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Home » संदीप नाईक की कविताएँ

संदीप नाईक की कविताएँ

संदीप नाईक की ये कविताएँ संघर्षशील और जीवट से भरी साधारण पर गर्वीला जीवन व्यतीत करतीं स्त्रियों की कविताएँ हैं. इनमें दयामनी बारेला, सोनी सोरी, मेधा पाटकर आदि के चेहरे हैं. इनमें जीवनतत्व भरपूर है. प्रस्तुत है.

by arun dev
April 25, 2024
in कविता
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संदीप नाईक की कविताएँ
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संदीप नाईक की कविताएँ


1. 

पूना के माई मंगेशकर अस्पताल के पास
जो वारजे जैसी भीड़ भरे इलाके में है
एक रेहड़ी वालों का अड्डा है
अभी तीन-चार दिन वहाँ था
शाम तफरी करने चला जाता था
अंडा, भुर्जी, डोसा, चिकन और चाइनीज के नाम पर ढेर चीज़े थीं
आसपास के मजदूर और दिहाड़ी से काम करने वाले रोज़ इकट्ठा होते
बीड़ी के धुएँ और देशी पाव की बोतलें जब फिंक जाती तो
लाल परी का नशा जब दम तोड़ता
सबको भोजन की याद आती

टूट पड़ते सस्ते खाने पर
सबसे कोने में उस बुजुर्ग महिला का ठेला था
झुणका भाकर का ठेला
ज्वार, बाजरी और नाचणी के साथ गेहूँ के आटे की भाकर भी थी
चालीस रुपये में दो भाकर और झुणका पेटभर

एक दिन मैंने भी चखा
उस दिन उस बुजुर्ग महिला का स्नेह लुभा गया
अब रोज शाम को वही जाता और वह सब छोड़कर
मुझे ही खिलाती झुणका और पतली छोटी भाकर
जब तीसरे दिन उसे बताया कि कल लौट जाऊँगा अपने देस
तो उसने लकड़ी की छोटी पेटी खोली
जो काली हो चुकी थी और बहुत चीकट थी
उसमें से दो सौ बीस रुपये निकालकर मेरे हथेली पर रख दिये
दौड़कर पास से चितळे की भाकरवड़ी ले आई
आँखों में आंसू थे उसके
मैं उस स्त्री के भी प्रेम में पड़ गया था जिसका लुगड़ा पीला था
और वो ठीक मेरी दादी की तरह लगती थी

 

2.

सत्यमंगल के जंगलों में जब हाथियों के झुंड से घबराकर
मैं किसी कच्ची झोपड़ी पहुँचा उस बरसात की दोपहर में
तो देखा कि वह एक छोटी सी दुकान थी
कुख्यात हाथीदाँत चोर वीरप्पन का इलाका था
तमिलनाडु के इरोड जिले के ऊपर पहाड़ियों पर था

वो साक्षात अन्नपूर्णा ही थी
अस्सी के आसपास उम्र रही होगी
कृशकाय परन्तु मजबूत काया
सफ़ेद बालों और पोपले मुँह की हँसी
सारे ग्राहकों से हँसी मज़ाक करती हुई
कच्ची झोपडी में दुकान जिसका कुल सामान
पाँच सौ रुपयों का भी नहीं होगा

मुझे सहमा हुआ देखकर खूब हँसी
तमिल में कुछ ऐसा बोली कि वहाँ बैठे लोग हँस दिए
बीड़ी पीते सफ़ेद लूंगी में बैठे लोग
थोड़ी देर में फिर उसी ने सबको डपट दिया था
मुझे नींबू वाली काली चाय पिलाई
दो नर्म सी इडली स्वादिष्ट चटनी के साथ केले के पत्ते पर दी
बार-बार आग्रह के बाद भी उसने रुपये नहीं लिये
मुसकुराती रही
एक अनजान भाषा में प्यार दब नहीं पाया था उसका

बाद में जब अपने होटल लौटा तो
किसी ने बताया कि जंगल की उस बूढ़ी की दुकान पर
वीरप्पन का आना-जाना है
और उस खूँखार वीरप्पन की खबरी वही है
उस खूँखार वीरप्पन को डाँटने की हिम्मत उसी की है
बाकी जंगल के अधिकारी या पुलिस किसी से नहीं डरती वह

मैं आज भी वही जाना चाहता हूँ
वैसी इडली आज तक नहीं खा पाया
और उसकी आँखों से प्यार पाना चाहता हूँ
जिस दिन वीरप्पन के मरने की खबर मिली थी
मैं चिंता में सोया नहीं कि अब उसका क्या होगा
क्या पुलिस परेशान करेगी उसे.

 

3.

राँची स्टेशन से चर्च रोड पर जब आप आते है
तो एक बड़े से बंगले के सामने
छोटी सी नीले पतरे वाली गुमटी होती थी
एक बार चाय और आलू गोंडा खाने रूक गया

सफ़ेद खादी की साड़ी में एक बुजुर्ग महिला ने चाय बनाई
गर्म आलू गोंडा दिया
और कुछ पुरुषों से बात करने बैठ गई
दो चार साइकिल पड़ी थी और एकाध बाइक
लोग बैठे गप्प कर रहें थे
ज़मीन, जंगल और अधिकार

मेरी रुचि नहीं थी पर जिस ठसक से वह महिला बोल रही थी
उसकी आवाज़ और तर्कों की धमक थी
वह चकित करने वाली थी
एक आदमी से पूछा मैंने कौन है यह
दयामनी बारेला

मैं चौक गया, झारखंड से मित्तल को भगाने वाली
नेतरहाट के आदिवासियों और जंगल की लड़ाई की अगुआ
मैं हाथ में चाय को पकड़े निहारता रहा उसे
और मुंह में रस घोल रहें आलू गोण्डे को खाते हुए हैरान था

थोड़ी देर अथक सुनता रहा
फिर धीरे से उन्हें हाथ जोड़े तो
मेरे खादी के कुर्ते और टायर की चप्पल को देख
वो हँस पड़ी बोली
बाबू यह तुम्हारी ही दुकान है
रुपये तो दो मत, और देना ही हो तो ज्यादा दो
हम यहाँ अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे है
मैंने पांच सौ का नोट निकालकर रख दिया
उनकी शुष्क हथेली और कड़क उंगलियाँ छूकर याद आई कविता
दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिये
उनका वो हाथ अभी भी सपने में आता है
और मैं उस स्त्री से बहुत प्यार करता हूँ
जो सड़क पर गुमटी चलाते हुए
एक आरपार की लड़ाई लड़ रही है.

 

4.

दिल्ली, राँची, रायपुर, भोपाल या काँकेर में मिला
कितनी सहज कितनी सरल
साफ और सुंदर बोलने वाली स्त्री ने कैसे सहा होगा
दर्जनों बार प्रताड़ित हुई, कभी मार खाई सड़कों पर
कभी ठूँस दी गई जेल में
कभी एम्स दिल्ली में कराहते हुए भी हिम्मत नहीं हारी
जब राज्य ने उसकी योनि में भर दिए थे पत्थर
संविधान पता नहीं कहाँ सो रहा था उस दिन

जब भी मिला शिकन नहीं कभी चेहरे पर
एसिड के दाग़ , शरीर पर मार के निशान
पर प्रेम और भाषा में कोई अशिष्टता नहीं
जंगल, आदिवासी और ज़मीर की लड़ाई आज भी जारी है
सोनी सोरी अब रुकने वाली नहीं है

सुधा हो, बेला, नलिनी सुंदरम हो या अरुंधति
सोनी सोरी और ऐसी सारी महिलाओं से मैं प्रेम करता हूँ
मैं हर उस स्त्री से प्रेम करता हूँ जो भरी सभा में
राजा को नंगा कहने का साहस रखती है
अपने लोगों से प्रश्न पूछने का साहस करती है

 

5.

नदी भी एक दिन लड़ाई बन जाती है
यह बात मेधा पाटकर से बेहतर कोई समझा सकता है
चार दशकों से नमामि नर्मदे देवी की गोद में
सरकार और साम्राज्यवाद से लड़ रही मेधा पाटकर संघर्ष है
हजारों आदिवासियों के साथ लाखों किलोमीटर चल चुकी
मालवा-निमाड़ या भोपाल का कोई जेल नहीं छोड़ा
जिसकी दीवारों के आईनों में मार के चीन्ह ना हो
मेधा की पीठ सभ्यता के विकास की कहानी है

भूखे रहकर लड़ाई लड़ने का माद्दा एक स्त्री के अभ्यास का हिस्सा है
जिसने वृहत आदिवासी समुदाय को परिवार बना लिया
जिसने बची रोटी को साड़ी के पल्लू में बाँधकर शाम के लिये रख लिया
जिसने निमाड़-मालवा के गांवों को पग-पग नाप लिया
मैं उसकी मेधा को प्यार करता हूँ

मैं मेधा पाटकर को उन लाखों लोगों की तरह प्यार करता हूँ
जिनके जीवन के चालीस साल निकल गए
अब आंदोलन खत्म हो गए है
यह कहने वाली मेधा की आंखे अभी भी उम्मीद से भरी है
और मैं उम्मीद को प्यार करता हूँ

 

संदीप नाईक 38 वर्षों तक विभिन्न प्रकार की नौकरियाँ करने के बाद आजकल देवास, म.प्र. में रहते है और इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं “नर्मदा किनारे से बेचैनी की कथाएँ” कहानी संग्रह को प्रतिष्ठित वागेश्वरी पुरस्कार प्राप्त है. इन दिनों हिंदी, अंग्रेजी और मराठी में लेखन-अनुवाद और कंसल्टेंसी का काम करते है.
naiksandi@gmail.com
Tags: 20242024 कवितादयामनी बारेलामेधा पाटकरसंघर्षशील औरतों की कविताएँसंदीप नाईकसोनी सोरी
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Comments 12

  1. ऐश्वर्य मोहन गहराना says:
    2 years ago

    बिना किसी श्रम के यह कविताएं आपके हृदय तक उतार जाती हैं और छोड़ जाती हैं अपने घाव – जो जरूरी हैं कि मेरे हृदय पर पड़ते रहे और मेरी संवेदना सो न जाए। यहाँ चार स्त्रियाँ है – आप असहमत हो सकते हैं उनसे परंतु कायल हुए बिना नहीं रह सकते – उनके और इन कविताओं के।

    Reply
  2. वन्दना गुप्ता says:
    2 years ago

    अद्भुत यथार्थपरक कविताएं । स्त्री के संघर्षों को केंद्र में रखकर लिखी गयी कविताएं कवि के संवेदनशील हृदय का दर्शन तो कराती ही हैं साथ ही पाठक के हृदय में करुणा भी उपजाती हैं। उन स्त्रियों के हाथों की छुअन अपने हाथों में महसूस होती है। स्पर्श बिजली की तरह चेतना में दौड़ जाता है। बहुत समय बाद कुछ सार्थक पढ़ने को मिला। ऐसा लगा जैसे कितनी अपनी हैं वो सभी स्त्रियाँ। कवि को मानीखेज कविताओं हेतु साधुवाद।

    Reply
  3. मयंक says:
    2 years ago

    यह कविताएँ जहाँ एक तरफ यथार्थ को बयां करती हैं, वहीं मर्म को रगड़ती हुई आकुल करती हैं।
    कवि ने जिस तरह एकसाथ संवेदना और व्यक्तिवादी- सामाजिक विकारों को एक साथ साधा है, अद्भुत है।

    आज की कविता की श्रेणी में जहाँ कविता में कविताई गुम है, ठूस विचारों का बजबजापन है, ये कविताएँ कैनन हैं।

    Reply
  4. Hemant Deolekar says:
    2 years ago

    समालोचन पर आपकी कविताएं पढ़कर मन भीग गया। गीली आँखों से अंतिम कविता तक पहुंचा।

    खूब संवेदना के साथ आपने इन कविताओं की नायिकाओं के साथ संवाद किया होगा। उन्हें, उनकी ममता और शक्ति को महसूस किया होगा। तभी इतनी भावपूर्ण आप लिख सके।

    बहुत सादी मगर मनुष्यता से भरी हैं। स्त्री को समझने के गुपित अनुरोध से भरी हैं। ये कविताएं यह बताती हैं कि हम जिन्हे निर्धन या वंचित मानते हैं, सबसे ज्यादा करुणा उन्हीं में होती है। साहस और नैतिकता उनसे सीखी जा सकती है।

    बहुत संवेदना के तरल से भरी इन कविताओं के लिए आभार।

    Reply
  5. Aman Sharma says:
    2 years ago

    So gorgeous

    Reply
  6. पवन says:
    2 years ago

    ये कविताएँ किसी कथा की तरफ मन में सहजता के साथ चलती जाती है. ये एक कविता का विभिन्न भाग लगती हैं, जिसमें कई मालाओं में भावों को पिरोया गया हो.
    इनमें अपने समाज और संस्कृति से लड़ने वाली जीवट स्त्रियों की जिजीविषा और आस्था उदात्त चित्रण हुआ हैं.

    Reply
  7. अनुराधा सिंह says:
    2 years ago

    बहुत समय बाद संदीप जी की कविताओं को पढ़ रही हूंँ, हमारी दुनिया की सबसे जुझारू स्त्रियों के प्रति उनका तरल ममत्व व आदर पढ़कर सुखी हुई। यह पूरी शृंखला ही बहुत पठनीय व उल्लेखनीय बनी है। बहुत अच्छी कविताएं।

    Reply
  8. Amita Sheereen says:
    2 years ago

    संदीप जी का प्यार बढ़ता ही जाए, फैलता ही जाए, मैं भी उनके प्यार के लायक बनूं कभी…

    Reply
    • Yogesh dwivedi says:
      2 years ago

      Wow ईश्वर करे आपकी आपकी मनोकामना पूरी हो हमे संदीप जी की अमिता जी पर ऐसी कविताऐं पढ़ने को मिले जन्हा मूर्तिमान नारीत्व अपने भीतर के समस्तमता करुणा के साथ , शोषण और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष में अपनी पूर्ण गरिमा के साथ खड़ा हुए दिखे।
      योगेश द्विवेदी

      Reply
  9. कल्लोल चक्रवर्ती says:
    2 years ago

    संदीप नाईक की ये सभी कविताएं प्रतिरोध करती संघर्षशील स्त्रियों की कविताएं हैं, जिनमें उतनी ही संवेदना और मनुष्यता भी है। संदीप नाईक को सलाम, और समालोचन का बहुत बहुत आभार।

    Reply
  10. Sandip naik says:
    2 years ago

    आप सबका आभार धन्यवाद

    Reply
  11. सुदीप सोहनी says:
    2 years ago

    संदीप भाई, क्या लिख दिया है आपने! मन द्रवित है पढ़ कर। लंबे अरसे बाद मैंने कविताओं को अपने क़रीब महसूस किया। और विवश भी किया कि जो महसूस कर रहा उसका कुछ तो ज़िक्र करूँ ही। हमारे आसपास कितना सारा जीवन बिखरा पड़ा है। लेकिन लगता है वो समय कहाँ गया जिसे मन भर जिया जाता था। अपने आसपास प्रेम, आभार, संवेदना को महसूस करना ही भूल गए। आपने जैसे उन सबके पास पहुँचा दिया। मन भीगा हुआ है इन कविताओं को पढ़ कर। यूँ ही दृष्ट कवियों को आईना नहीं दिखाते आप। खूब प्रेम आपको 🙏🏻🤗

    Reply

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