साहित्य, सर्वेक्षण और स्वीकृति राकेश बिहारी |
कोलकाता अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला, फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेला के बाद विश्व के दूसरे सबसे बड़े पुस्तक मेला की तरह जाना जाता है. इस वर्ष जनवरी में इसका 47 वां संस्करण सम्पन्न हुआ है. इस अवसर पर यह दावा किया गया कि बहुत जल्दी यह दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तक मेला हो जाएगा. टाइम्स नाऊ और अन्य मीडिया संस्थानों द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार इस वर्ष कोलकाता अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला में कुल 29 लाख लोग आए और किताबों की कुल बिक्री 27 करोड़ रुपये की हुई. पिछले वर्ष की तुलना में आगंतुकों की संख्या 4 लाख और बिक्री की राशि 2 करोड़ रुपये ज्यादा बताई गई. इस तरह आगंतुकों की संख्या और मेले में हुई बिक्री के लिहाज से यह अबतक का सबसे ज्यादा सफल मेला रहा. हिन्दी लेखक-पाठक समुदाय में भी ये आंकड़े उत्साह से साझा किए गए. 29 लाख आगंतुक और 27 करोड़ बिक्री को अलग-अलग देखें तो निश्चित तौर पर ये बड़े और प्रभावशाली आंकड़े हैं. लेकिन जैसे ही हम आगंतुकों की संख्या और बिक्री की मात्रा के अंतर्संबंध का विश्लेषण करते हैं, आंकड़ों का यह गणित अपना प्रभाव खो देता है.
इन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि दुनिया के दूसरे सबसे बड़े और भारत के सबसे बड़े पुस्तक मेला में प्रति व्यक्ति औसत खरीद मात्र 93 रुपए है. प्रति व्यक्ति औसत खरीद के इस आंकड़े की तुलना यदि पिछले वर्ष की प्रति व्यक्ति औसत खरीद के आंकड़े से करें तो यह पाएंगे कि कोलकाता अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला में इस वर्ष प्रति व्यक्ति औसत खरीद पिछले वर्ष की तुलना में 7 रुपये घट गई है. कुछ लोग इसे आंकड़ों के प्रस्तुतिकरण का खेल भी कह सकते हैं. लेकिन आंकड़ों का महत्त्व केवल उसके प्रस्तुतिकरण तक सीमित नहीं होता है. आकड़ों का सार्थक विश्लेषण कुछ दिशासूचक निष्कर्षों तक पहुँचने और आवश्यक दिशा में जरूरी कदम उठाने में सहायक साबित होते हैं.
कोलकाता पुस्तक मेला के उपर्युक्त आंकड़ों को देखने के बाद भारत के अन्य हिस्सों में आयोजित पुस्तक मेलों के बारे में मैंने कुछ जानकारियाँ इकट्ठा करने की कोशिश की. अपनी सीमित शोध क्षमता में मैंने यह पाया कि प्रकाशक संघ या किसी अन्य आधिकारिक स्रोतों से इस संदर्भ में कोई प्रामाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. इस लिए एक बार फिर मैंने मीडिया और अन्य स्रोतों से उपलब्ध जानकारियों को ही आधार बनाया और इस सामान्य निष्कर्ष पर पहुँच सका कि भाषाई विविधताओं के साथ पूरे देश में आयोजित होने वाले पुस्तक मेलों की प्रति व्यक्ति औसत खरीद मात्र 94 रुपये है. इससे संबन्धित आंकड़ों को नीचे दी गई सारणी में देखा जा सकता है.
जानकारी का स्रोत | पुस्तक मेला | वर्ष | आगंतुकों की संख्या (लाख) | कुल बिक्री
(₹ करोड़ ) |
प्रति व्यक्ति औसत खरीद (₹) |
टाइम्स नाऊ | कोलकाता | 2024 | 29 | 27 | 93 |
blueroseone.com | दिल्ली | 2023 | 15 | 15 | 100 |
टाइम्स ऑफ इंडिया | असम | 2023 | 6 | 5 | 83 |
व्यक्तिगत सर्वेक्षण | पटना | 2023 | 1.5 | 1.5 | 100 |
द हिन्दू | मदुरै | 2023 | 1 | 1 | 100 |
कुल योग | 52.5 | 49.5 | 94 |
जाहिर है कि पुस्तक मेलों में प्रति व्यक्ति औसत खरीद का यह सामान्य निष्कर्ष देश के कुछ सर्वाधिक बड़े पुस्तक मेलों के आंकड़ों पर आधारित है. यदि प्रखण्ड और जिला स्तर पर आयोजित होनेवाले मेलों को छोड़ दें तो अनुमान है कि देश के बड़े-छोटे प्रमुख शहरों में प्रति वर्ष कोई सौ से ज्यादा मेलों का आयोजन होता है. इन आंकड़ों में हिन्दी भाषा का अंश और उसमें भी साहित्यिक पुस्तकों का अंश कितना होगा, इसका मोटा अनुमान लगाना भी भूसे की ढेर में सुई खोजने जैसा मुश्किल काम है.
हिन्दी की साहित्यिक पुस्तकों का बाज़ार कितना बड़ा है, इसका कोई प्रामाणिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. नेशनल बुक ट्रस्ट की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार वित्तीय वर्ष 2020-21 में उनकी कुल बिक्री लगभग 82 करोड़ रुपये थी. प्रकाशित पुस्तकों की भाषावार संख्या को आधार मानें तो इसमें हिन्दी का अंश लगभग 28 करोड़ रुपये होगा. फिर इस अनुमानित बिक्री में से साहित्यिक पुस्तकों की बिक्री को अलग करना भी मुश्किल है. रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज़ की वेब साइट पर उपलब्ध साहित्यिक पुस्तकों के प्रकाशकों (केवल कंपनी) के अंकेक्षित लेखा में उल्लिखित बिक्री को आधार मानकर एक अनुमान लगाया जाय तो किसी भी तरह हिन्दी साहित्य के प्रकाशन का वार्षिक बाज़ार सौ सवा सौ करोड़ रुपये से कम का तो नहीं ही होना चाहिए. जब इस व्यवसाय (जिसे ठीक-ठीक उद्योग का दर्जा भी हासिल नहीं है) के आकार की ही कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, तो पाठकों की पसंद, प्राथमिकता, क्रय शक्ति, पुस्तकों की उपलब्धता आदि से संबन्धित जानकारियों की उपलब्धता के बारे में सोचा भी कैसे जा सकता है?
प्रख्यात प्रबंधनशास्त्री पीटर ड्रकर का एक बहुत प्रसिद्ध कथन है- “If you can’t measure it, you can’t improve it.” यानी आप जिसे माप नहीं सकते उसे सुधार भी नहीं सकते. मापने के लिए आंकड़ों का संग्रह किया जाना जरूरी है. किसी भी क्षेत्र में वर्तमान स्थिति को ठीक-ठीक समझे बिना वांछित प्रगति का लक्ष्य निर्धारित नहीं किया जा सकता. यथार्थ से वांछित तक पहुँचने के लिए वर्तमान प्रक्रिया में सुधार और उसकी पुनर्रचना से संबन्धित निर्णय लिया जाना और उनका क्रियान्वयन जरूरी होता है. अपेक्षित सुधार और पुनर्रचना तथा सही निर्णय लेने के लिए संग्रह किए गए आंकड़ों का सार्थक विश्लेषण और सटीक व्याख्या बेहद जरूरी है.
सन 2000 और उसके तुरंत बाद हिन्दी प्रकाशन जगत पर केन्द्रित कुछ लेख मैंने ‘समयान्तर’ में लिखे थे. तब बुक स्टॉल और बिक्री केन्द्रों की उपलब्धता, पेपरबैक संस्करणों का प्रकाशन, पुस्तकों के एक्सक्लूसिव विज्ञापन मेरी चिंताओं के केंद्र में थे. लगभग ढाई दशक के बाद जब सूचना और संचार क्रान्ति ने पूरे परिदृश्य को बदल डाला है और कोविड दौर की चुनौतियों ने ऑनलाइन को हमारे जीवन का लगभग अनिवार्य हिस्सा बना दिया है, ये समस्याएँ बहुत हद तक दूर हो चुकी हैं. ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स और प्रकाशकों के वेब साइट्स की पहुँच अब सीधे पाठकों के घर तक हो चुकी है, अधिकांश प्रकाशकों ने पिछले कुछ वर्षों में पुस्तकों के पेपरबैक संस्करण प्रकाशित करना शुरू कर दिये हैं और सोशल मीडिया में लेखकों की उपस्थिति और ऑनलाइन गोष्ठियों के बढ़ते चलन ने पुस्तकों के प्रचार-प्रसार को नई गति दी है. प्रकाशकों और पुस्तकों की दिनानुदिन बढ़ती भीड़ के बीच खरीद कर पढ़ने वाले पाठकों की संख्या में कमी का जुमला भी गाहे-बगाहे उछलता रहता है.
स्थापित, युवा, लोकप्रिय और हाशिये के भूगोल पर सम्मानों, स्वीकार्यताओं, उपेक्षाओं, आरोपों और नेटवर्किंग के रोज नए अखाड़े बन-बिगड़ रहे हैं. इन तमाम नई स्थितियों के बीच पाठकों की पसंद, चाहत, प्राथमिकता, क्रय-शक्ति आदि की प्रामाणिक जानकारी के बिना ही हिन्दी साहित्य के अल्पसंख्यक पाठकों, लेखकों और प्रकाशकों की यह दुनिया हर रोज तेज गति और नई चमक के साथ आगे बढ़ती जा रही है. काश हम यह समझ पाते कि अनुमान और अमापित अनुभव आधारित निर्णय हमें औसत परिणाम से आगे नहीं ले जा सकते.
‘समयांतर’ में प्रकाशित उन लेखों में मैंने हिन्दी साहित्य के पाठकों के सर्वेक्षण की जरूरत को भी रेखांकित किया था. पिछले कुछ वर्षों में कुछ मीडिया संस्थानों द्वारा समय-समय पर बेस्ट सेलर्स की सूची भी जारी की जा रही है. संभव है कि कुछ अकादमिक शोधों में पाठक सर्वेक्षण को भी शामिल भी किया गया हो. लेकिन हिन्दी साहित्य के पाठकों का कोई वास्तविक सर्वेक्षण सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है. पिछेल दिनों ‘पुस्तकनामा’ और वेब पत्रिका ‘समालोचन’ ने संयुक्त रूप से एक ऑनलाइन सर्वेक्षण कर इस दिशा में एक लघु प्रयास किया है. आपसे यह साझा करते हुए मुझे खुशी हो रही है कि इस आयोजन में कनाडा और कतार सहित भारत के सोलह राज्यों के 85 शहरों से कुल 191 लोगों ने हिस्सा लिया. सर्वेक्षण के उद्देश्य और प्रारूप के अनुकूल नहीं पाये जाने वाली 24 प्रविष्टियों को रद्द करने के बाद शेष बची 167 प्रविष्टियों के विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्ष यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं.
अमूमन ऐसा कहा जाता है कि हिन्दी साहित्य के लेखक ही उसके पाठक भी हैं. उल्लेखनीय है कि सर्वेक्षण में शामिल प्रतिभागियों में 70% लेखक और 30% विशुद्ध पाठक रहे. इनमें स्त्रियों की भागीदारी 32% और पुरुषों की भागीदारी 68% रही. सर्वेक्षण में अन्य लिंगियों की एक भी भागीदारी नहीं हुई. शायद हम उन तक नहीं पहुँच पाए.
विभिन्न आयु वर्ग के प्रतिभागियों के लिंगानुपात से यह संकेत मिलत है कि 41 से 50 आयुवर्ग में स्त्री पाठकों की संख्या (56%) पुरुष पाठकों की संख्या (44%) से बहुत ज्यादा है. शेष सभी आयुवर्गों में स्त्रियों की भागीदारी पुरुषों की तुलना में कम है. शायद यही वह आयुवर्ग है जब स्त्रियाँ अपने जीवन काल में अपेक्षाकृत कम व्यस्त होती हैं कारण कि बच्चे करियर और पढ़ाई लिखाई के लिए घर से बाहर जा चुके होते हैं. अन्यथा इसके पहले और बाद में क्रमशः माँ और दादी की भूमिकाएं इन्हें पुरुषों के मुकाबले ज्यादा व्यस्त रखती हैं.
जहाँ तक विधाओं की पसंदगी का प्रश्न है, सर्वेक्षण के अनुसार 32% पाठकों की पहली पसंद कहानी है. इसके बाद क्रमशः कविता, उपन्यास, कथेतर और आलोचना विधा को लोगों ने अपनी पहली पसंद बताया. यदि कहानी और उपन्यास दोनों को जोड़ दिया जाये तो 56% लोग कथा पढ़ना पसंद करते हैं. पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह कई पत्रिकाओं के कहानी विशेषांक प्रकाशित हुए हैं. इन दोनों तथ्यों को एक साथ जोड़कर देखते हुए कथा को आज की केन्द्रीय विधा कहा जा सकता है.
खरीद कर पढ़ने वाले पाठकों की संख्या में कमी होने की बात अलग-अलग मंचों से कई बार कही जाती है. लेकिन सर्वेक्षण के आँकड़े बताते हैं कि साहित्यिक पत्रिकाओं और पुस्तकों के लिए पाठकों का औसत मासिक बजट 300 रुपये का होता है. पिछले कुछ वर्षों में एक निश्चित मात्रा में खरीद की गारंटी के साथ पुस्तकें प्रकाशित करने वाले प्रकाशकों और विभिन्न सेल्फ पब्लिकेशन स्कीमों की संख्या में जिस तरह की बढ़त देखने को मिली है, उसके आलोक में यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि 400 रुपये प्रति माह से ज्यादा की खरीद करने वाले पाठकों में ऐसे लेखकों का प्रतिशत कितना है. भविष्य के किसी सर्वेक्षण में इसका बेहतर विश्लेषण सामने आ सकता है.
पुस्तकों, प्रकाशकों और लेखकों की बढ़ती संख्या के बावजूद सर्वेक्षण के इस नतीजे पर गौर किया जाना चाहिए कि साहित्य के पाठकों का लगभग आधा हिस्सा पढ़ने के लिए प्रति दिन अधिकतम एक घंटा या उससे भी कम समय देता है. इनमें से भी आधा से ज्यादा वैसे लोग हैं, जो आधा घंटा से कम या बिलकुल ही नहीं पढ़ते या कभी-कभार पढ़ लेते हैं. इसके दो कारण हो सकते हैं, एक तो नौकरी और कामकाज की व्यस्तता तथा दूसरा पढ़ने की संस्कृति में ह्रास. आज प्रकाशकों को किताबों के विज्ञापन का नया और रचनात्मक तरीका खोजने की जरूरत है, इसके लिए लक्ष्य निर्धारण को और ज्यादा विशिष्ट और सूक्ष्म बनाना होगा. अब दीर्घकालिक उद्देश्य वाले उन विज्ञापन प्रविधियों का अनुसंधान किया जाना चाहिए, जो किसी खास पुस्तक की बिक्री बढ़ाने से ज्यादा समग्र पाठकीय रुचि बढ़ाने का काम कर सकें.
यह सही है कि ऑनलाइन अब हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा हो चुका है. पर सर्वेक्षण के आँकड़े बताते हैं कि हिन्दी का पाठक आज किताबें जरूर ऑनलाइन खरीद रहा, लेकिन अब भी वह मुद्रित सामग्री ही पढ़ना पसंद करता है. यह देखना दिलचस्प है कि जहाँ आधा से ज्यादा पाठक किताबें ऑनलाइन खरीद रहे हैं वहीं 93% लोग मुद्रित सामग्री ही पढ़ना पसंद करते हैं. इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में पुस्तकों के भविष्य को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थीं, अब वे चर्चाएं लगभग थम चुकी हैं. इससे इतना तो आश्वस्त हुआ ही जा सकता है कि पुस्तकों का स्वरूप चाहे जितना बदले, निकट भविष्य में इसके अस्तित्व पर कोई संकट नहीं है.
चाहे ऑनलाइन शॉपिंग साइट्स से किताबें खरीदी जाएँ या सीधे प्रकाशकों से, इसने पाठकों के घर तक किताबों की पहुँच तो सुनिश्चित की ही है. प्रकाशकों को इसका प्रत्यक्ष आर्थिक फायदा भी हुआ है. पहला फायदा तो यह कि पुस्तक विक्रेताओं और बिचौलियों की संख्या कम होने से वसूली की समस्या कम हुई है, नगद बिक्री बढ़ी है. यहाँ यह प्रश्न जरूर उठता है कि क्या प्रकाशकों ने इस मुनाफे को अपने पाठकों के साथ साझा किया है? ऑनलाइन खरीद में हुई वृद्धि (खासकर सीधे प्रकाशकों से की गई खरीद) से अर्जित मुनाफे को पुस्तकों की कीमत कम कर के या पुस्तकों पर छूट देकर पाठकों से साझा किया जा सकता है.
पत्रिकाओं और ऑनलाइन पत्रिकाओं में पाठकों की पसंद जानना इस कारण भी दिलचस्प रहा कि इस क्रम में लगभग 90 पत्रिकाओं और 40 ऑनलाइन पत्रिकाओं (ब्लॉग और साइट सहित) के नाम सामने आये.
ऑनलाइन पत्रिका पढ़ने वालों में ‘समालोचन’ जहाँ अधिकांश (70%) लोगों की पहली पसंद रही, वहीं लगभग 40% लोगों ने यह कहा कि वे ऑनलाइन पत्रिका नहीं पढ़ते हैं. ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह सर्वेक्षण ऑनलाइन आयोजित किया गया था. इस सर्वेक्षण के अनुसार ‘हंस’ आज भी सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली पत्रिका है और इसे 28% लोगों ने अपनी पहली पसंद भी बताया.
पाँच सर्वाधिक पढ़ी जानेवाली पत्रिकाओं में ‘आलोचना’ की उपस्थिति इस बात की आश्वस्ति देता है कि गंभीर आलोचनात्मक सामग्री पढ़ना भी लोग पसंद करते हैं. यहाँ यह सवाल भी महत्त्वपूर्ण है कि पाठकों तक पत्रिकाएं कैसे पहुँचती हैं? पत्रिकाओं के वार्षिक और आजीवन ग्राहक कितने हैं? संस्थाओं की पत्रिका और निजी प्रयासों से निकलनेवाली पत्रिकाओं की वितरण प्रणाली में क्या अंतर हैं? इन प्रश्नों उत्तर जानने के लिए एक स्वतंत्र सर्वेक्षण किया जा सकता है.
पसंदीदा लेखक, पुस्तक और पढ़ने की चाहत वाले प्रश्नों के उत्तर में प्राप्त आँकड़े जहाँ उपन्यास को दीर्घकाल तक पसंद किए जानेवाली विधा के रूप में में स्थापित करते हैं, वहीं इस क्रम में किताबों की लंबी सूची का तैयार होना इस बात का स्पष्ट संकेत देता है कि आज पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय का मॉडेल प्रिन्ट ऑर्डर के बजाय टाइटल की संख्या से निर्धारित हो रहा है.
पहले मुद्रणपूर्व प्रक्रियाओं का (कम्पोजिंग, प्रूफ रीडिंग, कॉपी एडिटिंग आदि) का स्थाई लागत तुलनात्मक रूप से अधिक था इसलिए प्रति पुस्तक कम लागत और अधिक लाभ के लिए बड़े प्रिन्ट ऑर्डर की जरूरत अनिवार्य थी. लेकिन मुद्रणपूर्व प्रक्रियाओं में लगने वाले स्थाई लागत में उल्लेखनीय कमी होने और डिजिटल प्रिन्ट तथा प्रिन्ट ऑन डिमांड का चलन बढ़ने के कारण अधिक से अधिक टाइटल छापना आज ज्यादा सुविधाजनक और फायदेमंद हो गया है. शायद यही कारण है कि आज प्रकाशकों की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि हो रही है. प्रिन्ट ऑर्डर का सीधा संबंध पूंजी, बिक्री तथा वितरण प्रक्रिया के साथ पुस्तक की गुणवत्ता और लेखक की ख्याति से भी है. इसलिए भविष्य में इस निष्कर्ष को बड़े, मझोले और छोटे आकार के प्रकाशकों में वर्गीकृत सर्वेक्षण से और ज्यादा अच्छी तरह समझा जा सकता है.
यह सुखद है कि पुस्तकों और पत्रिकाओं का प्रकाशन निरंतर हो रहा है, उनकी संख्या भी बढ़ रही है. लेकिन पुरानी पुस्तकों के पाठक संख्या में वृद्धि और नई पुस्तकों के पाठकों के निर्माण की दिशा में काम किया जाना बहुत जरूरी है. पाठकों की इच्छा-अनिच्छा, क्रयशक्ति आदि का अध्ययन, विश्लेषण इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. संभावित पाठकों की मनोदशा का अध्ययन इसका एक अलग और जरूरी आयाम साबित हो सकता है. इसके लिए बड़े प्रकाशन संस्थानों को भी आगे आना चाहिए. प्रयोग के तौर पर प्री-पेड डाक व्यय वाले सर्वेक्षण फॉर्म युक्त कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित की जा सकती हैं.
इस सर्वेक्षण की सूचना जारी करते हुए हम कई तरह की आशंकाओं और दुविधाओं से घिरे थे. ‘जाने कितने लोग इसमें शामिल होंगे?’, ‘कहीं प्रायोजित प्रविष्टियाँ तो नहीं आने लगेंगी?’ जैसे प्रश्न भी चिंतित कर रहे थे. लेकिन मुझे खुशी है कि लोगों ने इस सर्वेक्षण को गंभीरता से लिया और इसमें भागीदारी की. बहुत संभव है कि कुछ साथियों को प्रविष्टियों की यह संख्या बहुत कम लगे. लेकिन सर्वेक्षण और डाटा विश्लेषण की प्रक्रिया से परिचित लोग इस बात को जरूर समझेंगे कि औसत एक हजार प्रतियां वाली पत्रिकाओं और कुछ सौ के संस्करण वाली पुस्तकों की दुनिया से जुड़े पाठकों के सर्वेक्षण के लिए इतनी विविधताओं से भरा यह औचक सैंपल साइज बहुत छोटा या निराशाजनक नहीं है. लेकिन हाँ, यह तो निश्चित ही है कि प्राप्त प्रविष्टियों की संख्या कुछ और बड़ी होती तो इस विश्लेषण और व्याख्या का आधार और मजबूत होता, इसके कई और आयाम भी खुलते. उदारीकरण, भूमंडलीकरण के बाद उत्पन्न हुई प्रतिकूलताओं के कारण हमने ‘बाजारवाद’ और ‘उपभोक्तावाद’ पर इतना कुछ कह-सुन लिया है कि कई बार कुछ लोग बाज़ार और उपभोक्ता जैसे जरूरी शब्दों का भी निषेध करने लग जाते हैं. इस तरह का निषेध भाव भी कुछ लोगों को ऐसे सर्वेक्षणों में हिस्सा लेने से रोकता है. आज इस बात को भी समझा जाना चाहिए कि इस तरह के सर्वेक्षण लेखक, पाठक और प्रकाशक तीनों के हित में हैं.
सर्वेक्षण के दौरान मित्रों, पाठकों के कई फोन आए. कुछ ने इस पहल के लिए खुशी जताई, उत्साह बढ़ाया, कुछ ने इसके उद्देश्य पर प्रश्न किए, कुछ ने इस पर बाज़ार का प्रभाव देखा, कुछ ने इसे गैरजरूरी बताया, कुछ को प्रश्नावली बहुत लंबी लगी, कुछ ने कहा कि कई जरूरी प्रश्न शामिल होने से रह गए….इन प्रश्नों पर अलग से चर्चा हो सकती है, पर यहाँ मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि कोई भी सर्वेक्षण हर तरह से पूर्ण नहीं होता और इस सर्वेक्षण की भी बहुत सारी सीमाएं हैं. लेकिन किसी एक सर्वेक्षण पर सारे प्रश्नों के उत्तर खोजने का बोझ डाल देना भी अव्यावहारिक ही होगा. बेहतर और श्रेष्ठ परिणामों केलिए अलग-अलग प्रश्नों के साथ इस तरह के सर्वेक्षण नियमित अंतरालों पर होते रहने चाहिए. ‘पुस्तकनामा’ और ‘समालोचन’ का यह संयुक्त आयोजन उसी दिशा में एक छोटा सा कदम है. मैं ‘पुस्तकनामा’ और ‘समालोचन’ की तरफ से इसमें शामिल सभी पाठकों, लेखकों क एप्रति आभार व्यक्त करता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में होने वाले ऐसे सर्वेक्षणों में लोगों की सहभागिता और बढ़ेगी.
राज्य / देश | शहरों की संख्या | प्रतिभागियों की संख्या |
तेलंगाना | 1 | 4 |
उत्तर प्रदेश | 19 | 43 |
उत्तराखंड | 4 | 5 |
कर्नाटक | 1 | 2 |
गुजरात | 2 | 2 |
छतीसगढ़ | 5 | 5 |
झारखंड | 3 | 8 |
दिल्ली | 1 | 17 |
पंजाब | 2 | 2 |
पश्चिम बंगाल | 2 | 3 |
बिहार | 9 | 20 |
मध्य प्रदेश | 15 | 23 |
महाराष्ट्र | 11 | 21 |
मेघालय | 1 | 1 |
राजस्थान | 4 | 6 |
हरियाणा | 3 | 3 |
कतर | 1 | 1 |
कनाडा | 1 | 1 |
कुल योग | 85 | 167 |
मनुष्य हमेशा से स्वप्नदर्शी रहा है. उसका यही गुण उसे अन्य प्राणियों से अलग भी करता है. पिछले दो-ढाई दशकों में दुनिया बहुत तेज गति से बदली है. असंतोष और स्वप्न बदलाव के दो मूल कारण होते हैं. स्वप्न और यथार्थ परस्पर आबद्ध होने के कारण अलग होते हुए भी पूर्णतः विपरीतधर्मी नहीं होते. आज का यथार्थ जहाँ कल के लिए देखे गए स्वप्न की आधारभूमि होता है, वहीं कल का यथार्थ आज देखे जा रहे स्वप्न की आंशिक या सम्पूर्ण परिणति. इस तरह कुछ अर्थों में स्वप्न यथार्थ का परिमार्जित विस्तार भी होता है. साहित्य, कला, रंगमंच, सिनेमा, दर्शन, विज्ञान, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र जैसे विविध अनुशासन यथार्थ और स्वप्न के बीच दृष्टिसम्पन्न सेतु का निर्माण करते हैं. यथार्थ और स्वप्न के परस्पर पूरक होने के कारण इन्हें श्याम-श्वेत की परस्पर प्रतिकूल बायनरी में बाँट कर नहीं देखा जा सकता. यथार्थ और स्वप्न के इन संश्लिष्ट अंतर्सम्बन्धों को समझने के लिए अपने समय की आहटों को सुनना बहुत जरूरी है. इस अंक में प्रकाशित कहानियों, कविताओं, उपन्यास, आलेखों, साक्षात्कारों और परिचर्चा में आप आज के समय की बहुत सारी आहटें सुन सकेंगे.
कभी ऑटोमेशन को चमत्कार की तरह देखने वाली दुनिया आज ‘एआई’ यानी आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस अर्थात कृत्रिम बौद्धिकता से कुछ हतप्रभ तो कुछ आशंकित है. सीपीयू के अतिरिक्त भार से मुक्त आज के स्मार्ट डेस्कटॉप और यूजर फ़्रेंडली लैपटॉप को पीछे छोड़ने का स्वप्न साकार करने वाले क्वान्टम कंप्यूटर को प्रयोगशालाओं से बाहर निकालने के लिए वैज्ञानिक दिन-रात बौद्धिक संघर्ष कर रहे हैं. भूख की लड़ाई लड़ता जन, तंत्र से पोषण का पता पूछ रहा है. पुरुषों को अनिवार्यतः खल की तरह चिन्हित करता स्त्रीवाद अब स्त्रीसंवेदी मित्र पुरुषों को तलाशने के यत्न कर रहा है. कला माध्यम और मनोरंजन के वे साधन जो सूचना सभ्यता की तेज रफ्तार में पीछे छूटने लगे थे, अपनी खोई जमीन हासिल करने हेतु आधारभूत संरचनात्मक बदलाओं से गुजर रहे हैं. प्रकृति और पर्यावरण का हर स्तर पर दोहन करने वाला मनुष्य, अपने अस्तित्व के संकटों पर सोचने को मजूर हो रहा है. पुस्तकनामा का यह अंक टूटने की धमक और बनने के संगीत के बीच उम्मीद और आशंकाओं के अनेक पदचापों को सुनने-सुनाने का एक विनम्र प्रयास है.
पुस्तकनामा के इस अंक में वरिष्ठ कथाकार और पटकथा लेखक असगर वजाहत तथा अभिनेत्री और फिल्मकार अस्मिता शर्मा के खास साक्षात्कार प्रकाशित हैं. इन साक्षात्कारों में हिन्दी के संदर्भ में भाषा और लिपि के प्रश्नों पर लगभग प्रतिकूल विचारों से आपका साक्षात्कार होगा. अस्मिता जहाँ रोमन में हिन्दी लिखे जाने को लेकर चिंतित हैं और एक खास वर्ग के लोगों के लिए इसे मजबूरी मानती हैं, वहीं असगर वजाहत हिन्दी की वैश्विक प्रतिष्ठा के लिए रोमन में हिन्दी लिखे जाने को जरूरी मानते हैं. महज कुछ पंक्तियों में कही गई ये बातें किसी बड़ी बहस या युगांतकारी बदलाव की भूमिका तो नहीं हैं? यह प्रश्न मुझे लगातार उद्वेलित कर रहा है. उम्मीद करता हूँ इन तमाम मुद्दों से दो-चार होता यह अंक आपके लिए एक महत्वपूर्ण वैचारिक, रचनात्मक और मानसिक खुराक साबित हो सकेगा.
इस आप यहाँ से क्रय कर सकते हैं.
राकेश बिहारी (अक्टूबर 1973, शिवहर (बिहार) कहानी तथा कथालोचना दोनों विधाओं में समान रूप से सक्रिय. |
साहित्य के केंद्र में विषय है, वस्तु नहीं ।जब हम साहित्य को वस्तु के रूप में बदलते हैं तो हम विषय- वत्ता को नष्ट करते हैं। साहित्य को संख्या में, आकार में, चिन्ह में बदलने की कोशिशें हमेशा होती रही हैं। एक सामान्य सर्वेक्षण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है, किसी भी दौर में प्रेमचंद से अधिक पाठक गुलशन नंदा के होंगे। क्या इससे यह साबित हो सकता है कि गुलशन नंदा के उपन्यास समाज संस्कृति और मनुष्य के प्रति गहरी और व्यापक समझ व्यक्त करते हैं ? क्या तोलस्तोय और दोस्तोवॉस्की का मूल्यांकन पाठकों की संख्या के आधार पर या अभिरुचि के आधार पर किया जा सकता है ?
दरअसल साहित्य को जब हम समाजशास्त्र में या राजनीतिशास्त्र में रिड्यूस करके देखने की कोशिश करते हैं तो इस तरह के निष्कर्षों को महत्व देते हैं, लेकिन इस सबके बहाने साहित्य की अपनी मूल्यवत्ता को नकारते हैं। साहित्य अपने मूलरूप में हर तरह के ताकत और वर्चस्व का विरोध करता है।
इस तरह के सर्वेक्षण साहित्य के विषय में गलत निष्कर्ष और भ्रम पैदा कर व्यवसायिकता का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कहना न होगा कि हिंदी साहित्य को भी बाजार में एक बिकाऊ माल के तौर प्रस्तुत करने की जोरदार कोशिशें हो रही हैं। इस तरह के सर्वेक्षण उसी कड़ी का हिस्सा हैं।
सबसे दिलच्स्प यह है कि जिन लेखकों का नाम उजागर किया गया है, उनमें से अधिकांश लेखन में बाजारवाद के विरोधी हैं। और सर्वेक्षण के बहाने एक बाजार बनाने की कोशिश हो रही है।
पूंजीवाद इस तरह के अंतर्विरोधों के माध्यम से हर वस्तु में मौजूद विषयवत्ता को नष्ट कर उसे अर्थहीन अप्रभावी और संख्यात्मक बनाता है।
हिन्दी में शायद अपनी तरह का पहला सर्वेक्षण एवं विश्लेषण। राकेश बिहारी ने बहुत मेहनत से समालोचन व पुस्तकनामा के सहयोग से स्वागतयोग्य एक नई पहल की है। लेखक, पुस्तक, प्रकाशक पाठक का यह सर्वेक्षण पढ़ा और गुना जाना चाहिए। समालोचन, अरुण देव, पुस्तकनामा तथ राकेश बिहारी को साधुवाद!
सर्वे के परिणाम लगभग वही हैं जैसी पठनीयता है। ये तर्कसंगत है। ज़्यादातर लोग कथाएँ पढ़ना पसंद करते हैं और दूसरे नम्बर पर कविता। कविता की पठनीयता को इतना बुरा भला कहने वालों को अवश्य ये अचरज होगा कि कविता अभी भी पर्याप्त पढ़ी जा रही है। आलोचना को पाठकों ने लगभग नकार दिया है। ये सही है या नहीं मुझे नहीं मालूम लेकिन इतना स्पष्ट है कि लोग रोचक और मर्मस्पर्शी साहित्य पढ़ना चाहते हैं। उन्हें बेवज़ह की माथापच्ची में कोई रुचि नहीं। हर आलोचना काम की नहीं होती ऐसा शायद किसी बड़े लेखक ने कहा था। फिर भी आलोचना अकादमिक स्तर पर अवश्य महत्वपूर्ण होगी। अनुवाद के विषय को शायद इसमें कवर नहीं किया गया था जितना मुझे याद आता है।
मुझे सर्वे के नतीजे उम्मीद के मुताबिक लगे।
केवल 167 प्रतिभागियों से प्राप्त आंकड़े के आधार पर निकाला गया कोई भी निष्कर्ष प्रमाणिक नहीं माना जा सकता.
सर्वेक्षण में भागीदारी के लिए समय बहुत कम दिया गया है.
हिंदी साहित्य के पाठकों में अच्छी संख्या विश्वाविद्यालयों के अध्यापकों एवं छात्रों -छात्राओं की है. लगता है उन्होंने भाग नहीं लिया
आम तौर पर सर्वेक्षण करनेवाले छह माह का समय देते हैं और कई बार अनुस्मारक मेल भेजते हैं.
किसी उत्साही शोध छात्र को यह काम करना चाहिए.
हैदराबाद को शायद आसावधानीवश तेलंगाना के बजाय आंध्र प्रदेश के अंतर्गत रखा गया है.
अभी इसे देखा और यह रोचक है, अपनी तरह का शायद पहला काम भी. दरअसल साहित्य में जो ब्रांडिंग होती है जिसमें प्रकाशक से लेकर सोशल मीडिया और भी तमाम चीजें शामिल होती हैं, और जो काफ़ी हद तक आज की भौतिक संस्कृति का ही उत्पाद है, पारदर्शी तरीके से किये गए ऐसे सर्वे उसका प्रतिपक्ष होते हैं. भले आकार छोटा लगता हो पर यह आम पाठकों तक की बात को समेटे है और जो अपेक्षित लगता है वही और हाल के बहुत से प्रचलित होते ब्रांड व्यवहारों का खंडन कर रहा है. समालोचन को और राकेश को इसके लिए बधाई बनती है कि साहित्य की बेहद सीमित दुनिया में आम पाठकों के नज़रिये को तवज्जो दी गयी. भले आम पाठक की बात साहित्य की दुनिया में चलने वाली बातों से एकदम अलग और कभी विस्मय में भी डालती है, साहित्य की प्रचलित और अक्सर सूत्रबद्ध बातों से इतर साफ़ सुथरी और साहित्यिक गुटबाजियों से एकदम अलग बात होती है, पर फिर भी वह वही है जहाँ तक साहित्य की पहुँच साहित्य के प्रसार का सबसे बड़ा लक्ष्य होता है. बढ़िया.
बहुत बहुत बधाई और आगे के लिए शुभकामनाए.
मुझे लगता है, हिन्दी पुस्तकों- पत्रपत्रिकाओं के संदर्भ में यह संभवतः पहला व्यवस्थित शोध- सर्वेक्षण है। इसके निष्कर्षों का विश्लेषण भी वस्तुपरक है।
हिन्दी का पुस्तक व्यवसाय बाजार- विमुख और व्यवस्था- उन्मुख रहा है। सरकारी पुस्तक खरीद प्रक्रिया ने प्रकाशन के कई पक्षों को अंधेरा और रहस्यमय बनाये रखा है। उसे डिकोड करने के लिए ऐसे शोध- अध्ययन बहुत जरूरी हैं।
समालोचन और पुस्तकनामा को साधुवाद !
यह लेख बहुत उपयोगी है। सच कहूँ तो आँखें खोलने वाला है। आत्ममंथन करने की जरूरत है। आपका प्रयास स्तुत्य है। एक सत्य यह भी है की एक बड़ा पाठक वर्ग छुपा हुआ भी है। सवाल यह भी है कि इतनी किताबें अकारण नहीं छप रही हैं। फिर भी पाठक -संस्कृति विकसित करने का गुरुत्तर दायित्व संभालने का समय आ गया है।
बहुत शानदार काम , बहुत शानदार आर्टिकल .