पाँच तुर्की कवि हिंदी अनुवाद: निशांत कौशिक |
शुकरु एरबाश |
आख़िर कैसे
आख़िर कैसे, मेरे ख़ुदा?
ये सड़कें कैसे सह सकती हैं इतना वज़न, ख़ुदा?
भीड़ बहुत है
रात बहुत है
बहुत है बारिश
कमरे कैसे सह सकते हैं, इतना ख़ालीपन?
सुबह तक
शाम तक
इन के बीच की दूरियों तक
मुहब्बत के बग़ैर कैसे रह सकता है इंसान, मेरे ख़ुदा?
इतनी ख़्वाहिशों के बाद
इतना मोहित होने पर
इतने आंसुओं के बाद
वक़्त, मेरे ख़ुदा, वक़्त कैसे करेगा तरबियत हमारी?
सौंदर्य के बिना
एकाकीपन के बिना
विस्मृति के बग़ैर
मृत्यु को कोई कैसे स्वीकार करता है, ख़ुदा?
पेड़ों के जीवित रहते
बादलों के जीवित रहते
बच्चों के जीवित रहते.
देरी : पॉल एलुअर्द की स्मृति में
सोने वाले उन इंसानों के सपनों के नाम
जिन्होंने अनिद्रा की पीड़ा में रात को चोग़े की तरह पहन लिया
उन दरख्तों की ख्वाहिशों के नाम, जो आकाश की ओर पत्ता दर पत्ता बढ़ रहे हैं
सड़क के उन कुत्तों के नाम जो अज़ान के साथ-साथ भूँकना शुरू करते हैं
समंदर के अंधकारपूर्ण नील के नाम
ज़ख़्मी गुरूर के आंसुओं के नाम
पहाड़ी चोटियों की मग़रूर वीरानी के नाम
अनार वृक्षों की सुर्ख़ बरकत-झंकार के नाम
निराशा के नाम जो उम्मीद पर तनी रहती है
दिल पर भरोसा रखने वाले आशिक़ों के नाम
उन राहों के नाम जहाँ दूरी सज़ा में बदल जाती है
क़ुर्बत के नाम जहाँ राहें ख़ैरात हो जाती हैं
उन गीतों के नाम जो गुलगर्दनी चिड़िया, ललमुनिया को सुनाती है
नाम उन रातों के जब शराब और कंदील के बीच मुहब्बत पनपती है
उन मृतकों के नाम जिनकी ख़्वाहिशें उनके देहों में रह गयीं
ग़ुरबत से गहरी भरी आँखों के नाम
मुंह के बल गिर पड़ने वाली बेचारगी के नाम
मिलन की हकलाहट के नाम
दीवारों के नाम, जो बनाई हैं सबने मिलकर
उन महान मुहब्बतों के नाम, जिनके परे कोई सच नहीं है
रौशनी की कली के भय और इच्छा के नाम
असंगत समय में मेरे विलम्बित चालीस वर्षों के नाम
एक अंग से मुहब्बत पैदा करने वाली यह दुनिया
तुमने ही रख छोड़ा है मेरा ह्रदय इतने सौंदर्य के सामने
मुझे मत छोड़ो, कहीं मत जाओ
वैसे भी एक रोज़, बस राज होगा मृत्यु का ही.
शुकरु एरबाश
(जन्म : 1953) समादृत तुर्की कवि-लेखक है. वह परिकथाओं, उदास स्मृतियों, उपेक्षित प्रतीकों और साधारण दिखने वाले संसार की असाधारणता कहने वाले कवि हैं. उनका लेखन संसार विस्तृत है, जहाँ 1978 में उनकी पहली कविता ‘वारलिक’ पत्रिका में छपी और आज तक उनके 20 से भी अधिक कविता-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. इस समय वह अंताल्या में रह रहे हैं.
गोंजा ओज़मैन |
एतराफ़
किसी से ज़ाहिर मत करना कि हम ने नहीं पढ़ा देरिदा को
कि ज़हन की नोंक पर ऊग आता है अचानक एक जूता
कि सम्भोग हमारी बदन के पोरों पर रुक जाता है
कि अर्थ खिसकता जाता है, उस तरफ़, फिर उस तरफ़
किसी से ज़ाहिर मत करना कि एक शर्ट के लिए तुम्हें कैसे बदल लिया
किसी से मत कहना बचपन में हमारी खाई हुयी मिट्टी के बारे में
कि हम किसी और में तब्दील हो गए थे, सो गए थे कब्र में
कितने नौसिखिये थे एक दरख़्त को देखते हुए
कि क्यों आख़िर राख-शक्ली पिता हमारी सपनों में आता रहता है
मत ज़ाहिर करना कि हर बेटी के लिए पिता एक खो चुकी दहलीज़ है
मत कहना किसी को
मेरा तुम्हें पहले-पहल देखना
कि कैसे एक नाव बूढ़ी होती है
किस खटके से होती है सुबह
कि बाद-बाद में
चूमते ही जल गयीं हमारी तीनों पहचानें
सिगड़ी पर उबलते दूध में
और हाँ, कभी ज़ाहिर मत करना जो हुआ इन सब से पहले
नहीं तो जाग जायेगा ‘नहीं हुआ’ सब कुछ
और छीन लेगा तुमको मुझसे
वह तुम्हारा ही मुंह था
वह तुम्हारा ही मुंह था
नग्न दीवारें, अंतरंग दरवाज़ा
वह तुम्हारा ही मुंह था
नापैद आकृतियों को ढूंढता-छोड़ता
सिर्फ़ घास ने ही बदल दी थी सारी आबोहवा
मैंने जाना था तुम्हारे मुंह में घास जैसा कसैलापन
तुम्हारा ही मुंह था
गिरे हुए अखरोट के दरख़्त के मानिंद
जिसने सारी आवाज़ें समेटी और चला गया
तुम्हारा ही था मुंह था वह
जहाँ मेरा नटखट बचपन है, गुम चुका आकाश है
वह तुम्हारा ही मुंह था
जब बचकाने थे हम अपने पहले-पहल इश्क़ में
(दो खेलों के बीच)
गोंजा ओज़मैन
जन्म:1982, बुर्दुर, तुर्की. उनकी पहली कविता जून 1997 में वर्लिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी. गोंजा के लेखन संसार में संबंधों की जटिलता, सिनेमा, भाषा और प्रेम नवीनतम परिप्रेक्ष्य के साथ प्रतिष्ठित होते हैं. तुर्की के जनसाहित्य के प्रति लगाव और अध्ययन उनके काव्य शिल्प को बहुत प्रभावित करता है.
बेजान मातुर |
धरती का स्वप्न
अपने अकेलेपन में
रात के आसमान ने सोचा
क्या ज़रूरत इन तारों की?
मेरे अंधेरदिल में यह क्या आवाज़ गूंजती है ?
जब घटती है आवाज़
तो बची हुयी चुप में कौन कुतरता है मेरी आत्मा?
अगर ध्रुवतारा अपनी जगह से एक पल खिसक जाये
तो क्या मछुआरे अपना रास्ता खो देंगे?
बटोही अपनी सीटियां नहीं बजा सकेंगे?
शायद कुछ भी
कुछ भी मेरी हक़ीक़त नहीं बदल सकता
मैं धरती का स्वप्न हूँ
एक सोनेवाला जो
नींद पूरी करने की कगार पर है
देखेगा असल अँधेरा, जागकर !
बेजान मातुर
तुर्की तथा मध्य-पूर्व में लिखी जा रही आधुनिक कविता में एक अनूठी आवाज़ हैं. तुर्की के कह्रमानमाराश प्रांत में एक कुर्दी परिवार में पैदा हुई बेजान मातुर के लेखन-संसार में राजनीतिक मामलों से लेकर तुर्की की हज़ार साल की तसव्वुफ़ परंपरा के संदर्भ, धार्मिक-अधार्मिक, इस्लामी, बुतपरस्ती आदि के प्रतीक मौजूद हैं. उन्होंने कुर्दी-आर्मेनियन समस्याओं पर भी अनेक महत्वपूर्ण आलेख लिखे और साक्षात्कार लिए हैं.
जमाल सुरैया |
इक फूल
एक फूल खिला था. वहां! किसी जगह
खिला था, जैसे कोई ग़लती दुरुस्त करता हो
खिला था यूँ कि पंखुड़ी होंठ को आती थीं
बोलता ही रहता था
एक सफ़ेद रंगी जहाज़, किनारे पर
जिसके डेक पर जंगल फैला हुआ था
मैंने अपना फूल लेकर वहां दबाया,
महसूस किया कि यह मेरा अकेलापन था.
नीली एक ट्रेन में तन्हा ही चढ़ता है एक आदमी
काश! इसी वजह से प्यार कर सकता मैं तुम्हें !
इक आदमी
आदमी को सड़क पर मिली टोपी
कौन जानता है कि किसकी है वह?
उसने अपना सब कुछ करना-गुज़रना याद किया
एक औरत ने अंत तक सब याद कर डाला
एक दूसरी औरत ने अनंत तक जाती खिड़की खोल दी
एक और थी जो न जाने किसकी पत्नी थी
आदमी ने अपना सब कुछ करना-गुज़रना याद किया
फुटपाथ पर तारे, मानो क़यामत के दिन थे
क्योंकि अभी-अभी बारिश हुई थी
उसे याद आया, वह आदमी बादल जैसा था
आदमी के पैरों के नीचे
तारे छितरे हुए थे
वह आदमी तारों की ओर चल पड़ा
क्योंकि अभी-अभी बारिश हुई थी.
जमाल सुरैया
(1931-1990)
‘द्वितीय नववादी’ परंपरा के अगुआ जमाल सुरैया प्रेम-कविता की शानदार परंपरा के अंग रहे. अपने समकालीन कवियों अदीब जानसेवेर, तुर्गुत उयार और सज़ाई काराकोच- जिनके लेखन में शहरी अकेलापन, अजनबीपन जैसे अस्तित्ववादी और उत्तर-आधुनिक प्रतीकों का बाहुल्य रहा- की तुलना में जमाल की कविता में प्रेम एक भिन्न स्वरूप में मौजूद है जो न महान ओस्मानी शाइर फ़ुज़ूली में दिखता है और न ही नाज़िम हिकमत की कविताओं में. जमाल का वास्तविक नाम जमालुद्दीन सबर था. अपने कवि मित्र सज़ाई काराकोच से एक शर्त हार जाने पर अपने नाम से एक ‘य’ को हटाकर वह जमाल ‘सुरैय्या’ से जमाल ‘सुरैया’ हो गए.
ओरहान वेली कानिक |
मौसम
मुझे ऐसे ही हसीन मौसमों ने बर्बाद किया
अपनी वक़्फ़ की मुलाज़मत से
इस्तीफ़ा मैंने इसी मौसम में दिया
इसी मौसम में मुझे तम्बाकू की लत लगी
प्यार भी हुआ इसी मौसम में
नून-रोटी घर लाना
मैं इसी मौसम में भूला
कविता लिखने का मर्ज़ भी
इसी मौसम में पनपा
मुझे ऐसे ही हसीन मौसमों ने बर्बाद किया
ओरहान वेली कानिक
(1914 -1950)
कानिक बीसवीं सदी के सबसे अधिक प्रतिभावान एवं प्रभावशाली कवियों में से हैं. अपने अन्य दो मित्रों के साथ उन्हें तुर्की साहित्य के ‘ग़रीब’ आंदोलन का प्रणेता एवं संस्थापक कहा जाता है. ग़रीब से तुर्की भाषा में मुराद ऊलजलूलियत/Bizarre से है. कानिक की कविताएं पारम्परिक काव्य शिल्प और कथ्य दोनों से रास्ता आगे फोड़ते हुए जाती। उनकी कविता में रोज़मर्रा भाषा का बाहुल्य है. 36 की उम्र में ही संसार छोड़ने वाले कानिक ने कविताएं, कहानियां और अनुवाद का एक ज़ख़ीरा तैयार कर लिया था.
निशांत कौशिक जन्म – 1991 : जबलपुर, मध्य प्रदेश जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नयी दिल्ली से तुर्की भाषा में स्नातक मूल तुर्की, उर्दू, अज़रबैजानी और अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद पत्रिकाओं में प्रकाशित. विश्व साहित्य पर टिप्पणी, डायरी, अनुवाद, यात्रा एवं कविता लेखन में रुचि फ़िलहाल पुणे में नौकरी एवं रिहाइश. kaushiknishant2@gmail.com |
रवानगी भरा अनुवाद। जारी रखें। धन्यवाद निशांत और समालोचन।
शानदार कविताएं। पहली बार पढ़ा हमनें। अनुवाद भी बहुत सुंदर है। निशांत कौशिक का शुक्रिया इतनी सुंदर कविताओं से परिचय कराने के लिए। और अरुण आपका आभार। समालोचन हमारी कविताओं की दुनिया के लिए रोज नया दरवाजा खोलता है
सुन्दर रचनाएं.. अनुवादक को बधाई।
गांभीर्य लिए कविता मूल रूप के दिग्दर्शन कराती हुई. चिंतन को प्रेरित करती हुई. जहाँ मानवीय मूल्यों के छूटने दर्द है वहीं गूढतम् संबंधों को रेखांकित करती हुई.
निशांत के अनुवाद में मौलिकता है.
इस को देखकर लगता है कि अनुवाद और निशांत का भविष्य उज्जवल हैं.