनुभूति से उत्सेकित कथ्य तथा प्रवाहपूर्ण भाषा-संरचना आठवें दशक की कविता की सुस्पष्ट विशेषताएँ हैं. इसी तरह से वैचारिक और वर्ग प्रतिबद्धता, वृत्तान्त में प्रखरता का अतिरेक, सत्ता के साथ संघर्ष को लेकर एक किस्म का रोमान तथा भाषा में आक्रामकता की प्रवृत्ति उस दशक की कविताओं में स्पष्ट रूप से दिखायी देती हैं. क्रांति के जोश और जुंबिश में अंतर्वस्तु के शब्दांकन, चित्रण आदि में वाचालता तथा अतिशय मुखरता उस युग की कविता की आम पहचान है. पंकज की कविता भी इस कमजोरी से मुक्त नहीं है. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिम है कि पंकज की कविता हमें क्यों प्रिय लगती है और क्यों सुहाती है ? आखिर क्या कारण है कि उनकी कविता पाठक को निराश नहीं करती, बल्कि उद्वेलित करती है ?
सात |
उल्लेखनीय है कि पंकज का कवि समय वही है, जिस समय हिंदी कविता में ‘गोली दागो पोस्टर’ और ‘जनता का आदमी’ की धूम मची हुई थी. तब पंकज की कविताएँ भाषा में वाग्वैभव का वितान रचती सामान्य लगती थीं और आम पाठक इन्हें तवज्जोह नहीं देता था. किन्तु उस समय भी, पहली नजर में सामान्य लगने वाली ये कविताएँ काव्य-प्रेमियों के दिलो-दिमाग में अपनी छाप छोड़ती थीं.
पंकज का काव्य सरोकार, काव्य में संवेदना और अनुभूति का व्यापार, काव्य भाषा का वैभव आदि ऐसे पहलू थे, जो उन्हें अन्य कवियों से अलग पहचान देते थे तथा काव्य रसिक को भाते थे. इसकी बड़ी वजह यह थी कि पंकज की कविता लोगों को मिथ्या आश्वासन नहीं देती. यह कविता झूठे सपने और उम्मीदें भी नहीं जगाती. इसके उलट कवि का सृजन संसार सच्चाई और सिधाई का पारदर्शी संसार है. इस संसार की कविताएँ पाठक को विचार और संवेदना के धरातल पर सक्रिय और जागरूक करती हैं. उसकी नैतिक जवाबदेही को उभारती हैं, ताकि सबमें यह एहसास जगे कि जिंदगी को बेहतर बनाने की लड़ाई किसी एकाकी की मनोवांछित लड़ाई नहीं है, बल्कि ऐतिहासिक जरूरत है और इसे लड़ना ही होगा. एक बेहतर दुनिया की लड़ाई में आज भले ही हम हार रहे हों, किन्तु हार के कारण हम इसे छोड़ नहीं सकते. ऐसी कविताओं में ‘जिनके घर बार-बार ढह जाते हैं’, ‘गाथा’, ‘लोग पहचान लेते हैं’, ‘हम घिरे हैं गिरे नहीं’, ‘इच्छाएँ’, सम्राज्ञी आ रही हैं’, ‘मैं तुम्हें नहीं लिखूँगा’, ‘इंतजार’, ‘तलाशी’, ‘हम इतिहास के बेटे हैं’, ‘बच्चों की हँसी’ आदि प्रमुख हैं.
पंकज की कविता, जैसा कि पूर्व में कहा गया है, पूरे वाक्य और निश्चित अर्थ की कवि-आकांक्षा है और यह सामान्य आकांक्षा नहीं है. यह आकांक्षा उन्हें अपने समकालीनों के बीच खास बनाती है. यद्यपि यह आकांक्षा कवि को गद्य के निकट ले जाती है, इसलिए यह कहना असंगत नहीं होगा कि पंकज की काव्य भाषा, गद्य भाषा है. तथापि उनकी कविता में सौष्ठव, प्रवाह तथा लय की मौजूदगी प्रीतिकर है. कवि अपने समकालीनों की तुलना में अतिरेक से मुक्त है, संयत है और कविता में सघन बिंबों की घनी छाया है.
कविता में पद-चयन और वाक्य-विन्यास में ही नहीं, पूरी भाषा-संरचना में भावावेग ठाठें मारता प्रतीत होता है. यह आवेग कवि के परिवर्तनकामी विचारों से आयत्त है तथा सृजन को विचारोत्तेजक बनाता है. पंकज की काव्य भाषा में तत्सम का वाग्वैभव भी सम्मोहक है. हालांकि उसमें कहीं-कहीं हिन्दुस्तानी की झलक भी मिलती है. संक्षेप में कहें तो पंकज की कविता व्यापक जीवनानुभव, गहन जीवनानुभूति और विरल संवेदना से युक्त तथा भावों के आवेग से अभिसिंचित परिवर्तनकारी कविता है.
कविता अपने उदात्त में मुक्त होती है और मुक्त होने की सीख देती है. पंकज हिंदी के ऐसे विरले कवि हैं, जो मुक्ति की कविता जीते और रचते हुए मुक्त हुए.
श्रीनारायण समीर बेंगलूर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो, नई दिल्ली में नौ वर्षों तक निदेशक रहे. |
एक दुरूह लेख, अकादमीय हलक़ों के विद्वतजनों के लिए…..
पंकज सिंह की की कविता सहज है और दिल मेंं उतर जानेवाली….. यह सच है कि आठवें–नौंवे दशक की कविता पर राजनीतिक स्वर हावी है, आज पलटकर देखने पर लगता है यह उस समय के कवियों का उत्साह था . आलोक धन्वा, मंगलेश जी, पंकज जी, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल, अरुण कमल और कुमार अंबुज ने कविता की दुनिया को समृद्ध किया….
कवि की चिंता वर्तमान को भविष्य से जोड़ने की होती है .यहीं वह क्रान्तदर्शी होता है.श्रीनारायण समीर जी ने बहुत सूझबूझ और गहराई से पंकज सिंह के कवित्व की संभावनाओं की विवेचना की है .इस दृष्टि से समीरजी कवित्व की शक्ति और संभावनाओं के प्रति पंकजजी के साथ दृढ़ता से खड़ेहोकर कविता के लेखकों पाठकों को उसके उज्ज्वल प्राणवान् भविष्य के प्रति आश्वस्त करते हैं .बहुत सुंदर पठनीय संग्रहणीय आलेख…शुभैषी प्रोफेसर आर.एस.ठाकुर, मोतिहारी पूर्वीचम्पारण
आलोचना हो या समालोचना, सरल नहीं एक बहुत जिम्मेदारी का काम होता है। लेखक एवं लेखन से जुड़े सभी पहलुओं से पूर्णतः परिचित ही नहीं संवेदनशील होना भी अत्यावश्यक होता है। अन्यथा अपने आलोचना कर्म के साथ अन्याय होने का संकट रहता है। कवि पंकज के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के अंतस में उतरते हुए श्री ‘समीर’ जी ने एक अद्भुत समालोचना से भी ज्यादा अनभिज्ञ पाठकों को गहन परिचय प्रदान किया है। अभिव्यक्ति मात्र शब्द भंडार नहीं है न ही समालोचक के पांडित्य के प्रदर्शन के लिए। इस आलेख को जो भी पढेगा पंकज जी की कविताओं को पढ़ने पर मजबूर हो जाएगा। यहीं पर समीर जी के अभिव्यक्ति कौशल का परिचय प्राप्त होता है। एक चिंतक को अभिव्यक्ति के लिए जिस भाषा एवं व्याकरण की आवश्यकता होती है उसके तमाम पहलू यहां स्पष्ट परिलक्षित हैं। विचारों के तर्कपूर्ण एवं अनुक्रम में प्रस्तुत किए जाने के कारण कवि पंकज के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विविध आयामों की परतें गुलाब की पंखुड़ियों की भांति खुलती चली जाती हैं एवं अपने आप में रसानुभव का माध्यम बनती है। व्यक्तिगत स्तर पर जैसे-जैसे मैंने कविताओं के उद्धरण पढ़ें, वैसे-वैसे उस पूरी कविता को पढ़ने पर तत्पर हुई। मुझे अपने शब्द भंडार की सीमा का भी आभास हुआ। 🙂 अंततः अपने सीमित क्षमता के चलते मैं यह कहना चाहूंगी कि यह आलेख मेरे लिए ज्ञानवर्धक रहा और यह मानती हूं कि किसी भी साहित्य प्रेमी के लिए पंकज सिंह जी को समझने में पूरक होगा।
पंकज सिंह की कविताओं के बारे में पढ़ना सुखकर है। वे मार्क्सवाद और साम्यवाद के नाम पर कुछ भी लिख देने वालों में नहीं थे। उनके शब्दों में लोच था, विचारों मे सघनता, हृदय में संवेदना। लेखक और समालोचन दोनों को बधाई।
पंकज सिंह की कविताओं पर इसके पहले इतना गंभीर और सुव्यवस्थित आलेख नहीं पढ़ा था। आलोचक समीर ने पुकारती हुई एक आवाज की तरह इस लेख को लिखा। एक कवि के रूप में पंकज सिंह को और उनकी कविताओं को जैसे भूल ही चुके हैं लोग। इस वक्त अचानक उनकी कविताओं पर बात इतना मुझे बहुत सार्थक और मौजूं लगता है। आज जब प्रतिरोध की कविताओं की मिमियाई –सी आवाज सुनाईं दे रही हो, (बधस्धल की ओर ले जाते हुए बकरे की आवाज कहना ज्यादा ठीक होगा। ) मुझे पंकज सिंह की निर्भीक और दुस्साहसी स्वर से आड़ोलित कविता-स्वर की याद आती है।
पंकज सिंह के कविताओं को नजरंदाज करने का एक कारण और नजर आता है उनका बहसों भरा हस्तक्षेप। जब पंकज सिंह की कविताओं की वैचारिक प्रतिबद्धता आकर्षित करती तो दूसरी तरफ सविता सिंह की नारी विमर्श की हार्दिकता के ओजस विस्तार को भी बड़ी हसरत से देख रहे थे लौंग । लगभग एक ही समय पर कविता में दोनों की मौजूदगी का खामियाजा एक को भुगतना ही था। पंकज सिंह की कविता को जो नुकसान हुआ, उसकी थोड़ी सी भरपाई समीर का यह आलेख करता है
समीर जी देर से आए लेकिन कविता की वह धार लेकर आए, जिसके लिए पंकज सिंह जाने जाते थे, बधाई।
पंकज सिंह के कविकर्म पर यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण समालोचनात्मक और वस्तुनिष्ठ लेख है। इसे पढ़ने के बाद मन में उनकी कविताएं फिर से पढ़ने की उत्कंठा जगती है। श्रीनारायण समीर कविता के अच्छे आलोचक हैं और उनकी आलोचकीय भाषा अद्भुत है जो लेख को पढ़ने पर विवश कर देती है। इससे पहले पंकज सिंह के कविकर्म को गंभीरता से कभी नहीं लिया गया। उनकी पहचान पर पत्रकारिता हावी रही। उम्मीद है इस लेख के बाद साहित्य जगत में लोग उन्हें गंभीरता से लेंगे। इस लेख के लिए श्री नारायण समीर को बधाई!
-अनिल विभाकर , पटना ,बिहार
नक्सलवाड़ी से उत्पन्न नवजनवादी आंदोलन और संस्कृति के पक्षधर कवियों की संख्या दो -चार नहीं,पूरे देश में लगभग सौ
और हिन्दी क्षेत्र में दर्जनों थे, लेकिन उनकी एंथोलाजी आज तक
नहीं बनी? आंदोलन का समवेत स्वर नहीं उभरा,दो-चार नाम
टांक कर चर्चित किए गए। यह स्मृति लोप का प्रयास है। नाम तो विजेंद्र अनिल का ही है।साम्राज्ञी आ रही है कविता आलोचना में नहीं पक्षधर में छपी थी।