राज कपूर का संगीत भास्कर चंदावरकर अनुवाद : रेखा देशपांडे |
एक समय था जब ईरानी रेस्तराँ हुआ करते थे. संगमरमर के टॉपवाली टेबल, गोल सीट वाली, कत्थई बादामी रंग की काठ की कुर्सियाँ, धीमी रफ़्तार से घूमते पंखे और अक्सर चारों तरफ़ लगे शीशे. गाढ़ी ईरानी चाय जो सिर्फ़ ऐसी ही जगह मिलती थी और यहाँ की की ख़ासियत हुआ करती थी. एक ऐसे पदार्थ के साथ यह पी जाती थी, जिसे केक्स कहते थे. ये थीं बटर पेपर में लिपटी पेस्ट्रीज़. भरी हुई प्लेट में वे क़रीने से सजी होती थीं. कइयों को इन्हें चाय में डुबोकर खाना पसंद था. इन जगहों के नाम अजीबोग़रीब हुआ करते थे. ‘एक्सलशियर’, ‘लाइट ऑफ एशिया’, ‘वज़ीर-ए-हिंद’ या ‘गुलिस्ताँ’.
खाने की चीज़ें तो मिलती ही थीं, डाक टिकटों से लेकर ब्रिलक्रिम तक दुनिया भर की तमाम चीज़ें मिल जाया करती थीं. झटपट स्नैक, इडली, वडा, सांबार और ट्रान्ज़िस्टर के उदय से पहले के ज़माने में ईरानी दुकानों में ग्राहकों के लिए एक बहुत बड़ा आकर्षण हुआ करता था. वॉल्व वाला बड़ा-सा रेडिओ रिसीवर.
एक ‘सिंगल’ कप चाय की चुस्कियों के साथ आधा घंटा रेडिओ सिलोन या रेडिओ गोवा से प्रसारित होते गीत सुने जा सकते थे. इसका मतलब यह होता था कि आप दो आने में सात गाने सुन सकते थे. जब कोई लोकप्रिय गाना आने लगता तो कोने में काऊंटर के पास ऊँची कुर्सी पर बैठा कैशियर- रेस्तराँ का मालिक- हाथ बढ़ाकर रेडिओ सेट की नॉब घुमाता और वॉल्यूम बढ़ा देता. फिर ज़ोर-ज़ोर से बोलनेवाले भी चुप हो जाते थे और एक सामूहिक श्रवणविधि आरंभ हो जाता था. गपशप पर ताला लगा देनेवाले ऐसे गाने जो बचपन में मैंने ईरानी रेस्तराँ में शुरू-शुरू में सुने थे, उनमें से एक था ‘ज़िंदा हूँ इसतरह के ग़म-ए-ज़िंदगी नहीं’. पूछताछ करने पर पता चला, गीत फ़िल्म ‘आग’ का है ( मुकेश का गाया हुआ) और यह फ़िल्म थी राज कपूर की.
राज कपूर की फ़िल्मों के गीतों में ऐसी क्या ख़ास बात है, कौन-सा आकर्षण है, चालीस साल बाद मैंने इसे तलाशने की कोशिश की. क्या ‘आग’ जैसी बिल्कुल शुरू की फ़िल्म में वह आकर्षण पाया जाता है? यह एहसास मुझे कब हुआ कि अपनी फ़िल्मों में अपने संगीत को पिरो सकने की एक ख़ास क्षमता राज कपूर में थी? वह कौन-सी ख़ासियत थी जिस वजह से उनका संगीत निराला बन जाता था? राज कपूर की फ़िल्मों में संगीत हमेशा ही किसी दूसरे का दिया होता था. ख़ुद उन्होंने न कभी संगीत रचना की, न ख़ुद गीत गाये. लेकिन जब दूसरे संगीतकारों के बनाये गीत वे अपनी फ़िल्मों में गाते तो वे ‘राज कपूर के गीत’ बनकर याददाश्त में बस जाते.
नये संगीतकारों, नये पार्श्वगायकों और नये अभिनेताओं को लेकर वे फ़िल्मों का निर्देशन करनेवाले थे. लेकिन इन सभी फ़िल्मों का संगीत ‘राज कपूर का’ साबित होनेवाला था. पिछले कई सालों में लाखों लोग राज कपूर के गीतों के साथ जीये हैं, पले-बढ़े हैं. देश-विदेश के युवाओं को ख़ुशी के मौकों पर ये गीत बहुत बहुत अपने-से लगे हैं, ग़म में इन गीतों ने उन्हें दिलासा दिया है.
आइए, ‘आग’ से शुरू करते हैं. ‘आग’ उनकी पहली फ़िल्म थी. राज कपूर अपने पिता पृथ्वीराज कपूर की कंपनी पृथ्वी थिएटर्स के ज्येष्ठ वादक, संगीतकार राम गांगुली को जानते थे, लिहाज़ा अपनी इस पहली पहली फ़िल्म के लिए बतौर संगीतकार वे उनका चुनाव करते यह स्वाभाविक था. वाराणसी के प्रसिद्ध धृपद गायक के सुपुत्र वाद्य-वादक राम गांगुली राज कपूर के साथ बस, एक ही फ़िल्म करनेवाले थे. राम गांगुली युवावस्था में ही बेहतरीन और होनहार सितार-वादक की हैसियत से मशहूर हो चले थे.
‘ज़िंदा हूँ इसतरह…’ सुंदर गीत था और लोगों ने इसे पसंद भी किया था. फिर भी फ़िल्म इतनी नहीं चली कि राम गांगुली के नाम का बोलबाला होता. यह गीत बहुत अधिक नाटकीय था. उसमें झाँज (cymbals) की झनझनाहट का अतिरिक्त प्रयोग किया गया था. इस फ़िल्म के बाक़ी गाने भी भुला दिये गये. आर.के. ने दूसरी फ़िल्म बनायी और इस बार सांगीतिक दृष्टि से यह फ़िल्म बेहद सफल रही.
फिल्म ‘बरसात’ के ज़रिये शंकर-जयकिशन ने एक नये प्रकार के संगीत से पहचान करा दी. कइयों को पता ही नहीं था कि यह संगीतकार जोड़ी है. किसी मारवाड़ी संगीत-निर्देशक का नाम और उपनाम लग सकता था. शंकर और जयकिशन भी पृथ्वी थिएटर्स से ही आये हुए थे. शुरू में वे हार्मोनियम, ढोलक और कुछ एक और वाद्य बजाया करते थे. नहीं लगता था कि दोनों ने पारंपरिक शास्त्रीय संगीत की तालीम ली होगी. लेकिन दोनों में एक आश्चर्यकारक विशेषता थी. वह थी वह सांगीतिक समझ जो लोकसंगीत-वादक में होती है. इसके अलावा किसी भी परिस्थिति का सामना करने की क्षमता उनमें थी. जल्द ही इस जोड़ी ने फिल्म उद्योग की तमाम बारीक़ियों को समझ लिया, उन्हें अपना लिया और फ़िल्म-जगत पर राज किया.
इस जोड़ी के कार्यकाल पर नज़र डालेंगे तो आर. के. और एस. जे. द्वारा एक दूसरे पर डाले प्रभाव को अतिरिक्त महत्त्व नहीं दिया जा सकेगा. सुना है, राज कपूर के दिल में संगीत-निर्देशक बनने की महत्त्वाकांक्षा छुपी बैठी थी. पारंपरिक शास्त्रीय संगीत की तालीम तो उन्हें भी नहीं मिली थी. लेकिन कई वाद्य ठीक ठाक बजा सकने का जन्मजात हुनर उन्हें हासिल था. जिन्हें तबला और हार्मोनियम बजाने का मौक़ा मिलता है, ऐसे कई युवक बस, अपने आनंद के लिए ये वाद्य बजाया करते हैं. उसी तरह राज भी अपनी ख़ुशी के लिए तबला और हार्मोनियम बजाया करते थे.
आर.के. और एस. जे. मिलकर जिस तरह ‘हिट’ हुए उसके पीछे ‘संगीत को लेकर महज़ उनका बढ़ता चला जाता आपसी सहयोग’ नहीं था, बल्कि एक-दूसरे के प्रति आदर भी था और थी आधुनिकता और लोकपरंपरा का बेहतरीन मेल साधने की उनकी समझ ! ऐसा मेल कि दोनों धाराएँ आपस में मिलकर कहाँ एकाकार हुईं इसका पता ही न चले. चाहे फ़िल्म ‘बरसात’ का टाइटल साँग हो, चाहे ‘तीसरी क़सम’ का ‘सजन रे झूठ मत बोलो’, दोनों लोकधुनें स्ट्रिंग ऑर्केस्ट्रा में मिलकर एक हो जाती हैं.
राज कपूर की सांगीतिक कल्पनाओं का बिलकुल सही-सही मेल इस संगीतकार जोड़ी के साथ बैठ गया था. इस तरह इन तीनों ने अपने एरेंजर के साथ अगली दर्जन भर फ़िल्मों में बदलते वक़्त की रफ़्तार के साथ अपनी रफ़्तार बनाये रखी. (फ़िल्म ‘तीसरी क़सम’ आर. के. की फ़िल्म नहीं थी. लेकिन आर. के. की सारी विशेषताएँ उसमें थीं.
लोग समझते थे, आर. के. और शंकर-जयकिशन को एक-दूसरे से अलग करना नामुमकिन है. लेकिन आर. के. फ़िल्म्स के लिए और भी संगीतकारों ने काम किया है. पुरस्कार प्राप्त ‘जागते रहो’ इन्हीं में से एक है. क्या इस फ़िल्म के संगीत में आर. के. की कोई ख़ासियत झलकती है? इस फ़िल्म में गाने कौन-कौन-सी जगह पर होंगे यह तो ख़ुद राज कपूर ने ही तय किया होगा, इसमें मुझे शक नहीं. फ़िल्म ‘जागते रहो’ में हम देखते हैं पंजाबी लोकगीत ‘के मैं झूठ बोलिया’. इस गीत-प्रसंग में नाच-गाने के लिए इमारत के पंजाबी निवासियों को जुटाना अपने आपमें एक नयी बात थी. यह गाना बहुत ही सफल हुआ और बेहद चला. फ़िल्म में मोतीलाल नशे में एक गीत गाते हैं –‘ ज़िंदगी ख़्वाब है…’ यह गीत आर. के. की अपेक्षा सलिल चौधरी का अधिक लगता है. लेकिन जहाँ तक राग भैरव में बनाये आख़री गीत ‘जागो मोहन प्यारे’ का सवाल है, तो इस गाने का श्रेय पटकथा, गाना कहाँ पर रखा जाय इस बात को लेकर आर. के. की समझ और संगीत-निर्देशक- तीनों को समान मात्रा में देना होगा.
गाने की शुरुआत में -’जागो रे जागो रे, सब दुनिया जागी’ में पारंपरिक राग और ‘कॉयर सिंगिंग’ की अवधारणा का किया गया प्रयोग निरा रोमांचक है. कोरस के बैकग्राउंड पर लताजी का सुदीर्घ प्रभावोत्पादक आलाप फिल्म ‘बरसात में’ हमसे मिले तुम सजन’ की याद दिला देता है. इस गीत में भी लताजी का ऐसा ही सुदीर्घ आलाप है. लगता है, कोरस राज कपूर का ‘वीक पॉइंट’ था.
फिल्म ‘बूट पालिश’ वाला बच्चों का गीत हो या ‘इचकदाना’ (‘श्री ४२०’) या फिर ‘तीतर के दो आगे तीतर’ (‘मेरा नाम जोकर’) हो, इन सबमें कोरस पाया जाता है. दूसरी तरफ ‘बरसात’ और ‘जागते रहो’ के गीतों में वह छोटे-मोटे बारीक़ ब्योरों के साथ देखने को मिलता है. कोरस का इस्तेमाल कर उन्होंने गाने में निहित लोकसंगीत के मूल तत्त्व को रेखांकित किया है. कोरस का इस्तेमाल कर उन्होंने श्रोताओं के साथ बहुत-बहुत क़रीबी रिश्ता बना लिया है.
श्रोताओं के मन में राज और मुकेश एकरूप हो गये. ‘आग’ में वे पहली बार साथ-साथ हो लिए. दरअसल मुकेश ने १९४५ में फ़िल्म ‘अनोखी अदा’ के गीत ‘दिल जलता है तो जलने दे’ से फ़िल्म-जगत में अपने सफ़र की शुरुआत की थी. लेकिन इस गीत का सारा श्रेय सभी ने ग़लती से कुंदनलाल सहगल को दे दिया. अनिल विश्वास चाहते थे कि यह गाना सहगल की शैली में हो. इसलिए मुकेश ने अनिल विश्वास की ख़ातिर इसे सहगल की शैली में गाया. सी. एच. आत्मा सहगल की हूबहू नकल किया करते थे. हालाँकि मुकेश ने ऐसा नहीं किया था. इस गाने में उनकी अपनी संपन्न, गंभीर आवाज़ थी. चूँकि आवाज़ सानुनासिक थी इसलिए वह सहगल की-सी लगी थी, लेकिन उच्चारण और (आवाज़ की) पहुँच के चलते मुकेश बाद में भी एकल गायक के रूप में फ़िल्म उद्योग में अपनी जगह बना सके और बनाये रख सके.
राज कपूर जिस आवाज़ में बोला करते थे उसमें मुकेश की गाने की आवाज़ की कुछ ख़ासियतें मौजूद थीं. इसलिए राज कपूर पर उनकी आवाज़ बिलकुल ‘फिट’ रही.
शंकर-जयकिशन के संगीत-निर्देशन में राज कपूर के लिए मुकेश का गाया आख़री गीत था ‘जाने कहाँ गये वो दिन’ जो राग ‘मिश्र शिवरंजनी’ में बनाया गया था. नैचरल और फ्लैट थर्ड, नैचरल और फ्लैटी सिस्क्थ के इस्तेमाल की वजह से यह गीत यादों की दुनिया में पूरी तरह डूबा हुआ-सा महसूस होता है. स्ट्रिंग ओर्केस्ट्रेशन के चलते इसमें मिठास भरी हुई है. मगर यही तो आर. के. के बेहतरीन संगीत की पहचान है. वॉल्ट्ज़ की ताल, तंत्री वाद्यों का सुंदर, समृद्ध साथ, राग पर आधारित सादा, मगर दिल को छू लेनेवाली धुन- संक्षेप में यह थी राज कपूर के रोमांस की कुंजी!
संगीतकार कोई भी हो, गीत ‘राज कपूर’ का ही हो जाता. चाहे वह वॉल्ट्ज़ में बनाया फिल्म ‘बरसात’ का गीत (स्ट्रॉस से उठाया हुआ) हो या ‘संगम’ का ‘दोस्त दोस्त ना रहा’ हो. ‘बॉबी’ का ‘मैं शायर तो नहीं’ हो या ‘मेरा नाम जोकर’ का ‘जीना यहाँ मरना यहाँ’ हो.
फिल्मों में राज कपूर कई साज़ बजाते हुए पाए जाते हैं. एकॉर्डियन, बैगपाइपर, तबला, ट्रंपेट …ये सारे साज़ वे बड़ी अदा से, बड़ी सहजता से बजाते हुए नज़र आते हैं. ऐसा लगता है, हाथ में पकड़ा हुआ वह साज़ उन्हींके बदन का अभिन्न अंग है. दूसरे कुछ अभिनेताओं को लेकर यह नहीं कहा जा सकता. ‘बरसात’ में उन्होंने वायलिन बजाया था. आगे चलकर यह वायलिन आर.के. स्टुडिओज़ के स्थायी प्रतीक-चिह्न का एक हिस्सा बन गया. ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में उन्होंने एक बड़ी-सी डफली बजायी है. यह शीर्षक गीत बेहद लोकप्रिय हुआ. इसकी वजह यह थी कि जिस ख़ासियत को लेकर राज कपूर हमेशा सतर्क रहते थे वह ख़ासियत इस गाने में थी. और वह ख़ासियत थी- गीत के बोल! सही परिणाम साधनेवाले, दिल को छू लेनेवाले, भावना से ओतप्रोत, भावुक कर देनेवाले गीत के बोल!
देश के अलग-अलग भागों के गीतों को वे अपनी फ़िल्मों में ले आये. ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में चम्बल की घाटी की धुनें थीं. ‘बॉबी’ के ‘ना माँगूँ सोना चाँदी’ गीत में उन्होंने गोवा के लोकगीत का बेहतरीन इस्तेमाल किया. ‘राम तेरी गंगा मैली’ के ज़रिये वे हिमाचल प्रदेश की लोकधुनों को सिनेमा में ले आये. ‘बॉबी’ में एक पंजाबी लोकगीत भी है– ‘बेशक मंदिर मस्जिद तोड़ो’: नरेंद्र चंचल का यह गीत इस बात की बेहतरीन मिसाल है कि मूलत: एक बेहतरीन ग़ैर-फ़िल्मी गीत को उतने ही बेहतरीन ढंग से फ़िल्म में किस तरह समाहित किया जाता है. आसमान को जा भेदते ऊँचे सुर में गाये इस गीत ने नरेंद्र चंचल को पार्श्वगायन के क्षेत्र में रातों रात स्टार बना दिया. लेकिन यह शोहरत अधिक समय तक बनी न रह सकी. उनके गाये दूसरे गाने शोहरत की उस बुलंदी पर नहीं पहुँच पाए.
शंकर-जयकिशन ने जो गीत फ़िल्म-संगीत में ढालकर पेश किये उनमें से कुछ गीत मुकेश के बदले किसी और आवाज़ की माँग कर रहे थे. यह बात सिर्फ़ आर.के. की फ़िल्मों पर ही नहीं, दूसरी फ़िल्मों पर भी लागू होती है. ‘श्री ४२०’ के गीतों में से क़रीब क़रीब आधे गीत मन्ना डे के गाये हुए हैं. यही बात है ‘मेरा नाम जोकर’ के गीत ‘ए भाय, ज़रा देख के चलो ‘ की. ‘चोरी चोरी’- जो फ़िल्म ‘रोमन हॉलिडे’ का भ्रष्ट रूपान्तरण है – के लिए भी शंकर-जयकिशन ने ऐसा संगीत दिया है जो आर.के.की फ़िल्म में शोभा दे सके. इस फ़िल्म में राज ने मुख्य भूमिका निभायी थी और उनके लिए गीत मन्ना डे ने गाये थे. ‘आवारा” में भी कुछ गीत उनके गाये हुए थे.
लता मंगेशकर और मुकेश ने अपने कार्यकाल के कुछ बेहतरीन गाने आर. के. फ़िल्म के लिए गाये हैं. ‘आवारा’ का गीत है ‘दम भर जो उधर मुँह फेरे…’. इस गीत के बोल बड़े ही भावुक, बड़े ही रोमांटिक हैं. ‘आवारा हूँ’ और ’मेरा जूता है जापानी’ तो विदेशों में भी मशहूर हो गये थे. ‘सत्यम् शिवम् सुंदरम्’ का शीर्षक गीत अपनी सादगी और जोशीलेपन की वजह से एक यादगार गीत बन चुका है. ‘छोड़ गए बालम’ और ‘बरसात में ताक धिना धिन’ का शुमार लताजी के बेहतरीन गीतों में होता है.
जहाँ तक पार्श्वसंगीत का सवाल है, तो उसकी बात, हालाँकि, बिल्कुल अलग हो जाती है. पार्श्वसंगीत को लेकर राज कपूर का नज़रिया हॉलीवूड से प्रभावित था. वह इसतरह कि दृश्य स्तर पर जो बात साफ़-साफ़ बतायी जा रही होती है, उसे (पार्श्वसंगीत के ज़रिये) रेखांकित किया जाता है. वहाँ संगीत का न तो कल्पनाशील प्रयोग नज़र आता है न उसमें सूक्ष्मता ही पायी जाती है. सांकेतिकता की नज़ाकत वहाँ नदारद होती है.
भोली भाली भावना और भावविवश leitmotifs* को दर्शाने के लिए यहाँ सूक्ष्मता और सांकेतिकता की जगह धूमधड़ाक आवाज़ों का इस्तेमाल नज़र आता है. यह बात आमतौर पर सारे ही भारतीय पार्श्वसंगीत पर लागू होती है. आसान-से जवाब ढूँढ लिए जाते हैं. बड़ी आवाज़ और कानफोड़ू संगीत को निर्माताओं की दाद मिलती है. इससे साऊंड ट्रैक की ज़िम्मेदारी पूरी तरह गीतों पर आन पड़ती है. आर. के. फ़िल्म्स भी इसका अपवाद न थे. इससे हुआ यह कि जिन प्रसंगों में हल्के-फुल्के हास्य का छिड़काव ज़रूरी था या जिन प्रसंगों में तीव्र भावावेग की अंतर्धारा को रेखांकित करना था, उन्हीं को सबसे बड़ी हानि पहुँची. कई बार शंकर-जयकिशन एक फ़िल्म के गीत की धुन साज़ पर बजाकर उसका इस्तेमाल दूसरी फ़िल्म में पार्श्व संगीत के तौर पर किया करते थे.
(मसलन, ‘आवारा’ के आख़री हिस्से में जेल वाले प्रसंग में पार्श्वसंगीत के तौर पर उन्होंने जिस धुन का इस्तेमाल किया है, आगे चलकर उसीका गीत बना ‘ओ बसंती पवन पागल’)
हॉलीवूड की म्युज़िकल फ़िल्मों का हमारी फिल्मों की दृश्यात्मकता पर भी बड़ा प्रभाव रहा है. और आर. के. यहाँ भी अपवाद बनकर सामने नहीं आते. शार्कस्किन जैकेट्स, सालगिरह की पार्टी में पियानो पर गाया गीत, बादलों पर तैरते स्वप्न-दृश्य, लैटिन अमरीकी कॉम्बो वाले स्विमिंग पूल – संगीत के जानकार , संगीत के प्रेमी व्यक्ति के काम में पायी गयी ये त्रुटियाँ हैं.
पिछले चालीस सालों में भारतीय फ़िल्म संगीत में कई नये मोड़ आये हैं, उसपर कई नये प्रभाव पड़े हैं. इन चार दहाईयों के दरमियान सबसे प्रभावशाली जो व्यक्ति रहा है वह न तो कोई गायक है और न ही संगीत-निर्देशक. वह है एक फ़िल्मकार ! राज कपूर की संगीत की समझ और संगीत को लेकर उनकी सूझबूझ – इन दोनों ने उनके साथ काम करनेवाले संगीत-निर्देशकों का मार्गदर्शन किया है. अपनी फ़िल्म के लिए उन्हें जो सबसे असरदार बात लगी, वह उन्होंने अपने संगीतकारों से बनवा ली.
राज कपूर के पास था संपूर्ण विज़न. सही जगह, सही व्यक्तियों के गाये, सही ओर्केस्ट्र्रेशन वाले और सही ढंग से फ़िल्माये गए गीतों सहित बनकर तैयार हो चुकी पूरी फ़िल्म अपने मन की आँखों से देख पाने की क्षमता राज कपूर में थी. इन सुंदर गीतों के निर्माण में शंकर-जयकिशन और आर. के. के लिए जिन दूसरे संगीतकारों ने काम किया उनके योगदान को पूरा श्रेय जाता है ज़रूर. मगर जब ये गीत अभी निर्माणाधीन ही थे, अभी जो अपने पैरों पर खड़े भी न हो पाए थे, तब उनके प्रसव के दौरान दाई की भूमिका, फिर उनके पालनकर्ता की भूमिका, जो कि अपने आप में निर्णायक थी, राज कपूर ने निभायी होगी इसमें कोई शक नहीं. नहीं तो इतना बड़ा खज़ाना अपने पीछे छोड़ जानेवाली टीम की अखंडित सफलता का और क्या कारण दिया जा सकता है? और किस तरह?
इस संपन्न, समृद्ध संरचना के चार स्तम्भ थे- गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, गायक मुकेश, संगीतकार शंकर और जयकिशन. और प्रमुख आधार- स्तम्भ थे राज कपूर ! पिछली दहाई में एक के बाद एक स्तम्भ ढहते चले गये. जब शैलेन्द्र और जयकिशन चल बसे, तब राज ने कहा था, “आज मेरा जिस्म चल बसा”.
मुकेश के चले जाने पर उन्हें लगा, उनकी आवाज़ -उनकी आत्मा चल बसी. लेकिन हमने ‘राम तेरी गंगा मैली’ में लताजी का बेहतरीन गीत सुना और उसमें देखा कि सुरेश वाडकर ने मुकेश की ख़ाली जगह पूरी क्षमता के साथ भर दी है. यानी आवाज़ें उचित थीं. अपनी शोमैनशिप की तमाम ख़ासियतों के साथ राज कपूर ने गीत के प्रसंग फ़िल्माये थे. ऑर्केस्ट्रेशन लुभावना और सुखद था. ऐसा लग रहा था, राज कपूर परंपरा के संगीत की धारा में जो रुकावट आयी थी वह दूर हो गयी है. राज कपूर परंपरा के संगीत का वह भवन जो चुप हो गया था, सौभाग्य से वह फिर सुरों से गुंजायमान हो गया है. लेकिन फिर अचानक वह मुख्य आधार-स्तम्भ ही ढह गया.
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* leitmotifs: जर्मन संगीतकार रिचर्ड वाग्नर ने सबसे पहले ऑपेरा में इस अवधारणा को पेश किया. हालाँकि आज भी संगीत के क्षेत्र में इस अवधारणा का प्रयोग ऑपेरा के अलावा भी होता रहता है.
भास्कर चंदावरकर भारतीय एवं पश्चिमी संगीत के दिग्गज विद्वान संगीतकार भास्कर चंदावरकर पं. रविशंकर और पं. उमाशंकर मिश्रा से सितार की शिक्षा प्राप्त कर चुके थे. भारत, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड में सितार वादन के कई कार्यक्रम कर चुके हैं. अमरीका के विभिन्न विश्वविद्यालयों में संगीत का अध्यापन, सितार-वादन के कार्यक्रम करते रहे. पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, जापान, बांगलादेश आदि देशों में कलाविषयक संस्थाओं के सलाहकार, भारत और बांग्लादेश की सांस्कृतिक नीति निर्धारण समिति के सदस्य, 14 साल फिल्म ऐण्ड टेलीविज़न इन्स्टिट्यूट ऑफ इंडिया में संगीत का अध्यापन, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नैशनल इन्स्टिट्यूट ऑफ डिज़ाइन, इसरो, पंजाब और हरियाणा विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, मैनेजमेंट इन्स्टिट्यूट, बंगलौर आदि कई संस्थाओं में अतिथि प्राध्यापक. राष्ट्रीय फिल्म समारोह में 3 बार ज्युरी सदस्य और अल्माअटा (किरगिजस्तान) में वर्ल्ड जाज़ फेस्टिवल में दो बार ज्युरी सदस्य रह चुके हैं. हिंदी, मराठी, अंग्रेज़ी, कन्नड़, मल्यालम, उड़िया, जर्मन, जापानी आदि विभिन्न भाषाओं की फिल्मों और नाटकों, – जिनमें घासीराम कोतवाल,नागमंडल, आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस चरी ऑर्चर्ड, फाऊस्ट आदि विख्यात कलाकृतियाँ रही हैं- के संगीतकार और कई प्रांगणीय और रंगमंचीय प्रस्तुतियों के संचालक रह चुके हैं. ‘संगीत संवादु’ (कन्नड़), ‘वाद्यवेध’, ‘भारतीय संगीताची मूलतत्त्वे’, ‘चित्रभास्कर’, ‘रंगभास्कर’, ‘संस्कारभास्कर’ ( मराठी ) आदि पुस्तकों के लेखक एवं समय-समय पर कई पत्र-पत्रिकाओं में संगीतविषयक लेखन. नांदीकार पुरस्कार, बालगंधर्व पुरस्कार, लाईपत्ज़िश अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार, महाराष्ट्र और केरल राज्य सरकारों से पुरस्कृत, आकाशवाणी और दूरदर्शन के प्रोड्यूसर एमेरिट्स, संगीत-निर्देशक की हैसियत से कई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से सम्मानित. संगीत नाटक अकादमी द्वारा कलात्मक एवं सर्जनशील संगीत पुरस्कार. स्पेन में मराठी फिल्म-संगीत के लिए पुरस्कृत. |
रेखा देशपांडे माधुरी में अपनी पत्रकारिता की शुरुआत कर चुकी फिल्म-समीक्षक, लेखक, अनुवादक रेखा देशपांडे क्रमशः जनसत्ता, स्क्रीन और लोकसत्ता (मराठी दैनिक पत्र) में भी कार्यरत रही हैं. ‘रुपेरी’, ‘चांदण्याचे कण’, ‘स्मिता पाटील’, ‘नायिका’ (महाराष्ट्र राज्य साहित्य पुरस्कार 1997 प्राप्त), ‘मराठी चित्रपटसृष्टीचा समग्र इतिहास’, `तारामतीचा प्रवास– भारतीय चित्रपटातील स्त्री-चित्रणाची शंभर वर्षे’, ‘दास्तान-ए-दिलीपकुमार’ उनकी अबतक की प्रकाशित मराठी पुस्तकें हैं. अपनी पत्रकारिता के आरंभिक दौर में वे धर्मयुग के लिए कई अनुवाद कर चुकी हैं और अब तक मराठी, अंगेज़ी और कोंकणी भाषा से हिंदी में, अंग्रेज़ी से मराठी में उनके चालीस के क़रीब अनुवाद छप चुके हैं, जिनमें साहित्य, समाज, राजनीति, इतिहास आदि कई विषय और अगाथा ख्रिस्ती, जोनाथन गिल हॅरिस, जॉन एर्स्काइन, एम. जे. अकबर, डॉ. जयंत नारळीकर, गंगाधर गाडगीळ, शिवदयाल, उषा मेहता, विंदा करंदीकर आदि लेखकों की पुस्तकें शामिल हैं. अरुण खोपकर की पुस्तक ‘प्राक्-सिनेमा’ का उनका किया हिंदी अनुवाद जल्द ही प्रकाशित होने जा रहा है. वे अंतरराष्ट्रीय फिल्म-समीक्षक संगठन की सदस्य हैं और केरळ, बंगलोर, कार्लोव्ही व्हॅरी (चेक रिपब्लिक), कोलकाता, थर्ड आय मुंबई, ढाका (बांग्लादेश), हैदराबाद, औरंगाबाद आदी अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में समीक्षक ज्युरी की सदस्य की हैसियत से काम कर चुकी हैं. मराठी फिल्म कथा तिच्या लग्नाची की सहलेखिका रही हैं और 90 की दहाई में दूरदर्शन के धारावाहिक सावल्या(मराठी), आनंदी गोपाल (हिंदी) का पटकथा-संवाद-लेखन उन्होंने किया.
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सुंदर और ज्ञानवर्धक लेख l मानीखेज विश्लेषण l राज कपूर को गीत और संगीत की गहरी समझ थी l उन्होंने प्रारंभ में शैलेन्द्र जी के शीर्षक गीत ” आवारा हूं आवारा हूं” को शैलेन्द्र के मुख से सुनकर रिजेक्ट कर दिया था l फिल्म पूरी बन जाने के बाद उन्हें याद आया कि शैलेन्द्र ने आवारा हूं गीत सुनाया था l उन्होंने शैलेन्द्र को बुलाया और ख्वाजा अहमद अब्बास के पास ले गए , जो आवारा के लेखक थे l जब अब्बास ने सुना तो उन्होंने कहा यह गीत तो मेरी कहानी की आत्मा है इसे फिल्म में जरूर रखिए l शैलेन्द्र के मानीखेज अल्फाजों की की मधुर धुन शंकर जयकिशन ने अपने कर्णप्रिय साजों से बनाई और मुकेश जी ने अपनी मीठी करुणा और सोज से मिश्रित आवाज़ में गाकर इस गीत को कालजयी बना दिया l ये गीत भारत के साथ साथ सोवियत संघ और चीन में भी लोकप्रिय हुआ l साहिर बहुत बड़े शायर थे और वह दोस्तोवस्की के प्रसिद्ध उपन्यास ” अपराध और दंड” पर आधारित “फिर सुबह होगी” में अपने गीतों और नज़्मों के लिए खैयाम को संगीतकार के रूप में चाहते थे l राज कपूर फिल्म के अभिनेता चुने गए थे वह शंकर जयकिशन के पक्ष में थे l साहिर के कहने पर खैयाम साहब ने राज कपूर को दो तीन धुने सुनाई और राज कपूर बहुत प्रभावित हुए l खैयाम साहब को संगीत कार के रूप में मौका मिला l उन्होंने इस फिल्म के लिए कालजयी गीत रचे विशेष कर ” वो सुबह कभी तो आएगी ” l
मेरे लिए तो ये आलेख बेहद कीमती है इसमें मेरे मनचाहे संगीत और मुकेश जी का ज़िक्र है। बहुत बढ़िया आनंद आ गया। बहुत बधाई अरुण सर और लेखक को🙏🙏
Rekha, rajkapoor. ani thanchya kalakrti, sarvancha kiti kholat jaun vichar kelas. tu. Khoop chan vatle.
बहुत बढ़िया लेख है. भास्कर एक बारीक बात की ओर ध्यान खींचते हैं— अपनी फ़िल्मों के संगीतकार न होने के बावजूद अगर राज कपूर इन फ़िल्मों के संगीत को परिभाषित करते हैं तो इसका मतलब यह है कि सामूहिक कला-रूपों में कई सर्जकों के बीच समन्वय का काम करने वाला व्यक्ति भी कम बड़ा सर्जक नहीं होता. चूंकि फ़िल्म और रंगमंच जैसी कलाओं का आकलन अंततः उनके समग्र प्रभाव के आधार पर किया जाता है, ऐसे में शायद इन कलाओं को एक ऐसे समन्वयक की ज़रूरत पड़ती है जो उनके विभिन्न सूत्रों/आयामों आदि के बीच अन्विति क़ायम कर सके.
इस मामले में भास्कर चंदावरकर का यह उल्लेख महत्त्वपूर्ण है कि ‘सही जगह, सही व्यक्तियों के गाये, सही ओर्केस्ट्र्रेशन वाले और सही ढंग से फ़िल्माये गए गीतों सहित बनकर तैयार हो चुकी पूरी फ़िल्म को’ राज कपूर अपने ‘मन की आँखों’ से देख लेते थे.
संगीत पक्ष पर अनन्य आलेख। एक संगीतकार जब यह लिखता है तो कई सूक्ष्म पक्ष भी उजागर होते हैं। समालोचन पर विषय वैविध्य उत्सुक बनाए रखता है।
बहुत सुंदर !
अच्छा है लेकिन कुछ अधूरापन भी है। राजकपूर की फ़िल्म और फ़िल्म संगीत शैली में शंकर जयकिशन काल के बाद जो बदलाव आये उनका विश्लेषण भी होना था। अनुवाद की भी कुछ दिक्कतें होती हैं, फिर भी इसमें राजकपूर के संगीतबोध और पारम्परिक बैकग्राउंड म्यूज़िक को लेकर फ़िल्मी कमज़ोरियों पर दिलचस्प चर्चा की गयी है।
दूसरा राज़ कपूर नहीं होगा और न उनकी तरह संगीत की समझ रखने वाला निर्देशक भी।
अति सुन्दर विवेचन और विश्लेषण
बहुत बढ़िया !
“राजकपूर, द् ग्रेट शोमैन” कथन को पूर्णतः चरितार्थ करता हुआ यह लेख उनके गीतकारों, संगीतकारों और गायकों को साधुवाद है जिन्होंने राजकपूर की मन की आँखों को पढ़ा, गुना और फिर उसी में रमकर ‘राजकपूरमय’ हो गये। यही जादू समय-समय पर आम पब्लिक के सिर चढ़कर बोला। इस लेख का लुत्फ़ अनुवाद के जरिए मैं भी ले सकी, तो एक प्यार भरा संगीतमयी धन्यवाद तो रेखा देशपांडे के लिए बनता ही है। मल्टी फ़ेसेटेड् स्व भास्कर चंदावरकर जी को सादर साहित्यिक नमन।