अमित तिवारी की कविताएँ
नव वर्ष
दिसंबर में बहुत दूर लगता है मार्च
और जनवरी में बहुत पास
एक ही दिन में बदल जाता है साल, महीना, मन
जैसे एक ही दिन अचानक बोल उठता है बच्चा
और थका-बझा घर बन जाता है एक संगीतशाला
एक ही दिन में आप आकांक्षी से प्रेमी हो जाते हैं
एक ही दिन में बहुत सारे गन्नों पर दिखने लगते हैं फूल
भारी भरकम बस्ता लादे नया साल एक ही दिन आ पहुंचता है
और लोगों की बेबात ही हिम्मत बंध जाती है
सलेटी के सबकुछ में कहीं-कहीं से दिखने लगती है लाल-पीले की दखल
अवर्णनीय-सा कुछ बदल जाता है एक ही दिन में
और बसन्त की ठिठुरती प्रतीक्षा में
घुल जाती है आशा-मधु अचानक.
गज़ा के जूते
भागते, उजड़ते गज़ा में
बिखरे पड़े हैं जूते
उद्दाम लालसाओं से बेख़बर युवाओं के जूते
गुलों, नज़्मों से दूर बसी लड़कियों के जूते
आदमियों, औरतों, बच्चों के जूते
बूढ़ों, नर्सों, दर्जियों और बागियों के जूते
जो बड़े चाव से, बड़ी योजना बना कर
एक लंबे समय के निवेश की तरह खरीदे गये
गज़ा में अब अनाथ पड़े हैं वे जूते
और इस पूरी दुनिया में कहीं नहीं हैं
ऐसे पैर
जो उनमें सही-सही अंट सकें.
आओ! शीत बहुत गिर रही है
शीत बहुत गिर रही है
चरवाह-हरवाह सब दुबके हुए हैं
बच्चे-बूढ़े रजाइयों में सूंस की तरह पड़े रहते हैं
औरतों के हाथ काठ हो गए हैं
और पुरुष कठकरेज
कुतिया के चार बच्चों में से एक
दूध मुंह में लिए ही मर गया है
और वह इतनी अशक्त है कि हटा भी नहीं सकती
विद्यालयों में उल्लू घुघुआ रहे हैं
चुनाव सिर पर है
पर उपद्रव की योजनाएं भी अभी स्थगित हैं
सब कुछ रुका हुआ है
क्रोध भी और प्रतीक्षा भी
ऐसे में तुम कैसे आ रही हो?
कोहरे से बाजते
सरसों के खेत चीरते
बजरी वाली सड़क कचरते
आख़िर कितनी जीवट हो!
मैरी रॉजर्स की तरह
क्या तुम भी धरती की बेटी हो?
क्या तुम्हारे भीतर भी एक आग धधकती है?
क्या तुम भी मेरे तलुओं पर हाथ धरोगी?
आओ! शीत बहुत गिर रही है।
मित्र को पत्र
बहुत उन्माद का समय है मेरे दोस्त
कुछ किताबें पढ़ना
और ईश्वर को याद करना
वैसे नहीं जैसे सरकारें और उनके हरकारे कर रहे हैं
एक मुहल्ले के दादा की तरह नहीं
एक मित्र की तरह
कुछ सिनेमा देखना
और रुलाइयों को याद करना
कैमरा पा कर फूटने वाली नहीं
वे जो कैमरा देख सकपका कर चुप होने लगती हैं
और प्रॉडक्ट-सेल्समैन के बीच फैले
बाज़ार के कल्लोल को निस्पृह भाव से देखती रहती हैं
चेहरों को किनारे से ज़रा-सा खुरचना
और पहचान कर वापिस चिप्पी लगा देना
कुछ अच्छा संगीत सुनना
और उनमें बहते यूटोपिया पर सूखी हँसी हँसना
थोड़ी-थोड़ी बात करना
डरना बहुत-बहुत लेकिन ज़ाहिर कम करना
सीखना उस दिसंबर बच गए लोगों से
और इस जनवरी वैसे ही बचे रहना
खूब अश्लील चुटकुले सोचना
और मुझे सुनाना
तुम फरवरी में मुझसे मिलना.
बहुत अच्छा समय है
बहुत अच्छा समय है
देखने, सुनने और चीन्हने का
निहितार्थों को समझने का
शालीनता के शक्ति परीक्षण का
यह जान लेने का कि आप बेवजह आशावादी थे
और संदिग्ध होना अब एक काव्यात्मक टिप्पणी भर नहीं है
चलते समय दाएं-बाएं देखने का
बहुत कुछ नोट करने का
चुटकुलों पर उदार होने का
कुछ अच्छे ताले खरीदने का
मित्रताओं में मेट्रो के यात्री जितना सतर्क रहने का
“एक से भले दो” जैसे मुहावरों के वाक्य प्रयोग में संशोधन करने का
जूलियस सीज़र पढ़ने का
प्रतिबद्धताओं की बहस में न पड़ने का
इतिहासकारों पर दया करने
और कवियों को टोकने का समय है
बहुत अच्छा समय है
बहुत ही अच्छा समय है
और सच मानिये
यह कहते हुए मैं सारी अपेक्षाओं और विडंबनाओं से पार पा चुका हूं.
सुनवाई
वह बात कैसे कहूँगा
जो कहने से पहले ही वर्जित है
वे शब्द स्वतंत्र हैं
पर उस क्रम में पाप हैं
बचाव के शब्द में ही
होती है अपराध की स्वीकृति
अपराध नहीं कहने दूंगा
चुप रहूँगा
तुम्हारे चुल्लू से पानी पियूँगा
अपने दोष सुनूँगा
मेरा बचाव करेंगी
भोली नीलगायें, दवाइयाँ
निष्ठुर कोयलें
सागौन के बड़े-बड़े पत्ते.
विच्छेद
प्रिय
हमारे विच्छेद का
अन्तिम चरण पूरा हुआ
मैं कर रहा हूँ
तुम्हें अपने दुःखों से बाहर.
अमित तिवारी 1 अप्रैल 1994 (गोरखपुर) पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर. पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और अनुवाद आदि प्रकाशित. amit.bit.it@gmail.com |
Mind blowing🤯 poetry
शीत वाली कविता और सुनवाई शानदार कविताएं हैं। कवि को ख़ूब शुभकामनाएं।
बहुत बहुत शुक्रिया सर। अपने पर हौसला बढ़ता है।
बेहतरीन कविताए
अमित जी की कविताएँ नए अंदाज की हैं। संवेदना की कोमलता और बौद्धिकता की दृढ़ता इन में महसूस की जा सकती है।
बहुत ही सुन्दर कविताएँ 👍👍
बेहतरीन कविताएँ. बार-बार पढ़ने का मन हुआ.
जैसे हरे-भरे खेतों को देर तक देखना, गेहूं की दूधिया बालों में नये सपने अंजोरना कुछ ऐसी लगती हैं – अमित तिवारी की कविताएं। बहुत ताज़ा संभावनाओं से भरी।
बहुत बधाई और शुभकामनाएं अमित को और आपको इस प्रस्तुति के लिए।
हीरालाल नागर