कवि को केवल एक चीज़ चाहिए
कुमार अम्बुज
कवि को केवल एक चीज़ चाहिए और वह यह कि हर चीज़ चाहिए. बल्कि जो कुछ दुनिया में अभी नहीं है वह भी चाहिए. इसलिए उसे स्वप्नशीलता चाहिए. क्योंकि उसका काम एक दुनिया से नहीं चल सकता. उसे दो संसार चाहिए. एक वास्तविक, जिसमें वह रहता है. दूसरा वह वैकल्पिक संसार जिसमें वह रहना चाहता है. तब इसके लिए सर्जना का पुल चाहिए ताकि इन दोनों दुनिया में आवाजाही हो सके. कवि आकांक्षा का सर्जनात्मक संसार, वर्तमान दुनिया से संवाद कर सके और यह दुनिया कवि के सपनों की दुनिया की तरफ़ देख सके. दोनों एक-दूसरे से अनुप्राणित हो सकें. वाद-विवाद-संवाद कर सकें. यह समझते हुए भी कि किसी भी कला की तरह कविता का भी कोई नियम नहीं हो सकता.
कवि के लिए सर्जना का यह पुल कविता है. जो जितना कवि का है, उतना उनका भी जो इस पुल पर से होकर आवागमन करना चाहें. लेकिन रचनाशीलता से प्रसूत वैकल्पिक दुनिया उन संभावनाओं की दुनिया ही हो सकती है जिसका एक लौकिक मायना हो. जो अलौकिक न हो, जीवन से संबद्ध हो. भले यूटोपिया हो, परिकल्पना हो मगर उसमें विन्यस्त एक संभावना भी हो. उसमें कोई स्वप्नशील जादू तो हो लेकिन उससे जीवन में भी कोई सचमुच जादू किया जा सके. सर्जनात्मकता के वृक्ष की जड़ें जीवन में ही धँसी हो सकती हैं. उसकी सबसे ऊँची शाखाएँ-प्रशाखाएँ, उसकी नयी पत्तियाँ आकाश में, अंतरिक्ष की तरफ़ जाएँगी. पंचतत्वों से संपन्न रहेंगी मगर उनका पोषण, उनका संवाद अपनी जड़ों से रहेगा. इसी धरती से, दुनिया से. यही रचनात्मकता का नाभि-नाल संबंध है.
तब आगे बढ़ने के लिए कवि को तमाम तरह के अनुभव चाहिए. और ये रोज़ चाहिए, जैसे रोज़ पानी चाहिए. भोजन चाहिए. आग और हवा चाहिए. सारी ऋतुओं के दिन-रात चाहिए. तब लेखक की दुनिया महज़ वायवीय नहीं रह जाएगी. अनुभव संपन्नता से ही वास्तविकता के बरअक्स समानांतर सर्जनात्मक दुनिया का विश्वसनीय स्वप्न संभव है. तब इनके बीच पुल निर्माण के लिए भाषा चाहिए. यह भाषा जीवन में है. जनता के बीच है. दिनचर्या के क्रियाकलापों, बातचीत में, जीवन संघर्ष में है. यहाँ चुनौती यह है कि कवि को कविता के लिए, अपनी अनुभूति व्यक्त करने के लिए कला की भाषा चाहिए. समाज में भाषा है लेकिन वह अयस्क की तरह है. उस अयस्क में से धातु निकालना कवि का काम है. इसलिए रोज़मर्रा की भाषा को कला की भाषा में बदलने का कर्म चाहिए. यानी कलाकर्म चाहिए क्योंकि लेखन और कविता एक कला है. अंततः कलारूप है.
यह सर्जनात्मक काम है कि कैसे जीवन से शब्द लेकर कला की भाषा में रखा जा सके. उसके स्थिर से हो गए शब्दकोशीय अर्थ को बहुआयामी और अर्थबहुल बनाया जा सके. उसे कोई नयी अर्थवत्ता, नयी ध्वनि दी जा सके. ताकि कवि अपने स्वप्न और आकांक्षा को काव्य-भाषा में लिख सके. उसे इस तरह व्यक्त कर सके कि वह केवल स्वप्न की बात न लगे, हमारे जीवन की बात ही लगे. और उसका असर वैसा हो जो किसी कला माध्यम से संभव है. शब्द इस तरह अभिव्यक्ति दे सकें कि वे अपने नियत या सामान्य रूढ़ अर्थों से अलग दीप्त हो उठें. नये विन्यास में इस तरह आएँ कि नयी अर्थवत्ता हो. मुश्किल है कि यह सब शब्दों में कहना है और उनके बीच अनकहा भी छोड़ देना है ताकि वह कहे हुए को और अधिक प्रकाशित कर दे. कवि का जीवन इसी कम सफल, अधिक असफल कोशिश में बीत जाता है.
(दो)
कवि सोचता रह सकता है कि दुख तो महज़ एक शब्द है तब दुख को किस तरह लिखा जाए कि वह दुख की तरह लगे. अपने दुख की तरह ही नहीं, सबके दुख की तरह. वह किसी ठस अभिव्यक्ति या शब्द-जाल की तरह न रह जाए. इसी तरह सुख, प्रेम, अन्याय, अत्याचार लिखे जाएँ तो वे सिर्फ़ शब्द न रह जाएँ. महज़ घटनाओं के विवरण अथवा सूचनाओं में न बदल जाएँ. उनमें स्पंदन हो, संवेदनात्मक आवेग हो और संप्रेषित करने का कोई अपूर्व ढंग.
तब ऐसी अभिव्यक्ति को संभव करने हेतु यात्रा चाहिए. भटकने की असमाप्य यात्रा. एक काव्यात्मक वाक्य को खोजने की यात्रा. अन्वेषण और उस व्यग्रता की यात्रा जो नये तरह से चीज़ों को पुकार सके. अँधेरे में बनती परछाइयों को पहचान सके. अव्यक्त का नामकरण कर सके. नेपथ्य में क्ष-किरणों की तरह दूर तक झाँक सके. फ्रै़क्चर की, गठानों और अंदरूनी बीमारियों की तस्वीर खींच सके. आने वाले समय का अनुभव कर सके. अप्रमेय का भी अनुमेय. तब उस रचनाशीलता से गुज़रते हुए महसूस होगा कि हाँ हम इस पेड़, इस पहाड़, इस नदी को जानते थे मगर इस तरह नहीं जानते थे. हम कविता में दर्ज इस मुसीबत, अंधकार, अपमान, स्नेह और इस वियोग, आलिंगन, दुत्कार, कपट, हँसी और इन आँसुओं से परिचित तो थे मगर इस ढंग से नहीं. कि जिस सतह को हम देखते रहे हैं, उसके नीचे तो अनेक परतें हैं. और एक बारीक़ परत में भी कुछ और परतें हैं. कि हमने सूर्योदय, चंद्रमा के उगने, तारों के वैभव को और उनके टूटने को देखा था लेकिन यह कुछ अलग है. यह अलग अंश है, अलग कोण. किसी नयी दिशा की तरफ़ उठी हुई तर्जनी. कोई नया अक्षांश. नया देशांतर. यह सर्वथा अछूता अनुभव है. यह समझना, यह देखना, यह सोचना अनोखा है.
और यह तब होगा जब शब्द नयी दृष्टि, नये अर्थों के साथ होंगे लेकिन शब्द आडंबर न होगा. क्योंकि भाषा तो संवाद के लिए है और जब समाज में, जीवन में उसकी अर्थवत्ता है तो वह साहित्य में, कला में आकर निरर्थक नहीं हो सकती. तब कविता में कला तो होगी लेकिन कलावाद नहीं. चीज़ें सही जगहों पर, सही भूमिका में उपस्थित होंगी, उनकी मात्र दर्शनीय प्रदर्शनी न होगी. तब अनंत में उड़ रही पतंगों की डोर मनुष्यों के हाथों में दिखेगी, कोई ईश्वर उन्हें नहीं उड़ा रहा होगा और वे लौटकर वापस इसी धरती पर आएंगी, अंतरिक्ष उन्हें निगल नहीं जाएगा. वे पृथ्वी के जीवन के गुरुत्वाकर्षण से आवेशित हैं, आकर्षित हैं, उससे बँधी हैं.
तब आगे कवि का काम तय हो जाता है कि वह प्रस्तुत जीवन पद्धतियों, सहज मानवीय इच्छाओं, प्रेमिल कामनाओं, सभ्यतागत उपलब्धियों और नैतिकताओं पर पड़ रहे अवांछनीय दबावों की पड़ताल को भी अपने काम का हिस्सा माने. विचार करे कि यह आज हमारे जीवन पर हज़ारों बरस पुरानी परंपराओं का दबाव है या पिछली शताब्दियों के सामंती खंडहरों का. प्राचीन पूजनीय पुस्तकों का. पूँजी के गुम्बदों का, कार्पोरेटों का या नये शासकों का. या इन सबके एक हो जाने का. उनकी शामिल शक्ति का.
एक तरफ़ असीम ताक़त है. दूसरी तरफ़ असीम असहायता. एक पीट रहा है. एक मार खा रहा है. एक तरफ़ आवाज़ें ही आवाज़ें हैं, दूसरी तरफ़ काट दी गईं ज़बानें. कवि को चाहिए कि वह सोचे इन सब पर कैसे बात की जाए, किधर रहकर बात की जाए. किसका पक्ष लिया जाए. क्यों लिया जाए? तब पक्षधरता का प्रश्न समक्ष होगा. और आदर्श का. और साहित्य की नैतिकता का. उसकी सामाजिकता का. बदलते समाज में नैतिकता के बरअक्स राजनीति की नैतिकता का. और इन दोनों के बरअक्स कवि और कविता की नैतिकता को प्रस्तावित करने का काम. समानता, न्याय, बंधुत्व, लोकतांत्रिकता और स्वतंत्रता के आदर्श का. इन्हें फिर से सतह पर लाकर, कविता में कहने का काम. जीवन में इनकी समझौता रहित ज़रूरत का. नागरिक अधिकारों का. वापस प्रजा बन जाने के ख़तरों का. मनुष्य की जिजीविषा, संघर्ष और श्रमशीलता का.
ऐसे ही प्रश्नों में जीवन के सौंदर्य का रास्ता मुमकिन है.
इनसे ही सौंदर्य की नयी कसौटियों का उद्गम हो सकता है.
(तीन)
कवि अपनी कविता से लोगों को क्या नहीं दे सकता: वह भौतिक चीज़ें नहीं दे सकता. रोटी, कपड़ा, मकान नहीं दे सकता. लेकिन वह वैचारिकता, जीवन विवेक, स्पष्ट दृष्टि दे सकता है. और यही सबसे अधिक मूल्यवान है. कि लोग जीवन में, इस संसार में, समाज-घर-परिवार में चीज़ों, घटनाओं, क्रियाओं को सही परिप्रेक्ष्य में, संवेदनशील और मानवीय ढंग से देख सकें, तदनुसार समझ सकें. लेकिन तब कवि के पास भी कोई विचार-प्रसूत साफ़ दृष्टि चाहिए. उसका अर्जन चाहिए. वह ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ और ‘ज्ञानात्मक संवेदना’ चाहिए जो सही सवालों तक पहुँच सके. उपलब्ध उत्तरों के नाटकीय मंचन के परे वह उनके नेपथ्य में जा सके. फिर कुछ नये प्रश्न पूछ सके, जैसे कि जाली समाचारों की महामारी में कैसे जीवित रहें? भला राष्ट्रवाद असमानता, अन्याय और पर्यावरण की मुश्किलों से कैसे निबटेगा? यह अल्पसंख्यकों से, वंचित और निर्बल जन से किस तरह पेश आएगा? सरकार के कौन-से काम फ़ालतू हैं और कौन-से ज़रूरी काम उसने छोड़ दिए हैं? शिक्षा, किराना, ईंधन और इलाज के बिल इतने भारी-भरकम क्यों होते चले जा रहे हैं? घर के पीछे, सड़कों के किनारे छायादार पेड़ क्यों काट दिए गए हैं? नीम और आम की जगह यूकेल्पिटस क्यों रोपे जा रहे हैं? अदरक, पुदीना और हरा धनिया इतना महँगा होता हुआ कहाँ चला जा रहा है? यह धुआँ कैसा है? इस गहरी रात के आसमान में तारे चमकते हुए क्यों नहीं दिखते हैं? बिजली अट्टालिकाओं में, स्टेडियम में है लेकिन खेतों में, ग़रीब मुहल्लों में क्यों नहीं? टेलीविज़न पर आत्महत्याओं और हत्याओं के नये तरीक़े क्यों बताए जा रहे हैं? भाषा में अचानक इतने अपशब्द कैसे आ गए हैं? प्लास्टिक के बाग़ीचों का हम क्या करेंगे? हर तरह का प्रेम क्यों विफल होता चला जा रहा है? और उसे दंड प्रक्रिया संहिता में क्यों लिख दिया गया है? प्रत्येक दूसरा आदमी पहले को क्यों बता रहा है कि वह अवसादग्रस्त है जबकि वह ख़ुद उसी गर्त में पड़ा हुआ है. किसान, श्रमिक, कारीगर चौराहों पर क्यों खड़े हैं? और तमाम मज़दूरों के पास कोई काम क्यों नहीं है? ये तीन बूढ़े दिन भर पार्क की बेंच पर क्यों बैठे रहते हैं? इनमें से कई सवाल व्यक्तिगत लग सकते हैं लेकिन अच्छा जिम्मेदार साहित्य बता सकता है कि ऐसे कोई भी सवाल व्यक्तिगत नहीं है. ऐसे हज़ारों सवाल. ये जितने निजी हैं, उतने ही सामाजिक और सारे के सारे राजनीतिक. निज का हमेशा एक व्यापक सार्वजनिक संदर्भ रहा आया है. इसलिए ये सारे सवाल कवियों के हैं और कविता के भी.
फिर कवि को समानधर्मा लोगों से संवाद चाहिए. किसी विचारशील समूह, किसी संगठन, किसी वैचारिकता के साथ आगे बढ़ने का. कोई कवि अकेला होकर, अकेला रहकर जनता का कवि नहीं हो सकता. लिखते समय अकेला और अलग होकर भी वह तमाम कवियों के साथ, अपने समय और समाज में सक्रिय कवि की तरह ही उपस्थित होगा. चाहे-अनचाहे वह जन अदालत में एक गवाह है. एक सच्चा कवि अनेक छूटे हुए विषयों, सवालों और जिज्ञासाओं की तरफ़ जाता है. उसकी गिरफ़्त से बाहर कई हज़ार चीज़ों की तरफ़, उसके अपने समय में उपस्थित दूसरे अन्य कवि जाते हैं. अनुभवों का वैविध्य है. विषयों की कमी नहीं बल्कि उनकी अधिकता ही एक मुश्किल पेश करती है. स्वप्नशीलता के साथ समय की असंगतियाँ, विसंगतियाँ, अंतर्विरोध और उनके पाठ मिलकर एक कवि-समय की निर्मिति करते हैं. तब किसी संगठन और समूह किसी कवि को जो दे सकते हैं वह है: संवाद. विमर्श. और सहमति की आश्वस्ति. और असहमत होने का विवेकपूर्ण साहस. तर्कशील सामर्थ्य. एक छोटा-सा टीला, एक आँगन, एक चौराहा, एक खुली जगह जहाँ से सामूहिक पुकार लगाई जा सके. ताक़त, आत्मविश्वास और निडरता. और इसलिए सर्जनात्मक अराजकता. और यह सब कुछ भी कवि को चाहिए.
तब कवि का काम वही होता है जो समूचे साहित्य का है यानी पूरे जीवन की आलोचना और व्याख्या. यह समझते हुए कि जीवन विवेक ही साहित्य विवेक है. चेतना और अंतर्चेतना की रक्षा इसी विवेक से संभव है. अनुभूति की तीव्रता से पूरित विवेक. सुरुचि और गतिशीलता से संचरित. यह नहीं हो सकता कि जीवन में अलग विवेक और साहित्य में कोई अलग विवेक. फिर यह याद रखना भी कवि का काम है कि भाषा साधन है, साध्य नहीं. जैसे शिल्प भी साधन है, साध्य नहीं. रूपगर्वित कविता रूपगर्विता रह जाती है. भाषा, शिल्प, रूप का कोई नया तरीक़ा ज़रूर हो लेकिन सिर्फ़ तरीक़ा ही साहित्य नहीं. और यह भी कि वस्तु स्थिति मात्र का चित्रण साहित्य नहीं है. और यह याद रहे कि जब रचनाकार विचारहीन नहीं है तो रचना भी विचारहीन नहीं रह सकती. इसलिए रचना की विचार संपन्नता एक अनुपेक्षणीय बिंदु है. जैसे कंकरीट के लिए रेत, सीमेंट, गिट्टी, पानी के अलावा लोहा भी चाहिए. रिइनफोर्समेंट. अन्यथा कंकरीट सुदृढ़ नहीं होगा.
(चार)
यहाँ हम एक बार और स्मरण कर सकते हैं कि कविता, किसी भी समाज में अलग-थलग होकर की जानेवाली, स्वतंत्र, वायवीय और स्वायत्त क्रिया नहीं है. वह अपने समाज का वर्णन, प्रतिबिंब या आख्यान भर भी नहीं है बल्कि विशेष सर्जनात्मक अर्थों में वह अपने समाज का प्रत्याख्यान है, स्वप्न है, प्रतिसंसार है. इसी मायने में वह सर्जना है, स्मृति है, कल्पना है, उड़ान है, प्रतिरोध है, चाहत है और इसके भीतर कला के अपने तर्क हैं और जीवन के भी. यह अद्वैत है.
तब विचारणीय है और ध्यान जा सकता है कि इधर अधिकांश कविता में कई पोषक तत्वों की कमी दिखने लगी है. ख़ाससतौर पर कविता में प्रतिसंसार की कल्पना, बेहतर दुनिया का प्रस्ताव और वैचारिक पक्षधरता के खनिज कम होते जा रहे हैं. रक्ताल्पता के लक्षण हैं. इलेक्ट्रोलाइट का संतुलन गड़बड़ा गया है. उसमें वसा बढ़ रहा है, प्रोटीन कम हो रहा है. ज़ाहिर है उसकी राजनीतिक समझ और प्रखरता में कमी अधिक साफ़ दिखने लगी है. भाषा, बिंबों का उपयोग किसी ओट की तरह किया जा रहा है. जबकि सच्ची, जनोन्मुख कविता कभी कलाविहीन नहीं रही है, बल्कि उसने कला के नाम पर किए जानेवाले कलावादी व्यवहार की हमेशा पोल खोली है. उसने दर्शाया है कि एक अच्छी कविता, एक अच्छी कला का उदाहरण भी होती है. वह महत्वपूर्ण इसलिए होती है कि उसमें वैचारिक उत्प्रेरण, व्यग्रता और संवेदनशीलता के अवयव अपने आवेग में समा जाते हैं. भाषा में खेल करते हुए भी वह स्वप्नशीलता को, अपनी जड़ों को विस्मृत नहीं करती. प्रेम, अवसाद या अकेलेपन को वह अपने समाज से प्रतिकृत करती है. उसने कभी मनुष्य की मुश्किलों, अस्तित्व के संघर्ष और अपने होने को नियतिवाद में अथवा अकर्मक उम्मीद में या भाषा के पेंचो-ख़म और मानवतावाद वगैरह की आड़ में नहीं छिपाया. वह समाज के बीचों-बीच बैठकर की जानेवाली कार्रवाई है. वह अपनी मुक्ति अकेले के लिए नहीं, अकेलेपन में नहीं खोजती. उसके स्त्रोत गहरे तौर पर जीवन परक हैं, सामाजिक हैं. संबंधवाचक हैं. यहीं उसकी वह समझ उभरती है कि यह दुनिया, यह प्रस्तुत समाज एक ऐतिहासिक परिघटना है, जो धीरे-धीरे घटित होता चला गया है. यह ऐसी दी हुई दुनिया है जो रोज़ नयी बनती है. इसलिए परंपराबोध और नित नयी होती आधुनिकता का संज्ञान भी कवि को चाहिए.
लेकिन क्या यह सर्वग्रासी पूँजीवाद के प्रभाव का परिणाम है कि इधर कविता में राजनीतिक-सामाजिक चेतना कुछ संकटग्रस्त दिखती है? क्या उसने प्रतिरोध कर सकनेवाली तमाम कलाओं की जगह मनोरंजनधर्मी कलाओं को अधिक प्रलोभनकारी जगह आबंटित करने का प्रस्ताव दिया है, जिसे हमारे कवियों ने स्वीकार कर लिया? हम यह भी जानते हैं कि कविता प्रतिरोध का सांस्कृतिक औज़ार है लेकिन इधर प्रतीत हो रहा है मानो अब वह न केवल हाशिये पर ख़ुशी से सिमट गई है बल्कि हाशिये पर बने रहने का उत्सव भी मना रही है. जैसे उसने अपने सरोकारों का अपनी सहमति से अपहरण होने दिया है. उसकी वह निर्बल चीख़, करुण पुकार, वह प्रतिरोधात्मक इनकार और वह कामना जो मनुष्य के पक्ष में द्युति की तरह चमकती है, अब किसी असहायता में बदलती दिख रही है. क्या इसका कारण यह भी हो सकता है कि कविता की पृष्ठभूमि में, उसके अपने समाज में ‘एक्टिविज्म’ कम होता जा रहा है. उसका सौंदर्य, शिल्प, रूप एवं भाषा के सौष्ठव तक सीमित होता जा रहा है. समतावादी स्वप्न के प्रति विश्वास में आई न्यूनता ने जैसे उसे अक्षम नहीं तो, अकेला ज़रूर कर दिया है. तब आज कविता से यह उम्मीद की जाना ज़्यादती नहीं है कि जब सब तरफ़ से निराशाजनक समाचार हों, प्रतिरोध के गढ़ टूट रहे हों, विचारधारा में पलीता लगाया जा रहा हो, अभिव्यक्ति को नाधने की स्पष्ट कोशिश हो, सारी व्यवस्था एक भीड़ तंत्र में बदली जा रही हो तो कविता मनुष्य की मुक्ति के स्वप्न को अपने भीतर आश्रय दे, विमर्श की जगह दे और जीवन की ऐतिहासिकता में से, निरंतरता में से और इसी समाज में से उन प्रसंगों को स्थान दे जो ‘प्रगतिशील, जनपक्षधर समाज के विकल्प के स्वप्न’ में सहायक हो सकें.
(पाँच)
हालाँकि यह प्रश्न यथावत बना रहेगा कि समाज में बहुसंख्यक लोग लोलुप, भ्रष्ट, कायर, अवसरवादी और यथास्थितिवादी बनें रहेंगे तो केवल कविता कैसे निर्णायक इतिहास रच देगी या समतावादी विचारधारा को सकर्मक रूप से बचा लेगी? आज जब हिन्दी समाज में, कवि की आवाज़, उस तरह विद्यमान नहीं है कि अधिसंख्य जनता उसे ध्यानपूर्वक सुन सके तब कवि की निष्ठा, पक्षधरता और दृष्टि-संपन्नता की बात करना कहीं अधिक प्रासंगिक है. यहीं इस विश्वास की परीक्षा भी होना है कि समाज में, सिकुड़ी हुई जगह से भी केन्द्रक पर निगाह रखी जा सकती है, उसे हिलाया-डुलाया जा सकता है. उस राजनीति को बदलने का सपना देखा जा सकता है जो अपने प्रस्तुत रूप में पूँजी-केंद्रित ही नहीं पूँजी-पिपासु होती जा रही है और इस तरह अमानवीय, अन्यायी, निष्ठुर और रक्त-पिपासु भी.
समझ सकते हैं कि कवि कई बार कविता में शरणस्थली की तरह जाता है लेकिन जल्दी ही उसे अपनी उस शरणस्थली को एक मोर्चे की चौकी में बदलना होता है क्योंकि भाषा और समय की सामाजिकता किसी को कविता में देर तक सिर्फ़ अपनी निजी पनाहगाह बनाए रखने की मोहलत और इजाज़त नहीं देती है. ज़ाहिर है, कविता का मुख्य सरोकार अपने समय और अपने मनुष्य समाज की कठोरतम समीक्षा करना है और साथ में अत्याचार, अमानवीयता, असमानता, अन्याय का प्रतिरोध भी. जबकि इधर कुल एक पिंजारे द्वारा संसार की धुनाई की जा रही है. सब तरफ़ अमानुषिकता के बारीक रेशे उड़ रहे हैं. लेकिन अभी भी कविता, कम रक़बे की ही सही, एक बची हुई भूमि है, जिस पर संवेदनशील मनुष्यों को, कमज़ोर मनुष्यों के पक्ष में युद्ध लड़ते हुआ देखा जा सकता है. संसार भर में, हर समय कविगण यही समर लड़ते आए हैं. यहीं से गुज़रते हुए पता लग सकता है कि मनुष्य की यातना का अंत कहीं नहीं है. न सुदूर अतीत में और न ही वर्तमान से लेकर फैले अनंत भविष्य में. वंचित और विपन्न की मुश्किलें तो अकूत हैं. लेकिन कविता बताती है कि कमज़ोर की चीख़ हस्तक्षेप करती है. अन्याय और यातना के बारे में जानना, उसके प्रतिरोध के लिए तैयार होना भी है. फिर शब्द की सत्ता, मनुष्य की मदद उसी तरह कर सकती है जैसे कि कोई जीवित और सक्रिय सत्ता.
यह बहुत पुराना प्रस्ताव या समय-बाधित ख़याल नहीं है कि सौंदर्य बोध की नयी कसौटियाँ बनें. श्रम संचालित जीवन और श्रमाश्रित इस संसार में जो शोषित है, दलित है, पीड़ित है, सताया हुआ है, उसकी हिमायत हो. साहित्य, कविता उसके पक्ष में इस्तगासा पेश करे. न्याय के लिए. उसके जीवन में और इस दुनिया में अभी जो है उससे बेहतर दृश्य संभव करने के लिए आगे आए. श्रम जन्य सौंदर्य को लक्षित किया जाना, उसके महत्व को समझना ही अपेक्षित और सच्चा सौंदर्य बोध है. इसलिए कला को उपयोगिता के तराजू पर तौलने की बात कही गई है. जब भाषा की कोई उपयोगिता और आशय है तो उसी भाषा में सृजित किसी रचना की उपयोगिता और आशय क्यों नहीं होना चाहिए? साहित्य और समाज का नाभिनाल का संबंध है. व्यक्ति के अपने संकट, अस्तित्व के सवाल, उसकी अवसादग्रस्तता आदि महत्वपूर्ण हैं लेकिन इसे अलक्षित करके नहीं कि व्यक्ति ख़ुद सभ्यता और समाज का एक अंश है. उसकी त्रासदियाँ और उसके सुख-दुख भी यहीं संलग्न हैं. उसकी मुक्ति अकेले संभव नहीं. व्यक्ति स्वातंत्र्य के लिए एक सामूहिकता की दरकार भी होगी.
(छह)
कोई भी स्थानीय समकालीन सदैव वैश्विक समय के सापेक्ष है. आज तो सबसे अधिक जब हम एक विश्व-ग्राम में रहते हैं. उससे निरपेक्ष होकर हम अपने समय का समुचित आकलन नहीं कर सकते. इस समय की तमाम बड़ी मुश्किलों में से एक यह है कि संसार में तमाम जगहों पर सर्वसत्तावाद की आशंका और सचाई एकदम क़रीब दिख रही हैं. यह सर्वसत्तावाद या निरंकुशतावाद लोकतंत्र के सहारे टिककर खड़ा है. ठीक एक सौ बरस पहले के वैश्विक परिदृश्य को, उसके ताज़ा इतिहास को नज़र भर देखें तो जातीय श्रेष्ठता, नस्लीय भेदभाव, उग्र राष्ट्रवाद, निजी संपत्ति की पक्षधरता, असंदिग्ध तानाशाही और नेपथ्य में लोकतांत्रिक संस्थाओं का विनाश दिखेगा. ‘बटरफ्लाई इफैक्ट’ एक सच्ची अवधारणा है. यदि कहीं एक तितली पंख फड़फड़ा रही तो उससे तूफ़ान भी आ सकता है. लेकिन रुकें और सोचें कि क्या यह कोई एक शताब्दी पुरानी बात है अथवा हमारे देश की और हमारे समय की ही बात है?
राजनीति की मंशा पर कार्यपालिका, न्यायपालिका और समाचार माध्यम अब भी उसी ‘विवेकहीन आज्ञाकारिता’ के साथ काम कर रहे हैं जिसे पिछली सदी में तमाम घृणा आधारित हिंसा और नरसंहारों का जवाबदार माना गया है. यह वही ‘ईवल ऑव बनालिटी’ की प्रक्रिया है जो बुराई को रोज़मर्रा की चीज़ बनाकर प्रसारित करती है. जैसे आपसी नफ़रत को रोज़-रोज़ फैलाया जाता है. थोड़ा-थोड़ा. प्रतिदिन. रोज़ कुछ झूठ, रोज़ कुछ ग़लत मुकदमे. रोज़ कुछ सामूहिक भीड़ द्वारा या राजनीति प्रेरित हत्याएँ. धीरे-धीरे जनमानस में इनके प्रति संवेदनशीलता कम होती चली जाती है. यह बुराई के प्रति प्रतिरोधक क्षमता को शनै: शनै: विकसित करना है. जैसे यह सब तो रोज़ की साधारण सी चीजें हैं. इन पर क्या ध्यान देना. सब ठीक तो चल रहा है. यह सब तो होता रहता है. यह उपेक्षणीय है. बुराइयों के प्रति स्वीकार और सहनशीलता का निर्माण इसका उद्देश्य है. बल्कि बुराइयों को रोमांचक और गर्वीला बना दो.
फिर बताया जा सके कि यह सब मुश्किलें समाज में अल्पसंख्यकों की वजह से हैं. या किसी पुराने शासक की वजह से. या उदार लोकतंत्र की वजह से. पुराने संविधान की वजह से या बुद्धिजीवियों, दलितों, कम्युनिस्टों, मानवाधिकारवादी संस्थाओं के कारण. इनकी ऐसी कहानी बनाओ जिसे सुनने, सुनाने का एक मिथकीय आनंद हो. फिर ऐसे विचित्र लोकतंत्र का प्रस्ताव पेश करो जो एकाधिकारवादी हो, जहाँ जनता एक पार्टी, एक नेता के प्रति वफ़ादार रहे. कहो कि एक आदमी है तो सब कुछ मुमकिन है. नागरिकों को अहसास कराओ कि व्यक्ति विशेष या सत्ता के प्रति वफ़ादारी ही सुरक्षा का तावीज़ है. तब मुमकिन हो जाता है कि हिंसा, ताक़त और क्रूरता अपनी त्रयी की एकता बना सकें. ताकि नयी नृशंसता का जन्म हो. पूरी ताक़त के साथ हिंसा हो सके. संपूर्ण क्रूरता के साथ हिंसा. फिर कुल हिंसक क्रूरता के साथ ताक़त दिखानेवाली श्रेष्ठतम बर्बरता. जिस पर गर्व किया जा सके.
क्या ऊपर के पैराग्राफ़ में यह भी कोई पुरानी कहानी है जो हिटलर, मुसोलिनी यानी नाज़ीवाद, फ़ासीवाद के बारे में सुनाई जा रही है? लेकिन यह कैसी कहानी है जो एकदम नयी लग रही है. मानो आजकल की. आज सुबह की. कल रात की. इस कथा में भी वही सब हो रहा है कि पाठ्यक्रम, गलियों और शहरों के नाम बदले जा रहे हैं. किसानों और मज़दूरों के सारे अधिकार ख़त्म. काम के घंटे अब उतने जितने डेढ़ सौ बरस पहले हुआ करते थे. मई दिवस की शुरुआत से पहले के. हर चीज़, हर काम ठेके पर. हर बात पर हर चीज़ पर टैक्स, यह भी एक विकास हुआ. कार्यस्थल पर आने का समय निश्चित. जाने का समय अनिश्चित. दंड और न्याय संहिताएँ अधिक अमानवीय, अधिक क्रूर बनायी जा रही हैं. मानो एक बार फिर यह सिद्ध करने के लिए कि सभ्यता का इतिहास बर्बरता का ही इतिहास हो सकता है. शास्त्रों से समाज चलेगा, स्वीकार नहीं करोगे तो शस्त्रों से चलाया जाएगा. जो अश्वेत या आदिवासी है, दलित है, स्त्री है, वंचित है, असहाय है, जो बहुसंख्यक नहीं है उसके कर्त्तव्य प्रधान हैं, अधिकार नहीं. उसकी कोई सत्ता-संपत्ति नहीं क्योंकि वह तो ख़ुद सत्ता की, अभिजात्यवर्ग की संपत्ति है. क्या हमें अब भी लगता है कि ये कोई सदियों पुराने दृश्य हैं या पुरानी पड़ गईं कहानियाँ हैं?
शायद नहीं. इन कहानियों में कुछ नवीनता भी है: देश कुछ अलग हो गया है, समाज अलग तरह का बन रहा है, नागरिक कुछ अलग, अल्पसंख्यक कुछ अलग. कुछ यंत्र, कुछ औज़ार नये आए हैं. तरीक़े नये. डिजि़टल. और परंपरावादी भी. और लिंचिंग. बुलडोज़र. छापे. बिना मुक़दमे के कारागार. रक्षक संस्थाओं का भक्षक रूप. यह निरंकुश बहुसंख्यकवाद है जो एक व्यक्ति में प्रकट हो सकता है. जैसा कि कहा गया है कि तब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक अर्थ लफ़्फ़ाज़ी की स्वतंत्रता भी हो जाती है मगर सबके लिए नहीं. केवल सत्तानशीन ही लफ़्फ़ाज़ी कर सकते हैं. वे ही भाषा का अवमूल्यन कर सकते हैं. झूठ पर झूठ. और उस झूठ के झूठ पर भी झूठ. बाकी जन को भी अभिव्यक्ति की, बोलने की स्वतंत्रता की गारंटी है लेकिन बोलने के बाद उनका क्या होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है.
तब भाषा की पवित्रता, सहज आज़ादी और न्याय की पुनर्स्थापना की चुनौती भी सामने आती है. इस नये समाज की कहानी के नये संस्करण में बच्चों को विद्यालय में केवल इसलिए थप्पड़ लगाए जा सकते हैं क्योंकि वह विधर्मी है. और निहत्थे लोगों पर सार्वजनिक जगहों में गोलीबारी करके कहा जा सकता है कि आपको इस देश में दरअसल किसे नेता चुनना है. कहीं से भी, किसी को भी हकाला जा सकता है. घर से, कार्यालय से, संसद से. यदि आप सत्ताधारी पार्टी के आर्थिक स्रोतों को जानना चाहते हैं तब सूचना का अधिकार- ‘आरटीआई’ अचानक ‘एनआरटीआई’ में बदल सकता है. (यानी नो आर टी आई: सूचना का अधिकार नहीं.)
‘संपत्ति चोरी है’- यह वाक्य इस समय एक गरिमामय और अहंकारी सुभाषित में तब्दील हो गया है. ऐसे विखंडित, उत्तर-आधुनिक, करुण, उपलब्धिमय समय में कवि को अभी पीने के पानी की समस्या के बारे में, हवा में साँस ले सकने की मुसीबत, असहिष्णुता, भुखमरी, बहुसंख्यक प्रमाद, अन्याय, असमानता और जातीय गर्वीलेपन के बारे में प्रतिपक्ष की बेंच पर ही बैठ कर मीमांसा करना है. ये सब कवियों के अपने काम हैं. जिन्हें उन्हें अंजाम देते रहना है. इस तरह कि पुराना याद रखो और नया कुछ करते जाओ. यही सब एक कवि को चाहिए. एकांत भी, ब्रह्मांड भी. दुनियावी चीज़ों और बेहतरी की आकांक्षाओं से भरा हुआ.
(सात)
प्रगतिशील लेखक संघ महाराष्ट्र के इस साहित्य सम्मेलन के सुअवसर पर याद आना स्वाभाविक है कि मराठी भाषा में नारायण सुर्वे ने श्रमशील दुनिया के, तलछट के जीवन के बारे में अद्भुत और हस्तक्षेपकारी कविताएँ लिखीं. बाबूराव बागुल ने मनुष्य की जिजीविषा और संघर्ष की विरल दास्तानें दर्ज की हैं. नामदेव ढसाल ने दलितों, पददलितों की त्रासदियों को, सामाजिक अन्याय को एक व्यापक दायरे में, प्रगतिशील चेतना और भाषा की नोक पर उठाकर संभव किया. भुजंग मेश्राम ने आदिवासी संस्कृति और उसकी उदात्त जीवन दृष्टि को रेखांकित किया. आधुनिक सभ्यता के बरअक्स प्राकृतिक सहज जीवन की छबियाँ और समानांतर सक्रिय दुनिया के चित्र प्रस्तुत किए और अरुण काले ने वैश्विक होते तमाम नये संकटों की पहचान को समक्ष किया. इनका प्रभाव अन्य भारतीय भाषाओं की रचनाशीलता पर आया. यहाँ कवि सतीश कालसेकर का स्मरण भी आता है. मराठी भाषा का, हिंदी के प्रगतिशील लेखकों, प्रगतिशील साहित्यिक आंदोलन से जुड़ाव और सहोदर भाव रहा है. परस्पर संवादी प्रेरणाएँ रही हैं. अनुवादकर्म के जरिये अनेक हिंदी लेखकों को मराठी में परिचित कराया गया है. उन लेखकों की रचनाओं को ध्यान से पढ़ा गया है. हिंदी-मराठी का यह सेतु चंद्रकांत पाटील, निशिकांत ठकार, जयप्रकाश सावंत, गोरख थोरात, प्रफुल्ल शिलेदार, बलवंत जेऊरकर, राजा होलकुंदे, सुनीता डागा आदि साहित्यिकों ने संभव किया है.
अंत में याद करना ज़रूरी है कि मराठी भाषा में भी समादृत हिंदी के शीर्ष लेखक हरिशंकर परसाई का यह जन्म शताब्दी वर्ष है. जिन्हें पढ़ते हुए देश के स्वतंत्रता के बाद का सामाजिक-राजनीतिक इतिहास बाँचा जा सकता है. जिन्होंने आज कहीं अधिक स्पष्ट दिख रही मूढ़ताओं के संबंध में दशकों पहले मानो सटीक भविष्यवाणियाँ कर दी थीं- अंधभक्त होने की शर्त प्रचंड मूर्खता है. जब शर्म की बात गर्व बन जाए तो समझो जनतंत्र बढ़िया चल रहा है. ‘गाय दूसरे देशों में दूध देने के काम आती है और हमारे देश में दंगा कराने के काम आती है. कचहरी में जाने के बाद अपने वकील से अपनी रक्षा करना ही सबसे मुश्किल काम होता है. कई तरह के आत्मविश्वास होते हैं- धन का, बल का, ज्ञान का लेकिन मूर्खता का आत्मविश्वास सर्वोपरि होता है.’
कह सकते हैं कि समाजोन्मुख, प्रगतिशील साहित्य इस तरह के अतिवादी आत्मविश्वासों से बाहर लाने का काम कर सकता है.
धन्यवाद.
यथास्थान संदर्भित प्रेमचंद, मुक्तिबोध, बोर्खेज, हाना अरेंट, युवाल नोआ हरारी, अरुंधती राय की विचारपूर्ण पंक्तियों और ईदी अमीन के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संबंधी वाक्यों के प्रति आभार. इसमें अपने लिखे कुछ पुराने गद्यांश भी शामिल हैं. शीर्षक पंक्ति के लिए बोर्खेज का आभार.
(प्रगतिशील लेखक संघ, महाराष्ट्र के साहित्यिक सम्मेलन, रत्नागिरी में 2 दिसंबर 2023 को दिया गया उद्घाटन वक्तव्य: किंचित संपादित और संशोधित. यहाँ प्रकाशित होने से पूर्व ही मराठी में अनूदित होकर ‘शब्द’ पत्रिका में प्रकाशित)
पुनश्च और पूरक |
वक्तव्य के कुछ दिनों बाद इतालवी फ़िल्म- Il Cattivo Poeta (The Bad Poet)- 2020 देख सका. जियानलुका जोडिस द्वारा निदेशित यह फ़िल्म, फ़ासिस्ट मुसोलिनी के शासनकाल में प्रसिद्ध कवि और सैन्याधिकारी गैब्रिएल डी’अन्नुंजियो की जीवनी का कुछ हिस्सा अपने दायरे में लेकर, फ़ासिज़्म और उसकी कार्यप्रणाली पर निगाह डालती है. बीच में समानांतर कथाएँ हैं. इस फ़िल्म के कुछ दृश्यों, संवादों, घटनाओं के आधार पर यह एक छोटा-सा नोट. पहले यह फ़िल्म देख पाता तो किसी न किसी रूप में इस नोट को भी वक्तव्य में शामिल करता.
बहरहाल, यह यहाँ पूरक अनुसंल्ग्नक की तरह:
क्या तुम इस कवि को जानते हो?
यह कवि जो भविष्यवक्ताओं की तरह कविता लिखता रहा है. यह जनता का कवि है. इसकी मानवीय कमज़ोरियों के बावजूद लोग इस कवि को प्यार करते हैं. यह हमारे एक युद्ध में नायक भी रहा है. लेकिन इससे क्या? आज हमारे लिए यह कितना उपयोगी है? एक समय यह हमारे प्रमुख (डूशे) का मित्र था, अब नहीं है. यही बात निर्णायक है कि यह देश के प्रधान का समर्पित मित्र नहीं रह गया है.
यह कवि फ़ासिज़्म की बुराई करता है. इससे बड़ा अपराध भला और क्या हो सकता है? यह अब उसे अधटूटे दाँत की तरह है कि इसे सोने से मढ़वा दो या फिर निकाल फेंको. उसकी कविता देखो ज़रा, वह फ़ासीवाद को घृणित कह रहा है. हम चाहते हैं कि तुम उसके साथ रहो, उसकी जासूसी करो. वह क्या सोचता है, क्या कहता है, क्या देखता है, उसकी क्या इच्छाएँ हैं. वह क्या चाहता है. तुम उसके साथ रहकर उसका विश्वास जीतो और हमें सूचना दो. दरअसल उसकी लोकप्रियता ही फिलहाल इस दाँत को उखाड़ फेंकने से बचा रही है. लेकिन यह ज़्यादा दिन तक नहीं चलनेवाला. यदि उसकी कोई चारित्रिक कमज़ोरी मिल जाए तो फिर बात ही क्या.
याद रखो, एक शब्द भी फ़ासिज़्म के ख़िलाफ़ सहन नहीं किया जा सकता. शहरों में, गलियों में, शराबख़ानों, चाय की गुमटियों, कोने-किनारों में, रेस्त्राँओं में, घरों में, किसी भी जगह, किसी भी गतिविधि में यह देखने सुनने को मिले तो तुरंत गिरफ़्तारियाँ करो. असहमति को समूल नष्ट कर दो. एक भी ऐसा ग़लत आदमी नहीं बचना चाहिए, चाहे सौ सही लोग मारे जाएँ. मारने का उदाहरण इस तरह बनाओ कि भय रीढ़ की हड्डी में उतर जाए. फ़ासिज़्म सर्वोपरि विचार है. जो फ़ासिस्ट नहीं, उसे मुर्दा समझा जाए. सुनिश्चित करो कि उसे कोई फ़ासिस्ट भी न बचा सके.
इस नील गगन के तले कोई फ़ासिज्म-विरोधी व्यक्ति सिर उठाकर कैसे चल सकता है? लगता है उसे कोई मोह-माया नहीं बची. अपने घर-परिवार से भी. उस पर कठोरतम धाराएँ लगाई जाएँगी. वह भूल गया है कि फ़ासिज़्म विरोध यानी देश विरोध. देश-द्रोहियों के धर-पकड़ शुरू हो चुकी है. उन्हें बख़्शा नहीं जा सकता.
ध्यान दो कि किसी पत्रिका या अख़बार में छपी डूशे, यानी देश के मुखिया की तस्वीर पर भी चाय का कप, वाइन की बॉटल या गिलास ग़लती से न रख दिया जाए. उस तस्वीर पर दाग़ लग गया तो फिर तुम देशद्रोही कहलाओगे. भले ही भूलवश हो लेकिन यह गंभीर, संज्ञेय अपराध होगा. हम एक को इस तरह मारेंगे कि बाक़ी कई लोग आत्महत्याएँ कर लेंगे. आरोप लगाकर केस लगाएँगें तो कौन बचाएगा? हमारा शासक ग़लत है या सही है, इस बात का तब तक कोई अर्थ नहीं, जब तक उसके पास व्यापक जनसमर्थन है. देखो- वह छज्जे पर खड़ा है और अपार जनसमूह उसका अभिवादन कर रहा है.
हमें निष्ठा चाहिए. असंदिग्ध निष्ठा. जिसकी हमारे प्रति आस्था नहीं, उसकी देश के प्रति आस्था नहीं. यह एक सरल और सीधा समीकरण है.
तुम्हारा यह कवि कहता है कि कवि का दुख, राष्ट्र के दुख से अलग नहीं. कि आकाश में यह कालिमा का समय है. अवसाद का और उदासी का. इससे कैसे उबरें? जबकि अत्याचार और अन्याय का सामना करने के लिए लोग आगे नहीं आ रहे हैं. देश की देह में से ख़ून निकलकर बहता चला जा रहा है. आज जो गर्वीलेपन की बहार है दरअसल वह श्रेष्ठता ग्रंथि है. लोग जिसे पवित्रता समझ रहे हैं, वह पाखंड है.
और जिसे जीवन समझ रहे हैं, वह मृत्यु है.|
लेकिन अभी मैं एक कवि जीवित हूँ. जर्जर हूँ, बीमार हूँ लेकिन अभी मैं हूँ. और तुम लोग भी हो. यही बची-खुची आशा है.
लोकतांत्रिकता, स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों और वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न समाज के पक्षधर कुमार अम्बुज का जन्म 13 अप्रैल 1957 को जिला गुना, मध्य प्रदेश में हुआ. संप्रति वे भोपाल में रहते हैं. किवाड़, क्रूरता, अनंतिम, अतिक्रमण, अमीरी रेखा और उपशीर्षक उनके छह प्रकाशित कविता संग्रह है. ‘इच्छाएँ और ‘मज़ाक़’ दो कहानी संकलन हैं. ‘थलचर’ शीर्षक से सर्जनात्मक वैचारिक डायरी है और ‘मनुष्य का अवकाश’ श्रम और धर्म विषयक निबंध संग्रह. ‘प्रतिनिधि कविताएँ’, ‘कवि ने कहा’, ‘75 कविताएँ’ श्रृंखला में कविता संचयन है. उन्होंने गुजरात दंगों पर केंद्रित पुस्तक ‘क्या हमें चुप रहना चाहिए’ और ‘वसुधा’ के कवितांक सहित अनेक वैचारिक पुस्तिकाओं का संपादन किया है. विश्व सिनेमा से चयनित फिल्मों पर निबंधों की पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य. कविता के लिए ‘भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार’, ‘माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार’, ‘श्रीकांत वर्मा पुरस्कार’, ‘गिरिजा कुमार माथुर सम्मान’, ‘केदार सम्मान’ और वागीश्वरी पुरस्कार से सम्मानित. ई-मेल : kumarambujbpl@gmail.com |
कुमार अंबुज का यह व्याख्यान दिमाग के मृतक तन्तुओं को जीवित करने की एक दवा है।
विचारोतेज्जक वक्तव्य। हर कवि और कविता प्रेमी को इसे पढ़ना चाहिए।
कुमार अम्बुज के व्याख्यान में प्रस्तुत सभी बिंदुओं ने गहराई तक प्रभावित किया । कविता के बारे में ये स्पष्ट , सुविवेचित, विस्तृत और संवेदनशील दृष्टि आज की कविताओं के संदर्भ में वास्तव में विचारणीय है ।साधुवाद !
“वह वैचारिकता, जीवन विवेक, स्पष्ट दृष्टि दे सकता है. “
विचार, विवेक और दृष्टि न भी दे तो कोई बात नहीं, देखना, विचार करना और विवेक के संधान लौ जगा दे या आदत लगा दे यह भी बहुत है।
बढ़िया लेख !
जिस तरह से वे परत-दर-परत खोलते चले जाते हैं, वह अद्भुत है । अपनी ( कविता की ) दुनिया को इस तरह से देखना एक नई ही दुनिया में धंसने, देखने और भीगने जैसा है । कई कई बार पढ़ने, समझने और धारणाओं पर पुनर्चिंतन करने की आवश्यकता है । कुमार अंबुज जी ने इसके लिए एक नया ही आकाश दे दिया है । इस महत्वपूर्ण व्याख्यान के लिए उनका और साझा करने के लिए आभार आभार ।
बहुत अच्छा लेख है। इस लेख की कसौटी पर कवि अपनी समझ की सामर्थ्य आंक सकता है। एक कवि को इसे चुपचाप बार-बार पढ़ना चाहिए।
विचार पूर्ण और दृष्टि संपन्न। कविता में चर्बी बढ़ रही, प्रोटीन कम कितना सटीक कथन है अंबुज जी का । किंतु कवियों में इसी वसा को उल्लेखनीय मानने पर कोलाहल होता रहता है। कविता के सतत सकल उत्पादन के बरक्स केवल दस प्रतिशत ही अपरिहार्य होता है, बाकी औसत का अतिरेक।
बधाई अंबुज जी को। समालोचन को भी।
शानदार, स्पष्ट और दृष्टिवान। अम्बुज जी को सलाम, शुक्रिया
एक बार फिर कवि कुमार अम्बुज ने अपने स्वभाव को लिए कविता -कर्म पर गंभीर और जरूरी लेख लिखा है और लेखन के प्रति सजग और चेतना संपन्न व्यक्ति के लिए कविता लिखने के तदनुरूप सवालों का समाधान सामने रखा है।
इस लेख में कुमार अम्बुज ने कवि के अंदर की संभावित जिज्ञासाओं को बाहर निकालकर बात की है अवश्यंभावी उत्प्रेरणा के साथ।
किसी खास उद्देश्य के साथ लिखा गया लेख है यह, इसलिए वह इस समय के कविता – कर्म पर ही लक्षित नहीं, भविष्य में आने वाले कवि- पीढ़ी के कवि – कर्म को भी निर्देशित करता है।
अद्भुत, विचारोत्तेजक, भरोसेमंद, स्पष्ट। कवि-साहित्यिकों के लिए एक नज़ीर और उन लोगों के लिए भी जो वैचारिक पक्षधरता को आज के दौर में प्रश्नांकित करने का दुस्साहस करने लगे हैं।
अपूर्व!
शीर्षक और लेख की पहली पंक्ति जी के चेस्टर्टन की कविता ‘एक्लिज़ियास्टीज़’ में भी प्रकट हुए हैं।
अम्बुज जी वर्तमान में सबसे अंडरेटेड कवि हैं। इस कवि ने जितना कुछ हिंदी साहित्य को दिया है। हिंदी वालों ने उन्हें वो आदर भी नही दिया। फिल्मों में तो कमाल की सीरीज लिख रहे हैं अम्बुज जी
विवेकसम्पन्न करता विचारदीप्त आलेख। बार-बार पठनीय इस सुचिंतित आलेख के लिए अग्रज कवि को बहुत शुक्रिया।
रफ़्ता रफ़्ता उतरेगा ये. असहमतियों, ऊबाऊ हिस्सों, वैचारिक घालमेल ( जैसे, भाषा की उपयोगिता, बरास्ते लुकाच के साथ ही साथ कला और रोज़मर्रा की भाषा में अंतर, बरास्ते वैलरी) के बावजूद.
सोचने-समझने लायक है. अफ़सोस, उनकी कविता जैसा स्पष्ट नहीं है. ‘नये प्रश्न’ पुराने हैं और तज़वीज़ किये हुए कई उत्तर-परामर्श भी.
क़ाश कि इस लेख का विखंडन कर सकने की फ़ुर्सत किसी क़ाबिल युवा कवि/कवयित्री को हो तो बहस जमे.
हमेशा की तरह अग्रज कवि कुमार अंबुज का बहुत ही विचारोत्तेजक और बेहद शानदार लेख। इतालवी फिल्म पर टिप्पणी ने इस लेख को और प्रासंगिक और मानीखेज बना दिया है।
कवि कर्म पर आपका आलेख पढ़ा. बहुत दिनों बाद! प्रतीक्षा सूची में बना हुआ था. अभी अभी पढ़ कर ख़त्म किया.
सर्जना रूपी पुल का रूपक वाकई ज़रूरी है. दोनो दुनियाओं में आवाजाही बनी रहे इसलिए. लेकिन आमतौर पर ज्यादातर कवियों के यहां ये पुल इतने वायवीय होते हैं कि वे दोनो दुनिया से कट जाते हैं. कवियों का सरोकार केवल शब्दों से है. विचार और प्रतिबद्धता हो तो भी.
जनता से कनेक्ट नहीं बनता. याद करिए पाब्लो नेरुदा को. नोबल पुरस्कार के आयोजन के लिए फुटबॉल स्टेडियम चुना गया. जनता से खचाखच भरा हुआ.
हमारे देश में जनता के कवि क्यों इतने कम हैं. केवल परिभाषाओं से कविता जन कविता नहीं बनती. यहां इलाहाबाद में निराला की उदारता के किस्से दारागंज की गलियों में अभी भी गूंज रहे हैं. घोर सर्दी में अपना एकमात्र कंबल किसी भिखारी को ऊढ़ा कर खुद कांपते रहते!
आज वह परोपकारी सरोकार भी नहीं है कवियों के पास. सब अपने अपने हिस्से की ख्याति और अधिक ख्याति के बीच सर्जना का पुल बना रहे हैं.
कुल मिला कर कविकर्म किसी सपनीले द्वीप की चीज़ नहीं है. आप जिन दो दुनिया की बात कर रहे हैं उससे वास्तविक रूप से जुड़ना भी होता है! दुनिया जो हम कविता में रचना चाहते हैं उसे हकीकत में अपने हाथों से रचना पड़ता है. यानी मेरी समझ से कविता कर्म कोई एकाकी परिघटना नहीं हो सकती उसे बदलाव की समग्र सर्जना का एक हिस्सा होना होगा. वरना हर किसी के कविता के अपने अपने द्वीप तो हैं ही.
अंत में bad poet की समीक्षा आलेख से जुड़ गई. फिल्म देखने की इच्छा तेज़ हो गई पर कहां मिलेगी पता नहीं!
एक सारगर्भित लेख के लिए आपका आभार!
पुनश्च : लेख में कई जगह दुहराव है, उससे बचा जा सकता है! शायद छोटे मुंह बड़ी बात है फिर भी…
आपके कुछ बिंदु तो समाहित हैं।
बाक़ी बिंदुओं के लिए ‘कवि, कविता और एक्टिविज़्म’ जैसे किसी पृथक, विस्तृत विचार आलेख की ज़रूरत होगी।
हालाँकि कवि और कार्यकर्ता की भूमिका, उनके एक हो जाने की (किस हद तक) बाध्यकारी अपेक्षा के साथ, समाज में कविता की जगह और स्वीकार्यता निर्मिति के तमाम कारणों और उपायों की संभावना एवं राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक इत्यादि सामूहिक उत्तरदायित्व पर भी बात ज़रूरी होगी। और इस
पर भी कि समाजोन्मुख कलाकर्म क्या अपने आप में एक्टिविज़्म नहीं है। आदि-इत्यादि। क्या ही अच्छा हो कि इस पर आप एक आलेख संभव करें, विमर्श को आगे ले जा सकें।
आपकी टीप के लिए धन्यवाद।
☘️
तैयारी के साथ तैयार इस लेख को लंबे समय तक पढ़ा जाएगा। इसमें सोचने के कई बिंदु हैं, जो विचारणीय हैं। इसके लिए कुमार अंबुज को बधाई।
वैसे, मैं इस लेख के बरअक्स ‘उपशीर्षक’ की कविताएँ फिर से पढ़ रहा हूँ।