शंख घोष की उपस्थिति
प्रयाग शुक्ल
शंख घोष जी से जुड़ी हुई अनेक स्मृतियाँ हैं: उनकी लिखी हुई चीज़ों को पढ़ने की. उनके साथ बैठकर उनकी कविताओं को अनूदित करने की. कोलकता जाकर बांग्ला पुस्तकों की दुकानों में उनकी किताब खोजने की. और वे अत्यंत प्रिय स्मृतियाँ- उनके घर उनसे मिलने जाने पर उनके साथ बैठने-बतियाने की, कुछ खाने-पीने की. और उनके हस्ताक्षरों सहित, उनकी कुछ किताबें पाने की. उनकी उपस्थिति ऐसी थी कि सचमुच एक कवि, एक विचारशील, एक ‘मेघ जैसे मनुष्य’ के साथ बैठने का बोध होता था.
उनका अध्ययन चकित करता था, उनकी विनम्रता चकित करती थी. और सबके लिए प्रेम-भावना और चिंता चकित करती थी. मुग्ध करती थी. याद है, बरसों पहले, उनसे पत्र-व्यवहार के माध्यम से संपर्क हुआ था. मैंने बांग्ला में ही उनकी कुछ कविताएँ पढीं, और मैंने उनकी गहराई को, उनके सौंदर्य को कुछ तो महसूस किया ही. उन कविताओं का अनुवाद कर सकने को गहरी इच्छा हुई. मैंने उन्हें पत्र लिखा, उन कविताओं के शीर्षक सहित कि मैं इन कविताओं का अनुवाद करना चाहता हूँ. उत्तर तुरंत मिला, अनुवाद करने की अनुमति थी. साथ ही यह उदारता भी मिली कि मैं उनकी अन्य कविताओं का भी अनुवाद कर सकता हूँ- अगर चाहूँ तो.
मेरे अनुवाद में वे कविताएँ साहित्य अकादेमी की पत्रिका ‘संकालीन भारतीय साहित्य’ में प्रकाशित हुईं. सराही गयीं और मैं उनकी अन्य कविताओं के अनुवाद की बात भी सोचने लगा. तभी एक घटना घटी. मेरे मित्र अशोक वाजपेयी ने कहा कि वह भारत भवन में शंख घोष को आमंत्रित करना चाहते हैं कुछ दिनों के लिए, और यह भी चाहते हैं कि मैं भी वहाँ जाऊँ, उन्हीं दिनों, और उनके साथ बैठकर उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद करूँ, जिन्हें एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जा सके. मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. वह सब संभव हुआ.
वे दिन मेरी निधि हैं. शंख घोष से मिला तो, उन्हें सचमुच सिर से पांव तक एक कवि के रूप में ही पाया. वह गहरी सोचती हुई-सी आवाज भला कभी भुलायी जा सकती है. हम भारत भवन के प्रांगण में बैठ जाते. हमारे लिए खुले में ही एक मेज-कुर्सी लगा दी गयी थी. वहाँ से झील दिखती थी. मैं कविताओं का अनुवाद करता, उन्हें सुनाता. उनकी ओर से कुछ बहुमूल्य सुझाव आते, अत्यंत विनम्रता से दिये गये.
यह था वर्ष-1983, हम एक दिन साथ सांची भी गये. अप्रतिम चित्रकार-कवि स्वामीनाथन भी हमारे साथ गये थे. कुछ अन्य लोग भी थे. स्वामी और वह जब भारत भवन में मिले तो पहली बार में ही मानों एक आत्मीय सूत्र में, एक चिंतन-सूत्र में बध गये थे. सांची पर अनंतर जो कविता शंख घोष ने लिखी उसमें स्वामीनाथन का भी उल्लेख है. बहरहाल आगे की घटना यह है कि उसके कुछ ही दिनों बाद मुझे आयोवा इंटरनेशनल राइटिंग प्रोग्राम में जाने का आमंत्रण मिला, जहाँ शंखघोष सबसे पहले जाने वालों में थे. उनके साथ बैठकर जो अनुवाद मैं पूरे कर सका था, उसके बाद उनकी कविताओं से जो अनुवाद तब किये, वे उसी में ‘फेंयर बिल्डिंग’ के यूनिवर्सिटी हॉस्टल में किये गये, जहाँ शंख घोष भी रहे थे. नहीं जानता, यह सब कैसे होता है, पर, हुआ है, और होते रहना चाहिए. उन दिनों जब मैंने एक पत्र के माध्यम से आयोवा जाने की बात बतायी थी- वह अत्यंत प्रसन्न हुए थे.
(दो)
बांग्ला साहित्य की परम्परा, उसमें लेखकों-कवियों द्वारा रचा-गया संसार विपुल है. वह रवींद्र-साहित्य से सुशोभित है, जिनके एक विशेषज्ञ ही तो माने जाते हैं, शंख घोष. और उसमें स्वयं शंख घोष का जो स्थान है, उसमें जो कुछ उनका रचा हुआ है, वह भी तो कितना संपन्न है. उसके बिना भी भला बांग्ला-साहित्य की कल्पना आज कौन कर सकता है. जानता हूँ यह पढ़ते-सुनते हुए शंख घोष बेहद सकुचा जाते. इसका प्रतिरोध भी करते. पर, हम सबके लिए तो यह प्रसन्नता की बात है कि उनके जरिये हमने रवींद्र-साहित्य को और अधिक जाना, और यह भी जाना कि शंख घोष की हमारे समय में सक्रियता के बिना, बांग्ला और भारतीय साहित्य वही नहीं होता, जैसा कि आज वह है.
वह बांग्ला के लेखकों-कवियों को जोड़े रखने वालों में थे. युवाओं को प्रोत्साहित करने वाले थे. सुना है कि उनकी रविवारीय गोष्ठियाँ साहित्य-चर्चा का खुला और आत्मीय मंच थीं. अनुष्टुप पत्रिका के विशेषांक की याद आती है. उसमें अंग्रेजी में लिखा हुआ एक मेरा भी लेख है. पर, अधिकतर सामग्री तो बांग्ला के ही, कई पीढ़ियों के लेखक-कवियों की लिखी हुई हैं. उससे भी मैंने शंख घोष के बारे में बहुत कुछ जाना था.
बंगाल की प्रकृति में वर्षा का अपना एक विशेष ‘स्वर’ रहा है. वह वर्षा, और उसके स्वर, उसके रूप, बांग्ला के प्रमुख कवियों के यहाँ बड़े विशिष्ट भाव से अवतरित हुए हैं. ये स्वर रवींद्रनाथ के यहाँ प्रचुर मात्रा में हैं. जीवनानंद के यहाँ भी खूब सुनायी-दिखायी पड़ते हैं. शंख घोष के यहाँ भी हैं. उनकी ‘वृष्टि’ कविता को ही लीजिए. यह छोटी-सी कविता है. पर, कितनी सघन है. वर्षा के प्रसंग से वह बहुत कुछ कह रही है. अपूर्व है. हमारी आंखों के आगे न जाने कितने वर्षा दृश्य उभर आते हैं. और उनके आशय कितने गहरे हैं, गहरे जल की तरह ही. वर्षा आती है. वह केवल बरसती नहीं है. कुछ नया ‘उग’ आने का भाव उसमें शामिल रहता है. वह एक नये जन्म की कथा-सरीखी हो जाती है. हमें सचमुच यह बोध होने लगता है कि वर्षा अपने साथ सबकुछ वापस ले आती है. नये को तो जन्माती ही है. बहरहाल यह रही ‘वृष्टि’ कविता जो मुझे बहुत प्रिय है :
दुख के दिन मेरे तथागत हैं
सुख के दिन मेरे भासभान
ऐसी वर्षा के दिन रह-रह रस्ते-रस्ते
दिन ध्यान मृत्यु का अपनी, मन में आता है
जल भरे खेत सुख के फिर से
दुख-ध्यान भरे फिर एक बार
ऐसी वर्षा के दिन लगता- है नहीं जन्म का मेरे
कोई अंत कहीं
(तीन)
शंख घोष कवि हैं प्रमुखतः. उनकी चिंता जीवन के, प्राकृतिक संसार के, उपादानों-तत्वों को, उनके सौंदर्य को उनकी आभा, को बचाये रखने की है. उनकी ‘काठ’ शीर्षक कविता, इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण है. विज्ञापनी सैलाब के आगे, मनुष्य के ओझल होते जाने को, रेखांकित करती हुई. उनकी कविताएँ हृदय को स्पर्श करती हैं. शरीर में भी एक रोमांच-सा भरती हैं. भाषा को अचूक ढंग से बरतने का उदाहरण भी वे हैं ही. और ‘मेघ जैसा मनुष्य’ तो भारतीय कविता की एक विरल निधि है. भाषा को वह जिस तरह अनोखे ढंग से बरतते हैं, उसका एक अनुपम उदाहरण स्वयं उनकी भाषा शीर्षक कविता है.
वह बात को अत्यंत सहज, पर, बहुत गहरे ढंग से रखने वाले कवियों में हैं. उनमें विट और ह्यूमर की कमी नहीं. ‘बोका’ कविता को ही लीजिये, जिसे मनुष्य-संसार पर लिखी गयी एक श्रेष्ठ, उज्जवलतम कविता के रूप में स्वीकारने में, भला किसे, क्या आपत्ति हो सकती है.
शंख घोष, शब्द को लेकर, भाषा को लेकर, संबोधन को लेकर, संवाद को लेकर भी बहुत कुछ सोचने-कहने-लिखने वाले कवि-लेखक थे. ‘अंधे का स्पर्श’ शीर्षक से जो उनका चर्चित-प्रशंसित लेख है, और जिसे कलकत्ता आकाशवाणी के रेडियो-पत्रकार प्रणवेश सेन की स्मृति में, उनकी प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली स्मारक व्याख्यान माला में 3 अप्रैल, 2007 को उन्होंने पढ़ा था. उससे एक प्रसंग को यहाँ रखता हूँ. इसका हिंदी अनुवाद 24 परगना, कोलकता निवासी हमारे लेखक मित्र संजय भारती ने हिंदी में किया है : प्रसंग है :
“बहुत दिनों पहले एक डॉक्टर हमारे घर रोगी देखने आये थे. देखने-सुनने के बाद जब वे नुस्खा लिखने को हुए तब उन्होंने मुझसे कहा, यह दवा देकर हम लोग दो-दिन देखेंगे. इससे अगर ठीक न हुआ तो तब हमें दूसरी तरह से सोचना होगा. उनकी बात सुन मैं अवाक रह गया. इलाज तो करेंगे वे, तब ‘हम लोग देखेंगे’, ‘हमें सोचना होगा’ इस तरह क्यों बोल रहे हैं? कहना तो उनको यह था ‘मैं देखूँगा’, मुझे अलग तरह से सोचना होगा. ऐसा कहना ही तो सच होता, लेकिन साथ ही साथ यह भी सही है कि मात्र उस एक सच को झुठला करके, मात्र उस एक शब्द को बदलकर, ‘मैं’ को ‘हम लोग’ तक पहुँचाकर डाक्टर बाबू ने अपने रोगी के साथ-साथ उसके परिजनों की भी काफ़ी शुश्रूषा कर डाली. उस वक्त आश्वस्त मन कह रहा था, वे हमारे परिवार के ही व्यक्ति हैं, अपने आदमी- वे रोगी की समस्या को केवल अपनी जीविका के रूप में नहीं देख रहे बल्कि व्यक्तिगत रूप से देख रहे हैं.
थोड़ी देर पहले मैंने जो कहा, ‘सच को झुठला करके’. लेकिन क्या वह झूठ है? यह निश्चित है कि मात्र कौशल या पद्धति के रूप में नहीं बल्कि उस डाक्टर बाबू ने उसे सच ही करना चाहा था. कम से कम बाद के कुछ दिन उनके आने-जाने और उनकी उत्कंठा एवं रोगी के स्वास्थ्य लाभ के बाद उनके निर्मल आनंदोच्छवास ने उस बात को सच ही कर डाला. मात्र एक शब्द के व्यवहार की बदौलत हमारे बीच परस्पर एक धारावाहिक सख्य भाव स्थापित हो गया था.”
यह अकेला उदाहरण नहीं है जब शंख घोष का ध्यान किसी शब्द या पंक्ति पर अटक गया हो. ‘बटपाकुड़ेर फेना’ नाम की जो पुस्तक है, गद्य रचनाओं की, उसके तो शीर्षकों के शब्द ऐसे हैं, जो आपको पूरा प्रसंग ही बता देते हैं मानो, और आप उन शब्दों को लेकर स्वयं कुछ न कुछ सोचने लगते हैं. देखिये : ‘कखनो शुनि कखनो भूलि कखनो शुनि ना जे’.
शंख घोष की एक बड़ी चिंता रही है कि बात दूसरे तक कैसे पहुँचे? संप्रेषण कैसे हो! और जो संप्रेषित हो, वह खरा कैसे हो. परख-पहचान की चिंता भी उन्हें रहती ही रही है: असली-नकली की. ‘असली’ के प्रति उनकी तान मानों उनके लेखन में सर्वत्र व्याप्त है, कविता में, गद्य में.
बहरहाल एक और उदाहरण रखता हूँ उनकी पुस्तक ‘ओकाम्पोर रवींद्रनाथ’ से: वह पृष्ठ 19 पर लिखते हैं : कवियों के संग-निसंग रूप पर. उद्घृत करते हैं रवींद्रनाथ को:
“भेलार मतो बुके आनि
कलम खानि
मन जे भेसे चाले.”
(नाव की तरह कलम को छाती तक लाता हूँ. मन डूबता हुआ चलता है.’ इससे पहले वह कहते हैं : कि हो सकता है हम सब समय इस पर नहीं सोचते, इसे ध्यान में नहीं रखते कि रवींद्रनाथ भी ‘एकला-सागरे भासमान थे’.
(अकेले-सागर में डूबे हुए रहते थे). और उनके इस रूप की याद स्वयं उनकी एक कविता पंक्ति से ही दिलाते हैं. फिर वह उनके ‘सार्वजनिक रूप पर’ आ जाते हैं, और रवीद्रनाथ के संग-निसंग रूप की अद्भुत व्याख्या करते हैं.
इस व्याख्या में स्वयं शंख घोष कहीं अपने रूप को, अपने कामकाज को भी पहचान रहे हैं. कौन नहीं जानता कि शंख घोष गहरे डूबकर, अकेले डूब कर, अपने में डूबे रहकर, हमारे लिए कोई न कोई मोती निकाल कर लाते रहे हैं, पर, हम यह भी तो जानते हैं कि उनका एक सार्वजनिक रूप भी है : बहुतों से जुड़े रहने का, लोगों के पास जाने का, भले ही एकांतिक भाव से जुड़े रहने का. तभी तो शायद हम सब यहाँ-बैठे हुए, उनको याद करते हुए यह पा रहे हैं, कि कवि का भले ही अपने रचना-तंत्र में एक एकांतिक रूप भी रहा हो, पर, वे हमारे साथ भी हैं.
याद है एक बार साहित्य अकादेमी के एक कार्यक्रम में, जिसमें मैं भी था, शंख घोष आये. सभा शुरू हो चुकी थी. सुनील गांगुली उस सभा की अध्यक्षता कर रहे थे. शंख घोष एक पिछली कतार में जाकर बैठ गये. लोगों में कुछ हलचल हुई, और यह आग्रह बढ़ने लगा कि वह आगे बैठें. सुनील का उत्तर मुझे आज तक याद है, वह बोले,
‘’मैंने तो कई बार पहले भी ऐसी कोशिशें करके देख ली हैं. आज आप कर लो.’’
इस पर सब शांत हुए. शंख घोष पीछे की कतार में ही बैठे रहे क्योंकि उनमें आगे-पीछे की कोई दीवार थी ही नहीं. हॉं, इतनी इच्छा ज़रूर थी कि मनुष्य कहीं भी हो, उसका अपना कद, अपने जितना तो रहने ही दिया जाए. वह गरिमा जैसे भी हो बनी रहे. तभी उन्होंने एक कविता में, जिसमें यह कहा जा रहा है किसी व्यक्ति से, एक भीड़ भरी बस में कि ऐसे नहीं वैसे खड़े हो, थोड़ा और सिकोड़ लो अपने को– तभी यह पंक्ति आती है,: ‘’और कितना छोटा हो जाऊँ, रहूं नहीं अपने जितना भी.’’
अपने जितना रहने की जिद ही शंख घोष को, शंख घोष बनाती है बड़ा कवि, बड़ा व्यक्ति, हम सबके बीच का एक ‘मेघ जैसा मनुष्य’. ऐसा मनुष्य, जिसमें कोई अहं नहीं है. उसका विसर्जन है सर्वत्र हाँ, वह हमारे बीच, हमारे साथ हैं, हमारे साथी हैं. और उन्हें अपने बीच पाकर, अपनी जीवन कथा से, रचना कथा से, हम कृतार्थ हैं. कृतार्थ हैं, उनकी उपस्थिति से.
शंख घोष
कुछ कविताएँ
अनुवाद: प्रयाग शुक्ल
वृष्टि
दुख के दिन मेरे तथागत हैं
सुख के दिन मेरे भासमान
ऐसी वर्षा के दिन रह-रह रस्ते-रस्ते
दिन, ध्यान मृत्यु का अपनी, मन में आता है
जल भरे खेत सुख के फिर से
दुख-धान भरे फिर एक बार
ऐसी वर्षा के दिन लगता है – नहीं जन्म का मेरे
कोई अन्त कहीं.
मेघ जैसा मनुष्य
गुजर जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
लगता है छू दें उसे, तो झर पड़ेगा जल
गुज़र जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
लगता है जा बैठें पास में उसके तो छाया उतर आएगी
वह देगा या लेगा? आश्रय है वह एक, या चाहता आश्रय ?
गुजर जाता है सामने से मेरे वह मेघ जैसा मनुष्य
सम्भव है जाऊँ यदि पास में उसके किसी दिन तो
मैं भी बन जाऊँ एक मेघ.
क़तार
बढ़ो ज़रा आगे को आगे को
सरको एक, खड़े हुए वहीं-कहीं देर हुई
खोलो यह कुंडली, सरको कुछ !
मानुष, माछी, अन्धकार, मानुष,
माछी, अन्धकार
सर्पिणी क़तार, कुछ सरको तो आगे को!
जल के संग सम्मुख हो स्रोत के
मुख के संग सामने प्रकाश के
मानुष, माखी, अन्धकार सरको कुछ
सरको कुछ आगे को, आगे को सरको…
भीड़
‘उतरना है? उतर पड़िये हुजूर,
उतारकर चर्बी कुछ अपनी यह।’
‘आँखें नहीं हैं? अन्धे हो क्या ?’
‘अरे तिरछे हो जाओ, जरा छोटे और।’
भीड़ में घिरा हुआ,
कितना और छोटा बनूँ मैं,
ईश्वर।
रहूँ नहीं अपने जितना भी-
कहीं भी,
खुले में, बाज़ार में, एकान्त में ?
किताबें
नींद में हैं मेरी किताबें सब इस समय, बीच में
उनके मैं बैठा हूँ गुमसुम
दरवाज़ा बन्द है. इनकी निःशब्द शान्ति
समो ले मुझे
उतर जाय माथे से भार कल का.
थोड़ी और चुप्पी, फिर छूता हूँ
एक को, कहता हूँ,
जागो, अब
और नहीं कोई!
चुपचाप पहचान चुपचाप–
तुम्हारे आनन्द में,
जागना मेरा !
‘कवि, कथाकार, निबंधकार, कला समीक्षक और अनुवादक प्रयाग शुक्ल का जन्म 1940 में कोलकाता में हुआ था. उनके ’यह जो हरा है’, ’इस पृष्ठ पर’, ’सुनयना फिर न कहना’ समेत दस कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उनके तीन उपन्यास, पाँच कहानी संग्रह और यात्रा-वर्णनों की कई पुस्तकें भी हैं. कला पुस्तकों में ’आज की कला’, ’हेलेन गैनली की नोटबुक’ और ’कला की दुनिया में’ उल्लेखनीय हैं. उनकी यात्रा पुस्तकों में ’सम पर सूर्यास्त’, ’सुरगांव बंजारी’ और ’ग्लोब और गुब्बारे’ महत्वपूर्ण हैं. उन्होंने बांग्ला से कई अनुवाद किए हैं. जिनमें रवींद्रनाथ ठाकुर की ’गीतांजलि’ सहित जीवनानन्द दास, शंख घोष और तसलीमा नसरीन की कविताएं शामिल हैं. बंकिमचंद्र के प्रतिनिधि निबन्धों के अनुवाद पर साहित्य अकादमी का अनुवाद पुरस्कार प्राप्त हुआ. उनकी अन्य पुस्तकों में ’अर्धविराम’ (आलोचना) और ’हाट और समाज’ (निबंध संकलन) हैं. ’कल्पना: काशी अंक’, ’कविता नदी’, ’कला और कविता’, ’रंग तेंदुलकर’ और ’अंकयात्रा’ उनकी संपादित पुस्तकें हैं. उन्होंने बच्चों के लिए रुचि लेकर बहुत लिखा है. ’हक्का बक्का’, ’धम्मक धम्मक’, ’उड़ना आसमान में उड़ना’, ’धूप खिली है हवा चली है’, ’ऊंट चला भाई ऊंट चला’ और ’कहां नाव के पांव’ चर्चित बाल कविता संग्रह हैं. साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों के सिलसिले में उन्होंने देश-विदेश की बहुतेरी यात्राएं की हैं. वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका ’रंग प्रसंग’ और संगीत नाटक अकादमी की ’संगना’ के संपादक रह चुके हैं.’ prayagshukla2018@gmail.com |
प्रयाग जी ने शंखो घोष की कविताओं का काफ़ी अनुवाद किया है । हिंदी में उनकी चयनित कविताओं का संकलन आपके अनुवादों की ही देन है ।
शंखो घोष बांग्ला में रवीन्द्र, नज़रुल, सुकांत और सुभाष मुखर्जी, जीवनानंद, शक्ति चट्टोपाध्याय की सर्व-सम्मानित काव्य श्रृंखला की ही एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखे जाते हैं । वे एक ऐसे कवि के रूप में जाने जाते हैं जिन्होंने बांग्ला भाषा की काव्यात्मक संभावनाओं के सीमांतों को नया विस्तार दिया, कवि के भावों में अवशिष्ट मौन तक के संकेत दिए । रवीन्द्रनाथ को यदि आधुनिक बांग्ला भाषा का जन्मदाता कहा जा सकता है तो जीवनानंद, शक्ति और शंखो घोष ने उसमें आधुनिक जीवन से स्पंदित नए पंखों को लगाने का काम किया था । वे बांग्ला भाषा के ही नहीं, बांग्ला कविता के भी शिक्षक थे ,बल्कि बांग्ला कविता के एक संपूर्ण स्कूल थे । वे खुद जितने मित भाषी थे, उनकी कविता भी तदनुरूप बहुत गहरे और अनपेक्षित संकेत भर देकर चुप हो जाती है । उन्हें पढ़ना एक दीर्घ बेचैनी से गुजरने के समान होता है ।
आपने प्रयाग जी के ज़रिए उन्हें याद किया, इसके लिए बहुत साधुवाद । प्रयाग जी के प्रति हृदय से आभार । अभी पांच दिन पहले ही मेरा मोतियाबिंद का आपरेशन हुआ है, गहरे काले चश्मे पर पावर वाला चश्मा लगा कर मुश्किल से लिख पा रहा हूँ, अन्यथा शायद उन पर विस्तार से लिखने के लोभ का संवरण नहीं कर पाता ।
गहरी आत्मीयता से लिखे गए इस संस्मरण के लिए प्रयाग जी को साधुवाद। कवि शंख घोष को कुछ और जानने का अवसर पाना है यह।
प्रयाग शुक्ल जी को किसी भी विधा में पढ़ना सुख देता है। शंख घोष की कविताएं और अनुवाद को लेकर प्रयाग जी का यह लेख शंख घोष के बारे में बहुत कुछ बता गया। इस संस्मरण के लिए साधुवाद ।