सरहपा का सौन्दर्य
निरंजन सहाय
सरहपा पर विस्तार से बात करने के पहले बौद्धधर्म और सिद्धों के बारे में कुछ प्रारम्भिक तथ्य समझ लेना ज़रूरी है. गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्धधर्म दो भागों में विभाजित हो गया- हीनयान और महायान. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इनको बेहतर ढंग से बताया, उनके मुताबिक़, महायान अर्थात बड़ी गाड़ी के आरोहियों का दावा है कि वे ऊँचे-नीचे, छोटे-बड़े, सबको अपनी विशाल गाड़ी में बैठाकर निर्वाण तक पहुँचा सकते हैं, जहाँ हीनयान (या सँकरी गाड़ी) वाले केवल सन्यासियों और विरक्तों को आश्रय दे सकते हैं. बाद में फिर महायान के भी कई टुकड़े हो गए. इनमें सबसे अन्तिम टुकड़े हैं वज्रयान और सहजयान.
इसी तरह महायान की भी दो शाखाएँ हैं. द्विवेदी जी के अनुसार
“एक मानती है कि संसार में सब कुछ शून्य है, किसी की भी सत्ता नहीं और दूसरी शाखा वाले मानते हैं कि जगत् के सभी पदार्थ बाह्यतः असत् है, पर चित् के निकट सभी सत् है. एक को शून्यवाद कहते हैं और दूसरी को विज्ञानवाद.”
इतने सारे मतभेदों के बीच यह हम कह सकते हैं कि सरहपा का सम्बन्ध इसी सहजयान से है और सिद्ध इसी परम्परा में आते हैं.
दुनिया के इतिहास में कभी-कभी ऐसा विरल संयोग होता है जब जड़ता के बरअक्स तीव्र बदलाव का अविचल हिमायती और शास्त्रीय भाषा के बरअक्स जनभाषा का पक्षधर कोई ऐसा बुद्धिजीवी प्रकट हो जाये जो अपनी विलक्षण मेधा से अनेक दिशाओं को रोशन कर दे. सरहपा ऐसे ही बुद्धिजीवी थे. आर्थिक रूप से वैभवशाली घर में जन्मे, सामाजिक रूप से सम्मानित कुल के प्रतिनिधि, मेधा के ऐसे केन्द्र के रूप में ख्यात जो दो-दो विश्वविद्यालयों के आचार्य पद को धारण करे पर अपने परिवर्तनकामी अभियान के लिए इन सब वैभवों को त्याग कर शबर जनजातीय समूह का हिस्सा बन जाए और श्रम के सौन्दर्य का पुनर्सृजन करे. इन सब विशेषताओं के विरल संयोग की फलश्रुति हैं- सरहपा.
सरहपा चार आधुनिक भारतीय भाषाओं के पहले कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं. वे हिन्दी, बांग्ला, उड़िया और मैथिली के पहले कवि के रूप में याद किए जाते हैं. जीवन का अधिकांश उत्तरी भारत के नालंदा परिक्षेत्र में गुजारने के बाद उत्तरार्ध में वे श्रीपर्वत या नागार्जुनकोंडा (वर्तमान आँध्र प्रदेश ) चले गए.
उनकी पूरी जीवन यात्रा इस तथ्य को पुख्ता करती है कि उन्होंने अपनी जीवन यात्रा कार्यकर्ता बुद्धिजीवी के रूप में पूरी की. उनके जीवन और उनके समय के सिलसिले में अनेक तरह की समझ हिन्दी, बांग्ला और उड़िया संसार में प्रचलित है. हिन्दी संसार में भी इस स्थापना पर अनेक बहसें हुईं कि क्या उन्हें हिन्दी का पहला कवि और दोहाकोश को हिन्दी की पहली रचना मानी जाये? ज़रूरत इस बात की है कि उनसे सम्बन्धित स्पष्ट समझ बनायी जाये.
सरहपा से सम्बन्धित अनेक जनश्रुतियाँ और स्थापनाएँ हैं. लेकिन यह तथ्य निर्विवाद है कि साहित्येतिहास की परिधि, साथ ही उद्भवकाल की हिंदी, उड़िया, बांग्ला, मैथिली जैसी भाषाओं एवं भारत, तिब्बत तथा नेपाल में उनसे चर्चित आदिकालीन साहित्यिक व्यक्तित्त्व कोई और नहीं है. जनश्रुतियों ने उन्हें अग्र सिद्ध के रूप में भी स्वीकार किया. अग्र सिद्ध होने के कारण उनकी एक समृद्ध पंथ-परंपरा भी चली. अन्य शब्दों में सिद्धों की परम्परा उन्हीं से आरंभ हुई, जिनकी संख्या चौरासी है.
सरहपा के बारे में परस्पर विरोधी मत प्रचलित रहे. एक परम्परा उन्हें राजा धर्मपाल का समकालीन तो दूसरी परम्परा उन्हें रत्नपाल के समकालीन के रूप में परिकल्पित की है. उड़िया परम्परा ने उन्हें शुभाकर देव राजा का समकालीन माना और उनकी उपस्थिति आठवीं से नौवीं शती के बीच निर्धारित की है. विनयतोष भट्टाचार्य उन्हें सातवीं शती का मानते हैं, तो राहुल सांकृत्यायन आठवीं शती का और धर्मवीर भारती उनका समय नौवीं शती स्वीकार किया है.
यह एक सुविचारित नजरिया है कि किसी कवि के समय का निर्धारण करते समय शोधकर्ता सबसे पहले उनकी रचनाओं को परखने का काम करता है. फिर अभिलेखों, पुरातात्विक साक्ष्यों आदि की ओर रुख करता है. यदि इन उपायों से भी कोई स्पष्ट राह न बन पाए तो वह जनश्रुतियों, उनपर आधारित उपन्यासों या फिर कहानियों आदि की ओर भी ध्यान देता है. सरहपा के लिहाज से यह काम दुष्कर है. उनकी संपूर्ण रचनाओं का न मिल पाना इस लिहाज से सबसे बड़ी बाधा है, राहुल सांकृत्यायन को भरोसा था कि उनकी खोई हुई रचनाएँ कभी-न-कभी शोधार्थी ढूँढ़ निकालेंगे.
विश्वम्भरनाथ उपाध्याय ने सरहपा से सम्बन्धित घटनाओं और दर्शन को आधार बनाकर एक उपन्यास लिखा है– सिद्ध सरहपा. इस उपन्यास में तत्कालीन समाज में तथाकथित निम्न जातियों में फैले असंतोष और रोष के कारण पैदा होने वाले जनउभार से सरहपा की संवेदनशीलता के एकाकार होने का मार्मिक वर्णन है. उपन्यास सुन्दरता से उन समूहों द्वारा सरहपा के लिए प्रकट आत्मीयता का भी चित्रण करता है जहाँ उनकी ख्याति हर मुसीबतों से मुक्ति दिलानेवाले बाबा के रूप में है.
आमतौर पर सरहपा का समय आठवीं शताब्दी स्वीकारा जाता है. सिद्ध रचनाकारों पर विभिन्न विद्वानों ने शोध कार्य किया है, जिनके प्रयासों से आज सरहपा और उस धारा के विभिन्न कवियों की जानकारी मिलाती है. इन शोधकर्ताओं में पिशेल, हरमन याकोबी, चन्द्रमोहन घोष, म. म. पण्डित विधुशेखर शास्त्री, महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री, डॉ. प्रबोध कुमार बागची, मुनि जिनविजय, डॉ. शहीदुल्ला, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आदि मशहूर हैं. इनके प्रयासों से उस दौर की रचनात्मक साहित्य की रोशनी उपलब्ध है.
ज़रा उस दौर को समझें, जिस कालखंड से सरहपा का सम्बन्ध था. तत्कालीन समय की सभ्यता-समीक्षा करते हुए कुछ बातें बार-बार जेहन में उभरती है. वे किन भावभूमियों पर विचरते हुए एक ऐसे व्यक्तित्त्व में रूपांतरित हो गए, जिन्होंने स्वयं ब्राह्मण कुलोत्पन्न होने के बावजूद डिक्लास होने का जोखिम उठाया और तत्कालीन ब्राह्मण व्यवस्था को फटकारा. बौद्ध व्यवस्था को नयी भंगिमा अपनाने की राहों का संकेत दिया, तथाकथित ऊँच-नीच की मर्यादा को धता कर एक शर बनाने वाली कन्या के साथ सहजीवन का संकल्प लिया. ध्यान रहे ज्ञात भारतीय इतिहास में वह पहले सहजीवन की राह पर चलने वाले नायक कहे जा सकते हैं. राहुल सांकृत्यायन ने दोहाकोश में सरहपा के समय की विभिन्न परिस्थितियों पर रोशनी डालने की कोशिश की. धर्मवीर भारती ने भी विस्तार से इन मुद्दों पर विचार किया. विभिन्न ऐतिहासिक और धार्मिक-सांस्कृतिक परिधि की यात्रा का विश्लेषण करते हुए धर्मवीर भारती ने उस दौर के घात-प्रतिघातों की विवेचना की है. दरअसल हर दौर की तरह उस दौर में भी राजनीतिक सत्ता और धर्म सत्ता की साठ-गांठ ही इस बात का निर्धारण करती थी कि धर्म विशेष के प्रतिनिधियों और अनुयायियों का दौरे हिसाब क्या होगा.
विभिन्न इतिहासकारों ने अपने अध्ययनों में पाया कि सिद्धों को राजाश्रय प्राप्त था. इनमें कुछ लोकप्रिय सिद्ध तो स्वयं सम्राट भी थे. विश्वप्रसिद्ध नालंदा और विक्रमशीला जैसे प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों से भी उनका संबंध था. सम्राटों के धर्म के अनुसार ही विभिन्न धर्मों का पोषण या मर्दन भी होता था. जैसे- सिद्धों के समय बंगाल में पाल वंश, ओड़िशा में भौमकर वंश का राज था. कहना न होगा ये दोनों वंश सिद्धों के लिए उदार थे. लेकिन जल्द ही बौद्ध-सिद्धों के आकाश में शशांक रूपी कलंक मंडराने वाला था. बकौल धर्मवीर भारती,
“सिद्धों की समकालीन राजनीतिक परिस्थिति को भलीभांति समझने के लिए हर्ष और शशांक की प्रतिद्वंद्विता का थोड़ा- सा इतिहास जान लेना अत्यंत आवश्यक है. इसलिए नहीं कि वह एक पूर्वीय तथा एक मध्यदेशीय समाट की प्रतिद्वंद्विता थी, वरन् इसलिए कि उस प्रतिद्वंद्विता के मूल में शैव और बौद्ध प्रतिद्वंद्विता भी थी.”
(धर्मवीर भारती, सिद्ध साहित्य, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण 2016, पृष्ठ संख्या 43)
बौद्ध धर्म जब अपने सर्वाधिक सुनहरे दौर में पहुँचा तब पूर्वी भारत में नवीन धार्मिक शक्तिओं का उदय भी हुआ. जिन शैव मतावलम्बियों ने कभी सिद्धों में अपने आप को पराभूत कर लिया था, उन्हीं अनुयायियों में शशांक नामक एक सम्राट हुआ, जिसने सिद्धों को बहुत सताया. धर्मवीर भारती जी आगे लिखते हैं-
“शशांक के प्रारंभिक जीवन के विषय में अधिक नहीं ज्ञात है. 606 ई. के पूर्व वह सम्राट पद पर आसीन हो चुका था और बंगाल, उड़ीसा तथा मगध उसकी अधीनता में थे. शशांक बौद्धों का कट्टर शत्रु था. बुद्ध के पद चिह्नों वाला एक पत्थर गंगा में फिंकवा दिया था, बोधिवृक्ष की शाखाएँ कटवा डाली थीं और बुद्ध प्रतिमा को नष्ट कर शिव प्रतिमाओं की स्थापना करनी चाही थी.”
(धर्मवीर भारती, सिद्ध साहित्य, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण 2016, पृष्ठ संख्या 47 )
619 ई. में शशांक की मृत्यु हो गयी. घात-प्रतिघातों के उस दौर के अनेक दिलचस्प वाकये का चीनी यात्री ह्वेनसांग ने वर्णन किया है. मशहूर इतिहासकार रामशरण शर्मा ने हर्ष के बारे में लिखा है,
“हर्ष की धार्मिक नीति सहनशील थी वह आरम्भिक जीवन में शैव था, पर धीरे-धीरे बौद्ध धर्म का महान् सम्पोषक हो गया. एक नैष्ठिक बौद्ध हैसियत से उसने महायान से सिद्धान्तों के प्रचार के लिए कन्नौज में एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया. इस सम्मेलन में न केवल चीनी यात्री हुआन त्सांग और कामरूप के राजा भास्कर वर्मन् पधारे, बल्कि बीस देशों के राजा और विभिन्न सम्प्रदायों के कई हजार पुरोहित भी सम्मिलित हुए.
फूस के दो बड़े-बड़े घर बनाए गए, जहाँ हरेक में एक-एक हजार लोग टिक सकते थे. सबसे महत्वपूर्ण निर्माण था एक विशाल स्तम्भ का जिसके बीच में बुद्ध की एक स्वर्ण-प्रतिमा स्थापित थी. प्रतिमा की ऊँचाई उतनी ही थी जितनी हर्ष की अपनी ऊंचाई. हर्ष ने इस प्रतिमा की पूजा की और सार्वजनिक भोज दिया. सम्मेलन में शास्त्रार्थ का आरम्भ हुआन त्सांग ने किया. उसने बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय के उत्कर्ण का प्रतिपादन किया और श्रोताओं का आह्वान किया कि जो चाहें उसके तर्कों का खण्डन करें. लेकिन पाँच दिनों तक कोई भी खण्डन करने को खड़ा नहीं हुआ. तब उसके सैद्धान्तिक प्रतिद्वन्द्वियों ने उसे जान से मार देने की साजिश की. इस पर हर्ष ने चेतावनी दी कि जो कोई हुआन त्सांग को छूएगा भी उसका सिर काट लिया जाएगा.
अचानक इस महास्तम्भ में आग लग गई और हर्ष पर घातक हमला किया गया. तब हर्ष ने 500 ब्राह्मणों को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें निर्वासित कर दिया; कुछ ब्राह्मणों को तो मौत की भी सजा मिली. इससे प्रकट होता है कि वह धर्म के विषय में उतना सहनशील नहीं था जितना उसे बताया जाता है. कन्नौज के बाद उसने प्रयाग में एक महासम्मेलन बुलाया. इसमें उसके सभी सामन्त, मंत्री, सभ्य आदि उपस्थित हुए थे. इस अवसर पर भी बुद्ध की प्रतिमा का पूजन हुआ, और हुआन त्सांग ने प्रवचन किया. अन्त में हर्ष ने बड़े-बड़े दान किए और अपने शरीर के वस्त्रों को छोड़ सभी वस्तुओं का दान कर दिया. हुआन त्सांग ने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है. राजा उसके प्रति कृपालु था, शिष्ट था, और उपकारी था, तभी तो वह चीनी यात्री उसके साम्राज्य के विभिन्न भागों में पर्यटन कर सका.”
(रामशरण शर्मा, प्राचीन भारत, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद्, दिल्ली, पृष्ठ संख्या 219, वर्ष 1991)
बौद्ध धर्म मध्य एशिया में सातवीं सदी के अंत तक रही, बेगाराम और बामियान जैसे केन्द्र सातवीं सदी के अंत तक रहे, फिर इस्लाम ने बौद्ध संस्कृति को अपदस्थ कर दिया. इन सभी भावभूमियों का असर सरहपा जैसे सिद्धों पर पड़ा.
बाहरी और भीतरी उथल-पुथल के दौर में सरहपा ने दृढ़ता की वकालत की. यह दृढ़ता उथल-पुथल से पलायन का पक्षधर नहीं है. बल्कि यूँ समझें कि अपने सैद्धांतिक उद्घोष और समानता के हक में स्थिर प्रतिज्ञ होने का संकल्प है. सरहपा ने इस चित्त को वर्जित-अवर्जित अनुभवों में वज्रवत् दृढ़ रखने की वज्रयानी साधना चलाई थी, अतः उनकी साधनाओं को उनके दर्शन के संदर्भ में समझना और देखना चाहिए. दरअसल वह भोगी नहीं, योगी थे. लम्बे समय तक हिन्दी कविता की दुनिया से सरहपा समेत अन्य सिद्ध उपेक्षित रहे. उनकी कविता महज बौद्ध रहस्यवादी-तांत्रिक परिधि तक महदूद करने की व्याख्याएँ हुईं. लेकिन हिन्दी कविता में समता, न्याय और करुणा की इबारतों के साथ सरहपा आलोचनात्मक कविता के पहले प्रयोक्ता हैं. यह अकारण नहीं कि बच्चन सिंह अपने इतिहास में उन्हें हिन्दी संसार में आक्रोश की भाषा के पहले कवि के रूप में याद किया है. आक्रोश यानी तर्क सहित गुस्सा. इससे अलग नाथों के यहाँ आवेश (गुस्से) की प्रबलता है.
विश्वम्भरनाथ उपाध्याय ने सरहपा के सिलसिले में इस तथ्य की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा,
“वे आलोचनात्मक कविता के प्रथम प्रयोक्ता थे और उन्होंने हिन्दी-कविता का शुभारम्भ ही साम्यपरक दृष्टि से किया. वह साम्यवादी नहीं, साम्ययोगी साधक तथा कवि थे, अतएव हिन्दी कविता, साम्य, सत्यनिष्ठा, निष्कपटता, करुणा, प्रज्ञा (प्रातिभ ज्ञान) और प्राकृतिक जीवन के प्रति प्रेम और वैराग्य विरोधी, राग अनुरागमय, जीवनानुकूल प्रवृत्ति से पैदा हुई है. इस सत्य को पंडित-परम्परा के संकीर्ण शास्त्र और धर्म के खूँटे से बँधे, आलोचक नहीं समझ सके और रहस्यवाद के विरोध के नाम पर वे वाममार्गी सिद्धों के सामाजिक विद्रोह को प्रियता नहीं दे सके, यहाँ तक कि सिद्धों के चेतना धरातल की उच्चता और विलक्षण भेदभावातीत मानव प्रेम को भी नहीं पसन्द कर पाये.”
(विश्वम्भरनाथ उपाध्याय, भारतीय साहित्य के निर्माता सरहपा, प्रथम संस्करण, पृष्ठ संख्या 41-42, साहित्य अकादेमी,1996)
सरहपा ने दो तरह से अपने अनुभवों को साझा किया, अर्थात उनकी रचनाओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है. बकौल विश्वम्भरनाथ उपाध्याय,`सिद्ध कवि सरहपा साधना करते हैं और उन अनुभूतियों को कविता में बाँधकर प्रचारित करते हैं. कविता (दोहा + पद) यहाँ ‘प्रामाणिक अनुभव’ या दार्शनिक साधना से जुड़ी हुई है, यह मात्र मानव भावनाओं की कविता नहीं है, साधक या सिद्ध के अनुभवों और उनसे उत्पन्न भाय या अनुभूतियों की कविता है. ये भाव जन-सामान्य के प्रवृत्तिजन्य भाव नहीं है, बल्कि प्रवृत्तियों को प्रयोग (सामना) का विषय बनाकर उनमें रमण करते समय चेतना के ऊर्ध्वारोहण की दशाओं के संकेत, ध्वनि या गूँज या झंकृतियाँ हैं. इस दृष्टि से सरहपाद की साधना और कविता को पृथक सिद्ध नहीं किया जा सकता. कविता यदि गैरसाधनात्मक हो सकती है तो साधनात्मक भी हो सकती है. अतएव सरहपा के सारे ग्रन्थों की सूची यहाँ देना जरूरी है-
1. दोहाकोश गीति (राहुल सांकृत्यायन द्वारा सम्पादित)
2. दोहाकोश उपदेश गीति नाम
3. द्वादशोपदेश गाथा
4. स्वाधिष्ठान क्रम
5. तत्वोपदेश शिखर दोहागीति नाम
6. वसन्ततिलक दोहा
7. कायवाकचित्त अमनसिकार
8. दोहाकोश नामचर्यागीति
9. वाक्कोशरु चिरस्वर वज्रगीता
10. करवस्य दोहा नाम
11. भावनापूर्ण दृष्टिचर्या फलदोष दीपिका
12. महामुद्रोपदेश गुह्यगीति
13. हिन्दी कोश महामुद्रोपदेश
14. चित्तकोष अज वजगीता
15. सरह गीतिका (अ)
16. सरह गीतिका (ब)
17. कामकोष अमृतवज गीता
18. अधिष्ठानकाल साधन नाम
19. महाकाल स्त्रोत
20. श्री बुद्धकपाल साधन नाम
21. सर्वभूत बलिविधि
22. श्री वज्रयोगिनी साधन
23. श्री बुद्धकपाल नाम मण्डल विधिक्रम पद्यलोचन
24. सरहपादीय दोहा (अ)
25. सरहपादीय दोहा (ब)
26. त्रैलोक्य वंशकरावलोकितेश्वर साधन
27. त्रैलोक्य शंकर लोकेश्वर साधन
28. त्रैलोक्य शंकरलोकेश्वर साधन
29. त्रैलोक्य शंकरलोकेश्वर साधन
30. श्री बुद्धकपाल साधन (टीका) तथा श्री करवस्य दोहा टिप्पण
31. चित्तगुहय दोहा
32. चार मूल चर्चा गीति. सरह के नाम से प्रचलित इन बत्तीस पुस्तकों में सरह की प्रामाणिक रचनाएँ कितनी है, यह कहना कठिन है, परन्तु परम्परा, ‘दोहाकोश’ को सिद्ध सरह कृत ही मानती है.’ (वहीं, पृष्ठ संख्या-16-17)
सरहपा अपनी रचनाओं में सर्वाधिक महत्त्व सहज जीवन को देते हैं. सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे इस सिलसिले में अपने सम्प्रदाय के बाह्याचारों की भी मजम्मत करते हैं.
उपन्यास सिद्ध सरहपा की एक घटना उद्धृत की जा सकती है. सरह की योगिनी ने एक दिन भूत-प्रेत और देवता आदि के बारे में जिज्ञासा जाहिर की. सिद्ध सरहपा ने इस सिलसिले में बेहद मानीखेज राय दी,
“देवि, किन्हीं बौद्ध तांत्रिकों ने कहा है कि सब देवता मन के विकार होते हैं- सर्वेषु देवा मनसा विकाराः. बात यह है कि यह जो मनुष्य है इसके मन में न जाने कब से नाना प्रकार के भय भरे हुए हैं, इच्छाएँ और कल्पनाएँ भी अनन्त हैं. उनके अनुरूप मनुष्य भूत-प्रेत और देवादि की कल्पना करता है और उन्हें अपनी एकाग्रता से सिद्ध भी कर लेता है. देवपूजा या प्रेतपूजा यह आत्मपूजा ही है. यह जो शरीर है यह समूचे विश्व का लघु केन्द्र है. इस पिण्ड में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड है. इस कारण हम सिद्ध मार्ग में अपने अस्तित्त्व को ही पूजते हैं… हमें बाहरी उपासना की आवश्यकता ही नहीं है… हमीं में गंगा, हिमालय, सागर, मंदिर और शिवालय हैं- हममें सारे भूकम्प ज्वालामुखी उन्चास पवन, गुरुत्वाकर्षण, चुम्बक, निधियाँ, सिद्धियाँ सब विद्यमान हैं किन्तु इन्हें जगाना पड़ता है. ध्यान की एकाग्रता से, भयजाल से, अन्य अनेक उपायों से एक पिण्ड में सागर ब्रह्माण्ड की शक्ति जाग्रत हो सकती है. हाँ, सचमुच देवि, यह जो मानव शरीर है… तभी कहा गया है कि यह शरीर रहस्यमय’ कूटागार है-
एहि सरस्वती प्रयाग ऐहि सो गंगा सागर
क्षेमपीठ उपपीठ इति देह सदृश तीर्थ मैं सुनऊ न देखउ.
अनेक शरीरं कूटागारं समं चतुर्द्वारं
चाष्टभिरङ्गै रष्टस्तम्भैः शोभितं-मध्यमण्डलम्
रम्यं पञ्च तथागत पञ्चकामात्मकं पञ्चचक्रम्.
“सिरह गुरो, जब मनुष्य मात्र में यह शक्ति छिपी हुई है, तब ऊँची जाति वाले, हम छोटी जाति वालों को नीच क्यों समझते हैं? राज्ञी के ब्राह्मणों ने कितना बखेड़ा खड़ा किया!’
(उपाध्याय विश्वम्भर, पृष्ठ संख्या 66, वाणी प्रकाशन, दिल्ली,2012)
सरहपा ने ब्राह्मणों की तत्कालीन व्यवस्था को अंगीकार नहीं किया था. वे एक गैर ब्राह्मण कन्या के साथ रहने लगे थे, जिसे ब्राह्मणों ने कभी स्वीकार नहीं किया. वैचारिक रूप से भी सरहपा ने जात-पाँत की व्यवस्था का कभी समर्थन नहीं किया तथा ब्राह्मणों की श्रेष्ठता की धारणा का खंडन ही किया है. वैदिक परम्परा के अनुसार ब्राह्मणों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से हुई है. इसलिए जो कुछ भी इनके मुख में जाता है वह देवता ग्रहण करते हैं. भारतीय परम्परा की एक धारा के मुताबिक़ ब्राह्मण पवित्र हैं तथा श्रेष्ठ हैं. सरहपा ने इस धारणा का तीव्रतापूर्ण खंडन किया तथा कहा–
ब्रह्मणेहि म जानन्तहि भेउ I एवी पढ़िअउ ए च्चउवेउ II
मट्टि त्पाणि कुस लई पढन्त I धरहिं बहसी अगगि हुणन्तं II
कज्जे विरहिअ हुअवह हेम्में I अक्खि ड़हा विअ कुडुअें घूमें II
एक दण्डि त्रिदण्डि भअवै वेसें I विणुआ होइअई हँस उएसे II
मिच्छेहि जग वाहिअ भुल्लें I धम्माधम्म ण जाणिअ तुल्ले II
अर्थात वे ब्राह्मण बिना ज्ञान के चारों वेद पढ़ते हैं. ये लोग वेद के भेद को तो जानते ही नहीं. मिट्टी, पानी, हरी दूब सामने रखकर तथा अग्नि प्रज्वलित कर पूजा करने बैठ जाते हैं. ये लोग बिना मतलब के अग्नि में हवन-सामग्री जलाते हैं तथा उससे उत्पन्न घुएं से आंखों से आँसू बहाए जाते हैं. कभी ये एक दण्ड पर खड़े होते हैं तो कभी तीन दण्ड पर खड़े होते हैं. भगवा वेश इनका आभूषण है. अपने को विद्वान समझकर हंस को उपदेश देते हैं.
(कुमार डॉ. रमाइन्द्र, पृ. 29 और 41दोहाकोश: भाषा वैज्ञानिक अध्ययन, माँ पार्वती बैजनाथ प्रकाशन, दिल्ली,1993)
सरहपा के इन विचारों की अनुगूँज हमें बाद की कड़ियों जैसे- कबीर और अन्य निर्गुण भक्त कवियों की रचनाओं में भी नज़र आती हैं.
गौरतलब है सरहपा ने केवल ब्राह्मणवाद का ही खण्डन नहीं किया, अपितु अन्य सम्प्रदायों की भी मजम्मत की है. उदाहरण के लिए उन्होंने पाशुपत मत के खण्डन में लिखा कि ये सिर पर लम्बी-लम्बी जटाएँ धारण किए रहते हैं. कई बार ऐसा भ्रम होता है मानो इसका भी कोई अर्थ हो, जबकि ऐसा है ही नहीं.
घर ही बइसी दीवा जाली l कोणहिं बइसी घण्टा चाली II
अख्खि णिवेसी आसण बन्धी l कण्णेहिं खुसखुसाइ जण धन्धी II
यानी ये लोग घर में बैठकर दीपक जलाते हैं और एक कोने में बैठकर घण्टी बजाते हैं. फिर आँखे मूँद कर आसन लगा लेते हैं. पता नहीं ये ढोंग क्यों करते हैं? फिर आगे वे कहते हैं कि ये इस अन्धी (मूर्ख) जनता को ठगने के लिए कानों में फुसफुसाते हैं. सरहपा कहना चाहते हैं कि इन उपायों से ये ठग लोग ‘जनता को भुलावे में रखते हैं. इन लोगों के ऐसे बाह्याचार इन्हें विशिष्ट बनाते हैं, ताकि इनके स्वार्थ की सिद्धि हो सके. जैनियों के बारे में सरहपा का मत है कि ये बड़े-बड़े नाखून वाले नंगे घूमते रहते हैं तथा सारे शरीर के बाल उखड़वाते हैं. सरहपा की राय है-
जइ णग् गाविअ होइ मुत्ति, ता सुणह सिआलह
अर्थात यदि नंगे रहने से मुक्ति मिलती है तो कुत्ते और सियार को भी मुक्ति मिल ही जाती होगी. वे तो नंगे ही रहते है हैं. अपना शरीर नहीं ढकते. सरहपा का मानना है कि इनसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता. सरहपा ने उन पारम्परिक बौद्धों की भी आलोचना की जो तपस्या के लिए वनों में जाते हैं-
किन्तहि न्तित्थ तपोवण जाइ l मोक्ख कि लब्भइ (पाणीन्हाइ ll
च्छड्डहु रे आलीका बंधा) l सो मुञ्चहु जो (अच्छहु धन्धा) ll
अर्थात निर्वाण वन जाकर तपस्या करने से हासिल नहीं होता और न ही जल में नहाने से हासिल होता है. सरहपा इन सबको पाखंडी मानते हैं और उन्हें सलाह देते हैं कि इन मिथ्या प्रपंचों को छोड़ दो. इस तरह सरहपा ने अपने समय में व्याप्त पाखण्ड और बाह्याचार का खण्डन किया.
सरहपा का विचार था आत्मा शून्य है और संसार भी शून्य है. शून्य और निरंजन ही परम पद है. इसमें पाप और पुण्य कुछ नहीं होता. परमपद का ज्ञान प्राप्त होने पर ही आपको सिद्धि मिल सकती है. परमपद महासुख की एक अवस्था का नाम है. यह महासुख देता कौन है? इस पर सरहपा ने कहा कि महामुद्रा ही महासुख दिलाती है. इसको प्राप्त करने के लिए पवित्र या अपवित्र का विचार नहीं करना चाहिए. महासुख की प्राप्ति के बाद चित्त का भटकना बन्द हो जाता है. महामुद्रा का कोई विकल्प नहीं है. वे मानते थे चित्त से चिन्ता को निकाल देना चाहिए. इस चित्त को जबरदस्ती बाँधना गलत है और बिलकुल स्वतन्त्र छोड़ना भी गलत है. चित्त की इस सहज अवस्था को न तो गुरु बता सकता है और न शिष्य समझ सकता है. यह सहज अमृत के समान है. जहाँ इन्द्रियाँ समाहित हो जाती हैं, विषय की इच्छा भी नष्ट हो जाती है, चित्त का अन्तर भी मिट जाता है. वहाँ जो आनन्द प्राप्त होता है, वही महासुख है.
इसलिए सरहपा कहते हैं कि
घर में रहिए, पत्नी के साथ रहिए, साधुवेश और ध्यान सब छोड़ दीजिए. बालक की तरह रहिए. बच्चा जैसा चाहता है, वैसा ही करता है. यदि चित्त के विपरीत कार्य किया तो दुःख अवश्य मिलेगा. इसलिए नाचो, गाओ और अच्छी तरह आनंद प्राप्त करो. यही योग है.
यहाँ यह भ्रम हो सकता है कि सरह भोग के कायल थे. पर ऐसा है नहीं. राहुल सांकृत्यायन ने इस सिलसिले में मौजू टिप्पणी की है. पहले उन्होंने सरहपा को उद्धृत किया है, फिर उसके हवाले अपना विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं-
देक्खउ सुणउ पईसउ साद्दउ जिग्घउ भभउ बईसउ उट्ठउ ll
आलमाल बवहारे बोल्लउ मण च्छुडु एकाआरे म्म चलउ ll
चिंताचित्तवि परिहरहु, तिम अच्छहु जिम बाल ll
स्पष्ट है कि सरह जीवन के भोगों को त्याज्य नहीं मानते थे. हाँ, उनमें आसक्ति त्याज्य है. उपनिषद् के संतों ने उनसे डेढ़ हज़ार वर्ष पहले, `बाल्येन तिष्ठासेद्’ का उपदेश दिया था. सरह भी कहते हैं, वैसे रहो जैसे बालक रहता है.’
(सांकृत्यायन राहुल, पृष्ठ संख्या 28 दोहा -कोश, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना)
सरहपा ने अपना सारा जीवन एक क्रान्तिकारी और कार्यकर्ता बुद्धिजीवी की तरह जिया और प्रचलित परम्परा को न कहने का उत्कट जयघोष किया. बकौल राहुल सांकृत्यायन,
‘सरह के समय में पहुँचते-पहुँचते संस्कृत और प्राकृत दोनों साहित्यों का मध्याह्न बीत चुका था. अश्वघोष, भास, कालिदास के काव्य नाटक अब तक प्रसिद्ध हो साहित्यानुरागियों के प्रेम-भाजन बन चुके थे. सुबंधु, दंडी और बाण जैसे महान गद्यकार कवि भी हो चुके थे. भामह और दण्डी जैसे उद्भट साहित्य-मीमांसक भी उस समय तक प्रसिद्धि पा चुके थे. प्रवरसेन की कृति भी सागरस्य परम पार चल चुकी थी. सरहपाद पहले संस्कृत के महापंडित के तौर पर नालंदा में प्रसिद्ध हुए थे. उन्होंने इन काव्य-निधियों का अच्छी तरह अवगाहन किया था. वह चाहते तो अपने समय की शिष्ट सरणी का अनुसरण करते उच्च समाज में एक सफल कवि के तौर पर ख्याति प्राप्त कर सकते थे. पर उन्होंने शिष्ट साहित्य की जगह लोकसाहित्य का अनुसरण करना पसंद किया, और अपने मन से यह भावना निकाल दिया कि कभी मैंने उन ग्रन्थों का अध्ययन किया था.’
(सांकृत्यायन राहुल, पृष्ठ संख्या 22 दोहा -कोश, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना)
कहना न होगा यह हिन्दी की विरासत की शुरुआत है, जो जनपक्षधरता को अपनी यात्रा का प्राणवायु आरम्भ में ही घोषित कर देती है.
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चौरासी सिद्धों के नाम
1. लूहिपा | 22. तिलोपा | 43. मेकोपो | 64. चवरि(जवरि) |
2. लीलापा | 23. क्षत्रपा | 44. कुड़ालिपा (कुद्दलिपा) | 65. मलिभद्र (योगिनी) |
3. विरूपा | 24. भद्रपा | 45. कमरिपा (कम्मरिपा) | 66. मेखलपा (योगिनी) |
4. डोम्भीपा | 25. दोखंधिपा (द्विखंडिपा) | 46. जालंधरपा (जालन्धारक) | 67. कनखलापा (योगिनी) |
5. शबरीपा | 26. अजोअिपा | 47. राहुलपा | 68. कलकलपा |
6. सरहपा | 27. कालपा | 48. धर्मरिपा (धर्मरि) | 69. कन्ताली (कन्थाली) पा |
7. कंकालीपा | 28. धोम्भिपा | 49. धोकरिपा | 70. धहुलिररिपा (दबड़ीपा ?) |
8. मीनपा | 29. कंकड़पा | 50. मेदनीपा (हालीपा) | 71. उधनि(उधालि)पा |
9. गोरक्षपा | 30. कमरिपा (कम्बलपा) | 51. पंकजपा | 72. कपाल(कमल)पा |
10. चोरंगीपा | 31. डेंगिपा | 52. घण्टा (वज्रघण्टा)पा | 73. किलपा |
11. वीणापा | 32. भदेपा | 53. जोगिपा (अजोगिपा) | 74. सागरपा |
12. शान्तिपा | 33. तन्धेपा(तंतिपा) | 54. चेलुकपा | 75. सर्वभक्षपा |
13. संतिपा | 34. कुकुरिपा | 55. गुण्डरिपा (गोरुरपा) | 76. नागबोधिपा |
14. चमरिपा | 35. कुचिपा (कुसूलिपा) | 56. लुचिकपा | 77. दारिकपा |
15. खङग्पा | 36. धर्मपा | 57. निर्गुणपा | 78. पुतुलिपा |
16. नागार्जुन | 37. महीपा (महिलपा) | 58. जयानन्त | 79. पहनपा |
17. कण्हपा | 38. अचिन्तिपा | 59. चर्पटीपा (पचरीपा) | 80. कोकालिपा |
18. कर्णरिपा (आर्यदेव) | 39. भलहपा (भवपा) | 60. चम्पकपा | 81. अनंगपा |
19. थगनपा | 40. नलिनपा | 61. भिखनपा | 82. लक्ष्मीकरा |
20. नारोपा | 41. भूसुकपा | 62. भलिपा | 83. समुदपा |
21. शलिपा (शीलपा) शृंगालीपाद | 42. इंद्रभूति | 63. कुमरिपा | 84. भलि(व्यालि)पा |
निरंजन सहाय फरवरी, 1970; आरा, बिहार प्रकाशन: ‘केदारनाथ सिंह और उनका समय’, ‘आत्मानुभूति के दायरे’, ‘प्रपद्यवाद और नलिन विलोचन शर्मा’, ‘शिक्षा की परिधि’, ‘जनसंचार माध्यम और विशेष लेखन’, ‘कार्यालयी हिन्दी और कंप्यूटर अनुप्रयोग’. महादेवी वर्मा: सृजन और सरोकार, हिन्दी गद्य: स्वरूप, इतिहास एवं चयनित रचनाएँ आदि सम्प्रति: |
बहुत सुंदर आलेख
शोधपूर्ण और रोशनी प्रदान करने वाला निबंध।
सर इस लेख को आधा पढ़कर लगा प्रिंट निकाल कर पढ़ना चाहिए, बेहतरीन लेख!
सरहपा के कई पहलुओं को समझने में बेहद मददगार।
आपको इसके लिए बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं।
आभार निरंजन जी के प्रति कि उन्होंने इतिहास के ऐसे अध्याय से अवगत कराया जो बहुत कम प्रकाशित था।। सरहपा और उनके साहित्यिक अवदान के बारे में जानना बहुत ज्ञानवर्धक है। तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में यहाँ जानकारी मिलती है।
चौरासी सिद्धों में पा प्रत्यय की तरह सभी नामों के साथ जुड़ा है। यदि पा के बारे खुलासा हो तो अच्छा हो।
समालोचन का भी आभार।
सिद्ध सरहपा पर राहुलजी का लंबा और क्रांतिकारी विश्लेषणात्मक लेख उपलब्ध है जो हिंदी साहित्य के इतिहास को सातवीं शताब्दी तक ले जाता है।
बौद्ध धर्म के आधुनिक अध्येता हीनयान पद का प्रयोग नहीं करते। उनके लिए थेरवाद पद का प्रयोग किया जाता है। थेरवाद सबसे प्राचीन माना जाता है। महायान, वज्रयान, नवयान इत्यादि, उसके बाद अलग हुए पंथ हैं।
आदरणीय गुरुवर के चरण स्पर्श आपका यह शोध पूरा पढने से सरह के बारे मे जो जानकारी प्राप्त हुई और सरह का जीवन और व्रजयान का देखने के नजरिया मे बदलाव आया मै तो व्रजयान को केवल तांत्रिक प्रयोगो और जैसा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी अपने इतिहास की पुस्तक में व्रजयान को बोध्द धर्म विकृत रूप तक कह दिया था , पर आपके इस शोध को पढने से यह भ्रम दूर हो गया सरह के बारे मे नित्य प्रति कक्षाओं में आप चर्चा परिचर्चा करतें रहे है परन्तु आप के इस शोध को पढने के बाद बहुत ही भ्रम का नाश हो गया जो समझ सरह के जीवन से हमें प्रेरणा लेने मे सहायक होगी जो धार्मिक आडम्बर पर सरह ने चोट की वह आधुनिक समाज मे बिल्कुल होनी चाहिये … इन्हीं शब्दों से आदरणीय गुरुवर के पुनः चरण स्पर्श
अच्छा लेख है, लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि सरहपा पर नई चीजें नहीं आ रही हैं। गौर करें तो उनका जो भी खोजा गया है उसका स्रोत काठमांडू और ल्हासा है और खोज का समय 1910 के आसपास शुरू होकर 1930 तक खत्म हो जाता है। पुरातत्व वाले और भाषाशास्त्री उन्हें तमाम अटपट सिद्धों में एक मानकर अलग से कुछ कर नहीं रहे। सारा कुछ अवहट्ट से हिंदी में अनूदित कुछ गिने-चुने अंशों की साहित्यिक व्याख्याओं तक सिमटा हुआ है। यह चिंतक कवि साहित्य से ज्यादा भारतीय इतिहास की वस्तुगत समझ के लिए महत्वपूर्ण है, यह रेखांकित किए बिना गतिरोध नहीं टूटेगा।
बहुत शुक्रिया। महाज्ञानी सिद्ध सरहपा के बारे में इतनी गूढ़ और महत्वपूर्ण जानकारियां उकेरी , जो कन्यत्र कहीं सरलता से नही मिलती। सहारपा ने अपने विज्ञान को सहज योग नाम दिया। उनकी दृष्टि में सहजता से ही ईश्वर को पाया जा सकता है। ध्यान प्राप्ति के लिए मन तथा शरीर का सहज , सरल होना आवश्यक है।इसे की कबीर ने कहा है , साधो सहज समाधि भली…।
ऐसे जनोपयोगी लेख के लिए आपको पुनः बधाई…।
सरहपा के विषय में इतनी तथ्यपूर्ण और शोध परक दृष्टि विकसित करने हेतु आभार । साहित्य का यह योद्धा आपकी कलम के स्पर्श से पुनः जाग्रत हो गया ।आपके इस आलेख ने सरहपा के प्रति मेरे ज्ञान चक्षुओं को उन्मीलित किया है।मैं एम ए की छात्राओं को और भी गहराई से पढ़ा सकी।धन्यवाद
इस लेख से न केवल सरहपा बल्कि सहजयान व हर्ष से संबंधित भी काफी जानकारी प्राप्त हुई, सरहपा को जानने,समझने का फलक और व्यापक हुआ है, साथ ही सरह के बारे में कई रोचक और दुर्लभ जानकारियाँ भी प्राप्त हुईं।
बेहतरीन लेख।
यह तो स्पष्ट है कि नालंदा विश्वविद्यालय का जलना भारतीय साहित्य और बौद्ध साहित्य की बहुत बड़ी क्षति है और शायद सरहपा और विशद जानकारी मिलती। लेकिन यह शोध आलेख ने और बहुत कुछ जानने का द्वार खोल दिया है।
– राम प्रसाद यादव